ललित निबंध
आज विश्वकर्मा पूजा है। विश्वकर्मा जयंती। विश्वकर्मा के
प्राचीनतम ग्रंथों में विविध नाम और रूप मिलते हैं। कहा जाता है कि लंका की नगरी, कृष्ण के लिए द्वारका उन्होंने ही बनाई थी। दुनिया की तमाम संरचनाएं उन्हीं की बनाई हुई हैं। इस तरह वे
दुनिया के पहले अभियंता थे। उन्हें कभी प्रजापति तक कहा गया। लेकिन ठीक से विचार
करने पर पता चलेगा कि भले ही इस देवता का मिथकों में उल्लेख मिलता हो और विष्णु पुराण में 'देव बढ़ई' कहकर संबोधित किया गया हो, इनका अभ्युदय आधुनिक काल के देवता के रूप में अधिक है। आधुनिक काल के उद्योगों,
मशीनों ने इस देवता को पुनर्जीवित किया है।
इसीलिए इनकी पूजा का चलन कल-कारखानों और लोहा-लक्कड़ की दुकानों तथा मैकेनिकों के
यहाँ ही ज्यादा होती है। यह एकमात्र ऐसे देवता हैं जिनकी जयंती एक निश्चित तारीख
को पड़ती है। १७ सितम्बर को। वैसे तो सब त्योहारों के लिए एक तिथि नियत है लेकिन
सबके लिए नियत तिथियाँ चाँद और सूर्य की गति से तय होती हैं। इसलिए उनके मामले में
घट-बढ़ होती रहती है। यह जयंती अंग्रेजी कैलेण्डर से तय की जाती है। इस तरह इसकी नए होने की बात स्पष्ट हो जाती है। अब तो बाकायदा उनके पूजन की विधि भी कमर्काण्ड में शामिल कर ली गयी है। किसी गजानन स्वामी ने उनकी आरती गढ़ ली है जिसमें उन्हें सुख देने वाला भगवान बताया गया है-
श्री विश्वकर्मा जी की आरती, जो कोई नर गावे।
कहत गजानन स्वामी, सुख सम्पत्ति पावे॥
विश्वकर्मा की पूजा कल-कारखानों में ही किये जाने का प्रचलन
है। मैं सोचता हूँ कि मजदूरों-श्रमिकों के लिए भी देवता बनाने की जरूरत क्यों आन
पड़ी? औद्योगीकरण निःसंदेह
अंग्रेजों की देन है। फिर उद्योगों पर अधिकांशतः कब्ज़ा अंग्रेजों या अंग्रेजीपरस्त
लोगों का ही रहा है। जबकि मजदूर-श्रमिक थे- हिन्दू अथवा भारतीय ग्रामीण। ऐसा
प्रतीत होता है कि सेठों-उद्योगपतियों ने अपने कल-कारखानों की सुरक्षा के लिए इस
देवता को पुनर्जीवित किया। देवता की प्रतिष्ठा हो जाने के बाद मशीनें लोहे का एक
यंत्र भर नहीं रह गयीं। वे ईश्वर की बनाई संरचना हो गयीं। यह अनायास नहीं है कि आज
भी अनेक लोग किसी वाहन या मशीन में किसी सुधार या निर्माण या उपयोग करने के पहले
उसे प्रणाम करते हैं।
बचपन में जहाँ मैं रहता था- दक्षिण चौबीस परगना, पश्चिम बंगाल में, वहाँ बाबूजी बिरला के एक चटकल में श्रमिक थे। आज का दिन
वहाँ छुट्टी का दिन होता था। सभी श्रमिकों की छुट्टी रहती थी और शाम के समय समूचा
मिल परिसर अद्भुत तरीके से सजाया जाता था। विविध तरीके की झांकियां स्थापित की
जाती थीं। उस दिन किसी भी नागरिक को परिसर में जाने की अनुमति थी। हमलोग भी जाते
थे। एक मेला था। रोमांचक मेला। तब हम जहाँ रहते थे-बिजली कम लोगों को नसीब थी। मैं
स्वयं एक दड़बेनुमा कमरे में रहता था और ढिबरी और लालटेन की रोशनी में पढ़ता था। तब इस तरह
के विशाल मशीनों और कल कारखानों को देखकर हमलोग स्वतः ही मान लेते थे कि इन्हें
मनुष्य कैसे बना सकता है। यह अवश्य किसी ईश्वर की बनाई संरचना होगी। ईश्वर कौन?
अवश्य ही विश्वकर्मा जी। तब विश्वकर्मा का नाम
जबान पर आते ही जी जरूर लग जाया करता था।
बाद में इतिहास की कई किताबों को पढ़ते हुए पता चला कि कई अंग्रेज
विद्वानों ने भी खुदाई में प्राप्त कई ध्वंशावशेषों को देखकर क्यों यह स्थापना
व्यक्त की होगी कि इन्हें किसी दैत्य या देवता ने बनाया होगा।
मैं जब कभी उन मेले में जाता था तो इन मशीनों को बहुत ध्यान
से देखता था। वे भयावह थीं। लेकिन उस दिन सबका ध्यान सजावट और झांकियों पर रहता
था। मुझे याद है। एक बार एक झाँकी ऐसी बनी थी कि एक घर में आग लगी है। एक औरत
घबराई हुई मुद्रा में पुकार रही है। सामने ही कुछ दूरी पर चार लोग ताश खेल रहे
हैं। वह व्यक्ति जिसका घर जल रहा है, वह देख रहा है कि उसकी पत्नी इशारे कर रही
है, वह ‘एक बाज़ी और’ का संकेत कर ताश खेलने में व्यस्त हो जाता है। इस झाँकी ने
मेरे अबोध मन पर बहुत असर डाला था। मेरे बाबूजी को भी ताश खेलने का जबरदस्त चस्का
था। माँ से इस बात को लेकर खूब किचकिच होती रहती थी। बाद में जब माँ गाँव आ गयीं
तो बाबूजी को रोकने-टोकने वाला कोई नहीं रह गया था। मैंने भी उसी समय ताश खेलना
सीखा था। जुआ खेलना भी। वह झाँकी मुझे यदा-कदा याद आया करती थी। अब सोचता हूँ तो
पाता हूँ कि धर्म आदि मामले हमें डराते भले हों, अगर हम ढीठ हो जाएँ तो हम उनके
डर-भय से ऊपर उठ जाते हैं। यह जो इतना सारा कुकर्म आदि धार्मिक किस्म के लोग भी
करते हैं, मुझे बहुत ज्यादा आश्चर्य नहीं होता।
मैं जब शेखर जोशी की कहानियाँ पढ़ता हूँ और उनमें आने वाले
मजदूर-श्रमिक जीवन की दुश्वारियों का अहसास करता हूँ तो अपने कथन की पुष्टि का एक
आधार भी पाता हूँ। क्या ऐसा न हुआ होगा कि उद्योगपति-मालिक आदि अपनी संपत्ति की
सुरक्षा के लिए, उसकी सलामती के
लिए इस पूजा का चलन शुरू करवाएं हों। मुझे याद है, जब बाबूजी काम करने जाते थे तो
तेलाई ले आते थे। तेलाई अपशिष्ट मशीनी तेल में अपशिष्ट रूई या जूट को डुबोकर बनाई
जाती थी। यह काम आती थी चूल्हे में आग लगाने में। हमलोग खाना पकाने के लिए कोयले
अथवा गुल का प्रयोग करते थे। कोयला महँगा था। गुल हमें बनाना पड़ता था। इसे बनाने
का श्रमसाध्य काम था। हम छाई खरीदते थे। छाई, कोयले का अपशिष्ट था। धूल की तरह।
उसमें गंगा किनारे की काली मिट्टी, जो बहुत लसोड़ होती थी, अच्छी तरह से मिलाई जाती
थी। उसमें पानी मिलकर इसे बनाते थे। इस मिश्रण में सही अनुपात का ख़याल रखना पड़ता
था। वरना मिट्टी ज्यादा हो जाने पर गुल बेकार हो जाता था और जल्दी ही धुआं जाता था।
हम इसे फिर छोटे-छोटे टुकड़ों में जैसे ‘बड़ी’ बनाई जाती है, बनाते थे। धूप में इसे
ठीक से सुखवाया जाता था। मुझे याद है, जिस मोहल्ले में मैं रहता था, उसमें इस काम
को लोग समूह में करते थे। इससे यह जल्दी हो जाया करता था। इस काम के करने में ही न
जाने कितनी प्रेम कहानियां बनी और फिर चूल्हे की आंच में झुलस गयीं। मेरी एक प्रेम
कहानी भी उन्हीं दिनों परवान चढ़ी थी। हम अचानक जवान हो गए थे। इसी गुल के बनाने की
प्रक्रिया ने राजनीति की दुनिया से भी परिचित कराया था। १९९१ की रथयात्रा, १९९२ में
बाबरी मस्जिद के विध्वंस और उसी समय के आस-पास लालू यादव के बिहार में मुख्यमंत्री
बन जाने के लाभ-हानि पर कई एक बहसों में मैं हिस्सेदार बन गया था। वह कांग्रेस के
उत्तर भारत के राज्यों से पतन का दौर था और क्षेत्रीय दलों के उभार का भी लेकिन वह
कहानी फिर कभी। तो, जो गुल बनता था उसे चूल्हे में दहकाने के लिए चिपरी की जरूरत
पड़ती थी। चिपरी, गोबर से बनाई जाती थी। उपले की तरह। लेकिन यह चिपटी होती थी और एक
रूपये में एक कूड़ी मिलती थी। कूड़ी बंगला में बीस की संख्या को भी कहते हैं और लड़की
जात के लिए भी। हम लोग एकमुश्त चिपरी खरीदते थे। चिपरी वहां स्थानीय लोग बनाते थे
और बेचते थे। इस चिपरी को सुलगाने के लिए तेलाई की जरूरत पड़ती थी। तेलाई में मौजूद
मशीनी तेल जल्दी आग पकड़ती थी। उसके अभाव में मिट्टी के तेल का इस्तेमाल करना पड़ता
था। मिट्टी का तेल भी कोटे पर मिलता था। कोटे का तेल लेना भी हँसी-खेल नहीं था।
महँगा तो वह था ही।
मैं बता रहा था कि बाबूजी को जब तेलाई लाना होता था तो वे
इसे चुराकर लाते थे। इसे गोलानुमा बनाकर एक रस्सी से बाँध कर लाया जाता था। जब वे
लाते थे, अक्सर बताते थे कि इसे लाना अब हँसी-खेल नहीं है। सब शक करते हैं। वे
बताते थे कि तेलाई ले आने पर गार्ड पहले कुछ नहीं कहते थे। वे भी उन्हीं की तरह के
जीवन शैली में रहने वाले लोग थे। लेकिन बाद में उन्होंने भी टोकना शुरू कर दिया था।
यह टोकना, श्रमिक जीवन के असाध्य श्रम पर शक करना होता था और उनकी ईमानदारी को
चुनौती देना। शेखर जोशी की कहानियों में इस स्थितियों को सहजता से देखा जा सकता है।
शेखर जोशी की एक कहानी 'बदबू' से एक उद्धरण यहाँ दे रहा हूँ- "बाहर पंक्ति के पहले सिरे पर फोरमैन चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को अपने
अपने थैले खोल कर दिखाने का आदेश दे रहा था। उसकी बारी आ गयी थी। फोरमैन ने स्वयं
डिब्बा-थैला हाथों में लेकर
देखा, असंतोष के कारण उसका मुँह फीका पड़ गया। सर्चर को सबकी जेबें टटोलने का उसने आदेश दिया. उसकी जेबें भी स्वयं फोरमैन ने टटोलीं, परन्तु फोरमैन के चेहरे पर
फिर निराशा छा गयी। जाते-जाते उसने फोरमैन की
ओर देखा। फोरमैन ने आँखें भूमि की ओर झुका ली थीं। गर्व से छाती उठाकर वह बड़े गेट
की ओर चल दिया।(पृष्ठ-१४६,
बदबू, शेखर जोशी की प्रतिनिधि कहानियां।) बाद में जब शेखर जोशी की कहानियां पढ़ने
का मौका मिला तो मजदूर-श्रमिक जीवन की इन इन्दराजों को देखकर बचपन के कई दृश्य
सजीव हो उठे थे। ऐसे कारखानों
में अगर विश्वकर्मा नामक देवता की प्रतिष्ठा हो गयी है तो मैं इसके मिथकीयता की
परीक्षा जरूर कर लेना चाहता हूँ।
खैर, मजदूरों और श्रमिकों के इस देवता को मैं कैसे प्रणाम
करूँ? जब मैं देखता हूँ कि इनका होना कुछ मुट्ठी भर लोगों का हित साधन करना है। आप
क्या कहते हैं? वे प्रथम अभियन्ता भले हों, पूंजीपतियों के हितचिन्तक ही हैं।
--डॉ. रमाकान्त राय.
३६५ ए/१, कंधईपुर, प्रीतमनगर,
धूमनगंज, इलाहाबाद. २११०११
९८३८९५२४२६