बीते दिन एक शॉपिंग मॉल के पास से निकल रहा था तो बुल्ले शाह का वह प्रसिद्ध गीत पॉप धुन में सुनाई पड़ा- "बुल्ला की जाणा मैं कौण" बुल्लेशाह का यह और अन्य कुछ दूसरे गीत गायकों की पसंद हैं। अमीर खुसरो के गीत भी धुन बदल बदल कर गाई गयी है। इस्लामी (सूफी) गायकों ने और उससे प्रभावित हो कर दूसरे गायकों ने भी कई ऐसे साधकों के गीत भिन्न भिन्न अंदाज में पेश किया है। पिछले दिनों फैज़ अहमद फैज़ की वह नज़्म भी पाकिस्तान की टोली 'कोक स्टूडियो' ने खूब झूम कर गाया था और वह मकबूल हुआ। इकबाल बानों का गाया हुआ और उनका किस्सा तो रोमानियत की मिसाल है। मज़ाज़, इक़बाल, टिन्ना पिन्ना के गाने भी बहुत मन से गाये गए हैं। हिंदी फिल्मों में भी इनका बोलबाला रहा है।
उसके मुकाबिले हिंदी/संस्कृत के गीतों को साधने की
कोशिश बहुत कम है। तुलसी-सूर को कोई गाने की कोशिश करता है तो 'चंचल' बन जाता है। उनका तरीका भी शास्त्रीय संगीत का
भ्रष्ट रूप रहता है। पॉप और जैज़ के खाँचे में डालने की बात सोचना भी हमने जरूरी
नहीं समझा है। लता मंगेशकर, आशा भोंसले और रवीन्द्र जैन ने
कुछ ढंग का गाया तो है लेकिन वह "भक्ति" के दायरे में रख दिया गया और
युवाओं से परे कर दिया गया। कोई नया आयाम देकर गाने की कोशिश भी नहीं करता।
इसके पीछे एक बड़ी वजह "मानसिकता" की
है। ट्रेंड बनाने की है। राजकीय प्रश्रय की है। कुछ गायकों ने 'रूढ़ि' को भी ताकत बना लिया। हम मठ और गढ़ तोड़ने में
मशगूल रहे। किसी कवि ने यह नहीं कहा कि हम शरिया आदि का भी ख़ात्मा करेंगे। हम
कुरआन और हदीस के आसमानी मान्यताओं को नहीं मानते। यह सब बकवास है। बल्कि
"मार्क्सवादी शायर" फैज़ अहमद फ़ैज़ तो "बस नाम रहेगा अल्लाह
का" और "सब बुत उठवाए जाएंगे" लिखकर भी "क्रांतिकारी"
हैं। और जीवन को बदल देने वाले कवि उपेक्षित तथा पोंगापंथी।
तो कहने का आशय यह है कि यह पैराडाइम एक लंबे
डिस्कोर्स से बना है। उसे ध्वस्त करने के लिए सूक्ष्म और तार्किक तथा संगठित और
रचनात्मक लड़ाई करनी होगी। उटपटांग के आरोप-प्रत्यारोप से यह और मजबूत होगा।
आइए सैय्यद इब्राहिम रसखान की यह कविता पढ़ते हैं- मनुष्य के जीवन की
सार्थकता क्या है-
मानुस
हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की
धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धरयो कर छत्र
पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं, मिलि कालिंदीकूल
कदम्ब की डारन॥
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