भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका 'नया ज्ञानोदय' कहानियों के लिए विशेष तौर पर याद की
जाती है। इस माह (सितम्बर २०१३) की बड़ी उपलब्धि Harnot Sr Harnot की कहानी "हक्वाई" कही जा सकती
है। हक्वाई मोची के उस लोहे के तिकोने स्टैंड को कहते हैं, जिसपर रखकर वह जूते की मरम्मत करता है।
यह कहानी पढ़ते हुए मुझे धूमिल की
कविता 'मोचीराम' और प्रो। तुलसीराम की आत्मकथा "मुर्दहिया" दोनों याद आये। धूमिल की कविता यह कि- "न
कोई छोटा है/ न कोई बड़ा है/ मेरे आगे हर आदमी/ एक जोड़ी जूता है/ जो मरम्मत के लिए
खड़ा है।" और कहानी में भागीराम के आगे सब मरम्मत के लिए खड़े हैं। तुलसीराम की
आत्मकथा इसलिए कि कमाई करने यानि चमड़े का काम करने का इतना प्रामाणिक वर्णन वहीँ
दिखा मुझे। और फिर यहाँ, उनकी प्रक्रिया का वर्णन भी।
हक्वाई भागीराम की कहानी है। भागीराम का
कसूर यह है कि (उनका कसूर तो यह भी है कि वे निम्न
कुल में जन्मे और उसकी कीमत भी बहुत कुछ खोकर गवांया। यह सब भी तफसील से कहानी में आया है लेकिन
यहाँ बात दूसरी ही की जाए।) वे
नगर निगम के नए अधिकारी से जूता पॉलिश करने का मेहनताना मांग लेते हैं। उसका खामियाजा यह है कि
उन्हें फिर से विस्थापित होना पड़ता है। कई तरह के कष्ट झेलने पड़ते हैं। लेकिन विस्थापन के इस पड़ाव में वे एक नए अभियान पर निकल
पड़ते हैं। गाँधी बाबा का रास्ता। आमरण अनशन।
कहानी अपने बेहतर ट्रीटमेंट और लेखकीय
दृष्टि के लिए याद रखी जाएगी। लेखक की पक्षधरता
भागीराम के साथ है। वे उनके श्रम और जुझारू जीवन का पूरा सम्मान करते हुए दीखते हैं। कोई काम
छोटा नहीं होता। भागीराम तो अपने काम को पूजने की
हद तक पसंद करते हैं। वे हक्वाई को अपना देवता मानते हैं।
कहानी में जिस तरह से भागीराम का चित्रण
किया गया है, वह काबिल-ए-तारीफ है। मुझे पसंद आया कि
लेखक का शब्द चयन पर विशेष ध्यान है। कहीं भी भागीराम के लिए किसी असंसदीय शब्द का
प्रयोग नहीं किया है। यह बताना इस
लिए ख़ास है कि यथार्थ का चित्रण करने के बहाने भाई लोग अपनी सामंती मानसिकता का प्रदर्शन करने
से नहीं चूकते। कहानी इसलिए भी बहुत ख़ास बन गयी है।
ख़ास बात यह है कि लेखक को इस बात में
सिद्धि मिल गयी है कि भागीराम
जैसा सरल। सहज आदमी बोलेगा तो उसके वाक्य छोटे और भाषा सहज होगी। यह सफाई बहुत कम दिखती है।
अब आप कहानी पढ़ें और बताएं कि "मैं
क्या झूठ बोल्याँ"।
हरनोट जी को बधाई। बहुत-बहुत बधाइयाँ।
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