शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

कथावार्ता : राजेश जोशी की कविता, बच्चे काम पर जा रहे हैं।

सुबह घना कोहरा घिरा देखकर प्रख्यात कवि राजेश जोशी की कविता याद आई - 

"बच्चे काम पर जा रहे हैं।"

कविता बाद में, पहले कुछ जरूरी बातें।


इस कविता में प्रारंभ में ही आता है - 

"कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्‍चे काम पर जा रहे हैं

सुबह सुबह

बच्‍चे काम पर जा रहे हैं

हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह।"

लेकिन बच्चे काम पर न जाकर अगर विद्यालय ही जा रहे होते, जैसा कि बाद में दर्ज हुआ है, ऐसी कोहरे से भरी सड़क पर तो यह भी भयावह होना चाहिए।


राजेश जोशी की यह कविता उद्वेग में लिखी गई है। वह लिखते हैं कि यह हमारे समय की भयावह पंक्ति है। इसे विवरण की तरह नहीं, 'सवाल' की तरह पूछा जाना चाहिए। कितना अच्छा होता कि विवरण के प्रतिपक्ष में प्रश्न रखा जाता सवाल नहीं। तथापि।

कोहरे से ढंकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं, यह भयानक है, बच्चों को ऐसे में खेलना चाहिए। कवि प्रश्न कर रहा है कि क्या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें?  उसका मंतव्य यह है कि बच्चों को खेलना चाहिए किन्तु इसके लिए वह गेंद के अन्तरिक्ष में गुम हो जाने का रूपक लिया है। कोहरे में गेंद ठीक से दिखती नहीं, इसलिए गेंद वाला कोई भी खेल करना अच्छा नहीं होता। अतः कोहरे के दौरान खेल का कोई दूसरा रूपक रचना चाहिए था। बच्चे कबड्डी खेल सकते थे, चिक्का या छिपने वाला कोई खेल।

कोहरे में बच्चे रंग बिरंगी पुस्तक पढ़ें, यह कामना सुन्दर है। वह खेलें, खिलौनों से; यह भी होना चाहिए। लेकिन मदरसे की इमारतों से उनका क्या लेना - देना। कवि लिखता है - 

"‍क्या किसी भूकंप में ढह गई हैं

सारे मदरसों की इमारतें।"

कोहरे से ढंकी पृथिवी पर बच्चे मदरसे में क्यों जाएंगे? वह अपने घर में रहें। नर्म और मुलायम, गद्देदार बिस्तर पर, अथवा अंगीठी के पास अथवा किसी सूखे "पहल" पर धमाचौकड़ी करें। मदरसे में क्यों जाएं? अपने घर में सुरक्षित क्यों न रहें।

फिर कवि यह कविता लिखते हुए मदरसों का उल्लेख क्यों करता है? विद्यालय क्यों नहीं कहता। अथवा स्कूल या कालेज? राजेश जोशी अपनी कविताओं में सायास ऐसे प्रयोग करते हैं। ऊपर सवाल के सम्बन्ध में यह जिज्ञासा उगी थी। मदरसा के प्रयोग पर यह मुखर हो गया है। मदरसा कतई अति व्यवहृत और प्रचलित शिक्षण संस्थान नहीं हैं। विद्यालय अथवा कालेज हैं। फिर मदरसा का प्रयोग क्यों है? क्या काम पर जाने वाले बच्चों का सम्बन्ध मदरसों से ही है? यह बहुत स्पष्ट है कि मदरसा इस्लामिक पद्धति से अध्ययन अध्यापन का केंद्र है जहां कुरआन और हदीस प्रमुख अध्ययन सामग्री है। जिसे हम आधुनिक शिक्षा मानते हैं, उससे मदरसे अद्यतन अछूते हैं। उसके मुकाबले विद्यालय और स्कूल अधिक उन्नत भी हैं और ज्ञान विज्ञान की अद्यतन अवधारणा से सम्पन्न भी।

इसीलिए ऊपर स्थापना की गई है कि यह कविता उद्वेग में लिखी गई है, जबकि इसे प्रशांति की दशा में लिखा जाना चाहिए। कविता पढ़ते हुए जब हम यह विवरण देखते हैं कि दुनिया में  "हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल" तो इस हस्बमामूल पर फिर टिकने और विचार करने का मन करता है। यह अपेक्षाकृत कठिन शब्द प्रयुक्त हो गया है। हस्बमामूल अर्थात ज्यों की त्यों। यथास्थिति में। पूर्ववत। ऐसा नहीं है कि हस्बमामूल छंद अथवा सौंदर्य की विवशता में प्रयुक्त हुआ शब्द है। वह सवाल, मदरसा और इमारतों के प्रवाह में आया है। इसलिए समस्त प्रकरण एक विशेष मनोदशा का परिचायक बन जाता है। उद्वेग में लिखे जाने के बावजूद,  इस कविता में -
"दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुज़रते हुए
बच्‍चे, बहुत छोटे छोटे बच्‍चे" 
का उल्लेख होने के बावजूद यह कविता एक संकरी गली से रास्ता बनाती हुई दिखने लगती है। यह कविता सीबीएसई के पाठ्य क्रम में कक्षा नौ में शामिल है।

पूरी कविता पढ़िए।


कविता

बच्चे काम पर जा रहे हैं - राजेश जोशी


कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
सुबह सुबह

बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह
काम पर क्‍यों जा रहे हैं बच्‍चे?

क्‍या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
क्‍या दीमकों ने खा लिया हैं
सारी रंग बिरंगी किताबों को
क्‍या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
क्‍या किसी भूकंप में ढह गई हैं
सारे मदरसों की इमारतें

क्‍या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन
खत्‍म हो गए हैं एकाएक
तो फिर बचा ही क्‍या है इस दुनिया में?
कितना भयानक होता अगर ऐसा होता
भयानक है लेकिन इससे भी ज्‍यादा यह
कि हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल

पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुज़रते हुए
बच्‍चे, बहुत छोटे छोटे बच्‍चे
काम पर जा रहे हैं।

2 टिप्‍पणियां:

The New Kid ने कहा…

Rajesh joshi
Bachche kaam par ja rahe hain.

Kathavarta

Shatrughn Singh ने कहा…

आपने इस कविता की बारीक पड़ताल करते हुए जरूरी प्रश्न उठाए हैं। निश्चित रूप से इन पर विचार होना चाहिए।

सद्य: आलोकित!

सच्ची कला

 आचार्य कुबेरनाथ राय का निबंध "सच्ची कला"। यह निबंध उनके संग्रह पत्र मणिपुतुल के नाम से लिया गया है। सुनिए।

आपने जब देखा, तब की संख्या.