साम्प्रदायिकता वर्तमान में सर्वाधिक बार प्रयुक्त होने वाला और कई अर्थों में प्रयुक्त होने वाला पद है. जितना इसके अर्थ में उतार-चढ़ाव आया है उतना शायद ही किसी अन्य पद के. इस अवधारणा को ठीक से समझे जाने की जरूरत है. यहाँ इसी दृष्टि से इस पद को समझने की कोशिश हुई है. आज जबकि उत्तर प्रदेश के कई जिलों में साम्प्रदायिक दंगे फैले हुए हैं, यह लेख शायद इस पद को समझने में हमारी मदद करे. अपनी राय से परिचित जरूर कराईयेगा..
(अ) अर्थ:-
साम्प्रदायिकता ‘सम्प्रदाय’ शब्द का विशेषण
है। ‘हिन्दी शब्दसागर’ में ‘सम्प्रदाय’ के सात अर्थ दिए
गए हैं- ‘‘1. देनेवाला, दाता 2. गुरू परम्परागत उपदेश, गुरूमंत्र 3. कोई विशेष सम्बन्धी मत 4. किसी मत
के अनुयायियों की मण्डली, फि़रका 5. मार्ग, पथ 6. परिपाटी, रीति, चाल 7. भेंट, दान।’’1 हिन्दू धर्मकोश में डॉ0 राजबली पाण्डेय ने सम्प्रदाय का
अर्थ दिया है- ‘’गुरू परम्परागत अथवा आचार्य परम्परागत संघटित संस्था। भरत के
अनुसार शिष्ट परम्परा प्राप्त उपदेश ही सम्प्रदाय है। इसका प्रचलित अर्थ है ‘गुरू परम्परा से सदुपदिष्ट व्यक्तियों का समूह।’’2 वामन शिवराज आप्टे के ‘संस्कृत- हिन्दी कोश’ में भी इसी से मिलता-जुलता व्युत्पत्तिपरक अर्थ दिया गया
है- ’’(सम्+प्र+दा+घं) 1.शिक्षा
की विशेष पद्धति, 2. धार्मिक
सिद्धान्त जिसके द्वारा किसी देवता विशेष की पूजा बतलाई जाय, 3. प्रचलित प्रथा, प्रचलन।’’3 इसी से मिलते जुलते अर्थ हिन्दी विश्वकोश में
दिए गए हैं।4
सम्प्रदाय का प्रचलित अर्थ एक मत विशेष को मानने वाले
समुदाय से आकर रूढ़ हो गया है। इस रूढ़ अर्थ में बँधकर इसने एक वाद का रूप ग्रहण
कर लिया है- ’’जब कभी
सम्प्रदायवाद, साम्प्रदायिकता,
सामुदायिक दृष्टिकोण शब्दों का प्रयोग किया
जाता है तब इनका अर्थ दो सम्प्रदायों में विद्यमान विद्वेष, तनाव, सन्देह अथवा
संघर्ष के भाव को व्यक्त करना होता है। इस प्रकार का विद्वेष अथवा तनाव धर्म,
भाषा अथवा प्रजाति के तत्त्वों पर आधारित होता
है। भारत के संदर्भ में इस शब्द का प्रयोग विशेषतः विभिन्न धार्मिक समुदायों के
बीच अलगाव एवं वैमनस्य के भाव को अभिव्यक्त करता है।’’5
सम्प्रदाय का अंग्रेजी पर्याय Communal है जो ‘समुदाय’ का वाची है। समाजशास्त्र विश्वकोश में ‘‘व्यक्तियों के ऐसे संकलन अथवा संग्रह को समुदाय’’6 कहा गया है ‘‘जिसके सदस्य अपनी प्रतिदिन की क्रियाओं के सम्पादन हेतु एक
सामान्य भू-भाग को सहभागियों के रूप में प्रयोग करते हैं तथा जिनमें ‘हम भावना’ प्रबल रूप में विद्यमान होती है।’’7 समाज से इसके
अन्तर को स्पष्ट करते हुए बताया गया है- ‘‘समुदाय में जहाँ घनिष्ठता और व्यक्तिगतता मिलती है वहाँ समाज में सम्बन्ध
अव्यक्तिगत और लगावरहित होते हैं।’’8
जर्मन भाषा में समुदाय के लिए ‘Geminschaft’ शब्द प्रयुक्त
होता है। सन् 1887 ई0 में जर्मन विद्वान एफ0 टानिज ने अपनी रचना ‘गेमिनशेफ्ट एवं गैसिलशेफ्ट’ में इस शब्द की अवधारणा प्रस्तुत की और इसकी
विशिष्टताओं को रखा। ‘‘टानिज ने
घनिष्ठता, स्थायित्व तथा समाज में
एक दूसरे की प्रस्थिति के स्पष्ट बोध पर आधारित सामाजिक सम्बन्धों के ताने-बाने
द्वारा बने समूह के लिए इस अवधारणा का प्रयोग किया। इन विशेषताओं से युक्त समूह के
सदस्य जीवन में आने वाले दुःखों एवं सुखों को हँस-मिलकर बाँट लेते हैं।’’9
आशय यह कि साम्प्रदायिकता एक अवधारणा है जो समुदायों के
संघर्ष एवं टकराव के कुछ अन्तर्निहित मूल्यों के कारण सिद्धान्त रूप में आती है।
यह एक वैश्विक समस्या है लेकिन ‘‘आधुनिक भारत के
इतिहास में साम्प्रदायिक समस्या का अर्थ है विभाजन से पूर्व जनसंख्या के 26 करोड़
हिन्दू समुदाय का लगभग 9 करोड़ 40 लाख मुस्लिम समुदाय के साथ सम्बन्धों का
विश्लेषण।’’10 भारत चूँकि कई
धर्मों एवं समुदाय के लोगों का देश है अतः लोगों का आपसी सम्पर्क सद्भाव एवं टकराव
की गतिविधियों से संचालित होता रहता है। भारत के दो प्रमुख सम्प्रदायों हिन्दू एवं
मुलसमानों का आपसी सम्पर्क इन्हीं सद्भाव एवं टकराव से आधारित सम्बन्धों पर टिका
है। उनके सम्पर्क के लगभग 1300 वर्ष पूरे हो रहे हैं। उनके आपसी सम्पर्क के टकराव
पक्ष के मन्तव्यों का विश्लेषण करते हुए सदैव यह तथ्य उभर कर आता रहा है कि
समुदायों और उनके नेतृत्व द्वारा विपरीत समुदाय के लोगों के प्रति किए गए
दुर्भावनापूर्ण कृत्य तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक परिस्थितियों की उपज थे। ‘‘यह ऐतिहासिक तथ्य है कि ब्रिटिश साम्राज्य के स्थापना के
पूर्व भारत के दो प्रमुख समुदायों- हिन्दू और मुस्लिम- में साम्प्रदायिक संघर्ष के
उदाहरण नहीं मिलते।’’11 साम्प्रदायिक
समस्या एक आधुनिक परिघटना है। ऐसा नहीं है कि मध्ययुगीन काल में साम्प्रदायिक
समस्या नहीं थी। ‘‘साम्प्रदायिक
तनाव मध्यकाल में भी मिलते हैं पर साम्प्रदायिक राज्यनीति का उदय उपनिवेशवाद के
दौरान हुआ।’’12 जब
साम्प्रदायिकता की चर्चा होती है तो अनिवार्य रूप से राजनीति के लिए धर्म के हिंसक
इस्तेमाल का मामला प्रभावी होता है। हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों का आरम्भिक सम्पर्क
एवं उनके क्रमिक विकास के अध्ययन से इसे समझा जा सकता है।
(ब) परिभाषा:-
साम्प्रदायिकता एक समुदाय विशेष के लोगों के लिए इस विश्वास
पर आधारित अवधारणा है कि ‘‘किसी खास धर्म को
मानने वाले लोगों के सामाजिक, आर्थिक एवं
राजनीतिक हित भी समान होते है। यह वही धारणा है जो भारत में हिन्दू, मुसलमान, ईसाइयों और सिखों को अलग-अलग समुदाय मानती है, जिनका निर्माण एक दूसरे से अलग-थलग और बिल्कुल
स्वतन्त्र रूप से हुआ है।’’13 साम्प्रदायिकता को परिभाषित करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार
एवं विचारक विपनचन्द्र ने भी इसी तरह के विचार प्रकट किए हैं- ‘‘साम्प्रदायिकता का आधार ही यह धारणा है कि
भारतीय समाज कई ऐसे सम्प्रदायों में बँटा हुआ है जिसके हित न सिर्फ अलग हैं बल्कि
एक दूसरे के विराधी भी हैं। साम्प्रदायिकता के जन्म के पीछे का विश्वास यह भी है
कि राजनीतिक और आर्थिक से लेकर सामाजिक और सांस्कृतिक इरादों के लिए लोगों को
सिर्फ धर्म की रस्सी से ही बाँधकर आँका जा सकता है। दूसरे शब्दों में अलग-अलग
समुदायों के हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई सिर्फ़ धार्मिक ही नहीं बल्कि धर्म
से परे मामलों में भी एक निश्चित समूह की तरह आचरण करेंगे क्योंकि उनका धर्म एक
है।’’14 गोपीनाथ कालभोर साम्प्रदायिकता पर चर्चा करते हुए इस वृत्ति
में विध्वन्सक एवं दंगाई होने को भी शामिल करते हैं- ‘‘समूहों के हितों के बीच होने वाले टकराव का रूप जब
विध्वन्सक और दंगाई हो जाय तो तब वह साम्प्रदायिक कहलाता है।’’15
एक अवधारणा के रूप में
साम्प्रदायिकता के स्थापित होने के पीछे इसकी सुगठित एवं व्यवस्थित विचारधारा है।
इसके स्वगठित सिद्धान्त हैं जो कई ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक मिथकों पर आधारित हैं और इस भावना के
प्रचार-प्रसार में इन मिथकों का पर्याप्त योगदान स्वीकार किया जाता है।
साम्प्रदायिकता दो या दो से अधिक समुदायों के टकराव एवं संघर्ष के आधार पर
फलती-फूलती है। इस प्रक्रिया में वह हिंसक हो उठती है। साम्प्रदायिक हिंसा के
लक्षणों पर लिखते हुए राम आहूजा लिखते हैं- ‘‘साम्प्रदायिक हिंसा में दो विभिन्न धर्मों से सम्बद्ध लोग
सम्मिलित होते हैं जो एक दूसरे विरूद्ध गतिवान हो जाते हैं तथा एक दूसरे के प्रति
दुश्मनी, भावनात्मक क्रोध, शोषण, सामाजिक भेदभाव
तथा सामाजिक उपेक्षा से पीड़ित होते हैं। एक सम्प्रदाय की दूसरे के प्रति एकता उच्च
कोटि के तनावों एवं ध्रुवीकरण के बीच बनी हुई है। आक्रमण के लक्ष्य ‘शत्रु’ समुदाय के सदस्य
होते हैं। सामान्यतः साम्प्रदायिक दंगों के दौरान कोई नेतृत्व नहीं होता जो कि
दंगे की स्थिति को रोक सके या नियन्त्रित कर सके।’’16
साम्प्रदायिकता धार्मिक, भाषाई एवं नृतत्वीय आधारों पर अस्तित्व में आती
है जो राजनीति के चक्कर में पड़कर विकसित होती है। राम पुनियानी ने साम्प्रदायिकता
को राजनीति की घिनौनी हरकतों का परिणाम कहा है। उनके मत में साम्प्रदायिकता का एक
भयानक सच साम्प्रदायिक हिंसा है जो ‘‘समाज में गहराई से पैठी सड़न की अभिव्यक्ति है। साम्प्रदायिक राजनीति सभी
सामाजिक पहचानों पर धर्म का मुखौटा लगा देती है।’’17 साम्प्रदायिकता पर अपनी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए वे लिखते
हैं- ‘‘साम्प्रदायिकता के कई
पहलू हैं और इसके बारे में कई मत हैं। एक आम मत यह है कि साम्प्रदायिकता
सम्भ्रान्त लोगों की राजनीति है लेकिन इसे समाज के बड़े वर्गो को इकठ्ठा करके
निष्पादित किया जाता है। ये वर्ग इस विश्वास के साथ इसमें हिस्सा लेते हैं कि यह
धर्म और पुरानी परम्परा द्वारा पवित्र मानी गई व्यवस्था को बचाने के लिए सामूहिक
प्रयास है। इसका उद्देश्य सम्भ्रान्त वर्ग की राजनीतिक एवं सामाजिक आकांक्षाओं को
पूरा करना होता है। इसकी सफलता इसके आकर्षण पर निर्भर करती है। शुरूआत इस आधार पर
होती है कि एक धर्म के अनुयायियों के हित एक समान होते हैं।.......इसका उग्र रूप
उस समय सामने आता है जब यह कहा जाता है कि एक समुदाय के लिए दूसरे धार्मिक समुदाय
के हितों के विरोधी होते हैं।’’18 साम्प्रदायिकता के भाषाई एवं नृतत्वीय आधार कम दिखते हैं-
धार्मिक आधार अधिक। धार्मिक आधार पर भावनाओं को आसानी से उभारा जा सकता है।
(स) प्रकृति:-
भारत में विदेशी आक्रान्ताओं में मुसलमान इस अर्थ में अन्य
से अलग थे कि उन्होंने संस्कृति के स्तर पर स्वयं को हिन्दुत्व से पृथक् रखा लेकिन
ब्रिटिश उपनिवेश का भारत में स्थापित होना इस अर्थ में और भी विशिष्ट है कि
अंग्रेजों ने कभी भी भारत को अपनी मातृभूमि नहीं माना। उन्होंने इस देश का न सिर्फ
अपने आर्थिक हितों के लिए दोहन किया अपितु धार्मिक आधार पर भी शोषण करने की कोशिश
की। भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना ने लगभग एक हजार वर्ष के भारतीय समाज की
संरचना में व्यापक उथल-पुथल किए। ज्ञान-विज्ञान, तकनीक, सभ्यता, औपनिवेशिक यूरोपीय शक्तियों द्वारा अंग्रेजों
एवं अन्य औपनिवेशिक यूरोपीय शक्तियों ने सोए हुए भारतीय समाज के अन्तस में चेतना का नवसंचार किया। अंग्रेजों का आगमन
भारतीयों के लिए वैसा ही कल्याणकारी प्रतीत हुआ जैसा लगभग 7वीं-8वीं शताब्दी में
इस्लाम के आगमन पर हुआ था। हिन्दू समुदाय ने इस पश्चिमी सभ्यता के तत्त्वों को
अपेक्षाकृत पहले अंगीकृत किया एवं तमाम सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक सुधार के आन्दोलन चलाए। हालांकि
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के मन्सूबे ख़तरनाक थे लेकिन पुनर्जागरण की धारा एवं विजेता
की नीति ने इस समाज को नवीन संसार के रूबरू किया। अंग्रेजी सत्ता बिना किसी बड़े
प्रतिरोध के एक बड़े भू-भाग पर राजनीतिक रूप से स्थापित होती जा रही थी। 1857ई0 के
प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में हिन्दुओं एवं मुसलमानों के सम्मिलित आन्दोलन एवं
अन्तिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफ़र के नेतृत्व में पुनः एक जुट होने की आकांक्षा
ने अंग्रेजी सत्ता को नई नीतियां बनाने के लिए प्रेरित किया।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी और 1858 ई0
के बाद अंग्रेजी राज के सीधे प्रशासनिक नियंत्रण में अंग्रेजों ने महसूस किया कि
हिन्दुओं और मुसलमानों की एकता को तोड़कर ही शासन को न सिर्फ़ व्यवस्थित किया जा
सकता है अपितु सुचारु रूप से चलाया भी जा सकता है। अतः उन्होंने ‘फूट डालो और राज्य करो’ की नीति का अनुसरण किया। साम्प्रदायिकता इसी नीति का परिणाम
थी।
वस्तुतः ‘‘साम्प्रदायिकता एक जटिल परिघटना है। इसे सिर्फ समसामायिक,
सामाजिक और राजनीतिक सन्दर्भो में ही नहीं समझा
जा सकता। इसकी एक ऐतिहासिक, मध्यकालीन एवं
आधुनिक पृष्ठभूमि है।’’19 इस जटिलता को समझने के लिए आधुनिक पृष्ठभूूमि को समझने एवं
वास्तविकताओं का उद्घाटन करने की आवश्यकता है। साम्प्रदायिकता के अपने मानदण्ड हैं।
वास्तव में ‘‘साम्प्रदायिक
राजनीति सामान्य जनचेतना के माध्यम से काम करती है। यह चेतना ‘दूसरे’ समुदाय के बारे में अवचेतन में पनप रहे विचारों से निर्मित होती है। राजनीतिक
संगठनों का महत्वपूर्ण वर्ग कुछ चुनी हुई प्रथाओं और इतिहास की कुछ घटनाओं/पहलुओं
को चुन लेता है। और बार-बार उनका राग अलापता रहता है और ‘दूसरे’ समुदाय की
विशिष्ट छवि बना लेता है।’’20
साम्प्रदायिकता का उदय किसी घटना
या कारक के धार्मिक, क्षेत्रीय,
राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक अभिरूचि
पर निर्भर करता है। अपना हित साधने के लिए एक समुदाय लगातार इस भावना का समुचित
पोषण समुदाय के अन्य लोगों में करता रहता है और इस घटना के निहितार्थ उद्घाटित
करता है। इन निहितार्थों में अनिवार्य रूप से यह अपील छिपी होती है कि घटना का
सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव किन वजहों से है। सकारात्मक प्रभावों को वे अपने
समुदाय के सहयोग के रूप में प्रचारित करते हैं जबकि नकारात्मक प्रभावों को ‘दूसरे’ समुदाय की कुटिलता एवं षड्यन्त्रों का परिणाम मानते हैं।
साम्प्रदायिक शक्तियाँ अपने कार्यों
को वैधानिक आधार प्रदान करने के लिए तथ्यों का स्वैच्छिक उपयोग करती हैं, उन्हें मिथकीय रूप देती हैं ताकि भावनाओं को
उग्र रूप दिया जा सके। वे ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करती हैं, धार्मिक, सांस्कृतिक कुरूपताओं के चित्र खींचती हैं और अपना लक्ष्य
साधती हैं- ‘‘साम्प्रदायिक
संगठनों का विकास पथ बहुत जटिल है। आज हम जो देख रहे हैं वह एक लम्बी प्रक्रिया का
परिणाम है, जिसके अन्तर्गत राजनीति से प्रेरित विश्वासों को ‘सामाजिक जनचेतना’ में बदल दिया जाता है। यही सामाजिक समझ बन जाती है जो समाज
के प्रमुख वर्गों और इसके बाद दूसरे वर्गों की सोच को दिशा देती है। साम्प्रदायिक
चिन्तन प्रक्रिया के विकास का अपना एक तर्क ‘लाजिक’ होता है।
कालान्तर में विवेकपूर्ण और वैज्ञानिक समझ को पीछे धकेल दिया जाता है।
साम्प्रदायिक समझ न केवल हावी हो जाती है बल्कि सामाजिक व्यवहार को नियन्त्रित
करती है यही व्यवहार अपने बदतर रूप में साम्प्रदायिक हिंसा का कारण बनता है।’’21
साम्प्रदायिकता अपने मूल रूप में
वह अवधारणा है जो निश्चित मानकों पर सुव्यवस्थित एवं सुचिन्तित तरीके से निर्मित
होती है।
(द) साम्प्रदायिकता के
मिथक:-
‘‘साम्प्रदायिकता को समझने में छद्म चेतना की संकल्पना की
अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।’’22 इस अवधारणा के कुछ मिथक हैं, जिन्हें
साम्प्रदायिक शक्तियाँ इतिहास, समाज, संस्कृति के तत्त्वों से निर्मित करती हैं।
मिथक उन विश्वासों पर आधारित होते हैं, जिनमें सत्य की छाया मात्र होती है। आभासी
रूप में वे सत्य प्रतीत होते हैं लेकिन वास्तव में सत्य होते नहीं। साम्प्रदायिक
शक्तियाँ इन मिथकों को गढ़ते हुए इतिहास, धर्म सामाजिक व्यवहार सांस्कृतिक विशिष्टताओं का प्रचुर उपयोग करती हैं। वे यह
मानकर चलती हैं कि ‘‘मुस्लिम शासन
हिन्दुओं पर अत्याचार और अपमान का युग था। उनका कहना है कि आज जब हिन्दुओं के पास
राजनीतिक एकाधिकार है तो उन्हें बदला लेना चाहिए। ‘‘दूसरी ओर मुस्लिम साम्प्रदायिकतावादी मानते हैं कि मुस्लिम
काल भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग है, मुसलमानों के आने से पहले अन्धकार था और भारतीय भद्दे और असभ्य थे। मुसलमानों
ने उनको सुसभ्य और सुसंस्कृत बनाया।’’23 साम्प्रदायिकता के मिथकों को गढ़ते हुए सदैव इस बात को
दुहराया जाता है कि हमारे वर्तमान की दुर्दशा के लिए उत्तरदायी हमारा अतीत है। इस
अतीत की संरचना का बेहद सावधानी से गठन करते हुए ऐसी अवधारणाएं प्रस्तुत की जाती
हैं, जिनसे न सिर्फ अपने समुदाय में श्रेष्ठता बोध भरा जाता है अपितु विरोधी
समुदाय को हीन बताने की पुरजोर कोशिश होती है। ‘‘साम्प्रदायिक लोग यह दावा करते हैं कि वे भारतीय संस्कृति
के संरक्षक और झण्डाबरदार हैं।.......हिन्दू, मुसलमानों और ईसाइयों के बीच सांस्कृतिक संवाद की कोई गुंजाइश
नहीं है क्योंकि इनका सांस्कृतिक धरातल अलग है और परिभाषा के हिसाब से भी इनके
धर्मों के चरित्र अलग-अलग हैं।’’24
साम्प्रदायिक शक्तियाँ इतिहास के कुछ शासकों एवं
आक्रान्ताओं यथा, मुहम्मद बिन
कासिम, महमूद गजनवी, मुहम्मद ग़ोरी, बाबर, औरंगजेब आदि को
खलनायकों के रूप में चित्रित करती हैं और इनके प्रतिरोधकर्ता हिन्दू शासकों को
मसीहा। महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चैहान, शिवाजी आदि शासकों को हिन्दुओं का प्रतिनिधि
बताया जाता है और इस सिद्धान्त को स्थापित किया जाता है कि दोनों समूहों के आपसी
सम्बन्ध इसी प्रकार टकराव से ही आगे बढ़े हैं। ठीक इसी तरह इसके विपरीत भी तर्क गढ़े जाते हैं और हिन्दू शासकों को खलनायक या
कायर बताने वालों की संख्या भी कम नहीं है। यह एक दूसरा पहलू भी है।
एक विचारधारा के रूप
में क्रमगत विकसित इस अवधारणा की स्थापना के लिए बहुत सावधानी से बातें
रखीं जाती हैं। राम पुनियानी ने अपनी पुस्तक ‘साम्प्रदायिक राजनीति : तथ्य एवं मिथक’ में क्रमवार प्रश्नोत्तर रूप में इन मिथकों एवं
उनकी वास्तविकताओं को उद्घाटित किया है। वस्तुतः ‘‘साम्प्रदायिकता सामाजिक यथार्थ को संकल्पना देना नहीं है,
अपितु इसकी छद्म चेतना है।’’25
(ई) कारण, उद्भव एवं
विकास:-
साम्प्रदायिकता एक जटिल अवधारणा है जिसके कारणों एवं
उत्पत्ति का विश्लेषण भी जटिल है। चूंकि ‘‘साम्प्रदायिकता यथार्थ की आंशिक दृष्टि नहीं थी जो केवल साम्प्रदायिक पक्ष को
देखती थी, राष्ट्रीय पक्ष को नहीं;
क्योंकि यथार्थ का कोई साम्प्रदायिक पक्ष था ही
नहीं। यह तो यथार्थ को देखने का गलत दृष्टिकोण था। अतः उपनिवेशवाद और भारतीयों के
बीच वस्तुगत विरोध राष्ट्रीय आन्दोलन का यथार्थ कारण था, किन्तु हिन्दू-मुस्लिम विरोध का कोई यथार्थ आधार न होने के
कारण साम्प्रदायिकता का यथार्थ कारण नहीं था।’’26
साम्प्रदायिकता के प्रमुख कारकों में धर्म अनिवार्य तत्त्व
है। धर्म में भावना का पुट होता है और यह व्यक्ति के जीवन को गहरे प्रभावित करता
है। माक्र्स ने धर्म के प्रभावों के आकलन से ही यह निष्कर्ष दिया था कि धर्म जनता
के लिए अफ़ीम है। भारत के दो प्रमुख समुदाय हिन्दू और मुसलमानों का धर्म अपने
व्यवहार एवं सिद्धान्त रूप में विरोधी प्रतीत होता हैं। अतः इसके आधार पर भावनाओं
को उग्र रूप देना सरल होता है। गाँधी जी धर्म के इस महत्व को पहचानते थे तभी
उन्होंने तुर्की में उठे खि़लाफ़त मुद्दे को स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए उपयोग
करना चाहा और किया। लेकिन सभी विद्वान इस बात पर एकमत हैं कि ‘‘धर्म साम्प्रदायिकता का कारण नहीं है (जैसा कि ‘भारत : एक खोज’ में जवाहरलाल नेहरू ने माना है, ‘‘साम्प्रदायिक झगड़ों का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं, हालांकि धर्म इन मुद्दों का बहाना बन जाता है।’’)
और साम्प्रदायिता को भी धर्म में कोई ख़ास
दिलचस्पी या उससे लेना-देना नहीं है मगर यह भी सच है कि धार्मिक मतभेदों को
साम्प्रदायिक अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल करते हैं और धर्म से राजनीतिक हित
साधते हैं। इसके अलावा धर्म से उनका कोई रिश्ता नहीं है।’’27 पूर्व
प्रधानमन्त्री इन्द्रकुमार गुजराल भी मानते हैं- ’’लोगों को यह बताने की जरूरत है कि धार्मिक रिवाजों का पालन
साम्प्रदायिकता नही है लेकिन राजनीति के हथियार के रूप में धर्म का उपयोग निश्चित ही साम्प्रदायिकता
है। व्यक्तिगत स्तर पर आत्मिक अनुभव साम्प्रदायिकता है।........प्रत्येक प्रथा जो रुढ़िवाद
और फूटपरस्ती को बढ़ावा दे, वह निश्चित तौर पर साम्प्रदायिक है। प्रत्येक धार्मिक
व्यक्ति साम्प्रदायिक नहीं होता, मगर प्रत्येक
साम्प्रदायिक व्यक्ति धर्म का चोला जरूर पहनता है। मुश्किल इस बात की है कि वे लोग
भी जो अपने को धार्मिक कहते हैं वह भी यह बताने में असमर्थ हैं कि कहाँ धार्मिकता
समाप्त होती है और साम्प्रदायिकता शुरु होती है।’’28 साम्प्रदायिक
शक्तियाँ इसी अभेद दिखने वाले स्वरूप को अपने लिए इस्तेमाल करती हैं क्योंकि ‘‘धर्म साम्प्रदायिकता का मूल कारण नहीं है,
यह केवल औजार है। साम्प्रदायिकता के मूल में
राजनीति है।’’29 यह ‘‘एक आधुनिक परिघटना है जो दो प्रमुख सम्प्रदायों
के अभिजात वर्ग के बीच राजनीतिक सत्ता और आर्थिक प्रतिस्पर्धा के कारण पैदा हुई
है।’’30
अंग्रेजी शासन ने मध्यकालीन सामन्ती व्यवस्था के जड़ समाज
में प्रतिस्पर्धा का भाव भरा। राजनीतिक एवं आर्थिक संरचना में मूलभूत परिवर्तन
हुए। मध्यकालीन दरबारी व्यवस्था में जातिगत श्रेष्ठता, योग्यता का मानदण्ड होती थी और राजा के लिए
लड़नेवाले/वफ़ादार लोग उच्चपदों पर आसीन थे। अंग्रेजी व्यवस्था में शासन कार्य के
लिए कार्यपालिका, विधायिका एवं
न्यायपालिका की पृथक् संकल्पना आई, जिसे सुचारू रूप से चलाने के लिए अंग्रेजों ने
भारतीयों की सहायता ली। विधायिका के लिए प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष चुनावों की
प्रणाली आरम्भ हुई। ‘‘चुनावों के
माध्यम से (यद्यपि सीमित मताधिकार आधारित) लोकतान्त्रिक राजनीति की अवधारणा ने
सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर दो प्रमुख सम्प्रदायों में विवाद को जन्म दिया।
इसलिए जब 1883 ई0 में वायसराय कार्यकारिणी परिषद् में पहली बार स्थानीय स्वशासन
बिल प्रस्तुत किया गया तो आधुनिक मुस्लिम सुधारक सर सैयद अहमद ख़ान ने इसका विरोध
किया। इस विरोध का आधार दो सम्प्रदायों के बीच नगरपालिकाओं में सीटों की संख्या के
आवंटन को लेकर था।’’31 यह विरोध ही
साम्प्रदायिकता का बीज रूप सिद्ध हुआ। स्वशासन बिल के इस ‘‘सीमित लोकतान्त्रिक पहलकदमी ने विभिन्न जातियों और समुदायों
के अभिजात वर्ग के बीच द्वन्द्व उत्पन्न किया। मुस्लिम शुराफ़ा (अभिजात) का
प्रतिनिधित्व करने वाले सर सैयद ने इस द्वन्द्व को समझा और विधान परिषद् में बिना
किसी लाग-लपेट के व्यक्त किया। लेकिन उनकी ये आशंकाएं व्यक्तिगत नहीं थी बल्कि
अल्पसंख्यक सम्प्रदाय के अभिजात वर्ग की थीं। अल्पसंख्यकों को हमेशा यह आशंका रहती
है, जो कुछ स्वाभाविक भी है,
कि बहुसंख्यक समुदाय के प्रभुत्व में उन्हें एक
ओर सत्ता में उचित हिस्सा नहीं मिलेगा और दूसरी ओर उनकी धार्मिक सांस्कृतिक
परम्पराएं हमले का शिकार होंगी। बहुसंख्यक समुदाय उस पर अपनी संस्कृति थोपेगा। यही
आशंका अन्ततः पाकिस्तान निर्माण का आधार बनी।’’32 यह
साम्प्रदायिकता के उत्पत्ति का प्रारम्भिक आधार था, जो आगामी वर्षों में और
प्रभावी होकर उभरा। राजनीतिक प्रतिनिधित्व के प्रश्न पर सदैव यह द्वन्द्व बना रहा
जिसे अंग्रेजी सरकार अप्रत्यक्ष तौर पर प्रोत्साहित करती रही। कालान्तर में
प्रत्येक लोकतान्त्रिक सुधारों एवं चुनावों मे यह द्वन्द्व मजबूत होता गया जिसकी
राजनीति आगे चलकर मुस्लिम लीग एवं मुहम्मद अली जिन्ना ने की।
1909 ई0 के मार्ले-मिण्टो सुधारों की भूमिका में
हिन्दू-मुसलमान साम्प्रदायिकता के प्रारूप निर्मित करने में सफल हो गए थे। 1905 ई0
में बंगाल का विभाजन एवं सामूहिक विरोध से बौखलाए लार्ड मिण्टो ने कांग्रेस की
राजनीति को विफल करने के लिए प्रयास शुरू कर दिए थे। उसने आगा खाँ ने नेतृत्व में
एक 35 सदस्यीय प्रतिनिधिमण्डल को आश्वासन दिया था कि- ‘‘भविष्य में किसी भी राजनीतिक एवं सांविधानिक परिवर्तन में
मुसलमानों की इस देश के इतिहास और राजनीति में अहम् भूमिका का पूरा ध्यान रखा
जाएगा।’’33 उसने ‘पूरा ध्यान’ रखते हुए 1909 ई0 के सांविधानिक सुधारों में मुसलमानों को
आवश्यकता से अधिक प्रतिनिधित्व दिया। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह कि इन सुधारों में
पृथक् चुनाव मण्डल बनाए गए जिस पर 1918 ई0 में प्रकाशित हुई भारतीय संवैधानिक
सुधारों की रिपोर्ट में कहा गया- ‘‘यह (पृथक् चुनाव
मण्डल) इतिहास की शिक्षा के विरूद्ध है। यह धर्मों तथा वर्गों को जीवित रखता है,
जिससे ऐसे शिविर अस्तित्व में आते हैं जो एक
दूसरे के विरोधी होते हैं और उनमें एक नागरिक के रूप में सोचने की शक्ति प्रदान
नहीं करते, अपितु पक्षपाती बनने को प्रोत्साहित करते हैं।’’34 साम्प्रदायिक
प्रतिनिधित्व देकर अलगाववाद एवं वैमनस्यता का यह कृत्य अंग्रेजी सरकार ने सिखों को
1919 ई0 में एवं 1935 ई0 में ‘‘हरिजनों, भारतीय ईसाइयों, यूरोपियों तथा एंग्लो-इण्डियनों’’35 के साथ भी करती
रही।
1935 ई0 के अधिनियम में तो ‘‘साम्प्रदायिक तथा अन्य वर्गों को पृथक् प्रतिनिधित्व दिया
गया। अधिनियम के मतदातामण्डल ‘साम्प्रदायिक
निर्णय’ ¼Communal awards½ तथा ‘पूना समझौते’ के अनुसार नियत
किए गए।’’36 इसके दूरगामी
परिणाम हुए। इस अधिनियम के प्रति कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग दोनों ने असन्तोष प्रकट
किया। कांग्रेस साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व को लेकर असन्तुष्ट थी और जिन्ना मुस्लिम
हितों की अनदेखी का आरोप लगा रहे थे। ’’बंगाल के मुख्यमंत्री फ़जल-उल-हक ने कहा था कि ‘‘न तो यह हिन्दू राज्य है और न ही मुस्लिम राज है।’’37 इस अधिनियम ने
साम्प्रदायिकता के आधार को मजबूत किया जिसकी भयानक परिणति साम्प्रदायिक दंगों एवं
देश विभाजन में हुई। स्वतन्त्रता संघर्ष के दौरान साम्प्रदायिकता के विकास को असगर अली इंजीनियर ने अपनी पुस्तक ‘भारत में साम्प्रदायिकता : इतिहास और अनुभव’
में विस्तार से दिखाया है।
साम्प्रदायिकता को धार्मिक विभेद एवं कट्टरता का कारण नहीं
उत्प्रेरक कहा जाता है। धर्म और राजनीति के आपसी गठबन्धन ने राजनैतिक ताकत में
वृद्धि की। मुस्लिम लीग एवं जिन्ना का यह अडि़यल रवैया अधिकांश मुसलमानों का
आकर्षित करता था कि मुस्लिम लीग ही मुसलमानों का सच्चा प्रतिनिधि है। रफ़ीक
ज़कारिया ने अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा है कि जब-जब जिन्ना का दुराग्रह असहनीय
हुआ, उसका डटकर मुकाबला करना चाहिए था न कि उसकी तुष्टि। बँटवारे से तो गृहयुद्ध
बेहतर था। रफ़ीक ज़कारिया कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति को भी साम्प्रदायिकता के
विकास के लिए उत्तरदायी ठहराते हैं।38
राजनैतिक प्रभुत्व एवं अल्पसंख्यक होकर उपेक्षित होने के
खतरे के अतिरिक्त साम्प्रदायिक विचारधारा की उत्पत्ति के कारणों में ‘‘19वीं शताब्दी में सरकारी नौकरियों में
हिस्सेदारी के सवाल ने भी हिन्दू और मुस्लिम अभिजात वर्ग में कटु विवाद पैदा किया।’’39 अंग्रेजों के
आगमन से आर्थिक संरचना में बदलाव आया था। राजदरबारों में उच्च जातियों एवं राजा के
वफादारों को मिलने वाले उच्च पद अंग्रेजी शासन व्यवस्था में उच्च शिक्षा प्राप्त
लोगों को मिलने लगे थे। नौकरशाही में भर्तियों की प्रक्रिया सिफ़ारिश की पद्धति के
ठीक उलट थी और यह लक्षित किया गया था कि अंग्रेजी ज्ञान-विज्ञान के सम्पर्क में
हिन्दू, मुसलमानों से बहुत पहले आ
गये थे जिसका सीधा असर सरकारी नौकरियों में भी दिखा था जब मुसलमानों की अपेक्षा
अधिक मात्रा में हिन्दू पदाधिकारी नियुक्त हुए।
आर्थिक विषमता के कारक और भी थे। मुस्लिम जनसंख्याबहुल
प्रान्तों में शोषक वर्ग का प्रतिनिधित्व हिन्दू जमींदारों के हाथ में था। ‘‘भौगोलिक दृष्टिकोण से पंजाब और बंगाल दोनों ही
प्रान्तों में.......व्यवसाय, व्यापार और वित्तीय
क्षेत्रों में हिन्दू आधिपत्य के कारण मुस्लिम मध्यवर्ग और उच्च वर्ग जो मुख्यतः
भू-स्वामियों का वर्ग था एक तीव्र विद्वेष की भावना से प्रेरित हो रहा था और वह इस
हिन्दू आधिपत्य को समाप्त करने का इच्छुक था।’’40 इसके अतिरिक्त
भू-लगान व्यवस्था भी इस विद्वेष का सहयोगी तत्त्व थी। कई क्षेत्र ऐसे थे, जहाँ
मुसलमान काश्तकारों के जमींदार हिन्दू थे और उस क्षेत्र के व्यापार एवं साहूकारी
पर हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व था। कई जगहों पर इसके विपरीत हिन्दू किसान थे और
मुसलमान जमींदार. किसान इनके शिकंजे में फँसते चले गए और अन्ततः विद्वेषी बने।
बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने उपन्यास आनन्दमठ में इस शोषण का अंकन करने की
कोशिश की है। जनसंख्या का असमान वितरण भी साम्प्रदायिकता के कारकों में परिगणित
किया जाता है।
साम्प्रदायिकता के उद्भव एवं विकास में हिन्दू एवं मुस्लिम
सुधारवादी आन्दोलनों का भी पर्याप्त प्रभाव है। हिन्दू सुधारवादी आन्दोलनों ने
प्रत्यक्ष रूप से स्थानापन्न राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया जो साम्प्रदायिक शक्तियों
के लिए मिथक बन गए। इन सुधारवादी आन्दोलनों में सम्प्रदाय के नेताओं/सुधारकों ने
अपनी दीन-हीन दशा के लिए इतिहास की घटनाओं को उत्तरदायी ठहराया, जिससे मुसलमानों
के प्रति दृष्टिकोण में परिर्वतन आया। गोरक्षा आन्दोलन, नागरी भाषा का विवाद आदि कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे थे, जिन पर
सीधा आक्रमण सम्भव था। उर्दू-हिन्दी का विवाद और अदालतों के काम-काज की भाषा को
लेकर दोनों समुदायों में वैमनस्यता आई।41
साम्प्रदायिकता के परिणाम भयंकर एवं वीभत्स दिखे। हिंसा
इसका आवश्यक पक्ष है। राम आहूजा ने अपनी शोध धारणा व्यक्त की है- ‘‘साम्प्रदायिक हिंसा धर्मान्धों द्वारा भड़काई
जाती है। असामाजिक तत्त्वों द्वारा प्रेरित की जाती है। राजनैतिक सक्रियतावादियों
द्वारा समर्थित होती है। निहित स्वार्थ हितों वाले व्यक्तियों द्वारा वित्तीय
सहायता दी जाती है तथा प्रशासकों की निष्क्रियता से फैलती है।’’42
साम्प्रदायिकता की विचारधारा ने भारत मे एक बड़े समूह को
बाहरी सिद्ध करने का भरपूर प्रयास किया है और उन्हें इसके लिए अभिशप्त बना दिया
है। अल्पसंख्यक होने का बोध उनमें असुरक्षा भाव भरता है, साम्प्रदायिकता इस भाव को प्रौढ़ करती है। यह अलगाववाद को
बढ़ावा देती है। प्रसिद्ध उपन्यासकार काशीनाथ सिंह ने अपने उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ में साम्प्रदायिकता के प्रभाव को एक पात्र के माध्यम से
निम्न शब्दों में अभिव्यक्त कराया है- ‘‘6 दिसम्बर की अयोध्या की घटना की देन क्या है? जो मुसलमान नहीं थे या कम थे या जिन्हें अपने मुसलमान होने
का भाव नहीं था, वे मुसलमान हो गए
रातों-रात। रातों-रात चन्दा करके सारी मस्जिदों का जीर्णोद्धार शुरू कर दिया। देश
की सारी मस्जिदों पर लाउडस्पीकर लग गए। मामूली से मामूली टूटही मस्जिद पर भी
लाउडस्पीकर लग गया। जिस मस्जिद में कभी नमाज नहीं पढ़ी जाती थी उससे भोर और रात
में अजान सुनाई पड़ने लगी। जो नमाज में नियमित नहीं थे वे नियमित हो
गये।.........और सुनिएगा- गाजीपुर, दिलदारनगर, बक्सर, भभुआ, आजमगढ़, अरे! आप तो उधर के ही हैं, सब जानते हैं- इस पूरे इलाके में हिन्दू से
मुसलमान हुए लोगों की कितनी बड़ी तादाद है? वे यह भी जानते
हैं कि हम एक ही घराने के और परिवार के रहे हैं। वे एक जमाने से ठाकुरों-भूमिहारों
के यहाँ बिना किसी भेद-भाव के आते-जाते थे। न्यौता-हंकारी, तीज-त्यौहार साथ मनाते थे। एक ही खटिया-मचिया थी, जिस पर बैठा करते थे। कभी फ़र्क ही नहीं मालूम
पड़ता था दोनों के बीच। लेकिन चीजें बदल गईं उस घटना के बाद।’’43
सन्दर्भ सूची :-
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विश्वकोश, पृष्ठ-46
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10. रामलखन शुक्ल सं0, आधुनिक भारत का
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आधुनिक भारत का इतिहास, पृष्ठ-689
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13. विपिनचन्द्र,
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इंजीनियर, भारत में साम्प्रदायिकता:
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20, राम पुनियानी, साम्प्रदायिक राजनीतिक: तथ्य एवं मिथक, पृष्ठ-17
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भारत में साम्प्रदायिकता: इतिहास और अनुभव,
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33. रामलखन शुक्ल,
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34. बी0एल0 ग्रोवर,
आधुनिक भारत का इतिहास, पृष्ठ-386
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आधुनिक भारत का इतिहास, पृष्ठ-386
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आधुनिक भारत का इतिहास, पृष्ठ-404
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38. रफ़ीक ज़कारिया, बढ़ती दूरियाँ: गहराती दीवारें।
39. असगर अली
इंजीनियर, भारत में साम्प्रदायिकता:
इतिहास एवं अनुभव, पृष्ठ-47
40. रामलखन शुक्ल सं0,
आधुनिक भारत का इतिहास, पृष्ठ-725
41. वीरभारत तलवार,
रस्साकशी।
42. राम आहूजा,
भारतीय समाज, पृष्ठ-247
43. काशीनाथ सिंह,
काशी का अस्सी, पृष्ठ-94
द्वारा- डॉ०
रमाकान्त राय
365 ए 1,
कंधईपुर, धूमनगंज,
इलाहाबाद, २११०११
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