इंजीनियस
बिहार के लोग इंजीनियस हैं, इसमें किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए। बहुत दिनों बाद पटना जाना
हुआ। पटना तेज़ी से बदल रहा है। हर बार पटना जाने पर कोई नई सड़क नया पुल, नई
बिल्डिंग बनती दिख जाती है। पटना मीठापुर बस स्टैंड पर उतर कर मैं पैदल ही पटना जंक्शन
की तरफ बढ़ने लगा। यद्यपि यहाँ टैंपो और ई-रिक्सा वाले बहुतायत हैं, और ऐसा आक्रामक रुख रखते हैं कि नहीं जाने वाले को भी खींच कर गाड़ी में
बैठा लेंगे। पैदल जाने वालों को ऐसी हिकारत भरी नज़रों से देखते हैं जैसे कह रहे
हों, “कितना कंजूस आदमी है, 10 रुपये बचाने के लिए घाम में पैदल जा रहा है”।
पर इनकी नज़रों से नज़र बचा मैं पैदल ही आगे बढ़ने लगा। मीठापुर
से जंक्शन जाने के रास्ते में कई शानदार इमारतें हैं। सबसे पहले है आर्यभट्ट नॉलेज
यूनिवर्सिटी,
उसके बाद फ़ैशन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और फिर कृषि विभाग का नया कार्यालय।
मैं तीनों प्रतिष्ठानों के इन्सपैक्शन के इरादे से चला था।
तभी पीछे से एक मोटरसाइकिल सवार मेरे पास आकर रुका। मुझे लगा
रास्ता पूछ रहा होगा। भटके हुए मुसाफिर को रास्ता दिखाने का पुण्य मैं छोड़ना नहीं
चाहता था,
सो मैं उसकी तरफ लपका।
पास आया तो वो मुझसे पूछने लगा, “कार्बिगाहिया जाना है”?
मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया। उसने कहा चलिये छोड़ देते हैं।
मैं तो ईश्वर के इस करिश्मे से दंग हो गया। बिहार में तो लोग माँगने पर लिफ्ट नहीं
देते यहाँ तो बिना माँगे मिल रहा है। पुण्य करने की इच्छा मात्र से पुण्य का फल
मिलने लगा। मैंने अवसर को दोनों हाथों से लपका और झट से मोटरसाइकिल पर सवार हो गया।
अभी मोटरसाइकिल लुढ़कना ही शुरू हुई थी कि मोटर साइकिल सवार
ने कहा,
“मैं रैपीडो वाला हूँ।”
मैं अभी तक ईश्वर को धन्यवाद ही दे रहा था … उसकी बात
पर ज्यादा ध्यान न देते हुए मैंने ज़ोर से कह दिया- अच्छा !
उसे लगा जैसे मुझे उसकी बात समझ में नहीं आई। वह समझाते हुये
बोला,
“जो भाड़ा पर बाइक नहीं चलता है… हम वही हैं …”
अब मोटर साइकिल थोड़ी रफ्तार पकड़ चुकी थी। और मेरा धन्यवाद
ज्ञापन अभी खतम भी नहीं हुआ था…
ईश्वर की दया पर पूरा विश्वास करते हुए मैंने पूछ लिया, "तो हमसे भी भाड़ा लेंगे ?"
वो बे संकोच सिर्फ इतना बोला, “तो
लेंगे नहीं।"
वह चाहता तो यह भी बोल सकता था की ,आप क्या
नितीश कुमार के भतीजा हैं कि आपसे नहीं लेंगे। अब तक मेरा ईश्वर से मोह भंग हो चुका
था। मैंने भी बेसंकोच कहा, तो हम पैदल नहीं चल जाएँगे। उसने
बेहयाई से मोटर साइकिल रोका और मुझे उतार दिया …
मैं जो बिहार के आधुनिक वास्तुकला का अध्ययन करने निकला था। जबर्दस्ती मानव संसाधन का विद्यार्थी बना दिया गया। बिहारियों के इस इंजीनियस तरीके की तारीफ करता मैं पैदल ही जंक्शन की तरफ़ बढ़ने लगा।
आ
जाई
बिहार में 38 जिले हैं जिनमें 37 में
गन्ने की खेती होती है। यहाँ एक समय में 16 सरकारी चीनी मिलें
हुआ करती थी, आज एक भी नहीं है। बिहार का उत्तर पश्चिमी
क्षेत्र आज भी गन्ने की खेती के लिए जाना जाता है। कहानी तब की है जब मुजफ्फरपुर
का चीनी मिल बंद हो गया था। यहाँ के किसान अपनी गन्ने की फसल लेकर चम्पारण के
प्राइवेट चीनी मिल जाते थे।
मास्टर दीनानाथ बहुत सीधे सरल स्वभाव के
आदमी थे। मास्टरी से रिटायर हो कर गाँव में ही रहने लगे थे। वहीं पुश्तैनी जमीन पर
गन्ने की खेती करवाते थे। गन्ना चम्पारण चीनी मिल ले जाने के लिए उन्होंने एक
ट्रैक्टर भी ले लिया था। गाँव में तब ट्रैक्टर की बहुत शान थी। शंकर जो शहर में
ड्राइविंग करता था, उनके ट्रैक्टर का ड्राइवर बन
गया था। चीनी मिल में गन्ना खरीद का काम तीन-चार महीने ही चलता है। यह समय गन्ना
किसानों के लिए बहुत व्यस्तता का होता है। चीनी मिल के दरवाजे दो तीन दिनों में एक
बार खुलते है। तब तक गन्ने से लदे ट्रैक्टर, बैल गाडियाँ
लंबी लम्बी कतारों में अपनी बारी के इंतज़ार में खड़ी रहती है। ड्राइवर अपनी गाड़ियों
पर ही सोते है घंटा बजने पर गाड़ी आगे बढ़ा लेते है।
हर बार की तरह इस बार भी मास्टर जी के
ट्रैक्टर पर दशहरी गन्ना लाद रहा था। उसका 6 साल का लड़का दिनु गन्ने लदे ट्रैक्टर पर चढ़ गन्ना चूस रहा था और खेल रहा
था। जब शंकर ट्रैक्टर लेकर चला तो उसे मालूम ही नहीं था कि आज वो सिर्फ गन्ना नहीं
ले जा रहा। दिनु खेलते खेलते ट्रैक्टर पर ही सो गया था।
हमेशा की तरह इस बार भी शंकर ट्रैक्टर
कतार में खड़ा कर अपनी बारी का इंतज़ार करने लगा। रात ढली तो ट्रैक्टर पर ही शंकर की
भी आँख लग गई। सुबह किरण फूटने से पहले ही शोर शराबा शुरू हुआ। मिल का दरवाजा खुल
गया था और सब अपनी अपनी गाडियाँ आगे बढ़ा रहे थे। शंकर ने भी अपनी गाड़ी स्टार्ट कि
पर जैसे ही आगे बढ़ा एक चीख़ के साथ ज़ोर की आवाज हुई। कुछ ही देर में वहाँ लोग जुट
गए। शंकर ने पीछे जा कर देखा तो सन्न रह गया। एक बच्चा ट्रैक्टर के चक्के के नीचे
आ गया था। ट्रैक्टर का चक्का उसके पेट पर चढ़ा था। रात को जब शंकर ट्रैक्टर पर सो
रहा था, दिनु शीत से बचने के लिए
ट्रैक्टर के नीचे सो गया। उसका पेट रोड के साथ मिलकर एक हो रहा था। शरीर में प्राण
का एक कतरा भी बचे होने की कोई संभावना नहीं थी।
लेकिन सब
को अपना गन्ना बेचने की जल्दी थी। कोई फालतू चक्कर में पड़ना नहीं चाहता था। देखने
वालों ने पलकें झपकाई , शंकर ने लाश को चादर में लपेट कर
बोरे में डाल दिया। फिर सब कुछ सामान्य रूप से चलता रहा। शाम को जब शंकर गाँव लौटा तब हल्का हल्का अंधेरा हो चुका
था। वह मास्टर जी के पास गया। उनको बुलाकर ट्रैक्टर तक लाया। लाश दिखाई और सब कुछ
कह सुनाया।
मास्टर जी को लगा
जैसे अचानक गाँव की हवा मोटी हो गई हो, या उनके सांस की नलियाँ
सिकुड़ने लगी हो। आंखों के सामने पुलिस, कचहरी, हथकरी और फांसी का फंदा एक साथ नाचने लगे।
शंकर का कंधा पकड़ कर बोले, “बउआ
ई का कईले?” शंकर पहले तो चुप रहा फिर
बोला, “मालिक हम का करती?” फिर मास्टर जी ने वो कहा जिसकी शंकर को उम्मीद नहीं थी, “मर गइल रहे त फेक देते”। शंकर तो यह सोच भी नहीं सकता था कि मास्टर दीनानाथ ऐसा कहेंगे। वह जानता
तो लाश पहले ही ठिकाने लगा आता। शंकर बोला, “मालिक आराम करी, हम देख लेब”। शंकर ने थोड़ा और अंधेरा होने का इंतज़ार किया फिर लाश को पास
ही बह रही बागमती में फेंक आया। इधर दशहरी जो दो दिन से
अपने बच्चे को ढूंढ रहा था, सुबह सुबह
ही मास्टर दीनानाथ के यहाँ आ गया। दिनु को किसी ने मास्टर जी के ट्रैक्टर पर बैठा
देखा था। दशहरी पहले तो मास्टर जी से पूछता-जाँचता रहा, फिर
फफककर रोने लगा।
मास्टर जी अंदर से
डरे हुए थे। भले आदमी को भगवान से ज़्यादा पुलिस का डर होता है। भगवान के डर से सच
बोलता है, पुलिस के डर से झूठ। दीनानाथ दशहरी
से केवल इतना कह पाये ,”रोअ मत,
तहार बेटा आ जाई”।
बेटा नहीं आना था सो नहीं आया। बगल के
गाँव में मल्लाहों को एक बच्चे की लाश मिली। दारोगा दीनदयाल सिंह को खबर मिली। साथ
ही यह भी खबर मिली की दशहरी का बेटा लापता है। किसी चौकीदार ने यह भी खबर दी कि
चम्पारण चीनी मिल में ट्रैक्टर से एक बच्चा कुचला गया। मास्टर जी के चाहने वालों ने
दारोगा को यह भी बता दिया कि आखिरी बार दिनु मास्टर जी के ट्रैक्टर पर दिखा था, और ट्रैक्टर पर उस रात लदनी हुई थी। दारोगा
दीनदयाल सिंह ने एक और एक जोड़कर पूरी कहानी बना ली। फिर बुलेट उठाई और लाश देखने
के बदले जा पहुँचे मास्टर जी के यहाँ। दीनानाथ मास्टर जी भी समझ गए की राज़ अब राज़
नहीं रहा। दारोगा जी को देख कर पहले तो उनका मन हुआ की पीछे के दरवाजे से भाग जाएँ
लेकिन जब तक कुछ फैसला लेते दीनानाथ और दीनदयाल आमने-सामने खड़े थे। दारोगा जी अपनी
स्पष्टवादिता के लिए जाने जाते थे। बात घुमा फिरा कर करने की उनकी आदत नहीं थी या
यूं कहिए कि उनको जरूरत भी नहीं थी। दारोगा दीनदयाल, “मास्टर जी 15 हज़ार लागी”। मास्टर जी
ने भी नहीं पूछा कि 15 हज़ार किस बात
के। बोले, “एतना कहाँ से आई दारोगा जी”। दारोगा दीनदयाल के बस इतना ही कहा, "कहाँ से आई,
वो आप सोचिए”।
मास्टर जी कुछ कहना चाहते
थे तब तक दारोगा जी फिर बोले, “जो पाप किए है उसमें तो आपको पचास हज़ार भी खर्च कीजियेगा तो भी जेल तय है”। पुलिस… कचहरी… हथकड़ी…
जेल… फांसी… मास्टर जी
पसीने से तर बतर होने लगे। दारोगा
दीनदयाल गरजे, “15 हज़ार
में हम आपका वो पाप पी जा रहे है जो ब्रह्मा भी नहीं पचा सकते… काहे की हम दीनदयाल हैं”। अगले दिन मास्टर जी का ट्रैक्टर
बिक गया, कुछ खेत भी। दिनु का श्राद्ध नहीं हुआ, उसके लौटने का इंतजार होता रहा। दशहरी अब भी मास्टर जी से कहता, “मास्टर जी हमार बेटा ना आइल”।
मास्टर दीनानाथ कहते, “आ जाई”।
(केशव उदीयमान रचनाकार हैं। मूलतः बिहार के हैं। मुखर हैं और स्वयम को अभिव्यक्त करना जानते हैं। जिज्ञासु हैं। उनके प्रश्न अध्ययन-मनन और वर्तमान जगत के साहित्यिक सरोकारों से अनिवार्य सम्बद्ध होते हैं। केशव चाहते थे कि 'कथा-वार्ता' में उनकी रचनाएँ प्रकाशित हों। उन्होंने अपने बारे में चंद पंक्तियाँ भेजी हैं- अविकल रख रहा हूँ।
"नाम- केशव, हृदय से कवि हूँ, व्यंग्य में सोचता हूँ, स्वभाव से घुमक्कड़। छपरा जिला घर बा। पिता जी के लिए असकत ( आलस्य) के अलमारी।" - सम्पादक)