बुधवार, 16 जुलाई 2025

प्रेमचंद की कहानी “जिहाद”

जिहाद


बहुत पुरानी बात है। हिंदुओं का एक काफिला अपने धर्म की रक्षा के लिए पश्चिमोत्तर के पर्वत-प्रदेश से भागा चला आ रहा था। मुद्दतों से उस प्रांत में हिंदू और मुसलमान साथ-साथ रहते चले आये थे। धार्मिक द्वेष का नाम न था। पठानों के जिरगे हमेशा लड़ते रहते थे। उनकी तलवारों पर कभी जंग न लगने पाती थी। बात-बात पर उनके दल संगठित हो जाते थे। शासन की कोई व्यवस्था न थी। हर एक जिरगे और कबीले की व्यवस्था अलग थी। आपस के झगड़ों को निपटाने का भी तलवार के सिवा और कोई साधन न था। जान का बदला जान था, खून का बदला खून; इस नियम में कोई अपवाद न था। यही उनका धर्म था, यही ईमान; मगर उस भीषण रक्तपात में भी हिंदू परिवार शांति से जीवन व्यतीत करते थे। पर एक महीने से देश की हालत बदल गयी है। एक मुल्ला ने न जाने कहां से आकर अनपढ़ धर्मशून्य पठानों में धर्म का भाव जागृत कर दिया है। उसकी वाणी में कोई ऐसी मोहिनी है कि बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरुष खिंचे चले आते हैं। वह शेरों की तरह गरज कर कहता है-खुदा ने तुम्हें इसलिए पैदा किया है कि दुनिया को इस्लाम की रोशनी से रोशन कर दो, दुनिया से कुफ्र का निशान मिटा दो। एक काफिर के दिल को इस्लाम के उजाले से रोशन कर देने का सबाब सारी उम्र के रोजे, नमाज और जकात से कहीं ज्यादा है। जन्नत की हूरें तुम्हारी बलाएं लेंगी और फरिश्ते तुम्हारे कदमों की खाक माथे पर मलेंगे, खुदा तुम्हारी पेशानी पर बोसे देगा। और सारी जनता यह आवाज सुनकर मजहब के नारों से मतवाली हो जाती है। उसी धार्मिक उत्तेजना ने कुफ्र और इस्लाम का भेद उत्पन्न कर दिया है। प्रत्येक पठान जन्नत का सुख भोगने के लिए अधीर हो उठा है। उन्हीं हिंदुओं पर, जो सदियों से शांति के साथ रहते थे, हमले होने लगे हैं। कहीं उनके मंदिर ढाये जाते हैं, कहीं उनके देवताओं को गालियां दी जाती हैं। कहीं उन्हें जबरदस्ती इस्लाम की दीक्षा दी जाती है। हिंदू संख्या में कम हैं, असंगठित हैं, बिखरे हैं, इस नयी परिस्थिति के लिए बिल्कुल तैयार नहीं। उनके हाथ-पांव फूले हुए हैं, कितने तो अपनी जमा-जगह छोड़ कर भाग खड़े हुए हैं, कुछ इस आंधी के शांत हो जाने का अवसर देख रहे हैं। यह काफिला भी उन्हीं भागने वालों में था।

प्रेमचंद 


दोपहर का समय था। आसमान से आग बरस रही थी। पहाड़ों से ज्वाला-सी निकल रही थी। वृक्ष का कहीं नाम न था। ये लोग राज-पथ से हटे हुए, पेचीदा औघट रास्तों से चले आ रहे थे। पग-पग पर पकड़ लिये जाने का खटका लगा हुआ था। यहां तक कि भूख, प्यास और ताप से विकल होकर अंत को लोग एक उभरी हुई शिला की छांह में विश्राम करने लगे। सहसा कुछ दूर पर एक कुआं नजर आया। वहीं डेरे डाल दिये। भय लगा हुआ था कि जिहादियों का कोई दल पीछे से न आ रहा हो। दो युवकों ने बंदूक भरकर कंधे पर रखीं और चारों तरफ गश्त करने लगे। बूढ़े कम्बल बिछा कर कमर सीधी करने लगे। स्त्रियां बालकों को गोद से उतारकर माथे का पसीना पोंछने और बिखरे हुए केशों को संभालने लगीं। सभी के चेहरे मुरझाये हुए थे। सभी चिंता और भय से त्रस्त हो रहे थे, यहां तक कि बच्चे जोर से न रोते थे। दोनों युवकों में एक लम्बा, गठीला रूपवान है। उसकी आंखों से अभिमान की रेखाएं-सी निकल रही हैं, मानो वह अपने सामने किसी की हकीकत नहीं समझता, मानो उसकी एक-एक गत पर आकाश के देवता जयघोष कर रहे हैं। दूसरा कद का दुबला-पतला, रूपहीन-सा आदमी है, जिसके चेहरे से दीनता झलक रही है, मानो उसके लिए संसार में कोई आशा नहीं, मानो वह दीपक की भांति रो-रोकर जीवन व्यतीत करने ही के लिए बनाया गया है। उसका नाम धर्मदास है; इसका खजानचंद। धर्मदास ने बंदूक को जमीन पर टिका कर एक चट्टान पर बैठते हुए कहा-तुमने अपने लिए क्या सोचा? कोई लाख-सवा लाख की सम्पत्ति रही होगी तुम्हारी?

खजानचंद ने उदासीन भाव से उत्तर दिया-लाख-सवा लाख की तो नहीं, हां, पचास-साठ हजार तो नकद ही थे।

 ”तो अब क्या करोगे ?”

“जो कुछ सिर पर आयेगा, झेलूंगा! रावलपिंडी में दो-चार संबंधी हैं, शायद कुछ मदद करें। तुमने क्या सोचा है?”

“मुझे क्या गम! अपने दोनों हाथ अपने साथ हैं। वहां इन्हीं का सहारा था, आगे भी इन्हीं का सहारा है।” “आज और कुशल से बीत जाये तो फिर कोई भय नहीं। मैं तो मना रहा हूं कि एकाध शिकार मिल जाय। एक दर्जन भी आ जाएं तो भूनकर रख दूं।”

इतने में चट्टानों के नीचे से एक युवती हाथ में लोटा-डोर लिये निकली और सामने कुएं की ओर चली। प्रभात की सुनहरी, मधुर, अरुणिमा मूर्तिमान हो गयी थी। दोनों युवक उसकी ओर बढ़े, लेकिन खजानचंद तो दो-चार कदम चल कर रुक गया, धर्मदास ने युवती के हाथ से लोटा-डोर ले लिया और खजानचंद की ओर सगर्व नेत्रों से ताकता हुआ कुएं की ओर चला। खजानचंद ने फिर बंदूक संभाली और अपनी झेंप मिटाने के लिए आकाश की ओर ताकने लगा। इसी तरह कितनी ही बार धर्मदास के हाथों वह पराजित हो चुका था। शायद उसे इसका अभ्यास हो गया था। अब इसमें लेशमात्र भी संदेह न था कि श्यामा का प्रेमपात्र धर्मदास है। खजानचंद की सारी सम्पत्ति धर्मदास के रूप-वैभव के आगे तुच्छ थी। परोक्ष ही नहीं, प्रत्यक्ष रूप से भी श्यामा कई बार खजानचंद को हताश कर चुकी थी; पर वह अभागा निराश होकर भी न जाने क्यों उस पर प्राण देता था। तीनों एक ही बस्ती के रहने वाले थे। श्यामा के माता-पिता पहले ही मर चुके थे। उसकी बुआ ने उसका पालन-पोषण किया था। अब भी वह बुआ ही के साथ रहती थी। उसकी अभिलाषा थी कि खजानचंद उसका दामाद हो, श्यामा सुख से रहे और उसे भी जीवन के अंतिम दिनों के लिए कुछ सहारा हो जाये; लेकिन श्यामा धर्मदास पर रीझी हुई थी। उसे क्या खबर थी कि जिस व्यक्ति को वह पैरों से ठुकरा रही है, वही उसका एकमात्र अवलम्ब है। खजानचंद ही वृद्धा का मुनीम, खजांची, कारिंदा सब कुछ था और यह जानते हुए भी कि श्यामा उसे जीवन में नहीं मिल सकती। उसके धन का यह उपयोग न होता, तो वह शायद अब तक उसे लुटाकर फकीर हो जाता।

धर्मदास पानी लेकर लौट ही रहा था कि उसे पश्चिम की ओर से कई आदमी घोड़ों पर सवार आते दिखायी दिए। जरा और समीप आने पर मालूम हुआ कि कुल पांच आदमी हैं। उनकी बंदूक की नलियां धूप में साफ चमक रही थीं। धर्मदास पानी लिये हुए दौड़ा कि कहीं रास्ते ही में सवार उसे न पकड़ लें लेकिन कंधे पर बंदूक और एक हाथ में लोटा-डोर लिये वह बहुत तेज न दौड़ सकता था। फासला दो सौ गज से कम न था। रास्ते में पत्थरों के ढेर टूटे-फूटे पड़े हुए थे। भय होता था कि कहीं ठोकर न लग जाय, कहीं पैर न फिसल जाएं। इधर सवार प्रतिक्षण समीप होते जाते थे। अरबी घोड़ों से उसका मुकाबला ही क्या, उस पर मंजिलों का धावा हुआ। मुश्किल से पचास कदम गया होगा कि सवार उसके सिर पर आ पहुंचे और तुरंत उसे घेर लिया। धर्मदास बड़ा साहसी था; पर मृत्यु को सामने खड़ी देख कर उसकी आंखों में अंधेरा छा गया, उसके हाथ से बंदूक छूटकर गिर पड़ी। पांचों उसी के गांव के महसूदी पठान थे। एक पठान ने कहा-उड़ा दो सिर मरदूद का। दगाबाज काफिर।

दूसरा-नहीं, नहीं, ठहरो। अगर यह इस वक्त भी इस्लाम कबूल कर ले, तो हम इसे मुआफ कर सकते हैं। क्यों धर्मदास, तुम्हें इस दगा की क्या सजा दी जाय? हमने तुम्हें रात-भर का वक्त फैसला करने के लिए दिया था। मगर तुम इसी वक्त जहन्नुम पहुंचा दिये जाओगे; लेकिन हम तुम्हें फिर मौका देते हैं। यह आखिरी मौका है। अगर तुमने अब भी इस्लाम न कबूल किया, तो तुम्हें दिन की रोशनी देखनी नसीब न होगी। धर्मदास ने हिचकिचाते हुए कहा-जिस बात को अक्ल नहीं मानती, उसे कैसे …। पहले सवार ने आवेश में आकर कहा-मजहब को अक्ल से कोई वास्ता नहीं।

तीसरा-कुफ्र है! कुफ्र है!

पहला-उड़ा दो सिर मरदूद का, धुआं इस पार।

दूसरा-ठहरो-ठहरो, मार डालना मुश्किल नहीं, जिला लेना मुश्किल है। तुम्हारे और साथी कहां हैं धर्मदास?

धर्मदास-सब मेरे साथ ही हैं।

दूसरा-कलामे शरीफ की कसम; अगर तुम सब खुदा और उनके रसूल पर ईमान लाओ, तो कोई तुम्हें तेज निगाहों से देख भी न सकेगा। धर्मदास-आप लोग सोचने के लिए और कुछ मौका न देंगे?

इस पर चारों सवार चिल्ला उठे-नहीं, नहीं, हम तुम्हें न जाने देंगे, यह आखिरी मौका है। इतना कहते ही पहले सवार ने बंदूक छतिया ली और नली धर्मदास की छाती की ओर करके बोला-बस बोलो, क्या मंजूर है?

धर्मदास सिर से पैर तक कांप कर बोला-अगर मैं इस्लाम कबूल कर लूं तो मेरे साथियों को तो कोई तकलीफ न दी जायेगी?

दूसरा-हां, अगर तुम जमानत करो कि वे भी इस्लाम कबूल कर लेंगे। पहला-हम इस शर्त को नहीं मानते। तुम्हारे साथियों से हम खुद निपट लेंगे। तुम अपनी कहो। क्या चाहते हो? हां या नहीं? धर्मदास ने जहर का घूंट पीकर कहा-मैं खुदा पर ईमान लाता हूं। पांचों ने एक स्वर से कहा-अलहमद व लिल्लाह! और बारी-बारी से धर्मदास को गले लगाया।

श्यामा हृदय को दोनों हाथों से थामे यह दृश्य देख रही थी। वह मन में पछता रही थी कि मैंने क्यों इन्हें पानी लाने भेजा? अगर मालूम होता कि विधि यों धोखा देगी, तो मैं प्यासी मर जाती, पर इन्हें न जाने देती। श्यामा से कुछ दूर खजानचंद भी खड़ा था। श्यामा ने उसकी ओर क्षुब्ध नेत्रों से देख कर कहा-अब इनकी जान बचती नहीं मालूम होती।

खजानचंद-बंदूक भी हाथ से छूट पड़ी है। श्यामा-न जाने क्या बातें हो रही हैं। अरे गजब! दुष्ट ने उनकी ओर बंदूक तानी है! खजानचंद-जरा और समीप आ जाएं, तो मैं बंदूक चलाऊ़। इतनी दूर की मार इसमें

नहीं है।

श्यामा-अरे! देखो, वे सब धर्मदास को गले लगा रहे हैं। यह माजरा क्या है?

खजानचंद-कुछ समझ में नहीं आता।

श्यामा-कहीं इसने कलमा तो नहीं पढ़ लिया? खजानचंद-नहीं, ऐसा क्या होगा, धर्मदास से मुझे ऐसी आशा नहीं है।

श्यामा-मैं समझ गयी। ठीक यही बात है। बंदूक चलाओ। खजानदान-धर्मदास बीच में हैं। कहीं उन्हें न लग जाय।

श्यामा-कोई हर्ज नहीं। मैं चाहती हूं, पहला निशाना धर्मदास ही पर पड़े। कायर! निर्लज्ज! प्राणों के लिए धर्म त्याग किया। ऐसी बेहयाई की जिंदगी से मर जाना कहीं अच्छा है। क्या सोचते हो। क्या तुम्हारे भी हाथ-पांव फूल गये। लाओ, बंदूक मुझे दे दो। मैं इस कायर को अपने हाथों से मारूंगी।

खजानचंद-मुझे तो विश्वास नहीं होता कि धर्मदास…

श्यामा-तुम्हें कभी विश्वास न आयेगा। लाओ, बंदूक मुझे दो। खडे़ क्या ताकते हो? क्या जब वे सिर पर आ जायंगे, तब बंदूक चलाओ? क्या तुम्हें भी यह मंजूर है कि मुसलमान होकर जान बचाओ? अच्छी बात है, जाओ। श्यामा अपनी रक्षा आप कर सकती है; मगर उसे अब मुंह न दिखाना।

खजानचंद ने बंदूक चलायी। गोली एक सवार की पगड़ी को उड़ाती हुई निकल गयी। जिहादियों ने “अल्लाहो अकबर!” की हांक लगायी। दूसरी गोली चली और घोड़े की छाती पर बैठी। घोड़ा वहीं गिर पड़ा। जिहादियों ने फिर “अल्लाहो अकबर!” की सदा लगायी और आगे बढ़े। तीसरी गोली आयी। एक पठान लोट गया; पर इसके पहले कि चौथी गोली छूटे, पठान खजानचंद के सिर पर पहुंच गये और बंदूक उसके हाथ से छीन ली। एक सवार ने खजानचंद की ओर बंदूक तानकर कहा-उड़ा दूं सिर मरदूद का, इससे खून का बदला लेना है।

दूसरे सवार ने, जो इनका सरदार मालूम होता था, कहा-नहीं-नहीं, यह दिलेर आदमी है। खजानचंद, तुम्हारे ऊपर दगा, खून और कुफ्र, ये तीन इल्जाम हैं, और तुम्हें कत्ल कर देना ऐन सवाब है, लेकिन हम तुम्हें एक मौका और देते हैं। अगर तुम अब भी खुदा और रसूल पर ईमान लाओ, तो हम तुम्हें सीने से लगाने को तैयार हैं। इसके सिवा तुम्हारे गुनाहों का और कोई कफारा (प्रायश्चित्त) नहीं है। यह हमारा आखिरी फैसला है। बोलो, क्या मंजूर है?

चारों पठानों ने कमर से तलवारें निकाल लीं, और उन्हें खजानचंद के सिर पर तान दिया मानो “नहीं” का शब्द मुंह से निकलते ही चारों तलवारें उसकी गर्दन पर चल जाएंगी !

खजानचंद का मुखमंडल विलक्षण तेज से आलोकित हो उठा। उसकी दोनों आंखें स्वर्गिक ज्योति से चमकने लगीं। दृढ़ता से बोला-तुम एक हिन्दू से यह प्रश्न कर रहे हो? क्या तुम समझते हो कि जान के खौफ से वह अपना ईमान बेच डालेगा? हिंदू को अपने ईश्वर तक पहुंचने के लिए किसी नबी, वली या पैगम्बर की जरूरत नहीं! चारों पठानों ने कहा-काफिर! काफिर! खजानचंद-अगर तुम मुझे काफिर समझते हो तो समझो। मैं अपने को तुमसे ज्यादा खुदापरस्त समझता हूं। मैं उस धर्म को मानता हूं, जिसकी बुनियाद अक्ल पर है। आदमी में अक्ल ही खुदा का नूर (प्रकाश) है और हमारा ईमान हमारी अक्ल…

चारों पठानों के मुंह से निकला “काफिर! काफिर!” और चारों तलवारें एक साथ खजानचंद की गर्दन पर गिर पड़ीं। लाश जमीन पर फड़कने लगी। धर्मदास सिर झुकाये खड़ा रहा। वह दिल में खुश था कि अब खजानचंद की सारी सम्पत्ति उसके हाथ लगेगी और वह श्यामा के साथ सुख से रहेगा; पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था। श्यामा अब तक मर्माहत-सी खड़ी यह दृश्य देख रही थी। ज्यों ही खजानचंद की लाश जमीन पर गिरी, वह झपटकर लाश के पास आयी और उसे गोद में लेकर आंचल से रक्त-प्रवाह को रोकने की चेष्टा करने लगी। उसके सारे कपड़े खून से तर हो गये। उसने बड़ी सुंदर बेल -बूटोंवाली साडि़यां पहनी होंगी, पर इस रक्त-रंजित साड़ी की शोभा अतुलनीय थी। बेल-बूटों वाली साडि़यां रूप की शोभा बढ़ाती थीं, यह रक्त-रंजित साड़ी आत्मा की छवि दिखा रही थी।

ऐसा जान पड़ा मानो खजानचंद की बुझती आंखें एक अलौकिक ज्योति से प्रकाशमान हो गयी हैं। उन नेत्रों में कितना संतोष, कितनी तृप्ति, कितनी उत्कंठा भरी हुई थी। जीवन में जिसने प्रेम की भिक्षा भी न पायी, वह मरने पर उत्सर्ग जैसे स्वर्गीय रत्न का स्वामी बना हुआ था।

धर्मदास ने श्यामा का हाथ पकड़कर कहा-श्यामा, होश में आओ, तुम्हारे सारे कपड़े खून से तर हो गये हैं। अब रोने से क्या हासिल होगा? ये लोग हमारे मित्र हैं, हमें कोई कष्ट न देंगे। हम फिर अपने घर चलेंगे और जीवन के सुख भोगेंगे?

श्यामा ने तिरस्कारपूर्ण नेत्रों से देखकर कहा-तुम्हें अपना घर बहुत प्यारा है, तो जाओ। मेरी चिंता मत करो, मैं अब न जाऊंगी। हां, अगर अब भी मुझसे कुछ प्रेम हो तो इन लोगों से इन्हीं तलवारों से मेरा भी अंत करा दो।

धर्मदास करुण-कातर स्वर से बोला-श्यामा, यह तुम क्या कहती हो, तुम भूल गयीं कि हमारी-तुम्हारी क्या बातें हुई थीं? मुझे खुद खजानचंद के मारे जाने का शोक है; पर भावी को कौन टाल सकता है?

श्यामा-अगर यह भावी था, तो यह भी भावी है कि मैं अपना अधम जीवन उस पवित्र आत्मा के शोक में काटूं, जिसका मैंने सदैव निरादर किया। यह कहते-कहते श्यामा का शोकोद्गार, जो अब तक क्रोध और घृणा के नीचे दबा हुआ था, उबल पड़ा और वह खजानचंद के निस्पंद हाथों को अपने गले में डाल कर रोने लगी।

चारों पठान यह अलौकिक अनुराग और आत्म-समर्पण देख कर करुणार्द्र हो गये। सरदार ने धर्मदास से कहा-तुम इस पाकीजा खातून से कहो, हमारे साथ चले। हमारी जाति से इसे कोई तकलीफ न होगी। हम इसकी दिल से इज्जत करेंगे।

धर्मदास के हृदय में ईर्ष्या की आग धधक रही थी। वह रमणी, जिसे वह अपनी समझे बैठा था, इस वक्त उसका मुंह भी नहीं देखना चाहती थी। बोला-श्यामा, तुम चाहो इस लाश पर आंसुओं की नदी बहा दो, पर यह जिंदा न होगी। यहां से चलने की तैयारी करो। मैं साथ के और लोगों को भी जाकर समझाता हूं। खान लोेग हमारी रक्षा करने का जिम्मा ले रहे हैं। हमारी जायदाद, जमीन, दौलत सब हमको मिल जायगी। खजानचंद की दौलत के भी हमीं मालिक होंगे। अब देर न करो। रोने-धोने से अब कुछ हासिल नहीं।

श्यामा ने धर्मदास को आग्नेय नेत्रों से देख कर कहा-और इस वापसी की कीमत क्या देनी होगी? वही जो तुमने दी है?

धर्मदास यह व्यंग्य न समझ सका। बोला-मैंने तो कोई कीमत नहीं दी। मेरे पास था ही क्या?

श्यामा-ऐसा न कहो। तुम्हारे पास वह खजाना था, जो तुम्हें आज कई लाख वर्ष हुए ऋषियों ने प्रदान किया था। जिसकी रक्षा रघु और मनु, राम और कृष्ण, बुद्ध और शंकर, शिवाजी और गोविंद सिंह ने की थी। उस अमूल्य भंडार को आज तुमने तुच्छ प्राणों के लिए खो दिया। इन पांवों पर लोटना तुम्हें मुबारक हो! तुम शौक से जाओ। जिन तलवारों ने वीर खजानचंद के जीवन का अंत किया, उन्होंने मेरे प्रेम का भी फैसला कर दिया। जीवन में इस वीरात्मा का मैंने जो निरादर और अपमान किया, इसके साथ जो उदासीनता दिखायी, उसका अब मरने के बाद प्रायश्चित्त करूंगी। यह धर्म पर मरने वाला वीर था, धर्म को बेचने वाला कायर नहीं! अगर तुममें अब भी कुछ शर्म और हया है, तो इसका क्रिया-कर्म करने में मेरी मदद करो और यदि तुम्हारे स्वामियों को यह भी पसंद न हो, तो रहने दो, मैं सब कुछ कर लूंगी।

पठानों के हृदय दर्द से तड़प उठे। धर्मान्धता का प्रकोप शांत हो गया। देखते-देखते वहां लकडि़यों का ढेर लग गया। धर्मदास ग्लानि से सिर झुकाये बैठा था और चारों पठान लकडि़यां काट रहे थे। चिता तैयार हुई और जिन निर्दय हाथों ने खजानचंद की जान ली थी उन्हीं ने उसके शव को चिता पर रखा। ज्वाला प्रचंड हुई। अग्निदेव अपने अग्निमुख से उस धर्मवीर का यश गा रहे थे।

पठानों ने खजांचंद की सारी जंगम सम्पत्ति ला कर श्यामा को दे दी। श्यामा ने वहीं पर एक छोटा-सा मकान बनवाया और वीर खजानचंद की उपासना में जीवन के दिन काटने लगी। उसकी वृद्धा बुआ तो उसके साथ रह गयी, और सब लोग पठानों के साथ लौट गये, क्योंकि अब मुसलमान होने की शर्त न थी। खजानचंद के बलिदान ने धर्म के भूत को परास्त कर दिया। मगर धर्मदास को पठानों ने इस्लाम की दीक्षा लेने पर मजबूर किया। एक दिन नियत किया गया। मस्जिद में मुल्लाओं का मेला लगा और लोग धर्मदास को उसके घर से बुलाने आये; पर उसका वहां पता न था। चारों तरफ तलाश हुई। कहीं निशान न मिला।

साल-भर गुजर गया। संध्या का समय था। श्यामा अपने झोंपड़े के सामने बैठी भविष्य की मधुर कल्पनाओं में मग्न थी। अतीत उसके लिए दु:ख से भरा हुआ था। वर्तमान केवल एक निराशामय स्वप्न था। सारी अभिलाषाएं भविष्य पर अवलम्बित थीं। और भविष्य भी वह, जिसका इस जीवन से कोई संबंध न था! आकाश पर लालिमा छायी हुई थी। सामने की पर्वतमाला स्वर्णमयी शांति के आवरण से ढकी हुई थी। वृक्षों की कांपती हुई पत्तियों से सरसराहट की आवाज निकल रही थी, मानो कोई वियोगी आत्मा पत्तियों पर बैठी हुई सिसकियां भर रही हो।


उसी वक्त एक भिखारी फटे हुए कपड़े पहने झोंपड़ी के सामने खड़ा हो गया। कुत्ता जोर से भूंक उठा। श्यामा ने चौंक कर देखा और चिल्ला उठी-धर्मदास !

धर्मदास ने वहीं जमीन पर बैठते हुए कहा-हां श्यामा, मैं अभागा धर्मदास ही हूं। साल-भर से मारा-मारा फिर रहा हूं। मुझे खोज निकालने के लिए इनाम रख दिया गया है। सारा प्रांत मेरे पीछे पड़ा हुआ है। इस जीवन से अब ऊब उठा हूं; पर मौत भी नहीं आती। धर्मदास एक क्षण के लिए चुप हो गया। फिर बोला-क्यों श्यामा, क्या अभी तुम्हारा हृदय मेरी तरफ से साफ नहीं हुआ! तुमने मेरा अपराध क्षमा नहीं किया!

श्यामा ने उदासीन भाव से कहा-मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी।

“मैं अब भी हिंदू हूं। मैंने इस्लाम नहीं कबूल किया है।”

“जानती हूं!”

“यह जानकर भी तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती!”

श्यामा ने कठोर नेत्रों से देखा और उत्तेजित होकर बोली-“तुम्हें अपने मुंह से ऐसी बातें निकालते शर्म नहीं आती! मैं उस धर्मवीर की ब्याहता हूं, जिसने हिंदू-जाति का मुख उज्ज्वल किया है। तुम समझते हो कि वह मर गया! यह तुम्हारा भ्रम है। वह अमर है। मैं इस समय भी उसे स्वर्ग में बैठा देख रही हूं। तुमने हिंदू-जाति को कलंकित किया है। मेरे सामने से दूर हो जाओ।”

धर्मदास ने कुछ जवाब न दिया! चुपके से उठा, एक लम्बी सांस ली और एक तरफ चल दिया। प्रात:काल श्यामा पानी भरने जा रही थी, तब उसने रास्ते में एक लाश पड़ी हुई देखी। दो-चार गिद्ध उस पर मंडरा रहे थे। उसका हृदय धड़कने लगा। समीप जाकर देखा और पहचान गयी। यह धर्मदास की लाश थी।



मंगलवार, 15 जुलाई 2025

एक आदर्श प्राथमिक विद्यालय के लिए sanaadhan

एक प्राथमिक विद्यालय के लिए यह सब व्यवस्था हो -


1. कम से कम 18 कक्ष वाला विद्यालय। 12 कक्ष डेस्क और बेंच से युक्त ताकि हर कक्षा के लिए दो/तीन सेक्शन (वर्ग) बनाया जा सके।इसमें एक कक्ष प्रधानाध्यापक का, एक अध्यापकों का। एक स्टोर रूम। एक क्रीड़ा कक्ष। एक कंप्यूटर कक्ष और एक कार्यालय।


2. प्रधानाध्यापक को मिलाकर 15 अध्यापक। भाषा- 4, गणित- 3, विज्ञान- 3 और सामाजिकी - 2 कला 1, खेल 1 के लिए अलग अलग अध्यापक।


3. एक कार्यालय अधीक्षक, एक चपरासी, एक सफाई कर्मी, तीन रसोइया।


4. खेल/असेंबली के लिए एक बीघा जमीन।


5. चार शौचालय। अध्यापकों के लिए पृथक शौचालय।


6. पेय जल की समुचित व्यवस्था।

7. अबाध बिजली व्यवस्था।


8. दो सुरक्षाकर्मी जो गेट पर रहें।


9. समय पर गणवेश, पुस्तकें, स्टेशनरी आदि की आपूर्ति और


10. विद्यालय तक पहुंच का पक्का संपर्क मार्ग।


यह सुविधा संसाधन एक प्राथमिक विद्यालय को दीजिए। साथ ही प्रधान और शासन का अनावश्यक हस्तक्षेप बंद करें। फिर देखिए, गांव गांव में शिक्षा की कैसी ज्योति जलती है और कैसे बालक निखरते हैं। कौन नहीं चाहेगा परिषदीय विद्यालय में पढ़ाना। प्रवेश और मासिक फीस लगा दीजिए और बाद में उसकी प्रतिपूर्ति कर दीजिए।

#EducationForAll

शुक्रवार, 30 मई 2025

भारतीय न्यायपालिका का दर्पण : हावेरी कांड

भारतीय न्यायपालिका: रक्षात्मकता और जमानत के दुरुपयोग की त्रासदी भारत का संविधान विश्व के सबसे विस्तृत और समावेशी संविधानों में से एक है, जो अपनी न्यायपालिका को लोकतंत्र का एक मजबूत स्तंभ मानता है। किंतु स्वतंत्रता के सात दशकों बाद भी यह देखना अत्यंत दु:खद है कि बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में अपराधी न केवल कानून की कमजोरियों का लाभ उठाते हैं, बल्कि जमानत जैसे प्रावधानों के दुरुपयोग से समाज में भय और अविश्वास का माहौल बनाते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के 2022 के आंकड़ों के अनुसार, भारत में बलात्कार के 31,516 मामले दर्ज किए गए, जो प्रतिदिन औसतन 86 मामलों के बराबर है। इनमें से केवल 27-28% मामलों में ही सजा हो पाई। यह आंकड़ा भारतीय न्यायपालिका की रक्षात्मक कार्यप्रणाली और लंबित मामलों के बोझ को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। कर्नाटक का हावेरी कांड इसका एक ज्वलंत उदाहरण है, जहां अपराधियों को जमानत की सहज उपलब्धता ने पीड़ितों के लिए न्याय की राह को और कठिन बना दिया। यह लेख भारतीय न्यायपालिका की कमियों, जमानत के दुरुपयोग, और बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों में सुधार की आवश्यकता पर गहन चिंतन प्रस्तुत करता है।

जमानत प्रणाली: स्वतंत्रता की रक्षा या अपराधियों का संरक्षण? : भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 437 और 439 जमानत के प्रावधानों को नियंत्रित करती हैं, जिनका उद्देश्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करना था। किंतु बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों में इन प्रावधानों का बार-बार दुरुपयोग हुआ है। हावेरी कांड जैसे मामलों में अपराधियों को त्वरित जमानत मिलना इस बात का प्रमाण है कि कानून की यह उदारता अपराधियों को और अधिक उद्दंड बना रही है। NCRB के आंकड़ों के अनुसार, 2022 में दर्ज 31,516 बलात्कार के मामलों में से 89% मामले ऐसे थे, जहां अपराधी पीड़ित से परिचित था। फिर भी, जमानत की आसान उपलब्धता ने अपराधियों को समाज में स्वतंत्र विचरण का अवसर प्रदान किया, जिससे पीड़ितों में भय और असुरक्षा का भाव और गहरा हो गया। जमानत के दुरुपयोग के पीछे कई कारण हैं। प्रथम, न्यायाधीशों की कमी और मामलों की अधिकता के कारण जमानत याचिकाओं पर त्वरित सुनवाई होती है, लेकिन गहन जांच नहीं। दूसरा, प्रभावशाली अपराधी अक्सर अपने वर्चस्व और धनबल का उपयोग कर जमानत प्राप्त कर लेते हैं। तीसरा, कानूनी प्रक्रिया में पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी के कारण जमानत के निर्णयों पर सवाल उठते हैं।

कर्णाटक का हावेरी कांड इसका केवल एक उदाहरण है। ऐसे सैकड़ों मामले हैं, जैसे निर्भया कांड, कठुआ, और उन्नाव, जहां जमानत की सहज उपलब्धता ने समाज में आक्रोश को जन्म दिया। लंबित मामले: न्याय की बाट जोहता भारत भारतीय न्यायपालिका की सबसे बड़ी विडंबना है इसके लंबित मामलों का बोझ। 2025 तक भारत में 5 करोड़ से अधिक मामले विभिन्न अदालतों में लंबित हैं। इस देरी के कई कारण हैं: न्यायाधीशों की कमी (उच्च न्यायालयों और निचली अदालतों में स्वीकृत पदों का एक बड़ा हिस्सा रिक्त है), अपर्याप्त बुनियादी ढांचा, और जटिल कानूनी प्रक्रियाएं। बलात्कार जैसे संवेदनशील मामलों में यह देरी पीड़ितों के लिए अन्याय का पर्याय बन जाती है। वर्षों तक सुनवाई के लिए प्रतीक्षा करना न केवल पीड़ित के मनोबल को तोड़ता है, बल्कि अपराधी को समाज में खुला घूमने का अवसर भी देता है। दिल्ली के बहुचर्चित निर्भया कांड के बाद सरकार ने फास्ट-ट्रैक कोर्ट की स्थापना की थी, लेकिन इनकी प्रभावशीलता सीमित रही। NCRB के अनुसार, 2018-2022 तक बलात्कार के मामलों में सजा की दर केवल 27-28% रही, जो ब्रिटेन (60.2%) और कनाडा (42%) जैसे देशों की तुलना में बहुत कम है। फास्ट-ट्रैक कोर्ट में भी संसाधनों की कमी और प्रशासनिक बाधाओं के कारण देरी होती है। यह स्थिति भारतीय न्यायपालिका की समृद्धि के दावों पर प्रश्न-चिह्न लगाती है। सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव जमानत का दुरुपयोग और न्याय में देरी केवल कानूनी समस्या नहीं, बल्कि एक सामाजिक और राजनीतिक संकट भी है। जब अपराधी खुलेआम घूमते हैं, तो यह समाज में भय और अविश्वास का माहौल बनाता है। विशेष रूप से महिलाएं और कमजोर वर्ग असुरक्षित महसूस करते हैं।

NCRB के आंकड़े बताते हैं कि 2022 में दिल्ली में बलात्कार के 1,204 मामले दर्ज हुए, जो कुल अपराधों का 31.2% हिस्सा है। यह आंकड़ा राष्ट्रीय राजधानी में महिलाओं की असुरक्षा को रेखांकित करता है। इसके अतिरिक्त, प्रभावशाली अपराधियों को अक्सर राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होता है। हावेरी कांड और अन्य समान मामलों में यह देखा गया कि अपराधी अपने धनबल और प्रभाव का उपयोग कर न केवल जमानत प्राप्त करते हैं, बल्कि जांच को भी प्रभावित करते हैं। यह स्थिति यह प्रश्न उठाती है कि क्या हमारा न्याय तंत्र वास्तव में निष्पक्ष और स्वतंत्र है?

सुधार की दिशा में कदमयतो धर्मस्ततो जयः” के सिद्धांत पर आधारित हमारी भारतीय न्याय व्यवस्था को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अन्याय की प्रतिमूर्ति बलात्कार के अपराधी स्वतंत्र होकर विजय यात्रा निकालने का साहस न जुटा सकें। इसके लिए निम्नलिखित सुधार आवश्यक हैं: गैर-जमानती प्रावधानों का सख्ती से पालन: बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों में जमानत को असाधारण परिस्थितियों तक सीमित करना चाहिए। CrPC में संशोधन कर ऐसे मामलों में गैर-जमानती गिरफ्तारी को अनिवार्य किया जाए। फास्ट-ट्रैक कोर्ट की प्रभावशीलता बढ़ाना: इन कोर्ट्स के लिए अधिक संसाधन, जजों की नियुक्ति, और समयबद्ध सुनवाई की व्यवस्था होनी चाहिए। न्यायिक जवाबदेही: जमानत के निर्णयों में पारदर्शिता और तर्कसंगतता सुनिश्चित करने के लिए दिशानिर्देश जारी किए जाएं। सामाजिक जागरूकता और पुलिस सुधार: पुलिस की संवेदनशीलता और जांच की गुणवत्ता में सुधार आवश्यक है। NCRB के अनुसार, 71% बलात्कार के मामले दर्ज ही नहीं होते, क्योंकि पीड़ित पुलिस की प्रतिक्रिया से डरते हैं। कठोर दंड की व्यवस्था: बलात्कार के दोषियों के लिए न्यूनतम 10 वर्ष की सजा को और सख्त करना चाहिए, विशेष रूप से जब पीड़ित नाबालिग हो। निष्कर्ष हावेरी कांड और इसके जैसे सैकड़ों मामले भारतीय न्यायपालिका के सामने एक दर्पण रखते हैं। ये मामले न केवल कानूनी व्यवस्था की कमियों को उजागर करते हैं, बल्कि समाज के सामने यह प्रश्न भी प्रस्तुत करते हैं कि क्या हमारी न्याय प्रक्रिया वास्तव में पीड़ितों के साथ खड़ी है? इतना विशाल संविधान और विस्तृत न्याय संहिता पाकर भी यदि हमारी न्यायपालिका समृद्ध न हो सकी, तो यह हम सभी के लिए आत्ममंथन का विषय है। बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों में अपराधियों को त्वरित राहत देने की प्रवृत्ति को समाप्त करना होगा। केवल एक निर्णय की दूरी थी और अपराधी दंडित हो सकता था, किंतु ऐसा हो न सका। अब समय है कि हमारी न्याय व्यवस्था रक्षात्मक न होकर दंडात्मक बने, ताकि “यतो धर्मस्ततो जयः” का सिद्धांत सही मायनों में साकार हो।




रोविन सिंह उदीयमान कवि, चिन्तक और विचारक है. कविताओं का शहर नाम से एक सांस्कृतिक अभियान चलाते हैं. यायावरी में रूचि है. कर्णाटक के हावेरी काण्ड पर उनका यह आलेख गहरे क्षोभ से उपजा है. एक्स पर वह Rowin Singh के नाम से जाने जाते हैं. कथावार्ता पर पहली बार- संपादक

 

बुधवार, 28 मई 2025

इराज लालू यादव! नाम में क्या रखा है


    बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री और राजमाता रबड़ी देवी ने अपने पौत्र और तेजस्वी यादव के नवजात शिशु का नाम इराज लालू यादव रखा है। यह घोषणा लालू यादव ने पर पोस्ट लिखकर की है। इराज का अर्थ कामदेव बताया जाता है। यह कम प्रचलित नाम है। मुझे पहली बार सुनने को मिला। क्या आपने इस नाम के किसी व्यक्ति से भेंट मुलाकात की हैलालू यादव ने लिखा है कि चूंकि बच्चे का जन्म मंगलवार को हुआ है जो हनुमान जी का दिन है तो इराज नाम उन्हीं के ऊपर है। हनुमान जी का इराज नाम मैंने नहीं सुना था। आपने पढ़ा है तो कृपया संदर्भ दें।

 


    यह नाम पूर्व मुख्यमंत्री और दादी रबड़ी देवी ने रखा है। वह एक निरक्षर किंतु सुसंस्कृत और सुरुचि सम्पन्न महिला हैं। जानकर अच्छा लगा कि लालू यादव परिवार अब नाम रखने में आंदोलनों के स्थान पर पौराणिक चरित्रों को प्राथमिकता दे रहा है। आपको ज्ञात है कि लालू यादव ने अपनी बड़ी बेटी का नाम मीसा कानून के अनुकरण में रखा है। यह बताता है कि लालू यादव को 1970 का दशक अधिक उत्तेजक लगता था। कविता 16 मई के बाद का उनपर कोई प्रभाव नहीं है और न असहिष्णुता आदि का।

 

    इराज लालू यादव एक नए ट्रेंड का सूचक नाम है। यह नव सामंती सोच को प्रकट करता है और बिहार के लोगों को बताता रहेगा कि यदि भविष्य में यह दल राजनीति में रहा तो स्वाभाविक उत्तराधिकारी इराज ही रहेगा। राष्ट्रीय जनता दल एक परिवारवाद का पोषक दल है। सच कहूं तो मुझे भी ज्ञात नहीं था कि इराज कोई शब्द है। हिंदवी की वेबसाइट पर इसका अर्थ "कामदेव" दिखा। रबड़ी देवी के बारे में कहा जाता है कि वह निरक्षर हैं किंतु पौत्र का नाम उन्होंने ही चुना है तो मैं विस्मित हूं कि वह इतनी सुसंस्कृत और सुरुचि सम्पन्न हैं! हालांकि लालू यादव ने इसका अर्थ हनुमान जी से जोड़ा है। मैं चाहूंगा कि कोई विद्वान इस नाम का संदर्भ हनुमान जी से जोड़कर दिखाए।

एक साथी बाबा जी ने बताया कि "इरा शब्द मदिरा का वाचक है "इरा सुरेव अजति विक्षिपति इति" इराज अर्थात् जो मदिरा की तरह विक्षिप्त कर देता हो,उन्मादक हो अत: यह कामदेव का पर्याय है।" जीतेन्द्र जी ने इसका अर्थ लेबनानी अथवा ईरानी बताया और कहा कि इसका अर्थ फूल या महान होता है। वह लिखते हैं कि ऑनलाइन पोर्टल पर यह अद्यतन अपडेट हो गया है. उनका एक्स पोस्ट ज्ञानवर्धक है. 


सामान्यतया उत्तर भारत में पिता का नाम जोड़ते हैं, माताजी का नाम जोड़ते हैं, बाबा का नाम जोड़ना नया प्रयोग है। लेकिन चूंकि यह नए सामंत के घर में आए युवराज हैं, इसलिए लालू यादव जैसे संस्थापक का नाम छोड़ा नहीं जा सकता।

हार्दिक शुभकामनाएं इराज लालू यादव को।

(इराज नाम लिखो तो गूगल सजेशन में इराक, ईरान, इराज़ रियाज़ आदि  रहा है।

गुरुवार, 24 अप्रैल 2025

धर्म पूछकर कत्ल किया

 सोशल मीडिया पर बहस इस बात की चल रही है कि पहलगांव में हो रही हिंसा को हिन्दू मुस्लिम धार्मिक चश्मे से क्यों देखा जा रहा है! जबकि वहां आतंकियों द्वारा नृशंस हत्या के बाद लोगों की सहायता करने वाले वहां के स्थानीय लोग, ड्राइवर, कुली ये सब मुसलमान ही थे और इन लोगों ने बड़ी आत्मीयता से समर्पण से और सेवा भाव से लोगों की सहायता की। 

इस बात से कौन इन्कार करेगा कि कश्मीर में आतंकी घटनाओं के बाद स्थानीय लोगों ने, जो शत प्रतिशत मुसलमान ही थे, लोगों की खूब सहायता की। यहां तक कि एक घोड़े से सवारी ढोने वाला मुस्लिम धर्म का व्यक्ति अपने हिन्दू पर्यटक सवारी को बचाने की कोशिश में मारा गया।

इस तथ्य से कोई मुंह नहीं मोड़ सकता कि सभी टूरिस्ट स्थानों के व्यवसाय में लगे सभी लोग जो मुस्लिम धर्म के ही हैं पर्यटकों की सेवा अपवादों को छोड़ दें तो बड़ी आत्मीयता से करते हैं। आखिर यह उनकी रोजी रोटी का विषय भी होता है और उनके अंदर भी मानवता की भावना होती है। कोई भी समाज हो उसमें बड़ी संख्या मानवीय संवेदना को रखने वालों की ही होती है। लेकिन इस सत्य के साथ सत्य यह भी है कि अनेक पर्यटकों ने जिनके परिजन मारे गए या जो किसी तरह कलमा आदि पढ़कर बच गए उन्होंने यह बताया है कि धार्मिक पहचान पूछ कर हत्याएं हुईं। अनेक वीडियो ऐसे हैं जिनमें पैंट निकाल कर धर्म को चिह्नित किए जाने की बात स्पष्ट परिलक्षित होती है। कुछ का अनुभव यह भी है कि अंधाधुंध गोली चलाकर भी मारा गया। अनेकों के अपने अपने अनुभव हैं। किसी एक के अनुभव को आखिरी सत्य नहीं माना जा सकता। तो स्थानीय मुसलमानों द्वारा पर्यटकों की सहायता करने की बात भी सत्य है और धार्मिक पहचान से लोगों को मारा गया यह बात भी सत्य है। दोनों में एक ही सत्य हो ऐसा नहीं है।

जब धार्मिक कट्टरता को चिह्नित करके धर्म के नाम पर आतंकियों द्वारा आतंक फैलाने या मारने की बात प्रमुखता से की जा रही है तो यह कहा जा रहा है कि आतंक की जड़ में यह धार्मिक उन्माद ही है जो मनुष्य के ऊपर धर्म को मानता है। जो यह मानता है कि एक धर्म के अलावा सभी काफिर हैं और काफिरों की हत्या से या उनको बल पूर्वक धर्मांतरित करने से जन्नत मिलेगी। इसी उन्माद के कारण एक धर्म से अलग मान्यता वाले वहां के वाशिंदों  को मारकर, उनके और उनकी महिलाओं के साथ पाशविक व्यवहार करके उनकी धरती से भगाया गया। क्योंकि उनका मानना था कि कश्मीर में सिर्फ एक धर्म वाले ही रहेंगे।आतंकी इसी मानसिकता के लोग हैं। यह सच है कि अच्छे और बुरे लोग प्रत्येक धर्म में होते हैं।  किसी को बुरा लगे या भला लेके बड़ा सच यह भी है कि इस्लाम मतावलंबियों में धार्मिक उन्मादियों की संख्या दुनिया के किसी भी धर्म से ज्यादा है। यह बात सिर्फ भारत नहीं भारत के बाहर दुनिया के अन्य देशों के अनुभव से कही जा रही है। टर्की, ईरान और इराक जैसे विकसित हो चुके देशों को इन धार्मिक कट्टरपंथियों ने कैसे बर्बाद किया और उन्हें अपने समय से कई दशक पीछे कर दिया यह किसी से छिपा नहीं है। बामियान में बुद्ध के साथ क्या हुआ, म्यांमार में बौद्ध धर्म के साथ क्या हो रहा है, पाकिस्तान और बांग्लादेश में गैर इस्लामियों के साथ क्या हुआ यह किसी से छिपा नहीं है। अपनी तमाम कमियों के बावजूद केवल चीन ही है जो अपने देश में रोग की तरह बढ़ते जा रहे उइगर विद्रोहियों को सम्हाल पाया और दुनिया चूं तक नहीं कर सकी। फ्रांस और जर्मनी में इनकी कट्टरता के बढ़ते प्रभाव की खबरें आए दिन सुर्खियों में रहती हैं। कश्मीर में भी कट्टरता से धर्म के नाम पर आतंक करने वालों की संख्या अमन पसंद लोगों से ज्यादा नहीं है। लेकिन ये मनपसंद लोग उनका विरोध नहीं करते। पहलगांव में हुई घटना के बाद वहां के स्थानीय लोगों द्वारा आतंक का हो रहा विरोध कट्टरपंथियों का पहला मुखर विरोध है। यह विरोध अगर तीन दशक पूर्व हुआ होता तो गैर मुस्लिमों को कश्मीर घाटी से भागना नहीं पड़ा होता। आए दिन वहां से इस बात के वीडियो आज भी आते हैं जब वहां के युवा यह कहते हैं कि यहां हिन्दू धार्मिक स्थलों के लिए कोई जगह नहीं है। 



कश्मीर के बहुसंख्यक मुस्लिम अमन पसंद हैं लेकिन वे कट्टरपंथियों का उस प्रकार विरोध नहीं करते जैसा इस बार कर रहे हैं। इस बार भी विरोध का मुख्य कारण इससे उनके रोजगार के बुरी तरह प्रभावित होने की संभावना  है जो उन्हें भयाक्रांत करके ऐसा करने पर मजबूर कर रही है। 

धारा 370 अस्थाई थी। इसका हटना देश की जरूरत थी। उसके हटने के बाद पर्यटन उद्योग में बहुत तगड़ा उछाल आया। ऐसे में इस्लामिक कट्टरपंथी आतंकवादी यह संदेश देना चाहते थे कि यह जमीन गैर मुस्लिमों के लिए सुरक्षित नहीं है इसलिए उन्होंने यह कृत्य अंजाम दिया। उन्हें रुपए कमाने के लिए काफिर पर्यटक मंजूर हैं लेकिन उन्हें काफिरों में वहां बसने का भाव भी नहीं आने देना है। वे यह संदेश देने में सफल रहे। अब आपको लगता है कि हिन्दू मुस्लिम होने से भाजपा को देशव्यापी फायदा होगा इसलिए पॉलिटिकली करेक्ट होने के भाव से यदि आप इस तथ्य से इनकार करते हैं तो कीजिए। लेकिन सचाई यही है। आपके आंख मूंद लेने से यह बदल नहीं जाएगी।



भाजपा को फायदा न हो इसके लिए बहुसंख्यक मुस्लिम समाज को मुस्लिम कठमुल्लों, कट्टरपंथियों के खिलाफ खुलकर सड़कों पर आना होगा। वैसे ही जैसे हिन्दू कट्टरपंथियों के खिलाफ बड़ा हिंदू वर्ग खुलकर सड़क पर आता है। आप खुलकर सड़क पर नहीं आएंगे तो जाने अनजाने प्रतिक्रिया में हो सकने वाली हिन्दू कट्टरता को बढ़ावा देंगे। आप माने न माने मुस्लिम कट्टरता पर चुप रहने की प्रवृति ही आज बढ़ी नजर आ रही हिन्दू कट्टरता की प्रवृति की जन्मदाता है।

                                        - गौरव तिवारी

बुधवार, 23 अप्रैल 2025

Welcome Back! आपका पुनः स्वागत है कथावार्ता]!

    लगभग एक माह तक कथावार्ता का ब्लॉग google द्वारा बाधित रहने के बाद पुनः क्रियाशील हो गया है. आज गूगल ने पुनरीक्षण करने के उपरान्त इसे निर्दोष और मौलिक पाया है. मुझे आशंका थी कि कहीं विद्यापति और उसकी व्याख्या में प्रयुक्त चित्रों से तो कोई समस्या नहीं है, लेकिन सूक्ष्म पर्यवेक्षण करके पाया कि यह काम परेशांत आचार के लड़कों का है. हमने जो ब्लॉग परेशांत आचार के विचारों की आलोचना करते हुए लिखा था, उसके जवाब में परेशांत के लड़कों ने इसे रिपोर्ट किया था जिसे google ने निर्दोष पाया. 
    मैं यह बताना चाहता हूँ कि नव्य वेदांती इस तरह सक्रिय हैं कि वह हमारी हर आवाज़ दबा देना चाहते हैं. यह निंदनीय और घृणास्पद है. इस तरह की वृत्ति की निंदा की जानी चाहिए.


 

Welcome Back!


    अब जबकि kathavarta ब्लॉग पुनः सक्रिय हो गया है, इसपर हम साहित्य संस्कृति और कलात्मक विषयों पर अपने लेख प्रकाशित करते रहेंगे. धन्यवाद.


शनिवार, 15 मार्च 2025

फर्जी आचार्य प्रशांत की दृष्टि में स्त्री

प्रशांत त्रिपाठी, जिन्हें आचार्य प्रशांत कहा जा रहा है, एक भारी वक्ता हैं। वह अद्वैत वेदांत की शिक्षाओं को विकृत कर रहे हैं। उनके बारे में यह प्रसिद्ध है कि वह एक "फर्जी आचार्य" हैं। यह कई लोगों की व्यक्तिगत राय और अनुभवों पर आधारित तथ्य है।


कुछ लोग, जिन्हें प्रशांत त्रिपाठी ने अपने झुंड से जोड़ लिया है, उन्हें एक प्रेरणादायक व्यक्ति मानते हैं, जो गीता, उपनिषद और अन्य भारतीय ग्रंथों की को लोगों तक पहुंचा रहे हैं। उनके समर्थकों का कहना है कि उन्होंने IIT दिल्ली और IIM अहमदाबाद जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से शिक्षा प्राप्त की, सिविल सेवा में कार्य किया जो संदेहास्पद है और अप्रमाणित।  उनके यूट्यूब चैनल, जहां उनके 50 मिलियन से अधिक सब्सक्राइबर हैं जो प्रमोशन के अंतर्गत क्रय करके पाए गए हैं।

प्रशांत त्रिपाठी

कुछ आलोचक उन्हें "फर्जी" कहते हैं। उनका तर्क है कि "आचार्य" की उपाधि पारंपरिक रूप से संस्कृत विद्या या शास्त्रीय शिक्षा से जुड़ी होती है, और प्रशांत त्रिपाठी के पास ऐसी औपचारिक डिग्री का कोई सार्वजनिक प्रमाण नहीं है। कुछ का यह भी कहना है कि वे अपने प्रचार और लोकप्रियता के लिए विज्ञापन का सहारा लेते हैं, जिसे वे गंभीर आध्यात्मिकता से जोड़ते नहीं देखते। उदाहरण के लिए, X पर कुछ यूजर्स ने दावा किया है कि उनके पास शास्त्री या आचार्य की डिग्री नहीं है। यह सच है।

यद्यपि "आचार्य" शब्द का प्रयोग आधुनिक संदर्भ में औपचारिक डिग्री से ही नहीं जुड़ा है बल्कि यह एक सम्मानजनक संबोधन भी है, जो प्रशांत के अनुयायियों द्वारा दिया गया है। प्रशांत त्रिपाठी ने अपनी शिक्षा पारंपरिक गुरुकुल प्रणाली से नहीं ली है। वह अभियांत्रिकी और प्रबंधन के छात्र अवश्य रहे हैं।

उनके व्याख्यानों को सुनकर हालांकि वह झेले नहीं जाते,  उनकी मुद्रित सामग्री पढ़कर, या उनके संगठन के काम को देखकर स्वयं निर्णय ले सकते हैं और पायेंगे कि वह फर्जी वक्ता हैं।


उनकी शैली घटिया है और विचार अस्पष्ट तथा अपरिपक्व

आचार्य प्रशांत की शैली "घटिया" है और उनके विचार "अस्पष्ट तथा अपरिपक्व"। प्रशांत त्रिपाठी की प्रस्तुति बोलचाल की भाषा में होती है, इसमें शास्त्रीयता का अभाव है।इस बोलचाल में वे जटिल आध्यात्मिक अवधारणाओं को दैनंदिन के उदाहरणों से जोड़ते हैं। यह सरल और प्रभावी नहीं अपितु "घटिया" और उलझाऊ होता है। अगर पारंपरिक आचार्यों की औपचारिक, संस्कृत-आधारित और शास्त्रीय शैली की अपेक्षा से देखें तो प्रशांत बहुत सतही दिखेंगे। उदाहरण के लिए, वे अक्सर आधुनिक मुद्दों जैसे रिश्ते, करियर या सोशल मीडिया को अपने बोलने में शामिल करते हैं, जो कुछ को कम गंभीर या सतही लग सकता है। 


प्रशांत त्रिपाठी के विचार मुख्य रूप से अद्वैत वेदांत पर आधारित हैं, जिसमें आत्म-जागरूकता, अहंकार का त्याग, और सत्य की खोज पर जोर होता है। वे इसे आधुनिक संदर्भ में पेश करने का प्रयास करना चाहते हैं, जो मूल ग्रंथों के अर्थ से एक बड़े विचलन का सूचक है। उनके व्याख्यान दोहराव वाले या बहुत सामान्य होते हैं, जब वह "अहंकार छोड़ो" या "सत्य को जानो,"  जैसे बिना गहरे दार्शनिक विश्लेषण के अपनी बात रखते हैं। उनके विचारों में गहराई की कमी है। वे हर विशेष विषय पर असंगत स्थापनाएं करते हैं?

हिरण्यपु प्रशांत त्रिपाठी 

एक प्रसिद्ध विद्वान, अभी वह इतने बड़े विद्वान भी नहीं है कि नाम लिया जाए तथापि आप गूगल कर सकते हैं, का कहना है कि "प्रशांत त्रिपाठी आध्यात्मिकता को ओवरसिम्प्लिफाई करते हैं, जो इसे सस्ता बनाता है।" यह एकदम सटीक विश्लेषण है। इसके विपरीत, उनके खरीदे हुए भाड़े के प्रशंसक इसे उनकी खासियत बताते हैं। उनके मत में यह जटिलता को आम आदमी तक पहुँचाना है। हालांकि यह एक प्रोपेगंडा भर है।


हम प्रशांत त्रिपाठी के विचारों की  "अस्पष्टता" और "अपरिपक्वता" को ठोस उदाहरणों के साथ देखना चाहें तो उनकी एक सर्वाधिक बिकी मुद्रित सामग्री "स्त्री" (Stree) के आधार पर कह सकते हैं जो उनके विचारों की एक बानगी हो सकती है। 

मुद्रित सामग्री "स्त्री" का संक्षिप्त परिचय


"स्त्री" में प्रशांत त्रिपाठी महिलाओं की सामाजिक स्थिति, उनकी मानसिक गुलामी, और आध्यात्मिक मुक्ति पर बात करते हैं। वे अद्वैत वेदांत के दर्शन को आधार बनाकर कहते हैं कि स्त्री का वस्तुकरण (objectification) उसकी दासता का कारण है, और इससे मुक्ति आत्म-जागरूकता से संभव है। इस में वे शरीर और मन के बंधनों को छोड़ने की बात करते हैं।


इस मुद्रित सामग्री में प्रशांत त्रिपाठी बार-बार "स्त्री को वस्तु न समझें" या "अहंकार छोड़ें" जैसे वाक्य प्रयोग करते हैं, लेकिन कहीं भी यह स्पष्ट नहीं करते कि यह व्यावहारिक रूप से कैसे लागू होगा! उदाहरण के लिए, वे कहते हैं, "स्त्री जब अपना स्त्रीत्व छोड़ देती है, तो वह वासना की वस्तु न रहकर देवी बन जाती है।" यह विचार ऊपरी तौर पर गहन लगता है, लेकिन "स्त्रीत्व छोड़ना" का आशय क्या है? क्या यह भावनाओं को दबाना है, सामाजिक भूमिकाओं को नकारना है, या कुछ और? इसकी व्याख्या अस्पष्ट रहती है, जिससे पाठक को व्यावहारिक दिशा नहीं मिलती। यहीं प्रशांत त्रिपाठी की सीमा प्रकट हो जाती है।


प्रशांत त्रिपाठी बिना ठीक से स्पष्ट किए दार्शनिक जटिलता को अपने कथन में ले आते हैं। वे बार बार अद्वैत वेदांत की बात करते हैं, जैसे "आत्मा ही सत्य है, देह मिथ्या है," लेकिन इसे दैनंदिन की ज़िंदगी से जोड़ने में कमी रहती है। एक सामान्य पाठक, खासकर जो दर्शन से परिचित नहीं है, यह समझने में तो असमर्थ रहता ही है कि यह विचार उनकी जटिल सामाजिक वास्तविकता में कैसे फिट बैठता है। विशेष पाठक अपना माथा पीट लेता है। यह अस्पष्टता उनके लेखन/बड़बोलेपन को सतही बना देती है।


अति-सामान्यीकरण: मुद्रित सामग्री "स्त्री" में प्रशांत त्रिपाठी स्त्री की स्थिति को एक व्यापक दार्शनिक ढांचे में रखते हैं, लेकिन सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक विविधताओं को वह संज्ञान में नहीं रखते। उदाहरण के तौर पर, वह कहते हैं कि स्त्री की दासता का कारण उसका "देह से तादात्म्य" है। यह विचार सभी महिलाओं पर एकसमान लागू नहीं हो सकता—एक मज़दूर की समस्याएँ और एक शिक्षित शहरी स्त्री की समस्याएँ अलग हैं। इस जटिलता को न संबोधित करना उनके विश्लेषण को अपरिपक्व बनाता है, क्योंकि यह वास्तविकता की गहराई को नहीं छूता। इसी प्रकार और भी कोण निकाले जा सकते हैं।


प्रशांत त्रिपाठी में आलोचनात्मक परिपक्वता की कमी स्पष्ट परिलक्षित होती है। वे पारंपरिक मान्यताओं (जैसे स्त्री का मातृत्व या भावुकता) पर सवाल उठाते हैं, लेकिन वैकल्पिक रास्ता सुझाने में असफल रहते हैं। उदाहरण के लिए, वे "आंचल में दूध और आँखों में पानी" को स्त्री की गुलामी का प्रतीक बताते हैं, लेकिन यह नहीं बताते कि इन गुणों को त्यागने के बाद समाज कैसे संतुलन बनाएगा। यह एकतरफा दृष्टिकोण अपरिपक्व ही है, क्योंकि यह सामाजिक संरचनाओं के प्रति संपूर्ण समझ नहीं दिखाता। यह उनकी सीमा का परिचायक है।


प्रशांत त्रिपाठी के यहां बिना ठोस आधार का आदर्शवादी रवैया दिखता है। एक जगह वह कहते हैं, "स्त्री को मन और तन की बंधकता से मुक्त होना चाहिए।" यह आदर्शवादी कथन है, क्योंकि इसके लिए कोई परिपक्व कार्ययोजना नहीं है। क्या यह शिक्षा से होगा, सामाजिक सुधार से, या व्यक्तिगत साधना से? इसकी अनुपस्थिति उनके विचारों को अपरिपक्व बनाती है, क्योंकि यह केवल सिद्धांत तक सीमित रहता है।


हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि मुद्रित सामग्री "स्त्री" में प्रशांत त्रिपाठी के विचार अस्पष्ट हैं, क्योंकि वे  दार्शनिक बातें तो करने का प्रयास करते हैं लेकिन उलझ जाते हैं क्योंकि स्वयं उनका कॉन्सेप्ट क्लियर नहीं है। उनकी व्याख्या या अनुप्रयोग स्पष्ट नहीं है। उनकी सोच अपरिपक्व है, क्योंकि वे जटिल सामाजिक मुद्दों को बहुत सरल या सतही तरीके से देखते हैं, बिना व्यावहारिक समाधान या गहरे विश्लेषण के।

बुधवार, 12 मार्च 2025

प्रशांत फ्रॉडेंडेशन के फर्जी आचार्य प्रशांत

गंभीर बात!
१+
प्रशांत त्रिपाठी का लिखा हुआ (अव्वल तो वह लिखा हुआ नहीं है, नशे के उन्माद में बोला हुआ है) जो कुछ बताया जाता है वह उसके निजी प्रकाशन गृह का एक उत्पाद है। ऐसी पुस्तकों के प्रकाशन क्रम में कोई संपादक/रिव्यू करने वाला नहीं होता है, अतः जो उन्होंने कहा, उसे लिपिबद्ध कर दिया गया है।
अब मैं प्रशांत और उसके चेल्लरों को कहता हूं कि वह प्रशांत का एक लेख/संपादकीय/फीचर/निबंध दिखा दें जो उसके प्रकाशन गृह से बाहर प्रिंट में हो।
प्रशांत ने इंटरनेट मीडिया में, जहां वह आसानी से कुछ घूस देकर, अकाउंट बनवाकर लिख ले रहा है, वहां वहां स्वयं को उपस्थित कर दिया है। उसने इसके लिए ठेके दिए हैं।

प्रशांत त्रिपाठी

गंभीर बात!
१+१
किसी ने कोई पुस्तक लिखी है! यदि वह रचनात्मक साहित्य नहीं है तो रचना को पुस्तक मानने के कुछ आधार हैं।

१. लेखक मान्यता प्राप्त विद्वान है।
२. वह किसी संस्थान में अध्यापन कार्य से संबद्ध है। (प्रोफेसर हो।)
३. जिस संस्था से संबंधित है, उसमें उसका दायित्व पठन पाठन और अकादमिक/बौद्धिक जगत से जुड़ा हुआ है। उसका संबंध लिखने/पढ़ने के क्षेत्र से है।
४. रचना मौलिक होनी चाहिए और उसमें यह गुण हो कि उसकी व्याख्या की जा सके।
५. उसकी लिखी गई रचना एक विशेष विधा में परिगणित की जा सकती है।
६. उसका साइटेशन होता हो, यानि दूसरे अध्येता उसको उद्धृत करते हैं और उसे अपने विमर्श में लाते हैं।
७. उसका प्रकाशन किसी मान्यताप्राप्त प्रकाशन गृह से हुआ है।
८. रचना लिखी हुई होनी चाहिए। बोलकर, ट्रांस्क्रिप्ट प्रस्तुति को पुस्तक नहीं कहेंगे।
९. पुस्तक तथ्यों का संकलन नहीं है न उद्धरणों की व्याख्या। वह विश्लेषण और अतःप्रज्ञा का प्रकटन है।
१०. उसे लिखने वाला चरसी और गंजेड़ी न हो।

(प्रशांत की तथाकथित कुटीर उद्योग की प्रस्तुतियों को देखकर जांचना चाहिए कि क्या वह खरा उतर रहा है?)


गंभीर बात!

१+१+१

प्रशांत त्रिपाठी ने अपनी प्रबंधकीय मेधा का प्रयोग इस अर्थ में किया है कि इंटरनेट पर छा जाओ। यूट्यूब, इंस्टा, फेसबुक, एक्स, विकिपीडिया, गूगल हर जगह उसने खुद को प्रोजेक्ट किया है। उसने एक झुंड बनाया है जो दिन रात इंटरनेट पर प्रशांत का नाम खोजता, सराहता और प्रसारित करता है। झुंड को इसी की रोटी मिलती है।

इससे यह हुआ है कि आप प्रशांत, वेदांत, गीता, सनातन, हिंदू, आदि पदों के साथ खोजेंगे तो यह सर्च इंजन में सबसे पहले दर्शित होता है। फीड में आ जाने से प्रशांत को बड़ी संख्या में लोग क्लिक करते हैं और यह रक्तबीज की तरह बढ़ता जाता है।

वह तो गनीमत है कि प्रशांत की बातें अबूझ हैं। उसकी मान्यताएं अस्पष्ट हैं। वह स्वयं क्या बोलते हैं, उन्हें ज्ञात नहीं है क्योंकि वह सब पिनक में चलता है। तो इस तरह वह फीड में दिखने के बाद भी लोगों के बीच चर्चा में नहीं आता। लेकिन उसने स्पेस में स्वयं को बिठाया हुआ है।

प्रशांत का एक कॉल सेंटर है। प्रशांत के फाउंडेशन को कोई गलती से भी रजिस्टर कर ले तो इसका कॉल सेंटर सक्रिय हो जाता है और पहले प्यार से फिर धमका कर और अंत में ब्लैकमेल करके उगाही करता है। मेरे साथ फाउंडेशन के लड़के की बातचीत इसका प्रमाण है। यह बातचीत यूट्यूब पर है। लिंक साझा कर दूंगा नीचे।

प्रशांत के गीता सेशन में चाहे जो प्रबोध कराया जाता हो, लड़के सीखते गालियां हैं। यह अपने से असहमति रखने वालों को भिन्न भिन्न तरीके से डराते हैं। लोग लोक लाज और छवि का ध्यान करके इनसे दूरी बना लेते हैं। इनका झुंड उकसा कर गलत व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता है और गलती होने पर मास रिपोर्टिंग करके अकाउंट सस्पेंड करा देता है। आपकी लड़ाई वहीं समाप्त हो जाती है।

प्रशांत के चिल्लर अनुयाई घुटे हुए हैं। ज्योंहि यह धराते हैं, तुरंत भूमिगत हो जाते हैं और रूप बदलकर आ जाते हैं। जब फंस जाते हैं, कहते हैं, यह हमारे समूह के लोगों का नहीं, विरोधियों का काम है।

जारी रहेगा..




सोमवार, 3 मार्च 2025

पाँच महत्वपूर्ण कोश ग्रन्थ,

पाँच महत्वपूर्ण कोश ग्रन्थ, जो एक पाठक, अध्येता, लेखक के पास अवश्य होना चाहिए।


पहले कोश और कोष का अंतर स्पष्ट करते चलें।

सामान्यतया दोनों समानार्थी हैं और मूल्यवान वस्तुओं के संग्रह स्थल के परिचायक। अंतर यह है कि कोष संपत्ति, धन, रत्न और मूल्यवान धातुओं के संग्रह से जुड़ा हुआ है। राजकोष, कोषागार आदि इसी से संबंधित हैं। जबकि कोश शब्दों के संग्रह से संबंधित है। यह भाषा से संबंधित है।


१. संस्कृत हिन्दी कोश, कोशकार, वामन शिवराम आप्टे।

संस्कृत के शब्दों का सही हिन्दी अर्थ मुझे इस कोश में मिला। अब यह कोश कॉपीराइट से मुक्त हो गया है तो कई प्रकाशकों ने इसे छाप दिया है। अतः यह चुनाव करना माथापच्ची हो सकती है कि सही पाठ कौन सा है?

संस्कृत हिन्दी कोश


आप मोतीलाल बनारसीदास से प्रकाशित ग्रन्थ चुन सकते हैं!


२. लोकभारती वृहत् प्रामाणिक हिन्दी कोश। कोशकार आचार्य रामचन्द्र वर्मा, डॉ बदरीनाथ कपूर।

हिन्दी से हिन्दी शब्दों का कोश ग्रन्थ लोकभारती प्रकाशन जो राजकमल प्रकाशन का अनुषंगी है, से प्रकाशित है और बहुत उपयोगी है। हिन्दी से हिन्दी शब्दों का एक कोश डॉ हरदेव बाहरी ने भी बनाया है। सबसे समृद्ध तो नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी का है जिसे आचार्य श्याम सुंदर दास ने संपादित किया है। (वहां से इसका नया रूप शीघ्र ही आने की संभावना है। प्रतीक्षारत हूं।) विगत दिवस महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ने भी एक कोश प्रस्तुत किया था किंतु ...।   



  ३. उर्दू - हिन्दी शब्दकोश। कोशकार - मुहम्मद मुस्तफा खां 'मद्दाह'। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने यह सबसे अधिक मूल्यवान कोश प्रकाशित किया है। उर्दू अरबी फारसी के शब्दों का हिन्दी अर्थ इसमें बहुत सावधानी से बताने का प्रयास किया गया है। बहुत से ऐसे शब्द जो उर्दू फारसी के हैं, उनका अर्थ जानने के लिए यह एक आवश्यक कोश ग्रन्थ है।



४. OXFORD Advanced Learner's dictionary. ऑक्सफोर्ड की यह प्रस्तुति बहुत सही है। इसमें अंग्रेजी से अंग्रेजी के पर्याय हैं। वैसे तो भार्गव की अंग्रेजी से हिन्दी डिक्शनरी बहुत काम की है और हम सबलोगों के बचपन में वह सबसे अधिक उपयोग में आई है लेकिन जब अंग्रेजी भाषा के शब्दकोश का मामला हो तो यह अपने निकट रखना चाहिए। एक आवश्यक कोश ग्रन्थ है। अंग्रेजी से हिन्दी शब्दों का एक कोश भी ऑक्सफोर्ड के सौजन्य से प्रकाशित किया हुआ रखना चाहिए।

५. हिन्दी साहित्य कोश। यह कोश दो खंड में है। एक में लेखकों के नाम से और दूसरा रचनाओं/परिभाषिक शब्दों के साथ। इसमें साहित्य से संबंधित शब्दों, लेखकों, उनकी रचनाओं का बहुत सही विवरण और परिचय है। एक आवश्यक ग्रन्थ।

हिंदी साहित्य कोश


इसके अतिरिक्त हिन्दी का एक थिसारस (समांतर कोश) भी आवश्यक है, जिसमें शब्दों के उत्पत्ति विषयक अवधारणा भी है।

परिभाषिक शब्दों का एक कोश भी आवश्यक हो गया है। समय की मांग के अनुसार विभिन्न विभागों में प्रयोग के लिए अपने कोश हो सकते हैं। अन्य भाषाओं से हिंदी और हिंदी से अन्य भाषाओं का कोश भी आवश्यक हो तो रख सकते हैं।


धन्यवाद।

रविवार, 2 मार्च 2025

श्री हनुमान चालीसा

श्री गुरु चरण सरोज रज निज मनु मुकर सुधारि।

बरनों रघुवर बिमल जस, जो दायक फल चारि।।


बुद्धि हीन तनु जानिके, सुमिरों पवन कुमार।

बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेश बिकार।।


श्री हनुमान चालीसा


जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।

जय कपीस तिहुं लोक उजागर।।


 

रामदूत अतुलित बल धामा।

अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा।।



महाबीर बिक्रम बजरंगी।

कुमति निवार सुमति के संगी।।



कंचन बरन बिराज सुबेसा।

कानन कुंडल कुंचित केसा।।



हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै।

कांधे मूंज जनेऊ साजै।



संकर सुवन केसरीनंदन।

तेज प्रताप महा जग बन्दन।।



विद्यावान गुनी अति चातुर।

राम काज करिबे को आतुर।।



प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।

राम लखन सीता मन बसिया।।



सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।

बिकट रूप धरि लंक जरावा।।



भीम रूप धरि असुर संहारे।

रामचंद्र के काज संवारे।।



लाय सजीवन लखन जियाये।

श्रीरघुबीर हरषि उर लाये।।



रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।

तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।।



सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।

अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।।



सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।

नारद सारद सहित अहीसा।।



जम कुबेर दिगपाल जहां ते।

कबि कोबिद कहि सके कहां ते।।



तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।

राम मिलाय राज पद दीन्हा।।



तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना।

लंकेस्वर भए सब जग जाना।।



जुग सहस्र जोजन पर भानू।

लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।



प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।

जलधि लांघि गये अचरज नाहीं।।



दुर्गम काज जगत के जेते।

सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।



राम दुआरे तुम रखवारे।

होत न आज्ञा बिनु पैसारे।।



सब सुख लहै तुम्हारी सरना।

तुम रक्षक काहू को डर ना।।



आपन तेज सम्हारो आपै।

तीनों लोक हांक तें कांपै।।



भूत पिसाच निकट नहिं आवै।

महाबीर जब नाम सुनावै।।



नासै रोग हरै सब पीरा।

जपत निरंतर हनुमत बीरा।।



संकट तें हनुमान छुड़ावै।

मन क्रम बचन ध्यान जो लावै।।



सब पर राम तपस्वी राजा।

तिन के काज सकल तुम साजा।



और मनोरथ जो कोई लावै।

सोइ अमित जीवन फल पावै।।



चारों जुग परताप तुम्हारा।

है परसिद्ध जगत उजियारा।।



साधु-संत के तुम रखवारे।

असुर निकंदन राम दुलारे।।



अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।

अस बर दीन जानकी माता।।



राम रसायन तुम्हरे पासा।

सदा रहो रघुपति के दासा।।



तुम्हरे भजन राम को पावै।

जनम-जनम के दुख बिसरावै।।



अन्तकाल रघुबर पुर जाई।

जहां जन्म हरि-भक्त कहाई।।



और देवता चित्त न धरई।

हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।।



संकट कटै मिटै सब पीरा।

जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।।



जै जै जै हनुमान गोसाईं।

कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।।

 


जो सत बार पाठ कर कोई।

छूटहि बंदि महा सुख होई।।




जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।

होय सिद्धि साखी गौरीसा।।



तुलसीदास सदा हरि चेरा।

कीजै नाथ हृदय मंह डेरा।।


पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।

राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुरभूप।।

रविवार, 16 फ़रवरी 2025

महाकुंभ के 144 साल

प्रयागराज में लगे हुए #महाकुंभ2025 के संबंध में 144 साल का जुमला बहुत चर्चा में है। सरकार ने इस आयोजन को ऐतिहासिक बताने के लिए कहा कि यह शताब्दियों में एक बार लगने वाला मेला है इसलिए अमृत स्नान किया ही जाना चाहिए। श्रद्धालुओं ने भी तय किया कि चलते हैं

महाकुंभ के 144 साल

#महाकुंभ2025 के आरंभ होने में साथ ही श्रद्धालुओं का रेला चल पड़ा। सरकार और सनातन के समर्थक प्रसन्न। हर हर महादेव और हर हर गंगे की गूंज में जय श्री राम भी सम्मिलित हो गया। सब कुछ सही तरीके से चलने लगा। बेहद अनुशासित। लोग आते। डुबकी लगाते। अपने को धन्य समझते। ऐतिहासिक कुंभ है।

जय श्री राम

अमृत स्नान हुए। अखाड़े सजे। शंख ध्वनि हुई। सब अपने और परमार्थ के हित में चले। 144 साल चल पड़ा। सब ऐतिहासिक था।

ध्यान से देखा जाए तो जीवन का हर क्षण ऐतिहासिक है। जापानी कहावत है कि आप एक नदी में दुबारा स्नान नहीं कर सकते। जो क्षण जीवन में आया, वह दुबारा नहीं आएगा।  हर क्षण ऐतिहासिक है। कोई भी घटना दोहराई नहीं जा सकती।

इस प्रकार कोई भी आवृत्ति असंभव है। फिर भी 144 साल का जुमला चल गया।

हर महाकुंभ या कुंभ या माघ मेला सहस्त्राब्दियों के बाद लगता है। जो पहली बार लगा था, उसके बाद जितने लगते गए, वह सभी ऐतिहासिक हैं। ग्रह, नक्षत्र, राशि और काल की गणना में भी अनूठे। कुछ भी दोहराया नहीं जा सकता। जो वस्त्र एक बार पहन लिया गया है, वह दुबारा नहीं पहन सकते। जो कौर चबा लिया गया है, उसे पुनः नहीं खा सकते। जिस जल में डुबकी लगा दी, वह जल वही नहीं रह गया। जिसके साथ रह लिया, जिसे भोग लिया, वह दोहराया नहीं जा सकता। जिसने एक शब्द उच्चार दिया, वही पुनः नहीं निकलेगा। हर क्षण परिवर्तन चल रहा है। एक अनवरत प्रक्रिया चल रही है। और इसमें कोई वृत्त भी नहीं है। यदि कोई वृत्त है तो वह हमारे बोध से परे है। लेकिन यह सब दार्शनिकों की बातें हैं। भारतीय मन इसे मानता है। इसमें गहराई से विश्वास करता है लेकिन इसी के साथ वह इसे गूढ़ विषय मानकर कहता है कि अपना यह ज्ञान, सूक्ष्म अवलोकन अपने पास रखो। भारतीय मानस एक ऐसा आश्रय खोजता है जो उसे उसके मनोनुकूल आदेश देता हो।


स्वाधीनता प्राप्ति के बाद जन्मी पीढ़ी ने पहली बार देखा था कि कोई प्रधानमंत्री निषादों के बीच है। सफाई कर्मियों के पांव धो रहा है। उनका आभार प्रकट कर रहा है। कोई मुख्यमंत्री स्वतः रुचि लेकर आयोजनों को मॉनिटर कर रहा है। समूचे अमले को लगा रखा है कि वह संस्कृति के महत्वपूर्ण विषय को गरिमा और उचित आदर से देखे।

ऐसे में उसकी सुप्त भावना को आश्रय मिलता है। वह उठता है और चल पड़ता है अमृत स्नान की खोज में।

भारतीय मानस धर्म की ध्वजा उठाए चल पड़ा है। मैं इस ऐतिहासिकता और सरकारी विज्ञापन के महत्त्व को नहीं भूल रहा हूं लेकिन जोर देकर कहना चाहता हूं कि यदि भारतीय जनता को 144 साल की ऐतिहासिकता का अभिज्ञान नहीं भी कराया गया होता तो भी श्रद्धालुओं के आने का सिलसिला वही रहता जैसा कि आज है।

इस #महाकुंभ के आयोजन में आग लग गई। #मौनीअमावस्या के दिन भगदड़ हो गई। कल नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर श्रद्धालु दब गए। मीलों तक वाहनों की कतार लगी। लोग भूखे प्यासे रहने के लिए विवश हुए। उन्हें कल्पना से अधिक श्रम करना पड़ा पर उनका धैर्य और उत्साह बना रहा। क्या रेलगाड़ी, क्या बस, क्या हवाई जहाज हर तरफ श्रद्धालु उपस्थित। उससे अधिक दृष्टिगोचर हुए निजी वाहन से पहुंचने के लिए निकले लोग।

दुनिया दांतों तले उंगली दबाए सोच रही है! यह क्या हुआ है। कितना बड़ा मेला है। ब्राजील में कार्निवल लगता है। देश भर में पचास साठ लाख लोग एकत्रित हो जाते हैं। ब्राजील सांबा करने लगता है। यहां एक दिन में साढ़े सात करोड़ श्रद्धालु आते हैं, स्नान करते हैं और अपने गंतव्य पर चल देते हैं। इतने भर से प्रसन्न हैं कि स्वच्छता है। व्यवस्था में लोग लगे हैं। स्रोतस्विनी अविरल है। वह मोक्षदायिनी है।


क्या उन्हें कोई अपेक्षा है? नहीं। वह मुदित हैं। आभारी हैं। अपने को धन्य मान रहे हैं। दूसरे को धन्यवाद कर रहे हैं। महाकुंभ से अमृत रस झर रहा है। शंखनाद जारी है।

सनातन का शंखनाद

यह अमृतकाल है। अयोध्याजी में रामलला के विग्रह की स्थापना। भारत के मंदिरों का पुनरुद्धार चल रहा है। काशी और महाकाल हमारे समक्ष हैं। नए कालचक्र के उद्गम में दुनिया भर से श्रद्धालु आयेंगे। कोई रोक नहीं सकेगा। स्वतः चल पड़ेंगे।

अब यह हम सबका सामूहिक दायित्व है कि हम उनके मार्ग को फूलों से सजा दें। यदि कोई कांटा आए तो उसे उखाड़ फेंके। जो सरकार इसमें सहायक नहीं होगी, वह जनता के चित्त से उतर जाएगी। जो लोग इसमें सहायक होंगे, वही मित्र, सखा, साथी, संघाती कहे जाएंगे।




शनिवार, 15 फ़रवरी 2025

सौवें वर्ष में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ


महाकुंभ में मौनी अमावस्या के दिन हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने समूचे देश को क्षुब्ध कर दिया। उत्तर प्रदेश सरकार के पुख्ता इंतजामों के बावजूद ऐसी अप्रिय घटना हो जाना हृदयविदारक है। इस घटना के बाद जहाँ सरकार ने कुम्भ नियमों में महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं वहीं ट्रैफिक व्यवस्था में सहयोग हेतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सोलह हजार स्वयंसेवकों ने भी पुलिस के साथ सहयोग करने का फैसला लिया है। इस निर्णय की चारों तरफ प्रशंसा हो रही है,जो संघ की देश एवं समाज के प्रति प्रतिबद्धता को भी दर्शाता है।

इस साल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना को सौ साल पूरा हो जाएगा। बीते सौ सालों में संघ ने कई उत्तर-चढ़ाव देखे हैं हालांकि किसी भी तरह की नकारात्मकता को त्यागकर संघ ने प्रत्येक मौके पर देश की जरूरत में हाथ बँटाया है,जिससे संघ की प्रासंगिकता एवं लोकप्रियता में कभी गिरावट नहीं आयी ।स्थापना की एक शताब्दी बाद भी किसी संगठन की वैचारिकी एवं प्रतिबद्धता में दृढ़ता का उदाहरण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अलावा समूचे विश्व में विरले ही मिलेगा। उपर्युक्त कथन की विवेचना करने पर आभास होता है कि संघ ने इन सौ सालों में समाज की जरूरत के हिसाब से बदलाव में सफलता पाई है। बदलाव के इस दौर में संघ ने मूलभूत भारतीय मूल्यों के साथ समझौता नहीं किया और भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के बचाव में एक मजबूत स्तंभ बनकर खड़ा रहा। संघ के सौ सालों के इतिहास में ऐसे कई कारक हैं जो इस संगठन एवं इसके कार्यकर्ताओं को खास बनाते हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने विकसित भारत की परिकल्पना में शिक्षा के भारतीयकरण के महत्व को समझा तथा इस दिशा में व्यापक कार्य किये। वर्तमान समय में संघ द्वारा संचालित हजारों स्कूल जातीय एवं धार्मिक भेदभाव रहित शिक्षा प्रदान कर रहे हैं तथा सशक्त भारत के निर्माण में अपना योगदान दे रहे हैं। इसके अलावा प्राकृतिक आपदाओं के समय संघ ने सुरक्षा बलों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य किया। 2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ में आई भारी तबाही के वक्त संघ ने राहत कार्यों में भरपूर सहयोग किया था। आरएसएस कार्यकर्ताओं के लिए संवेदनशील राज्य केरल में आई बाढ़ के वक्त स्वयंसेवकों के बचाव कार्यों की चारों ओर प्रशंसा हुई थी। कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी के बीच भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने अपनी जान जोखिम में डालकर लोगों के सेवार्थ कार्य किया। इस दौरान कोरोना वायरस से कई स्वयंसेवकों की जान भी गई किंतु उनके हौसलों में कमी नहीं आई।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी सक्रिय रहा है। संघ ने स्वास्थ्य कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए कई पहल की है। संघ के विभिन्न प्रकल्पों जैसे सेवा भारती इत्यादि की स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रिय भागीदारी रही है। जिसने समय-समय पर स्वास्थ्य शिविरों के आयोजन से लेकर शहरी झोपड़-पट्टियों, आदिवासी समुदायों एवं समाज के कमजोर वर्ग के लिए कार्य किया है।

आरएसएस ने महिला सशक्तिकरण के महत्व को समझते हुए ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते,रमन्ते तत्र देवता’ के तहत बीते कुछ सालों से महिलाओं के शिक्षा,बेहतर स्वास्थ्य एवं सुरक्षा की दिशा में कार्यों का निष्पादन किया है। संघ द्वारा मार्गदर्शित भाजपा सरकार ने उज्ज्वला योजना, ड्रोन दीदी एवं तीन तलाक खत्म करने जैसे क्रांतिकारी कार्यों को सफलतापूर्वक अंजाम दिया है।

इसके अलावा भी भिन्न-भिन्न स्थानों पर समय एवं जरूरत को देखते हुए रक्तदान शिविरों का आयोजन,सामूहिक एवं सर्वजातीय विवाह,कौशल प्रशिक्षण एवं विभिन्न जागरूकता कार्यक्रमों का सफल आयोजन एवं उनके उच्च प्रबंधन आरएसएस एवं उसके प्रकल्पों के महत्वपूर्ण कार्य हैं। आधुनिक भारतीय समाज में जातीय विभेद गहनता से देखने को मिलता है जिस जातीय भेद को तोड़ने की पृष्ठभूमि भी आरएसएस ने तैयार किया है जहाँ सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने हेतु पक्षपातरहित कार्यक्रमों का आयोजन होता है सामूहिक भोज के वक्त जात-पात तथा ऊंच-नीच के भेद टूट जाते हैं एवं कार्य का निष्पादन एक-दूसरे की सहायता से सम्पन्न होते हैं। अनुशासन एवं समयबद्धता का आचरण भी आरएसएस के कार्यकर्ताओं में सामान्यतः देखा जा सकता है। इसे देखकर 1934 में महाराष्ट्र के वर्धा में आरएसएस के शिविर का दौरा करने के दौरान गांधी जी ने आरएसएस की खूब प्रशंसा की थी। बाद में, उन्होंने 16 सितंबर 1947 को दिल्ली में स्वीपर्स कॉलोनी में आरएसएस की एक बैठक को संबोधित भी किया।

स्वयंसेवक शब्द का शाब्दिक अर्थ निःस्वार्थ भावना से दूसरों की सेवा करना होता है। डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा 1925 में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने स्थापना के समय हिन्दू समाज को मजबूत बनाने एवं उसमें सामाजिक,आर्थिक,सांस्कृतिक,धार्मिक एवं राजनीतिक मूल्यों के विस्तार तथा समाज के विभिन्न चुनौतियों के प्रति सचेत रहने हेतु सशक्त एवं एकजुट होने पर जोर दिया। जिन मूल्यों के निष्पादन हेतु संघ की स्थापना की गई उन मूल्यों पर आज भी गंभीरता से अमल किया जा रहा है। वर्तमान समय मे भी संघ की प्रगतिवादी सोच ने प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का संरक्षण करते हुए आधुनिकता को आत्मसात किया है। संघ के विभिन्न आनुषंगिक संगठन समाज एवं राष्ट्र के प्रत्येक क्षेत्र में अपना योगदान दे रहे हैं एवं भारतीय जनमानस में राष्ट्रवाद की भावना को प्रज्ज्वलित कर रहे हैं। यही कारण है कि संघ की स्थापना के दौर में जहाँ एक तरफ अनेक संस्थाएं बनी जो समय के साथ कदमताल मिला पाने में असफल रहीं एवं अपने मूल्यों के साथ समझौता करके वैचारिक रूप से नष्ट हो गईं, वहीं दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने मूल्यों को बचाये रखा तथा समाज मे प्रगति का सकारात्मक द्वीप जलाए रखा जिससे संघ की प्रासंगिकता आज भी बरकरार है।

 


पीयूष कान्त राय

शोध छात्र, फ्रेंच साहित्य

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय

सद्य: आलोकित!

प्रेमचंद की कहानी “जिहाद”

जिहाद बहुत पुरानी बात है। हिंदुओं का एक काफिला अपने धर्म की रक्षा के लिए पश्चिमोत्तर के पर्वत-प्रदेश से भागा चला आ रहा था। मुद्दतों से उस प्...

आपने जब देखा, तब की संख्या.