एक कहानी कहता हूँ. हमारे तरफ ख़ूब कही जाती है.
एक पंडिताइन मईया थीं. उनकी खासियत यह
थी कि पंडीजी जो कुछ कहते,
मईया ठीक उसका उल्टा करतीं. जैसे
पंडीजी कहते, आज व्रत रहा जाएगा. पंडिताइन मईया
कहतीं, हुँह, क्यों ब्रत रहा जायेगा? आज
तो व्यंजन पकेगा. और वही पकता. पंडी जी कहते, आज
खिचड़ी पका दो, बहुत मन है खाने का. पंडिताइन कहतीं, नहीं. आज तो छननमनन होगा. पंडीजी कहते-
सुनो हो, मैं जरा बाहर जा रहा हूँ, तुम इसी बीच नैहर मत चली जाना. मईया
कहतीं, काहे नहीं. हम नैहर जईबे करेंगे. और
पंडीजी से पहले वे चली जातीं.
पंडीजी परेशान. करें तो का करें. फिर
उन्होंने एक तरीका खोजा. वे इस तकनीक को समझ गए कि पंडिताइन ठीक उल्टा करती हैं तो
उनने स्वयं उल्टा कहना शुरू किया. मसलन, जब
उनका मन छनन मनन खाने का होता, वे
कहते- आज सत्तू मिल जाता,
या खिचड़ी या कुछ हल्का-फुल्का तो बहुत
सही रहता. पंडिताइन पहले झनकती पटकती और फिर छनन मनन पकता. जब उन्हें आराम करना
होता, वे कहते- आज ही मैं जाना चाहता हूँ.
पंडिताइन कहतीं- आज कैसे जाओगे. आज नहीं जाना है. पंडीजी ने पंडिताइन की नस पकड़ ली
थी.
फिर एक बार गंगा नहान का मौका आया.
दंपत्ति नहाने चला. किनारे पहुँचकर पंडीजी ने कहा- सुनो, किनारे किनारे ही नहाना. भीतर पानी
गहरा है. पंडिताइन ने कहा- हुँह! किनारे किनारे क्या नहाना. और वे आगे बढ़ती गयीं.
पंडीजी मना करते जाते और पंडिताइन और गहरे बढ़ती जातीं..
.
.
.
.
फिर?
फिर क्या! पंडिताइन नदी के तेज बहाव
में अपनी जमीन खो बैठीं. लगीं 'बचाओ-बचाओ' चिल्लाने. पंडीजी उन्हें बचाने कूदे.
पंडिताइन दक्खिन की और बह रही थीं. और पंडीजी उत्तर की ओर छपाका मारते जाते!
अंततः पंडिताइन बह गयीं. पंडीजी बाहर
निकल आये. सबने पंडीजी की खूब लानत मलामत की. 'आप
देख रहे थे कि मईया दक्खिन बह रही हैं तो बचाने के लिए हाथ-पाँव उत्तर की तरफ
क्यों मार रहे थे?'
पंडीजी ने कहा- पंडिताइन ने जीते-जी
मेरी कोई बात नहीं मानी. मरते समय भी मुझे पक्का भरोसा था कि वह धारा के विपरीत ही
लगेगी. इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है.
...
(मुझे यह कहानी क्यों याद आ रही है? बस सुना रहा हूँ. आप तो जानते ही हैं-
सुनने वाला सच्चा, कहने वाला झूट्ठा. लेकिन;कहनी गईल वने में, सोच अपनी मने में!)