शुक्रवार, 16 जुलाई 2021
Kathavarta : प्रभाती : रघुवीर सहाय की कविता
आया प्रभात
अब स्वप्नलोक
जागे जन–जन‚
सोमवार, 28 जून 2021
Kathavarta : तांडव का सॉफ्ट वर्जन है ग्रहण
-डॉ रमाकान्त राय
डिजनी
हॉटस्टार पर हालिया प्रदर्शित वेब सीरीज #ग्रहण (#Grahan) मशहूर लेखक सत्य व्यास की औपन्यासिक कृति "चौरासी" पर केंद्रित
है। देश में 31 अक्टूबर, 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके अंगरक्षकों द्वारा हत्या
कर दी गई थी। उसके बाद कांग्रेस दल के कार्यकर्ताओं ने अगले दो दिन तक देश भर में
सिख समुदाय के लोगों को चिह्नित कर मारा। उनके घर जला दिए, महिलाओं के साथ बलात्कार किया और बच्चों को जलती आग में झोंक दिया।
केन्द्रीय नेतृत्व मूक बधिर बना रहा। नव नियुक्त प्रधानमंत्री ने कहा था कि जब कोई
बड़ा पेड़ गिरता है तो आसपास कंपन होता ही है। यह एकतरह से खुली छूट थी। अकेले
दिल्ली में पांच हजार से अधिक सिख मारे गए।
कालांतर
में 1984 के इस नरसंहार को "सिख दंगा"
कहा गया और इसे सांप्रदायिक हिंसा के रूप में देखे जाने के लिए विमर्श किया। आज भी
एकतरफा किए गए इस कत्लेआम को बुद्धिजीवी "दंगा" कहते और लिखते हैं।
हिन्दी
में 1984 के सिख नरसंहार को केंद्र में रखकर
लिखे गए साहित्य का अभाव है। राही मासूम रज़ा के असंतोष के दिन, अजय शर्मा के नाटक ऑपरेशन ब्लू स्टार आदि को छोड़ दिया जाए तो कुछ भी ढंग
का नहीं लिखा गया है। बनारस टाकीज और दिल्ली दरबार से लोकप्रिय हुए, लुगदी लेखक सत्य व्यास का उपन्यास चौरासी इसी नरसंहार को केंद्र में रखकर
लिखा गया है जिसपर आठ एपिसोड का वेबसीरीज "ग्रहण" डिजनी हॉटस्टार पर
प्रदर्शित हुआ है।
सिख
नरसंहार केवल राजधानी दिल्ली में नहीं हुआ था। इसकी लपटें पूरे देश में उठीं।
ऑपरेशन ब्लू स्टार अर्थात अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर में अलगाववादी खालिस्तानी
समर्थक भिंडरावाला को पकड़ने के अभियान के बाद सिख समुदाय आक्रोशित था।
सांप्रदायिक मामले में राजनीतिक हस्तक्षेप ने स्थितियों को गंभीर बना दिया था।
इसके भयंकर दूरगामी परिणाम हुए।
सिख
नरसंहार ने अब के झारखण्ड प्रांत के औद्योगिक नगर बोकारो में भी अपनी छाप छोड़ी
थी। बोकारो में उस अवधि में जो कुछ हुआ, उसी को आधार
बनाकर यह वेबसीरीज बनाई गई है। घटना के लगभग बत्तीस वर्ष बाद भी उस नरसंहार की
जांच पूरी नहीं हो पाई। 2016 में राजनीतिक
प्रतिद्वंद्विता में इस नरसंहार के लिए एक एस आई टी बिठाई जाती है।
इससे पहले रांची में एक पत्रकार की
हत्या की जाती है, जो बोकारो सिख नरसंहार पर रिपोर्ट बना रहा था।
तब एसपी अमृता सिंह इसके साजिशकर्ताओं तक पहुंचना चाहती हैं किंतु अदृश्य कारकों
के दबाव में उन्हें इस मामले से हटा दिया जाता है और 84 के "दंगो" की जांच के लिए बनाई कमेटी का मुखिया बना दिया जाता
है। उसके अनुक्रम में भी उथल पुथल चलती रहती है।
कहानी
में एक प्रेमकथा 1984 की है और एक 2016 की। हिन्दी फिल्में, वेबसीरिज गानों और प्रेम
के लटको झटकों में खूब रमती हैं। यह भी उसका शिकार हुई है। जैसे तैसे यह प्रेम आगे
बढ़ता है और कई मीठे दृश्यों का सृजन करता है, लेकिन वह
तो अवांतर कथा है।
मूल
कथा है, राजनीति। हिन्दी फिल्में राजनीतिक पटकथाओं का
सबसे घटिया स्वरूप प्रस्तुत करती हैं। जब मैं इसे तांडव का सॉफ्ट वर्जन कहता हूं
तो आशय यही है कि तांडव जिस तरह लचर राजनीतिक कहानी का उदाहरण है, ग्रहण भी। यदि घटना सत्य है, देश और काल वही
हैं तो राजनीतिक हस्तियां भी वास्तविक होनी चाहिए क्योंकि वह एक संवैधानिक पद धारण
करते हैं। हम सत्य घटना पर साहित्य निर्मित करेंगे तो रांची, बोकारो, झारखंड, 84, 2016 आदि सही रखकर मुख्यमंत्री, विपक्ष के नेता आदि
का नाम केदार और संजय कैसे कर सकते हैं? लेकिन खैर!
जैसे तांडव में एक एजेंडा रखकर पटकथा लिखी गई थी और छात्र राजनीति,किसान आंदोलन, फर्जी मुठभेड़, उग्र सांस्कृतिक राष्ट्रवाद आदि को बहुत आसमानी किताब के आधार पर बढ़ाया गया था, ग्रहण में भी। इसमें भी राजनीति की दुरभिसंधियां हैं, प्रशासनिक भ्रष्टाचार है, दलित और मुस्लिम उभार है। नरसंहार की बजाय दंगा कहना भी एक सॉफ्ट प्वाइंट है। सामुदायिक गोलबंदी और हिंसा का सरलीकरण है। यह सब तांडव में भौंडे तरीके से था, ग्रहण में सॉफ्ट।
Review of Grahan In Hindi |
सिखों
के साथ हुए दुर्व्यवहार को सामुदायिक हिंसा के रूप में दिखाने का प्रयास हुआ है।
सामुदायिक गोलबंदी के लिए सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार वाले वीडियो सर्कुलेट करने
आदि को जिम्मेदार ठहराया गया है। यह सब इतना सरलीकृत और छिछला है कि जी उचट जाए।
मैंने
सत्य व्यास की लिखी पुस्तकें देखी हैं, उनकी
समीक्षाएं पढ़ी हैं और मुझे विश्वास था कि वह लुगदी साहित्य के लेखक हैं। लुगदी
लेखक कहने का आशय यही है कि इनके लिखे हुए में तार्किकता और सुचिंतित विचार सरणी
का सर्वथा अभाव रहता है। यह एक विशेष वर्ग को ध्यान में रखकर लिखा जाता है और
इसमें एक विशेष एजेंडा निहित रहता है। जाने अनजाने ही यह सब आ जाता है। कई बार
अतिरिक्त और अनावश्यक मसाला डालने के बाद व्यंजन जिस तरह अरुचिकर और हानिकर हो
जाता है, लुगदी वाले भी वही परोसते हैं।
ग्रहण प्रेम के कुछ लटके झटके वाले दृश्यों में मधुर है किन्तु उतना ही
जितना हम एक कौर बहुत रंगीन/ऊपर से स्वादिष्ट दिखने वाले डिश को देखकर मुंह में
रखते हैं। ज्योंहि हमारी इंद्रियां सक्रिय होने लगती हैं, खाद्य अरुचिकर बन जाता है, उसी तरह इस वेबसीरिज
के भी।
इस
वेबसीरिज में पात्रों का अभिनय स्तर ठीक ठाक है। पात्रों, पवन मल्होत्रा, ज़ोया हुसैन, अंशुमान पुष्कर, वमिका गब्बी, टीकम जोशी, सत्यकाम आनंद ने खूब परिश्रम और लगन
से अपनी भूमिकाएं निभाई हैं। फिल्मांकन भी स्तरीय है। अनावश्यक दृश्य हैं किंतु
उनमें भौंडापन और अश्लीलता नहीं है।
इसमें
झारखंड के निवर्तमान मुख्यमंत्री (केदार) हेमंत सोरेन की इमेज बिल्डिंग की गई है
और उन्हें शिबू सोरेन, पिता के छाया से निकलने के लिए दृढ़ संकल्पित
दिखाया गया है। इस क्रम में न चाहते हुए भी शिबू सोरेन को तिकड़मी और असहाय दिखाना
पड़ा है। सत्य व्यास ने कहानी लिखते हुए इस पहलू पर विशेष राजनीतिक पक्ष रखा है।
इंदिरा गांधी को भी भाषण करते दिखाया गया है और इसमें भी ऐतिहासिकता और प्रमाणिकता
का अभाव है।
ग्रहण
को कितना रेट करें। पांच अंक के अधिकतम में मैं इसे ढाई अंक इसलिए दूंगा कि इसने
सॉफ्ट वर्जन बनाने में अपनी मेधा प्रदर्शित की है। उस तरीके के लूप होल्स नहीं
छोड़े हैं, जैसा कि तांडव आदि में है। इस नरसंहार को दंगा
कहने के लिए तो मैं दो अंक काट लूंगा। नायक ऋषि रंजन बहुत तीक्ष्ण बुद्धि और हरफन
मौला है किंतु मृतक आश्रित की नौकरी के लिए चप्पलें घिस रहा है, वह भी 1984 में! यह सब अविश्वसनीय और
इतिहासबोध के अभाव में है। वस्तुत: जिस दृष्टि संपन्नता से गंभीरता आती है और रचना
बड़ी हो जाती है, वही लुगदी साहित्य में विलुप्त है, इसलिए ग्रहण पर उसकी छाया भी दिखती रहती है। इसका निर्देशन रंजन चंदेल ने
किया है।
असिस्टेंट
प्रोफेसर, हिन्दी
राजकीय
महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इटावा
206001, royramakantrk@gmail.com
9838952426
(जुड़िये, हमारे यू ट्यूब चैनल से- कथावार्ता : सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष)
शुक्रवार, 25 जून 2021
Kathavarta : आपातकाल पर केन्द्रित हिन्दी साहित्य
भारतीय लोकतंत्र में सन १९७५ से १९७७ का वर्ष आपातकाल का है। २५ जून, १९७५ को तत्कालीन
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की थी। और सभी मानवाधिकारों को
स्थगित कर दिया था। प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक बिनोवा भावे ने आपातकाल को 'अनुशासन पर्व' कहा था और प्रगतिशील लेखक
संघ ने इस आपातकाल का बचाव किया।कथावार्ता : सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष
आपातकाल पर केन्द्रित साहित्य बहुत कम है। हिन्दी में
लिखे गए रचनात्मक लेखन में आपातकाल लगभग अनुपस्थित है।
हमने यहां आपातकाल में और उसके बाद हिन्दी में लिखे गए साहित्य की एक सूची
बनाई है। यह सूची मूल्यवान होगी, ऐसी अपेक्षा है।
#जीवनी-
आपातकाल का धूमकेतु, राजनारायण- डॉ युगेश्वर
#उपन्यास -
राही मासूम रज़ा का
उपन्यास कटरा बी आरजू
निर्मल वर्मा का उपन्यास
रात का रिपोर्टर
मुद्राराक्षस का उपन्यास 'शांतिभंग' और
रवींद्र वर्मा का उपन्यास 'जवाहर नगर'।
#पत्रिकाएं
-
"सारिका"
पत्रिका के अनेक अंक (कमलेश्वर के संपादन में),
"स्वदेश"
पत्र,
"पहल-३
और ४" पत्रिका,
उत्तरार्ध पत्रिका के ८
से १५ तक के अंक (संपादक सव्यसाची)
#गजलें -
कल्पना और सारिका के
तत्कालीन अंकों में छपीं दुष्यंत कुमार की गजलें,
#कविता -
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
की "आपातकाल" शीर्षक कविता,
भवानी प्रसाद मिश्र की
"आपातकाल" और "चार कौवे उर्फ चार हौवे" कविता,
दुष्यंत कुमार की
"चल भाई गंगाराम भजन कर"
बाबा नागार्जुन की
"मोर ना होगा...उल्लू होंगे"
जयकुमार जलज की "गैर
रचनाधर्मी"
हरिभाऊ जोशी की
"विजयनी संघर्ष",
जगदीश तोमर की "काली
आंधी के विरुद्ध",
राजेंद्र मिश्रा की
"फिर सुबह" और "एक दर्शक की तरह",
प्रेमशंकर रघुवंशी की
"आदेश सो रहे हैं",
कुमार विकल की
"इश्तहार",
नीलाभ की "सन उन्नीस
सौ छिहत्तर",
केदारनाथ अग्रवाल की
"ओट में खड़ा मैं बोलता हूँ" संकलन में दो कविताएं ......
#कहानी -
पंकज
बिष्ट की "खोखल"
असगर वजाहत की
"डंडा"
#डायरी -
चंद्रशेखर की जेल डायरी
-डॉ
रमाकान्त राय
राजकीय
महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
इटावा, उत्तर प्रदेश
9838952426
रविवार, 20 जून 2021
Katha-Varta : कथावार्ता के बारे में
‘कथावार्ता’ भारतवादी
विचारधारा से ओतप्रोत, शिक्षा, साहित्य और संस्कृति को समर्पित ब्लॉग, यू
ट्यूब चैनल और एक सांस्कृतिक आंदोलन है। कथावार्ता पर हम आपके लिए इन्हीं विषयों
से संबन्धित सामग्री प्रस्तुत करते हैं।
कथावार्ता संस्कृत का संज्ञा शब्द है। यह स्त्रीलिंग के रूप में व्यवहृत
होता है। इसका अर्थ है-
१. समसामयिक विषय पर होने वाली चर्चा अथवा बातचीत
२. अनेक प्रकार की चर्चा
३. पौराणिक अथवा धार्मिक कथाओं की चर्चा आदि।
‘कथावार्ता’ इसी अर्थ को किंचित व्यापक आयाम में
लेकर चलने का संकल्प है। हमने कथावार्ता में उक्त के अतिरिक्त साहित्यिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक तथा सामाजिक विषयों को भी ध्यान में रखकर लिखे गए
साहित्य को यहाँ रखा है और भविष्य में भी रखने का निश्चय किया है। कथावार्ता में ‘चर्चा’ एक व्यापक अर्थ धारण करने वाला शब्द है, जिसका
आशय है-
१. वार्तालाप; बातचीत; विचार-विमर्श; परिचर्चा
२. बहस; वाद-विवाद
३. बयान; ज़िक्र
४. किंवदंती; बहुत से लोगों में फैली हुई बात।
कथावार्ता में आये कथा
(Katha) का आशय है-
१. कहानी ; बीते हुए जीवन की घटनाओं का क्रम; वर्णन; किस्सा
२. वह जो कही जाए, जैसे- धर्मविषयक आख्यान, किसी
घटना की चर्चा
३. हाल, खबर।
कथावार्ता अपने ब्लॉग और यू ट्यूब चैनल पर कहानी और उसकी विविध विधाओं को
केंद्र में रखकर प्रस्तुतियाँ करती है। कथावार्ता के विविध पक्ष हैं। इसे अर्थ
सहित इस तरह रखा जा सकता है-
कथाकार-
कथा लिखने वाला; कहानीकार; उपन्यासकार; कथावाचक।
कथानक अथवा कथावस्तु
छोटी कथा, कहानी या उपन्यास की आधारकथा; कथावस्तु; प्लॉट
कथामुख
१. कथा की भूमिका
२. पत्रकारिता के क्षेत्र में पहले के सभी आमुखों के बदले दिया गया एक नया
आमुख।
कथावाचक
१. कथा कहने या सुनाने वाला; कथा उद्घोषक
२. पूजा आदि में कथा सुनाने वाला।
३. कहानी पढ़कर सुनाने वाला
कथाशिल्प
कथा लिखने का कलात्मक पक्ष; उपन्यासकार या
कथाकार के लिखने की शैली।
वार्ताकार
१. बातचीत, वृत्तांत या हालचाल सुनाने वाला
व्यक्ति
२. खबर सुनाने वाला
३. ज्ञानवर्धक बात या कथा सुनाने वाला व्यक्ति।
अङ्ग्रेज़ी में KathaVarta का अनुवाद ‘Narrative Dialogue’ भी किया गया है। कथा और वार्ता दोनों ही कहानी/बात कहने के लिए प्रयुक्त
होते हैं। इस तरह कथावार्ता में ‘कहन’ एक विशेष पक्ष है। वार्ता को Discussion,
Discourse, Talk के साथ संबन्धित कर देखा जाता है।
हम कथावार्ता में नए लेखकों को प्रोत्साहित करते हैं और उन्हें आमंत्रित करते हैं कि वह लिखें, पढ़ें और हमसे जुड़कर इस आंदोलन को आगे बढ़ाएँ। आप अपनी रचनाएँ हमें royramakantrk@gmail.com पर भेजें या इनबॉक्स करें- डॉ रमाकान्त राय के डीएम में।
कथावार्ता की विशेष उपस्थिति है-
ट्विटर- कथावार्ता
यू ट्यूब- कथावार्ता
फेसबुक पेज- कथावार्ता
- डॉ रमाकान्त राय
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
इटावा, उत्तर प्रदेश
9838952426
रविवार, 13 जून 2021
कथा समीक्षा : उषा राजे सक्सेना की कहानी ऑन्टोप्रेन्योर : आधुनिक स्त्री का आदर्श
-डॉ. कुलभूषण मौर्य
प्रवासी कथाकार उषा राजे सक्सेना यूनाइटेड
किंगडम में बसी भारतीय मूल की लेखिका हैं। वे अपने लेखन के माध्यम से प्रवासी
भारतीयों के अपने देश के साथ सम्बन्धों को पुख्ता करती हैं। प्रवास में, वाकिंग
पार्टनर, वह रात और अन्य कहानियाँ के माध्यम से वे अपने
देश भारत की सभ्यता, संस्कृति और भाषा के प्रति प्रेम
को उजागर करती हैं। साथ ही प्रवासी भारतीयों के मन में घर वापसी की उम्मीद को कायम
रखती हैं। उषा राजे सक्सेना की कहानी ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ वर्तमान की भाग-दौड़ भरी जिन्दगी में रिश्तों की गर्माहट को बचाये रखने की
मर्मस्पर्शी गाथा है।
‘ऑन्टोप्रेन्योर’ का अर्थ है- वित्तीय जोखिम
उठाने वाला उद्यमी। उषा राजे की कहानी का यह शीर्षक कथा की मूल संवेदना को अपने
भीतर समेटे हुए है। कथा नायिका के लिए व्यंग्य के रूप में प्रयोग होने वाला ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ शब्द उस समय एकदम सही साबित
होता है, जब वह अपने पति के लिए सचमुच वित्तीय जोखिम
उठाती है और अपनी सिंगापुर यात्रा को टाल देती है। वह ऑन्टोप्रेन्योर है, प्रोफेशनल है, किन्तु पारिवारिक रिश्तों को
निभाने में भी पीछे नहीं है।
‘ऑन्टोप्रेन्योर’ रो और तिश नामक दो किशोरों के
किशोरावस्था से युवावस्था में प्रवेश करने और अपने महत्वाकांक्षी लक्ष्य को
प्राप्त करते हुए जीवन जीने की कथा है। रो और तिश की जान-पहचान बस से यात्रा करते
हुए होती है। दोनों की बात-चीत से पता चलता है कि रो का पूरा नाम रोहन बिसारिया है
और तिश का तुशारकन्या राय। यानी कि दोनों भारतीय मूल के हैं और साउथ लंदन के
स्ट्रेथम के एक ही इलाके में रहते भी हैं। जिस समय दोनों की प्रथम मुलाकात होती है, दोनों ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के छात्र थे। रो फ्रेंच लिटरेचर में बी.ए.
आनर्स कर रहा था तो तिश मीडिया और फैशन डिजाइनिंग में। दोनों की यह जान-पहचान
धीरे-धीरे चाहत में बदल जाती है। किन्तु रो अपने पिता के स्वास्थ्य के कारण
बात-चीत को आगे बढ़ाने से हिचकता है। रो अपनी घरेलू परेशानियों से घिरा है। पिता के
खराब स्वास्थ्य के कारण उसे माँ के साथ फार्मेसी की दुकान में हेल्प करनी पड़ती है।
रो और तिश दोनों ही अपने कैरियर को लेकर गम्भीर हैं। आर्ट और म्यूजिक के साथ
स्पोट्र्स में भी रो की गहरी दखल थी । तिश भी मीडिया और फैशन डिजायनिंग के साथ
पब्लिक स्पीकिंग में ए लेवल करती है। साथ ही हर गुरूवार को वह सालसा लैटिन अमेरिकन
नृत्य का प्रशिक्षण लेती है। शुक्रवार और शनिवार को हैरडस के एकाउंट डिपार्टमेंट
में काम करती है और रविवार को भारतीय विद्या भवन में कथक सीखती है। तिश अपने
व्यक्तित्व को निखारने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील है और भविष्य को लेकर
महात्वाकांक्षी है।
रो की किशोरावस्था की जान-पहचान घर से दूर जाकर ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से
मास्टर डिग्री लेते हुए और घनिष्ठ होती है। वे एक दूसरे से प्रेम करने लगते हैं
किन्तु विवाह के नाम पर तिश तैयार नहीं होती क्योंकि वह अपना स्वयं का बिजनेस करना
चाहती है। यह बात वह रो से साफ-साफ कह देती है। मास्टर करने के बाद रो क्वींस
कॉलेज में कामर्स विभाग में अध्यापन करने लगता है और तिश नॉर्थ लंदन के टैलिस्मान
फैशन फर्म में काम करती है। वहाँ दोनों साथ ही रहते हैं। तिश अपना व्यापार स्थापित
करने के लिए भारत में मुंबई जैसे शहर को चुनती है और मुंबई चली जाती है। कुछ दिनों
के बाद रो भी मुंबई विश्वविद्यालय के कॉमर्स विभाग में फ्रेंच पढ़ाने लगता है।
दोनों मुंबई में साथ ही रहते हैं। रो के माता-पिता के दबाव के कारण दोनों विवाह के
बन्धन में इस वादे के साथ बँध जाते हैं कि ‘‘शादी के
बाद तुम मुझे ट्रेडिशनल पत्नी के रोल मॉडल में ढलने का दबाव नहीं डालोगे और साथ ही
मेरे व्यवसाय के मामले में टोका-टोकी नहीं करोगे।’’ रो
और तिश का दाम्पत्य जीवन कुछ दिन तो ठीक चलता है किन्तु जैसे-जैसे तिश अपने
व्यवसाय को बढ़ाती है, वह काम में उलझती जाती है। वह रो
को समय नहीं दे पाती। इससे रो की खिन्नता बढ़ती जाती है। वह अपने को छला हुआ महसूस
करता है । जब वह तिश से अपने माता-पिता को मुंबई बुलाने की बात करता है तो तिश मना
कर देती है, उल्टे उसे ही लंदन हो आने की सलाह देती है।
इससे रो के मन को ठेस पहुँचती है। वह गुस्से में यूनिवर्सिटी जाने के लिए निकलता
है। ड्राइवर को पिछली सीट पर बैठा कर खुद ड्राइव करता है। तेज रफ्तार के कारण गाड़ी
टकरा जाती है और रो गम्भीर रूप से घायल हो जाती है। व्यवसाय के सिलसिले में
सिंगापुर के लिए निकल रही तिश को जब एक्सिडेंट की सूचना मिलती है तो वह सिंगापुर की
यात्रा रद्द कर देती है। स्वयं की जगह अपनी असिस्टेंट को मीटिंग के लिए जाने को
कहकर वह अस्पताल पहुँचती है। रो की स्थिति ज्यादा गम्भीर न होने पर वह चैन की साँस
लेती है और रो के माता-पिता को मुंबई बुलाने के लिए फोन करती है। वह उनके बीजा से
लेकर टिकट तक का प्रबन्ध स्वयं करती है। इससे रो के माता-पिता के मन में तिश के
व्यक्तित्व के सम्बन्ध में जो अवधारणा थी, वह बदल जाती
है। साथ ही रो की सोच में भी परिवर्तन आता है। रो और उसके माता-पिता तिश को न केवल
एक सफल व्यवसायी के रूप में देखते हैं एक व्यवहार कुशल पत्नी के रूप में भी वह खरी
उतरती है। रो को यह बात समझ में आती है कि स्वयं के खालीपन को भरने के लिए तिश को
बन्धन में डालने की बजाय स्वयं को रचनात्मक रूप से सक्रिय करना चाहिए और वह अपने
लिए पेंटिंग क्लास शुरू करने की सोचता है।
‘ऑन्टोप्रेन्योर’ कहानी में मुख्य पात्र तिश है।
उषा राजे ने तिश को आज के परिवेश की स्त्री के रूप में रचा है। वह कथा की नायिका
है। तिश एक महत्वाकांक्षी लड़की है। अपनी पढ़ाई से लेकर कैरियर तक वह लक्ष्य
केन्द्रित है। अपने छात्र जीवन से ही वह अपने व्यक्तित्व को निखारने को लेकर तत्पर
है। तिश अपने भविष्य पर फोकस्ड एक मध्यमवर्गीय महत्वाकांक्षी लड़की है। जीवन के हर
क्षण का आनन्द लेते हुए वह आगे बढ़ती है। रो को लेकर वह प्रतिबद्ध तो है, किन्तु अपना स्वतन्त्र अस्तित्व खोना नहीं चाहती। वह विवाह के बन्धन में
इसलिए बँधना नहीं चाहती कि उसे घर की जिम्मेदारयिाँ उठानी पड़ेंगी। वह एक ऐसी
आधुनिक स्त्री के रूप में सामने आती है, जो जीवन के हर
क्षेत्र में सफल साबित होती हैं। अपने काम को लेकर वह गम्भीर है। ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ उसके चरित्र के लिए सटीक बैठता
है। वह वित्तीय जोखिम उठाने वाली उद्यमी है, इसीलिए वह
सफल होती है। लेकिन वह रिश्तों को लेकर कहीं भी लापरवाह नजर नहीं आती। वह रो से
कहती है-‘‘मेरे जीवन में तुम्हारी अपनी जगह है। तुम मेरे लिए
महत्वपूर्ण हो, पर मेरे बिजनेस और महत्वाकांक्षाओं से
ऊपर नहीं।’’ वह रो से रुकावटें न डालने का वादा लेकर
उससे विवाह कर लेती है। रो के माता-पिता की नजर में भी वह व्यवहार कुशल और
प्रियदर्शिनी है। तिश को आरम्भ से ही व्यस्त जीवन पसन्द है। वह एक पल भी शान्त
नहीं बैठना चाहती। व्यस्त रहते हुए भी घर और परिवार को व्यवस्थित रखती है। उसके
चरित्र का सबसे उन्नत पहलू वहाँ सामने आता है, जब वह रो
के एक्सिडेंट में घायल होने पर सिंगापुर की अपनी महत्वपूर्ण मीटिंग कैंसिल कर देती
है और रो के माता-पिता को बिना किसी तकलीफ के मुंबई बुलाने का प्रबन्ध करती है।
यहाँ वह साबित कर देती कि व्यवसाय उसके लिए महत्वपूर्ण होते हुए भी पारिवारिक
रिश्तों की अहमियत उसके जीवन में कम नहीं है। वह अपने जीवन साथी के लिए उसकी
मुश्किलों में उसके साथ खड़ी है। वह अपने कार्य और पारिवारिक जीवन में संतुलन रखने
वाली संवेदनशील और सक्षम स्त्री है।
रो विदेश में पला-बढ़ा एक संतुलित जीवन जीने वाला युवक है। वह अपनी पढ़ाई को
लेकर गम्भीर है। साथ ही पारिवारिक जिम्मेदारी को समझने वाला है। पिता के खराब
स्वास्थ्य के कारण उसे पढ़ाई के साथ ही दुकान पर भी बैठना पड़ता है। वह मास्टर
डिग्री और पीएचडी करने के बाद अध्यापन करता है। इसके साथ ही वह भावनात्मक है। वह
छात्र जीवन से ही तिश से प्रेम करता है किन्तु अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के
कारण बता नहीं पाता। आर्थिक रूप से सक्षम हो जाने पर वह तिश के साथ के लिए ही
क्वींस कॉलेज छोड़कर मुंबई चला जाता है और तिश की हर शर्त को मानते हुए उससे विवाह
करता है। किन्तु उसके भीतर कुछ कमजोरियाँ हैं। तिश की व्यस्तता उसे परेशान करती
है। वह खिन्न रहता है और स्वयं को छला हुआ महसूस करता है। इतना ही नहीं वह क्रोधी
भी है। तिश के व्यवहार से वह अपमानित महसूस करता है और आत्मघाती कदम उठाता है। तिश
का गुस्सा गाड़ी के एक्सिलेटर पर निकालता है। फलस्वरूप् दुर्घटना का शिकार होता है।
किन्तु दुर्घटना के पश्चात वह पाश्चाताप करता है। रो का व्यक्तित्व से उस समय
पुरूष मानसिकता की गंध आती है, जब तिश अपने क्लाइंट के
साथ दिल्ली चली जाती है। तिश रो को ‘लेड बैक’ कहती है, जो दस वर्ष पूर्व जहाँ खड़ा था, वहीं आज भी है।
तिश के अलावा कहानी के पात्रों में रो के माता-पिता, रो का मित्र मनीष, शान्ताबाई, नईम आदि हैं। रो के माता-पिता शोभना और अभय भारतीय हैं, जो अच्छे भविष्य के लिए लंदन में रहते हैं। रिटायर होने के बाद वे
फार्मेसी की दुकान चलाते हैं। रो के माता-पिता लंदन के स्व़च्छन्द वातावरण में
रहते हुए भी रूढ़ियों और परम्पराओं से बँधे हैं। वे अपने बेटे रो का पारिवारिक जीवन
सुखी देखने की मंशा रखने वाले माता-पिता हैं। वे पूर्वाग्रह से मुक्त हैं। तिश को
लेकर जो उनके मन मे पूर्व धारणा बनी है, वह तिश की
व्यवहार कुशलता को देखकर बदल जाती है। मनीष भारतीय मूल का युवक है। वह अपने परिवार
की जिम्मेदारी को उठाने के लिए पढ़ाई के साथ ही पेट्रोल-पम्प पर कार्य भी करता है।
वह अपने मित्र के प्रेम को पुख्ता करने की कोशिश करता दिखाई देता है, जैसा कि सभी मित्र होते हैं। शान्ताबाई एक सुरुचिपूर्ण, कुशल, प्रशिक्षित, हाउसकीपर
है, जो अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी समझती है। नईम तिश
का ड्राइवर और मैसेन्जर है। शान्ताबाई और नईम दोनों भरोसेमन्द और जिम्मेदार हैं, जिनके ऊपर जिम्मेदारियाँ डालकर निश्चिन्त हुआ जा सकता है।
उषा राजे सक्सेना संवादों के माध्यम से कहानी को आगे बढ़ाती हैं। कहानी के
कथानक के अनुसार लम्बे और छोटे दोनों प्रकार के संवादों की रचना उन्होंने ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ कहानी में की है। संवाद के
माध्यम से तिश, रो, उसके
माता-पिता और मनीष की जीवन स्थितियाँ, उनकी मनोदशा, भविष्य को लेकर उनके विचार उजागर होते हैं। एक संवाद देखिए-
रो ने तिश का मन टटोला तो जिश चकित-सी बोली- ‘‘रो
हम दोस्त हैं। एक दूसरे के लिए प्रतिबद्ध होते हुए भी स्वतन्त्र अस्तित्व रखते
हैं। शादी के बारे में मैंने कभीं सोचा ही नहीं।
‘‘ममा पापा शादी के लिए मुझ पर दबाव डाल रहे हैं। ज्यादा दिन उनको टालना
मुश्किल होगा, तिश।’’
‘‘रो हम दोस्त हैं और दोस्त ही रहेंगे। शादी हमारे संबंधों को संकुचित
करेगी। वे तुम्हारे ममा पापा हैं। उन्हें हैंडल करना तुम्हारा काम है।’’
आगे कुछ सोचकर उसने कहा, ‘‘मेरे कैरियर का मेरे जीवन
में अहम स्थान है रो। मैं घर की जिम्मेदारियाँ नहीं उठा सकती हूँ। शादी के बाद
तुम्हारी अपेक्षाएँ मुझसे बहुत बढ़ जायेंगीं। तुम जानते हो, मेरा कैरियर, मेरा व्यवसाय मेरे लिए महत्वपूर्ण
है।’’
‘‘और मैं, तुम्हारी जिन्दगी में क्या स्थान रखता
हूँ तिश।’’ रो ने ठंडी सांस लेते हुए पूछा।
‘‘मेरे जीवन में तुम्हारी अपनी जगह है। तुम मेरे लिए महत्वपूर्ण हो। पर मेरे
बिजनेस और महत्वाकांक्षाओं से ऊपर नहीं। तुम अभी जैसे हो, निश्चिन्त , केयर फ्री स्वभाव के, मुझे वैसे ही अच्छे लगते हो। शादी के बाद तुम मेरी चिंता करने का रोल ले
लोगे, यह मुझे अच्छा नहीं लगेगा।’’ उसने उसे बाहों में भर कर एक चुलबुलाता हुआ लम्बा चुंबन देते हुए कहा।
‘‘सच ?’’
‘‘हाँ, सच।’’ उसने
ईमानदारी से कहा।
यह संवाद रो और तिश के प्रेम को उजागर करने के साथ ही तिश के जीवन के
प्रति दृष्टिकोण को उजागर करती है। इस संवाद के माध्यम से तिश एक सशक्त और
संभावनाओं से भरी हुई आधुनिक युवती के रूप में सामने आती है। पूरी कहानी इस तरह के
संवादों से भरी है। संवाद विषय के अनुरूप कहानी को आगे बढ़ाने वाले हैं।
विदेशी पृष्ठभूमि पर रची गयी ‘ऑन्टोप्रेन्योर
की कहानी साउथ लंदन के स्ट्रेथम से होते हुए ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के साथ ही
क्वींस कॉलेज और नॉर्थ लंदन तक घूमती है। कहानी में रो और तिश की बात-चीत में
यूनाइटेड किंगडम के स्वच्छन्द परिवेश की झलक मिलती है। साथ ही यूनाइटेड किंगडम की
वेलफेयर एस्टेट की सुख-सुविधाओं का भी जिक्र हुआ है, जो
बृद्धजनों को जीने का सहारा देती है। कहानी का अन्त भारत में हुआ है। भारत को एक
उभरते हुए राष्ट्र के रूप में चित्रित किया गया है, जिसमें
भविष्य की अपार संभावनाएँ छिपी हैं। कहानी किशोरों और युवाओं के मनोभावों को
व्यक्त करती है।
‘ऑन्टोप्रेन्योर’ कहानी का शीर्षक ही अंग्रेजी
भाषा का है। पूरी कहानी में हिन्दी और अंग्रेजी के मिले-जुले शब्दों का प्रयोग
करके भाषा को बोलचाल की भाषा बनाया गया है। भाषा विषयानुकूल है। किशोरों और युवाओं
के आपसी संवाद में जिस तरह के अश्लील शब्दों का प्रयोग बढ़ा है, उषा राजे ने भाषा भी उसी के अनुकूल रखी है। ‘नितम्ब’ के लिए ‘बम’ जैसे
शब्दों का प्रयोग किशोर मानसिकता का ही परिचायक है। लंदन के परिवेश पर आधारित
कहानी में अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग अधिक हो, यह
स्वाभाविक ही है। कोई भी वाक्य बिना अंग्रेजी शब्दों के पूरा नहीं हुआ है।
कहीं-कहीं तो पूरा का पूरा वाक्य ही अंग्रेजी का है। कहानीकार ने नितम्ब के लिए ‘पिछवाड़ा’ और ‘चूतड़’ जैसे भदेस शब्दों का भी प्रयोग किया है। उषा राजे ने कहानी में वर्णनात्मक
और संवादात्मक दोनों शैलियो का कुशल निर्वाह किया है। संवादों की अधिकता कहानी को
कहीं भी उबाऊ नहीं होने देती।
‘ऑन्टोप्रेन्योर’ कहानी को उषा राजे ने एक
सार्थक दिशा देते हुए अपने उद्देश्य तक पहुँचाया है। तिश के माध्यम से उन्होंने एक
सशक्त स्त्री चरित्र को रचा है, जो स्त्री-विमर्श को
नया आयाम देती है। स्त्री-विमर्श में जहाँ इस बात की चर्चा होती रहती है कि स्त्री को कितनी स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता लेनी चाहिए, उसकी कार्य-शैली, पहनावा कैसा होना चाहिए, उसकी सेक्स लाइफ कैसी होनी चाहिए, उषा राजे तिश
के माध्यम से स्त्री की एक नई छवि पेश करती हैं। तिश एक ऐसी उद्यमी है जो अपने
रिश्तों को लेकर भी प्रतिबद्ध है। वह घर से लेकर बाहर तक सबकुछ व्यवस्थित रखती है।
वह ट्रेडिशनल पत्नी नहीं बनना चाहती, पारिवारिक बन्धनों
में नहीं बँधना चाहती किन्तु शारीरिक सम्बन्धों को लेकर स्वच्छन्दता भी नहीं
चाहती। वह जहाँ बिना बताये दिन्ली चली जाती है, वहीं रो
का एक्सिडेंट होने पर सिंगापुर की महत्वपूर्ण यात्रा भी स्थगित कर देती है। तिश के
रूप में उषा राजे वर्तमान के अन्ध आधुनिकतावादी दौर में संवेदनशील और सक्षम स्त्री
का चरित्र रचती हैं, जो एक व्यवहार-कुशल ऑन्टोप्रेन्योर
है। यह आधुनिक स्त्री का आदर्श स्वरूप हो सकता है।
भौतिकतावादी दौर में जहाँ भारत का युवा वर्ग विेदेश जाने के सपने देखता है, उषा राजे तिश और रो की भारत वापसी दिखाकर भारत को एक सशक्त राष्ट्र के रूप
में चित्रित करती हैं, जिसमें अपार संभावनाएँ निहित
हैं। तिश कहती है-‘‘इंडिया आज संभावनाओं से भरा एक ऐसा
शक्तिशाली देश बनकर उभरा है कि सारा संसार उसकी तरफ नजरें उठाए देख रहा है। पश्चिम
का ब्रेन ड्रेन भारत का ब्रेन गेन है।’’ यह कथन भारत की
आर्थिक शक्ति को प्रमाणित करता है। कहानी में पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति की ओर
आकर्षित हो रही युवा पीढ़़ी के लिए यह संदेश है कि भारत भी अपनी संस्कृति और नयी
सोच एवं आर्थिक गतिविधियों से विदेश में निवास करने वालों का ध्यान आकर्षित कर रहा
है। अमेरिका और इंग्लैण्ड जैसे देश भी भारत में आउट सोर्सिंग कर रहे हैं, इंवेस्टमेंट कर रहे हैं। कहानी में भारतीय युवाओं के लिए जो सबसे बड़ा
संदेश छिपा है, वह है- रो और तिश का पढ़ाई के प्रति
समर्पण। दोनों अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इतना ही नहीं
व्यक्तित्व के निखार के लिए अलग-अलग गतिविधियाँ करते हैं। तिश की जीवन शैली
अनुकरणीय हो सकती है। वह सबके बीच संतुलन बनाते हुए अपने आप को व्यस्त रखती है। रो
के मन में जो खिन्नता है, उसका कारण यही है कि वह खाली
है। नौकरी के अलावा उसने दूसरी रुचि नहीं विकसित की है। यदि हम अपने को व्यस्त
रखते हैं तो अनावश्यक तनाव और खिन्नता से अपने आप को बचा सकते हैं और आज के तनाव
भरे माहौल में भी स्वयं को प्रसन्न रख सकते हैं। हमें अपनी खुशी के लिए दूसरे की
ओर देखने की आवश्यकता नहीं होगी। इतना ही नहीं, कहानी
घर वापसी का स्वप्न देख रहे भारतीय मूल के निवासियों के मन में भी आशा पल्लवित
करती है।
डॉ कुलभूषण मौर्य |
(मूलतः आजमगढ़ के निवासी डॉ कुलभूषण मौर्य
युवा आलोचक और प्रतिभावान प्राध्यापक हैं। वह वर्तमान में के०
बी० झा महाविद्यालय, कटिहार में सहायक प्राध्यापक हैं। बनारस
हिन्दू विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त डॉ मौर्य
की एक पुस्तक "भारतीय स्वाधीनता आंदोलन और अमरकांत" नाम से प्रकाशित हो
चुकी है। कुलभूषण मौर्य समसामयिक विषयों और आधुनिककालीन साहित्यिक विमर्शों पर
लगातार लिखते रहते हैं। उनका संपर्क- मो. नं. 8004802485 है।
#कथावार्ता #Kathavarta1 पर उनका पहला लेख। इस लेख में उन्होंने उषा राजे सक्सेना की कहानी ऑन्टोप्रेन्योर पर आधुनिक स्त्री विमर्श और
वृत्ति के आलोक में देखने का प्रयास किया है। यह कहानी प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय
के पाठ्यक्रम में भी है, यह आलेख विद्यार्थियों के लिए
आवश्यक सामग्री बनेगी, यह विश्वास है।
ऑन्टोप्रेन्योर: उषा राजे सक्सेना की कहानी यहाँ क्लिक करके पढ़ी जा
सकती है -
सम्पादक।)
बुधवार, 9 जून 2021
नन्हें राजकुमार की बड़ी बातें
- पीयूष कान्त राय
"नन्हा राजकुमार" फ्रांसीसी लेखक
सैंतेक्जूपैरि द्वारा मूलतः बच्चों के लिए लिखी गयी किताब है, जिसमें एक 6-7 साल के बच्चे के
माध्यम से तथाकथित द्वितीय विश्व युद्ध के कतिपय
गंभीर विषयों को व्यंग्य द्वारा पेश किया गया है।
सर्वप्रथम सन 1943 ई० में अमेरिका में प्रकाशित हुई इस किताब का पहला पन्ना ही आकर्षित करता है, जहाँ लेखक यह पुस्तक अपने वयस्क मित्र को समर्पित करने से पहले बच्चों से क्षमा माँगते हुए कहता है कि फ्रांस का वयस्क फिलहाल भूख और सर्दी से जूझ रहा है। किसी वयस्क को समर्पित करने हेतु लेखक दूसरा तर्क यह देता है कि "वह सब कुछ समझ सकता है।" दूसरे, तर्क में छिपे व्यंग्य का पता तब चलता है जब लेखक कथावाचक के माध्यम से यह दर्शाता है कि छः साल की उम्र में उसके द्वारा बनाई गई तस्वीर को आज तक किसी वयस्क ने नहीं समझा जिसमें अजगर एक हाथी को निगलकर पचाने की कोशिश करता है। अजगर के पेट में हाथी एक विशेष प्रतीक है।अजगर के पेट में हाथी दिखाने के पीछे शायद लेखक की संभवत: मंशा यह भी रही हो कि द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी ने फ्रांस के एक बड़े भाग को अपने कब्जे में ले रखा था जिसे पचा पाना उसे मुश्किल हो रहा था।
नन्हा राजकुमार |
इस कहानी का रोमांच शुरू होता है सहारा के रेगिस्तान से, जहाँ कथावाचक का जहाज़ खराब हो गया है और उस जहाज़ में वह अकेला होता है। उसके पास सिर्फ 8 दिन तक पीने योग्य पानी बचा है। उसे एक बच्चा मिलता है, प्यारा सा; जो उस निर्जन स्थान पर बिना डर या भय की मुद्रा के कथावाचक को एक भेंड़ की तस्वीर बनाने के लिए कहता है। भेड़ों की एक खास बात होती है कि जहाँ एक भेंड़ चलने लगे सभी उसका अनुसरण करने लगती हैं। यहाँ भी लेखक ने भेंड़ का जिक्र करके दुनिया के अन्धानुसरण की तरफ संकेत किया है और इस तरह कथावाचक का उस बच्चे (नन्हें राजकुमार ) साथ परिचय होता है। जब नन्हें राजकुमार को पता चलता है कि कथावाचक हवाई जहाज़ सहित नीचे गिरा है तब वह हँसता हुआ पूछता है, “तू आसमान से गिरा है?” इसके माध्यम से लेखक ने इस उपन्यास में भद्र लोगों की निकृष्ट सोच को भी बड़े ही कोमलता से दिखाया है।
बातचीत में, कथावाचक को उस 'नन्हें राजकुमार' के विषय मे पता चलता है कि वह किसी दूसरे ग्रह से आया है जो बहुत छोटा है और एक घर जितना ही बड़ा है। वह अपने ग्रह पर बाओबाब के पौधों को लेकर चिंतित है क्योंकि बाओबाब के पौधे बहुत विशाल होते हैं। बाओबाब के पौधों से उसके ग्रह के फटने की भी संभावना है। इन पौधों के एक बार बड़े हो जाने पर नष्ट करना भी मुश्किल होता है। नन्हा राजकुमार बताता है कि प्रत्येक ग्रह पर अच्छे और बुरे दोनों तरह के बीज होते हैं जिन्हें काफी संभाल कर रोपण की आवश्यकता होती है। वास्तव में लेखक यहाँ बच्चों की शिक्षा एवं संस्कारों की बात करता है, जिसे समय-समय पर देखते रहने और उसमें सुधार करते रहने की जरूरत होती है।
उपन्यास में कथावाचक ने कुछ नन्हें राजकुमार की बातों और कुछ अपनी कल्पना से सोचना शुरू किया कि कैसे वह राजकुमार अपने द्वारा लगाए लगे किसी फूल से नाराज होकर अपना ग्रह छोड़ दिया होगा। अनेकों ग्रहों का चक्कर लगाते हुए वह इस ग्रह पर आ गया होगा। आगे की कहानी में एक-एक ग्रह पर नन्हें राजकुमार की उपस्थिति के एवं वहाँ रह रहे लोगों से उसकी बातचीत के द्वारा राज्य, सत्ता, न्याय, सामाजिक व्यवस्था एवं भ्रष्टाचार इत्यादि के विषय मे बात की गई है ।
कई ग्रहों पर अपना ठिकाना ढूंढने में असफल होने के पश्चात यात्रा के सातवें चरण में राजकुमार पृथ्वी पर आता है। राजकुमार का फूल, लोमड़ी एवं लाइनमैन के साथ वार्तालाप के माध्यम से लेखक सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक मूल्यों पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी करता है और इस तरह "बच्चों के लिए लिखे गए" इस उपन्यास की गंभीरता का आभास होता है और यह आज 21वीं सदी के तथाकथित आधुनिक दौर में भी प्रासंगिक लगता है।
मूल रूप से फ्रेंच में लिखा गया यह उपन्यास दुनिया के लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवादित हो चुका है। इसकी भाषा न सिर्फ सहजता से कथ्य का बोध कराती है बल्कि इसकी व्यंग्यात्मक शैली पाठकों को बाँधे रखती है।
यह उपन्यास इतना छोटा है कि किसी बड़ी कहानी जैसा लगता है। इतने कम शब्दों में समाज में उपजी कुरीतियों के साथ-साथ सामाजिक मूल्यों को उजागर करना दुनियाँ के कुछ ही लेखकों के सामर्थ्य में है और सैंतेक्जूपैरि को इस कला में महारत हासिल है।
पीयूष कान्त राय |
पाद-टिप्पणी-
द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) का अन्त जर्मनी के आत्मसमर्पण के साथ 08 मई, 1945 में हुआ। हिटलर ने 1933ई० के अक्तूबर में ब्रिटेन और फ्रांस के साथ निरस्त्रीकरण की वार्ताएं भंग कर दी और लीग ऑफ नेशन्स की सदस्यता भी छोड़ दी। इससे पहले प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी पर कई अपमानजनक संधियाँ थोप दी गयी थीं, जिसके बोझ तले जर्मनी कराह रहा था। समूचा यूरोप दुनियाभर में अपना उपनिवेश बनाने के लिए बोरिया बिस्तर बांध कर निकल पड़ा था जिसमें इंग्लैण्ड, फ्रांस, पुर्तगाल और हॉलैंड ने सबसे अधिक सफलता प्राप्त की। अधिकार की इस अंतहीन लड़ाई में जर्मनी कसमसा रहा था। इसकी प्रतिक्रिया में हिटलर ने कुछ ऐसे कदम उठाए जो विश्व के दूसरे कई देशों को नागवार गुजरे। आस्ट्रिया और जर्मनी प्रथम विश्व युद्ध के बाद ही अपमानित अनुभव कर रहे थे।
जब हिटलर प्रतिकार करने के लिए उठ खड़ा हुआ तो तथाकथित मित्र राष्ट्रों ने अपने औपनिवेशिक राज्य विस्तार पर भी खतरा अनुभव किया। इसके अतिरिक्त हिटलर बहुत तेजी से अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ा रहा था। यदि हिटलर ने यहूदियों के विरुद्ध घृणा नहीं की होती तो दुनिया की तस्वीर कुछ दूसरी होती और इस पुस्तक का नैरेशन भी पृथक होता। तब हाथी और अजगर का प्रतीक दूसरी कहानी कह रहा होता।
हम इतिहास की घटनाओं को यदि प्रचलित मान्यताओं से किंचित इतर देखें तो कई चीजें विमर्श का विषय बनेंगी और ज्ञान जगत में नए गवाक्ष खुलेंगे।
इस कृति और समीक्षा को उक्त के आलोक में भी पढ़ने की आवश्यकता है- संपादक
(पीयूष कान्त राय मूलतः गाजीपुर, उत्तर प्रदेश के हैं। उनकी पाँखें अभी जम रही हैं। साहित्य और साहित्येतर पुस्तकें पढ़ने में रुचि रखते हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी में फ्रेंच साहित्य में परास्नातक के विद्यार्थी हैं। वह फ्रेंच भाषा, यात्रा और पर्यटन प्रबन्धन तथा प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व के अध्येता हैं और फ्रेंच-अङ्ग्रेज़ी-हिन्दी अनुवाद सीख रहे हैं। साहित्य और संस्कृति को देखने-समझने की उनकी विशेष दृष्टि है।
सैंतेक्जूपैरि की पुस्तक नन्हा राजकुमार को उन्होंने मूल रूप में यानि फ्रेंच वर्जन पढ़ा है और कथावार्ता के लिए विशेष रूप से यह समीक्षा लिखी है। इससे पहले वह रामचन्द्र गुहा की पुस्तक भारत : गांधी के बाद की समीक्षा कथावार्ता : नेहरू युग की रोचक कहानी कथावार्ता के लिए कर चुके हैं।
इस समीक्षा पर आपकी प्रतिक्रिया उन्हें उत्साहित करेगी।)
सद्य: आलोकित!
श्री हनुमान चालीसा शृंखला : पहला दोहा
श्री गुरु चरण सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनउं रघुबर बिमल जस, जो दायक फल चारि।। श्री हनुमान चालीसा शृंखला परिचय- #श्रीहनुमानचालीसा में ...