तरुणाई में पढ़े हुए किसी पाठ का, अगर वह भा गया हो और हमेशा बेहतर के लिए प्रेरित करता हो, असर लंबे समय तक बना रहता था। हिंदी पाठ्यक्रम में रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा रचित 'गेंहू बनाम गुलाब' ऐसा ही था। गेंहू श्रम का प्रतीक था और गुलाब विलासिता का। उस पाठ की पहली ही चर्चित पंक्ति थी, 'गेंहू हम खाते हैं, गुलाब सूँघते हैं। एक से शरीर की पुष्टि होती है, दूसरे से मानस तृप्त होता है।' हम मेहनतकश लोगों में थे। गेंहू उगाते थे। हाड़तोड़ श्रम करते थे और खुश रहते थे। हमारा बड़ा सा दुआर था और गांव-जवार में प्रतिष्ठित परिवार के माने जाते थे, तो बाबूसाहबी में गुलाब की क्यारियां लगाते थे। नेहरू को अपने कोट में खोंसे हुए गुलाब के साथ चित्रों में देखते थे तो अपनी शर्ट के ऊपर वाली काज में खिले हुए गुलाब को अटकाए फिरते थे और रह-रहकर सूंघते थे। यह बताने में कोई लज्जत नहीं है कि हाथ से गोबर वाली गंध सुबह उठाने के बाद दिनभर बनी रहती थी। तो ऐसे में जब 'गेंहू बनाम गुलाब' पढ़ा गया तो सहज ही गेंहू के पक्ष में हो लिया गया। नेहरू विलासी लगने लगे। इत्र फुलेल बकवास लगने लगा। हम मेहनतकश थे और उनके साथ खड़े होने में अपनी शान समझने लगे। तब मिथुन और अमिताभ (मर्द, कुली और दीवार तथा कालिया वाला) हमें प्रिय लगने लगे। खैर, ऐसे में यह पाठ हमें बहुत प्रिय हो गया। माटी की मूरतें और गेंहू बनाम गुलाब के रचनाकार रामवृक्ष बेनीपुरी हमारी स्मृति में अमिट हो गए। बाद में विद्यापति पदावली पर उनका काम हाथ लगा लेकिन शिवप्रसाद सिंह और नागार्जुन के काम के आगे बहुत नहीं रुचा। विद्यापति के कीर्तिलता पर अवधेश प्रधान की किताब ने विद्यापति के बारे में धारणा ही बदल दी।
खैर, तो आज गेंहू बनाम गुलाब के उसी अप्रतिम रचनाकार रामवृक्ष बेनीपुरी (23 दिसंबर,1900 - 09 सितंबर,1968) की पुण्यतिथि है।
खैर, तो आज गेंहू बनाम गुलाब के उसी अप्रतिम रचनाकार रामवृक्ष बेनीपुरी (23 दिसंबर,1900 - 09 सितंबर,1968) की पुण्यतिथि है।
बीते दिन बेनीपुरी की रेखाचित्र और संस्मरणों की पुस्तक 'मील के पत्थर' खरीद लाया था। विभिन्न विभूतियों पर लिखे उनके संस्मरण अद्भुत हैं। 'एक भारतीय आत्मा' के नाम से माखनलाल चतुर्वेदी पर और 'दीवाली फिर आ गयी सजनी!' शीर्षक से जयप्रकाश नारायण और 'एक साहित्यिक सन्त' के नाम से शिवपूजन सहाय पर लिखे हुए उनके संस्मरण अप्रतिम हैं। इन संस्मरणों में आत्मीयता और समर्पण भावना झलकती है। अब जबकि एक साहित्यिक दूसरे की सार्वजनिक हत्या में विश्वास करता है और अपनी केकड़ा वृत्ति में उलझा हुआ है, गलीजपने को रेखांकित करने में अपनी सार्थकता समझता है, वैसे में रामवृक्ष बेनीपुरी के संस्मरण उदात्तता के सरस उदाहरण हैं। यूरोपीय रचनाओं और रचनाकार पर उनका लिखा उनके बहुपठित और सरस तथा गुणग्राही व्यक्तित्व का सूचक है। जब वह बनार्ड शॉ के बारे में इस वाक्य से शुरुआत करते हैं कि 'सभी आत्मकथाएं झूठी हैं' तो मन बरबस ही उत्सुक हो उठता है। बेनीपुरी का गद्य बहुत मार्मिक है। छोटे वाक्य किंतु भाव भंगिमा से भरे हुए। उनके संस्मरण और रेखाचित्र हिंदी साहित्य में अमूल्य निधि हैं। उनके निबंध लेखन में उनकी दृष्टि का पता चलता है। जब वह अपने साथियों को संत की तरह याद करते हैं तो उनकी छवि भी संत की तरह बन जाती है। आज उनके पुण्यतिथि पर उनको याद करते हुए ऐसा लग रहा जैसे किसी संत को श्रद्धांजलि देने के लिए हाथ खुद-ब-खुद जुड़ जा रहे हैं।
3 टिप्पणियां:
👌
बढिया, बेनीपुरी जी नमन
वाह ! यह आत्मीय भाषा अब कम लोगों के पास बची है । 👏👌
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