हमने उन्हें उसी दिन जाना. जब उनका सम्भाषण संपन्न हुआ तो हमने सहज जिज्ञासा की कि यह ओजपूर्ण वाणी किसकी है? उनके सम्भाषण में जिसतरह विज्ञान के उद्धरण थे वह परम्परागत भारतीय आचार्य परम्परा में नहीं मिलता. जब हमने उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में आमन्त्रित किया था तो कम से कम मुझे नहीं मालूम था कि यह प्रो जी डी अग्रवाल हैं. आइआइटी कानपुर के सेवानिवृत्त प्रोफेसर. गंगा बचाओ अभियान के लिए उनको देश भर में पहचान मिली थी. वह स्वामी सानंद हो गए थे. इसी रूप/नाम से अपनी पहचान चाहने लगे थे. सुदूर उत्तर प्रदेश के आखिरी सीमावर्ती जनपद सोनभद्र के एक अत्यन्त दुर्गम इलाके में आदरणीय प्रेम भाई द्वारा स्थापित आश्रम, वनवासी कल्याण आश्रम, गोविंदपुर में रह रहे थे. वहां उन्होंने जैविक खेती शुरू कराई थी. मृदा और जल परीक्षण तथा बीजशोधन की प्रयोगशाला का निर्देशन कर रहे थे. लोगों को गांधीवादी तरीके से जीवन जीने के गुर सिखा रहे थे और उनके लिए स्वावलम्बन की अनेक योजनाएं क्रियान्वित कर रहे थे.
वह सोनभद्र के सबसे बड़े जलाशय रिहन्द के बुनियादी अभियन्ता थे. उनकी देखरेख में ही बाँध बना था. हालांकि बाँध बनने से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान से बेहद व्यथित. उन्होंने बिरला के उपक्रम हिंडाल्को, नॉदर्न कोल फील्ड्स, और नेशनल थर्मल पॉवर कारपोरेशन (एनटीपीसी) को राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) में घसीटा था और सोनभद्र समेत आसपास के लोगों के जीवन को नरक बना रहे प्रदूषण को दूर करने के लिए समुचित उपाय करने के लिए दबाव डाल रहे थे.
सोनभद्र के लोग जानते हैं कि उन्होंने समेकित प्रयास से ग्रामीणों का जीवन कितना बदल दिया था. वह गंगा की अविरल धारा के लिए बीते 111 दिन से अनशनरत थे. लम्बी आयु के बावजूद उनकी सक्रियता देखते बनती थी. वह निरंतर यात्रा में रहते थे और यह सब यात्रायें एक बड़े उद्देश्य के लिए थीं.
स्वामी सानंद का जाना महज गंगा की अविरलता के लिए प्रयास करने वाले एक ऋषि का जाना नहीं है, बल्कि सोनभद्र के लोगों का अनाथ हो जाना भी है. मैं नहीं जानता कि उनके जाने से कितने लोगों के जीवन पर कोई सीधा प्रभाव है या नहीं लेकिन सोनभद्र के अपने प्रवास के अनुभव से कह सकता हूँ कि उनका न रहना सोनभद्र वासियों को बहुत खलेगा.
संगोष्ठी के बाद मैं अक्सर गोविंदपुर जाता था और उनके होने का समाचार हमारे लिए सुकूनदेह होता था. वह गोविन्दपुर आश्रम के सहज न्यासी थे. बीते दिन जब उनसे भेंट हुई थी तो वह रत्नागिरी, महाराष्ट्र के एक ऐसे ही संत के साथ सत्संग कर रहे थे. सत्संग-जिसमें लोक का भौतिक और आत्मिक कल्याण समाहित था.
उनके निधन पर भावभीनी श्रद्धांजलि.
(चित्र में मैं अपने प्राचार्य प्रो सुरेश कुमार श्रीवास्तव का स्वागत कर रहा हूँ.)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें