बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

कथावार्ता : दिशा भेद : ललित निबन्ध (भाग- एक)

-सम्यक शर्मा

 

          यूँ ही एक दिन प्राथमिक भूगोल (Elementary Geography) का पाठ कर रहे थे, तो Deccan Plateau पर दृष्टि पड़ी। अपराध-शिरोमणि गोगो के स्वर में सोचे कि "ये deccan-deccan क्या है? ये deccan-deccan?" थोड़ी देर माथापच्ची के बाद 'तान्हाजी' चलचित्र से 'दक्खन' का स्मरण हुआ। बिना Mentos खाये दिमाग की बत्ती जल चुकी थी। दिमागी घोड़े 'दक्खन' के अर्थ की खोज में चहूँ दिशाओं में दौड़ रहे थे।

          यकायक हमारे मस्तिष्क में 'पुकार' चलचित्र के लोकप्रिय गीत 'हे के सरा सरा' के बोल -

                   'प्यार है जैसे पूरब - पश्चिम,

                   प्यार है उत्तर - दक्खिन' ...वगैरह

          त्वरित गति से आकर छा गए। अब चूंकि वहाँ लेखक ने प्रेम को चारों दिशाओं की उपमा दी है अतः निष्कर्ष निकाला गया कि 'दक्षिण' ही दक्खिन है अर्थात् वही दक्खन है। बात तर्कसंगत भी है, दक्खन का पठार (Deccan Plateau) दक्षिण भारत में ही स्थित है। यानी 'दक्षिण' है तत्सम और 'दक्खिन' 'दक्खन' हैं तद्भव।

          तो यहाँ से खेला गति पकड़ने लगता है। किसी दिशा का नाम 'दक्षिण' ही क्यों रखा होगा ?क्योंकि 'दक्षिण' अर्थात् 'दाएं' एक सापेक्ष दिशा (relative direction) है जबकि दक्षिण दिशा तो एक पूर्ण दिशा (absolute direction) है! बिना मानकीकरण (standardisation) के 'दाएँ दिशा' को 'दक्षिण दिशा' कह देना अतार्किक लगता है। किस प्रकार मानकीकरण किया गया? किया भी गया है तो 'दक्षिण' (दाएँ) का विपरीत 'वाम' (बाएँ) भी एक दिशा का नाम होना चाहिए, जोकि नहीं है।

          अभी तक दाएँ-बाएँ के खेल में ही अटके थे कि पूर्व-पश्चिम के भँवरजाल ने घेर लिया। थोड़ी देर मंथन के 'पश्चात्' भान हुआ कि पश्चिम का तात्पर्य तो 'पश्च' धातु से है अर्थात् 'पीछे', 'बाद में' से है जैसे 'पश्चात्', 'पश्चात्ताप' इत्यादि (तर्क यह भी है कि 'पश्च' का तद्भव 'पीछे' है)। अधिक समय न व्यतीत करते हुए तर्क लगाया कि 'पूर्व' का अर्थ 'पहले' से होता है जैसे 'पूर्व-कप्तान', 'पूर्वनियोजित' इत्यादि।

          इस 'पहले-बाद में' के मर्म को समझने के पश्चात् अधिक समय नहीं लगा इस बात को सिद्ध करने में कि ये सब सूर्योदय व सूर्यास्त से संबंधित है। जिस दिशा में सूर्य देव 'पहले' प्रकट होते हैं वह है 'पूर्व' और उसके 'पश्चात्' जहाँ प्रकट होते हैं वह है 'पश्चिम'

          इतना सब होने के 'पश्चात्' भी 'दाएँ-बाएँ', 'दक्षिण?' का रहस्य ज्यों का त्यों बना ही हुआ था कि विद्यालय में सिखायी हुई दिशाओं को स्मरण रखने की विधि स्मरण हुई। 'Face towards North with wide open arms, at the right hand you get East, at the left hand you get West and at the back you have South' ....पर तब क्या हो जब किसी को North का ज्ञान ही न हो? कुछ पता हो न हो, व्यक्ति को सूर्योदय तो दिखाई देगा ही.... 'चलिये सूर्यदेव के ही सम्मुख खड़े हो जाएं और बाहें खोल लें' ऐसा विचार हमने किया। दिशा-भेद अब खुलने को था... सामने सबसे पहले सूर्यदेव, दाएँ हाथ पर दक्षिण दिशा, पीठ पीछे पश्चिम और अंत में बाएँ हाथ पर उत्तर दिशा। मानकीकरण हो चुका था। शाब्दिक अर्थ के अनुसार भी सब सटीक था-

                    पूर्व - पहले, सामने

                    दक्षिण - दाएँ

                    पश्चिम - बाद में, पीछे

                    उत्तर - अंत में

          इसी कारण 'पूर्व' के दो विलोम हैं - पश्चिम और उत्तर

                    पूर्व (पहले) – उत्तर (अंत)

                    पूर्व (सामने) – पश्चिम (पीछे)

          यहाँ तक भी रहता तो ठीक था, पर हठीला मन बोला "ये दिल माँगे मोर..."। हमने भी कहा रुको ससुर! अभी तुम्हारी सारी खुजली निकाले देते हैं।

 

          (डटे रहिये 'आगेआने वाले 'विरोधाभासको झेलने हेतु।)

 





          (सम्यक युवा हैं और बहुत सधा हुआ, सुविचारित लिखते हैं। किंचित संकोची हैं। दिशा-भेद पर उन्होंने यह ललित निबन्ध लिखा है। यह तीन भागों में है- तीनों स्वतन्त्र हैं परन्तु एक दूसरे से गहरे सम्बद्ध। सम्यक शर्मा  पर क्लिक करने पर ट्विटर पर पाये जाते हैं। उन्होंने अपने बारे में लिख भेजा है- ज्यों का त्यों उतार रहा हूँ- "
सम्यक् शर्मा। आगरावासी। ब्रजभाषी। शहरी एवं ग्रामीण के बीच का हलुआ। दसवीं-बारहवीं आगरा से ही करी। यांत्रिक अभियांत्रिकी में बी.टेक. ग़ाज़ियाबाद के अजय कुमार गर्ग इंजीनियरिंग कॉलेज से करी। क्यों ही करी! क्रिकेट का आदी। फ़िज़िक्स और हिंदी से विशेष प्रेम। गणित से लगाव। बस।"- सम्पादक)

 


2 टिप्‍पणियां:

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति

जसवंत ढंढ ने कहा…

हिन्दी भाषा को पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले नहीं मिलते ऐसा कहने वालों को ये जरूर पढ़ना चाहिए, सारे भ्रम स्वतः दूर हो जायेंगे।

सद्य: आलोकित!

सच्ची कला

 आचार्य कुबेरनाथ राय का निबंध "सच्ची कला"। यह निबंध उनके संग्रह पत्र मणिपुतुल के नाम से लिया गया है। सुनिए।

आपने जब देखा, तब की संख्या.