शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2013

कथावार्ता : कथ- हुज्जत की दो कहानियाँ

कुछ कहानियां भोजपुरी-हिंदी भाषी मानस में लम्बे समय से मौजूद हैं। ऐसी कहानियाँ कथ-हुज्जत की तरह कही जाती हैं। आज दो कहानियाँ पेश कर रहा हूँ। आप पढ़ेंगे तो आनन्द से भर उठेंगे। निश्चय कहता हूँ कि इन्हें दूसरों को सुनाने पर विवश हो जायेंगे। अब पढ़िए कहानी। यह लोक में प्रचलित हो गई कहानियां हैं। मैं इनका लेखक नहीं प्रस्तुतकर्ता मात्र हूँ।

                            (१)

                            वर खोजते पण्डीजी


एगो राजा थे। उनकी एक सुग्घर बेटी थी। बेटी जब वियाह के लायक हुई तो उनको उसके शादी की चिन्ता हुई। चिन्ता में डूबे राजा ने पण्डित यानि उपपुरोहित को बुलाया। उन्हें बताया कि बेटी के जोग एक वर खोजिये। पण्डीजी ने कहा- महाराज, इसमें चिन्ता की कवन बात है। हम आजुए से ई काम शुरू कर देते हैं। फिर पण्डीजी सत्तू-पीसान और लोटा लेकर निकल पड़े। वर खोजने। जाते-जाते एक ऐसे राज्य में पहुँचे जहाँ एक राजकुमार का मोंछ-दाढ़ी निकल रहा था और उ अब अकेले ही शिकार का चक्कर में निकलने लगा था। राजा को उसके बारे में शिकायत भी मिलने लगा था। राजा को इस बात की ख़ुशी थी कि बेटा सही राह पर चल रहा है, तो पण्डीजी उस राज्य में पहुँचे। राजा ने नाश्ता-पानी कराया। जब पण्डीजी इस्थिर हुए त राजा ने पूछा- पण्डीजी कैसे कैसे?

पण्डीजी ने बताना शुरू किया- एक राजा हैं। उनकर एगो बेटी हैं। उ जब वियाह जोग भई हैं तो राजा को चिंता ने लेसा है। तब राजा ने हमको बुलाया है। हम गए हैं तो राजा ने हमको कहा है कि बेटी के जोग एक वर खोजिये। तब हमने कहा कि ‘महाराज, इसमें चिन्ता की कवन बात है। हम आजुए से ई काम शुरू कर देते हैं’। फिर हम सत्तू-पीसान और लोटा लेकर निकल पड़े हैं। खोजते-खोजते आपके राज्य में पहुँचे हैं। इहाँ पता चला है कि आपके एगो बेटा हैं, जिनका मोंछ-दाढ़ी निकल रहा है। तब हम हियाँ आये हैं। आपने नाश्ता पानी कराया है और पूछा है कि पण्डीजी कैसे कैसे? तब हमने आपको बताया है कि एक राजा हैं। उनकर एगो बेटी हैं। उ जब वियाह जोग भई हैं तो राजा को चिंता ने लेसा है। तब राजा ने हमको बुलाया है। हम गए हैं तो राजा ने हमको कहा है कि बेटी के जोग एक वर खोजिये। तब हमने कहा कि ‘महाराज, इसमें चिन्ता की कवन बात है। हम आजुए से ई काम शुरू कर देते हैं’। फिर हम सत्तू-पीसान और लोटा लेकर निकल पड़े हैं। खोजते-खोजते आपके राज्य में पहुँचे हैं। इहाँ पता चला है कि आपके एगो बेटा हैं, जिनका मोंछ-दाढ़ी निकल रहा है। तब हम हियाँ आये हैं। आपने नाश्ता पानी कराया है और पूछा है कि पण्डीजी कैसे कैसे? तब हमने आपको बताया है कि एक राजा हैं। उनकर एगो बेटी हैं। उ जब वियाह जोग भई हैं तो राजा को चिंता ने लेसा है। तब राजा ने हमको बुलाया है। हम गए हैं तो राजा ने हमको कहा है कि बेटी के जोग एक वर खोजिये। तब हमने कहा कि ‘महाराज, इसमें चिन्ता की कवन बात है। हम आजुए से ई काम शुरू कर देते हैं’। फिर हम सत्तू-पीसान और लोटा लेकर निकल पड़े हैं। खोजते-खोजते आपके राज्य में पहुँचे हैं। इहाँ पता चला है कि आपके एगो बेटा हैं, जिनका मोंछ-दाढ़ी निकल रहा है। तब हम हियाँ आये हैं। आपने नाश्ता पानी कराया है और पूछा है कि पण्डीजी कैसे कैसे? तब हमने आपको बताया है कि.......

अब फिरो बताएं कि आप बूझ गए।
   (२)

                हनुमान और गणेश की कथा


-एगो हनुमान जी थे।

-एगो हनुमान जी?  हनुमान जी त एकेगो न हैं?

-हाँ भाई, त हम कहाँ कह रहे कि दू गो। हमहूँ त कह रहे हैं कि एगो हनुमान जी।

-अच्छा, आगे कहिये।

-त दूनों जना नहाये गईले।

-दूनों जाना???

-हाँ भाई। तूँ कहानी सुनबा की ना।

-सुनब। बाकी बिना सर-पैर क ना। अब दूनों जाना कहाँ से आ गईलें?

-अरे भाई, साथ में गणेशो जी न लाग गईले।

-त पहिले न कहे के चाही।

-दिखे नहीं न थे।

-कैसे नहीं दिखे?  हेतना बड़ा सूंढ़,  हतहत बड़ा पेट,  आ दिखे ही नहीं??

-अरे भाई,  भगवान जी क माया। कभी दिखें आ कभी अलोपित।

-अच्छा! तब?

-तब तीनों जाना नहा के निकलल लोग।

-तीनों जाना?

-हाँ भाई,  गणेश जी क मूसवा के भुला गईला का।

-अच्छा। जब गणेशे जी ना लउकले,  त मूसवा कईसे लौकाई।

-त चारों जाना वापस लौटे लागल लोग।

-चारों जना? अब ई चौथा कहाँ से?

-अरे, मूसवा क पीछे एगो बिलार न लाग गई।

-हैं?

-, दूनों जना एक जगह बैठ के सुस्ताये न लागल लोग।

-दूनों जना? आ दू जना?  बताईं?  गणेश जी के मूसवा के मरवा दिहली का?

- अरे नहीं, मूसवा,  बिलाई के लखेद न लिया।

-???

-हाँ जी।

-देखिये, जबान संभाल के बात कीजिये।

-का हुआ?

-का हुआ? पूछते हैं। गणेश जी के मूस को कुत्ता कह रहे हैं और पूछते हैं कि का हुआ?

- हम कहाँ कहे?

- ना कहे त का हुआ?  हमको बुझाई नहीं देता है का?  बिलाई को कौन लखेदता है? कुत्ते न!!

- ???

-हाँ, खबरदार, जो मूस को कुत्ता कहा।

(बहुत पहले सुनी कहानी। स्मृति में कुछ इसी तरह रह गई है।)




प्रस्तुति-


 --डॉ. रमाकान्त राय.
३६५ ए/१, कंधईपुर, प्रीतमनगर,
धूमनगंज, इलाहाबाद. २११०११
९८३८९५२४२६ 

बुधवार, 2 अक्टूबर 2013

बनारस पर लिखी गयी दो कविताएँ



हिंदी में बनारस जिस ठसक और नास्टेल्जिक तरीके से आता है वह अनूठा है. इस तरह से कोई अन्य शहर हिंदी में नहीं आता. इलाहाबाद भी नहीं, जिसने हिंदी को बहुत समृद्ध किया है. दिल्ली की खूब चर्चा उर्दू में है. बनारस की हिंदी में. आज दो कविताएँ देखिए, एक कविता हिन्दी के वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह की है. उनके विषय में क्या कहना. आज वे हिंदी में सबसे ख्यातिलब्ध कवि हैं. दूसरी कविता नवनीत सिँह की है. वे अनूठी भाव-भंगिमा के कवि हैं. रक्षाबन्धन पर उनकी एक कविता बहनें हमलोगों ने पढ़ी थी. बनारस पर यह दूसरी कविता यहाँ पेश है.
(मैंने यह दोनों कविताएँ फेसबुक से उठाई हैं. केदारनाथ सिंह इतने बड़े कवि हैं कि उनकी कविताएँ वैसे ही हम सबकी कविताएँ बन गयी हैं. नवनीत सिंह उदीयमान कवि हैं. मेरी मित्र सूची में हैं, तो मेरा अधिकार बनता है कि मैं उनकी दीवार से कविताएँ अपने मकसद के लिए चुन लूँ. वैसे भी फेसबुक पर साझा की जाने वाली चीजें सार्वजनिक कोटि में आ जाती हैं.)

 

                १

बनारस-  केदारनाथ सिंह            

इस शहर में बसन्त
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है

जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्वमेघ पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढ़ियों पर बैठे बन्दरों की आँखों में
और एक अजीब-सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन
तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में बसन्त का उतरना !
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर

इसी तरह रोज-रोज एक अनन्त शव
ले जाते हैं कन्धे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ
इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घंटे
शाम धीरे-धीरे होती है

यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की एक सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी है नाव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से

कभी सई-साँझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भूत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं है

जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्तम्भ के
जो नहीं है उसे थामे हैं
राख और रोशनी के ऊँचे--ऊँचे स्तम्भ
आग के स्तम्भ
और पानी के स्तम्भ
धूँए के
खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्तम्भ

किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्य
शताब्दियों से इसी तरह
ग्ंगा के जल में
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग से
बिलकुल बेखबर !



    २
बनारस - नवनीत सिंह

रांड़, सांढ़ सीढ़ी और संन्यासियों से दूर
वह अस्थायी ठिकानों मे भी
स्थायी की तरह था,
दूर किसी सड़क पर बस का कन्डक्टर
चिल्लाता है बनारस
अपनी गैरमौजूदगी में भी
कुछ पल के लिये
बनारस वहाँ मौजूद रहा

सब कुछ खत्म होने के बाद भी
फिर से शुरू करने की हिम्मत के साथ
बनारस मजबूत दरख्त बना,

बनारस ने उन्हें सींचा
जो निष्कासित हुए थे बागीचों से
उनमें अपार सम्भावनाएं देखी
जो असम्भावित थे दुनिया के लिये

कुम्हार के घड़े की तरह ठोकते हुए
एक दिन बनारस ने उन्हें रगड़ दिया
मजदूर के हाथों मे पड़ी सुर्ती की तरह
झाड़ कर बुहार कर साफ कर
उनकी आत्मा के अतिरेक को


सद्य: आलोकित!

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