शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2025

मठ तथा संन्यासी : आनंद मठ से मैला आंचल तक

 

मठ तथा संन्यासी : आनंद मठ से मैला आंचल तक

-   डॉ रमाकान्त राय

शोध सार

 (सूचना-
यह शोध आलेख नागपुर से प्रकाशित शोध पत्रिका समिधा के प्रवेशांक में प्रकाशित है)

इस शोध पत्र में बंकिम चन्द्र चटर्जी के प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंद मठ और फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास ‘मैला आंचल में चित्रित मठ और संन्यासियों के माध्यम से भारत में मठ और संन्यासी की भूमिकाओं को समझने का प्रयास किया गया है। बंगाल में सन 1770 और 1774 के मध्य भीषण अकाल का दौर रहा। इस समय में अंग्रेजी शासन और देसी शासकों, जिसमें यवन शासक प्रमुख थे; ने कर का बोझ इतना बढ़ा दिया था कि आमजन का जीवन दुष्कर हो गया था। ऐसी गंभीर अवस्था में बंगाल में संन्यासियों ने ‘संतान सेना’ का गठन किया और यवन तथा अंग्रेजी शासन से डटकर मुकाबला किया। इसमें संतान सेना विजयी हुई और उसने ‘लोकतन्त्र की स्थापना की तथा कई वर्षों तक शासन की बागडोर अपने हाथ में रखी। इसी प्रकार स्वाधीनता प्राप्ति के बाद लिखे गए उपन्यासों में एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘मैला आँचल’ में एक मठ तथा उसमें रहने वाले संन्यासी वर्ग की कहानी आई है। यह मठ व्यभिचार और दुराचार के अड्डे की तरह चित्रित है। इसमें रहने वाले लोग पूजा-पाठ और कर्मकांड के नाम पर लोगों को किस तरह बरगलाते हैं, उसको कथा का अंग बनाया गया है।

          हिंदी के एक प्रसिद्ध कवि मुक्तिबोध ने अपनी एक कविता में मठों और गढ़ों को तोड़ने की बात की है। शोधपत्र में उस विकास यात्रा को समझने का प्रयास है जिसमें स्वाधीनता आन्दोलन में प्रतिभाग करने वाले मठ और गढ़ किस प्रकार व्यभिचार के अड्डों में परिवर्तित होते गये हैं। इसमें दृष्टि का भेद भी एक प्रमुख कारक है।

(बीज शब्द- मठ, संन्यासी, आनन्द-मठ, मैला आंचल, स्वाधीनता संग्राम, यवन और अंग्रेजी शासन, बंगला उपन्यास, हिंदी उपन्यास, बंकिम चन्द्र चटर्जी, फणीश्वर नाथ रेणु)

 

 

भूमिका-

हिंदी के प्रख्यात कवि ‘मुक्तिबोध’ की कविता ‘अँधेरे में में एक चर्चित अंश है-

“अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे

उठाने ही होंगे।

तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब।”[1]

इस अंश में कवि ने सभी मठों और गढ़ को तोड़ने की आवश्यकता जताई गयी  है। किन्तु क्यों? क्या मठ और गढ़ सर्वथा अनुपयोगी और निरर्थक हो गए हैं? उनकी क्या भूमिका थी और क्या हो गयी है? बंकिम चन्द्र चटर्जी के उपन्यास आनंद मठ और फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास मैला आँचल में चित्रित प्रसंगों के आधार पर हम कुछ ऐसी विशिष्टताओं को यहाँ व्यवस्थित करने का प्रयास करेंगे, जिससे भारत में मठों की स्थितियों के विषय में एक धारणा बनाई जा सके।

जैसा कि विदित है, गढ़ राजाओं के रहने की सुरक्षित संरचना है और मठ धार्मिक संस्थान। यह दोनों ही राजतन्त्र के अनिवार्य अंग हैं। इसमें मठ गुरु और उसके शिष्यों का स्थान है। यहाँ परस्पर ज्ञानार्जन और विद्याओं के संरक्षण का उपक्रम चलता रहता है। भारत में प्राचीन काल से ही मठों की परम्परा है। आदि शंकराचार्य ने देश के चार स्थानों पर मठ स्थापित किये, जहाँ आज भी शंकराचार्य की गद्दी है और यह सनातन धर्म के व्यवस्थापक हैं। इन चार मठों में वेदान्त ज्ञानमठ भारत के दक्षिण में रामेश्वरम में, गोवर्धन मठ भारत के पूर्वी भाग ओड़िसा के जगन्नाथ पुरी में, शारदा मठ पश्चिम भाग गुजरात के द्वारका धाम में और उत्तर के उत्तरांचल के बद्रीनाथ में स्थित है ज्योतिर्मठ। कालान्तर में देश भर में कई मठ और आश्रम स्थापित हुए। यह मठ और आश्रम ज्ञान-विज्ञान के केन्द्र हैं और यहाँ से देश की बौद्धिक सम्पदा का संरक्षण और विस्तार होता है।

समय समय पर इन मठों ने राजनीतिक हस्तक्षेप भी किया और कई बार सशस्त्र प्रतिरोध भी। महानिर्वाणी अखाड़े का औरंगजेब के साथ संघर्ष इतिहास की प्रमुख घटनाओं में से एक है। बंगाल के गिरि सम्प्रदाय के संन्यासियों ने अठारहवीं शती के अंत में अंग्रेजी और यवन शासन के विरोध में सशत्र आन्दोलन किया था। संन्यासी विद्रोहियों ने अपनी स्वतंत्र सरकार बोग्रा और मैमनसिंह में स्थापित किया । वह लोग गुरिल्ला पद्धति से युद्ध करते थे।

बंकिम चन्द्र चटर्जी का उपन्यास ‘आनन्द मठ :

       बांग्ला के प्रख्यात उपन्यासकार बंकिम चन्द्र चटर्जी ने सन 1882 में संन्यासी आन्दोलन की पृष्ठभूमि में ‘आनन्द मठ नामक उपन्यास लिखा। इस उपन्यास में संन्यासियों द्वारा गाया गया गीत ‘वन्दे मातरम् आज भारत का राष्ट्रीय गीत है। इस उपन्यास में सन 1770 से 1774 में पड़े भीषण अकाल का मार्मिक चित्रण है। यह वह समय था जब “बंगाल प्रदेश अंग्रेजों के शासनाधीन नहीं हुआ था। अंग्रेज उस समय बंगाल के दीवान ही थे। वे खजाने का रुपया वसूलते थे , लेकिन तब तक बंगालियों की रक्षा का भार उन्होंने अपने ऊपर लिया न था। उस समय लगान की वसूली का भार अंग्रेजों पर था और कुल संपत्ति की रक्षा का भार पापिष्ठ, नराधम, विश्वासघातक, मनुष्य कुल कलंक मीरजाफर पर था। मीरजाफर आत्मरक्षा में ही अक्षम था तो बंगाल प्रदेश की रक्षा कैसे कर सकता था।”[2] जब “बंगाल में भीषण अकाल पड़ा तो एक ओर अंग्रेजों और दूसरी ओर नवाबों ने मिलकर जन सामान्य पर भारी करों का बोझ लाद दिया था। जनता त्राहि त्राहि कर उठी थी। सुन्दर लाल ने ‘भारत में अंग्रेजी राज शीर्षक पुस्तक में लिखा है, “एडमण्ड बर्क लिखता है कि लगान बेहद बढ़ा दिए जाने की वजह से ही सारा देश वीरान दिखाई देना लगा। इस लगान बढ़ाये जाने ही का एक नतीजा बंगाल-भर के अन्दर सन 1770 का वह भयंकर दुष्काल था, जिसके सामान विपत्ति देश पर पहले कभी न आई थी और जिसमें लाखों गाँव उजड़ गए।”[3] चारो ओर प्रताड़ना और अत्याचारों का भीषण तांडव हो रहा था। ऐसी गहन-गंभीर परिस्थितियों में उत्तर भारत के उस क्षेत्र में संन्यासियों ने एकजुट होकर शस्य श्यामल वसुन्धरा को माता मान ‘संतान सेना’ का गठन किया। इस संतान सेना ने पहले बंगाल के नवाब की सेना के और फिर फिरंगी सेना के दांत खट्टे कर दिए। संतान सेना संतान धर्म का पालन करते हुए अंततः विजयी हुई।”[4] बंकिम चन्द्र चटर्जी का उपन्यास ऐतिहासिक है और सत्य घटनाओं पर आश्रित है। “आनंद मठ में जिस काल खंड का वर्णन किया गया है, उसमें व हंटर की ऐतिहासिक कृति ‘एनाल्स ऑफ़ रूरल बंगाल जी०आर० गलेग की ‘मेमायर्स ऑफ़ द लाइफ ऑफ़ वारेन हेस्टिंग्स और उस समय के ऐतिहासिक दस्तावेजों में शामिल तथ्यों में काफी समानता है।”[5]

          आनंद मठ उपन्यास का अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि बंगाब्द 1175 अर्थात ईस्वी सन 1768 में ग्रामवासी अपने सुख दुःख का प्रकटीकरण अपने घर के साथ साथ मठ में भी करते थे। बंगाब्द 1174 में अनावृष्टि के उपरान्त जब बंगाब्द 1175 में बरसात हुई तो “आनन्द में फिर मठ-मंदिरों में गाना-बजाना शुरू हुआ।”[6] किन्तु जब उसी वर्ष अकाल पड़ गया तो मठ दुर्दशा को प्राप्त हो गए। बंकिम चन्द्र चटर्जी ने मठ का सामान्य परिचय करते हुए लिखा है- “वन में एक बहुत विस्तृत भूमि पर ठोस पत्थरों से निर्मित एक बहुत बड़ा मठ है। पुरातत्त्व वेत्ता उसे देखकर कह सकते हैं कि पूर्वकाल में यह बौद्धों का विहार था- इसके बाद हिन्दुओं का मठ हो गया है। दो खंड में अट्टालिकाएं बनी हैं, उसमें अनेक देव-मंदिर और सामने नाट्य मंदिर है।

          वह समूचा मठ चहारदीवारी से घिरा हुआ है और बाहरी हिस्सा ऊँचे ऊँचे सघन वृक्षों से इस तरह आच्छादित है कि दिन में समीप जाकर भी कोई यह नहीं जान सकता कि यहाँ इतना बड़ा मठ है। यों तो प्राचीन होने के कारण मठ की दीवारें अनेक स्थानों से टूट-फूट गयी हैं, लेकिन दिन में देखने से साफ़ पता लगेगा कि अभी हाल ही में उसे बनाया गया है। देखने से तो यही जान पड़ेगा कि इस दुर्भेद्य वन के अन्दर कोई मनुष्य न रहता होगा।”[7]

यह विवरण इस बात का सूचक है कि मठ आदि राज्याश्रय में समृद्ध रहते थे। कालान्तर में जब यवनों और अंग्रेजों का शासन हुआ तो मठ उपेक्षित हो गए। यह मठ देवताओं के स्थान थे। इन मठों में निर्बल, असहाय जन और स्त्रियों आदि को सहज आश्रय मिल जाता था। इन मठों में रहने वाले संन्यासियों के बारे में बंकिम चन्द्र चटर्जी ने लिखा है- “उस समय के संन्यासी आजकल जैसे न होते थे- सुशिक्षित, बलिष्ठ, युद्ध विशारद एवं अन्यान्य गुणों से गुणवान होते थे। वे लोग वस्तुतः एक तरह के राजविद्रोही होते थे- राजाओं का राजस्व लूटकर खाते थे। बलिष्ठ बालक पाते ही उनका अपहरण करते थे, उन्हें शिक्षित कर अपने सम्प्रदाय में मिला लिया करते थे। इसलिए लोग उन्हें ‘लकड़-पकडवा’ या ‘लकड़-सुंघवा भी कहते थे।”[8]

जब महेन्द्र की पत्नी कल्याणी डाकुओं से बचने के लिए भाग जाती है और अपने पति से विलग हो जाती है तो उसे मठ में आश्रय मिलता है। यहाँ उल्लिखित उपन्यास में जिस मठ का वर्णन है, उसका नाम भी आनंद मठ है। आनंद मठ में रहने वाले लोग एक विशेष उद्देश्य के लिए संगठित हुए हैं। उन्होंने संतान सेना का व्रत लिया है। इस व्रत में स्त्री और कन्या के त्याग का व्रत लेना पड़ता है। स्त्री और कन्या के त्याग के व्रत से यह मठ सहज ही उन दुर्बलताओं से बचे हुए थे जो कालान्तर में मठों की पहचान बन गए। आनंद मठ में रहने वाले लोगों को न केवल बौद्धिक रूप से अपितु युद्ध कौशल से भी प्रशिक्षित किया जाता था। जीवानंद की पत्नी शान्ति, जो मठ में आकर नवीनानन्द बनती है; वह संन्यासियों के “दल में मिलकर व्यायाम करती थी, अस्त्र चलाना सीखती थी, अतः वह परिश्रम सहिष्णु हो उठी। उनके साथ उसने देश-विदेश भ्रमण किया, अनेक लड़ाइयाँ देखीं और अस्त्र विद्या में निपुण हो गयी।”[9]

आनन्द मठ वैष्णव धर्म का अनुपालन कर्ता है। यह वैष्णव मत प्रकृत है। इस वैष्णव मत का लक्षण “दुष्टों का दमन और धरा का उद्धार है। कारण, भगवान विष्णु ही संसार के पालक हैं। उन्होंने दस बार शरीर धारण कर पृथ्वी का उद्धार किया था।... वही जेता, जयदाता, पृथ्वी के उद्धारकर्ता और संतानों के इष्ट देवता हैं। चैतन्य देव का वैष्णव धर्म वास्तविक वैष्णव धर्म नहीं है- वह धर्म अधूरा है। चैतन्य देव के विष्णु केवल प्रेममय हैं – लेकिन भगवान केवल प्रेममय ही नहीं हैं, वे अनंत शक्तिमय भी हैं। संतानों के विष्णु केवल शक्तिमय हैं। हम दोनों ही वैष्णव हैं – लेकिन दोनों ही अधूरे हैं।”[10] इस मठ के संतानों का मुख्य उद्देश्य भी बहुत निश्चित है। “हमलोग राज्य नहीं चाहते – केवल यवन भगवान् के विद्वेषी हैं, इसलिए समूल विनाश चाहते हैं।”[11]

आनंद मठ में दो तरह के संतान हैं- दीक्षित और अदीक्षित। “जो अदीक्षित हैं, वे या तो संसारी हैं अथवा भिखारी। वे लोग केवल युद्ध के समय आकर उपस्थित हो जाते हैं, लूट का हिस्सा या पुरस्कार पाकर फिर चले जाते हैं। जो दीक्षित होते हैं, वे सर्वस्वत्यागी हैं। यही लोग सम्प्रदाय के कर्ता हैं।”[12] मठ के सभी संतान एक जाति के हैं। सत्यानन्द बताते हैं – “समस्त संतान एक जाति में हैं। इस महाव्रत में ब्राह्मण-शूद्र का विचार नहीं है।”[13] ऐसे मठ में यदि कोई ब्रह्मचर्य के व्रत से डिगता है तो उसके लिए प्रायश्चित की व्यवस्था है। संतान मत में दीक्षित होने के बाद जीवानन्द अपनी पत्नी, जो स्वयं रूप बदलकर संतान मत में दीक्षित है; के निकट आना चाहते हैं तो वह उन्हें उनके प्रण का ध्यान कराकर निरुत्तर कर देती है। दीक्षा के अवसर पर स्त्री के साथ एकासन पर कभी न बैठने तक की शपथ ली जाती है।

कठोर जीवनचर्या और अनुशासन के कारण मठों का जीवन पवित्र और निष्ठापूर्ण है। यही देश भर के मठों और संन्यासियों की पहचान थी। किन्तु देश में जब अंग्रेजों का शासन हो गया, उन्होंने भारतीयों का चौतरफा दमन शुरू किया तो उन्होंने मठों को भी अनुदान आदि से वंचित कर दिया। जब संस्कृत शिक्षा को राज्याश्रय से वंचित कर दिया गया तो मठ अधिक दुर्दशा को प्राप्त हुए। उनका स्वतन्त्र चिन्तन ठप्प पड़ गया। मठ के महंत और संन्यासी नियम और आचार का पालन करने में ही स्वयं को सीमित कर लिया। स्वाधीनता प्राप्ति के समय तक इनकी प्रतिष्ठा धूमिल हो चुकी थी। मठ यद्यपि धार्मिक आस्था के केन्द्र बने हुए थे किन्तु अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों का मानस इनसे विरक्त होने लगा था। लोकतन्त्र की स्थापना और नवीन शिक्षा प्रणाली ने ऐसे संस्थानों को पिछड़ा, दकियानूस, अवैज्ञानिक तथा धार्मिक गतिविधि का केन्द्र माना। परिणामस्वरुप ऐसे संस्थान रुढ़िवादी होते गए।

फणीश्वर नाथ रेणु का उपन्यास ‘मैला आंचल

 

फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास ‘मैला आंचल में मेरीगंज गाँव में जो मठ है उस मठ की दिनचर्या कर्मकांडों में उलझ कर रह गयी है। यहाँ सत्संग का समय निश्चित हैं और इसमें भाग लेना अनिवार्य है। “प्रातकी और बीजक में कोई सम्मिलित हो या नहीं, सत्संग में भाग लेना अनिवार्य है। मठ का भंडारी इसी समय रोज की हाजिरी लेता है। इस समय जो अनुपस्थित रहे उसकी ‘चिप्पी (राशन) बंद हो जाती है। सत्संग में महंथ साहब साधुओं और शिष्यों को उपदेश देते हैं, प्रश्नों के उत्तर देते हैं, अज्ञान अन्धकार को अपनी वाणी से दूर करते हैं।”[14] सत्संग समाप्त होने के बाद ‘हाजिरी के समय जो बक-झक होता है, वह ‘सत्संग से प्राप्त की हुई मन की पवित्रता नष्टकर देता है।

फणीश्वर नाथ रेणु

मेरीगंज के इस मठ के विषय में रेणु लिखते हैं- “महंथ सेवा दास इस इलाके के ग्यानी साधु समझे जाते थे – सभी सास्तर-पुरान के पंडित! मठ पर आकर लोग भूख-प्यास भूल जाते थे। बड़ी पवित्र जगह समझी जाती थी। लेकिन जब महंथ दासिन को लाया, लोगों की राय बदल गयी। बसुमतिया मठ के महंथ से इसी दासिन को लेकर कितने लड़ाई-झगड़े और मुकदमे हुए। बसुमतिया का महंथ कहता था, लछमी दासिन का बाप हमारा गुरु-भाई था इसलिए बाप के मरने के बाद उसपर मेरा हक़ है। सेवादास की दलील थी, लछमी पर हमारा अधिकार है। अंत में लछमी कानूनन सेवादास की ही हुई।”[15] यहाँ लछमी दासिन बनकर रहने को विवश होती है और स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी है कि “अब तो महंथ सेवादास को बहुत लोग प्रणाम बंदगी भी नहीं करते। .... धर्म भ्रष्ट हो गया है। बगुला भगत है। ब्रह्मचारी नहीं, व्यभिचारी है।”[16]

मैला आंचल में वर्णित मठ में व्यभिचार तो सामान्य बात है। महंथ साहेब की मृत्यु भी इसी व्यभिचार प्रकरण में होती है। महंथ की मृत्यु के बाद लरसिंघदास नया महंत बनते हैं। नयी नियुक्ति भी उसी प्रथा को बढाने वाली है। “लछमी ने लरसिंघदास की आँखों में न जाने क्या देखा है कि उसकी छाया से भी बचकर चलती है, रात में किवाड़ मजबूती से बंद करके सोती है। किवाड़ की छिटकनी लगाने के बाद एक ओखल किवाड़ में सटा देती है। .... लरसिंघदास को शायद बहुमूत्र की बीमारी है; रात-भर में दस-ग्यारह बार पेशाब करने के लिए उठता है।”[17] लरसिंघदास महंथ बनने के लिए छल छद्म करता है लेकिन गाँव के लोगों के उग्र रूप को देखते हुए रामदास को नया महंथ नियुक्त किया जाता है। रामदास की कुदृष्टि लछमी पर है। दुराचार करने के प्रयास में लछमी के आघात से रामदास भी घायल हो जाता है। बाद में बालदेव मठ में लछमी का भोग करने लगते हैं।

मठ में जातिवाद भी चरम पर है। मठ पर भंडारा आयोजन में सभी जातियां अलग अलग खाना पकाने के लिए राशन की मांग करती हैं। “सिपैहिया टोला के लोग भी नहीं खायेंगे। हिबरनसिंघ का बेटा आकर कह गया है, ग्वाला लोगों के साथ एक पंगत में नहीं खायेंगे। हमलोगों के गाँव का आटा-घी-चीनी अलग दे दिया जाए। हम लोग अलग बनवा लेंगे।”[18] गाँव का मठ राजनीति का अड्डा बन गया है। यहाँ महंथ के चुनाव में हिंसा सामान्य बात हो गयी है। कहने का आशय यह है कि मेरीगंज का मठ किसी भी नवाचार के स्थान पर व्यभिचार, भाई-भतीजावाद, जातिवाद के पोषक अड्डे की तरह काम कर रहा है। यहाँ महंथ से लेकर सेवक तक, सबकी दृष्टि भोग पर है।

मेरीगंज का मठ एक कबीरपंथी मठ है। कबीर दास ने जीवन में शुचिता और पवित्रता तथा त्याग को बहुत महत्त्व दिया था किन्तु उनके नाम और उपदेश आधारित मठ में भोग विलास और दुराचार आम बात है। बालदेव, जो गांधीवादी है, वह मठ का प्रमुख बनता है तो लछमी के साथ तो रहता ही है, वह लछमी पर शक भी करता है। आशय यह है कि मैला आँचल में वर्णित मठ उद्देश्यविहीन, दुराचार का अड्डा और सांसारिक कीचड में लिथड़ा हुआ है।

     उपसंहार-

       बंगला और हिंदी में लगभग सात दशक के अंतराल पर लिखे गए दो उपन्यासों में मठ और संन्यासी की भूमिकाओं और स्थितियों को देखकर यह सहज ज्ञात हो जाता है कि अंग्रेजी शासन काल में मठों की दशा में उल्लेखनीय गिरावट आई। इसमें एक बड़ा कारण शिक्षा में अंग्रेजी का प्रभुत्वशाली होना था। अंग्रेजों ने भारतीय ज्ञान विज्ञान और शास्त्रों की मनमानी व्याख्या की और अपने शासन तथा तंत्र के माध्यम से इसका खूब प्रचार किया। परिणाम यह हुआ कि मठ तथा गुरुकुल उद्देश्यहीन हो गए। राज्याश्रय न मिलने से और सरकारी संरक्षण खोकर मठों ने अपनी उपादेयता भी समाप्त कर ली। अठारवीं सदी में आनंद मठ जैसे मठ और संतान सेना सरीखे संन्यासी; लोगों को संगठित कर यवन सेना और अंग्रेजी सेना को परास्त कर अपना शासन स्थापित करने में सक्षम थे किन्तु स्वाधीनता प्राप्ति के काल तक मेरीगंज के कबीर मठ व्यभिचार और सत्ताभोग के केन्द्र बन गए थे। वर्तमान समय में केन्द्रीय शासन ने फिर से मठों और आश्रमों को अपने शासन प्रणाली में शामिल करने का उपक्रम किया है और यह देखने लायक होगा कि क्या फिर से मठ और संन्यासी ज्ञान-विज्ञान और अनुसन्धान के केन्द्र बन सकेंगे?

-   डॉ रमाकान्त राय

अध्यक्ष, हिंदी विभाग

पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय

इटावा, उत्तर प्रदेश

211006

ramakantroy@Zohomail.com

 

 

सन्दर्भ सूची-



[1] मुक्तिबोध, गजानन माधव, अंधेरे में, प्रतिनिधि कविताएँ, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, राजकमल पेपरबैक्स, 1984 पृष्ठ-161

[2] चटर्जी, बंकिम चन्द्र, आनंद मठ, फिंगरप्रिंट हिंदी, नयी दिल्ली, पुनर्संस्करण- 2022, पृष्ठ-29

[3] सुन्दरलाल, भारत में अंग्रेजी राज, प्रथम खण्ड, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली, पंचम संस्करण-2016, पृष्ठ- 315

[4] राजस्वी, एम०आई०, आनन्द मठ: संन्यासियों का संयुक्त विकल्प, दो शब्द, आनंदमठ, फिंगरप्रिंट हिंदी, नयी दिल्ली, पृष्ठ-5

[5] अंतिम कवर पृष्ठ, आनंद मठ, फिंगरप्रिंट हिंदी, नयी दिल्ली

[6] चटर्जी, बंकिम चन्द्र, आनंद मठ, फिंगरप्रिंट हिंदी, नयी दिल्ली, पृष्ठ-17

[7] चटर्जी, बंकिम चन्द्र, आनंद मठ, फिंगरप्रिंट हिंदी, नयी दिल्ली, पृष्ठ-24-25

[8] चटर्जी, बंकिम चन्द्र, आनंद मठ, फिंगरप्रिंट हिंदी, नयी दिल्ली, पृष्ठ-75

[9] चटर्जी, बंकिम चन्द्र, आनंद मठ, फिंगरप्रिंट हिंदी, नयी दिल्ली, पृष्ठ-75

[10] चटर्जी, बंकिम चन्द्र, आनंद मठ, फिंगरप्रिंट हिंदी, नयी दिल्ली, पृष्ठ-85

[11] चटर्जी, बंकिम चन्द्र, आनंद मठ, फिंगरप्रिंट हिंदी, नयी दिल्ली, पृष्ठ-85

[12] चटर्जी, बंकिम चन्द्र, आनंद मठ, फिंगरप्रिंट हिंदी, नयी दिल्ली, पृष्ठ-84

[13] चटर्जी, बंकिम चन्द्र, आनंद मठ, फिंगरप्रिंट हिंदी, नयी दिल्ली, पृष्ठ-87

[14] रेणु, फणीश्वर नाथ, मैला आंचल, रेणु रचनावली-2, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, तीसरा संस्करण-2007 पृष्ठ-36

[15] रेणु, फणीश्वर नाथ, मैला आंचल, रेणु रचनावली-2, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-39

[16] रेणु, फणीश्वर नाथ, मैला आंचल, रेणु रचनावली-2, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-39

[17] रेणु, फणीश्वर नाथ, मैला आंचल, रेणु रचनावली-2, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-73

[18] रेणु, फणीश्वर नाथ, मैला आंचल, रेणु रचनावली-2, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-40

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