सोमवार, 16 दिसंबर 2024

राजकपूर के दस गीत

राज कपूर अभिनीत/निर्देशित फिल्मों के दस गीत। #एक_धागा।

इन गीतों में उनका समूचा आभामंडल है। 


गीत - आवारा हूं 

फिल्म - आवारा

वर्ष - 1951

आवारा हूं


गीत - प्यार हुआ, इकरार हुआ

फिल्म - श्री 420

वर्ष - 1955

प्यार हुआ, इकरार हुआ




गीत - जागो मोहन प्यारे जागो

फिल्म - जागते रहो 

वर्ष - 1956

जागो मोहन प्यारे


गीत - संगम होगा या नहीं 

फिल्म - संगम

वर्ष - 1964

संगम होगा कि नहीं




गीत - सजनवाँ बैरी हो गए हमार

फिल्म - तीसरी कसम 

वर्ष - 1966

सजनवां बैरी हो गए हमार


गीत - मोरे अंग लग जा बालमा

फिल्म - मेरा नाम जोकर 

वर्ष - 1970

मोरे अंग लग जा बालमा




गीत -हम तुम एक कमरे में बंद हों 

फिल्म - बॉबी

वर्ष -1973

हम तुम एक कमरे में बंद हों


गीत - सत्यम शिवम सुंदरम 

फिल्म - सत्यम शिवम सुंदरम 

वर्ष -1978

सत्यम शिवम सुंदरम




गीत - भंवरे ने खिलाया फूल

फिल्म - प्रेमरोग

वर्ष -1982

भंवरे ने खिलाया फूल



गीत - तुझे बुलाएं ये मेरी बाहें 

फिल्म - राम तेरी गंगा मैली

वर्ष -1985 

तुझे बुलाएं ये मेरी बाहें




दस गीत यहां पूरे होते हैं। अन्य महत्वपूर्ण गीतों का लिंक आप साझा कर सकते हैं।







रविवार, 15 दिसंबर 2024

राजकपूर - 100 साल : एक धागा

राजकपूर - 100 साल : एक धागा

मैंने सिनेमा हॉल में #राजकपूर की बनाई पहली फिल्म "राम तेरी गंगा मैली" देखी। प्रयागराज के एक सिनेमा हॉल में लगी थी और मौसी के बेटे आए थे किसी काम से। तब मैं बी ए प्रथम वर्ष का छात्र था। मैंने राजकपूर की ख्याति सुनी थी। मंदाकिनी से परिचित था। फिल्म का गीत सबको प्रिय लगा था क्योंकि रवींद्र जैन को पारंपरिक धुनों पर शब्द सजाना आता था।

राम तेरी गंगा मैली में जब मंदाकिनी स्नान करती हैं तो वहां राजकपूर का उद्देश्य उनकी निर्मलता और पवित्रता का संज्ञान कराना था। इसलिए मंदाकिनी एकवसना होकर स्नान कर रही थीं - तू जिसकी खोज में आया है! बाद में फिल्म में गंगा अपने तरीके से बहती हैं और काशी, कोलकाता सब आता है। मुझे काशी को इस तरह ले आना रुचा नहीं लेकिन राजकपूर यह करते थे।

मंदाकिनी
Mandakini : Ram Teri Ganga Maili












    




हम लोगों ने दत्त चित्त होकर फिल्म देखी। बाहर निकलकर दोनों ही बुखार में थे।
राजकपूर यह बुखार ले आने वाले फिल्मकार थे।

राम तेरी गंगा मैली देखने से पहले मैं बॉबी देख चुका था। डिंपल कपाड़िया उस फिल्म में बहुत आकर्षक लगी थीं। वह उनकी पहली ही फिल्म थी और झूठ बोले कौवा काटे से वह छा गईं। जब बॉबी का गीत बजा, हम तुम एक कमरे में बंद हों तो वह भी खयालों में ले जाने वाले वाला गीत बन गया था।


बॉबी में वर्गीय संघर्ष था और इस वर्ग भेद को नए प्रेमी ही समाप्त कर सकते हैं। राजकपूर इस फिल्म के साथ बहुत सी कहानियां लेकर आए थे। उन्हें सनसनी बनाना आता था। चित्रहार, अखबारों के पन्ने और फिल्मी कलियां से होते हुए यह सब छनकर पहुंचता था।
फिल्म से वर्ग संघर्ष और चेतना तो क्या ही बनी, राज कपूर की छाप अवश्य बनी थी।
#राजकपूर100

इसी क्रम में कभी सत्यम शिवम सुंदरम का उल्लेख हुआ और वहां जीनत अमान थीं। स्त्री विमर्श करती हुई। रूपा। राज कपूर पात्र चुनकर ले आते थे। उनका उद्देश्य समाजवादी, साम्यवादी राज्य की स्थापना था। वह लाल टोपी रूसी धारण करने वाले फिल्मकार थे तो उन्हें समर्थन भी खूब मिलता था।







भारतीय समाज किंचित रूढ़िवादी हो चला समाज था जहां यह सब परम गोपनीय था तो राज कपूर वर्ग और जाति को तोड़ते हुए एक बंधे बंधाए सूत्र पर काम कर रहे थे। सत्यम शिवम सुंदरम ने इस सूत्र को सफल सिद्ध किया।

राजकपूर शो मैन बन चुके थे। उनका परिवार प्रतिष्ठित परिवार था और फिल्मी दुनिया में वही एक घराना था जो हिंदू था, वरना फिल्मों में ऐसे ऐसे लोग भर गए थे जो मुगले आजम, यहूदी और रज़िया सुल्तान बनाने और इतिहास की निर्मिति में जुटे हुए थे। इसका लाभ #राजकपूर को मिला।

राज कपूर को यह सूत्र कहां से मिला था, यह तो शोधकर्ता बताएंगे लेकिन मैंने यह देखा कि जागते रहो से लेकर संगम, मेरा नाम जोकर तक आते आते राज कपूर ने इसे सफलता की गारंटी के कसौटी पर अच्छी तरह कस लिया था। मेरा नाम जोकर में तो वह बहुविध यह ले आए। अलग अलग रूपाओं को लेकर उतरे।

जो राजकपूर श्री 420, आवारा आदि में साम्यवादी दिखाई देते हैं, वह एक झीना परदा था। असल चीज कुछ और ही थी।


तो राजकपूर ने जो दृश्य होना चाहिए था, उसे परिदृश्य बना दिया और परिदृश्य को मुख्य दृश्य।

उन्होंने दुनिया को एक सर्कस मान लिया और स्वयं एक जोकर बन गए।

#Rajkapoor


राज कपूर ने कुछ लोगों को लेकर एक दल बनाया और उन्हें अपने दल में सम्मिलित किया। लता मंगेशकर, मुकेश, शंकर जयकिशन, शैलेन्द्र, रवींद्र जैन आदि को लेकर उनके अपने आग्रह थे। उनकी टीम बनती थी।

जहां तक अभिनय का प्रश्न है, राज कपूर ने जहां स्वयं की छूट ली और खुद को निर्देशित किया वहां वह शुद्ध रूप से चार्ली चैपलिन के अनुकर्ता भर हैं। मेरा नाम जोकर में यह चरित्र सबसे अधिक मुखर होता है। अन्यत्र भी वह उसी मशीनीकृत अंदाज में जाने का प्रयास करते दिखते हैं, हाव भाव करते हुए।

जब वह तीसरी कसम में हीरामन की भूमिका में आए थे तो उनको एक गुणी अभिनेता के रूप में देखा जा सकता है। उनमें अभिनय की अपार संभावना थी लेकिन वह एक टैबू बनकर रह गए।




आने वाले समय में राज कपूर एक महान अभिनेता के रूप में समादृत होते रहेंगे। उन्होंने सिनेमा में सफल होना सिखाया। शो ऑफ करना सिखाया। अपने लोगों के साथ खड़ा रहकर एक मिसाल दी। वह एक ध्रुव थे। जो काम पृथ्वीराज कपूर ने कर दिया था, राजकपूर ने उसे आगे बढ़ाया।

वह सजग फिल्मकार थे। अपनी रुचि और दृष्टि में प्रखर। वह अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए लोगों को मनाना जानते थे। उन्होंने वह सब प्राप्त किया जो वह अपेक्षा करते थे।

आज उनके जीवन का 100वाँ वर्ष पूर्ण हुआ। राज कपूर को देश अपने तरीके से याद कर रहा है।

श्रद्धा के दो फूल मेरी तरफ से भी।


बुधवार, 11 दिसंबर 2024

राम रसायन तुम्हरे पासा।

राम  रसायन  तुम्हरे  पासा।

सदा रहो रघुपति के दासा।।

भाग - 34
चौपाई - 32

इस चौपाई में हनुमान जी को सदैव भगवान श्रीराम के निकट रहने वाले सेवक के रूप में बताया गया है जिसके पास राम रसायन है।



राम रसायन क्या है?
सामान्यतया रसायन का अर्थ ओषधि से लिया जाता है। कहा जाता है कि राम नाम एक ओषधि है जो हर तरह के दुःख और कष्ट से मुक्त करने में सक्षम है। किंतु यह राम रसायन का सरलीकरण ही है। राम रसायन कष्ट में पड़े और दुःखी जन के लिए ओषधि है लेकिन यह नाम सर्वजन के लिए आनंददायी है इसलिए ओषधि कहना इसका क्षेत्र संकोच करना है।
रसायन रस का आनंद है। रस की व्याख्या करते हुए तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा गया है - रसो वै स:।
रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति।
अर्थात् वह रस का स्वरूप है। जो इस रस को पा लेता है वही आनन्दमय बन जाता है। सः यहाँ स्वयम्भू सर्जक के लिए प्रयोग किया गया है और रस उनकी सुन्दर रचना से मिला आनन्द है। जब प्राणी इस आनन्द को, इस रस को प्राप्त कर लेता है तो वह स्वयं आनन्दमय बन जाता है।

अथर्ववेद में आता है - "श्रीरामएवरसोवैसः।यस्यदासरसोवैपादः। यस्य शान्तरसो वै शिरः। वात्सल्यः प्राणः। शृङ्गारो बाहू। संख्यात्मा।" अर्थात् वह रसो वै सः ही एकमात्र #श्रीराम हैं। जिसका दास्य रस है उसके पैर हैं, शांत रस है सिर है, वात्सल्य रस है प्राण है, श्रृंगार रस है भुजा है और सख्य रस है आत्मा।

अतः स्पष्ट है कि रसायन और उसमें भी राम रसायन अतिविशिष्ट तत्त्व है। श्री हनुमान जी के पास यह है। हनुमान चालीसा इसे विशेष रूप से उल्लिखित करता है।

आइए, हम हनुमान जी महाराज का वंदन करें। हनुमान चालीसा का नियमित पाठ करें।
#जय_श्री_राम_दूत_हनुमान_जी_की
#हनुमानचालीसा_व्याख्या_सहित #HANUMAN #बत्तीसवीं_चौपाई #चौपाई
#श्री_हनुमान_चालीसा #जय_श्री_राम_दूत_हनुमान_जी_की
#हनुमानचालीसा_शृंखला

चौंतीसवां भाग, हनुमान चालीसा

अष्ट सिद्धियां वे सिद्धियाँ हैं, जिन्हें प्राप्त कर व्यक्ति किसी भी रूप और देह में वास करने में सक्षम हो सकता है। वह सूक्ष्मता की सीमा पार कर सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा जितना चाहे विशालकाय हो सकता है।

१. अणिमा : अष्ट सिद्धियों में सबसे पहली सिद्धि अणिमा हैं, जिसका अर्थ देह को एक अणु के समान सूक्ष्म करने की शक्ति से है। जिस प्रकार हम अपने नग्न आंखों एक अणु को नहीं देख सकते, उसी तरह अणिमा सिद्धि प्राप्त करने के पश्चात दुसरा कोई व्यक्ति सिद्धि प्राप्त करने वाले को नहीं देख सकता हैं। साधक जब चाहे एक अणु के बराबर का सूक्ष्म देह धारण करने में सक्षम होता हैं।

२. महिमा : अणिमा के ठीक विपरीत प्रकार की सिद्धि हैं महिमा, साधक जब चाहे अपने शरीर को असीमित विशालता करने में सक्षम होता हैं, वह अपने शरीर को किसी भी सीमा तक फैला सकता हैं।

३. गरिमा : इस सिद्धि को प्राप्त करने के पश्चात साधक अपने शरीर के भार को असीमित तरीके से बढ़ा सकता हैं। साधक का आकार तो सीमित ही रहता हैं, परन्तु उसके शरीर का भार इतना बढ़ जाता हैं कि उसे कोई शक्ति हिला नहीं सकती हैं।

४. लघिमा : साधक का शरीर इतना हल्का हो सकता है कि वह पवन से भी तेज गति से उड़ सकता हैं। उसके शरीर का भार ना के बराबर हो जाता हैं।

५. प्राप्ति : साधक बिना किसी रोक-टोक के किसी भी स्थान पर, कहीं भी जा सकता हैं। अपनी इच्छानुसार अन्य मनुष्यों के सनमुख अदृश्य होकर, साधक जहाँ जाना चाहें वही जा सकता हैं तथा उसे कोई देख नहीं सकता हैं।

६. पराक्रम्य : साधक किसी के मन की बात को बहुत सरलता से समझ सकता हैं, फिर सामने वाला व्यक्ति अपने मन की बात की अभिव्यक्ति करें या नहीं।

७. इसित्व : यह भगवान की उपाधि हैं, यह सिद्धि प्राप्त करने से पश्चात साधक स्वयं ईश्वर स्वरूप हो जाता हैं, वह दुनिया पर अपना आधिपत्य स्थापित कर सकता हैं।

८. वसित्व : वसित्व प्राप्त करने के पश्चात साधक किसी भी व्यक्ति को अपना दास बनाकर रख सकता हैं। वह जिसे चाहें अपने वश में कर सकता हैं या किसी की भी पराजय का कारण बन सकता हैं।

नौ निधियां हमारे ग्रंथो में नव निधियों के बारे काफी कुछ कहा गया है। पुरातन काल से यह माना जाता हैं की धन के बिना जीवन के किसी भी आयाम को सार्थक रूप देना सम्भव नही है। इसलिए धन यानि लक्ष्मी को धर्म के बाद दूसरा स्थान दिया गया है। हर व्यक्ति के थोड़ा सा निष्ठापूर्ण परिश्रम करने से, साधना करने से कुछ न कुछ निधियां उसे प्राप्त हो जाती हैं। शास्त्रों में बताया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को "श्री" संपन्न होना ही चाहिए जिसके लिए हर व्यक्ति प्रयत्नशील भी रहता है। तो क्या हैं ये नव निधियां। नव निधियां- पद्म निधि, महापद्म निधि, नील निधि, मुकुंद निधि, नन्द निधि, मकर निधि, कच्छप निधि, शंख निधि, खर्व निधि। नौ निधियों में केवल खर्व निधि को छोड़कर शेष आठ निधियां पद्मिनी नामक विद्या के सिद्ध होने पर प्राप्त हो जाती हैं परन्तु इन्हे प्राप्त करना भी काफी दुष्कर है। पद्म निधि-यह सात्विक प्रकार की होती है। जिसका उपयोग साधक के परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है।

पद्म निधि

यह सात्विक प्रकार की होती है। जिसका उपयोग साधक के परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है।

महापद्म निधि

महापद्म निधि-यह भी सात्विक प्रकार की निधि है। इसका प्रभाव सात पीढ़ियों के बाद नहीं रहता।

नील निधि

नील निधि-यह सत्व व राज गुण दोनों से मिश्रित होती है। जो व्यक्ति को केवल व्यापार हेतु ही प्राप्त होती है।

मुकुंद निधि

मुकुंद निधि-राजसी स्वभाव वाली निधि जिससे साधक का मन भोग इत्यादि में ही लगा रहता है। एक पीढ़ी बाद नष्ट हो जाती है।

नन्द निधि

नन्द निधि-यह रजो व तमो गुण वाली निधि होती है जो साधक को लम्बी आयु व निरंतर तरक्की प्रदान करती है।

मकर निधिं

मकर निधिं-यह तामसी निधि है जो साधक को अस्त्र-शास्त्र से सम्पन्नता प्रदान करती है परन्तु उसकी मौत भी इसी कारण होती है। कच्छप निधि

कच्छप निधि-इसका साधक अपनी सम्पति को छुपा के रखता है ना तो स्वयं उसका उपयोग करता है ना करने देता है।

शंख निधि

शंख निधि-इस निधि को प्राप्त व्यक्ति स्वयं तो धन कमाता हैं परन्तु उसके परिवार वाले गरीबी में जीते हैं वह स्वयं पर ही अपनी सम्पति का उपयोग करता है।

खर्व निधि

खर्व निधि-इस निधि को प्राप्त व्यक्ति विकलांग व घमंडी होता हैं जो समय आने पर लूट के चल देता है।

मंगलवार, 3 दिसंबर 2024

एक सुलझा आदमी


बहुत लोग पूछंते हैं कि मेरी दृष्टि इतनी साफ कैसे हो गयी है और मेरा व्यक्तित्व ऐसा सरल कैसे हो गया हैं। बात यह है कि बहुत साल पहले ही मैंने अपने-आपसे कुछ सीधे सवाल किये थे । तब मेरी अंतरात्मा बहुत निर्मल थी-शेव के पहले के कांच जैसी । कुछ लोगों की अंतरात्मा बुढापे तक वैसी ही रहती है, जैसी पैदा होते वक्त । वे बचपन में अगर बाप का माल निसंकोच खाते हैं, तो सारी उम्र दुनिया भर को बाप समझ-कर उसका माल निसंकोच मुफ्त खाया करते हैं । मेरी निर्मल आत्मा से सीधे सवालों के सीधे जबाब आ गये थे, जैसे बटन दबाने से पंखा चलने लगे । जिन सवालों के जवाब तकलीफ दें उन्हें टालने से आदमी सुखी रहता है । मैंने हमेशा सुखी रहने की कोशिश की है । मैंने इन सवालों के सिवा कोई सवाल नहीं किया और न अपने जवाब बदले । मेरी सुलझी  हुई दृष्टि, मेरे आत्मविश्वास और मेरे सूख का यही रहस्य है । 'दूसरों को सुख का रास्ता बताने के लिए मैं वे प्रश्न और उनके उत्तर नीचे देता हूँ-

 

तुम किस देश के निवासी हो ?

- भारत के

 

-संसार में सबसे प्राचीन संस्कृति किस देश की है

-भारत की

 

-तुम किस जाति के हो ?

-आर्य-

 

विश्व में सबसे प्राचीन जाति कौन ?

-आर्य

 

-और सबसे श्रेष्ठ ?

-आर्य

 

-क्या तुमने खून की परीक्षा करायी है ?

- हां उसमें सौ प्रतिशत आर्य-सेल हैं

 

- देवता भगवन से क्या प्रार्थना करते है ?

- कि हमें पुण्यभूमि भारत में जनम दो

 

- बाकी भूमि कैसी हैं ?

-पाप भूमि हें

 

-देवता कहीं और तो जन्म नहीं लेते

-कतई नहीं । वे मुझे बताकर जन्म लेते हैं

 

-क्या देवताओं के पास राजनीतिक नक्शा है

-हाँ, देवताओं के पास 'ऑक्सफ़ोर्ड वर्ल्ड एटलस' है

 

-क्या उन्हें पाकिस्तान बनने की खबर है

-उन्हें सब मालूम है । वे "बाउण्डरी कमीशन' की रेखा को मानते हैं

 

-ज्ञान -विज्ञान किसके पास है ?

-सिर्फ आर्यो के पास

 

-यानी तुम्हारे पास है ?

-नहीं, हमारे पूर्वज आर्यों के पास

 

- उसके बाहर कहीं ज्ञान-विज्ञान तो नहीं है ?

- कहीं नहीं-

 

इन हजारों सालों मनुष्य-जाति ने कोई उपलब्धि की?

- कोई नहीं । सारी उपलब्धियाँ हमारे यहां हो चुकी थीं ।

 

-क्या अब हमें कुछ सीखने की जरूरत है ?

-कतई नहीं । हमारे पूर्वज तो विश्व के गुरु थे

 

-संसार में महान् कौन ?

- हम, हम, हम हम, हम

 

मेरा ह्रदय गदगद हो गया । अश्रुपात होने लगा । मैंने आँखें बन्द कर ली  तो भीतर से स्वर निकलने लगे" "अहा ! वाह ! कैसा सुख है इसी समय मेरा एक परिचित वहाँ आ गया । बोला क्या आँखें आ गयी हैं  ? कोई दवा डाल रखी है? मैंने कहा -अंजन लग गया है । पर बाहर की आँखों में नहीं , भीतर की आँखों में , नयी दृष्टि मिल गयी है । बड़ा संतोष है । अब सब सहज हो गया है । इतिहास सामने आ गया । जीवन के रहस्य खुल गये । न मन में कोई सवाल उठता, न कोई शंका पैदा होती । जितना जानने योग्य था, जाना जा चुका । सब हमारी जाति जान चुकी। अब न कुछ जानने लायक बचा, न करने लायक ।

 

मैंने वे सवाल और जवाब बताये । उसने कहा - ठीक है । मैं समझ गया आत्मविश्वास धन का होता हैं, विद्या का भी और बल का भी, पर सबसे बडा आत्मविश्वास नासमझी का होता है । इसे मैंने अपनी प्रशंसा समझा और अपने विश्वासो मेँ और पक्का हो गया । मैं अपने विचार खुलकर प्रकट करने लगा और लोगों को वे दिलचस्प मालूम हुए. लोग मुझे सुनने के लिए तड़पने लगे और इंजीनियरों से लेकर दार्शनिको तक के बीच मुझे बुलाया जाने लगा .

 

एक दिन डाक्टरों की सभा में मैंने कहा-पश्चिम गर्व करता है कि उसने पेनिसिलीन की खोज करके मनुष्य की आयु बढा दी है । उसे नहीं मालूम कि पेनिसिलीन दुसरे विश्वयुद्ध के समय नहीं, महाभारत-युद्ध के समय हमारे यहाँ खोज लिया गया था । मित्रों ! कल्पना कीजिए…भीष्म-पितामह, ऊर्ध्वरेता, अखण्ड ब्रह्मचारी भीष्म, शऊर-शैया पर पड़े हैं । सारा शरीर घावों से क्षत-विक्षत हो गया है । वे सूर्य की गति देख रहे हैं । सूर्य उत्तरायण हो, तो वे प्राण त्यायें । वे पूरे इक्यावन दिन जीवित और फिर भी घावों से नहीं मरे; इच्छा से प्राणों का त्याग किया । में पश्चिमी वैज्ञानिकों से पूछता हूँ कि उनके घाव 'सेप्टिक' क्यों नहीं हुए ? पेनिसिलीन के कारण । उन्हें पेनिसिलीन दिया गया था । भारत ने दस हजार साल पहले जो पेनिसिलीन विश्व को दिया था, वही अब पश्चिम हमें इस_तरहृ लौटा रहा है, जैसे वह उसी की खोज हो । मित्रों ! भूलिए मत कि भारत विश्व का गुरु है । हमें कोई कुछ नहीं सिखा सकता इस पर खूब जोर से तालियाँ बजीं और सब मान गये कि हमें कोई कुछ नहीं सिखा सकता .

 

हाल ही में भारत -पाक -युद्ध के दौर में टेंक-भेदी तोप की बडी चर्चा थी । मैँ सुनता था और हँसता था । आखिर एक दिन एक सभा में मैंने कह दिया जो लोग टेंक-भेदी तोप की तारीफ करते हैं  वे भूल जाते हैं कि टेक तो आज बने हें, पर टेंक-भेदी तोपें तो  हमारे यहाँ त्रेता युग में बनती थीं । भाइयो, कल्पना कीजिए उस दृश्य की-…~ राम सुग्रीव से कह रहे हैं कि मैं वालि को मारूँगा । सुग्रीव सन्देह प्रकट करता है कहता है-बालि महाबलशाली है । मुझे विश्वास नहीं होता कि आप उसे मार सकेंगे तब क्या होता है कि मर्यादा-पुरुपोत्तम धनुष उठाते हें, बाण का सन्धान करते हें और ताड़ के वृक्षों की एक कतार पर छोड़ देते है ॰। बाण एक के बाद एक सात ताडों को छेदकंर निकल जाता है । सुग्रीव चकित है, वन के पशु-पक्षी, खग-मृग और लता-वल्लरी चकित हैं । सज्जनौ, जो एक बाण से सात ताड़ छेद डालते थे, उनपे पास मोटे से मोटे टेंक कौ छेदने की तोप क्या नंहीं होगी ? भूलिए मत, हम विश्व के गुरु रहे हैं और कोई हमें कुछ नहीं सिखा सकता।

खूब तालियाँ पिटी और सब मान गये कि कोई हमेँ कुछ नहीं सिखा सकता

 

एक दिन मनोविज्ञान पर एक परिचर्चा आयोजित थी । प्रोफेसर लम्बे लम्बे भाषण दे रहे थे । जब सहन नहीं हुआ, तो मैं भी बोलने पहुँच गया कहा-साइक्लोजी - ! मनोविज्ञान-हुँह ! लोग कहते हैं कि साइक्लोजी आधुनिक "बिज्ञान है । में पूछता हूँ, क्या प्राचीन भारत में साइकाँलोजी नहीं थी ?अवश्य थी । अहा, उस दृश्य की कल्पना कीजिए- सूना वन-प्रदेश है । स्वच्छ आकाश और धरती  पर ऋषि और उनकी पत्नी बैठे हैं । चाँदनी फैली हुई है । मन्द-मन्द सुगन्ध मय समीर बह रहा है । ऐसे में ऋषि और उनकी पत्नी के हृदय में क्या भावनाए उठ रही होंगी ? बस, यही तो साइकाँलौजी है । हमारे देश में यह हजारों वर्ष से है और कहते हैं कि यह आधुनिक विज्ञान हैं । वे भूलते हैं, कोई हमें कुछ नहीं सिखा सकता।

लोगों ने तालियाँ पीटों और मान गए कि हमें कोई कुछ नहीं सिखा सकता

 

एक बार विदेश से वनैई बाँटनिस्ट' (वनस्पति वैज्ञानिक) आया । उनका एक जगह भाषण होना था । मुझे बताया गया कि यह 'फॉसिल' का विशेषज्ञ है, यानी चट्टानों के बीच दवे हुए पौधे या जन्तु के पाषाणरूप हो जाने का । मैंने उसका भाषण सुना और मेरे भीतर हलचल होने लगी। वह पश्चिम के वैज्ञानिकों के नाम ही लेता रहा और विदेशों के 'फरेंसिल' दिखाता रहा । उसके बाद बोलने को खडा हों गया । मैंने कहा-आज हमने एक महान् 'बाँटनी' का भाषण सुना । (बाद में मुझे बताया गया कि वह बाँटनिस्ट कहलाता ।) उन्होंने हमेँ बताया  कि 'फाँसिल' कैसे होते हैं । मैं आपसे पूछता हूँ कि क्या प्राचीन भारत मेँ 'बाँटनी' नहीं थे  ? अवश्य थे हम उन्हें भूलते जा रहे हैं । भगवान् रामचन्द्र एक महान् 'बाँटनी' थे और अहिल्या एक 'फासिल ' थी । महान् बाँटनी रामचन्द्र ने अहिल्या फासिल का पता लगाया। वे आज के इन बाँटनियों से ज्यादा योग्य थे। ये लोग तो फरेंसिल का सिर्फ पता लगाते हैं और उसकी जांच करते हैं । महान् बाँटनी राम ने "फरेंसिल" अहिल्या को फिर से स्त्री  बना दिया । ऐसे-ऐसे चमत्कारी बाँटनी हमारे यहाँ हो गये हैं । हम विश्व के गुरु रहे हैं । हमें कोई कूछ नहीं सिखा सकता।

इस पर भी खूब तालियाँ पिटी और विदेशी विशेषज्ञ तक मान गए कि हमें कोई कुछ नहीं सिखा सकता

 

एक दिन मैं ऐसी जगह पहुँच गया, जहाँ दो पहलवान किस्म के आदमी भाषण देने वाले थे । बताया गया कि वे विदेशों में शरीर-सौष्ठव की शिक्षा लेकर आये हैं बताने वाले हें कि शरीर को किस प्रकार पुष्ट बनाया जा सकता है। मैं उनकी बाते सुनता रहा । में बोला-शरीर तो हमारे पूर्वज बनाते थे । हमारे पास न शरीर है, न उसे हम बना सकते हैं । में आप से पूछता हुँ कि आपने भगवान् राम और कृष्ण की इतनी तसवीरें देखी' । क्या ऐसी भी कोई तसवीर हैं जिसमें वे पूरे कपडे पहने हो ? किसी भी कैलेण्डर पर आपको  ऐसी तसवीर नहीं मिलेगी जिसमेँ कमर से ऊपर कपड़ा पहने हों । यह हिस्सा  वे उघाड़ा रखते थे । क्यों ? इसलिए कि उन्होंने शरीर बनाया था और उसे दिखाना चाहतें थे । पर आप लोग कोट और पेंट पहने हुए बैठे हैं । ठीक हैं, आपके पास दिखाने को क्या है ? और ये पश्चिम के सीखे हुए लोग आपको वह क्या सिखा सकते हैं, जो राम और कृष्ण एक तसवीर से सीखा गए।

लोगो ने तालियां पीटी और सब मान गये कि कोई हमें अब कुछ नहीं सिखा सकता |

 

मेरी दृष्टि ऐसी साफ और सुलझी हुई हो गयी है कि मेरी बात तर्क से परे होती है उस पर विश्वास करना पड़ता है । जहां मैँ एक बार भाषण दे देता हूँ, वहाँ के लोग एकदम मान जाते    है कि हमें कोई कुछ नहीं सीखा सकता। मुझे मालुम लोगो ने मेरी बाते सुनकर कुछ भी    सीखना बंद कर दिया है ।  -  हरिशंकर परसाई

झाँसी वाली रानी : सुभद्रा कुमारी चौहान

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी

बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी 

गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी 

दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी


चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी


कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी, 

लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी, 

नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी, 

बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।


वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥


लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार


लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार, 

देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार, 

नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार, 

सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़। 


महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ 


हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में


हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में, 

ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में, 

राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में, 

सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में।


चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥


उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,


उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई, 

किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई, 

तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई, 

रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।


निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥


बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया


बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया, 

राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया, 

फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया, 

लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया। 


अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥



अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया, 

व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया, 

डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया, 

राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया। 


रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ 


छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात


छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात, 

कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात, 

उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात? 

जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात। 


बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥


रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार


रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार, 

उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार, 

सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार, 

'नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'। 


यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥


कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान


कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान, 

वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान, 

नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान, 

बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान। 


हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥


महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी


महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी, 

यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी, 

झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी, 

मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी, 


जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥


इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम


इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम, 

नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम, 

अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम, 

भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम। 


लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी


इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में


इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में, 

जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में, 

लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में, 

रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में। 


ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥


रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार


रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार, 

घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार, 

यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार, 

विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार। 


अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

बुधवार, 27 नवंबर 2024

कुणाल की कहानी

कल शाम वसु के साथ यूँ ही बेसबब घूमते हुए हम एक होटल के नजदीक से गुजरे। बड़े अक्षरों में वहाँ KUNAL लिखा हुआ था। वसु इन अक्षरों को पहचानने लगे हैं तो हिज्जे करने के बाद उन्होंने पूछा कि इसका क्या हुआ?

"कुणाल" मैंने बताया।
"इसका मतलब"- उनका बहुत भला प्रश्न था।
"जिसकी आँखें हमेशा 'सुंदर' देखती हैं। इसका एक अर्थ सुंदर आंखों वाली एक चिड़िया भी है।"
"किसकी आँखें पापा?" -वसु के पास बात जारी रखने के लिए प्रश्नों की अंतहीन सीरीज हैं।
"कुणाल की।" मैंने कहा। "कुणाल, सम्राट अशोक का बेटा था। उसकी माँ तिष्यरक्षिता ने उसकी आँखें फोड़वा दी थीं।"
कहानी दिलचस्प हो गयी थी। अब वसु के पास स्वाभाविक प्रश्न थे।
-"क्यों?"
मैंने कहानी याद करने की कोशिश की। हमलोगों के पास अपने इतिहास को कहने-जानने के लिए कहानियों का अभाव है। बल्कि कहा जाए तो कहानियों को कहने-सुनने के अभ्यास का अभाव है। हम किस्से और गप्प में भरोसा रखने वाले लोग हैं। तो याद आने के बाद मैंने कुछ खिचड़ी बनाकर कहानी सुना दी।
-"कुणाल जब बड़ा हुआ तो उसके विवाह का प्रस्ताव आया। कपड़े, गहने और नारियल लेकर तिष्यरक्षिता के पिता अशोक के पास आये। मजाक मजाक में अधेड़ अशोक ने कहा कि 'क्या यह प्रस्ताव मेरे लिए है?' राजसभा में यह बात हँसी के फव्वारे में उड़ गई किन्तु धार्मिक प्रवृत्ति के कुणाल ने इसे गंभीरता से लिया। उसने कहा कि मजाक मजाक में ही पिता ने तिष्यरक्षिता को अपनी पत्नी के रूप में कामना की है। अतः मैं तिष्यरक्षिता से विवाह कैसे कर सकता हूँ? राजसभा में यह हड़कम्प मचा देने वाला मसला बन गया।" वसु के लिए यह सब अब अझेल होने लगा और समझ से बाहर लेकिन वह हुँकारी भरते रहे और अपनी उत्सुकता प्रकट करते रहे तो मैंने कहानी आगे बढ़ा दी।
"राजसभा में इस स्थिति की मीमांसा हुई और तय पाया गया कि कुणाल ठीक कह रहे हैं। एक विद्वान ने महाभारत की एक कथा सुनाई।"
अब वसु को एक अन्य सिरा मिल गया था। उन्होंने चहकते हुए कहा- "एक और कहानी?"
-"हाँ, महाभारत में एक कहानी आती है कि दो भाई थे। एक संन्यासी और एक गृहस्थ। एक बार संन्यासी अपने गृहस्थ भाई से मिलने आया। गृहस्थ के बगीचे में अमरूद के पेड़ थे। उनपर अमरूद फला हुआ था। संन्यासी के मन में इच्छा हुई कि काश यह खाने को मिल जाता। और यह इच्छा प्रकट करते ही वह 'धर्मच्युत' हो गया। उसे अपनी मानसिक पतन का आभास हो गया। तो भाई के आने के बाद उसने इस गलती की बात बताई। भाई ने विचार किया और दण्ड का विधान किया कि संन्यासी के दोनों हाथ काट दिए जाएं। ऐसा ही हुआ। लेकिन उस कहानी में फिर सब चीजें सामान्य हो गयीं क्योंकि दोनों भाइयों की धर्मपरायणता ने यथास्थिति कर दिया।"
वसु को कुछ समझ में आया बहुत कुछ नहीं। लेकिन उन्होंने पूछ लिया कि कैसे हुआ यह। तो मैंने पूछा कि कुणाल की कहानी सुननी है या नहीं?
"सुननी है।"
"तो, तय हुआ कि तिष्यरक्षिता का विवाह अशोक के साथ हो। तिष्यरक्षिता कुणाल की सौतेली माँ बनकर आयी। वह क्रोध में थी। कुणाल से विवाह नहीं होने से दुःखी थी।"
"एक बार कुणाल पढ़ने के लिए उज्जैन गए। राजा अशोक ने एक पत्र लिखा और भेजा। उस पत्र में तिष्यरक्षिता ने कुछ हेर फेर कर दिया। 'अधीयु' की जगह 'अंधीयु' कर दिया था। कुणाल ने यह पढ़ा तो स्वयं ही अपनी आँखें फोड़ लीं।"
"खुद से?"
"हाँ! खुद से। पापा की बात कैसे न मानता? फिर वह संन्यासी बन गया। बहुत साल बाद अशोक के राजसभा में लौटा। अशोक ने उसके नवजात बेटे 'सम्प्रति' को मौर्य वंश का उत्तराधिकारी बना दिया। अशोक का एक बेटा महेन्द्र और बेटी संघमित्रा श्रीलंका गए।"

भारत में प्राचीन काल में बहुत से प्रतापी राजा हुए हैं लेकिन उनके प्रति उपेक्षा और विशेष दृष्टि सम्पन्न इतिहासकारों ने उनका ठीक मूल्यांकन नहीं किया। हमारी पीढ़ी और बाद की पीढ़ी शायद ही उन्हें जान पाए।

पुरानी पोस्ट।

ai generated कुणाल 


सद्य: आलोकित!

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