शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

कथावार्ता : कस्बाई सिमोन : स्त्री-जीवन का नया दृष्टिकोण


‘कस्बाई सिमोन’ कथाकार शरद सिंह का तीसरा उपन्यास है जो उनके अन्य उपन्यासों की भांति ‘स्त्री-चेतना’ पर केन्द्रित है। इस उपन्यास के विषय निरूपण में लेखिका को भरपूर सफलता मिली है। इसकी भूमिका ‘अपनी बात’ से ही उपन्यास का उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है कि यह उपन्यास महानगरों की अपेक्षा कस्बों में रहने वाली ‘स्वतन्त्र चेतना की स्त्री’ को केंद्र में रखकर लिखा गया है। जैसे, उसे किन परिस्थितियों या हालातों से होकर गुजरना पड़ता है? वह किन चुनौतियों का सामना करती है?’ या वह अपने ‘स्व’ को कहाँ तक सुरक्षित रख पाती है? भले ही लेखिका अपनी भूमिका में आग्रह करती है कि “इस उपन्यास के कथानक का उद्देश्य किसी विचार-विशेष की पैरवी नहीं करना अपितु उस विचार विशेष का कस्बाई स्त्री के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को जांचना परखना है।” फिर भी जब वह उसी भूमिका में ‘स्त्रीत्ववाद’ से जुड़े तमाम प्रश्नों पर विचार करती है तभी स्पष्ट हो जाता है कि इसमें स्त्री-जीवन के कई बुनियादी प्रश्नों पर विचार किया गया है और ‘कस्बाई स्वतन्त्र चेता स्त्री-जीवन’ से जुड़ी चुनौतियों से जूझने का उपक्रम है।
इस उपन्यास की कहानी का परिवेश मध्यप्रदेश के छोटे शहर हैं। इसकी प्रमुख पात्र 28 वर्षीय ‘सुगंधा’ है जो अपनी स्वतंत्रता को सहेजने वाली, स्त्री अधिकारों के प्रति सचेत, स्वावलंबी कामकाजी स्त्री है। वह ‘जबलपुर’ में अकेले रहकर सरकारी नौकरी करती है। उसके अकेलेपन की नियति बचपन में ही तय हो जाती है जो ‘मंडला’ से शुरू होकर भोपाल तक पहुँचती है, जहाँ उसका बचपन और किशोरावस्था गुजरा था। उसके पिता एक प्राध्यापक थे। वह उसके और उसकी माँ के प्रति अत्यंत निर्मम और कठोर थे। उनका अपनी शोध-छात्राओं के साथ अनैतिक संबंध था। उनकी यातना और उपेक्षा से आहत होकर नायिका की माँ उसे लेकर ‘मंडला’ से ‘भोपाल’ आ जाती है। यह ‘भोपाल’ माँ और बेटी की संघर्ष भूमि रही। यहीं पर उसकी माँ ने अपने संघर्षों से स्वयं को आत्मनिर्भर बनाया और अपनी बेटी को भी स्वावलंबी। किन्तु उपन्यास में माँ और बेटी के संघर्ष की यह कहानी गौण रूप में ही आई है।

यह उपन्यास मुख्यत: ‘सुगंधा’ की उस जिजीविषा की कहानी है जिसमें वह ‘सिमोन’ के जैसा जीवन जीने का निर्णय लेती है। किन्तु यह भी एक विडंबना है कि वह जिस ‘सिमोन’ की अनुगामी बन जाती है, उस महान व्यक्तित्व से अबतक अन्य लाखों-करोड़ों स्त्रियों की भांति अनजान थी। एक बार उसके सहकर्मी पुरूष मित्र ‘मृदुल’ ने उसके स्त्री-अधिकारों से जुड़े लेखों को देखकर उसे ‘सिमोन’ कह दिया था। इसके बाद ही वह फ्रांस की इस विलक्षण महिला ‘सिमोन द बोउआर’ के विषय में जान पाई थी जिसने अपनी पुस्तक ‘द सेकेण्ड सेक्स’ में कहा है कि ‘स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है’। वह बिना विवाह किए अपने प्रेमी ‘सार्त्र’ के साथ रहती थी। उसने पितृसत्ता के छल-छद्म को तार-तार कर दिया था और स्त्री-सशक्तिकरण के संघर्ष में एक नया स्वर्णिम अध्याय जोड़ा। ‘सिमोन द बोउआर’ से परिचय के बाद वह उससे भावनात्मक रूप से काफी लगाव महसूस करने लगती है। ‘सिमोन’ के जीवन का सच जानकर उसे लगा कि जैसे उसके अकेले रहने और विवाह न करने के फैसले को समर्थन मिल गया हो। उसने बचपन से विवाह संस्था की जिन विदूपताओं को देखा था उससे इसके प्रति उसका विश्वास उठ गया था तभी वह‘रितिक’ के साथ ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहने का निर्णय करती है। वह स्वयं भी कभी-कभी विचार करती है कि क्या उसका जीवन ‘सिमोन’ जैसा हो पाएगा। छोटे शहर में बिना विवाह किए पुरूष के साथ रहने के उसके निर्णय ने उसे ‘कस्बाई सिमोन’ बना दिया।
अभी भारतीय समाज की मानसिकता इतनी प्रगतिशील नहीं हो पाई है जो किसी अविवाहित जोड़े को एक साथ रहने की अनुमति दे सके। ‘रितिक’ और ‘सुगंधा’ को अपने संबंधों के कारण बार-बार घर बदलना पड़ता है। क्योंकि समाज उनके संबंधों को अवैध मानता है। अंतत: दोनों ने मिलकर अपना घर खरीदने का निर्णय लिया लेकिन तब तक उन्हें आभास होनेलगता है कि यदि इस समाज में रहना है तो पति-पत्नी के ढोंग से गुजरना ही पड़ेगा और दोनों थोड़ा-बहुत इससे गुजरते हैं। इस ढोंग में रितिक के पितृसत्तात्मक संस्कारों पर चढ़ी प्रगतिशीलता की परत पूरी तरह उतर जाती है और वह पति की भूमिका में आ जाता है। ‘सुगंधा’ उसमें आए इस परिवर्तन को साफ महसूस करती है- “इन पांच वर्षों के साथ में मैंने रितिक के स्वभाव में होने वाले परिवर्तनों को महसूस किया था। अब वह मुझे झिड़कने लगा था। कई बार बिलकुल परम्परावादी पति की तरह। इधर कुछ समय से मैं अनुभव कर रही थी कि हमारा ‘असामाजिक’ रिश्ता ‘सामाजिक’ आकार लेता जा रहा है। दायित्वों को लेकर रितिक की मुझसे अपेक्षाएं बढ़ गई थीं। वह मुझ पर अधिकार जमाने लगा था।” इस तरह सुगंधा भी कभी-कभी अपने को पारम्परिक पत्नी समझने लगती है। दोनों का टकराव पति-पत्नी के समान बढ़ता जाता है। एक दिन जब रितिक सुगंधा को रखैल कह देता है तब सुगंधा का संयम भरभराकर गिर जाता है और वह आहत आत्मसम्मान लिए हुए रितिक का साथ छोड़ने का निर्णय ले लेती है तथा अपना स्थानान्तरण सागर करवा लेती है। इस तरह से दोनों के संबंधों का पटाक्षेप हो जाता है।
सागर में एक बार पुन: सुगंधा का परिचय सागर विश्वविद्यालय में एक वर्ष के लिए किसी प्रोजेक्ट पर काम करने आए छिंदवाड़ा के प्राध्यापक ‘डॉ. ऋषभ जैन’ से होता है, जो विवाहित व्यक्ति है। इस परिचय की परिणति शीघ्र ही दैहिक संबंध में हो जाती है लेकिन ऋषभ की मर्दवादी सोच के कारण वह उसे त्याग देती है। इसके बाद वह एक अन्य विवाहित बैंक कर्मचारी ‘विशाल पटेल’ से जुडती है जो थियेटर के अभिनय तथा साहित्य में रुचि रखता है, वह प्रगतिशील विचारों का व्यक्ति है। अपने इस संबंध से उसे तृप्ति का अनुभव होता है और यहीं पर उपन्यास की कहानी ‘कस्बाई सिमोन’ के अनिश्चित भविष्य के साथ समाप्त हो जाती है। उपन्यास को गतिशीलता प्रदान करने में उच्चवर्गीय स्त्री पात्र ‘कीर्ति’ का भी योगदान है जो अपने पति सदाशिव की इच्छा से स्वयं शोषित होना स्वीकार करती है। इसमें उच्च शिक्षा के अनेक प्राध्यापक भी हैं जो अपनी छात्राओं का यौन-शोषण करने में संलिप्त हैं। किन्तु उपन्यास की पूरी कथा सुगंधा के इर्द गिर्द घूमती है। इस कहानी में मूलत: सुगंधा के प्रति पितृसत्ता से सिंचित ‘कस्बाई मानसिकता’ के छद्म को दिखाया गया है।
पितृसत्तात्मक संस्कृति का प्रशिक्षण समाज में इतने गहरे तक समाया हुआ है कि उसकी जकड़न से निकल छूटना इतना आसान नहीं है जितना नायिका कल्पना कर लेती है। केवल व्यक्तिवादी होने मात्र से अधिकार अर्जित कर पाना संभव भी नहीं है क्योंकि अंतत: रहना तो उसी समाज में है जो अभी स्त्री को स्वतंत्र मनुष्य के तौर पर पहचान ही नहीं पाया है। नायिका बराबर स्त्रियों के दोयम दर्जे पर दुखी होती है। उसे यह भी समझ है कि स्त्री की कोई भी सामाजिक भूमिका हो वह पुरूषों द्वारा ही तय होती है। इसलिए वह सोचती है कि ‘स्त्री वेश्या बनती है क्योंकि पुरूष उसकी देह के बदले उसे पैसे देने को तैयार रहता है, स्त्री दासी बनती है क्योंकि पुरूष बदले में दूसरे पुरूषों से उसकी रक्षा करता है। पुरूष जो बनता है, स्त्री वह बनने को तैयार हो जाती है क्योंकि वह जीना चाहती है।’

किसी रचना का मुख्य पात्र एक वर्ग का प्रतिनिधि होता है जो उस वर्ग के अनेक मुद्दों को अभिव्यक्ति प्रदान करता है। इस उपन्यास में नायिका सुगंधा छोटे और मध्यम वर्ग के शहरों के ऐसे ‘स्त्री-वर्ग’ का प्रतिनिधित्व करती है जो अपने जीवन की स्वतंत्रता को किसी भी कीमत पर अक्षुण्ण रखना चाहती हैं। पुरूषों को वह प्राय: शोषक के रूप में देखती हैं। उनका विवाह संस्था में विश्वास नहीं है। किन्तु कथा में नायिका के चरित्र में एक स्पष्ट विरोधाभास दिखाई पड़ता है। वह न तो परिस्थितियों से हमेशा टूटती है और न ही वह उसके विरूद्ध हमेशा तनकर खड़ी ही रह पाती है फलस्वरूप उसकी नियति पेंडुलम जैसी हो जाती है। वह विद्रोह और समझौते के बीच में झूलती रहती है और उपन्यास के अंत तक उसका विद्रोह किसी सार्थक नतीजे पर नहीं पहुँच पाता है। यद्यपि वह स्वयं को सामान्य स्त्रियों से अलग रखकर देखती है। यह उसने स्वयं स्वीकार किया है कि “मेरी जैसी औरतें अपवाद हो सकती हैं लेकिन किस सीमा तक?” स्पष्ट तौर पर नायिका कहना चाह रही है कि एक सीमा के बाद वह भी अपवाद नहीं रह जाएगी और उसकी नियति भी अन्य स्त्रियों की तरह हो जाएगी जो अपने वर्तमान से ऊब जाती हैं किन्तु अन्य विवाहिताओं की भांति उसका मन अन्य वस्तुओं से नहीं बहल सकता तो वह पुरूषों के चरित्र की तरह ही स्वयं के लिए अन्य पुरूषों को तलाश सकती है। (आगे चलकर ऋषभ और विशाल से उसके संबंध को इसी तलाश के रूप में क्यों न देखा जाए जिसके लिए वह पुरूषों को आरोपित करती रही है)। किन्तु इसे स्त्री-अधिकार या स्वतंत्र-निर्णय कैसे कह सकते हैं? यह तो पुरूषों के दुर्गुणों का स्त्री-संस्करण है। इसलिए नायिका की दैहिक आजादी की कामना को देखकर कभी कभी ऐसा महसूस होता है कि वह ‘स्त्री-अधिकार’ की नहीं बल्कि ‘निजता के अधिकार’ की मांग करती हुई प्रतीत होती है। स्त्रियों की सार्वभौमिक समस्यायों पर विचार करते हुए भी वह व्यक्तिवादी ही प्रतीत होती है। यही कारण है कि वह प्रतिरोध के संस्कृति की सार्थक प्रतीक नहीं बन पाती है। हम सभी यह समझते हैं कि केवल व्यक्तिवादी होकर पितृसत्ता की सामन्ती मानसिकता को चुनौती देना संभव नहीं है। उसके लिए तो तमाम स्त्रियों को ‘भगिनीभाव’ से जुड़कर पहले एक प्रतिरोध की संस्कृति तैयार करनी होगी। अन्यथा प्रत्येक कस्बाई सिमोन की चाहत रखने वाली स्त्री सुगंधा की नियति को ही प्राप्त होगी।
उपन्यास में एक और महत्वपूर्ण बात खटकती है कि नायिका ‘सुगंधा’ का बचपन और किशोरावस्था जितना उथल-पुथल भरा रहा है उसकी अपेक्षा उसका मानसिक संघर्ष और अंतर्द्वंद्व नदारद हैं जो उसके चारित्रिक विकास के लिए आवश्यक था इसलिए उसके चारित्रिक विकास की क्रमबद्धता भी स्पष्ट नहीं हो पाती है। उसका बचपन और किशोरावस्था यहाँ तक कि उसकी युवावस्था भी बड़े शर्मीले और लजीले ढंग से बीत गई। एकाध बार उसे अपनी ‘नूतन’ मौसी और अपनी दोस्त ‘रीता’ से शारीरिक इतिहास भूगोल का सामान्य परिचय तो मिला किन्तु उसमें गहराई नहीं थी। स्त्री-अधिकार, उसकी नियति, त्रासद परिस्थितियों को लेकर उसकी कभी किसी से कोई बहस नहीं हुई। यहाँ तक कि अनेक विषमताओं से जूझती अपनी माँ से भी उसकी कभी कोई बहस-विवेचना नहीं होती है। फिर उसके मन में ‘स्त्री-अधिकारों’ को लेकर इतनी रेडिकल सोच कब और कहाँ से विकसित होना प्रारम्भ हुई कि वह विवाह संस्था के खिलाफ होकर ‘कस्बाई सिमोन’ बनने की राह पर निकल पड़ती है क्योंकि मानसिक स्तर पर घटित परिवर्तन ही व्यवहारिक स्तर पर घटित होते हैं जो प्राय: किशोरावस्था में तैयार होते हैं लेकिन यहाँ पर नायिका के किशोरावस्था में कोई विशेष अंतर्द्वन्द्व और आत्मसंघर्ष दिखाई नहीं पड़ता।
स्त्री के शोषण का सबसे प्रमुख माध्यम उसकी ‘देह’ है। प्रसिद्ध नारीवादी लेखिका ‘अनामिका’ जी ने तो इसे बड़े खुले मन से स्वीकार करते हुए लिखा है कि “स्त्री के किसी भी प्रकार के शोषण का प्राइम साइट उसकी देह होती है इसलिए उसके लेखन के केंद्र में स्त्री-देह का होना स्वाभाविक है।” संभवत: इसलिए इस उपन्यास की नायिका के स्त्री-स्वतंत्रता और अधिकारों की मांग में केवल यौन-स्वतंत्रता की मांग ही प्रमुख रूप से उभरी है। वह आर्थिक रूप से आजाद है इसलिए इसके बाद वह अपनी देह के अधिकार को चुनना चाहती है किन्तु यहाँ भी वह भावुकता से भरे दैहिक प्रेम में उलझ जाती है। यही कारण है कि उसका कोरी भावुकता से भरा प्रेम उसे औसत भारतीय स्त्री की तरह प्रदर्शित करता है जहाँ वह आखिर तक अपने संबंध को बनाए और बचाए रखना चाहती है। वह हमेशा पलायन करती है, कभी मोहल्ले से, कभी गली से, कभी शहर से भी तो कभी खुद से लेकिन उस कोरी भावुकता को नहीं छोड़ पाती जो स्त्री को कमजोर करता है। वह औसत प्रेमिका की भांति अपने अन्य प्रेमियों में भी पहले प्रेमी को ढूंढती है। वह स्वयं स्वीकार करते हुए कहती है- “मैं उससे बहुत प्रेम करती थी और अब कहना कठिन है कि मेरे मन में उसके प्रति कितना प्रेम शेष है। फिर भी वह मेरे साथ हमेशा रहता है, सशरीर , एक प्रभाव बनकर, एक छाया बनकर। मै किसी भी पुरूष को देखती हूँ या किसी पुरूष के ताप को अनुभव करना चाहती हूँ तो मेरा मन उससे तुलना करने लगता है।”
क्या रचनाकार के मन का अंतर्द्वंद्व नायिका के चरित्र में उभरा है कि वह निर्णय नहीं कर पा रही है कि आखिर गलत कौन है? और किसके विरोध में खड़ा होना है?- पुरूष, समाज, विवाह या इन सबकी नियामक पितृसत्तात्मक संस्कृति? क्योंकि अपने विचारों में तो नायिका पुरूषों को बराबर कटघरे में खड़ा करती है। यहाँ तक कि अपने प्रेमी ‘रितिक’ के विषय में भी वह पहले से अवगत है फिर भी उसे पुरूषों से कोई आपत्ति नहीं है बस वह ‘विवाह-संस्था’ में विश्वास नहीं रखती क्योंकि उसके सामने अनगिनत असफल विवाहों की गाथा है जिसमें स्वयं उसके माता-पिता भी हैं। इसे उसने स्वीकार किया है “वैवाहिक बंधन का विकृत रूप ही था वह जो किसी फॉसिल के सामान मेरे मन की चट्टानों के बीच दबा हुआ था, एकदम सुरक्षित।” अजीब विडंबना है जब वह स्त्रियों के शोषक के रूप में पुरूषों को पहचान रही है (जैसा कि उसके अनेक वक्तव्यों से स्पष्ट होता है) तो उसे विवाह के साथ-साथ पुरूषों से नफरत होनी चाहिए थी।
नायिका के हृदय में रितिक के लिए भावनाएं अवश्य हैं किन्तु उसके प्रति प्रेम दैहिक स्तर पर ही पनपा है क्योंकि उससे पहली मुलाकात में बारिश से भीगने पर वह अपनी देह को ही निहारती है। उसे महसूस होता है कि इस देह में वह सब कुछ है जो रितिक को आकर्षित कर सकता है। चूंकि 28 वर्ष की उम्र में भावावेग की अपेक्षा दिमाग का जोड़ घटाव अधिक सक्रिय रहता है इसलिए यहाँ निर्णय में भावना का स्थान देह के बाद ही है। भले ही वह यह कहती है कि “कोई हो जो सिर्फ मुझे प्यार करे सिर्फ मुझे” लेकिन यह भी उतना ही सच है कि दैहिक जरूरतों और आकर्षण के कारण ही वह ‘लिव इन रिलेशन’ में रहना चाहती है। उसने इस रिश्ते में बराबरी के स्तर पर जीवन जीने की चाहे जितनी भी कोशिश की, अंतत: वह दोयम दर्जे की पार्टनर ही रही। रितिक की इच्छाएँ उससे पहले रहीं। वह न जाने कितनी बार अपराधबोध से ग्रसित हुई थी जिसे वह व्यक्त भी नहीं कर पाती थी। जैसे शारीरिक संबंधों के दौरान गर्भनिरोधक का प्रयोग करना केवल उसकी जिम्मेदारी बन गयी थी। इस बात की उसके मन में गहरी टीस भी थी किन्तु वह उसे अभिव्यक्त नही कर पाती है- “इस बात को लेकर कभी-कभी मेरा मन उदास हो जाता। इसे सम्भोग कहते हैं न? अर्थात दोनों पक्ष समान रूप से एक दूसरे का उपभोग करें। लेकिन गर्भ निरोधक के प्रश्न पर समानता कहाँ चली जाती है? यदि प्रकृति ने स्त्री को गर्भधारण की क्षमता प्रदान की है तो वही चिंता करे, गर्भ न ठहरने की, यह तो सम्भोग नहीं हुआ न!”
कस्बाई सिमोन बनने की चाहत रखने वाली सुगंधा (यद्यपि वह स्वीकार कर चुकी है कि भारतीय समाज में ‘सिमोन’ बन पाना उसके लिए संभव नहीं है) केवल विवाह नहीं चाहती थी। उसे पुरूष संसर्ग से कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि आगे अतिनाटकीय क्रम में जब उसने ऋषभ जैन से संबंध जोड़ा तो उसकी पत्नी की कोई परवाह न करके उसके अधिकारों का भी हनन किया। इस दृष्टि से यहाँ पर स्त्री-अधिकार की अपेक्षा भोगवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता दिखाई दे रहा है। यह उसे ऐसे अवसरवादी व्यक्ति के रूप में चित्रित करता है जो अपनी की दैहिक तृप्ति को ही मुख्य मानती है। इससे उपन्यास की ‘स्त्री-चेतना’ समृद्ध न होकर कुछ छीजती ही है।
उपन्यास के अंतिम पड़ाव पर सुगंधा को विशाल पटेल के रूप में एक और पुरूष साथी मिलता है जो पहले दो साथियों की अपेक्षा अधिक सुसंस्कृत और चेतना सम्पन्न है। अब पुन: दैहिक तृप्ति की एक नई कहानी प्रारंभ हो गई। यद्यपिइस संबंध की प्रकृति भी स्थाई नहीं रहने वाली है क्योंकि विशाल का अपना एक भरा-पूरा परिवार है। लेकिन उससे सुगंधा की नियति में क्या फर्क आएगा! उसका भविष्य तो अब भी अनिश्चय के अँधेरे में है। फिर उपन्यास के समापन पर नायिका के चहरे पर जो प्रसन्नता है वह क्या वह क्षणिक दैहिक तृप्ति के कारण आई है? रचनाकार ने संभवत: मुस्कुराहट की ओट लेकर उसका भविष्य पाठकों की कल्पना पर छोड़ दिया है। फिर भी पाठक के सामने कुछ प्रश्न बने रह जाते हैं कि आखिर कहानी के अंत में क्या हासिल हुआ? आखिर ‘कस्बाई सिमोन’ की नियति क्या है?
कोई भी रचना उसके सर्जक की विशिष्ट साधना का प्रतिफल होती है जिसमें वह पात्रों के रूप में सामाजिक प्रतिनिधियों को रखता है। (जैसा कि हमने लेख के प्रारम्भ में भी स्वीकार किया है।) प्राय: पाठक उन्हें स्वतंत्र व्यक्ति या सत्ता न समझकर उस वर्ग का प्रतिनिधि समझते हैं। यदि इस उपन्यास में पुरूष पात्रों को उनके वर्ग का प्रतिनिधि स्वीकार कर लिया जाए तो पाठकों का अनेक संस्थाओं से भरोसा ही समाप्त हो जाएगा। संभव है कि रचनाकार के अपने अनुभव रहे हों या कहानी का दबाव रहा हो जिससे उपन्यास के प्राय: सभी पुरूष पात्र चारित्रिक दृष्टि से भ्रष्ट और धूर्त हैं। खास तौर विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के अध्यापक, जिनका अपनी छात्राओं से अनिवार्यत: शारीरिक संबंध है। क्या कथाकार ने चुन-चुनकर ऐसे ही पात्रों को कथा में स्थान दिया है! अन्यथा मेरा मानना है कि इस तरह के अतिवाद से बचा जाना चाहिए था। क्या पूरी पुरूष जाति को नकार कर महिला सशक्तिकरण आन्दोलन कोई स्वस्थ सामाजिक संरचना विकसित कर सकेगा? वास्तव में स्त्रीत्ववाद को स्त्री और पुरूष में से बेहतर मनुष्यों को एकसाथ लाने की कोशिश करनी चाहिए जिसमें स्त्रियों के पुरूष संस्करण न रचते हुए स्त्री-पुरूष समभाव पर आधारित समाज बनाया जा सके ।
उपन्यास लेखन की सबसे बड़ी चुनौती यही होती है कि रचनाकार अपने पाठक को विषय से भटकने न दे, उसे अपनी कल्पना के कानन में विचरण करने दे किन्तु उसकी नजर से वह स्वर्ण पंक्षी ओझल न होने दे जो उसका लक्ष्य है। यह उपन्यास एक हद तक ही इस कसौटी पर खरा उतरता है। इसमें रोचकता है जो इसे एक बैठक में पढ़ने को प्रेरित करती है। इसमें लेखिका के पहले उपन्यास पिछले पन्ने की औरतेंजैसी उपदेशवृत्ति तथा तथ्यात्मक आंकड़ों की नीरसता नहीं है। मार्मिक विषय और रोचक प्रस्तुति ने इसकी कहानी को बोझिल नहीं बनने दिया है। यह पाठक को अंत तक अपने से बांधे रखती है। अकेली औरत की चुनौतियों से दो-चार करवाती हुई इस कृति में लेखिका के नारी संबंधी जो विचार नायिका के माध्यम से व्यक्त हुए हैंवे बड़े उत्तेजक हैं। सबसे अच्छी बात है की ये विचार स्त्री की भावना के रूप में व्यक्त हुए हैं जो उपन्यास के कथातत्व से घुल मिल गए हैं तथा कथावस्तु के प्रवाह में बाधक नहीं बने हैं बल्कि उपन्यास के उद्देश्य को ही रेखांकित कर रहे हैं। कहानी के वर्णन में पूर्वदीप्ति शैली का प्रयोग इतना सुन्दर और कुशलता से किया गया है कि उससे पाठक का रसबोध कम नहीं होता है। कुछ एक प्रसंगों को छोड़ दिया जाय तो संवाद-संयोजन भी बेहतर हैं,उसमें बनावटीपन नहीं है। वह पात्रों की मनोदशा को व्यक्त करने में सक्षम हैं।
यह उपन्यास लेखिका के पहले दोनों उपन्यासों से केवल रचनाकाल में ही आगे नहीं बढ़ा है बल्कि इसमें गुणात्मक अभिवृद्धि भी हुई है। यह एक प्रौढ़ रचना है जो रोमांचक और पठनीय है।  ‘स्त्री-चेतना’ के प्रति रुचि रखने वालों के लिए इसे जरूर पढ़ना चाहिए।

(डॉ शत्रुघ्न सिंह हिन्दी साहित्य और संस्कृति के मूर्धन्य अध्येता हैं। वह रचना को डूबकर पढ़ते और समझते हैं। उनके लिए पढ़ना मतलब आत्मसात करना है। साहित्य के ऐसे पाठक और मीमांसक विरले ही हैं। शत्रुघ्न सिंह ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज से स्त्री आत्मकथाओं का स्त्री विमर्श की दृष्टि से अध्ययन विषय पर शोध कार्य किया है और वह बहुत विशेष है। शीघ्र ही उनका यह शोधकार्य एक नामचीन प्रकाशन संस्थान से प्रकाशित होने वाला है। शरद सिंह ने अपनी औपन्यासिक कृतियों से स्त्री विमर्श में एक गहरी छाप छोड़ी है। शत्रुघ्न सिंह ने शरद सिंह का उपन्यास कस्बाई सिमोन पढ़ते हुए मुझसे कुछ विचार साझा किए थे। हमारे अनुरोध पर उन्होने इसकी गंभीर मीमांसा की है। यहाँ ब्लॉग पर यह साझा करते हुए खुशी हो रही है। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। - संपादक)
डॉ. शत्रुघ्न सिंह
सहायक आचार्य हिंदी विभाग
श्री भगवान् महावीर पी.जी. कॉलेज पावानगर फाजिलनगर कुशीनगर


1 टिप्पणी:

शशांक शेखर पटेल ने कहा…

किताबें,लेखक के दृष्टिकोण को परिलक्षित करती हैं। मुझ सा अदना व्यक्ति जो हिंदी साहित्य सागर के किनारे पर खड़ा अभी ठंडी हवा के झोंकों का आनंद ही ले रहा था कि एक बूँद आपकी पुस्तक-समीक्षा के रूप में मुझे छू गयी। साहित्य के अथाह सागर में गोते लगा पाना असंभव है जब तक कि आपको कोई कुशल गोताखोर न मिले। वह जो बता सके; क्या ,कितना ,कैसे है। इसीलिए यह समीक्षा मेरे लिए उपयोगी है। इसका जिस सूक्ष्मता से अवलोकन कर चंद पंक्तियों में आपने लेखिका के दृष्टिकोण को समझने का प्रयास किया है और जिस प्रकार समकालीन समाज की परिस्थितियों से जोड़कर उसका सार प्रस्तुत किया है वह अद्भुत है। इस लेख से मन उत्सुक हुआ है इस रचना को पढ़ने को। इसने हर बार की तरह एक पथ प्रदर्शित किया है कि महिला-सशक्तिकरण के दौर में एक दृष्टिकोण यह भी है जो पढ़ा-समझा जा सकता है। वर्तमान दौर में बहुत सी महिलाओं में यह बात घर कर गयी है कि वे संस्थान जहाँ पुरुष प्रधानता है वह महिलाओं के लिए बहुत सुरक्षित नहीं है या पुरुष प्रायः भ्रष्ट, चरित्रहीन और अविश्वसनीय होते हैं। ऐसे में लेखिका का 'अवैध सामान्यीकरण' यह प्रदर्शित करता है कि संभवतः वह कभी न कभी ऐसे किसी विचार से प्रभावित रही हैं। किंतु आपने जिस सटीकता से उसका मूल्यांकन कर एक कामकाजी सामान्य पुरूष का पक्ष रखा है वह स्वागतयोग्य है। अन्ततः,जब से आपका सान्निध्य मिला है साहित्य में मेरी रूचि और भी बढ़ती गयी। आपकी बातें प्रेरक व ज्ञानदायी होती हैं। सादर प्रणाम सर!

सद्य: आलोकित!

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