मंगलवार, 30 अगस्त 2022

तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम : फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी

हिरामन गाड़ीवान की पीठ में गुदगुदी लगती है....

पिछले बीस साल से गाड़ी हांकता है हिरामन। बैलगाड़ी। सीमा के उस पार, मोरंग राज नेपाल से धान और लकड़ी ढो चुका है। कंट्रोल के ज़माने में चोरबाज़ारी का माल इस पार से उस पार पहुंचाया है। लेकिन कभी तो ऐसी गुदगुदी नहीं लगी पीठ में!

कंट्रोल का ज़माना! हिरामन कभी भूल सकता है उस ज़माने को! एक बार चार खेप सीमेंट और कपड़े की गांठों से भरी गाड़ी, जोगबानी में विराटनगर पहुंचने के बाद हिरामन का कलेजा पोख्ता हो गया था। फारबिसगंज का हर चोर-व्यापारी उसको पक्का गाड़ीवान मानता। उसके बैलों की बड़ाई बड़ी गद्दी के बड़े सेठ जी ख़ुद करते, अपनी भाषा में।

फणीश्वर नाथ रेणु

गाड़ी पकड़ी गई पांचवीं बार, सीमा के इस पार तराई में।

महाजन का मुनीम उसी की गाड़ी पर गांठों के बीच चुक्की-मुक्की लगा कर छिपा हुआ था। दारोगा साहब की डेढ़ हाथ लंबी चोरबत्ती की रौशनी कितनी तेज़ होती है, हिरामन जानता है। एक घंटे के लिए आदमी अंधा हो जाता है, एक छटक भी पड़ जाए आंखों पर! रौशनी के साथ कड़कती हुई आवाज ऐ-य! गाड़ी रोको! साले, गोली मार देंगे?’

बीसों गाड़ियां एक साथ कचकचा कर रुक गईं। हिरामन ने पहले ही कहा था,‘यह बीस विषावेगा!दारोगा साहब उसकी गाड़ी में दुबके हुए मुनीम जी पर रौशनी डाल कर पिशाची हंसी हंसे हा-हा-हा! मुनीम जी-ई-ई-ई! ही-ही-ही! ऐ-य, साला गाड़ीवान, मुंह क्या देखता है रे-ए-ए! कंबल हटाओ इस बोरे के मुंह पर से!हाथ की छोटी लाठी से मुनीम जी के पेट में खोंचा मारते हुए कहा था, ‘इस बोरे को! स-स्साला!

बहुत पुरानी अखज-अदावत होगी दारोगा साहब और मुनीम जी में। नहीं तो उतना रुपया क़बूलने पर भी पुलिस-दरोगा का मन न डोले भला! चार हज़ार तो गाड़ी पर बैठा ही दे रहा है। लाठी से दूसरी बार खोंचा मारा दारोगा ने। पांच हज़ार!फिर खोंचा उतरो पहले....

मुनीम को गाड़ी से नीचे उतार कर दारोगा ने उसकी आंखों पर रौशनी डाल दी। फिर दो सिपाहियों के साथ सड़क से बीस-पच्चीस रस्सी दूर झाड़ी के पास ले गए। गाड़ीवान और गाड़ियों पर पांच-पांच बंदूकवाले सिपाहियों का पहरा! हिरामन समझ गया, इस बार निस्तार नहीं। जेल? हिरामन को जेल का डर नहीं। लेकिन उसके बैल? न जाने कितने दिनों तक बिना चारा-पानी के सरकारी फाटक में पड़े रहेंगे- भूखे-प्यासे। फिर नीलाम हो जाएंगे। भैया और भौजी को वह मुंह नहीं दिखा सकेगा कभी।

....नीलाम की बोली उसके कानों के पास गूंज गई- एक-दो-तीन! दारोगा और मुनीम में बात पट नहीं रही थी शायद।

हिरामन की गाड़ी के पास तैनात सिपाही ने अपनी भाषा में दूसरे सिपाही से धीमी आवाज़ में पूछा, ‘का हो? मामला गोल होखी का?’ फिर खैनी-तंबाकू देने के बहाने उस सिपाही के पास चला गया।

एक-दो-तीन! तीन-चार गाड़ियों की आड़। हिरामन ने फ़ैसला कर लिया। उसने धीरे-से अपने बैलों के गले की रस्सियां खोल लीं। गाड़ी पर बैठे-बैठे दोनों को जुड़वां बांध दिया। बैल समझ गए उन्हें क्या करना है। हिरामन उतरा, जुती हुई गाड़ी में बांस की टिकटी लगा कर बैलों के कंधों को बेलाग किया। दोनों के कानों के पास गुदगुदी लगा दी और मन-ही-मन बोला, ‘चलो भैयन, जान बचेगी तो ऐसी-ऐसी सग्गड़ गाड़ी बहुत मिलेगी। ....एक-दो-तीन! नौ-दो-ग्यारह! ।।

गाड़ियों की आड़ में सड़क के किनारे दूर तक घनी झाड़ी फैली हुई थी। दम साध कर तीनों प्राणियों ने झाड़ी को पार किया-बेखटक, बेआहट! फिर एक ले, दो ले-दुलकी चाल! दोनों बैल सीना तान कर फिर तराई के घने जंगलों में घुस गए। राह सूंघते, नदी-नाला पार करते हुए भागे पूंछ उठा कर। पीछे-पीछे हिरामन। रातभर भागते रहे थे तीनों जन।

घर पहुंच कर दो दिन तक बेसुध पड़ा रहा हिरामन। होश में आते ही उसने कान पकड़ कर कसम खाई थी अब कभी ऐसी चीजों की लदनी नहीं लादेंगे। चोरबाजारी का माल? तोबा, तोबा!....पता नहीं मुनीम जी का क्या हुआ! भगवान जाने उसकी सग्गड़ गाड़ी का क्या हुआ! असली इस्पात लोहे की धुरी थी। दोनों पहिए तो नहीं, एक पहिया एकदम नया था। गाड़ी में रंगीन डोरियों के फुंदने बड़े जतन से गूंथे गए थे।

दो कसमें खाई हैं उसने। एक चोरबाजारी का माल नहीं लादेंगे। दूसरी-बांस। अपने हर भाड़ेदार से वह पहले ही पूछ लेता है चोरी-चमारीवाली चीज तो नहीं? और, बांस?’ बांस लादने के लिए पचास रुपए भी दे कोई, हिरामन की गाड़ी नहीं मिलेगी। दूसरे की गाड़ी देखे।
बांस लदी हुई गाड़ी! गाड़ी से चार हाथ आगे बांस का अगुआ निकला रहता है और पीछे की ओर चार हाथ पिछुआ! क़ाबू के बाहर रहती है गाड़ी हमेशा। सो बेकाबूवाली लदनी और खरैहिया। शहरवाली बात! तिस पर बांस का अगुआ पकड़ कर चलनेवाला भाड़ेदार का महाभकुआ नौकर, लड़की-स्कूल की ओर देखने लगा। बस, मोड़ पर घोड़ागाड़ी से टक्कर हो गई। जब तक हिरामन बैलों की रस्सी खींचे, तब तक घोड़ागाड़ी की छतरी बांस के अगुआ में फंस गई। घोड़ा-गाड़ीवाले ने तड़ातड़ चाबुक मारते हुए गाली दी थी! बांस की लदनी ही नहीं, हिरामन ने खरैहिया शहर की लदनी भी छोड़ दी। और जब फारबिसगंज से मोरंग का भाड़ा ढोना शुरू किया तो गाड़ी ही पार! कई वर्षों तक हिरामन ने बैलों को आधीदारी पर जोता। आधा भाड़ा गाड़ीवाले का और आधा बैलवाले का। हिस्स! गाड़ीवानी करो मुफ्त! आधीदारी की कमाई से बैलों के ही पेट नहीं भरते। पिछले साल ही उसने अपनी गाड़ी बनवाई है।
देवी मैया भला करें उस सरकस-कंपनी के बाघ का। पिछले साल इसी मेले में बाघगाड़ी को ढोनेवाले दोनों घोड़े मर गए। चंपानगर से फारबिसगंज मेला आने के समय सरकस-कंपनी के मैनेजर ने गाड़ीवान-पट्टी में ऐलान करके कहा सौ रुपया भाड़ा मिलेगा!एक-दो गाड़ीवान राज़ी हुए। लेकिन, उनके बैल बाघगाड़ी से दस हाथ दूर ही डर से डिकरने लगे- बां आं! रस्सी तुड़ा कर भागे। हिरामन ने अपने बैलों की पीठ सहलाते हुए कहा,‘देखो भैयन, ऐसा मौका फिर हाथ न आएगा। यही है मौका अपनी गाड़ी बनवाने का। नहीं तो फिर आधेदारी। अरे पिंजड़े में बंद बाघ का क्या डर? मोरंग की तराई में दहाड़ते हुइ बाघों को देख चुके हो। फिर पीठ पर मैं तो हूं....

गाड़ीवानों के दल में तालियां पटपटा उठी थीं एक साथ। सभी की लाज रख ली हिरामन के बैलों ने। हुमक कर आगे बढ़ गए और बाघगाड़ी में जुट गए- एक-एक करके। सिर्फ़ दाहिने बैल ने जुतने के बाद ढेर-सा पेशाब किया। हिरामन ने दो दिन तक नाक से कपड़े की पट्टी नहीं खोली थी। बड़ी गद्दी के बड़े सेठ जी की तरह नकबंधन लगाए बिना बघाइन गंध बरदास्त नहीं कर सकता कोई।

बाघगाड़ी की गाड़ीवानी की है हिरामन ने। कभी ऐसी गुदगुदी नहीं लगी पीठ में। आज रह-रह कर उसकी गाड़ी में चंपा का फूल महक उठता है। पीठ में गुदगुदी लगने पर वह अंगोछे से पीठ झाड़ लेता है।

हिरामन को लगता है, दो वर्ष से चंपानगर मेले की भगवती मैया उस पर प्रसन्न है। पिछले साल बाघगाड़ी जुट गई। नकद एक सौ रुपए भाड़े के अलावा बुताद, चाह-बिस्कुट और रास्ते-भर बंदर-भालू और जोकर का तमाशा देखा सो फोकट में!

और, इस बार यह जनानी सवारी। औरत है या चंपा का फूल! जब से गाड़ी मह-मह महक रही है।

कच्ची सड़क के एक छोटे-से खड्ड में गाड़ी का दाहिना पहिया बेमौके हिचकोला खा गया। हिरामन की गाड़ी से एक हल्की सिसकी आवाज़ आई। हिरामन ने दाहिने बैल को दुआली से पीटते हुए कहा,‘साला! क्या समझता है, बोरे की लदनी है क्या?’

अहा! मारो मत!

अनदेखी औरत की आवाज़ ने हिरामन को अचरज में डाल दिया। बच्चों की बोली जैसी महीन, फेनूगिलासी बोली!

मथुरामोहन नौटंकी कंपनी में लैला बननेवाली हीराबाई का नाम किसने नहीं सुना होगा भला! लेकिन हिरामन की बात निराली है! उसने सात साल तक लगातार मेलों की लदनी लादी है, कभी नौटंकी-थियेटर या बायस्कोप सिनेमा नहीं देखा। लैला या हीराबाई का नाम भी उसने नहीं सुना कभी। देखने की क्या बात! सो मेला टूटने के पंद्रह दिन पहले आधी रात की बेला में काली ओढ़नी में लिपटी औरत को देख कर उसके मन में खटका अवश्य लगा था। बक्सा ढोनेवाले नौकर से गाड़ी-भाड़ा में मोल-मोलाई करने की कोशिश की तो ओढ़नीवाली ने सिर हिला कर मना कर दिया। हिरामन ने गाड़ी जोतते हुए नौकर से पूछा,‘क्यों भैया, कोई चोरी चमारी का माल-वाल तो नहीं?’ हिरामन को फिर अचरज हुआ। बक्सा ढोनेवाले आदमी ने हाथ के इशारे से गाड़ी हांकने को कहा और अंधेरे में ग़ायब हो गया। हिरामन को मेले में तंबाकू बेचनेवाली बूढ़ी की काली साड़ी की याद आई थी।

ऐसे में कोई क्या गाड़ी हांके!

एक तो पीठ में गुदगुदी लग रही है। दूसरे रह-रह कर चंपा का फूल खिल जाता है उसकी गाड़ी में। बैलों को डांटो तो इस-बिसकरने लगती है उसकी सवारी। उसकी सवारी! औरत अकेली, तंबाकू बेचनेवाली बूढ़ी नहीं! आवाज़ सुनने के बाद वह बार-बार मुड़ कर टप्पर में एक नज़र डाल देता है, अंगोछे से पीठ झाड़ता है। ....भगवान जाने क्या लिखा है इस बार उसकी क़िस्मत में! गाड़ी जब पूरब की ओर मुड़ी, एक टुकड़ा चांदनी उसकी गाड़ी में समा गई। सवारी की नाक पर एक जुगनू जगमगा उठा। हिरामन को सबकुछ रहस्यमय-अजगुत-अजगुत-लग रहा है। सामने चंपानगर से सिंधिया गांव तक फैला हुआ मैदान.... कहीं डाकिन-पिशाचिन तो नहीं?

हिरामन की सवारी ने करवट ली। चांदनी पूरे मुखड़े पर पड़ी तो हिरामन चीखते-चीखते रुक गया,‘अरे बाप! ई तो परी है!

परी की आंखें खुल गईं। हिरामन ने सामने सड़क की ओर मुंह कर लिया और बैलों को टिटकारी दी। वह जीभ को तालू से सटा कर टि-टि-टि-टि आवाज निकालता है। हिरामन की जीभ न जाने कब से सूख कर लकड़ी-जैसी हो गई थी!

भैया, तुम्हारा नाम क्या है?’

हू-ब-हू फेनूगिलास! ....हिरामन के रोम-रोम बज उठे। मुंह से बोली नहीं निकली। उसके दोनों बैल भी कान खड़े करके इस बोली को परखते हैं।

मेरा नाम! ....नाम मेरा है हिरामन!

उसकी सवारी मुस्कराती है। ....मुस्कराहट में ख़ुशबू है।

तब तो मीता कहूंगी, भैया नहीं। मेरा नाम भी हीरा है।

इस्स!हिरामन को परतीत नहीं। मर्द और औरत के नाम में फ़र्क़ होता है।

हां जी, मेरा नाम भी हीराबाई है।

कहां हिरामन और कहां हीराबाई, बहुत फ़र्क़ है!

हिरामन ने अपने बैलों को झिड़की दी,‘कान चुनिया कर गप सुनने से ही तीस कोस मंजिल कटेगी क्या? इस बाएं नाटे के पेट में शैतानी भरी है।हिरामन ने बाएं बैल को दुआली की हल्की झड़प दी।

मारो मत, धीरे-धीरे चलने दो। जल्दी क्या है!

हिरामन के सामने सवाल उपस्थित हुआ, वह क्या कह कर गपकरे हीराबाई से?

तोहेकहे या अहां?’ उसकी भाषा में बड़ों को अहांअर्थात आपकह कर संबोधित किया जाता है, कचराही बोली में दो-चार सवाल-जवाब चल सकता है, दिल-खोल गप तो गांव की बोली में ही की जा सकती है किसी से।

आसिन-कातिक के भोर में छा जानेवाले कुहासे से हिरामन को पुरानी चिढ़ है। बहुत बार वह सड़क भूल कर भटक चुका है। किंतु आज के भोर के इस घने कुहासे में भी वह मगन है। नदी के किनारे धन-खेतों से फूले हुए धान के पौधों की पवनिया गंध आती है। पर्व-पावन के दिन गांव में ऐसी ही सुगंध फैली रहती है। उसकी गाड़ी में फिर चंपा का फूल खिला। उस फूल में एक परी बैठी है। ....जै भगवती।

हिरामन ने आंख की कनखियों से देखा, उसकी सवारी ....मीता ....हीराबाई की आंखें गुजुर-गुजुर उसको हेर रही हैं। हिरामन के मन में कोई अजानी रागिनी बज उठी। सारी देह सिरसिरा रही है। बोला, ‘बैल को मारते हैं तो आपको बहुत बुरा लगता है?’

हीराबाई ने परख लिया, हिरामन सचमुच हीरा है।

चालीस साल का हट्टा-कट्टा, काला-कलूटा, देहाती नौजवान अपनी गाड़ी और अपने बैलों के सिवाय दुनिया की किसी और बात में विशेष दिलचस्पी नहीं लेता। घर में बड़ा भाई है, खेती करता है। बाल-बच्चेवाला आदमी है। हिरामन भाई से बढ़ कर भाभी की इज़्ज़त करता है। भाभी से डरता भी है। हिरामन की भी शादी हुई थी, बचपन में ही गौने के पहले ही दुलहिन मर गई। हिरामन को अपनी दुलहिन का चेहरा याद नहीं। ....दूसरी शादी? दूसरी शादी न करने के अनेक कारण हैं। भाभी की जिद, कुमारी लड़की से ही हिरामन की शादी करवाएगी। कुमारी का मतलब हुआ पांच-सात साल की लड़की। कौन मानता है सरधा-क़ानून? कोई लड़कीवाला दोब्याहू को अपनी लड़की गरज में पड़ने पर ही दे सकता है। भाभी उसकी तीन-सत्त करके बैठी है, सो बैठी है। भाभी के आगे भैया की भी नहीं चलती! ....अब हिरामन ने तय कर लिया है, शादी नहीं करेगा। कौन बलाय मोल लेने जाए! ....ब्याह करके फिर गाड़ीवानी क्या करेगा कोई! और सब कुछ छूट जाए, गाड़ीवानी नहीं छोड़ सकता हिरामन।

हीराबाई ने हिरामन के जैसा निश्छल आदमी बहुत कम देखा है। पूछा, ‘आपका घर कौन जिल्ला में पड़ता है?’ कानपुर नाम सुनते ही जो उसकी हंसी छूटी, तो बैल भड़क उठे। हिरामन हंसते समय सिर नीचा कर लेता है। हंसी बंद होने पर उसने कहा, ‘वाह रे कानपुर! तब तो नाकपुर भी होगा?’ और जब हीराबाई ने कहा कि नाकपुर भी है, तो वह हंसते-हंसते दुहरा हो गया।

वाह रे दुनिया! क्या-क्या नाम होता है! कानपुर, नाकपुर!हिरामन ने हीराबाई के कान के फूल को ग़ौर से देखा। नाक की नकछवि के नग देख कर सिहर उठा -लहू की बूँद!

हिरामन ने हीराबाई का नाम नहीं सुना कभी। नौटंकी कंपनी की औरत को वह बाईजी नहीं समझता है। ....कंपनी में काम करनेवाली औरतों को वह देख चुका है। सरकस कंपनी की मालकिन, अपनी दोनों जवान बेटियों के साथ बाघगाड़ी के पास आती थी, बाघ को चारा-पानी देती थी, प्यार भी करती थी ख़ूब। हिरामन के बैलों को भी डबलरोटी-बिस्कुट खिलाया था बड़ी बेटी ने।

हिरामन होशियार है। कुहासा छंटते ही अपनी चादर से टप्पर में परदा कर दिया  ‘बस दो घंटा! उसके बाद रास्ता चलना मुश्किल है। कातिक की सुबह की धूल आप बर्दास्त न कर सकिएगा। कजरी नदी के किनारे तेगछिया के पास गाड़ी लगा देंगे। दुपहरिया काट कर....

सामने से आती हुई गाड़ी को दूर से ही देख कर वह सतर्क हो गया। लीक और बैलों पर ध्यान लगा कर बैठ गया। राह काटते हुए गाड़ीवान ने पूछा, ‘मेला टूट रहा है क्या भाई?’

हिरामन ने जवाब दिया, वह मेले की बात नहीं जानता। उसकी गाड़ी पर बिदागी’ (नैहर या ससुराल जाती हुई लड़की) है। न जाने किस गांव का नाम बता दिया हिरामन ने।
छत्तापुर-पचीरा कहां है?’

कहीं हो, यह ले कर आप क्या करिएगा?’ हिरामन अपनी चतुराई पर हंसा। परदा डाल देने पर भी पीठ में गुदगुदी लगती है।

हिरामन परदे के छेद से देखता है। हीराबाई एक दियासलाई की डिब्बी के बराबर आईने में अपने दांत देख रही है। ....मदनपुर मेले में एक बार बैलों को नन्हीं-चित्ती कौड़ियों की माला ख़रीद दी थी। हिरामन ने, छोटी-छोटी, नन्हीं-नन्हीं कौड़ियों की पांत।

तेगछिया के तीनों पेड़ दूर से ही दिखलाई पड़ते हैं। हिरामन ने परदे को जरा सरकाते हुए कहा, ‘देखिए, यही है तेगछिया। दो पेड़ जटामासी बड़ है और एक उस फूल का क्या नाम है, आपके कुरते पर जैसा फूल छपा हुआ है, वैसा ही, खूब महकता है, दो कोस दूर तक गंध जाती है, उस फूल को खमीरा तंबाकू में डाल कर पीते भी हैं लोग।

और उस अमराई की आड़ से कई मकान दिखाई पड़ते हैं, वहां कोई गांव है या मंदिर?’

हिरामन ने बीड़ी सुलगाने के पहले पूछा, ‘बीड़ी पिएं? आपको गंध तो नहीं लगेगी? ....वही है नामलगर ड्योढ़ी। जिस राजा के मेले से हम लोग आ रहे हैं, उसी का दियाद-गोतिया है। ....जा रे जमाना!

हिरामन ने जा रे जमाना कह कर बात को चाशनी में डाल दिया। हीराबाई ने टप्पर के परदे को तिरछे खोंस दिया। हीराबाई की दंतपंक्ति।

कौन ज़माना?’ ठुड्डी पर हाथ रख कर साग्रह बोली।

नामलगर ड्योढ़ी का जमाना! क्या था और क्या-से-क्या हो गया!

हिरामन गप रसाने का भेद जानता है। हीराबाई बोली,‘तुमने देखा था वह ज़माना?’
देखा नहीं, सुना है। राज कैसे गया, बड़ी हैफवाली कहानी है। सुनते हैं, घर में देवता ने जन्म ले लिया। कहिए भला, देवता आखिर देवता है। है या नहीं? इंदरासन छोड़ कर मिरतूभुवन में जन्म ले ले तो उसका तेज कैसे सम्हाल सकता है कोई! सूरजमुखी फूल की तरह माथे के पास तेज खिला रहता। लेकिन नजर का फेर, किसी ने नहीं पहचाना। एक बार उपलैन में लाट साहब मय लाटनी के, हवागाड़ी से आए थे। लाट ने भी नहीं, पहचाना आखिर लटनी ने। सुरजमुखी तेज देखते ही बोल उठी -ए मैन राजा साहब, सुनो, यह आदमी का बच्चा नहीं है, देवता है।

हिरामन ने लाटनी की बोली की नकल उतारते समय ख़ूब डैम-फैट-लैट किया। हीराबाई दिल खोल कर हंसी। हंसते समय उसकी सारी देह दुलकती है।

हीराबाई ने अपनी ओढ़नी ठीक कर ली। तब हिरामन को लगा कि.... लगा कि....

तब? उसके बाद क्या हुआ मीता?’

इस्स! कथा सुनने का बड़ा सौक है आपको? ....लेकिन, काला आदमी, राजा क्या महाराजा भी हो जाए, रहेगा काला आदमी ही। साहेब के जैसे अक्किल कहां से पाएगा! हंस कर बात उड़ा दी सभी ने। तब रानी को बार-बार सपना देने लगा देवता! सेवा नहीं कर सकते तो जाने दो, नहीं, रहेंगे तुम्हारे यहां। इसके बाद देवता का खेल शुरू हुआ। सबसे पहले दोनों दंतार हाथी मरे, फिर घोड़ा, फिर पटपटांग....

पटपटांग क्या है?’

हिरामन का मन पल-पल में बदल रहा है। मन में सतरंगा छाता धीरे-धीरे खिल रहा है, उसको लगता है। ....उसकी गाड़ी पर देवकुल की औरत सवार है। देवता आख़िर देवता है! पटपटांग! धन-दौलत, माल-मवेसी सब साफ! देवता इंदरासन चला गया।

हीराबाई ने ओझल होते हुए मंदिर के कंगूरे की ओर देख कर लंबी सांस ली।
लेकिन देवता ने जाते-जाते कहा, इस राज में कभी एक छोड़ कर दो बेटा नहीं होगा। धन हम अपने साथ ले जा रहे हैं, गुन छोड़ जाते हैं। देवता के साथ सभी देव-देवी चले गए, सिर्फ सरोसती मैया रह गई। उसी का मंदिर है।

देसी घोड़े पर पाट के बोझ लादे हुए बनियों को आते देख कर हिरामन ने टप्पर के परदे को गिरा दिया। बैलों को ललकार कर बिदेसिया नाच का बंदनागीत गाने लगा-

जै मैया सरोसती, अरजी करत बानी,

हमरा पर होखू सहाई हे मैया, हमरा पर होखू सहाई!

घोड़लद्दे बनियों से हिरामन ने हुलस कर पूछा, ‘क्या भाव पटुआ खरीदते हैं महाजन?’

लंगड़े घोड़ेवाले बनिए ने बटगमनी जवाब दिया नीचे सताइस-अठाइस, ऊपर तीस। जैसा माल, वैसा भाव।

जवान बनिए ने पूछा, ‘मेले का क्या हालचाल है, भाई? कौन नौटंकी कंपनी का खेल हो रहा है, रौता कंपनी या मथुरामोहन?’

मेले का हाल मेलावाला जाने?’ हिरामन ने फिर छत्तापुर-पचीरा का नाम लिया।
सूरज दो बांस ऊपर आ गया था। हिरामन अपने बैलों से बात करने लगा एक कोस जमीन!

जरा दम बांध कर चलो। प्यास की बेला हो गई न! याद है, उस बार तेगछिया के पास सरकस कंपनी के जोकर और बंदर नचानेवाला साहब में झगड़ा हो गया था। जोकरवा ठीक बंदर की तरह दांत किटकिटा कर किक्रियाने लगा था, न जाने किस-किस देस-मुलुक के आदमी आते हैं!

हिरामन ने फिर परदे के छेद से देखा, हीराबाई एक काग़ज़ के टुकड़े पर आंख गड़ा कर बैठी है। हिरामन का मन आज हल्के सुर में बंधा है। उसको तरह-तरह के गीतों की याद आती है। बीस-पच्चीस साल पहले, बिदेसिया, बलवाही, छोकरा-नाचनेवाले एक-से-एक ग़ज़ल खेमटा गाते थे। अब तो, भोंपा में भोंपू-भोंपू करके कौन गीत गाते हैं लोग! जा रे जमाना!

छोकरा-नाच के गीत की याद आई हिरामन को-

सजनवा बैरी हो ग य हमारो! सजनवा....!

अरे, चिठिया हो ते सब कोई बांचे, चिठिया हो तो....

हाय! करमवा, होय करमवा....

गाड़ी की बल्ली पर उंगलियों से ताल दे कर गीत को काट दिया हिरामन ने। छोकरा-नाच के मनुवां नटुवा का मुंह हीराबाई-जैसा ही था। ....क़हां चला गया वह ज़माना? हर महीने गांव में नाचनेवाले आते थे। हिरामन ने छोकरा-नाच के चलते अपनी भाभी की न जाने कितनी बोली-ठोली सुनी थी। भाई ने घर से निकल जाने को कहा था।

आज हिरामन पर मां सरोसती सहाय हैं, लगता है। हीराबाई बोली,‘वाह, कितना बढ़िया गाते हो तुम!

हिरामन का मुंह लाल हो गया। वह सिर नीचा कर के हंसने लगा।

          आज तेगछिया पर रहनेवाले महावीर स्वामी भी सहाय हैं हिरामन पर। तेगछिया के नीचे एक भी गाड़ी नहीं। हमेशा गाड़ी और गाड़ीवानों की भीड़ लगी रहती हैं यहां। सिर्फ़ एक साइकिलवाला बैठ कर सुस्ता रहा है। महावीर स्वामी को सुमर कर हिरामन ने गाड़ी रोकी। हीराबाई परदा हटाने लगी। हिरामन ने पहली बार आंखों से बात की हीराबाई से- साइकिलवाला इधर ही टकटकी लगा कर देख रहा है।

बैलों को खोलने के पहले बांस की टिकटी लगा कर गाड़ी को टिका दिया। फिर साइकिलवाले की ओर बार-बार घूरते हुए पूछा, ‘कहां जाना है? मेला? कहां से आना हो रहा है? बिसनपुर से? बस, इतनी ही दूर में थसथसा कर थक गए? जा रे जवानी!

          साइकिलवाला दुबला-पतला नौजवान मिनमिना कर कुछ बोला और बीड़ी सुलगा कर उठ खड़ा हुआ। हिरामन दुनिया-भर की निगाह से बचा कर रखना चाहता है हीराबाई को। उसने चारों ओर नज़र दौड़ा कर देख लिया-कहीं कोई गाड़ी या घोड़ा नहीं।

          कजरी नदी की दुबली-पतली धारा तेगछिया के पास आ कर पूरब की ओर मुड़ गई है। हीराबाई पानी में बैठी हुई भैसों और उनकी पीठ पर बैठे हुए बगुलों को देखती रही।
हिरामन बोला,‘जाइए, घाट पर मुंह-हाथ धो आइए!

          हीराबाई गाड़ी से नीचे उतरी। हिरामन का कलेजा धड़क उठा। ....नहीं, नहीं! पांव सीधे हैं, टेढ़े नहीं। लेकिन, तलुवा इतना लाल क्यों हैं? हीराबाई घाट की ओर चली गई, गांव की बहू-बेटी की तरह सिर नीचा कर के धीरे-धीरे। कौन कहेगा कि कंपनी की औरत है! ....औरत नहीं, लड़की। शायद कुमारी ही है।

          हिरामन टिकटी पर टिकी गाड़ी पर बैठ गया। उसने टप्पर में झांक कर देखा। एक बार इधर-उधर देख कर हीराबाई के तकिए पर हाथ रख दिया। फिर तकिए पर केहुनी डाल कर झुक गया, झुकता गया। ख़ुशबू उसकी देह में समा गई। तकिए के गिलाफ़ पर कढ़े फूलों को उंगलियों से छू कर उसने सूंघा, हाय रे हाय! इतनी सुगंध! हिरामन को लगा, एक साथ पांच चिलम गांजा फूंक कर वह उठा है। हीराबाई के छोटे आईने में उसने अपना मुंह देखा। आंखें उसकी इतनी लाल क्यों हैं?

          हीराबाई लौट कर आई तो उसने हंस कर कहा,‘अब आप गाड़ी का पहरा दीजिए, मैं आता हूं तुरंत।

          हिरामन ने अपना सफरी झोली से सहेजी हुई गंजी निकाली। गमछा झाड़ कर कंधे पर लिया और हाथ में बालटी लटका कर चला। उसके बैलों ने बारी-बारी से हुंक-हुंककरके कुछ कहा। हिरामन ने जाते-जाते उलट कर कहा,‘हां, हां, प्यास सभी को लगी है। लौट कर आता हूं तो घास दूंगा, बदमासी मत करो!

          बैलों ने कान हिलाए। नहा-धो कर कब लौटा हिरामन, हीराबाई को नहीं मालूम। कजरी की धारा को देखते-देखते उसकी आंखों में रात की उचटी हुई नींद लौट आई थी। हिरामन पास के गांव से जलपान के लिए दही-चूड़ा-चीनी ले आया है।

          उठिए, नींद तोड़िए! दो मुट्ठी जलपान कर लीजिए!

          हीराबाई आंख खोल कर अचरज में पड़ गई। एक हाथ में मिट्टी के नए बरतन में दही, केले के पत्ते। दूसरे हाथ में बालटी-भर पानी। आंखों में आत्मीयतापूर्ण अनुरोध!

          इतनी चीज़ें कहां से ले आए!

          ‘इस गांव का दही नामी है। ....चाह तो फारबिसगंज जा कर ही पाइएगा।

          हिरामन की देह की गुदगुदी मिट गई। हीराबाई ने कहा,‘तुम भी पत्तल बिछाओ। ....क्यों? तुम नहीं खाओगे तो समेट कर रख लो अपनी झोली में। मैं भी नहीं खाऊंगी।

          इस्स!हिरामन लजा कर बोला,‘अच्छी बात! आप खा लीजिए पहले!

          पहले-पीछे क्या? तुम भी बैठो।

          हिरामन का जी जुड़ा गया। हीराबाई ने अपने हाथ से उसका पत्तल बिछा दिया, पानी छींट दिया, चूड़ा निकाल कर दिया। इस्स! धन्न है, धन्न है! हिरामन ने देखा, भगवती मैया भोग लगा रही है। लाल होंठों पर गोरस का परस! ....पहाड़ी तोते को दूध-भात खाते देखा है?
दिन ढल गया।

          टप्पर में सोई हीराबाई और जमीन पर दरी बिछा कर सोए हिरामन की नींद एक ही साथ खुली। ....मेले की ओर जानेवाली गाड़ियां तेगछिया के पास रुकी हैं। बच्चे कचर-पचर कर रहे हैं।

          हिरामन हड़बड़ा कर उठा। टप्पर के अंदर झांक कर इशारे से कहा दिन ढल गया! गाड़ी में बैलों को जोतते समय उसने गाड़ीवानों के सवालों का कोई जवाब नहीं दिया। गाड़ी हांकते हुए बोला,‘सिरपुर बाजार के इसपिताल की डागडरनी हैं। रोगी देखने जा रही हैं। पास ही कुड़मागाम।

          हीराबाई छत्तापुर-पचीरा का नाम भूल गई। गाड़ी जब कुछ दूर आगे बढ़ आई तो उसने हंस कर पूछा,‘पत्तापुर-छपीरा?’

          हंसते-हंसते पेट में बल पड़ जाए हिरामन के पत्तापुर-छपीरा! हा-हा। वे लोग छत्तापुर-पचीरा के ही गाड़ीवान थे, उनसे कैसे कहता! ही-ही-ही!

          हीराबाई मुस्कराती हुई गांव की ओर देखने लगी।

          सड़क तेगछिया गांव के बीच से निकलती है। गांव के बच्चों ने परदेवाली गाड़ी देखी और तालियां बजा-बजा कर रटी हुई पंक्तियां दुहराने लगे-

          लाली-लाली डोलिया में

          लाली रे दुलहिनिया

          पान खाए....!

          हिरामन हंसा। ....दुलहिनिया ....लाली-लाली डोलिया! दुलहिनिया पान खाती है, दुलहा की पगड़ी में मुंह पोंछती है। ओ दुलहिनिया, तेगछिया गांव के बच्चों को याद रखना। लौटती बेर गुड़ का लड्डू लेती आइयो। लाख बरिस तेरा हुलहा जीए!....कितने दिनों का हौसला पूरा हुआ है हिरामन का! ऐसे कितने सपने देखे हैं उसने! वह अपनी दुलहिन को ले कर लौट रहा है। हर गांव के बच्चे तालियां बजा कर गा रहे हैं। हर आंगन से झांक कर देख रही हैं औरतें। मर्द लोग पूछते हैं, कहां की गाड़ी है, कहां जाएगी? उसकी दुलहिन डोली का परदा थोड़ा सरका कर देखती है। और भी कितने सपने....

          गांव से बाहर निकल कर उसने कनखियों से टप्पर के अंदर देखा, हीराबाई कुछ सोच रही है। हिरामन भी किसी सोच में पड़ गया। थोड़ी देर के बाद वह गुनगुनाने लगा-

          सजन रे झूठ मति बोलो, खुदा के पास जाना है।

          नहीं हाथी, नहीं घोड़ा, नहीं गाड़ी....

          वहां पैदल ही जाना है। सजन रे....

          हीराबाई ने पूछा,‘क्यों मीता? तुम्हारी अपनी बोली में कोई गीत नहीं क्या?’

          हिरामन अब बेखटक हीराबाई की आंखों में आंखें डाल कर बात करता है। कंपनी की औरत भी ऐसी होती है? सरकस कंपनी की मालकिन मेम थी। लेकिन हीराबाई! गांव की बोली में गीत सुनना चाहती है। वह खुल कर मुस्कराया,‘गांव की बोली आप समझिएगा?’

          हूं-ऊं-ऊं !हीराबाई ने गर्दन हिलाई। कान के झुमके हिल गए।

          हिरामन कुछ देर तक बैलों को हांकता रहा चुपचाप। फिर बोला,‘गीत ज़रूर ही सुनिएगा? नहीं मानिएगा? इस्स! इतना सौक गांव का गीत सुनने का है आपको! तब लीक छोड़नी होगी। चालू रास्ते में कैसे गीत गा सकता है कोई!

          हिरामन ने बाएं बैल की रस्सी खींच कर दाहिने को लीक से बाहर किया और बोला,‘हरिपुर हो कर नहीं जाएंगे तब।

          चालू लीक को काटते देख कर हिरामन की गाड़ी के पीछेवाले गाड़ीवान ने चिल्ला कर पूछा,‘काहे हो गाड़ीवान, लीक छोड़ कर बेलीक कहां उधर?’

          हिरामन ने हवा में दुआली घुमाते हुए जवाब दिया,‘कहां है बेलीकी? वह सड़क नननपुर तो नहीं जाएगी।फिर अपने-आप बड़बड़ाया,‘इस मुलुक के लोगों की यही आदत बुरी है। राह चलते एक सौ जिरह करेंगे। अरे भाई, तुमको जाना है, जाओ। ....देहाती भुच्च सब!

          नननपुर की सड़क पर गाड़ी ला कर हिरामन ने बैलों की रस्सी ढीली कर दी। बैलों ने दुलकी चाल छोड़ कर कदमचाल पकड़ी।

          हीराबाई ने देखा, सचमुच नननपुर की सड़क बड़ी सूनी है। हिरामन उसकी आंखों की बोली समझता है,‘घबराने की बात नहीं। यह सड़क भी फारबिसगंज जाएगी, राह-घाट के लोग बहुत अच्छे हैं। ....एक घड़ी रात तक हम लोग पहुंच जाएंगे।

          हीराबाई को फारबिसगंज पहुंचने की जल्दी नहीं। हिरामन पर उसको इतना भरोसा हो गया कि डर-भय की कोई बात नहीं उठती है मन में। हिरामन ने पहले जी-भर मुस्करा लिया। कौन गीत गाए वह! हीराबाई को गीत और कथा दोनों का शौक है ....इस्स! महुआ घटवारिन? वह बोला,‘अच्छा, जब आपको इतना सौक है तो सुनिए महुआ घटवारिन का गीत। इसमें गीत भी है, कथा भी है।

          ....कितने दिनों के बाद भगवती ने यह हौसला भी पूरा कर दिया। जै भगवती! आज हिरामन अपने मन को खलास कर लेगा। वह हीराबाई की थमी हुई मुस्कुराहट को देखता रहा।

          सुनिए! आज भी परमार नदी में महुआ घटवारिन के कई पुराने घाट हैं। इसी मुलुक की थी महुआ! थी तो घटवारिन, लेकिन सौ सतवंती में एक थी। उसका बाप दारू-ताड़ी पी कर दिन-रात बेहोश पड़ा रहता। उसकी सौतेली मां साच्छात राकसनी! बहुत बड़ी नजर-चालक। रात में गांजा-दारू-अफीम चुरा कर बेचनेवाले से ले कर तरह-तरह के लोगों से उसकी जान-पहचान थी। सबसे घुट्टा-भर हेल-मेल। महुआ कुमारी थी। लेकिन काम कराते-कराते उसकी हड्डी निकाल दी थी राकसनी ने। जवान हो गई, कहीं शादी-ब्याह की बात भी नहीं चलाई। एक रात की बात सुनिए!

          हिरामन ने धीरे-धीरे गुनगुना कर गला साफ़ किया-

          हे अ-अ-अ- सावना-भादवा के - र- उमड़ल नदिया -गे-में-मैं-यो-ओ-ओ,

          मैयो गे रैनि भयावनि-हे-ए-ए-ए;

          तड़का-तड़के-धड़के करेज-आ-आ मोरा

          कि हमहूं जे बार-नान्ही रे-ए-ए ....

          ओ मां! सावन-भादों की उमड़ी हुई नदी, भयावनी रात, बिजली कड़कती है, मैं बारी-क्वारी नन्ही बच्ची, मेरा कलेजा धड़कता है। अकेली कैसे जाऊं घाट पर? सो भी परदेसी राही-बटोही के पैर में तेल लगाने के लिए! सत-मां ने अपनी बज्जर-किवाड़ी बंद कर ली। आसमान में मेघ हड़बड़ा उठे और हरहरा कर बरसा होने लगी। महुआ रोने लगी, अपनी मां को याद करके। आज उसकी मां रहती तो ऐसे दुरदिन में कलेजे से सटा कर रखती अपनी महुआ बेटी को। गे मइया, इसी दिन के लिए, यही दिखाने के लिए तुमने कोख में रखा था? महुआ अपनी मां पर गुस्साई -क्यों वह अकेली मर गई, जी-भर कर कोसती हुई बोली।
हिरामन ने लक्ष्य किया, हीराबाई तकिए पर केहुनी गड़ा कर, गीत में मगन एकटक उसकी ओर देख रही है। ....खोई हुई सूरत कैसी भोली लगती है!

          हिरामन ने गले में कंपकंपी पैदा की-

          हूं-ऊं-ऊं-रे डाइनियां मैयो मोरी-ई-ई,

          नोनवा चटाई काहे नाहिं मारलि सौरी-घर-अ-अ।

          एहि दिनवां खातिर छिनरो धिया

          तेंहु पोसलि कि नेनू-दूध उगटन ....

          हिरामन ने दम लेते हुए पूछा,‘भाखा भी समझती हैं कुछ या खाली गीत ही सुनती हैं?’

          हीरा बोली,‘समझती हूं। उगटन माने उबटन -जो देह में लगाते हैं।

          हिरामन ने विस्मित हो कर कहा,‘इस्स!....सो रोने-धोने से क्या होए! सौदागर ने पूरा दाम चुका दिया था महुआ का। बाल पकड़ कर घसीटता हुआ नाव पर चढ़ा और मांझी को हुकुम दिया, नाव खोलो, पाल बांधो! पालवाली नाव परवाली चिड़िया की तरह उड़ चली। रात-भर महुआ रोती-छटपटाती रही। सौदागर के नौकरों ने बहुत डराया-धमकाया -चुप रहो, नहीं तो उठा कर पानी में फेंक देंगे। बस, महुआ को बात सूझ गई। भोर का तारा मेघ की आड़ से जरा बाहर आया, फिर छिप गया। इधर महुआ भी छपाक से कूद पड़ी पानी में। ....सौदागर का एक नौकर महुआ को देखते ही मोहित हो गया था। महुआ की पीठ पर वह भी कूदा। उलटी धारा में तैरना खेल नहीं, सो भी भरी भादों की नदी में। महुआ असल घटवारिन की बेटी थी। मछली भी भला थकती है पानी में! सफरी मछली-जैसी फरफराती, पानी चीरती भागी चली जा रही है। और उसके पीछे सौदागर का नौकर पुकार-पुकार कर कहता है,‘महुआ जरा थमो, तुमको पकड़ने नहीं आ रहा, तुम्हारा साथी हूं। जिंदगी-भर साथ रहेंगे हम लोग। लेकिन....

          हिरामन का बहुत प्रिय गीत है यह। महुआ घटवारिन गाते समय उसके सामने सावन-भादों की नदी उमड़ने लगती है, अमावस्या की रात और घने बादलों में रह-रह कर बिजली चमक उठती है। उसी चमक में लहरों से लड़ती हुई बारी-कुमारी महुआ की झलक उसे मिल जाती है। सफरी मछली की चाल और तेज हो जाती है। उसको लगता है, वह खुद सौदागर का नौकर है। महुआ कोई बात नहीं सुनती। परतीत करती नहीं। उलट कर देखती भी नहीं। और वह थक गया है, तैरते-तैरते।

          इस बार लगता है महुआ ने अपने को पकड़ा दिया। खुद ही पकड़ में आ गई है। उसने महुआ को छू लिया है, पा लिया है, उसकी थकन दूर हो गई है। पंद्रह-बीस साल तक उमड़ी हुई नदी की उलटी धारा में तैरते हुए उसके मन को किनारा मिल गया है। आनंद के आंसू कोई भी रोक नहीं मानते।

          उसने हीराबाई से अपनी गीली आंखें चुराने की कोशिश की। किंतु हीरा तो उसके मन में बैठी न जाने कब से सब कुछ देख रही थी। हिरामन ने अपनी कांपती हुई बोली को क़ाबू में ला कर बैलों को झिड़की दी,‘इस गीत में न जाने क्या है कि सुनते ही दोनों थसथसा जाते हैं। लगता है, सौ मन बोझ लाद दिया किसी ने।’      

          हीराबाई लंबी सांस लेती है। हिरामन के अंग-अंग में उमंग समा जाती है।

          तुम तो उस्ताद हो मीता!

          इस्स!

          आसिन-कातिक का सूरज दो बांस दिन रहते ही कुम्हला जाता है। सूरज डूबने से पहले ही नननपुर पहुंचना है, हिरामन अपने बैलों को समझा रहा है,‘कदम खोल कर और कलेजा बांध कर चलो ....ए ....छि ....छि! बढ़के भैयन! ले-ले-ले-ए हे -य!

          नननपुर तक वह अपने बैलों को ललकारता रहा। हर ललकार के पहले वह अपने बैलों को बीती हुई बातों की याद दिलाता-याद नहीं, चौधरी की बेटी की बरात में कितनी गाड़ियां थीं, सबको कैसे मात किया था! हां, वह कदम निकालो। ले-ले-ले! नननपुर से फारबिसगंज तीन कोस! दो घंटे और!

          नननपुर के हाट पर आजकल चाय भी बिकने लगी है। हिरामन अपने लोटे में चाय भर कर ले आया। ....कंपनी की औरत जानता है वह, सारा दिन, घड़ी-घड़ी भर में चाय पीती रहती है। चाय है या जान!

          हीरा हंसते-हंसते लोट-पोट हो रही है,‘अरे, तुमसे किसने कह दिया कि क्वारे आदमी को चाय नहीं पीनी चाहिए?’

          हिरामन लजा गया। क्या बोले वह? ....लाज की बात। लेकिन वह भोग चुका है एक बार। सरकस कंपनी की मेम के हाथ की चाय पी कर उसने देख लिया है। बड़ी गर्म तासीर!
पीजिए गुरु जी!हीरा हंसी!

          इस्स!

          नननपुर हाट पर ही दीया-बाती जल चुकी थी। हिरामन ने अपना सफरी लालटेन जला कर पिछवा में लटका दिया। आजकल शहर से पांच कोस दूर के गांववाले भी अपने को शहरू समझने लगे हैं। बिना रौशनी की गाड़ी को पकड़ कर चालान कर देते हैं। बारह बखेड़ा!

          आप मुझे गुरु जी मत कहिए।

          तुम मेरे उस्ताद हो। हमारे शास्तर में लिखा हुआ है, एक अच्छर सिखानेवाला भी गुरु और एक राग सिखानेवाला भी उस्ताद!

          इस्स! सास्तर-पुरान भी जानती हैं! ....मैंने क्या सिखाया? मैं क्या ....?’

          हीरा हंस कर गुनगुनाने लगी,‘हे-अ-अ-अ- सावना-भादवा के-र ....!

          हिरामन अचरज के मारे गूंगा हो गया। ....इस्स! इतना तेज़ जेहन! हू-ब-हू महुआ घटवारिन!

          गाड़ी सीताधार की एक सूखी धारा की उतराई पर गड़गड़ा कर नीचे की ओर उतरी। हीराबाई ने हिरामन का कंधा धर लिया एक हाथ से। बहुत देर तक हिरामन के कंधे पर उसकी उंगलियां पड़ी रहीं। हिरामन ने नज़र फिरा कर कंधे पर केंद्रित करने की कोशिश की, कई बार। गाड़ी चढ़ाई पर पहुंची तो हीरा की ढीली उंगलियां फिर तन गईं।


          सामने फारबिसगंज शहर की रोशनी झिलमिला रही है। शहर से कुछ दूर हट कर मेले की रौशनी ....टप्पर में लटके लालटेन की रौशनी में छाया नाचती है आसपास....। डबडबाई आंखों से, हर रौशनी सूरजमुखी फूल की तरह दिखाई पड़ती है।

          फारबिसगंज तो हिरामन का घर-दुआर है!

          न जाने कितनी बार वह फारबिसगंज आया है। मेले की लदनी लादी है। किसी औरत के साथ? हां, एक बार। उसकी भाभी जिस साल आई थी गौने में। इसी तरह तिरपाल से गाड़ी को चारों ओर से घेर कर बासा बनाया गया था।       

          हिरामन अपनी गाड़ी को तिरपाल से घेर रहा है, गाड़ीवान-पट्टी में। सुबह होते ही रौता नौटंकी कंपनी के मैनेजर से बात करके भरती हो जाएगी हीराबाई। परसों मेला खुल रहा है। इस बार मेले में पालचट्टी ख़ूब जमी है। ....बस, एक रात। आज रात-भर हिरामन की गाड़ी में रहेगी वह। ....हिरामन की गाड़ी में नहीं, घर में!

          कहां की गाड़ी है? ....कौन, हिरामन! किस मेले से? किस चीज की लदनी है?’
गांव-समाज के गाड़ीवान, एक-दूसरे को खोज कर, आसपास गाड़ी लगा कर बासा डालते हैं। अपने गांव के लालमोहर, धुन्नीराम और पलटदास वगैरह गाड़ीवानों के दल को देख कर हिरामन अचकचा गया। उधर पलटदास टप्पर में झांक कर भड़का। मानो बाघ पर नज़र पड़ गई। हिरामन ने इशारे से सभी को चुप किया। फिर गाड़ी की ओर कनखी मार कर फुसफुसाया चुप! कंपनी की औरत है, नौटंकी कंपनी की।

          कंपनी की ई-ई-ई!

          ‘? ? ....? ? ....!’    

          एक नहीं, अब चार हिरामन! चारों ने अचरज से एक-दूसरे को देखा। कंपनी नाम में कितना असर है! हिरामन ने लक्ष्य किया, तीनों एक साथ सटक-दम हो गए। लालमोहर ने ज़रा दूर हट कर बतियाने की इच्छा प्रकट की, इशारे से ही। हिरामन ने टप्पर की ओर मुंह करके कहा,‘होटिल तो नहीं खुला होगा कोई, हलवाई के यहां से पक्की ले आवें!
हिरामन, जरा इधर सुनो। ....मैं कुछ नहीं खाऊंगी अभी। लो, तुम खा आओ।

          क्या है, पैसा? इस्स!....पैसा दे कर हिरामन ने कभी फारबिसगंज में कच्ची-पक्की नहीं खाई। उसके गांव के इतने गाड़ीवान हैं, किस दिन के लिए? वह छू नहीं सकता पैसा। उसने हीराबाई से कहा,‘बेकार, मेला-बाजार में हुज्जत मत कीजिए। पैसा रखिए।मौका पा कर लालमोहर भी टप्पर के क़रीब आ गया। उसने सलाम करते हुए कहा,‘चार आदमी के भात में दो आदमी खुसी से खा सकते हैं। बासा पर भात चढ़ा हुआ है। हें-हें-हें! हम लोग एकहि गांव के हैं। गौंवां-गिरामिन के रहते होटिल और हलवाई के यहां खाएगा हिरामन?’

          हिरामन ने लालमोहर का हाथ टीप दिया बेसी भचर-भचर मत बको।
गाड़ी से चार रस्सी दूर जाते-जाते धुन्नीराम ने अपने कुलबुलाते हुए दिल की बात खोल दी,‘इस्स! तुम भी खूब हो हिरामन! उस साल कंपनी का बाघ, इस बार कंपनी की जनानी!

          हिरामन ने दबी आवाज में कहा,‘भाई रे, यह हम लोगों के मुलुक की जनाना नहीं कि लटपट बोली सुन कर भी चुप रह जाए। एक तो पच्छिम की औरत, तिस पर कंपनी की!

          धुन्नीराम ने अपनी शंका प्रकट की,‘लेकिन कंपनी में तो सुनते हैं पतुरिया रहती है।

          धत्!सभी ने एक साथ उसको दुरदुरा दिया,‘कैसा आदमी है! पतुरिया रहेगी कंपनी में भला! देखो इसकी बुद्धि। सुना है, देखा तो नहीं है कभी!

          धुन्नीराम ने अपनी ग़लती मान ली। पलटदास को बात सूझी,‘हिरामन भाई, जनाना जात अकेली रहेगी गाड़ी पर? कुछ भी हो, जनाना आखिर जनाना ही है। कोई जरूरत ही पड़ जाए!

          यह बात सभी को अच्छी लगी। हिरामन ने कहा,‘बात ठीक है। पलट, तुम लौट जाओ, गाड़ी के पास ही रहना। और देखो, गपशप जरा होशियारी से करना। हां!

          हिरामन की देह से अतर-गुलाब की ख़ुशबू निकलती है। हिरामन करमसांड़ है। उस बार महीनों तक उसकी देह से बघाइन गंध नहीं गई। लालमोहर ने हिरामन की गमछी सूंघ ली ए-ह!

          हिरामन चलते-चलते रुक गया,‘क्या करें लालमोहर भाई, जरा कहो तो! बड़ी जिद्द करती है, कहती है, नौटंकी देखना ही होगा।

          फोकट में ही?’

          और गांव नहीं पहुंचेगी यह बात?’ 

          हिरामन बोला,‘नहीं जी! एक रात नौटंकी देख कर जिंदगी-भर बोली-ठोली कौन सुने? ....देसी मुर्गी विलायती चाल!

          धुन्नीराम ने पूछा,‘फोकट में देखने पर भी तुम्हारी भौजाई बात सुनाएगी?’

          लालमोहर के बासा के बगल में, एक लकड़ी की दुकान लाद कर आए हुए गाड़ीवानों का बासा है। बासा के मीर-गाड़ीवान मियांजान बूढ़े ने सफरी गुड़गुड़ी पीते हुए पूछा,‘क्यों भाई, मीनाबाजार की लदनी लाद कर कौन आया है?’

          मीनाबाज़ार! मीनाबाज़ार तो पतुरिया-पट्टी को कहते हैं। ....क्या बोलता है यह बूढ़ा मियां? लालमोहर ने हिरामन के कान में फुसफुसा कर कहा,‘तुम्हारी देह मह-मह-महकती है। सच!

          लहसनवां लालमोहर का नौकर-गाड़ीवान है। उम्र में सबसे छोटा है। पहली बार आया है तो क्या? बाबू-बबुआइनों के यहां बचपन से नौकरी कर चुका है। वह रह-रह कर वातावरण में कुछ सूंघता है, नाक सिकोड़ कर। हिरामन ने देखा, लहसनवां का चेहरा तमतम गया है। कौन आ रहा है धड़धड़ाता हुआ? ‘कौन, पलटदास? क्या है?’

          पलटदास आ कर खड़ा हो गया चुपचाप। उसका मुंह भी तमतमाया हुआ था। हिरामन ने पूछा,‘क्या हुआ? बोलते क्यों नहीं?’

          क्या जवाब दे पलटदास! हिरामन ने उसको चेतावनी दे दी थी, गपशप होशियारी से करना। वह चुपचाप गाड़ी की आसनी पर जा कर बैठ गया, हिरामन की जगह पर। हीराबाई ने पूछा,‘तुम भी हिरामन के साथ हो?’ पलटदास ने गरदन हिला कर हामी भरी। हीराबाई फिर लेट गई। ....चेहरा-मोहरा और बोली-बानी देख-सुन कर, पलटदास का कलेजा कांपने लगा, न जाने क्यों। हां! रामलीला में सिया सुकुमारी इसी तरह थकी लेटी हुई थी। जै! सियावर रामचंद्र की जै! ....पलटदास के मन में जै-जैकार होने लगा। वह दास-वैस्नव है, कीर्तनिया है। थकी हुई सीता महारानी के चरण टीपने की इच्छा प्रकट की उसने, हाथ की उंगलियों के इशारे से, मानो हारमोनियम की पटरियों पर नचा रहा हो। हीराबाई तमक कर बैठ गई,‘अरे, पागल है क्या? जाओ, भागो!....

          पलटदास को लगा, ग़ुस्साई हुई कंपनी की औरत की आंखों से चिनगारी निकल रही है छटक्-छटक्!वह भागा।

          पलटदास क्या जवाब दे! वह मेला से भी भागने का उपाय सोच रहा है। बोला,‘कुछ नहीं। हमको व्यापारी मिल गया। अभी ही टीसन जा कर माल लादना है। भात में तो अभी देर हैं। मैं लौट आता हूं तब तक।

खाते समय धुन्नीराम और लहसनवां ने पलटदास की टोकरी-भर निंदा की। छोटा आदमी है। कमीना है। पैसे-पैसे का हिसाब जोड़ता है। खाने-पीने के बाद लालमोहर के दल ने अपना बासा तोड़ दिया। धुन्नी और लहसनवां गाड़ी जोत कर हिरामन के बासा पर चले, गाड़ी की लीक धर कर। हिरामन ने चलते-चलते रुक कर, लालमोहर से कहा,‘जरा मेरे इस कंधे को सूंघो तो। सूंघ कर देखो न?’

          लालमोहर ने कंधा सूंघ कर आंखे मूंद लीं। मुंह से अस्फुट शब्द निकला ए - ह!

          हिरामन ने कहा,‘ज़रा-सा हाथ रखने पर इतनी ख़ुशबू! ....समझे!लालमोहर ने हिरामन का हाथ पकड़ लिया,‘कंधे पर हाथ रखा था, सच? ....सुनो हिरामन, नौटंकी देखने का ऐसा मौक़ा फिर कभी हाथ नहीं लगेगा। हां!

          तुम भी देखोगे?’ लालमोहर की बत्तीसी चौराहे की रौशनी में झिलमिला उठी।
बासा पर पहुंच कर हिरामन ने देखा, टप्पर के पास खड़ा बतिया रहा है कोई, हीराबाई से। धुन्नी और लहसनवां ने एक ही साथ कहा,‘कहां रह गए पीछे? बहुत देर से खोज रही है कंपनी....!

          हिरामन ने टप्पर के पास जा कर देखा -अरे, यह तो वही बक्सा ढोनेवाला नौकर, जो चंपानगर मेले में हीराबाई को गाड़ी पर बिठा कर अंधेरे में ग़ायब हो गया था।

          आ गए हिरामन! अच्छी बात, इधर आओ। ....यह लो अपना भाड़ा और यह लो अपनी दच्छिना! पच्चीस-पच्चीस, पचास।

          हिरामन को लगा, किसी ने आसमान से धकेल कर धरती पर गिरा दिया। किसी ने क्यों, इस बक्सा ढोनेवाले आदमी ने। कहां से आ गया? उसकी जीभ पर आई हुई बात जीभ पर ही रह गई ....इस्स! दच्छिना! वह चुपचाप खड़ा रहा।

          हीराबाई बोली,‘लो पकड़ो! और सुनो, कल सुबह रौता कंपनी में आ कर मुझसे भेंट करना। पास बनवा दूंगी। ....बोलते क्यों नहीं?’

          लालमोहर ने कहा,‘इलाम-बकसीस दे रही है मालकिन, ले लो हिरामन!हिरामन ने कट कर लालमोहर की ओर देखा। ....बोलने का ज़रा भी ढंग नहीं इस लालमोहरा को।

          धुन्नीराम की स्वगतोक्ति सभी ने सुनी, हीराबाई ने भी- गाड़ी-बैल छोड़ कर नौटंकी कैसे देख सकता है कोई गाड़ीवान, मेले में?

          हिरामन ने रुपया लेते हुए कहा,‘क्या बोलेंगे!उसने हंसने की चेष्टा की।

          कंपनी की औरत कंपनी में जा रही है। हिरामन का क्या! बक्सा ढोनेवाला रास्ता दिखाता हुआ आगे बढ़ा,‘इधर से।हीराबाई जाते-जाते रुक गई। हिरामन के बैलों को संबोधित करके बोली,‘अच्छा, मैं चली भैयन।

          बैलों ने, भैयन शब्द पर कान हिलाए।

          ‘? ? ।।!’

          भा-इ-यो, आज रात! दि रौता संगीत कंपनी के स्टेज पर! गुलबदन देखिए, गुलबदन! आपको यह जान कर खुशी होगी कि मथुरामोहन कंपनी की मशहूर एक्ट्रेस मिस हीरादेवी, जिसकी एक-एक अदा पर हजार जान फिदा हैं, इस बार हमारी कंपनी में आ गई हैं। याद रखिए। आज की रात। मिस हीरादेवी गुलबदन....!

          नौटंकीवालों के इस एलान से मेले की हर पट्टी में सरगर्मी फैल रही है। ....हीराबाई? मिस हीरादेवी? लैला, गुलबदन....? फिलिम एक्ट्रेस को मात करती है।

          तेरी बांकी अदा पर मैं खुद हूं फिदा,

          तेरी चाहत को दिलबर बयां क्या करूं!

          यही ख्वाहिश है कि इ-इ-इ तू मुझको देखा करे

          और दिलोजान मैं तुमको देखा करूं।

          ....किर्र-र्र-र्र-र्र ....कडड़ड़ड़डड़ड़र्र-ई-घन-घन-धड़ाम।

          हर आदमी का दिल नगाड़ा हो गया है।

          लालमोहर दौड़ता-हांफता बासा पर आया,‘, ऐ हिरामन, यहां क्या बैठे हो, चल कर देखो जै-जैकार हो रहा है! मय बाजा-गाजा, छापी-फाहरम के साथ हीराबाई की जै-जै कर रहा हूं।

          हिरामन हड़बड़ा कर उठा। लहसनवां ने कहा,‘धुन्नी काका, तुम बासा पर रहो, मैं भी देख आऊं।

          धुन्नी की बात कौन सुनता है। तीनों जन नौटंकी कंपनी की एलानिया पार्टी के पीछे-पीछे चलने लगे। हर नुक्कड़ पर रुक कर, बाजा बंद कर के एलान किया जाना है। एलान के हर शब्द पर हिरामन पुलक उठता है। हीराबाई का नाम, नाम के साथ अदा-फिदा वगैरह सुन कर उसने लालमोहर की पीठ थपथपा दी,‘धन्न है, धन्न है! है या नहीं?’

          लालमोहर ने कहा,‘अब बोलो! अब भी नौटंकी नहीं देखोगे?’ सुबह से ही धुन्नीराम और लालमोहर समझा रहे थे, समझा कर हार चुके थे,‘कंपनी में जा कर भेंट कर आओ। जाते-जाते पुरसिस कर गई है।लेकिन हिरामन की बस एक बात,‘धत्त, कौन भेंट करने जाए! कंपनी की औरत, कंपनी में गई। अब उससे क्या लेना-देना! चीन्हेगी भी नहीं!

वह मन-ही-मन रूठा हुआ था। एलान सुनने के बाद उसने लालमोहर से कहा,‘जरूर देखना चाहिए, क्यों लालमोहर?’

          दोनों आपस में सलाह करके रौता कंपनी की ओर चले। खेमे के पास पहुंच कर हिरामन ने लालमोहर को इशारा किया, पूछताछ करने का भार लालमोहर के सिर। लालमोहर कचराही बोलना जानता है। लालमोहर ने एक काले कोटवाले से कहा,‘बाबू साहेब, जरा सुनिए तो!

          काले कोटवाले ने नाक-भौं चढ़ा कर कहा,‘क्या है? इधर क्यों?’

          लालमोहर की कचराही बोली गड़बड़ा गई, तेवर देख कर बोला,‘गुलगुल ।।नहीं-नहीं ....बुल-बुल ....नहीं ....

          हिरामन ने झट-से सम्हाल दिया,‘हीरादेवी किधर रहती है, बता सकते हैं?’ उस आदमी की आंखें हठात लाल हो गईं। सामने खड़े नेपाली सिपाही को पुकार कर कहा,‘इन लोगों को क्यों आने दिया इधर?’

          हिरामन!....वही फेनूगिलासी आवाज़ किधर से आई? खेमे के परदे को हटा कर हीराबाई ने बुलाया,‘यहां आ जाओ, अंदर! ....देखो, बहादुर! इसको पहचान लो। यह मेरा हिरामन है। समझे?’

          नेपाली दरबान हिरामन की ओर देख कर ज़रा मुस्कराया और चला गया। काले कोटवाले से जा कर कहा, ‘हीराबाई का आदमी है। नहीं रोकने बोला!

          लालमोहर पान ले आया नेपाली दरबान के लिए,‘खाया जाए!

          इस्स! एक नहीं, पांच पास। चारों अठनिया! बोली कि जब तक मेले में हो, रोज रात में आ कर देखना। सबका खयाल रखती है। बोली कि तुम्हारे और साथी है, सभी के लिए पास ले जाओ। कंपनी की औरतों की बात निराली होती है! है या नहीं?’

          लालमोहर ने लाल कागज के टुकड़ों को छू कर देखा,‘पा-स! वाह रे हिरामन भाई! ....लेकिन पांच पास ले कर क्या होगा? पलटदास तो फिर पलट कर आया ही नहीं है अभी तक।

          हिरामन ने कहा,‘जाने दो अभागे को। तकदीर में लिखा नहीं। ....हां, पहले गुरु कसम खानी होगी सभी को, कि गांव-घर में यह बात एक पंछी भी न जान पाए।

          लालमोहर ने उत्तेजित हो कर कहा, 'कौन साला बोलेगा, गांव में जा कर? पलटा ने अगर बदनामी की तो दूसरी बार से फिर साथ नहीं लाऊंगा।

          हिरामन ने अपनी थैली आज हीराबाई के जिम्मे रख दी है। मेले का क्या ठिकाना! किस्म-किस्म के पाकिटकाट लोग हर साल आते हैं। अपने साथी-संगियों का भी क्या भरोसा! हीराबाई मान गई। हिरामन के कपड़े की काली थैली को उसने अपने चमड़े के बक्स में बंद कर दिया। बक्से के ऊपर भी कपड़े का खोल और अंदर भी झलमल रेशमी अस्तर! मन का मान-अभिमान दूर हो गया।

          लालमोहर और धुन्नीराम ने मिल कर हिरामन की बुद्धि की तारीफ़ की, उसके भाग्य को सराहा बार-बार। उसके भाई और भाभी की निंदा की, दबी जबान से। हिरामन के जैसा हीरा भाई मिला है, इसीलिए! कोई दूसरा भाई होता तो....

          लहसनवां का मुंह लटका हुआ है। एलान सुनते-सुनते न जाने कहां चला गया कि घड़ी-भर सांझ होने के बाद लौटा है। लालमोहर ने एक मालिकाना झिड़की दी है, गाली के साथ, सोहदा कहीं का!

          धुन्नीराम ने चूल्हे पर खिचड़ी चढ़ाते हुए कहा,‘पहले यह फैसला कर लो कि गाड़ी के पास कौन रहेगा!

          रहेगा कौन, यह लहसनवां कहां जाएगा?’

          लहसनवां रो पड़ा,‘ऐ-ए-ए मालिक, हाथ जोड़ते हैं। एक्को झलक! बस, एक झलक!

          हिरामन ने उदारतापूर्वक कहा,‘अच्छा-अच्छा, एक झलक क्यों, एक घंटा देखना। मैं आ जाऊंगा।

          नौटंकी शुरू होने के दो घंटे पहले ही नगाड़ा बजना शुरू हो जाता है। और नगाड़ा शुरू होते ही लोग पतिंगों की तरह टूटने लगते हैं। टिकटघर के पास भीड़ देख कर हिरामन को बड़ी हंसी आई,‘लालमोहर, उधर देख, कैसी धक्कमधुक्की कर रहे हैं लोग!

          ‘हिरामन भाय!

          ‘कौन, पलटदास! कहां की लदनी लाद आए?’ लालमोहर ने पराए गांव के आदमी की तरह पूछा।

          पलटदास ने हाथ मलते हुए माफ़ी मांगी,‘कसूरबार हैं, जो सजा दो तुम लोग, सब मंजूर है। लेकिन सच्ची बात कहें कि सिया सुकुमारी....

          हिरामन के मन का पुरइन नगाड़े के ताल पर विकसित हो चुका है। बोला,‘देखो पलटा, यह मत समझना कि गांव-घर की जनाना है। देखो, तुम्हारे लिए भी पास दिया है, पास ले लो अपना, तमासा देखो।

          लालमोहर ने कहा,‘लेकिन एक सर्त पर पास मिलेगा। बीच-बीच में लहसनवां को भी....

          पलटदास को कुछ बताने की ज़रूरत नहीं। वह लहसनवां से बातचीत कर आया है अभी। लालमोहर ने दूसरी शर्त सामने रखी,‘गांव में अगर यह बात मालूम हुई किसी तरह....!

          राम-राम!दांत से जीभ को काटते हुए कहा पलटदास ने।

          पलटदास ने बताया,‘अठनिया फाटक इधर है!फाटक पर खड़े दरबान ने हाथ से पास ले कर उनके चेहरे को बारी-बारी से देखा, बोला,‘यह तो पास है। कहां से मिला?’

          अब लालमोहर की कचराही बोली सुने कोई! उसके तेवर देख कर दरबान घबरा गया,‘मिलेगा कहां से? अपनी कंपनी से पूछ लीजिए जा कर। चार ही नहीं, देखिए एक और है।जेब से पांचवा पास निकाल कर दिखाया लालमोहर ने।

          एक रुपया वाले फाटक पर नेपाली दरबान खड़ा था। हिरामन ने पुकार कर कहा,‘ए सिपाही दाजू, सुबह को ही पहचनवा दिया और अभी भूल गए?’

नेपाली दरबान बोला,‘हीराबाई का आदमी है सब। जाने दो। पास हैं तो फिर काहे को रोकता है?’

          अठनिया दर्जा!

          तीनों ने कपड़घरको अंदर से पहली बार देखा। सामने कुरसी-बेंचवाले दर्जे हैं। परदे पर राम-बन-गमन की तसवीर है। पलटदास पहचान गया। उसने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया, परदे पर अंकित रामसिया सुकुमारी और लखनलला को। जै हो, जै हो!पलटदास की आंखें भर आईं।

          हिरामन ने कहा,‘लालमोहर, छापी सभी खड़े हैं या चल रहे हैं?’

          लालमोहर अपने बगल में बैठे दर्शकों से जान-पहचान कर चुका है। उसने कहा,‘खेला अभी परदा के भीतर है। अभी जमिनका दे रहा है, लोग जमाने के लिए।

          पलटदास ढोलक बजाना जानता है, इसलिए नगाड़े के ताल पर गरदन हिलाता है और दियासलाई पर ताल काटता है। बीड़ी आदान-प्रदान करके हिरामन ने भी एकाध जान-पहचान कर ली। लालमोहर के परिचित आदमी ने चादर से देह ढकते हुए कहा,‘नाच शुरू होने में अभी देर है, तब तक एक नींद ले लें। ....सब दर्जा से अच्छा अठनिया दर्जा। सबसे पीछे सबसे ऊंची जगह पर है। जमीन पर गरम पुआल! हे-हे! कुरसी-बेंच पर बैठ कर इस सरदी के मौसम में तमासा देखनेवाले अभी घुच-घुच कर उठेंगे चाह पीने।

          उस आदमी ने अपने संगी से कहा,‘खेला शुरू होने पर जगा देना। नहीं-नहीं, खेला शुरू होने पर नहीं, हिरिया जब स्टेज पर उतरे, हमको जगा देना।

          हिरामन के कलेजे में जरा आंच लगी। ....हिरिया! बड़ा लटपटिया आदमी मालूम पड़ता है। उसने लालमोहर को आंख के इशारे से कहा,‘इस आदमी से बतियाने की जरूरत नहीं।

          घन-घन-घन-धड़ाम! परदा उठ गया। हे-ए, हे-ए, हीराबाई शुरू में ही उतर गई स्टेज पर! कपड़घर खचमखच भर गया है। हिरामन का मुंह अचरज में खुल गया। लालमोहर को न जाने क्यों ऐसी हंसी आ रही है। हीराबाई के गीत के हर पद पर वह हंसता है, बेवजह।

          गुलबदन दरबार लगा कर बैठी है। एलान कर रही है, जो आदमी तख्तहजारा बना कर ला देगा, मुंहमांगी चीज इनाम में दी जाएगी। ....अजी, है कोई ऐसा फनकार, तो हो जाए तैयार, बना कर लाए तख्तहजारा-आ! किड़किड़-किर्रि-! अलबत्त नाचती है! क्या गला है!

          मालूम है, यह आदमी कहता है कि हीराबाई पान-बीड़ी, सिगरेट-जर्दा कुछ नहीं खाती!

          ठीक कहता है। बड़ी नेमवाली रंडी है।

          कौन कहता है कि रंडी है!

          दांत में मिस्सी कहां है।

          पौडर से दांत धो लेती होगी।

          हरगिज नहीं।

          कौन आदमी है, बात की बेबात करता है! कंपनी की औरत को पतुरिया कहता है!

          तुमको बात क्यों लगी? कौन है रंडी का भड़वा? मारो साले को! मारो! तेरी....

          हो-हल्ले के बीच, हिरामन की आवाज़ कपड़घर को फाड़ रही है,‘आओ, एक-एक की गरदन उतार लेंगे।

          लालमोहर दुलाली से पटापट पीटता जा रहा है सामने के लोगों को। पलटदास एक आदमी की छाती पर सवार है,‘साला, सिया सुकुमारी को गाली देता है, सो भी मुसलमान हो कर?’

          धुन्नीराम शुरू से ही चुप था। मारपीट शुरू होते ही वह कपड़घर से निकल कर बाहर भागा।

          काले कोटवाले नौटंकी के मैनेजर नेपाली सिपाही के साथ दौड़े आए। दारोगा साहब ने हंटर से पीट-पाट शुरू की। हंटर खा कर लालमोहर तिलमिला उठा, कचराही बोली में भाषण देने लगा,‘दारोगा साहब, मारते हैं, मारिए। कोई हर्ज नहीं। लेकिन यह पास देख लीजिए, एक पास पाकिट में भी हैं। देख सकते हैं हुजूर। टिकट नहीं, पास! ....तब हम लोगों के सामने कंपनी की औरत को कोई बुरी बात करे तो कैसे छोड़ देंगे?’

          कंपनी के मैनेजर की समझ में आ गई सारी बात। उसने दारोगा को समझाया,‘हुजूर, मैं समझ गया। यह सारी बदमाशी मथुरामोहन कंपनीवालों की है। तमाशे में झगड़ा खड़ा करके कंपनी को बदनाम....

          नहीं हुजूर, इन लोगों को छोड़ दीजिए, हीराबाई के आदमी हैं। बेचारी की जान खतरे में हैं। हुजूर से कहा था न!

          हीराबाई का नाम सुनते ही दारोगा ने तीनों को छोड़ दिया। लेकिन तीनों की दुआली छीन ली गई। मैनेजर ने तीनों को एक रुपए वाले दरजे में कुरसी पर बिठाया,‘आप लोग यहीं बैठिए। पान भिजवा देता हूं।कपड़घर शांत हुआ और हीराबाई स्टेज पर लौट आई।

नगाड़ा फिर घनघना उठा।

          थोड़ी देर बाद तीनों को एक ही साथ धुन्नीराम का खयाल हुआ,‘अरे, धुन्नीराम कहां गया?’

          मालिक, ओ मालिक!लहसनवां कपड़घर से बाहर चिल्ला कर पुकार रहा है,‘ओ लालमोहर मा-लि-क....!

          लालमोहर ने तारस्वर में जवाब दिया,‘इधर से, उधर से! एकटकिया फाटक से।सभी दर्शकों ने लालमोहर की ओर मुड़ कर देखा। लहसनवां को नेपाली सिपाही लालमोहर के पास ले आया। लालमोहर ने जेब से पास निकाल कर दिखा दिया। लहसनवां ने आते ही पूछा,‘मालिक, कौन आदमी क्या बोल रहा था? बोलिए तो जरा। चेहरा दिखला दीजिए, उसकी एक झलक!

          लोगों ने लहसनवां की चौड़ी और सपाट छाती देखी। जाड़े के मौसम में भी खाली देह! ....चेले-चाटी के साथ हैं ये लोग!

          लालमोहर ने लहसनवां को शांत किया।

          तीनों-चारों से मत पूछे कोई, नौटंकी में क्या देखा। क़िस्सा कैसे याद रहे! हिरामन को लगता था, हीराबाई शुरू से ही उसी की ओर टकटकी लगा कर देख रही है, गा रही है, नाच रही है। लालमोहर को लगता था, हीराबाई उसी की ओर देखती है। वह समझ गई है, हिरामन से भी ज़्यादा पावरवाला आदमी है लालमोहर! पलटदास क़िस्सा समझता है। ....क़िस्सा और क्या होगा, रमैन की ही बात। वही राम, वही सीता, वही लखनलाल और वही रावन! सिया सुकुमारी को राम जी से छीनने के लिए रावन तरह-तरह का रूप धर कर आता है। राम और सीता भी रूप बदल लेते हैं। यहां भी तख्त-हजारा बनानेवाला माली का बेटा राम है। गुलबदन मिया सुकुमारी है। माली के लड़के का दोस्त लखनलला है और सुलतान है रावन। धुन्नीराम को बुखार है तेज! लहसनवां को सबसे अच्छा जोकर का पार्ट लगा है ....चिरैया तोंहके लेके ना जइवै नरहट के बजरिया! वह उस जोकर से दोस्ती लगाना चाहता है। नहीं लगावेगा दोस्ती, जोकर साहब?

          हिरामन को एक गीत की आधी कड़ी हाथ लगी है,‘मारे गए गुलफाम!कौन था यह गुलफाम? हीराबाई रोती हुई गा रही थी,‘अजी हां, मारे गए गुलफाम!टिड़िड़िड़ि.... बेचारा गुलफाम!

          तीनों को दुआली वापस देते हुए पुलिस के सिपाही ने कहा,‘लाठी-दुआली ले कर नाच देखने आते हो?’

          दूसरे दिन मेले-भर में यह बात फैल गई, मथुरामोहन कंपनी से भाग कर आई है हीराबाई, इसलिए इस बार मथुरामोहन कंपनी नहीं आई है। ....उसके गुंडे आए हैं। हीराबाई भी कम नहीं। बड़ी खेलाड़ औरत है। तेरह-तेरह देहाती लठैत पाल रही है। ....वाह मेरी जान भी कहे तो कोई! मजाल है!

          दस दिन.... दिन-रात....!

          दिन-भर भाड़ा ढोता हिरामन। शाम होते ही नौटंकी का नगाड़ा बजने लगता। नगाड़े की आवाज़ सुनते ही हीराबाई की पुकार कानों के पास मंडराने लगती- भैया....मीता ....हिरामन ....उस्ताद गुरु जी! हमेशा कोई-न-कोई बाजा उसके मन के कोने में बजता रहता, दिन-भर। कभी हारमोनियम, कभी नगाड़ा, कभी ढोलक और कभी हीराबाई की पैजनी। उन्हीं साजों की गत पर हिरामन उठता-बैठता, चलता-फिरता। नौटंकी कंपनी के मैनेजर से ले कर परदा खींचनेवाले तक उसको पहचानते हैं। ....हीराबाई का आदमी है।

          पलटदास हर रात नौटंकी शुरू होने के समय श्रद्धापूर्वक स्टेज को नमस्कार करता, हाथ जोड़ कर। लालमोहर, एक दिन अपनी कचराही बोली सुनाने गया था हीराबाई को। हीराबाई ने पहचाना ही नहीं। तब से उसका दिल छोटा हो गया है। उसका नौकर लहसनवां उसके हाथ से निकल गया है, नौटंकी कंपनी में भर्ती हो गया है। जोकर से उसकी दोस्ती हो गई है। दिन-भर पानी भरता है, कपड़े धोता है। कहता है, गांव में क्या है जो जाएंगे! लालमोहर उदास रहता है।

          धुन्नीराम घर चला गया है, बीमार हो कर।

          हिरामन आज सुबह से तीन बार लदनी लाद कर स्टेशन आ चुका है। आज न जाने क्यों उसको अपनी भौजाई की याद आ रही है। ....धुन्नीराम ने कुछ कह तो नहीं दिया है, बुखार की झोंक में! यहीं कितना अटर-पटर बक रहा था -गुलबदन, तख्त-हजारा! लहसनवां मौज में है। दिन-भर हीराबाई को देखता होगा। कल कह रहा था, हिरामन मालिक, तुम्हारे अकबाल से खूब मौज में हूं। हीराबाई की साड़ी धोने के बाद कठौते का पानी अत्तरगुलाब हो जाता है। उसमें अपनी गमछी डुबा कर छोड़ देता हूं। लो, सूंघोगे? हर रात, किसी-न-किसी के मुंह से सुनता है वह-हीराबाई रंडी है। कितने लोगों से लड़े वह! बिना देखे ही लोग कैसे कोई बात बोलते हैं! राजा को भी लोग पीठ-पीछे गाली देते हैं! आज वह हीराबाई से मिल कर कहेगा, नौटंकी कंपनी में रहने से बहुत बदनाम करते हैं लोग। सरकस कंपनी में क्यों नहीं काम करती? सबके सामने नाचती है, हिरामन का कलेजा दप-दप जलता रहता है उस समय। सरकस कंपनी में बाघ को ....उसके पास जाने की हिम्मत कौन करेगा! सुरक्षित रहेगी हीराबाई! किधर की गाड़ी आ रही है?

          हिरामन, ए हिरामन भाय!लालमोहर की बोली सुन कर हिरामन ने गरदन मोड़ कर देखा। ....क्या लाद कर लाया है लालमोहर?

          तुमको ढूंढ़ रही है हीराबाई, इस्टिसन पर। जा रही है।एक ही सांस में सुना गया। लालमोहर की गाड़ी पर ही आई है मेले से।

          जा रही है? कहां? हीराबाई रेलगाड़ी से जा रही है?’

          हिरामन ने गाड़ी खोल दी। मालगुदाम के चौकीदार से कहा,‘भैया, जरा गाड़ी-बैल देखते रहिए। आ रहे हैं।

          उस्ताद!जनाना मुसाफ़िरखाने के फाटक के पास हीराबाई ओढ़नी से मुंह-हाथ ढंक कर खड़ी थी। थैली बढ़ाती हुई बोली,‘लो! हे भगवान! भेंट हो गई, चलो, मैं तो उम्मीद खो चुकी थी। तुमसे अब भेंट नहीं हो सकेगी। मैं जा रही हूं गुरु जी!

          बक्सा ढोनेवाला आदमी आज कोट-पतलून पहन कर बाबूसाहब बन गया है। मालिकों की तरह कुलियों को हुक़ुम दे रहा है,‘जनाना दर्जा में चढ़ाना। अच्छा?’

हिरामन हाथ में थैली ले कर चुपचाप खड़ा रहा। कुरते के अंदर से थैली निकाल कर दी है हीराबाई ने। चिड़िया की देह की तरह गर्म है थैली।

          गाड़ी आ रही है।बक्सा ढोनेवाले ने मुंह बनाते हुए हीराबाई की ओर देखा। उसके चेहरे का भाव स्पष्ट है-इतना ज़्यादा क्या है?

          हीराबाई चंचल हो गई। बोली,‘हिरामन, इधर आओ, अंदर। मैं फिर लौट कर जा रही हूं मथुरा मोहन कंपनी में। अपने देश की कंपनी है। ....वनैली मेला आओगे न?’

          हीराबाई ने हिरामन के कंधे पर हाथ रखा, ....इस बार दाहिने कंधे पर। फिर अपनी थैली से रुपया निकालते हुए बोली,‘एक गरम चादर खरीद लेना....

          हिरामन की बोली फूटी, इतनी देर के बाद,‘इस्स! हरदम रुपैया-पैसा! रखिए रुपैया! क्या करेंगे चादर?’

          हीराबाई का हाथ रुक गया। उसने हिरामन के चेहरे को ग़ौर से देखा। फिर बोली,‘तुम्हारा जी बहुत छोटा हो गया है। क्यों मीता? महुआ घटवारिन को सौदागर ने ख़रीद जो लिया है गुरु जी!

          गला भर आया हीराबाई का। बक्सा ढोनेवाले ने बाहर से आवाज़ दी,‘गाड़ी आ गई।हिरामन कमरे से बाहर निकल आया। बक्सा ढोनेवाले ने नौटंकी के जोकर जैसा मुंह बना कर कहा,‘लाटफारम से बाहर भागो। बिना टिकट के पकड़ेगा तो तीन महीने की हवा....

          हिरामन चुपचाप फाटक से बाहर जा कर खड़ा हो गया। ....टीसन की बात, रेलवे का राज! नहीं तो इस बक्सा ढोनेवाले का मुंह सीधा कर देता हिरामन।

          हीराबाई ठीक सामनेवाली कोठरी में चढ़ी। इस्स! इतना टान! गाड़ी में बैठ कर भी हिरामन की ओर देख रही है, टुकुर-टुकुर। लालमोहर को देख कर जी जल उठता है, हमेशा पीछे-पीछे, हरदम हिस्सादारी सूझती है।

          गाड़ी ने सीटी दी। हिरामन को लगा, उसके अंदर से कोई आवाज़ निकल कर सीटी के साथ ऊपर की ओर चली गई-कू-ऊ-ऊ! इ-स्स!

          छी-ई-ई-छक्क! गाड़ी हिली। हिरामन ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे को बाएं पैर की एड़ी से कुचल लिया। कलेजे की धड़कन ठीक हो गई। हीराबाई हाथ की बैंगनी साफी से चेहरा पोंछती है। साफी हिला कर इशारा करती है ....अब जाओ। आख़िरी डिब्बा गुज़रा, प्लैटफ़ॉर्म ख़ाली, सब ख़ाली ....खोखले ....मालगाड़ी के डिब्बे! दुनिया ही ख़ाली हो गई मानो! हिरामन अपनी गाड़ी के पास लौट आया।

          हिरामन ने लालमोहर से पूछा,‘तुम कब तक लौट रहे हो गांव?’

लालमोहर बोला,‘अभी गांव जा कर क्या करेंगे? यहां तो भाड़ा कमाने का मौका है! हीराबाई चली गई, मेला अब टूटेगा।

          अच्छी बात। कोई समाद देना है घर?’

          लालमोहर ने हिरामन को समझाने की कोशिश की। लेकिन हिरामन ने अपनी गाड़ी गांव की ओर जानेवाली सड़क की ओर मोड़ दी। अब मेले में क्या धरा है! खोखला मेला!

          रेलवे लाइन की बगल से बैलगाड़ी की कच्ची सड़क गई है दूर तक। हिरामन कभी रेल पर नहीं चढ़ा है। उसके मन में फिर पुरानी लालसा झांकी, रेलगाड़ी पर सवार हो कर, गीत गाते हुए जगरनाथ-धाम जाने की लालसा। उलट कर अपने खाली टप्पर की ओर देखने की हिम्मत नहीं होती है। पीठ में आज भी गुदगुदी लगती है। आज भी रह-रह कर चंपा का फूल खिल उठता है, उसकी गाड़ी में। एक गीत की टूटी कड़ी पर नगाड़े का ताल कट जाता है, बार-बार!

          उसने उलट कर देखा, बोरे भी नहीं, बांस भी नहीं, बाघ भी नहीं -परी ....देवी ....मीता ....हीरादेवी ....महुआ घटवारिन - कोई नहीं। मरे हुए मुहर्तों की गूंगी आवाजें मुखर होना चाहती है। हिरामन के होंठ हिल रहे हैं। शायद वह तीसरी कसम खा रहा है-कंपनी की औरत की लदनी....

          हिरामन ने हठात अपने दोनों बैलों को झिड़की दी, दुआली से मारते हुए बोला,‘रेलवे लाइन की ओर उलट-उलट कर क्या देखते हो?’ दोनों बैलों ने क़दम खोल कर चाल पकड़ी।

          हिरामन गुनगुनाने लगा,‘अजी हां, मारे गए गुलफाम....!

 

सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष

-         फणीश्वरनाथ रेणु

        (फणीश्वरनाथ रेणु की यह कहानी 'तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफामउत्तर प्रदेश में विभिन्न विश्वविद्यालयों की उच्च शिक्षा के नए एकीकृत पाठ्यक्रम में कक्षा बी ए द्वितीय वर्ष (तृतीय सेमेस्टर) के हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए रखी गयी है। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए हम पाठ्यक्रम के मूल पाठ को क्रमशः रखने का प्रयास कर रहे हैं। उसी कड़ी में यह कहानी। शीघ्र ही हम इसका पाठ कथावार्ता Kathavarta के यू ट्यूब चैनल पर प्रस्तुत करेंगे।

 

        पाठ्यक्रम की दूसरी कहानियाँ यहाँ क्लिक करके पढ़ें-

1.    प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर

2. जैनेन्द्र कुमार की कहानी पाजेब

3. अज्ञेय की कहानी गैंग्रीन (रोज़)

    4. यशपाल की कहानी परदा

    5. ज्ञानरंजन की कहानी पिता

 

बी ए तृतीय सेमेस्टर के पाठ्यक्रम में निर्धारित निबंधों को यहाँ क्लिक करके पढ़ा जा सकता है  - सम्पादक)

 

सोमवार, 29 अगस्त 2022

गैंग्रीन (रोज़) : अज्ञेय की कहानी

  दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते हुए मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किन्तु फिर भी बोझल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था

मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली। मुझे देखकर, पहचानकर उसकी मुरझायी हुई मुख-मुद्रा तनिक से मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर पूर्ववत् हो गयी। उसने कहा, “आ जाओ!और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये भीतर की ओर चली। मैं भी उसके पीछे हो लिया।

भीतर पहुँचकर मैंने पूछा, “वे यहाँ नहीं है?”

अभी आये नहीं, दफ़्तर में हैं। थोड़ी देर में आ जाएँगे। कोई डेढ़-दो बजे आया करते हैं।

कब के गये हुए हैं?”

सवेरे उठते ही चले जाते हैं।

मैं हूँकर पूछने को हुआ, “और तुम इतनी देर क्या करती हो?” पर फिर सोचा, ‘आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं हैं। मैं कमरे के चारों ओर देखने लगा।

मालती एक पंखा उठा लायी, और मुझे हवा करने लगी। मैंने आपत्ति करते हुए कहा, “नहीं, मुझे नहीं चाहिए।पर वह नहीं मानी, बोली,”वाह! चाहिए कैसे नहीं? इतनी धूप में तो आये हो। यहाँ तो…”

मैंने कहा, “अच्छा, लाओ, मुझे दे दो।

वह शायद नाकरनेवाली थी, पर तभी दूसरे कमरे से शिशु के रोने की आवाज़ सुनकर उसने चुपचाप पंखा मुझे दे दिया और घुटनों पर हाथ टेककर एक थकी हुई हुंहकरके उठी और भीतर चली गयी।

मैं उसके जाते हुए, दुबले शरीर को देखकर सोचता रहा यह क्या हैयह कैसी छाया-सी इस घर पर छायी हुई है

मालती मेरी दूर के रिश्ते की बहन है, किन्तु उसे सखी कहना ही उचित है, क्योंकि हमारा परस्पर सम्बन्ध सख्य का ही रहा है। हम बचपन से इकट्ठे खेले हैं, इकट्ठे लड़े और पिटे हैं, और हमारी पढ़ाई भी बहुत-सी इकट्ठे ही हुई थी, और हमारे व्यवहार में सदा सख्य की स्वेच्छा और स्वच्छन्दता रही है, वह कभी भ्रातृत्व के या बड़े-छोटेपन के बन्धनों में नहीं घिरा

मैं आज कोई चार वर्ष बाद उसे देखना आया हूँ। जब मैंने उसे इससे पूर्व देखा था, तब वह लड़की ही थी, अब वह विवाहिता है, एक बच्चे की माँ भी है। इससे कोई परिवर्तन उसमें आया होगा और यदि आया होगा तो क्या, यह मैंने अभी तक सोचा नहीं था, किन्तु अब उसकी पीठ की ओर देखता हुआ मैं सोच रहा था, यह कैसी छाया इस घर पर छायी हुई हैऔर विशेषतया मालती पर

मालती बच्चे को लेकर लौट आयी और फिर मुझसे कुछ दूर नीचे बिछी हुई दरी पर बैठ गयी। मैंने अपनी कुरसी घुमाकर कुछ उसकी ओर उन्मुख होकर पूछा, “इसका नाम क्या है?”

मालती ने बच्चे की ओर देखते हुए उत्तर दिया, “नाम तो कोई निश्चित नहीं किया, वैसे टिटी कहते हैं।

मैंने उसे बुलाया, “टिटी, टीटी, आ जापर वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी ओर देखता हुआ अपनी माँ से चिपट गया, और रुआँसा-सा होकर कहने लगा, “उहुं-उहुं-उहुं-ऊं…”

मालती ने फिर उसकी ओर एक नज़र देखा, और फिर बाहर आँगन की ओर देखने लगी

काफ़ी देर मौन रहा। थोड़ी देर तक तो वह मौन आकस्मिक ही था, जिसमें मैं प्रतीक्षा में था कि मालती कुछ पूछे, किन्तु उसके बाद एकाएक मुझे ध्यान हुआ, मालती ने कोई बात ही नहीं कीयह भी नहीं पूछा कि मैं कैसा हूँ, कैसे आया हूँचुप बैठी है, क्या विवाह के दो वर्ष में ही वह बीते दिन भूल गयी? या अब मुझे दूर-इस विशेष अन्तर पर-रखना चाहती है? क्योंकि वह निर्बाध स्वच्छन्दता अब तो नहीं हो सकतीपर फिर भी, ऐसा मौन, जैसा अजनबी से भी नहीं होना चाहिए

मैंने कुछ खिन्न-सा होकर, दूसरी ओर देखते हुए कहा, “जान पड़ता है, तुम्हें मेरे आने से विशेष प्रसन्नता नहीं हुई।

उसने एकाएक चौंककर कहा, “हूँ?”

यह हूँप्रश्न-सूचक था, किन्तु इसलिए नहीं कि मालती ने मेरी बात सुनी नहीं थी, ‘केवल विस्मय के कारण। इसलिए मैंने अपनी बात दुहरायी नहीं, चुप बैठ रहा। मालती कुछ बोली ही नहीं, तब थोड़ी देर बाद मैंने उसकी ओर देखा। वह एकटक मेरी ओर देख रही थी, किन्तु मेरे उधर उन्मुख होते ही उसने आँखें नीची कर लीं। फिर भी मैंने देखा, उन आँखों में कुछ विचित्र-सा भाव था, मानो मालती के भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रहा हो, किसी बीती हुई बात को याद करने की, किसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुनः जगाकर गतिमान करने की, किसी टूटे हुए व्यवहार-तन्तु को पुनरुज्जीवित करने की, और चेष्टा में सफल न हो रहा होवैसे जैसे देर से प्रयोग में न लाये हुए अंग को व्यक्ति एकाएक उठाने लगे और पाये कि वह उठता ही नहीं है, चिरविस्मृति में मानो मर गया है, उतने क्षीण बल से (यद्यपि वह सारा प्राप्य बल है) उठ नहीं सकतामुझे ऐसा जान पड़ा, मानो किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जन्तु का तौक डाल दिया गया हो, वह उसे उतारकर फेंकना चाहे, पर उतार न पाये

तभी किसी ने किवाड़ खटखटाये। मैंने मालती की ओर देखा, पर वह हिली नहीं। जब किवाड़ दूसरी बार खटखटाये गये, तब वह शिशु को अलग करके उठी और किवाड़ खोलने गयी।

वे, यानी मालती के पति आये। मैंने उन्हें पहली बार देखा था, यद्यपि फ़ोटो से उन्हें पहचानता था। परिचय हुआ। मालती खाना तैयार करने आँगन में चली गयी, और हम दोनों भीतर बैठकर बातचीत करने लगे, उनकी नौकरी के बारे में, उनके जीवन के बारे में, उस स्थान के बारे में और ऐसे अन्य विषयों के बारे में जो पहले परिचय पर उठा करते हैं, एक तरह का स्वरक्षात्मक कवच बनकर

मालती के पति का नाम है महेश्वर। वह एक पहाड़ी गाँव में सरकारी डिस्पेन्सरी के डॉक्टर हैं, उसी हैसियत से इन क्वार्टरों में रहते हैं। प्रातःकाल सात बजे डिस्पेन्सरी चले जाते हैं और डेढ़ या दो बजे लौटते हैं, उसके बाद दोपहर-भर छुट्टी रहती है, केवल शाम को एक-दो घंटे फिर चक्कर लगाने के लिए जाते हैं, डिस्पेन्सरी के साथ के छोटे-से अस्पताल में पड़े हुए रोगियों को देखने और अन्य ज़रूरी हिदायतें करनेउनका जीवन भी बिलकुल एक निर्दिष्ट ढर्रे पर चलता है, नित्य वही काम, उसी प्रकार के मरीज, वही हिदायतें, वही नुस्खे, वही दवाइयाँ। वह स्वयं उकताये हुए हैं और इसीलिए और साथ ही इस भयंकर गरमी के कारण वह अपने फ़ुरसत के समय में भी सुस्त ही रहते हैं

मालती हम दोनों के लिए खाना ले आयी। मैंने पूछा, “तुम नहीं खोओगी? या खा चुकीं?”

महेश्वर बोले, कुछ हँसकर, “वह पीछे खाया करती है…” पति ढाई बजे खाना खाने आते हैं, इसलिए पत्नी तीन बजे तक भूखी बैठी रहेगी!

महेश्वर खाना आरम्भ करते हुए मेरी ओर देखकर बोले, “आपको तो खाने का मज़ा क्या ही आयेगा ऐसे बेवक़्त खा रहे हैं?”

मैंने उत्तर दिया, “वाह! देर से खाने पर तो और अच्छा लगता है, भूख बढ़ी हुई होती है, पर शायद मालती बहिन को कष्ट होगा।

मालती टोककर बोली, “ऊँहू, मेरे लिए तो यह नयी बात नहीं हैरोज़ ही ऐसा होता है…”

मालती बच्चे को गोद में लिये हुए थी। बच्चा रो रहा था, पर उसकी ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था।

मैंने कहा, “यह रोता क्यों है?”

मालती बोली, “हो ही गया है चिड़चिड़ा-सा, हमेशा ही ऐसा रहता है।

फिर बच्चे को डाँटकर कहा, “चुपकर।जिससे वह और भी रोने लगा, मालती ने भूमि पर बैठा दिया। और बोली, “अच्छा ले, रो ले।और रोटी लेने आँगन की ओर चली गयी!

जब हमने भोजन समाप्त किया तब तीन बजने वाले थे। महेश्वर ने बताया कि उन्हें आज जल्दी अस्पताल जाना है, यहाँ एक-दो चिन्ताजनक केस आये हुए हैं, जिनका ऑपरेशन करना पड़ेगादो की शायद टाँग काटनी पड़े, गैंग्रीन हो गया हैथोड़ी ही देर में वह चले गये। मालती किवाड़ बन्द कर आयी और मेरे पास बैठने ही लगी थी कि मैंने कहा, “अब खाना तो खा लो, मैं उतनी देर टिटी से खेलता हूँ।

वह बोली, “खा लूँगी, मेरे खाने की कौन बात है,” किन्तु चली गयी। मैं टिटी को हाथ में लेकर झुलाने लगा, जिससे वह कुछ देर के लिए शान्त हो गया।

दूरशायद अस्पताल में ही, तीन खड़के। एकाएक मैं चौंका, मैंने सुना, मालती वहीं आँगन में बैठी अपने-आप ही एक लम्बी-सी थकी हुई साँस के साथ कह रही है तीन बज गये…” मानो बड़ी तपस्या के बाद कोई कार्य सम्पन्न हो गया हो

थोड़ी ही देर में मालती फिर आ गयी, मैंने पूछा, “तुम्हारे लिए कुछ बचा भी था? सब-कुछ तो…”

बहुत था।

हाँ, बहुत था, भाजी तो सारी मैं ही खा गया था, वहाँ बचा कुछ होगा नहीं, यों ही रौब तो न जमाओ कि बहुत था।मैंने हँसकर कहा।

मालती मानो किसी और विषय की बात कहती हुई बोली, “यहाँ सब्ज़ी-वब्ज़ी तो कुछ होती ही नहीं, कोई आता-जाता है, तो नीचे से मँगा लेते हैं; मुझे आये पन्द्रह दिन हुए हैं, जो सब्ज़ी साथ लाये थे वही अभी बरती जा रही है

मैंने पूछा, “नौकर कोई नहीं है?”

कोई ठीक मिला नहीं, शायद एक-दो दिन में हो जाए।

बरतन भी तुम्हीं माँजती हो?”

और कौन?” कहकर मालती क्षण-भर आँगन में जाकर लौट आयी।

मैंने पूछा, “कहाँ गयी थीं?”

आज पानी ही नहीं है, बरतन कैसे मँजेंगे?”

क्यों, पानी को क्या हुआ?”

रोज़ ही होता हैकभी वक़्त पर तो आता नहीं, आज शाम को सात बजे आएगा, तब बरतन मँजेंगे।

चलो, तुम्हें सात बजे तक छुट्टी हुई,” कहते हुए मैं मन-ही-मन सोचने लगा, ‘अब इसे रात के ग्यारह बजे तक काम करना पड़ेगा, छुट्टी क्या खाक हुई?’

यही उसने कहा। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था, पर मेरी सहायता टिटी ने की, एकाएक फिर रोने लगा और मालती के पास जाने की चेष्टा करने लगा। मैंने उसे दे दिया।

थोड़ी देर फिर मौन रहा, मैंने जेब से अपनी नोटबुक निकाली और पिछले दिनों के लिखे हुए नोट देखने लगा, तब मालती को याद आया कि उसने मेरे आने का कारण तो पूछा नहीं, और बोली, “यहाँ आये कैसे?”

मैंने कहा ही तो, “अच्छा, अब याद आया? तुमसे मिलने आया था, और क्या करने?”

तो दो-एक दिन रहोगे न?”

नहीं, कल चला जाऊँगा, ज़रूरी जाना है।

अज्ञेय

मालती कुछ नहीं बोली, कुछ खिन्न सी हो गयी। मैं फिर नोटबुक की तरफ़ देखने लगा।

थोड़ी देर बाद मुझे भी ध्यान हुआ, मैं आया तो हूँ मालती से मिलने किन्तु, यहाँ वह बात करने को बैठी है और मैं पढ़ रहा हूँ, पर बात भी क्या की जाये? मुझे ऐसा लग रहा था कि इस घर पर जो छाया घिरी हुई है, वह अज्ञात रहकर भी मानो मुझे भी वश में कर रही है, मैं भी वैसा ही नीरस निर्जीव-सा हो रहा हूँ, जैसे-हाँ, जैसे यह घर, जैसे मालती

मैंने पूछा, “तुम कुछ पढ़ती-लिखती नहीं?” मैं चारों और देखने लगा कि कहीं किताबें दीख पड़ें।

यहाँ!कहकर मालती थोड़ा-सा हँस दी। वह हँसी कह रही थी, ‘यहाँ पढ़ने को है क्या?’

मैंने कहा, “अच्छा, मैं वापस जाकर ज़रूर कुछ पुस्तकें भेजूँगा…” और वार्तालाप फिर समाप्त हो गया

थोड़ी देर बाद मालती ने फिर पूछा, “आये कैसे हो, लारी में?”

पैदल।

इतनी दूर? बड़ी हिम्मत की।

आख़िर तुमसे मिलने आया हूँ।

ऐसे ही आये हो?”

नहीं, कुली पीछे आ रहा है, सामान लेकर। मैंने सोचा, बिस्तरा ले ही चलूँ।

अच्छा किया, यहाँ तो बस…” कहकर मालती चुप रह गयी फिर बोली, “तब तुम थके होगे, लेट जाओ।

नहीं, बिलकुल नहीं थका।

रहने भी दो, थके नहीं, भला थके हैं?”

और तुम क्या करोगी?”

मैं बरतन माँज रखती हूँ, पानी आएगा तो धुल जाएँगे।

मैंने कहा, “वाह!क्योंकि और कोई बात मुझे सूझी नहीं

थोड़ी देर में मालती उठी और चली गयी, टिटी को साथ लेकर। तब मैं भी लेट गया और छत की ओर देखने लगामेरे विचारों के साथ आँगन से आती हुई बरतनों के घिसने की खन-खन ध्वनि मिलकर एक विचित्र एक-स्वर उत्पन्न करने लगी, जिसके कारण मेरे अंग धीरे-धीरे ढीले पड़ने लगे, मैं ऊँघने लगा

एकाएक वह एक-स्वर टूट गया मौन हो गया। इससे मेरी तन्द्रा भी टूटी, मैं उस मौन में सुनने लगा

चार खड़क रहे थे और इसी का पहला घंटा सुनकर मालती रुक गयी थीवही तीन बजेवाली बात मैंने फिर देखी, अबकी बार उग्र रूप में। मैंने सुना, मालती एक बिलकुल अनैच्छिक, अनुभूतिहीन, नीरस, यन्त्रवत् वह भी थके हुए यन्त्र के से स्वर में कह रही है, “चार बज गये”, मानो इस अनैच्छिक समय को गिनने में ही उसका मशीन-तुल्य जीवन बीतता हो, वैसे ही, जैसे मोटर का स्पीडो मीटर यन्त्रवत् फ़ासला नापता जाता है, और यन्त्रवत् विश्रान्त स्वर में कहता है (किससे!) कि मैंने अपने अमित शून्यपथ का इतना अंश तय कर लियान जाने कब, कैसे मुझे नींद आ गयी।

तब छह कभी के बज चुके थे, जब किसी के आने की आहट से मेरी नींद खुली, और मैंने देखा कि महेश्वर लौट आये हैं और उनके साथ ही बिस्तर लिये हुए मेरा कुली। मैं मुँह धोने को पानी माँगने को ही था कि मुझे याद आया, पानी नहीं होगा। मैंने हाथों से मुँह पोंछते-पोंछते महेश्वर से पूछा, “आपने बड़ी देर की?”

उन्होंने किंचित् ग्लानि-भरे स्वर में कहा, “हाँ, आज वह गैंग्रीन का आपरेशन करना ही पड़ा, एक कर आया हूँ, दूसरे को एम्बुलेन्स में बड़े अस्पताल भिजवा दिया है।

मैंने पूछा, “ गैंग्रीन कैसे हो गया।

एक काँटा चुभा था, उसी से हो गया, बड़े लापरवाह लोग होते हैं यहाँ के…”

मैंने पूछा, “यहाँ आपको केस अच्छे मिल जाते हैं? आय के लिहाज से नहीं, डॉक्टरी के अभ्यास के लिए?”

बोले, “हाँ, मिल ही जाते हैं, यही गैंग्रीन, हर दूसरे-चौथे दिन एक केस आ जाता है, नीचे बड़े अस्पतालों में भी…”

मालती आँगन से ही सुन रही थी, अब आ गयी, “बोली, “हाँ, केस बनाते देर क्या लगती है? काँटा चुभा था, इस पर टाँग काटनी पड़े, यह भी कोई डॉक्टरी है? हर दूसरे दिन किसी की टाँग, किसी की बाँह काट आते हैं, इसी का नाम है अच्छा अभ्यास!

महेश्वर हँसे, बोले, “न काटें तो उसकी जान गँवाएँ?”

हाँ, पहले तो दुनिया में काँटे ही नहीं होते होंगे? आज तक तो सुना नहीं था कि काँटों के चुभने से मर जाते हैं…”

महेश्वर ने उत्तर नहीं दिया, मुस्करा दिये। मालती मेरी ओर देखकर बोली, “ऐसे ही होते हैं, डॉक्टर, सरकारी अस्पताल है न, क्या परवाह है! मैं तो रोज़ ही ऐसी बातें सुनती हूँ! अब कोई मर-मुर जाए तो ख़याल ही नहीं होता। पहले तो रात-रात-भर नींद नहीं आया करती थी।

तभी आँगन में खुले हुए नल ने कहा टिप् टिप् टिप्-टिप्-टिप्-टिप्

मालती ने कहा, “पानी!और उठकर चली गयी। खनखनाहट से हमने जाना, बरतन धोए जाने लगे हैं

टिटी महेश्वर की टाँगों के सहारे खड़ा मेरी ओर देख रहा था, अब एकाएक उन्हें छोड़कर मालती की ओर खिसकता हुआ चला। महेश्वर ने कहा, “उधर मत जा!और उसे गोद में उठा लिया, वह मचलने और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा।

महेश्वर बोले, “अब रो-रोकर सो जाएगा, तभी घर में चैन होगी।

मैंने पूछा, “आप लोग भीतर ही सोते हैं? गरमी तो बहुत होती है?”

होने को तो मच्छर भी बहुत होते हैं, पर यह लोहे के पलंग उठाकर बाहर कौन ले जाये? अब के नीचे जाएँगे तो चारपाइयाँ ले आएँगे।फिर कुछ रुककर बोले, “आज तो बाहर ही सोएँगे। आपके आने का इतना लाभ ही होगा।

टिटी अभी तक रोता ही जा रहा था। महेश्वर ने उसे एक पलंग पर बिठा दिया, और पलंग बाहर खींचने लगे, मैंने कहा, “मैं मदद करता हूँ”, और दूसरी ओर से पलंग उठाकर निकलवा दिये।

अब हम तीनोंमहेश्वर, टिटी और मैं, दो पलंगों पर बैठ गये और वार्तालाप के लिए उपयुक्त विषय न पाकर उस कमी को छुपाने के लिए टिटी से खेलने लगे, बाहर आकर वह कुछ चुप हो गया था, किन्तु बीच-बीच में जैसे एकाएक कोई भूला हुआ कर्त्तव्य याद करके रो उठता या, और फिर एकदम चुप हो जाता थाऔर कभी-कभी हम हँस पड़ते थे, या महेश्वर उसके बारे में कुछ बात कह देते थे

मालती बरतन धो चुकी थी। जब वह उन्हें लेकर आँगन के एक ओर रसोई के छप्पर की ओर चली, तब महेश्वर ने कहा, “थोड़े-से आम लाया हूँ, वह भी धो लेना।

कहाँ हैं?”

अँगीठी पर रखे हैं, काग़ज़ में लिपटे हुए।

मालती ने भीतर जाकर आम उठाये और अपने आँचल में डाल लिये। जिस काग़ज़ में वे लिपटे हुए थे वह किसी पुराने अखबार का टुकड़ा था। मालती चलती-चलती सन्ध्या के उस क्षण प्रकाश में उसी को पढ़ती जा रही थीवह नल के पास जाकर खड़ी उसे पढ़ती रही, जब दोनों ओर पढ़ चुकी, तब एक लम्बी साँस लेकर उसे फेंककर आम धोने लगी।

मुझे एकाएक याद आयाबहुत दिनों की बात थीजब हम अभी स्कूल में भरती हुए ही थे। जब हमारा सबसे बड़ा सुख, सबसे बड़ी विजय थी हाज़िरी हो चुकने के बाद चोरी से क्लास से निकल भागना और स्कूल से कुछ दूरी पर आम के बग़ीचे में पेड़ों पर चढ़कर कच्ची आमियाँ तोड़-तोड़ खाना। मुझे याद आयाकभी जब मैं भाग आता और मालती नहीं आ पाती थी तब मैं भी खिन्न-मन लौट आया करता था।

मालती कुछ नहीं पढ़ती थी, उसके माता-पिता तंग थे, एक दिन उसके पिता ने उसे एक पुस्तक लाकर दी और कहा कि इसके बीस पेज रोज़ पढ़ा करो, हफ़्ते भर बाद मैं देखूँ कि इसे समाप्त कर चुकी हो, नहीं तो मार-मार कर चमड़ी उधेड़ दूँगा। मालती ने चुपचाप किताब ले ली, पर क्या उसने पढ़ी? वह नित्य ही उसके दस पन्ने, बीस पेज, फाड़ कर फेंक देती, अपने खेल में किसी भाँति फ़र्क न पड़ने देती। जब आठवें दिन उसके पिता ने पूछा, “किताब समाप्त कर ली?” तो उत्तर दिया…”हाँ, कर ली,” पिता ने कहा, “लाओ, मैं प्रश्न पूछूँगा, तो चुप खड़ी रही। पिता ने कहा, तो उद्धत स्वर में बोली, “किताब मैंने फाड़ कर फेंक दी है, मैं नहीं पढ़ूँगी।

उसके बाद वह बहुत पिटी, पर वह अलग बात है। इस समय मैं यही सोच रहा था कि वह उद्धत और चंचल मालती आज कितनी सीधी हो गयी है, कितनी शान्त, और एक अखबार के टुकड़े को तरसती हैयह क्या, यह

तभी महेश्वर ने पूछा, “रोटी कब बनेगी!

बस, अभी बनाती हूँ।

पर अबकी बार जब मालती रसोई की ओर चली, तब टिटी की कर्त्तव्य-भावना बहुत विस्तीर्ण हो गयी, वह मालती की ओर हाथ बढ़ा कर रोने लगा और नहीं माना, मालती उसे भी गोद में लेकर चली गयी, रसोई में बैठ कर एक हाथ से उसे थपकने और दूसरे से कई छोटे-छोटे डिब्बे उठाकर अपने सामने रखने लगी

और हम दोनों चुपचाप रात्रि की, और भोजन की और एक-दूसरे के कुछ कहने की, और न जाने किस-किस न्यूनता की पूर्ति की प्रतीक्षा करने लगे।

हम भोजन कर चुके थे और बिस्तरों पर लेट गये थे और टिटी सो गया था। मालती पलंग के एक ओर मोमजामा बिछाकर उसे उस पर लिटा गयी थी। वह सो गया था, पर नींद में कभी-कभी चौंक उठता था। एक बार तो उठकर बैठ भी गया था, पर तुरन्त ही लेट गया।

मैंने महेश्वर से पूछा, “आप तो थके होंगे, सो जाइये।

वह बोले, “थके तो आप अधिक होंगेअठारह मील पैदल चल कर आये हैं।किन्तु उनके स्वर ने मानो जोड़ दियाथका तो मैं भी हूँ।

मैं चुप रहा, थोड़ी देर में किसी अपर संज्ञा ने मुझे बताया, वह ऊँघ रहे हैं।

तब लगभग साढ़े दस बजे थे, मालती भोजन कर रही थी।

मैं थोड़ी देर मालती की ओर देखता रहा, वह किसी विचार में यद्यपि बहुत गहरे विचार में नहीं, लीन हुई धीरे-धीरे खाना खा रही थी, फिर मैं इधर-उधर खिसक कर, पर आराम से होकर, आकाश की ओर देखने लगा।

पूर्णिमा थी, आकाश अनभ्र था।

मैंने देखा-उस सरकारी क्वार्टर की दिन में अत्यन्त शुष्क और नीरस लगने वाली स्लेट की छत भी चाँदनी में चमक रही है, अत्यन्त शीतलता और स्निग्धता से छलक रही है, मानो चन्द्रिका उन पर से बहती हुई आ रही हो, झर रही हो

मैंने देखा, पवन में चीड़ के वृक्षगरमी से सूख कर मटमैले हुए चीड़ के वृक्षधीरे-धीरे गा रहे होंकोई राग जो कोमल है, किन्तु करुण नहीं, अशान्तिमय है, किन्तु उद्वेगमय नहीं

मैंने देखा, प्रकाश से धुँधले नीले आकाश के तट पर जो चमगादड़ नीरव उड़ान से चक्कर काट रहे हैं, वे भी सुन्दर दीखते हैं

मैंने देखा दिन-भर की तपन, अशान्ति, थकान, दाह, पहाड़ों में से भाप से उठकर वातावरण में खोये जा रहे हैं, जिसे ग्रहण करने के लिए पर्वत-शिशुओं ने अपनी चीड़ वृक्षरूपी भुजाएँ आकाश की ओर बढ़ा रखी हैं

पर यह सब मैंने ही देखा, अकेले मैंनेमहेश्वर ऊँघे रहे थे और मालती उस समय भोजन से निवृत्त होकर दही जमाने के लिए मिट्टी का बरतन गरम पानी से धो रही थी, और कह रही थी…”अभी छुट्टी हुई जाती है।और मेरे कहने पर ही कि ग्यारह बजने वाले हैं,” धीरे से सिर हिलाकर जता रही थी कि रोज़ ही इतने बज जाते हैंमालती ने वह सब-कुछ नहीं देखा, मालती का जीवन अपनी रोज़ की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चन्द्रमा की चन्द्रिका के लिए, एक संसार के लिए रुकने को तैयार नहीं था

चाँदनी में शिशु कैसा लगता है इस अलस जिज्ञासा से मैंने टिटी की ओर देखा और वह एकाएक मानो किसी शैशवोचित वामता से उठा और खिसक कर पलंग से नीचे गिर पड़ा और चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगा। महेश्वर ने चौंककर कहा – “क्या हुआ?” मैं झपट कर उसे उठाने दौड़ा, मालती रसोई से बाहर निकल आयी, मैंने उस खट्शब्द को याद करके धीरे से करुणा-भरे स्वर में कहा, “चोट बहुत लग गयी बेचारे के।

यह सब मानो एक ही क्षण में, एक ही क्रिया की गति में हो गया।

मालती ने रोते हुए शिशु को मुझसे लेने के लिए हाथ बढ़ाते हुए कहा, “इसके चोटें लगती ही रहती है, रोज़ ही गिर पड़ता है।

एक छोटे क्षण-भर के लिए मैं स्तब्ध हो गया, फिर एकाएक मेरे मन ने, मेरे समूचे अस्तित्व ने, विद्रोह के स्वर में कहा मेरे मन न भीतर ही, बाहर एक शब्द भी नहीं निकला – “माँ, युवती माँ, यह तुम्हारे हृदय को क्या हो गया है, जो तुम अपने एकमात्र बच्चे के गिरने पर ऐसी बात कह सकती हो और यह अभी, जब तुम्हारा सारा जीवन तुम्हारे आगे है!

और, तब एकाएक मैंने जाना कि वह भावना मिथ्या नहीं है, मैंने देखा कि सचमुच उस कुटुम्ब में कोई गहरी भयंकर छाया घर कर गयी है, उनके जीवन के इस पहले ही यौवन में घुन की तरह लग गयी है, उसका इतना अभिन्न अंग हो गयी है कि वे उसे पहचानते ही नहीं, उसी की परिधि में घिरे हुए चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं, मैंने उस छाया को देख भी लिया

इतनी देर में, पूर्ववत् शान्ति हो गयी थी। महेश्वर फिर लेट कर ऊँघ रहे थे। टिटी मालती के लेटे हुए शरीर से चिपट कर चुप हो गया था, यद्यपि कभी एक-आध सिसकी उसके छोटे-से शरीर को हिला देती थी। मैं भी अनुभव करने लगा था कि बिस्तर अच्छा-सा लग रहा है। मालती चुपचाप ऊपर आकाश में देख रही थी, किन्तु क्या चन्द्रिका को या तारों को?

तभी ग्यारह का घंटा बजा, मैंने अपनी भारी हो रही पलकें उठा कर अकस्मात् किसी अस्पष्ट प्रतीक्षा से मालती की ओर देखा। ग्यारह के पहले घंटे की खड़कन के साथ ही मालती की छाती एकाएक फफोले की भाँति उठी और धीरे-धीरे बैठने लगी, और घंटा-ध्वनि के कम्पन के साथ ही मूक हो जानेवाली आवाज़ में उसने कहा, “ग्यारह बज गये…”


-सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय 

(डलहौजी, मई 1934)

 

सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष

(यशपाल की यह कहानी परदा उत्तर प्रदेश में विभिन्न विश्वविद्यालयों की उच्च शिक्षा के नए एकीकृत पाठ्यक्रम में कक्षा बी ए द्वितीय वर्ष (तृतीय सेमेस्टर) के हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए रखी गयी है। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए हम पाठ्यक्रम के मूल पाठ को क्रमशः रखने का प्रयास कर रहे हैं। उसी कड़ी में यह कहानी। शीघ्र ही हम इसका पाठ कथावार्ता Kathavarta के यू ट्यूब चैनल पर प्रस्तुत करेंगे।

-        पाठ्यक्रम की दूसरी कहानियाँ यहाँ क्लिक करके पढ़ें-

1.    प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर

2. जैनेन्द्र कुमार की कहानी पाजेब

3. यशपाल की कहानी परदा

    4.  फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी- तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम

    5.  ज्ञानरंजन की कहानी पिता

बी ए तृतीय सेमेस्टर केपाठ्यक्रम में निर्धारित निबंधों को यहाँ क्लिक करके पढ़ा जा सकता है  - सम्पादक)


सद्य: आलोकित!

श्री हनुमान चालीसा शृंखला : दूसरा दोहा

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार। बल बुधि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार।। श्री हनुमान चालीसा शृंखला। दूसरा दोहा। श्रीहनुमानचा...

आपने जब देखा, तब की संख्या.