#अखिलेश द्वारा सम्पादित #तद्भव पत्रिका एक बहुत जरूरी आयोजन हो गयी है. अंक २८ अपनी ख्याति के
अनुरूप ही बन गयी है. तुलसीराम की आत्मकथा के
दूसरे खण्ड "मणिकर्णिका" के समापन किश्त में तीन चीजें बहुत महत्त्वपूर्ण हैं.
१- कांग्रेस-वामपंथ के रिश्तों को समझने
के लिहाज से. यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस की नीतियों का सीपीआई हमेशा से
समर्थक रहा है. नक्सलवादी आन्दोलन को भी समझने के सूत्र यहाँ हैं. नक्सली आन्दोलन
के भटकाव और अंदरूनी चरित्र को यहाँ से समझा जा सकता है. २- जेपी आन्दोलन का उठान और परिणति समझने
के लिहाज से. जेपी आन्दोलन में बहुत सारे लम्पट घुस आये थे. उन लम्पटों ने सारे
आन्दोलन को मोड़ दिया था. राही मासूम रजा के उपन्यास कटरा बी आरजू में भी इस तरफ
संकेत किया गया है. और, ३- गाजीपुर के शेरपुर गाँव में बरसों पहले हुए
अग्निकाण्ड की विभीषिका जानने के नजरिये से. शेरपुर में भूमिहारों ने हरिजन बस्ती में आग लगा दी थी. कई
परिवार जलकर राख हो गए थे. यह एक काला अध्याय है. प्रेम को गरिमापूर्ण तरीके से कैसे परोसा जा सकता है, यह
सीखने के लिहाज से भी मणिकर्णिका का यह अंश पढ़ा जाना चाहिए. उत्पलवर्णा का प्रसंग
बहुत शालीन है.
मणिकर्णिका
के दबाव में अरुण कमल के वृतांत की चर्चा कम हो सकी है. ठीक उसी
तरह, जिस तरह मुर्दहिया के दौरान राजेश जोशी
के गप्पी वाली कथा दब गयी थी.
अरुण कमल का वृतान्त कई तरह के अनुशासनों में आवाजाही के लिहाज से भी बहुत
मानीखेज है. कविताओं को समझने का सूत्र वहां से निकाला जा सकता है.
उपासना
की लम्बी कहानी 'एगही
सजनवा बिन$$$ ए राम' छपने
के तुरंत बाद चर्चा में
आ गयी कहानी है. कहानी ने पढ़ने के लिए धैर्य की परीक्षा ले ली. शिल्प इतना
सधा हुआ है और शब्द इतने महीन तथा अर्थवान, कि
हर जगह चौंकाते हैं. कहानी
में कहन का अंदाज भी बहुत विशिष्ट है. अपने समूचे विवरण में गाँव बढ़िया
से उभर आया है. कुछ एक दृश्य और बिम्ब तो अनूठे हैं. कहानी में अनूठापन
इन्हीं वजहों से है. लेकिन, कहानी
में पात्र इस तरह से आये हैं, कि
मन किया कई बार गिनूं कि रतनी दिदिया और सिलेण्डर भईया, मारकंडे चाचा, मारकंडे
बो चाची या अन्य ढेर सारे पात्रों का नाम कितनी दफा लिखा गया है.
पढ़ते हुए बार-बार लगा कि जैसे टीवी धारावाहिकों में हर पात्र संवाद अदायगी
में सामने वाले पात्र का नाम जरूर लेता है, कहानीकार
नैरेट करते हुए वही
विधा अपना रही हैं. टीवी धारावाहिकों में निर्देशक को यह पता होता है कि
बुद्धू बक्से के सामने बैठे दर्शक में इतनी अकल नहीं कि वह याद रख सके कि
सामने वाला पात्र कौन है. कहानीकार को भी भरोसा नहीं है? रतनी
दिदिया अकेली दिदिया हैं. सिलेण्डर भईया अकेले
भईया हैं. आगे सबका नाम लेने की बजाय
रिश्ते वाले संबोधन को लेकर भी निर्वाह हो सकता था. यहाँ तक तो ठीक था, चाचा
चाची और बाबा इया तक को बिना नाम लिए नहीं कहा गया है. मुझे सबसे ज्यादा
इसी ने डिस्टर्ब किया. फिर कुछ तथ्यात्मक गलतियों ने भी. यह मानने का
मन किया कि कहानी एक बैठक में लिख ली गयी है. उसे दुहराने की जरूरत नहीं समझी
गयी है. अगर उसे पुनर्लिखित किया गया होता तो कई अनचाहे अंश निकाल दिए
गए होते और कहानी बहुत बढ़िया हो जाती.
बाकी
के विषय में बाद में बात होगी..
2 टिप्पणियां:
तुलसी राम ने सुनी सुनाई कहानी को लिखा है लगता है वे कभी शेरपुर गए ही नहीं
तुलसी राम ने सुनी सुनाई कहानी को लिखा है लगता है वे कभी शेरपुर गए ही नहीं
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