सम्यक शर्मा की कहानी मनुस्मृति - भाग -१ 'चीतोदय' में आपने पढ़ा कि कथानायक
मनु हथौड़े को बल्ला मानकर कल्पना लोक में विचरण कर रहे थे। आगे क्या हुआ, जानने
के लिए पढ़ें- भाग -२ चीतत्व
भंग। इस मनुस्मृति में कहानी
है, बचपन की मधुर स्मृतियाँ हैं और शब्दों के साथ
गेंदबाजी-बल्लेबाजी और कमेंट्री है। आनन्द लें। - सम्पादक
भाग
-२ चीतत्व भंग
लुहार की दुकान से चीतासत्त्व प्राप्त कर मनु आगे बढ़े। वे भारत को प्राप्त
हुई नवीनतम जीत की अद्भुत छटा का स्मरण कर प्रसन्नचित्त थे। चाल में भी उछाल थी,
गाबा समान। थोड़ा आगे बढ़ते ही एक पी.सी.ओ. बूथ आया जिसमें चीताप्रसू
अपने मायके की खोज-खबर लेने हेतु दाखिल हुईं। मनु उसके किवाड़ से चिपक कर ही बाहर
खड़े रहे और क्षण भर में ही अपने पदार्पण स्थल पर पुनः पहुँच गए, कारण कि मैच समाप्त होने के पश्चात् प्रसाद-वंटन की रीति अभी बची थी।
अब वे ‘मैन ऑफ़ दी मैच’ पाने की जुगत भिड़ाने लगे। चीता हो जाने के उपरांत वे स्पेस-टाइम की चादरों
पर और भी तीव्र गति से दौड़ने में सक्षम हो गए थे। अतः पाँच ही नैनोसेकंडों में वे
मैच की पहली पारी में पहुँचे जहाँ खटाखट अपने चीतत्व से दो कैच लपक व तीन रनआउट
प्रभावित कर क्षेत्ररक्षण में अपना लोहा मनवा वापिस लौट आये रीतिस्थल। इस प्रकार
उन्होंने अपने मै.ऑ.दी.मै को न्याय्य (जस्टिफ़ाइड्) बनाया। हालाँकि साढ़े तीन फुटिये
मनु से पारितोषिक में मिला पाँच फुटिया चैक संभल नहीं रहा था, उनकी छोटी-छोटी हथेलियों से बार-बार खिसक जाता। मनु की चिंता में वृद्धि
तब हुई जब उनके समक्ष यह प्रश्न आ खड़ा हुआ कि "इस लंम्म्म्म्बे चैक को हाथ
में पकड़कर घर कैसे लाएँगे? सीधा ऐसे ही ले चले तो बीच में
गिर जाएगा, और यदि बीच में से मोड़कर ले चले तो कहीं गत्ता ही
न फट जाए?" इसी मौन एकालाप के मध्य उनकी
माता ने फोन काटा और बूथपति को आठ रुपए दो मिनट फ़ोन करने के व दो रुपए पॉपिंस के
सहित कुल दस का नोट थमाया और सुत संग आगे बढ़ चलीं। पॉपिंस के खट्टे-मीठे रसों ने
चैक की चिंता को उड़नछू कर दिया था। कुछ गोलियाँ दन्तप्रहार से तोड़ कर खाईं,
तो कुछ का एक ओर गाल में दबाकर रसपान किया, स्स्स्स्स्प्प्...स्स्स्स्स्प्प्।
गोलियों का रंग बदलता गया और क्रमशः मुँह का स्वाद।
इस जिह्वानंद के दौरान मनु की चीतामय दृष्टि गई दीवार पर लगे जादूगर ओ.पी.
शर्मा के अति रंगीन विचित्र से चित्र पर। भड़कीली सी पोशाक, गुलाबी
कलगी से लैस चमकीली सी पगड़ी, खुले हुए दोनों पंजे, नाक के दाईं ओर और आँख के नीचे उपस्थित एक मध्यमाकार मस्सा, मस्तक पर काला टीका, रक्ताभ ओंठ...यह भयानक छवि किसी
भी सामान्य खरगोश-बिल्ली को भयाक्रांत कर सकती थी, किन्तु
चीते के लिए यह बड़े ही कौतूहल का विषय थी। वह अत्यंत रुचि से उसे निहारता और
मंत्रमुग्ध हो जाता। अब वह स्वयं को उसी वेशभूषा में पा चुका है। हाथ में जादुई
छड़ी लिए वह इंद्रजाल का बौना पुरोधा दो रूसी सहायकों (ललनाएँ ऑफ़कॉर्स्!) के साथ
सूरसदन हॉल के मंच पर पहुँचता है। इससे पहले कि वह सैकड़ों दर्शकों को अपने मायापाश
में फाँस वशीभूत कर पाता उसे अपने पैर के पिछले भाग पर कुछ लिबलिबा सा संचलन
(मूवमेंट्) महसूस हुआ। वह तुरंत ठिठका तथा एक श्वाना को अपना पैर चाटते देख ज़ोर से
बिदका। तत्क्षण भरी-बजरिया आरम्भ हुई अनिश्चित दूरी की तेजचाल प्रतियोगिता। चीता
आगे, श्वाना पीछे। दोनों की गतियों में सकारात्मक प्रवणता
सहित रैखीय सम्बन्ध (लीनियर् रिलेशन् विद् पॉज़िटिव् स्लोप्) स्थापित हो गया था।
निर्देशांक ज्यामिति, यू नो!
वह तो भला हो उस बिजली के खंभे का जो प्रतियोगितामार्ग में मिला तो श्वाना
व्यस्त हुई और चीते को "पितृदेव संरक्षणम्" का जाप करते हुए भाग निकलने
का अवसर प्राप्त हुआ अन्यथा बीच-बजार उस चंचल चीते का चीतत्व चौपट हो जाता। थैंक्
गॉड्!!! बहरहाल, जैसे-तैसे अपना चीतत्व बचाते हुए मनु वहीं
पास ही भारद्वाज चौराहे पर शाक-क्रय में व्यस्त अपनी मम्मी के जा पहुँचे। पल्लू की
ओट लेकर उन्होंने एक आँख से अपनी पीछे दौड़ रही (भावी) चीतेशमर्दिनी की ओर मुड़कर
देखा, वह नदारद थी। माँ का आँचल और श्वाना को अपनी दृष्टि से
ओझल पा मनु की हृदयगति सामान्य हुई और चीतत्व पुनर्जीवित। कुल आधा मिनट तक उस
वृद्ध शाक-विक्रेता की बनियान में बनी चोर-ज़ेब का पर्यवेक्षण करने के बाद उन्होंने
अपनी बाईं ज़ेब में हाथ डाला और बाहर निकली एक प्लास्टिक की मूल्य दो रुपए वाली
गेंद। हुआ यूँ था कि पॉण्ड्स पॉडर छिड़कने के पश्चात् मनु चप्पल निकालने हेतु पलंग
के नीचे घुसे थे, वहीं यह गेंद भी धरी थी। यह देखते ही उनकी
बड़ी-बड़ी आँखें टिमटिमा गईं और वे उसे अपनी बाईं ज़ेब में धर लाये।
"अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि कैसे एक योजनाबद्ध रूप से मनुदेव ने
जीवात्मा से चीतात्मा बनने तक का सफ़र तय किया है? हैंह्...हैंह्...हैंह्!"
~ रवीशचंद (लाल माइक वाले)
अब आरम्भ होता है चीताभ्यास। मनु ने गेंद 15 से.मी.
हवा में उछाली और लपक ली तथा इस उपलब्धि को चार-पाँच बार दोहराया। लय बनने लगी तो
एक कुशल खिलाड़ी की भाँति अपने खेल को उच्च स्तर तक ले जाने के लिए क्रमशः एक और
फिर डेढ़ फुट तक गेंद का अंतरिक्ष में प्रक्षेपण कर उसे सफलतापूर्वक लपकते गए। ऐसी
भीड़भाड़ और हलचल के बीच ऐसे जौहर दिखाना कोई बाएँ हाथ का खेल नहीं था, इसमें दोनों हाथ प्रयुक्त होते थे, ताकि गेंद
सुरक्षित लपकी जाए।
अब उन्हें खेल में कठिनाई का स्तर और ऊँचा कर अपने को और परिपक्व
क्षेत्ररक्षक बनाना था, सो गेंद को धरती पर टिप्पा खिलाकर
लपकने का निश्चय किया। गेंद पटकी, और लपकी, आत्मविश्वास में हुई वृद्धि। यूँ मानिए कि उनके शरीर में (अजय) जडेजा-तत्त्व का प्रस्फुटन हो रहा था। गेंद को पटकने और लपकने का चक्र चल पड़ा था जिसकी
आवृत्ति समय के संग एक स्थिर गति से बढ़ती जा रही थी। प्रत्येक पटक में स्फूर्ति,
प्रत्येक लपक में चपलता, वह भी जडेजा तनु। पटक,
लपक व दोनों हाथों के सभी क्रमचय-संचय (पर्म्यूटेशन्-कॉम्बिनेशन् यू
नो!) अपनाए जा रहे थे जैसे कभी दाएँ से पटक व बाएँ से लपक, तो
कभी बाएँ से पटक व दाएँ से लपक आदि। सटीक पटक, सटीक लपक,
सटक-पटक, सटक-पटक! इतने में न जाने कब
भावातिरेक में गेंद की पटक एक गिट्टी पर हो गई कि पता ही नहीं चला। गेंद ने कोण
बदला और चीतेश की परीक्षा लेने सड़क की ओर गमन करने लगी। इस पटक-लपक के खेल से उनका
हस्त-नयन समन्वय गेंद को लपकने में इतना अभ्यस्त हो चुका था कि क्षण भर में ही वे
गेंद की दिशा को परखते हुए उसकी ओर दौड़े, उस तक पहुँच पाते
इससे पहले ही टिप्पा ले लिया था गेंद ने। परंतु 'वन् टिप्
वन् हैंड्' सरीखे भ्रष्ट पैंतरे से अभी भी अपने रिकॉर्ड को
बेदाग़ रखने के लिए उन्होंने अपना दायाँ हाथ आगे तो फेंका, किन्तु
हाथ निराशा ही लगी, गेंद नहीं। दो टिप्पे हो चुके थे,
रिकॉर्ड धूमिल हो इससे पहले चीताधिराज ने जागृत की कुंडलिनी और साधा
सीधा आज्ञा चक्र। अब क्या
था, तत्क्षण ऐकिक नियम (यूनिट्री मैथड्) का उत्कृष्ट उपयोग
उन्होंने 'टू टिप् टू हैंड्' नामक
माइंड् = ब्लोन् कर देने वाली विधा का सृजन किया और गेंद की दिशा में स्वयं को
झोंक दिया...
गेंद मनु के हाथों को छू पाती इससे एक साइकिल उनके माथे को छू गई, अर्थात् ठोक गई। उस साइकिल ने चीतत्व को भले ही ठोकर मारी थी, लेकिन वो चीता ही क्या जो ठहर जाए! अतः पाँच-सात सेकण्ड की लघु-मूर्छा से
जागृत हो उन्होंने सर्वप्रथम गेंद ढूँढी और उसे पाकर निश्चिंतता की साँस ली,
परन्तु
"चोट सर में लगीऽऽऽ, दर्द होने लगाऽऽऽ..." ~
अलीशा चिनॉय का गायन
अब हाथ में गेंद व मस्तक में पीड़ा लिए वे शाक का थैला लिए खड़ी अपनी मम्मी
के पास पहुँचे, जिसे देखकर वे चिंताभाव से चल्लाईं
"कहाँ गायब हो गया था रे नैक सी ही देर में? और खून
कैसे आ रहा है माथे पर? कैसे लगा ली?" अचरज एवं अविश्वास में मनु ने माथे को हाथ से टटोला और कुछ गीलापन अनुभव
किया। अब खून से लथपथ अपनी हथेली देख मनु को काटो तो खून नहीं। चीतत्व छिन्न-भिन्न,
क्योंकि माथे से खून आना मतलब डायरेक्ट मौत! यही तो होता है सन्नी
देवल की फिल्मों में। यह सोचते ही मनु के नेत्रों में मोटे-मोटे अश्रुओं की धारा
थी व कंठ में कर्कश क्रंदन। बिलखता देख उसे माँ ने तुरंत गोद में उठाया, पल्लू माथे पर रख रक्तस्राव की रोकथाम की और दौड़ पड़ीं उसी चौराहे पर स्थित
भारद्वाज अस्पताल की ओर पट्टी कराने। वेदना अधिक नहीं थी किन्तु मृत्यु की आशंका
ने उसके विलाप-स्वर को चौरानवे डेसिबल के पार पहुँचा दिया था, जिसे सुनकर माँ ने उसे पुचकारते हुए कहा "कोई बात नहीं बेटा, चींटी मर गईं और कुछ नहीं हुआ। रोये मत बेटू, हॉस्पिटल
आ गया।"
"आखिर हम किस समाज में रहते हैं? जहाँ पिपीलिका-मर्दन
से पौरुष प्राप्त होता है? जहाँ अपनी पीड़ा भुलाने के लिए
पिपीलिकाओं की (कथित ही सही) मृत्यु पर उल्लास होता है? हम
क्या बीज बो रहे हैं अगली पीढ़ियों के अंदर? छः!!!" ~
रैंडम् ऐनिमल् ऐक्टिविस्ट्
ख़ैर घाव साफ़ हुआ, फिर पट्टी हुई, मनु मरा नहीं, तब जा जाकर वह सामान्य रूप से बोलने
योग्य हुआ। डॉ. भारद्वाज के पूछे जाने पर उसने बतलाया कि कैसे-कैसे गेंद को लपकने
के चक्कर में वह चलती साइकिल से ठुक गया था। यह इक़बाल-ए-जुर्म सुनते ही उसकी माँ
के मुख पर एक भाव आया कि यदि घर में ऐसा किया किया होता तो पहले पूजा होती,
फिर पट्टी। नम आँखें, सूखे होंठ, रुँधा हुआ गला लिए और मम्मी की अंगुली थामे अंततः वह लौट आया चुपचाप घर।
चीतत्व भी बीच चौराहे पर अंततः भंग हुआ ऐसा प्रतीत हो रहा था कि तभी मनु मिस्टर
पलंग पर लेटे-लेटे सोचते हैं कि "पट्टी के ऊपर हेल्मेट तो पहनी नहीं जा सकती,
चलो अंपायर के जैसी गोल टोपी पहन कर ही खेला जाएगा...!"
चीतोपदेश - चीतत्व अक्षय है और चीतात्मा अमर।
जय दाऊजी की।
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सम्यक शर्मा
(सम्यक शर्मा पर क्लिक करने पर ट्विटर पर पाये जाते हैं। उन्होंने अपने बारे में लिख भेजा है- ज्यों का त्यों उतार रहा हूँ- "सम्यक्
शर्मा। आगरावासी। ब्रजभाषी। शहरी एवं ग्रामीण के बीच का हलुआ। दसवीं-बारहवीं आगरा
से ही करी। यांत्रिक अभियांत्रिकी में बी.टेक. ग़ाज़ियाबाद के अजय कुमार गर्ग इंजीनियरिंग
कॉलेज से करी। क्यों ही करी! क्रिकेट का आदी। फ़िज़िक्स और हिंदी से विशेष प्रेम।
गणित से लगाव। बस।" - सम्पादक)
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