शनिवार, 12 अक्टूबर 2024

राम की शक्ति-पूजा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

रवि हुआ अस्त : ज्योति के पत्र पर लिखा अमर 


रह गया राम-रावण का अपराजेय समर 


आज का, तीक्ष्ण-शर-विधृत-क्षिप्र-कर वेग-प्रखर, 


शतशेलसंवरणशील, नीलनभ-गर्ज्जित-स्वर, 


प्रतिपल-परिवर्तित-व्यूह-भेद-कौशल-समूह,— 


राक्षस-विरुद्ध प्रत्यूह,—क्रुद्ध-कपि-विषम—हूह, 


विच्छुरितवह्नि—राजीवनयन-हत-लक्ष्य-बाण, 


लोहितलोचन-रावण-मदमोचन-महीयान, 


राघव-लाघव-रावण-वारण—गत-युग्म-प्रहर, 


उद्धत-लंकापति-मर्दित-कपि-दल-बल-विस्तर, 


अनिमेष-राम-विश्वजिद्दिव्य-शर-भंग-भाव,— 


विद्धांग-बद्ध-कोदंड-मुष्टि—खर-रुधिर-स्राव, 


रावण-प्रहार-दुर्वार-विकल-वानर दल-बल,— 


मूर्च्छित-सुग्रीवांगद-भीषण-गवाक्ष-गय-नल, 


वारित-सौमित्र-भल्लपति—अगणित-मल्ल-रोध, 


गर्ज्जित-प्रलयाब्धि—क्षुब्ध—हनुमत्-केवल-प्रबोध, 


उद्गीरित-वह्नि-भीम-पर्वत-कपि-चतुः प्रहर, 


जानकी-भीरु-उर—आशाभर—रावण-सम्वर। 


लौटे युग-दल। राक्षस-पदतल पृथ्वी टलमल, 


बिंध महोल्लास से बार-बार आकाश विकल। 


वानर-वाहिनी खिन्न, लख निज-पति-चरण-चिह्न 


चल रही शिविर की ओर स्थविर-दल ज्यों विभिन्न; 


प्रशमित है वातावरण; नमित-मुख सांध्य कमल 


लक्ष्मण चिंता-पल, पीछे वानर-वीर सकल; 


रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण, 


श्लथ धनु-गुण है कटिबंध स्रस्त—तूणीर-धरण, 


दृढ़ जटा-मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल 


फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर, विपुल 


उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशांधकार, 


चमकती दूर ताराएँ ज्यों हों कहीं पार। 


आए सब शिविर, सानु पर पर्वत के, मंथर, 


सुग्रीव, विभीषण, जांबवान आदिक वानर, 


सेनापति दल-विशेष के, अंगद, हनुमान 


नल, नील, गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान 


करने के लिए, फेर वानर-दल आश्रय-स्थल। 


बैठे रघु-कुल-मणि श्वेत शिला पर; निर्मल जल 


ले आए कर-पद-क्षालनार्थ पटु हनुमान; 


अन्य वीर सर के गए तीर संध्या-विधान— 


वंदना ईश की करने को, लौटे सत्वर, 


सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर। 


पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण, भल्लधीर, 


सुग्रीव, प्रांत पर पाद-पद्म के महावीर; 


यूथपति अन्य जो, यथास्थान, हो निर्निमेष 


देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम-देश। 


है अमानिशा; उगलता गगन घन अंधकार; 


खो रहा दिशा का ज्ञान; स्तब्ध है पवन-चार; 


अप्रतिहत गरज रहा पीछे अंबुधि विशाल; 


भूधर ज्यों ध्यान-मग्न; केवल जलती मशाल। 


स्थिर राघवेंद्र को हिला रहा फिर-फिर संशय, 


रह-रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय; 


जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य-श्रांत,— 


एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रांत, 


कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार-बार, 


असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार। 


ऐसे क्षण अंधकार घन में जैसे विद्युत 


जागी पृथ्वी-तनया-कुमारिका-छवि, अच्युत 


देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन 


विदेह का,—प्रथम स्नेह का लतांतराल मिलन 


नयनों का—नयनों से गोपन—प्रिय संभाषण, 


पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन, 


काँपते हुए किसलय,—झरते पराग-समुदय, 


गाते खग-नव-जीवन-परिचय,—तरु मलय—वलय, 


ज्योति प्रपात स्वर्गीय,—ज्ञात छवि प्रथम स्वीय, 


जानकी—नयन—कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय। 


सिहरा तन, क्षण-भर भूला मन, लहरा समस्त, 


हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त, 


फूटी स्मिति सीता-ध्यान-लीन राम के अधर, 


फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आई भर, 


वे आए याद दिव्य शर अगणित मंत्रपूत,— 


फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत, 


देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर, 


ताड़का, सुबाहु, विराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर; 


फिर देखी भीमा मूर्ति आज रण देखी जो 


आच्छादित किए हुए सम्मुख समग्र नभ को, 


ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ-बुझकर हुए क्षीण, 


पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन, 


लख शंकाकुल हो गए अतुल-बल शेष-शयन,— 


खिंच गए दृगों में सीता के राममय नयन; 


फिर सुना—हँस रहा अट्टहास रावण खलखल, 


भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्ता-दल। 


बैठे मारुति देखते राम—चरणारविंद 


युग ‘अस्ति-नास्ति' के एक-रूप, गुण-गण—अनिंद्य; 


साधना-मध्य भी साम्य—वाम-कर दक्षिण-पद, 


दक्षिण-कर-तल पर वाम चरण, कपिवर गद्-गद् 


पा सत्य, सच्चिदानंदरूप, विश्राम-धाम, 


जपते सभक्ति अजपा विभक्त हो राम-नाम। 


युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु युगल, 


देखा कपि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल; 


ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ,— 


सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ; 


टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल, 


संदिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल 


बैठे वे वही कमल-लोचन, पर सजल नयन, 


व्याकुल-व्याकुल कुछ चिर-प्रफुल्ल मुख, निश्चेतन। 


'ये अश्रु राम के' आते ही मन में विचार, 


उद्वेल हो उठा शक्ति-खेल-सागर अपार, 


हो श्वसित पवन-उनचास, पिता-पक्ष से तुमुल, 


एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल, 


शत घूर्णावर्त, तरंग-भंग उठते पहाड़, 


जल राशि-राशि जल पर चढ़ता खाता पछाड़ 


तोड़ता बंध—प्रतिसंध धरा, हो स्फीत-वक्ष 


दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष। 


शत-वायु-वेग-बल, डुबा अतल में देश-भाव, 


जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव 


वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश 


पहुँचा, एकादशरुद्र क्षुब्ध कर अट्टहास। 


रावण-महिमा श्मामा विभावरी-अंधकार, 


यह रुद्र राम-पूजन-प्रताप तेजःप्रसार; 


उस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कंध-पूजित, 


इस ओर रुद्र-वंदन जो रघुनंदन-कूजित; 


करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल, 


लख महानाश शिव अचल हुए क्षण-भर चंचल, 


श्यामा के पदतल भारधरण हर मंद्रस्वर 


बोले—“संबरो देवि, निज तेज, नहीं वानर 


यह,—नहीं हुआ शृंगार-युग्म-गत, महावीर, 


अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय-शरीर, 


चिर-ब्रह्मचर्य-रत, ये एकादश रुद्र धन्य, 


मर्यादा-पुरुषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य 


लीलासहचर, दिव्यभावधर, इन पर प्रहार 


करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार; 


विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध, 


झुक जाएगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध। 


कह हुए मौन शिव; पवन-तनय में भर विस्मय 


सहसा नभ में अंजना-रूप का हुआ उदय; 


बोली माता—“तुमने रवि को जब लिया निगल 


तब नहीं बोध था तुम्हें, रहे बालक केवल; 


यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह-रह, 


यह लज्जा की है बात कि माँ रहती सह-सह; 


यह महाकाश, है जहाँ वास शिव का निर्मल— 


पूजते जिन्हें श्रीराम, उसे ग्रसने को चल 


क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ?—सोचो मन में; 


क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्रीरघुनंदन ने? 


तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य— 


क्या असंभाव्य हो यह राघव के लिए धार्य? 


कपि हुए नम्र, क्षण में माताछवि हुई लीन, 


उतरे धीरे-धीरे, गह प्रभु-पद हुए दीन। 


राम का विषण्णानन देखते हुए कुछ क्षण, 


''हे सखा'', विभीषण बोले, “आज प्रसन्न वदन 


वह नहीं, देखकर जिसे समग्र वीर वानर— 


भल्लूक विगत-श्रम हो पाते जीवन—निर्जर; 


रघुवीर, तीर सब वही तूण में हैं रक्षित, 


है वही वक्ष, रण-कुशल हस्त, बल वही अमित, 


हैं वही सुमित्रानंदन मेघनाद-जित-रण, 


हैं वही भल्लपति, वानरेंद्र सुग्रीव प्रमन, 


तारा-कुमार भी वही महाबल श्वेत धीर, 


अप्रतिभट वही एक—अर्बुद-सम, महावीर, 


है वही दक्ष सेना-नायक, है वही समर, 


फिर कैसे असमय हुआ उदय यह भाव-प्रहर? 


रघुकुल गौरव, लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण, 


तुम फेर रहे हो पीठ हो रहा जब जय रण! 


कितना श्रम हुआ व्यर्थ! आया जब मिलन-समय, 


तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय! 


रावण, रावण, लंपट, खल, कल्मष-गताचार, 


जिसने हित कहते किया मुझे पाद-प्रहार, 


बैठा उपवन में देगा दु:ख सीता को फिर,— 


कहता रण की जय-कथा पारिषद-दल से घिर;— 


सुनता वसंत में उपवन में कल-कूजित पिक 


मैं बना किंतु लंकापति, धिक्, राघव, धिक् धिक्! 


सब सभा रही निस्तब्ध : राम के स्तिमित नयन 


छोड़ते हुए, शीतल प्रकाश देखते विमन, 


जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव 


उससे न इन्हें कुछ चाव, न हो कोई दुराव; 


ज्यों हों वे शब्द मात्र,—मैत्री की समनुरक्ति, 


पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति। 


कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर 


बोले रघुमणि—मित्रवर, विजय होगी न समर; 


यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण, 


उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमंत्रण; 


अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति! कहते छल-छल 


हो गए नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल, 


रुक गया कंठ, चमका लक्ष्मण-तेजः प्रचंड, 


धँस गया धरा में कपि गह युग पद मसक दंड, 


स्थिर जांबवान,—समझते हुए ज्यों सकल भाव, 


व्याकुल सुग्रीव,—हुआ उर में ज्यों विषम घाव, 


निश्चित-सा करते हुए विभीषण कार्य-क्रम, 


मौन में रहा यों स्पंदित वातावरण विषम। 


निज सहज रूप में संयत हो जानकी-प्राण 


बोले—“आया न समझ में यह दैवी विधान; 


रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर— 


यह रहा शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर! 


करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित 


हो सकती जिनसे यह संसृति संपूर्ण विजित, 


जो तेजःपुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार 


है जिनमें निहित पतनघातक संस्कृति अपार— 


शत-शुद्धि-बोध—सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक, 


जिनमें है क्षात्रधर्म का धृत पूर्णाभिषेक, 


जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित, 


वे शर हो गए आज रण में श्रीहत, खंडित! 


देखा, हैं महाशक्ति रावण को लिए अंक, 


लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक; 


हत मंत्रपूत शर संवृत करतीं बार-बार, 


निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार! 


विचलित लख कपिदल, क्रुद्ध युद्ध को मैं ज्यों-ज्यों, 


झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों-त्यों, 


पश्चात्, देखने लगीं मुझे, बँध गए हस्त, 


फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं हुआ त्रस्त! 


कह हुए भानुकुलभूषण वहाँ मौन क्षण-भर, 


बोले विश्वस्त कंठ से जांबवान—रघुवर, 


विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण, 


हे पुरुष-सिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण, 


आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर, 


तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर; 


रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त 


तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त, 


शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन, 


छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनंदन! 


तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक 


मध्य भाग में, अंगद दक्षिण-श्वेत सहायक, 


मैं भल्ल-सैन्य; हैं वाम पार्श्व में हनूमान, 


नल, नील और छोटे कपिगण—उनके प्रधान; 


सुग्रीव, विभीषण, अन्य यूथपति यथासमय 


आएँगे रक्षाहेतु जहाँ भी होगा भय।” 


खिल गई सभा। ‘‘उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!” 


कह दिया वृद्ध को मान राम ने झुका माथ। 


हो गए ध्यान में लीन पुनः करते विचार, 


देखते सकल-तन पुलकित होता बार-बार। 


कुछ समय अनंतर इंदीवर निंदित लोचन 


खुल गए, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन। 


बोले आवेग-रहित स्वर से विश्वास-स्थित— 


मातः, दशभुजा, विश्व-ज्योतिः, मैं हूँ आश्रित; 


हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित, 


जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्ज्जित! 


यह, यह मेरा प्रतीक, मातः, समझा इंगित; 


मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनंदित।” 


कुछ समय स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न, 


फिर खोले पलक कमल-ज्योतिर्दल ध्यान-लग्न; 


हैं देख रहे मंत्री, सेनापति, वीरासन 


बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन। 


बोले भावस्थ चंद्र-मुख-निंदित रामचंद्र, 


प्राणों में पावन कंपन भर, स्वर मेघमंद्र— 


“देखो, बंधुवर सामने स्थित जो यह भूधर 


शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुंदर, 


पार्वती कल्पना हैं। इसकी, मकरंद-बिंदु; 


गरजता चरण-प्रांत पर सिंह वह, नहीं सिंधु; 


दशदिक-समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर, 


अंबर में हुए दिगंबर अर्चित शशि-शेखर; 


लख महाभाव-मंगल पदतल धँस रहा गर्व— 


मानव के मन का असुर मंद, हो रहा खर्व’’ 


फिर मधुर दृष्टि से प्रिय कपि को खींचते हुए— 


बोले प्रियतर स्वर से अंतर सींचते हुए 


“चाहिए हमें एक सौ आठ, कपि, इंदीवर, 


कम-से-कम अधिक और हों, अधिक और सुंदर, 


जाओ देवीदह, उषःकाल होते सत्वर, 


तोड़ो, लाओ वे कमल, लौटकर लड़ो समर।” 


अवगत हो जांबवान से पथ, दूरत्व, स्थान, 


प्रभु-पद-रज सिर धर चले हर्ष भर हनूमान। 


राघव ने विदा किया सबको जानकर समय, 


सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय। 


निशि हुई विगतः नभ के ललाट पर प्रथम किरण 


फूटी, रघुनंदन के दृग महिमा-ज्योति-हिरण; 


है नहीं शरासन आज हस्त-तूणीर स्कंध, 


वह नहीं सोहता निविड़-जटा दृढ़ मुकुट-बंध; 


सुन पड़ता सिंहनाद,—रण-कोलाहल अपार, 


उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार; 


पूजोपरांत जपते दुर्गा, दशभुजा नाम, 


मन करते हुए मनन नामों के गुणग्राम; 


बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण, 


गहन-से-गहनतर होने लगा समाराधन। 


क्रम-क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस, 


चक्र से चक्र मन चढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस; 


कर-जप पूरा कर एक चढ़ाते इंदीवर, 


निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर। 


चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समाहित मन, 


प्रति जप से खिंच-खिंच होने लगा महाकर्षण; 


संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर, 


जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अंबर; 


दो दिन-निष्पंद एक आसन पर रहे राम, 


अर्पित करते इंदीवर, जपते हुए नाम; 


आठवाँ दिवस, मन ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर 


कर गया अतिक्रम ब्रह्मा-हरि-शंकर का स्तर, 


हो गया विजित ब्रह्मांड पूर्ण, देवता स्तब्ध, 


हो गए दग्ध जीवन के तप के समारब्ध, 


रह गया एक इंदीवर, मन देखता-पार 


प्रायः करने को हुआ दुर्ग जो सहस्रार, 


द्विप्रहर रात्रि, साकार हुईं दुर्गा छिपकर, 


हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इंदीवर। 


यह अंतिम जप, ध्यान में देखते चरण युगल 


राम ने बढ़ाया कर लेने को नील कमल; 


कुछ लगा न हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल 


ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल, 


देखा, वह रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय 


आसन छोड़ना असिद्धि, भर गए नयनद्वयः— 


“धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध, 


धिक् साधन, जिसके लिए सदा ही किया शोध! 


जानकी! हाय, उद्धार प्रिया का न हो सका।” 


वह एक और मन रहा राम का जो न थका; 


जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय 


कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय, 


बुद्धि के दुर्ग पहुँचा, विद्युत्-गति हतचेतन 


राम में जगी स्मृति, हुए सजग पा भाव प्रमन। 


“यह है उपाय” कह उठे राम ज्यों मंद्रित घन— 


“कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन! 


दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण 


पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।'' 


कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक, 


ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक; 


ले अस्त्र वाम कर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन 


ले अर्पित करने को उद्यत हो गए सुमन। 


जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय, 


काँपा ब्रह्मांड, हुआ देवी का त्वरित उदय :— 


‘‘साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!” 


कह लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम। 


देखा राम ने—सामने श्री दुर्गा, भास्वर 


वाम पद असुर-स्कंध पर, रहा दक्षिण हरि पर: 


ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र-सज्जित, 


मंद स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित, 


हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग, 


दक्षिण गणेश, कार्तिक बाएँ रण-रंग राग, 


मस्तक पर शंकर। पदपद्मों पर श्रद्धाभर 


श्री राघव हुए प्रणत मंदस्वर वंदन कर। 


''होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन!'' 


कह महाशक्ति राम के वदन में हुईं लीन।

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