बुधवार, 30 दिसंबर 2015

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में बलराज साहनी


(बलराज साहनी का यह भाषण मुझे बहुत प्रिय है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रथम दीक्षांत समारोह में दिया हुआ यह भाषण कई मायने में अभूतपूर्व है। मैं अपने ब्लॉग पर इसे साझा करते हुए बहुत प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ।)

लगभग बीस साल पहले की बात है। कलकत्ता के फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशनकी ओर से दो बीघा जमीनफिल्म के निर्देशक बिमल रॉय और हमें यानी उनके साथियों को सम्मान दिया जा रहा था। ये एक साधारण पर रुचिकर समारोह था। बहुत अच्छे भाषण हुए, पर श्रोता बड़ी उत्सुकता के साथ बिमल रॉय को सुनने की प्रतीक्षा कर रहे थे। हम सब वहां फर्श पर बैठे थे, मैं बिमल दा के पास ही बैठा था और देख रहा था कि जैसे-जैसे उनके बोलने का समय आ रहा था कि उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। फिर जब उनकी बारी आई, वे उठे और हाथ जोड़कर सिर्फ इतना कहा, ‘जो कुछ कहना होता है मैं अपनी फिल्मों के माध्यम से कह देता हूँ, मेरे पास कहने के लिए और कुछ नहीं है।
इस समय मैं भी सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ। अगर मैं इससे ज्यादा कहने का साहस कर पा रहा हूँ, तो सिर्फ इसलिए कि जिस व्यक्ति के नाम पर आपकी यूनिवर्सिटी बनी है, उसके व्यक्तित्व से मुझे प्यार है। उतना ही प्यार और आदर, बल्कि उससे भी ज्यादा, आपकी यूनिवर्सिटी से जुड़े मेरे मन में पीसी जोशी के लिए है। मेरे जीवन के कुछ बेहद कीमती पल इनकी ही बदौलत हैं, कुछ ऐसे कर्ज भी हैं जिन्हें मैं कभी चुका नहीं सकता। इसलिए आपकी संस्था की ओर से मिले किसी भी निमंत्रण को अस्वीकार नहीं कर सकता। अगर आप मुझे फर्श साफ करने के लिए भी बुलाते तब भी मैं उतना ही खुश और सम्मानित महसूस करता, जितना इस समय यहाँ खड़े होकर आपको संबोधित करने में महसूस कर रहा हूँ। पर उस सेवा के लिए मैं शायद अधिक योग्य साबित होता।
कृपया मुझे गलत न समझें। मैं शिष्टता का दिखावा नहीं कर रहा हूँ। जो बात मैंने कही है, वह दिल से कही है और अब आगे भी जो कहूँगा, दिल से ही कहूँगा, फिर चाहे वह आपको अच्छा लगे या न लगे, वह ऐसे मौकों के अनुकूल हो चाहे प्रतिकूल। शायद आप सब जानते होंगे कि शैक्षणिक वातावरण से मेरा संबंध लगभग 25 बरसों से टूटा हुआ है। मैंने कभी किसी विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह को भी संबोधित नहीं किया है।
वैसे यहाँ मैं ये भी जोड़ना चाहूँगा कि आपकी दुनिया से मेरा नाता टूटना ऐच्छिक नहीं था। इस दूरी के लिए कहीं न कहीं हमारे देश की फिल्म बनाने की दशा जिम्मेदार है। हमारी फिल्मी दुनिया में या तो अभिनेता को इतना कम काम मिलता है कि वह भूखों मरता है या फिर चाहे धन-दौलत की भूख हो या न हो, उसे इतना ज्यादा काम करना पड़ता है कि वह हर तरफ से कट जाता है। उसे न अपने पारिवारिक जीवन की सुध-बुध रहती है, न ही अपनी मानसिक और आत्मिक आवश्यकताओं की। पिछले 25 वर्षों में मैंने लगभग सवा-सौ फिल्मों में काम किया है। इतने समय में अमेरिका या यूरोप में एक अभिनेता 30-35 फिल्मों में काम करता है। इससे आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं मेरी जिंदगी का कितना बड़ा हिस्सा सेल्यूलॉयड की रील में दफन हुआ पड़ा है। इस अरसे में कितनी किताबें थीं, जो मैं नहीं पढ़ सका, कितने आयोजन थे जहां मैं जाना चाहता था पर जा नहीं सका। कभी-कभी मैं खुद को बहुत पिछड़ा हुआ महसूस करता हूँ और मेरी कुंठा तब और बढ़ जाती है जब मैं सोचता हूँ कि इन सवा सौ फिल्मों में कितनी फिल्में महत्वपूर्ण होंगी? कितनी ऐसी फिल्में होंगी, जिन्हें याद रखा जाएगा? शायद बहुत कम, मुश्किल से एक ही हाथ की उंगलियों पर गिनने लायक। और उन्हें भी लोग या तो भूल गए हैं या जल्दी ही भूल जाएंगे।
इसीलिए मैंने कहा था कि मैं शिष्टता नहीं दिखा रहा हूँ। मैं आपको सचेत करना चाहता हूँ कि अगर मेरा भाषण खास विद्वता का सबूत न दे, तो आपको निराश न होकर मुझे माफ कर देना चाहिए। बिमल दा बिलकुल सही थे। एक कलाकार का क्षेत्र उसका काम ही होता है। इसीलिए मैं यहाँ जो कुछ कह रहा हूँ, अपने जीवन के अपने अनुभव से ही कह रहा हूँ, जो मैंने देखा-परखा-महसूस किया। उससे बाहर की बात करना बेवकूफी होगी, किसी दिखावे सरीखा होगा।
इस समय मुझे अपने विद्यार्थी जीवन की एक घटना याद आ रही है, जिसे मैं कभी भुला नहीं सका, जिसने मेरे मन पर बहुत गहरा असर डाला। मैं अपने परिवार के साथ गर्मियों की छुट्टियां मनाने रावलपिंडी से कश्मीर जा रहा था। पिछली रात भारी बारिश होने के कारण से रास्ते में पहाड़ का एक हिस्सा टूटकर गिर गया था जिसके कारण सड़क बंद हो गई थी। दोनों तरफ मोटरों की लंबी कतारें लग गईं। न खाने-पीने का इंतजाम था, न सोने का। पीडब्ल्यूडी के कर्मचारी सड़क की मरम्मत करने में जी-तोड़ मेहनत कर रहे थे। फिर भी ड्राइवर और यात्री हर समय उनके पीछे पड़े रहते, उन्हें सुस्त और निकम्मा कह-कहकर कोसते रहते। इसमें काफी समय लगा। यहाँ तक कि आसपास के गांवों के लोग शहर के तौर-तरीकों वाले यात्रियों से उकता गए थे।
आखिरकार एक दिन रास्ता खुलने का ऐलान हुआ और ड्राइवरों को हरी झंडी दिखा दी गई। पर तब एक अजीब-सी बात हुई। कोई भी ड्राइवर पहले अपनी गाड़ी बढ़ाने को तैयार ही नहीं था। न इस तरफ से और न ही उस तरफ से। सभी खड़े एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे। इसमें शक नहीं कि रास्ता कच्चा था और खतरनाक भी। एक तरफ पहाड़ था और दूसरी तरफ खाई व हिलोरे मारता झेलम दरिया। आधा घंटा बीत गया। कोई टस से मस न हुआ। ये वही लोग थे जो कल तक पीडब्ल्यूडी के कर्मचारियों को आलस और अकर्मण्यता के लिए कोस रहे थे। इतने में पीछे से एक छोटी-सी हल्के रंग की स्पोर्ट्स कार आती दिखाई दी। एक अंग्रेज उसे चला रहा था। इतने सारे वाहनों और भीड़ को देखकर वह हैरान हुआ। मैं कोट-पतलून पहने जरा बन-ठनकर खड़ा था। उसने मुझसे पूछा, ‘क्या हुआ है?’ मैंने उसे सारी बात बताई, तो वह जोर से हँसा और उसी क्षण हार्न बजाता हुआ, बिना किसी डर के, कार चलाते हुए आगे बढ़ गया।
उसके बाद तो नजारा और भी देखने लायक था। कहां तो कोई माई का लाल गाड़ी स्टार्ट करने के लिए तैयार नहीं था, और अब वे हॉर्न पर हॉर्न बजाते हुए एक साथ वह हिस्सा पार करने लगे। इतनी भगदड़ मची कि रास्ता फिर काफी देर के लिए बंद हो गया। तब मैंने अपनी आंखों से प्रत्यक्ष देखा कि एक आजाद देश में पले-बढ़े आदमी और एक गुलाम देश में पले-बढ़े आदमी में क्या फर्क होता है।
आजाद आदमी के अंदर कुछ सोचने, फैसला करने और अपने फैसले पर अमल करने की दिलेरी होती है। गुलाम आदमी यह दिलेरी खो चुका होता है। वह हमेशा दूसरे के विचारों को अपनाता है, घिसे-पिटे रास्तों पर चलता है। इस सबक को मैंने अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लिया था। अपने जीवन में जब भी मैं कोई कठिन निर्णय ले पाया, मैं बहुत खुश हुआ। मैं खुद को आजाद महसूस करता, मुझे जीवन सार्थक लगा और मैं जीवन का लुत्फ शायद इसीलिए उठा पाया क्योंकि मैंने समझा की जीवन का कुछ अर्थ है।
पर फिर भी साफ-साफ कहूँ तो ऐसे मौके बहुत कम आए। किसी कठिन निर्णय के समय मैं हिम्मत खो देता था और दूसरे लोगों के आसरे रहता। मैंने सुरक्षित रास्ता चुना। मैंने वही फैसले लिए जो मेरा परिवार मुझसे चाहता था, जो वो बुर्जुआ वर्ग चाहता था, जिससे मैं आता हूँ। मेरे ऊपर मूल्यों का एक बोझ-सा डाल दिया गया था। मैं सोचता कुछ और था और कुछ और ही करता था। इस कारण मुझे बाद में काफी बुरा भी लगता। मेरे कुछ निर्णयों से मुझे कभी खुशी नहीं मिली। जब कभी भी मैं हिम्मत हार जाता, मेरी जिंदगी मुझे एक निरर्थक बोझ लगने लगती।
मैंने अपने सामने एक अंग्रेज का उदाहरण रखा है। कोई ये सोच सकता है कि किसी हद तक यह भी मेरे हीनभाव का सबूत है। मैं सरदार भगत सिंह का उदाहरण दे सकता था, जो उसी जमाने में ही फांसी चढ़े थे। मैं महात्मा गाँधी का उदाहरण दे सकता था, जिन्होंने पूरा जीवन अपनी ही शर्तों पर जिया। मुझे याद है कि कैसे मेरे कॉलेज के प्रोफेसर, शहर के सम्मानीय और बुद्धिमान व्यक्ति गाँधी की बातों पर हँसा करते थे कि वह बिना हथियार के सिर्फ सत्य-अहिंसा से अंग्रेज सरकार को हरा देंगे और देश को आजाद करा लेंगे। मेरे शहर के शायद एक प्रतिशत से भी कम लोग ये सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि अपने जीवनकाल में वे देश को आजाद हुआ देख सकेंगे। पर गाँधीजी को खुद पर, अपने विचारों और अपने देशवासियों पर भरोसा था।  शायद आपमें से किसी ने नंदलाल बोस द्वारा चित्रित गाँधीजी का चित्र देखा होगा। वह एक ऐसे व्यक्ति का चित्र है, जिसमें सोचने का साहस था और उस सोच पर अमल करने की हिम्मत थी।

मेरे कॉलेज के समय मुझ पर भगत सिंह या गाँधीजी का प्रभाव नहीं था। मैं पंजाब प्रांत के लाहौर में स्थित प्रसिद्ध गवर्नमेंट कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में एमए कर रहा था। इस कॉलेज में सिर्फ सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थियों का चयन होता है। आजादी के बाद मेरे साथियों ने हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की सरकारों और समाज में काफी ऊंचे पद हासिल किए। पर उस समय कॉलेज में दाखिला लेते समय हमें लिखकर देना पड़ता था कि हम राजनीतिक आंदोलनों में हिस्सा नहीं लेंगे। उस समय राजनीतिक आंदोलन का मतलब देश में चल रहे आजादी के आंदोलन से था।
आज हमारे देश को आजाद हुए पच्चीस साल हो गए हैं। इस साल हम आजादी की रजत जयंती मना रहे हैं। पर क्या हम कह सकते हैं कि गुलामी और हीनता का भाव हमारे मन से बिल्कुल दूर हो चुका है? क्या हम दावा कर सकते हैं कि व्यक्तिगत, सामाजिक या राष्ट्रीय स्तर पर हमारे विचार, हमारे फैसले और हमारे काम मूलतः हमारे अपने हैं और हमने दूसरों की नकल करनी छोड़ दी है? क्या हम स्वयं अपने लिए फैसले लेकर उन पर अमल कर सकते हैं या फिर हम यूं ही इस नकली स्वतंत्रता का दिखावा करते रहेंगे?
इस बारे में तो मैं आपका ध्यान हमारी फिल्म इंडस्ट्री की तरफ ले जाना चाहूँगा, जहां से मैं आता हूँ। मैं जानता हूँ कि उनमें से ज्यादा फिल्में ऐसी हैं, जिनका जिक्र सुनकर ही आप हँस पड़ेंगे। एक पढ़े-लिखे बुद्धिमान आदमी के लिए हमारी फिल्में तमाशे से ज्यादा कुछ नहीं हैं। उनकी कहानियां बचकानी, असलियत से दूर और तर्कहीन होती हैं। और ये बात तो आप भी मानेंगे की सबसे बड़ी खराबी है कि उनकी कहानी, तकनीक और नाच-गाने तक पश्चिम की फिल्मों की अंधी नकल होते हैं। कई बार तो पूरी की पूरी फिल्म ही किसी विदेशी फिल्म की नकल होती है। कोई हैरानी की बात नहीं है कि आप नौजवान लोग इन फिल्मों पर हँसते हैं, पर साथ ही कुछ ऐसे भी हैं जो फिल्म-स्टार बनने के सपने भी देखते होंगे।
हालांकि मेरे लिए उनका मजाक उड़ाना आसान नहीं है। मैं उनसे अपनी रोजी कमाता हूँ। मैंने उनसे खूब पैसा और मशहूरियत हासिल की। आज मुझे यहाँ जो इज्जत दी जा रही है, उसके पीछे कुछ हद तक मेरी फिल्मी मशहूरियत ही है। जब मैं आपकी तरह विद्यार्थी था, तो हमारे अंग्रेज और हिन्दुस्तानी प्रोफेसर बड़ी कोशिशों से हमारे अंदर यह एहसास पैदा करना चाहते थे कि कला का सृजन करना सिर्फ गोरी चमड़ी वालों का ही विशेषाधिकार है। अच्छी फिल्में, अच्छे नाटक, अच्छा अभिनय, अच्छी चित्रकला आदि सब यूरोप और अमेरिका में ही संभव हैं। हिन्दुस्तान के लोग, भाषा, संस्कृति इन कलात्मक भावनाओं के लिहाज से अपरिष्कृत और पिछड़े हुए हैं। ये सब सुनकर हमे बुरा लगता और हम गुस्सा भी हो जाते पर अंदर से हम ये बात मानने को मजबूर थे।
पर उस जमाने और आज के जमाने में बहुत फर्क है। आजादी के बाद भारतीय कलाओं ने बहुत प्रगति की है। फिल्मों की बात करें तो सत्यजीत रे और बिमल रॉय ऐसे नाम हैं जो विश्व प्रसिद्ध हो चुके हैं। कई कलाकारों और टेकनीशियनों की तुलना अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होती है। आजादी से पहले हमारे देश में मुश्किल से 10-15 फिल्में ही बनती थीं, जो मशहूर होती थीं। आज हम संसार भर में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाला देश हैं। और इन फिल्मों को सिर्फ हमारे देश की जनता ही नहीं, बल्कि अफगानिस्तान, ईरान, पूर्वी सोवियत यूनियन, मिस्र, अरब, अफ्रीका के अनेक देशों की जनता भी बड़े शौक से देखती है। हमने इस क्षेत्र में हॉलीवुड द्वारा लाई गई एकरसता को तोड़ा है।
और अगर सामाजिक जिम्मेदारी के नजरिये से भी देखा जाए तो हमारी फिल्में नैतिक रूप से अभी उतने निचले स्तर पर नहीं पहुंची हैं जहां कुछ पश्चिमी देश पहुंच चुके हैं। हिन्दुस्तानी निर्माताओं ने अभी लाभ कमाने के लिए सेक्स और अपराध का सहारा नहीं लिया है जैसा अमेरिकी निर्माता कई सालों से करते आ रहे हैं, बिना ये सोचे कि इससे वो देश में एक गंभीर सामाजिक समस्या को जन्म दे रहे हैं।
इस सबके बावजूद अगर कमी है तो सिर्फ एक बात की कि हम अभी भी नक्काल हैं। इसी एक गलती के कारण हम सभी बुद्धिजीवियों के मजाक का पात्र बनते हैं। हम विदेशों से उधार लिए गए, घिसे-पिटे फॉर्मूले पर फिल्में बनाते हैं। हम में अपने देश के जीवन को अपने ढंग से पेश करने का साहस नहीं है।
यह बात मैं सिर्फ हिन्दी या तमिल फिल्मों के बारे में नहीं कह रहा हूँ, ये शिकायत तथाकथित प्रगतिवादी और प्रयोगवादी फिल्मों से भी है, चाहे वो बंगाली में हों, हिन्दी में या मलयालम में। मैं सत्यजीत रे, मृणाल सेन, सुखदेव, बासु भट्टाचार्य या राजिंदर सिंह बेदी के काम का बड़ा प्रशंसक हूँ। मैं जानता हूँ कि वे बहुत ही काबिल और सम्माननीय हैं। मैं यह भी कहे बिना नहीं रह सकता कि इनकी फिल्मों पर इटली, फ्रांस, स्वीडन, पोलैंड और चेकोस्लोवाकिया के फैशन की गहरी छाप है। वे नया कदम जरूर उठाते हैं, पर दूसरों के बाद।
मेरा थोड़ा-बहुत संबंध साहित्य की दुनिया से भी है। यही हालत मैं वहां भी देखता हूँ। यूरोपीय साहित्य का फैशन भी हमारे उपन्यासकारों, कहानी-लेखकों और कवियों पर झट हावी हो जाता है। अगर सोवियत यूनियन को छोड़ दें तो शायद पूरे यूरोप में कोई हिन्दुस्तानी साहित्य के बारे जानता तक नहीं है। उदाहरण के लिए मैं अपने प्रांत पंजाब की ही बात करता हूँ। मेरे पंजाब में युवा कवियों की नई पौध सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ इंकलाबी जज्बे से ओत-प्रोत है। इसमें भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण को हटाने और एक नई व्यवस्था बनाने की बात की गई है। आप इसे नकार नहीं सकते क्योंकि हमें सामाजिक बदलाव की जरूरत है। इन कविताओं में बातें तो बहुत अच्छी कही गई हैं पर इनका स्वरूप देसी नहीं है। इस पर पश्चिम का प्रभाव है। वहीं की तरह ये मुक्त छंद में हैं, न ही कोई तुकांत है। यदि वहां के कवियों ने लय और छंद का प्रयोग नहीं किया है तो पंजाबी कवियों को भी यही करना है। इसका परिणाम ये होता है कि ये इंकलाब एक छोटे से कागज पर ही रह जाता है, जिसकी तारीफ बस एक छोटे-से साहित्यिक समझ वाले समूह में हो जाती है पर वो किसान और मजदूर जो इस शोषण को झेल रहे हैं, जिन्हें वे इंकलाब की प्रेरणा देना चाहते हैं, इसे समझ ही नहीं पाते हैं। ये उन पर कोई असर नहीं डालती। अगर मैं ये कहूँ कि बाकी हिन्दुस्तानी भाषाएं भी इसी न्यू वेवकविताओं के प्रभाव में हैं, तो गलत नहीं होगा।
मुझे चित्रकला के बारे में कोई ज्ञान नहीं है, पर इतना जरूर जानता हूँ कि वहां भी पश्चिम के फैशन का ही बोलबाला है। इस प्रभाव से बचकर अलग राह पर चलने की हिम्मत शायद ही कोई चित्रकार कर सकता है। और शैक्षणिक संसार के बारे में क्या कहूँ? मैं आपको खुद इसे पढ़ने के लिए कहूँगा। अगर आप हिन्दी फिल्मों पर हँसते हैं तो शायद खुद पर भी हँसना चाहेंगे।
इस साल मेरी मातृभूमि पंजाब में मुझे गुरुनानक विश्वविद्यालय के सीनेट का सदस्य बनाने के लिए नामित किया गया। जब मुझे उसकी पहली मीटिंग में शामिल होने के लिए बुलाया गया, तो मैं पंजाब में ही प्रीत नगर के पास था। एक दिन शाम को अपने ग्रामीण दोस्तों से गपशप करते हुए मैंने अमृतसर में होने वाली सीनेट की मीटिंग में जाने का जिक्र किया, तो किसी ने कहा, ‘हमारे साथ तो आप तहमत (लुंगी) और कुर्ते में हमारे जैसे ही बने फिरते हो, वहां जाकर सूट-बूट पहनकर साहब बहादुर बन जाओगे।मैंने हँसते हुए कहा, क्यों! आप अगर चाहते हैं तो मैं ऐसे ही चला जाऊंगा।तभी दूसरा कोई बोला, ‘आप ऐसा कर ही नहीं सकते, हमारे इन सरपंच को ही लीजिए। शहर में इन्हें किसी छोटे-मोटे काम से सरकारी दफ्तर जाना हो, तो तहमत की जगह पाजामा पहनते हैं। कहते हैं कि तहमत पहनने पर इज्जत नहीं होती। और आप तो यूनिवर्सिटी में जा रहे हैं।
एक और फौजी किसान, जो उस समय छुट्टी पर आया हुआ था, कहने लगा, ‘अजीब बात है, आजकल तो शहरों की लड़कियां भी तहमत बांधती हैं, तो फिर इनकी इज्जत क्यों नहीं होगी?’
ये सब गपशप होती रही और मुझे ये चुनौती स्वीकार करनी पड़ी। मैं अगले दिन सचमुच तहमत-कुर्ते में सीनेट की मीटिंग में पहुंच गया और मुझे उम्मीद नहीं थी कि इससे वहां क्या खलबली मची। वहां पहुंचा तो बरामदे में गाउन पहनाने के लिए एक प्रोफेसर खड़े थे। पहली नजर में तो उन्होंने मुझे पहचाना ही नहीं। फिर, जब पहचाना तो हैरानी भरी नजर से मुझे सिर से पांव तक देखने लगे। आखिर गाउन पहनाते समय वे कहे बिना रह न सके, बोले, ‘साहनी साहब, तहमत बांधी है, तो बूट की जगह खुस्सा (जूती) पहननी चाहिए थी न।’ ‘अगली बार ख्याल रखूंगा’, मैंने क्षमा मांगने वाले स्वर में कहा और मीटिंग वाले कमरे में चला गया। पर तभी मुझे खयाल आया कि किसी के लिबास के बारे में आलोचना करना सभ्यता के नियमों के उलट समझा गया है। यह बात मैंने प्रोफेसर को क्यों नहीं कही! मुझे अपनी धीमी हाजिरजवाबी पर अफसोस हुआ।
मीटिंग के बाद यूनिवर्सिटी के लड़के-लड़कियों से मिलने पर भी मेरा लिबास उनके मनोरंजन की चीज बना रहा। उनके लिए हँसी की बात ये भी थी कि मैंने तहमत के साथ जूते पहन रखे थे। पर उन्हें इसमें कोई अजीब बात दिखाई नहीं दी कि कई लड़कों ने पतलून के साथ चप्पल पहनी हुई थी।
आपको लग रहा होगा कि ये छोटी-सी घटना बताकर मैं आपका समय क्यों खराब कर रहा हूँ! पर एक पंजाबी किसान के नजरिये से इसे देखिए। हरित क्रांति में उनके सहयोग के लिए सब उनकी प्रशंसा करते हैं। वे हमारी फौजों की रीढ़ हैं। उन्हें कैसा लगेगा जब उनके कपड़ों या रहन-सहन को विस्मय से देखा जाएगा? पंजाब में यह बात कही जाती है कि गाँव का लड़का कॉलेज की शिक्षा पाने के बाद गाँव का नहीं रहता। वो अपने आप को अलग और श्रेष्ठ समझने लगता है, मानो वो यहाँ से नहीं किसी और ही दुनिया से है। उसकी एक ही कोशिश रहती है कि कैसे वो गाँव छोड़कर शहर भाग जाए। क्या इसे शिक्षा के नाम पर एक धब्बा नहीं कहना चाहिए?
मैं मानता हूँ सभी जगह ऐसा नहीं है। मैं ये भी जानता हूँ कि तमिलनाडु या बंगाल में अपने पारंपरिक पहनावे को पहनने को लेकर कोई हीनभावना नहीं है। एक किसान से लेकर प्रोफेसर तक कोई भी, किसी भी अवसर पर धोती पहन के जा सकता है। पर वहां भी उधार लिए गए विचार किसी-न-किसी शक्ल में सामने आते हैं। ये किसी न किसी स्वरूप में हर जगह मौजूद हैं। आजादी से पच्चीस साल बाद भी हम खुशी से वही शिक्षण-प्रणाली ढो रहे हैं, जो मैकाले ने क्लर्क और मानसिक गुलामों को बनाने के लिए बनाई थी। वो गुलाम जो अपने ब्रिटिश मालिकों के बारे में सोच पाने में भी असमर्थ होंगे, वो, जो अपने मालिकों से नफरत करने के बावजूद भी उनकी हमेशा तारीफ करेंगे, उनके जैसे बोलने, कपड़े पहनने, गाने-नाचने में गर्व महसूस करेंगे। ये गुलाम जो अपने ही लोगों से नफरत करते हैं और बाकियों को भी नफरत का पाठ पढ़ाने के लिए तैयार रहेंगे। क्या अब भी हमें आश्चर्य होगा कि विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों का अपनी शिक्षा-व्यवस्था से विश्वास उठता जा रहा है।
यहाँ मैं फिर एक और छोटी बात बताना चाहूँगा। अगर आज से दस साल पहले आप दिल्ली के किसी फैशनेबल विद्यार्थी को पतलून के साथ कुर्ता पहनने के लिए कहते तो वह आप पर हँस देता। पर आज यूरोप से आए हिप्पियों और हरे रामा हरे कृष्णासंस्कृति की नकल में, पतलून के साथ कुर्ता पहनना सिर्फ फैशन ही नहीं बना बल्कि कुर्ते का नाम गुरुशर्टहो गया है। अमेरिकियों द्वारा रविशंकर को सम्मान मिलते ही सितार स्टारही बन गया, बिलकुल वैसे ही जैसे 50 साल पहले स्वीडन से नोबेल पुरस्कार मिलते ही रवींद्रनाथ टैगोर पूरे देश के गुरुदेवबन गए थे।
क्या आप कॉलेज के किसी विद्यार्थी से सिर के बाल और दाढ़ी-मूंछें मुंडवाने के लिए कह सकते हैं जबकि फैशन इसे बढ़ाने का है? पर अगर कल योग के प्रभाव में आकर यूरोप के विद्यार्थी ऐसा करने लगें तो मैं दावे से कह सकता हूँ की अगले ही दिन कनाट प्लेस पर आपको गंजे सिर ही दिखेंगे। योग को इसकी जन्मभूमि में प्रचलित होने के लिए यूरोप से ही सर्टिफिकेट लेना होगा!
मैं एक और उदहारण देता हूँ, मैं हिन्दी फिल्मों में काम करता हूँ और सभी जानते हैं कि इन फिल्मों के गीत और संवाद ज्यादातर उर्दू में लिखे जाते हैं। मशहूर उर्दू लेखक और कवि- कृशन चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, केए अब्बास, गुलशन नंदा, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफी आजमी जैसे नाम इस काम से जुड़े रहे हैं। तो जब उर्दू में लिखी हुई फिल्म को हिन्दी फिल्म कहते हैं तो ये माना जा सकता है कि हिन्दी और उर्दू एक ही हैं। पर नहीं! क्योंकि हमारे ब्रिटिश मालिकों ने अपने समय पर इन्हें दो अलग भाषाएं कहा था इसलिए ये अलग हैं, पर आजादी के पच्चीस साल बाद भी हमारी हुकूमत, हमारे विश्वविद्यालय, विद्वान हिन्दी और उर्दू को अलग-अलग भाषाएं माने हुए हैं। क्या आपने कभी संसार के किसी और देश के बारे में भी ये सुना है कि वहां लोग बोलते एक भाषा हैं, पर लिखते समय वह दो भाषाएं कहलाएं? कोई भी भाषा किसी भी लिपि में लिखी जा सकती है। मेरी मातृभाषा पंजाबी के लिए दो लिपियां कबूल की गई हैं। हिन्दुस्तान में गुरुमुखी और पाकिस्तान में फारसी। दो लिपियों में लिखी जाने पर भी वह भाषा तो एक ही रहती हैपंजाबी। तो दो लिपियों में लिखी जाने के कारण हिन्दी और उर्दू अलग-अलग भाषाएं कैसे हो गईं? रेडियो पाकिस्तान अरबी और फारसी के शब्द घुसेड़-घुसेड़कर इस भाषा की खूबसूरती का सत्यानाश कर रहा है, वहीं ऑल इंडिया रेडियो उर्दू के साथ संस्कृत के शब्दकोश को मिला देता है। दोनों इन दोनों के मूल स्वरूप को ही बिगाड़ते हुए एक तरह से अपने मालिक की ही इच्छा की पूर्ति कर रहे हैं, वो है अविभाज्यको अलग करना। इससे ज्यादा बेतुका और क्या होगा? अगर ब्रितानियों ने कभी सफेद को काला कह दिया होता तो क्या हम हमेशा सफेद को काला ही कहते? इस बात पर मेरे दोस्त जानी वॉकर एक दिन कहने लगे, ‘रेडियो पर अनाउंसर को यह नहीं कहना चाहिए कि अब हिन्दी में समाचार सुनिए, बल्कि यह कहना चाहिए कि अब समाचार में हिन्दी सुनिए।मैंने इस हास्यास्पद स्थिति के बारे में हिन्दी-उर्दू के कई प्रगतिवादी और परंपरागत लेखकों से भी बात की है, उन्हें इस बात के लिए मनाया है कि इस मुद्दे पर नई सोच की जरूरत है। पर अब तक ये दीवार पर अपना सिर मारने जैसा ही है! हम फिल्म वाले लोग इसेविद्वानों की जहालतकहते हैं। क्या हम गलत हैं?
यहाँ मैं आपको अपना एक अनुमान बताने से नहीं रोक पा रहा हूँ, हो सकता है कि ये गलत हो पर ये है! ये सही भी हो सकता है! कौन जाने! पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है कि देश की आजादी की लड़ाई, जिसका नेतृत्व इंडियन नेशनल कांग्रेस कर रही थी, में शुरू से ही संपन्न और पूँजीपति वर्ग का वर्चस्व रहा है। सो यह स्वाभाविक ही था कि आजादी के बाद इसी वर्ग का शासन और समाज पर वर्चस्व होता। और आज कोई भी इस बात से इंकार नहीं करेगा कि पिछले 25 सालों से पूँजीपति वर्ग दिन-प्रतिदिन और ज्यादा धनवान और शक्तिशाली हुआ है वहीं मजदूर-किसान वर्ग और ज्यादा लाचार और परेशान। पंडित नेहरू इस स्थिति को बदलना चाहते थे, पर बदल नहीं सके। इसके लिए मैं उन्हें दोष नहीं देता। हालात ने उन्हें मजबूर कर रखा था। आज इंदिरा गांधी के नेतृत्व में हमारी हुकूमत फिर इस स्थिति को बदलने और समाजवाद लाने का वादा कर रही है। वे कब और किस हद तक सफल होंगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। न ही इस बहस में पड़ने का मेरा इरादा है। राजनीति मेरा विषय नहीं है। सिर्फ इतना कहना ही काफी है कि जिस तरह हिन्दुस्तान में अंग्रेजों की हुकूमत पर अंग्रेज पूँजीपतियों का दबदबा था, उसी तरह आज देश की हुकूमत पर हिन्दुस्तान के पूँजीपतियों का प्रभाव है।
मैं समझता हूँ कि ये बात तो सभी मानेंगे कि अंग्रेजों की पूँजीवादी व्यवस्था ने अपने कदम मजबूत करने के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया था, जिसमें उन्हें खासी सफलता भी मिली। मैं पूछता हूँ कि आज हमारे देश के शासक किस भाषा को अपने प्रतिनिधित्व को मजबूत करने लायक समझते हैं? राष्ट्रभाषा हिन्दी? यहाँ मेरा अनुमान ये कहता है कि उनके उद्देश्यों की पूर्ति सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी ही कर सकती है। पर चूंकि उन्हें अपनी देशभक्ति का दिखावा भी करना है इसलिए वो राष्ट्रभाषा हिन्दी की रट लगाए रहते हैं जिससे जनता का ध्यान भटका रहे। पूँजीपति भले ही हजारों भगवान में विश्वास करें पर वो पूजता सिर्फ एक को ही है- मुनाफे का भगवान। उस दृष्टिकोण से उसके लिए आज भी अंग्रेजी ही फायदेमंद है। औद्योगिकीकरण और तकनीकी विकास के इस दौर में अंग्रेजी ही फायदेमंद है। शासक वर्ग के लिए तो अंग्रेजी गॉड-गिफ्ट ही है।
आप सोच रहे होंगे कि वह कैसे? आसान-सा कारण है- अंग्रेजी भारत के आम मेहनतकश लोगों के लिए एक मुश्किल भाषा है। पहले के समय में फारसी और संस्कृत इन मेहनतकशों की पहुंच से दूर थी, इसीलिए शासक वर्ग ने उन्हें राजभाषा का दर्जा दिया था, जिससे वे जनसाधारण में असभ्य, अशिक्षित होने की हीनता व आत्मग्लानि की भावनाएं पैदा करता था और वो खुद को कभी शासन के योग्य ही न बना पाए। आज यही रोल अंग्रेजी भाषा अदा कर रही है।
यही आज भारत का शासक वर्ग कर रहा है। ये देश में इंकलाब नहीं चाहता, कोई बुनियादी तब्दीली नहीं चाहता। अंग्रेजों से मिली हुई व्यवस्था को उसी प्रकार कायम रखने में उसका फायदा है। पर वह खुलेआम अंग्रेजी को अंगीकार नहीं कर सकता। राष्ट्रीयता का कोई न कोई आडंबर खड़ा करना उसके लिए जरूरी है। इसीलिए वह संस्कृतवादी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने का ढोंग करता है। उसे पता है कि संस्कृत शब्दों के बोझ तले दबी नकली और बेजान भाषा अंग्रेजी के मुकाबले में खड़ी होने का सामर्थ्य अपने अंदर कभी भी पैदा नहीं कर सकेगी। आज के युग के वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों से रिक्त होने के कारण वह हमेशा कमजोर भाषा बनी रहेगी। हम फिल्मी कलाकारों को उनके प्रशंसकों की ओर से रोज पत्र आते हैं। ऐसे पत्र मुझे पिछले बीस साल से आ रहे हैं। यह पत्र आमतौर पर कॉलेज के विद्यार्थियों और पढ़े-लिखे नौजवानों की ओर से आते हैं। उनके आधार पर मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि हमारी शिक्षण संस्थाओं में अंग्रेजी का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है। शायद इसलिए, मैंने सुना है कि दाखिला देते समय कॉलेज में पब्लिक स्कूलों से पढ़कर आने वाले विद्यार्थियों को महत्व दिया जाता है। पब्लिक स्कूल मतलब वो स्कूल जहां पर बड़े घरों के बच्चे पढ़ते हैं।
मेरे लिए अंग्रेजी को ताकतवर बनाने की इस बात पर टिप्पणी करना जरूरी नहीं है। ये स्पष्ट भी है। ये बात मानी भी जा चुकी है कि अंग्रेजी विदेशी है और एक औसत आम भारतीय के लिए इसे सीखना कठिन है। पर फिर भी, आप खुद अपनी आंखों से देख सकते हैं कि किस प्रकार जीवन के हर क्षेत्र में अंग्रेजी को महत्व दिया जा रहा है। मेरी नाचीज राय में इसका बुनियादी कारण ये है कि उद्योग के क्षेत्र में पूँजीपतियों के राष्ट्रीय पैमाने पर संगठित होने और वर्तमान सामाजिक ढांचे को ज्यों का त्यों कायम रखने के लिए अंग्रेजी बहुत ज्यादा सहायक है।
कुछ दिन पहले की बात है, मैंने अपना यह विचार बम्बई के एक मजदूर नेता के सामने रखा और कहा कि आप अगर सचमुच पूँजीवादी व्यवस्था की जगह समाजवादी व्यवस्था कायम करना चाहते हैं, तो मजदूरों को भी पूँजीपतियों की तरह राष्ट्रीय पैमाने पर संगठित होकर आत्मविश्वास पैदा करना होगा और यह चीज अंग्रेजी से पीछा छुड़ाकर ही हो सकती है। मजदूर नेता मुझसे सहमत हुए, पर कहने लगे, ‘रोग तो आपने ठीक पकड़ा है, पर इसका इलाज क्या है?’
इलाज ये है कि अंग्रेजी लिपि को अपनाना और अंग्रेजी भाषा को धक्का देकर बाहर निकालना।
वह कैसे?’
टूटी-फूटी हिन्दुस्तानी सारे देश के मजदूर बोल और समझ लेते हैं। वो इसमें अपना सारी व्याकरण मिलाकर इसका प्रयोग करते हैं। इस तरह की भाषा में लड़की भी जाताहै और लड़का भी जाताहै, होता है। इस तरह के माहौल में एक ऐसी आजादी मिलती है कि कई बार बुद्धिजीवी भी इस तरह की भाषा बोलते हुए देखे जा सकते हैं। और यही तो भारत की परंपरा में है। आज की हिन्दुस्तानी में यूनिवर्सिटी यूनीवरास्टीबन जाता है, (विश्वविद्यालय के मुकाबले में यूनीवरास्टी कितना सुंदर और जानदार शब्द है!) स्पैनर पानाहै, लैंटर्न लालटेन’, कार की चेसिस’ ‘चैसीहो जाती है यानी सब कुछ संभव है। जिस तार से फौजी अपनी बंदूक साफ करते हैं वो अंग्रेजी में पुल-थ्रू कहलाता है पर रोमन हिन्दुस्तानी में ये फुल्ट्रूबन जाता है। कितना सुंदर शब्द! हॉलीवुड के लाइटमैन एक तरह के कवर के लिए बार्न डोर शब्द प्रयोग करते हैं, बम्बई फिल्म कर्मचारियों में इसे नाम दिया बंदर’, वाह! कितना अच्छा बदलाव है! इस तरह की हिन्दुस्तानी में तमाम संभावनाएं हैं। ये अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक और तकनीक शब्दावली को कितनी आसानी से अपना लेती है। ये हर जगह से शब्द ले कर खुद को समृद्ध बना लेती है। बार-बार संस्कृत शब्दकोश देखने की जरूरत ही नहीं।
पर रोमन लिपि ही क्यों?’ उन्होंने पूछा।
इसलिए कि किसी लिपि के बारे में किसी के कोई पूर्वाग्रह नहीं हैं। फिर, इस समय यह राष्ट्रीय पैमाने पर सबसे ज्यादा प्रचलित लिपि है। मद्रास, कलकत्ता, बम्बई, दिल्ली आदि शहरों में हर जगह दुकानों और फिल्मों के साइनबोर्ड इसी लिपि में लिखे हुए नजर आएंगे। खतों पर नाम व पता लिखने के लिए भी तो देश-भर में यही लिपि इस्तेमाल की जाती है। फौज तो इसे लगभग 30 सालों से इस्तेमाल कर रही है।
वो दोस्त कुछ देर चुप रहे, फिर हँसकर कहने लगे, ‘कॉमरेड, यूरोप में भी एक बार एस्प्रांटों चलाने का तजुर्बा किया गया था। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ जैसे विद्वान ने इसे अंग्रेजी जैसा मशहूर बनाने के लिए पूरा जोर लगाया था पर वह प्रयोग बुरी तरह असफल हुआ, क्योंकि वह बनाई गई भाषा थी। भाषाएं बनाई नहीं जातीं, वे अपने-आप स्वाभाविक ढंग से बनती हैं,


मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

कथावार्ता : वाङ्मय : अब्दुल बिस्मिल्लाह पर केंद्रित अंक



तमाम शोरशराबे से अलग अलीगढ़ से निकलने वाली त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका वाङ्मय (संपादक- डॉ. ऍम फीरोज़ अहमद) ने इस दफा झीनी झीनी बीनी चदरिया फेम अब्दुल बिस्मिल्लाह पर केंद्रित अंक निकाला है। वाङ्मय इससे पहले आदिवासी साहित्य पर सीरीज में चार अंक निकाल चुका था। राही मासूम रज़ा, शानी, बदीउज्जमा, नासिरा शर्मा, कुसुम अंसल पर उसके विशेषांक बहुत सफल हुए थे। इस दफा अब्दुल बिस्मिल्लाह के ऊपर केंद्रित इस अंक में उल्लेखनीय है मेराज अहमद का लेख। उन्होंने झीनी झीनी बीनी चदरिया में बुनकरी जीवन से जुड़े शब्दों पर जो टिप्पणियाँ की हैं, वह एक नए तरह का अध्ययन है। सुन्दरम् शांडिल्य, मधुरेश, मूलचंद्र सोनकर, सीमा शर्मा, इकरार अहमद, एम फ़ीरोज़ खान के आलेख विशेष पठनीय हैं। सुन्दरम शांडिल्य ने अपवित्र आख्यान पर लिखा है। सीमा शर्मा ने रावी लिखता है पर बहुत गंभीरता से विचार किया है। मधुरेश प्रख्यात कथा समीक्षक हैं। उन्होंने अब्दुल बिस्मिल्लाह की कहानियों पर विचार करते हुए उन्होंने अब्दुल बिस्मिल्लाह को मुस्लिम जीवन के अन्तरंग का कथाकार कहा है। प्रताप दीक्षित, नगमा जावेद मलिक, इकरार अहमद, मूलचंद सोनकर, शिवचंद प्रसाद, अमित कुमार भर्ती और रमाकान्त राय ने उनकी कहानियों पर विचार किया है। कविताओं पर डी एस मिश्र, जसविंदर कौर बिंद्रा, शशि शर्मा, केवल गोस्वामी आदि ने लिखा है। ख़ास बात यह है कि अब्दुल बिस्मिल्लाह के सभी रचना पर किसी न किसी ने लिखा है। अब्दुल बिस्मिल्लाह न सिर्फ एक ख्यातिलब्ध उपन्यासकार हैं, बल्कि कहानीकार और कवि भी हैं। उनके व्यक्तित्व का एक बड़ा पहलू उनका सामाजिक चिंतन है।
कमी खली कि एक लेख उनके समग्र को रेखांकित करते हुए आना था। एक संस्मरण भी बनता था। झीनी झीनी बीनी चदरिया पर एक ताजा लेख लिखवाना था। अब इस उपन्यास के कई आयाम खुले हैं। भारत भारद्वाज का लेख बहुत पुराना है और समीक्षा भर है। झीनी झीनी बीनी चदरिया बिस्मिल्लाह जी के शब्दों में "केवल मुसलमान बुनकरों की कथा न होकर हस्तशिल्पियों की कथा है।" तो इसपर ठीक से विचार होना था।
अच्छा लगा कि एक बृहद साक्षात्कार है अंक में। यह कहकशाँ ए शाद ने संजोया है। इस साक्षात्कार से बहुत सी गुत्थियाँ सुलझती हैं। साक्षात्कार में एक बात खटकी कि अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपने नए उपन्यास 'कुठावँ' के बारे में बताया है कि, "शरीर का ऐसा अंग जहाँ जोर से चोट पहुंचाई जाए तो व्यक्ति मर सकता है। जातिवाद हमारे समाज का कुठावँ है, उसपर चोट करने की जरूरत है।" वास्तव में, कुठावँ का अर्थ गलत जगह है। मारेसि मोहिं कुठावँ गुलेरी जी का प्रसिद्ध निबंध है। मुझे गलत जगह मारा, अर्थ यह हुआ। वह शरीर का अंग नहीं है। नींद न जाने ठाँव कुठावँ, बहुत चर्चित लोकोक्ति है। बहरहाल, उनके नए उपन्यास का स्वागत किया जायेगा।
अंक में एक लेख मैंने भी लिखा है। यह उनकी कहानी का नया संग्रह 'शादी का जोकर' पर है। मेरा मानना है कि बिस्मिल्लाह जी की कहानियाँ औपन्यासिक फलक लिए हुए हैं। उनका मानस उपन्यास लिखने में ज्यादा सुकूनदेह महसूस करता है।
अंक में सम्पादकीय कई गंभीर विषय को लेकर चलता है और अपनी चिन्ता जाहिर करता है। अल्पसंख्यकों को लेकर इन दिनों जो विमर्श चल रहे हैं, उनपर सार्थक हस्तक्षेप करता हुआ सम्पादकीय सुचिंतित तो है लेकिन इसे और व्यवस्थित होना था। अंक के सम्पादकीय पृष्ठ पर ही यह सूचना अंकित है कि अगला अंक साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कृतियों पर केन्द्रित होगा। जिस संकट में यह पुरस्कार इन दिनों है, उसमें अगला अंक और भी दिलचस्प होने की संभावना है।
मेरी सम्मति है कि इस अंक का स्वागत किया जायेगा और वाङ्मय  को हाथों हाथ लिया जायेगा।
                                         
                                          -डॉ रमाकान्त राय,
                                        असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी
                            भाऊराव देवरस राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
                                          दुद्धी, सोनभद्र,
                                     9415696300, 9838952426

शनिवार, 26 दिसंबर 2015

चुनावी कविता- परधानी का चुनाव




एक.

आज क़त्ल की रात पहरुए सावधान रहना।
मुर्गा-दारु-रुपया-पैसा लेकर के वह आएंगे,
साम दाम का अस्त्र थामकर,
दण्ड भेद का गिरह बनाकर; बातों में उलझायेंगे
यह चुनाव परधानी का है
लोकतंत्र की घानी का है
रुपया लेकर वोट माँगने, धमकाने वह आयेंगे
बड़ी जुलुम की रात पहरुए सावधान रहना।
.
धनपशुओं की चाँदी होगी,
मतलबियों का सोना
बहुरूपियों का भेष ही होगा,
आँख खोलकर सोना
यह निर्णय की रात पहरुए सावधान रहना।
.
वोट कहाँ तुम करोगे
मनचाहे को चुनोगे
आज के हीरो तुम होंगे
तुम ही खतरे सूंघोगे
लेकिन वह बहलायेंगे
पाँच साल का अवसर होगा, ससम्मान रहना।
आज कत्ल की रात पहरुए सावधान रहना।

दो.

भौरी-चोखा-दाल है,
चुनाव का कमाल है।
मुर्गा - दारू, रोटी - बोटी,
बिकती धोती और लंगोटी।
साड़ी बाँटें, साया बाँटें,
पोस्टर बैनर घर-घर साटें।
घूमें घर - घर करें प्रचार,
चरण चूमते हाथ पसार।
माई हैं और भौजी हैं,
पत्नी हैं मनमौजी हैं।
लड़ती बहुएँ हैं परधानी,
भइया बनते हैं सेनानी।
पांच साल का मौका,
मारो छक्का - चौका।

-कविवर रमाकान्त राय "छद्मश्री"

सद्य: आलोकित!

श्री हनुमान चालीसा शृंखला : पहला दोहा

श्री गुरु चरण सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनउं रघुबर बिमल जस, जो दायक फल चारि।।  श्री हनुमान चालीसा शृंखला परिचय- #श्रीहनुमानचालीसा में ...

आपने जब देखा, तब की संख्या.