आज प्रख्यात साहित्यकार निर्मल वर्मा
का जन्मदिन है। वह हिन्दी गद्य में एक अलग ही तरल व्यवहार के लिए जाने जाते हैं। उनकी
कहानी 'परिन्दे' आधुनिक हिन्दी कहानी का प्रस्थान बिन्दु मानी जाती है। रात का रिपोर्टर, वे दिन, अंतिम अरण्य आपकी प्रसिद्ध औपन्यासिक कृतियाँ
हैं। 'भारत और योरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र की खोज' और ‘धुंध से उठती धुन’ आपकी अन्य
प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।
युवा चिंतक आदित्य कुमार गिरि एक सजग पाठक और सुधी आलोचक हैं।
वह कोलकाता स्थित जयपुरिया गर्ल्स कालेज में हिन्दी के प्राध्यापक हैं। आज उनके द्वारा
चयनित कुछ गद्यांश निर्मल वर्मा के जन्मदिन पर प्रस्तुत कर रहा हूँ। शीघ्र ही निर्मल
वर्मा पर उनका एक लंबा आलेख आप पढ़ सकेंगे।
(मॉडरेटर)
*******************************************
"एक पराए अजनबी को किसी शहर के वासी हमेशा एक 'भीड़'
दिखाई देते हैं, उस भीड़ की लय और अंतर्धारा का
रहस्य सिर्फ उस नगर का वासी ही जानता है। अँग्रेज़ी शासक एक ऐसी सभ्यता से आये थे
जो योरोप की राष्ट्रीय सीमाओं में विभाजित हो चुकी थी.....इसीलिए भारत की सभ्यता
उनके लिए पहेली बनी रही जो बाहर से अलग-अलग मतों, सम्प्रदायों
और जातियों में एक दूसरे से भिन्न होने के बावजूद-अपने भीतर की समग्रता में अखंडित
थी।"
निर्मल
वर्मा 'भारत और योरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र की खोज'
पुस्तक में
*******************************************
"गड़बड़ी दरअसल कहाँ हुई ? ऐसा क्यों हुआ कि वह हिन्दुत्त्व
जो बहुलतावादी अन्तश्चेतना और सहनशीलता के लिए प्रसिद्ध था, एक
ऐसी सभ्यता को अपने भीतर जगह देने में सफल नहीं हो पाया, ओ
समता और भाईचारे के मानवतावादी मूल्यों से मंडित थी ?
अँग्रेज़ों ने उस देश में आकर क्यों बदहवासी और घुटन महसूस की, जहाँ वे किसी मज़बूरी के चलते नहीं बल्कि अपनी मर्ज़ी से आए थे ?
क्या दोनों संस्कृतियों के बीच कभी संवाद नहीं हो सका या औपनिवेशिक
सन्दर्भ के कारण इस संवाद में दोनों संस्कृतियों का केवल निकृष्ट रूप ही एक दूसरे
के सामने आ सका ?
या शायद 'अन्य' को जानने या 'अन्य' से एकाकार होने की यूरोप की अवधारणा में ही
मूलभूत त्रुटि थी ? दुनियाभर में घूम-घूमकर पृथ्वी पर अपनी
अस्मिता को पुष्ट करने के ख़ातिर दूसरी संस्कृतियों को अनुकूलित कर,दूसरी परम्पराओं से अर्थपूर्ण संवाद करना कभी भारत का ढंग नहीं रहा,
लेकिन तब फिर 'अन्य' के
सत्य को जानने का भारतीय ढंग क्या था- उस 'अन्य' को जिसे वह अपने में समाविष्ट न कर सकता हो ?
पाश्चात्य संशयवादियों को दूसरी संस्कृतियों और धर्मों से सम्बन्ध
बनाने का भारतीय ढंग हमेशा ही थोड़ा अवसरवादी और अस्पष्ट जान पड़ा है। उन्हें यह
लगता रहा कि जिस भारतीय परम्परा की तथाकथित समावेशिता कुछ ऐसी है जहाँ 'अन्य' का सीधा-सीधा सामना नहीं किया जाता,उसकी जगह 'अन्य' के साथ कुछ इस
तरह का सम्बन्ध बिठाया जाता है कि येन-केन-प्रकारेण उसे किसी तरह अपनी ही व्यवस्था
की एक निम्न कोटि पर शामिल किया जा सके।
अगर ईसाई मिशनरी हिंदुओं की आस्था को बदल नहीं सके तो इसका कारण यह
नहीं था कि हिंदुओं में ईसा मसीह के संदेश के प्रति कोई प्रतिरोध तहस, बल्कि उन्होंने उस संदेश को अपनी बहुलतावादी आस्था की कोटियों में ही
समाविष्ट कर लिया। यहाँ तक कि खुद ईसा मसीह भी उनके देवी-देवताओं में शामिल कर लिए
गए।
समावेशी तादात्म्य के कारण हिन्दू पश्चिम से वास्तविक संवाद करने
से बचते हुए जान पड़ते हैं, क्योंकि सच्चा संवाद तबतक नहीं हो सकता जबतक
दूसरों का सच उनकी अपनी शर्तों पर उसकी सम्पूर्ण अद्वितीयता में न समझा जाए।
भारतीयों पर अक्सर यह आरोप लगाया गया है कि दूसरी सभ्यताओं के
प्रति अपनी उदासीनता के परिणामस्वरूप ही वे भारतीय संस्कृति और परम्परा की अस्मिता
और नैरन्तर्य बनाये रख सके लेकिन उन्होंने कभी अपने को दूसरे के संदर्भ में
परिभाषित करने का प्रयास नहीं किया।"
निर्मल
वर्मा 'भारत और योरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र की खोज'
पुस्तक में
****************************
"योरोप
ने भारतीय चेतना में जो दरार उत्पन्न की थी-एक हिस्सा परम्परा में डूबा हुआ और
दूसरा अपने को योरोपीय मनुष्य की छवि में ढालने के लिए उत्सुक- उसने एक ऐसी
आत्मछलना को जन्म दिया, जो हिन्दू परम्परावादियों और नव्य
हिंदुओं-दोनों के अंतःकरण को कुतरने लगी।
परम्परावादी अपने को योरोपियों के विरुद्ध स्थापित करना चाहते थे, अपने अतीत को आदर्शीकृत करके, इसके लिए भले ही
उन्हें अपने इतिहास के कुछ अंशों का मिथ्याकरण करना पड़ा हो, जैसा
कि बंकिमचंद्र चटर्जी ने अपने ऐतिहासिक उपन्यासों में किया था।
दूसरी तरफ, 'हिन्दू आधुनिकताकार', अपनी
आत्मछलना से पीछा छुड़ाने के लिए योरोपियों से बढ़कर योरोपीय होना चाहती थी, भारतीय योरोपीय की एक ऐसी नस्ल,जो बाद में भारतीय
राष्ट्रीय आंदोलन में बेहद प्रभावशाली रही और जिसने स्वतंत्रता के बाद भारत पर
शासन किया।
आख़िरकार नेहरू उतने ही हिन्दू-योरोपीय थे, जितने भारतीय पुनर्जागरण की आरंभिक अवस्था के राजा राममोहन राय।
योरोप से प्रतिश्रुत होने पर भारतीय मानस में जो फाँक आई वह आईने
की उस दरार की तरह थी जिसके एक भाग में उस अतीत का आदर्शीकृत प्रतिबिंब था, जो हमेशा के लिए खो चुका था और दूसरे भाग में योरोप की वह विकृत छवि,जो भारत के भावी निर्माण के लिए एक मॉडल की तरह उपयोग में लायी जानेवाली
थी।
भारतीय पुनर्जागरण जहाँ एक ओर आधुनिक हिंदुओं को आत्मसाक्षात्कार
करने का अवसर प्रदान करता था, वहाँ दूसरी ओर स्वयं अपने
आत्म से खंडित होने के लिए विवश भी करता था- आत्मचेतना और आत्मखण्डन दोनों का उत्स
पुनर्जागरण में निहित था।"
निर्मल वर्मा 'भारत और योरोप:
प्रतिश्रुति के क्षेत्र की खोज' पुस्तक में
"मैं
मानता हूँ कि बीसवीं शताब्दी में कम्युनिज्म ही एक ऐसी विचारधारा थी जो मानवीय
आदर्शों का सबसे सुंदर उदाहरण लेकर हमारे सामने आई थी।
समता,आज़ादी,न्याय,लोगों के भीतर आपस में सौहार्द भाव। इससे ज़्यादा सुंदर मानवीय आदर्श और
क्या हो सकते हैं ? और सबसे बड़ा तो यह कि जो सबसे पिसे हुए
लोग हैं,सबसे शोषित लोग हैं,सबसे बेबस
लोग हैं,उन्हें वाणी मिले कि वह अपनी आवाज़ ऊपर उठा सकें।
इतिहास में पहली बार सतह पर रोशनी में उनकी शक्ल दिखाई दी।हंगरी पर,चेकोस्लोवाकिया पर,जब एक मज़दूरों की ही सरकार ने
सोवियत यूनियन ने आक्रमण किया तो मैं सोचने लगा,अगर अमेरिका
आक्रमण करे तो बात समझ में आती है, अमेरिका अगर वियतनाम पर
हमला करे तो कितना ही बुरा क्यों न लगे,वह बात समझ में आती
है,क्योंकि वह एक साम्राज्यवादी देश है।
इस दृष्टि से यह फासिज्म से भी कहीं ज्यादा बुरा है क्योंकि
फासिज्म का अत्याचार तो नङ्गे तौर पर लोग आंखों से देख लेते हैं जबकि कम्युनिज्म
के चेहरे को हम वर्षों तक नहीं पहचान पाते क्योंकि उसके पीछे बहुत ही सुंदर
आदर्शों और उदात्त भावनाओं का नक़ाब पड़ा रहता है।
यह कोई संयोग नहीं था कि 50-60 वर्ष तक
सोवियत संघ में सच को झूठ,न्याय को अन्याय, हर चीज़,रात को दिन कहते रहे और हम उनपर विश्वास करते
गए।"
निर्मल
वर्मा 'भारत और योरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र की खोज'
पुस्तक में
"डॉरोथी
डे की आत्मकथा पढ़ रहा हूँ, लम्बा अकेलापन उसका शीर्षक है।
समूचा जीवन 'जीने का अर्थ' पाने का
बीहड़ प्रयास।
संघर्षमय बचपन, गरीबी में यूनिवर्सिटी के
दिन बिताए। कम्युनिस्ट पार्टी से निराश होकर कैथोलिक धर्म की ओर मुड़ीं और अमेरिका
में पहली बार एक रेडिकल कैथेलिक मजदूर आंदोलन की नींव डाली। उनके समाचारपत्र 'कैथोलिक वर्कर' के इर्द गिर्द अनेक कम्युनिटी सेंटर
स्थापित हुए,मज़दूरों के कम्यून, जहां
आन्दोलन में भाग लेनेवाले कार्यकर्ता एक साथ रहते थे। पहली बार हार्वर्ड में रहकर
मुझे इस तरह के जन-आंदोलनों का परिचय प्राप्त हुआ,जो बीसवीं
शती के आरम्भ में अमेरिका के जनसाधारण, इमीग्रेट लोगों ने
शुरू किए थे।
डॉरोथी
डे की आत्मकथा पढ़ते हुए कैथोलिक धर्म को बहुत निकट से देखने-जानने का मौका मिला-एक
धर्म सम्प्रदाय के रूप में।"
निर्मल वर्मा 'धुंध से उठती
धुन' में
"एक
लेखक के लिए आध्यात्मिक सुरक्षा की इच्छा उतनी ही घातक हो सकती है, जितनी भौतिक सुख पाने की आकांक्षा।
लेखक के लिए हर शरणस्थल एक गढ़हा है, एक बार
उसमें गिरे नहीं कि सृजन का निर्मल आकाश हमेशा के लिए लुप्त हो जाता है।
इस अर्थ में प्रेमचंद एक आदर्श थे,अंतिम
उपन्यास और कहानियों में वह सब शरणस्थलों-गांधीवाद,मार्क्सवाद(जैसा
वह जानते थे) छोड़ते गए।
चेखव की तरह प्रेमचंद को किसी आध्यात्मिक या धार्मिक विकल्प ने कभी
मोहित नहीं किया। यथार्थ-सूखा,क्रूर,निर्मम
भारतीय यथार्थ में ही रमना-खपना उनका धर्म था।
स्मृति कल्पना का अभाव है। हर दिन हम चीज़ों को देखते हैं, उसमें कल्पना नहीं, स्मृति सक्रिय रहती है।"
निर्मल वर्मा 'धुंध से उठती
धुन' में
प्रश्न-
'हिंदी के एक महत्त्वपूर्ण लेखक के रूप में निर्मल
वर्मा हिंदी भाषी समाज के सांस्कृतिक संकट,उसमें साहित्य की
स्थिति और भूमिका के बारे में भी मौलिक ढंग से सोचते रहे हैं।'
निर्मल वर्मा-' एक हिंदी भाषी व्यक्ति केरल
की फ़िल्म न समझ पाए,वह बात तो मुझे समझ में आती है, खुद हिंदी समाज में हिंदी लेखकों या हिंदी फ़िल्मकारों को समझने में आम
जनता को मुश्किल पड़ती है और यह एक गहरे सांस्कृतिक संकट का संकेत है। बांग्ला,
कन्नड़,मलयाली समाज में एक तरह की एकजुटता है,एक तरह की सांस्कृतिक एकात्मकता है जो आपको हिंदी समाज में दिखाई नहीं
देगी।
हिंदी
की खड़ीबोली का साहित्य सिर्फ सौ वर्ष पुराना है। हमारी जड़ें आज गाँव में,बोलियों में हैं। खड़ीबोली उतनी ही थोड़ी सी बाहर की भाषा है,जैसे हमारे लिए कभी अँग्रेज़ी थी।
शायद ही साहित्य की किसी भाषा ने सौ वर्षों में इतना विकास किया हो,जितना हिंदी ने किया है।यह तो इसका बड़ा पॉज़िटिव पॉइंट है। लेकिन इसका जो
नकारात्मक पहलू है,वह यह कि यह आम जनता के भीतर जो भाषा
सातत्य है,वह अगर रहता तो हमारा आज का हिंदी साहित्य उतना ही
जन के निकट होता,जितना बांग्ला का साहित्य है या मलयालम
का।"
‘संसार में निर्मल वर्मा' सम्पादन- गगन गिल