रविवार, 16 फ़रवरी 2025

महाकुंभ के 144 साल

प्रयागराज में लगे हुए #महाकुंभ2025 के संबंध में 144 साल का जुमला बहुत चर्चा में है। सरकार ने इस आयोजन को ऐतिहासिक बताने के लिए कहा कि यह शताब्दियों में एक बार लगने वाला मेला है इसलिए अमृत स्नान किया ही जाना चाहिए। श्रद्धालुओं ने भी तय किया कि चलते हैं

महाकुंभ के 144 साल

#महाकुंभ2025 के आरंभ होने में साथ ही श्रद्धालुओं का रेला चल पड़ा। सरकार और सनातन के समर्थक प्रसन्न। हर हर महादेव और हर हर गंगे की गूंज में जय श्री राम भी सम्मिलित हो गया। सब कुछ सही तरीके से चलने लगा। बेहद अनुशासित। लोग आते। डुबकी लगाते। अपने को धन्य समझते। ऐतिहासिक कुंभ है।

जय श्री राम

अमृत स्नान हुए। अखाड़े सजे। शंख ध्वनि हुई। सब अपने और परमार्थ के हित में चले। 144 साल चल पड़ा। सब ऐतिहासिक था।

ध्यान से देखा जाए तो जीवन का हर क्षण ऐतिहासिक है। जापानी कहावत है कि आप एक नदी में दुबारा स्नान नहीं कर सकते। जो क्षण जीवन में आया, वह दुबारा नहीं आएगा।  हर क्षण ऐतिहासिक है। कोई भी घटना दोहराई नहीं जा सकती।

इस प्रकार कोई भी आवृत्ति असंभव है। फिर भी 144 साल का जुमला चल गया।

हर महाकुंभ या कुंभ या माघ मेला सहस्त्राब्दियों के बाद लगता है। जो पहली बार लगा था, उसके बाद जितने लगते गए, वह सभी ऐतिहासिक हैं। ग्रह, नक्षत्र, राशि और काल की गणना में भी अनूठे। कुछ भी दोहराया नहीं जा सकता। जो वस्त्र एक बार पहन लिया गया है, वह दुबारा नहीं पहन सकते। जो कौर चबा लिया गया है, उसे पुनः नहीं खा सकते। जिस जल में डुबकी लगा दी, वह जल वही नहीं रह गया। जिसके साथ रह लिया, जिसे भोग लिया, वह दोहराया नहीं जा सकता। जिसने एक शब्द उच्चार दिया, वही पुनः नहीं निकलेगा। हर क्षण परिवर्तन चल रहा है। एक अनवरत प्रक्रिया चल रही है। और इसमें कोई वृत्त भी नहीं है। यदि कोई वृत्त है तो वह हमारे बोध से परे है। लेकिन यह सब दार्शनिकों की बातें हैं। भारतीय मन इसे मानता है। इसमें गहराई से विश्वास करता है लेकिन इसी के साथ वह इसे गूढ़ विषय मानकर कहता है कि अपना यह ज्ञान, सूक्ष्म अवलोकन अपने पास रखो। भारतीय मानस एक ऐसा आश्रय खोजता है जो उसे उसके मनोनुकूल आदेश देता हो।


स्वाधीनता प्राप्ति के बाद जन्मी पीढ़ी ने पहली बार देखा था कि कोई प्रधानमंत्री निषादों के बीच है। सफाई कर्मियों के पांव धो रहा है। उनका आभार प्रकट कर रहा है। कोई मुख्यमंत्री स्वतः रुचि लेकर आयोजनों को मॉनिटर कर रहा है। समूचे अमले को लगा रखा है कि वह संस्कृति के महत्वपूर्ण विषय को गरिमा और उचित आदर से देखे।

ऐसे में उसकी सुप्त भावना को आश्रय मिलता है। वह उठता है और चल पड़ता है अमृत स्नान की खोज में।

भारतीय मानस धर्म की ध्वजा उठाए चल पड़ा है। मैं इस ऐतिहासिकता और सरकारी विज्ञापन के महत्त्व को नहीं भूल रहा हूं लेकिन जोर देकर कहना चाहता हूं कि यदि भारतीय जनता को 144 साल की ऐतिहासिकता का अभिज्ञान नहीं भी कराया गया होता तो भी श्रद्धालुओं के आने का सिलसिला वही रहता जैसा कि आज है।

इस #महाकुंभ के आयोजन में आग लग गई। #मौनीअमावस्या के दिन भगदड़ हो गई। कल नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर श्रद्धालु दब गए। मीलों तक वाहनों की कतार लगी। लोग भूखे प्यासे रहने के लिए विवश हुए। उन्हें कल्पना से अधिक श्रम करना पड़ा पर उनका धैर्य और उत्साह बना रहा। क्या रेलगाड़ी, क्या बस, क्या हवाई जहाज हर तरफ श्रद्धालु उपस्थित। उससे अधिक दृष्टिगोचर हुए निजी वाहन से पहुंचने के लिए निकले लोग।

दुनिया दांतों तले उंगली दबाए सोच रही है! यह क्या हुआ है। कितना बड़ा मेला है। ब्राजील में कार्निवल लगता है। देश भर में पचास साठ लाख लोग एकत्रित हो जाते हैं। ब्राजील सांबा करने लगता है। यहां एक दिन में साढ़े सात करोड़ श्रद्धालु आते हैं, स्नान करते हैं और अपने गंतव्य पर चल देते हैं। इतने भर से प्रसन्न हैं कि स्वच्छता है। व्यवस्था में लोग लगे हैं। स्रोतस्विनी अविरल है। वह मोक्षदायिनी है।


क्या उन्हें कोई अपेक्षा है? नहीं। वह मुदित हैं। आभारी हैं। अपने को धन्य मान रहे हैं। दूसरे को धन्यवाद कर रहे हैं। महाकुंभ से अमृत रस झर रहा है। शंखनाद जारी है।

सनातन का शंखनाद

यह अमृतकाल है। अयोध्याजी में रामलला के विग्रह की स्थापना। भारत के मंदिरों का पुनरुद्धार चल रहा है। काशी और महाकाल हमारे समक्ष हैं। नए कालचक्र के उद्गम में दुनिया भर से श्रद्धालु आयेंगे। कोई रोक नहीं सकेगा। स्वतः चल पड़ेंगे।

अब यह हम सबका सामूहिक दायित्व है कि हम उनके मार्ग को फूलों से सजा दें। यदि कोई कांटा आए तो उसे उखाड़ फेंके। जो सरकार इसमें सहायक नहीं होगी, वह जनता के चित्त से उतर जाएगी। जो लोग इसमें सहायक होंगे, वही मित्र, सखा, साथी, संघाती कहे जाएंगे।




शनिवार, 15 फ़रवरी 2025

सौवें वर्ष में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ


महाकुंभ में मौनी अमावस्या के दिन हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने समूचे देश को क्षुब्ध कर दिया। उत्तर प्रदेश सरकार के पुख्ता इंतजामों के बावजूद ऐसी अप्रिय घटना हो जाना हृदयविदारक है। इस घटना के बाद जहाँ सरकार ने कुम्भ नियमों में महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं वहीं ट्रैफिक व्यवस्था में सहयोग हेतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सोलह हजार स्वयंसेवकों ने भी पुलिस के साथ सहयोग करने का फैसला लिया है। इस निर्णय की चारों तरफ प्रशंसा हो रही है,जो संघ की देश एवं समाज के प्रति प्रतिबद्धता को भी दर्शाता है।

इस साल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना को सौ साल पूरा हो जाएगा। बीते सौ सालों में संघ ने कई उत्तर-चढ़ाव देखे हैं हालांकि किसी भी तरह की नकारात्मकता को त्यागकर संघ ने प्रत्येक मौके पर देश की जरूरत में हाथ बँटाया है,जिससे संघ की प्रासंगिकता एवं लोकप्रियता में कभी गिरावट नहीं आयी ।स्थापना की एक शताब्दी बाद भी किसी संगठन की वैचारिकी एवं प्रतिबद्धता में दृढ़ता का उदाहरण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अलावा समूचे विश्व में विरले ही मिलेगा। उपर्युक्त कथन की विवेचना करने पर आभास होता है कि संघ ने इन सौ सालों में समाज की जरूरत के हिसाब से बदलाव में सफलता पाई है। बदलाव के इस दौर में संघ ने मूलभूत भारतीय मूल्यों के साथ समझौता नहीं किया और भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के बचाव में एक मजबूत स्तंभ बनकर खड़ा रहा। संघ के सौ सालों के इतिहास में ऐसे कई कारक हैं जो इस संगठन एवं इसके कार्यकर्ताओं को खास बनाते हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने विकसित भारत की परिकल्पना में शिक्षा के भारतीयकरण के महत्व को समझा तथा इस दिशा में व्यापक कार्य किये। वर्तमान समय में संघ द्वारा संचालित हजारों स्कूल जातीय एवं धार्मिक भेदभाव रहित शिक्षा प्रदान कर रहे हैं तथा सशक्त भारत के निर्माण में अपना योगदान दे रहे हैं। इसके अलावा प्राकृतिक आपदाओं के समय संघ ने सुरक्षा बलों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य किया। 2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ में आई भारी तबाही के वक्त संघ ने राहत कार्यों में भरपूर सहयोग किया था। आरएसएस कार्यकर्ताओं के लिए संवेदनशील राज्य केरल में आई बाढ़ के वक्त स्वयंसेवकों के बचाव कार्यों की चारों ओर प्रशंसा हुई थी। कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी के बीच भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने अपनी जान जोखिम में डालकर लोगों के सेवार्थ कार्य किया। इस दौरान कोरोना वायरस से कई स्वयंसेवकों की जान भी गई किंतु उनके हौसलों में कमी नहीं आई।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी सक्रिय रहा है। संघ ने स्वास्थ्य कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए कई पहल की है। संघ के विभिन्न प्रकल्पों जैसे सेवा भारती इत्यादि की स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रिय भागीदारी रही है। जिसने समय-समय पर स्वास्थ्य शिविरों के आयोजन से लेकर शहरी झोपड़-पट्टियों, आदिवासी समुदायों एवं समाज के कमजोर वर्ग के लिए कार्य किया है।

आरएसएस ने महिला सशक्तिकरण के महत्व को समझते हुए ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते,रमन्ते तत्र देवता’ के तहत बीते कुछ सालों से महिलाओं के शिक्षा,बेहतर स्वास्थ्य एवं सुरक्षा की दिशा में कार्यों का निष्पादन किया है। संघ द्वारा मार्गदर्शित भाजपा सरकार ने उज्ज्वला योजना, ड्रोन दीदी एवं तीन तलाक खत्म करने जैसे क्रांतिकारी कार्यों को सफलतापूर्वक अंजाम दिया है।

इसके अलावा भी भिन्न-भिन्न स्थानों पर समय एवं जरूरत को देखते हुए रक्तदान शिविरों का आयोजन,सामूहिक एवं सर्वजातीय विवाह,कौशल प्रशिक्षण एवं विभिन्न जागरूकता कार्यक्रमों का सफल आयोजन एवं उनके उच्च प्रबंधन आरएसएस एवं उसके प्रकल्पों के महत्वपूर्ण कार्य हैं। आधुनिक भारतीय समाज में जातीय विभेद गहनता से देखने को मिलता है जिस जातीय भेद को तोड़ने की पृष्ठभूमि भी आरएसएस ने तैयार किया है जहाँ सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने हेतु पक्षपातरहित कार्यक्रमों का आयोजन होता है सामूहिक भोज के वक्त जात-पात तथा ऊंच-नीच के भेद टूट जाते हैं एवं कार्य का निष्पादन एक-दूसरे की सहायता से सम्पन्न होते हैं। अनुशासन एवं समयबद्धता का आचरण भी आरएसएस के कार्यकर्ताओं में सामान्यतः देखा जा सकता है। इसे देखकर 1934 में महाराष्ट्र के वर्धा में आरएसएस के शिविर का दौरा करने के दौरान गांधी जी ने आरएसएस की खूब प्रशंसा की थी। बाद में, उन्होंने 16 सितंबर 1947 को दिल्ली में स्वीपर्स कॉलोनी में आरएसएस की एक बैठक को संबोधित भी किया।

स्वयंसेवक शब्द का शाब्दिक अर्थ निःस्वार्थ भावना से दूसरों की सेवा करना होता है। डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा 1925 में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने स्थापना के समय हिन्दू समाज को मजबूत बनाने एवं उसमें सामाजिक,आर्थिक,सांस्कृतिक,धार्मिक एवं राजनीतिक मूल्यों के विस्तार तथा समाज के विभिन्न चुनौतियों के प्रति सचेत रहने हेतु सशक्त एवं एकजुट होने पर जोर दिया। जिन मूल्यों के निष्पादन हेतु संघ की स्थापना की गई उन मूल्यों पर आज भी गंभीरता से अमल किया जा रहा है। वर्तमान समय मे भी संघ की प्रगतिवादी सोच ने प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का संरक्षण करते हुए आधुनिकता को आत्मसात किया है। संघ के विभिन्न आनुषंगिक संगठन समाज एवं राष्ट्र के प्रत्येक क्षेत्र में अपना योगदान दे रहे हैं एवं भारतीय जनमानस में राष्ट्रवाद की भावना को प्रज्ज्वलित कर रहे हैं। यही कारण है कि संघ की स्थापना के दौर में जहाँ एक तरफ अनेक संस्थाएं बनी जो समय के साथ कदमताल मिला पाने में असफल रहीं एवं अपने मूल्यों के साथ समझौता करके वैचारिक रूप से नष्ट हो गईं, वहीं दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने मूल्यों को बचाये रखा तथा समाज मे प्रगति का सकारात्मक द्वीप जलाए रखा जिससे संघ की प्रासंगिकता आज भी बरकरार है।

 


पीयूष कान्त राय

शोध छात्र, फ्रेंच साहित्य

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025

ए सखि पेखल एक अपरूप!

विद्यापति : भाग- सात

हमने बताया है कि विद्यापति के अपरूप वर्णन में ध्यान कच, कुच, कटि पर टिक गया है। पीन पयोधर दूबरी गता और नितंब पर वह मुग्ध हैं। जहां मिलन, संयोग का प्रसंग है वहां राधा आश्रय हैं। वह कृष्ण से उनके मिलन का प्रसंग निकालते हैं। मिलना होता है। दर्शन पाने के बाद कृष्ण व्यथित से, उद्विग्न हैं। सजनी को अच्छी तरह देख न पाया!

ए सखि पेखल एक अपरूप!

सजनी भल कए पेखल न भेल।
फिर सजनी के उन्हीं अंग प्रत्यंग का उल्लेख है। "चंचल पवन के चकोर से वस्त्र गिर गया। अचानक राधा की सुचिक्कन देहयष्टि दिखाई पड़ गई। केशपाश से घिरी हुई वह देहयष्टि, लगा जैसे नए श्याम जलधार के नीचे बिजली की रेखा चल रही है।* इस गजगामिनी कामिनी को देख श्रीकृष्ण कहते हैं - उसके चरणों का जावक, मेरे हृदय को पावक की तरह दग्ध कर रहा है- "चरन जावक हृदय पावक, दहय सब अंग मोर।" चरणों का जावक, आलता। वह लाल रंग जिसे महावर की तरह प्रयुक्त करते हैं, को देखकर उनका अंग अंग जलता है। लाल रंग का कितना सुघड़ बिम्ब है।

और राधा! वह तो हर क्षण कुछ अद्भुत करती हैं। कभी तिरछी नजर से देखती हैं तो कभी अपना वस्त्र संभालती हैं। अनायास ही।
खने खने नयन कोन अनुसरई।
खने खने वसन धूलि तनु भरई।।
वह बायां पैर रखती हैं और दाहिना उठाती हैं तो लज्जा होती है। क्यों? रूप की राशि जैसे खनक जाती है। कृष्ण को देखने के बाद राधा व्यग्र हो उठती हैं। विद्यापति लिखते हैं -
नगर के बाहर न जाने कितने लोग आते जाते हैं, कृष्ण की ओर देखते हैं। एक मेरा देखना सबको चुभता है?
पुर बाहर पथ करत गतागत
के नहिं हेरय कान।
तोहर कुसुम सर कतहुं न संचर
हमर हृदय पेंच बान।।

राधा ऐसी हैं कि उन्होंने अपनी कटाक्ष से कन्हाई को कीन लिया है।

विद्यापति के पद पढ़कर, उन्हें प्रत्यक्ष कल्पित कर ही इस आनंद की कल्पना हो सकती है। मिलन के प्रसंग इतने रसीले और मादक हैं कि झूम जाएं।

पुर बाहर कत करत गतागत

पहले भी कहा था हमने कि संयोग के प्रसंग में विद्यापति अति प्रगल्भ हैं। यह प्रगल्भता अंतरंग क्षणों में चुकती नहीं। राधा कृष्ण को देखकर पुलकित हो उठती हैं। इस पुलक में "चूनि चूनि भए कांचुअ फाटलि, बाहु बलआ भांगु।" वाणी कंपित हो गई है, बोली नहीं फूटती। वह रति प्रसंग का वर्णन सखियों में करती हैं -
जब नीवी बंध खसाओल कान
तोहर शपथ हम किछु जदी जान।

विद्यापति के यहां प्रेम का इतना सरस और उन्मुक्त वर्णन उन्हें घोर शृंगारी बनाता है। इस शृंगार के रस का अवगाहन कोई कोई ही कर पाता है।

कल कुछ दूसरे पदों की सहायता से इस शृंगार के वियोग पक्ष को स्पष्ट करेंगे।

#विद्यापति #vidyapati #मैथिल_कोकिल #प्रेम


नागिन की लहर जैसे विद्यापति के पद

विद्यापति की कीर्ति का आधार है पदावली। इस पदावली में भक्ति और शृंगार के पद हैं। शृंगार के पदों में जहां राधा और कृष्ण हैं, वहीं राजा शिवसिंह और लखिमा देवी हैं। इसी में अपरूप सौंदर्य का वर्णन  है।

वस्तुतः विद्यापति अपरूप सौंदर्य के कवि हैं। शृंगार वर्णन के क्रम में जब वह रूप वर्णन करते हैं तो उनकी दृष्टि प्रगल्भ हो उठती है। वह मांसल भोग करने लगते हैं। सौंदर्य वर्णन में वह "सुन्दरि" की अपरूप छवि के बारे में अवश्य ही बताते हैं -
"सजनी, अपरूप पेखलि रामा!"
"सखि हे, अपरूप चातुरि गोरि!"

अपरूप अर्थात ऐसा रूप जो वर्णन से परे है। अपूर्व है। अवर्णनीय है। जातक ग्रंथों में अनुत्तरो शब्द आता है। सबसे परे। यह सुन्दरी राधा हैं। राधा की व्यंजना अपने अपने अनुसार हो सकती है। वह राधा के रूप को देखकर कहते हैं कि उन्हें बनाने में जैसे विधाता ने धरती के समस्त लावण्य को स्वयं मिलाया हो।

रूप वर्णन करते हुए विद्यापति अपरूप का व्यक्त करते हैं और उनकी दृष्टि #स्तनों पर टिक जाती है। #कुच वर्णन में जितना उनका मन रमा है, हिंदी में ही नहीं, संभवतः किसी भी साहित्य में द्वितीयोनास्ति! जब शैशव और यौवन मिलता है तब नायिका मुकुर अर्थात आईना हाथ में लेकर, अकेले में जहां और कोई नहीं है अपना उरोज देखती है, उसे (विकसित होते) देखकर हंसती है -
"निरजन उरज हेरइ कत बेरि, बिहंसइ अपन पयोधर हेरि।
पहिलें बदरि सम पुन नवरंग, दिन दिन अनंग अगोरल अंग।"
पहले बदरि समान अर्थात बैर के आकार का। फिर नारंगी।..
वह वयःसंधि में अपने बाल संवारती और बिखेर देती है। उरोजों के उदय स्थान की लालिमा देखती है।
नागिन की लहर जैसे विद्यापति के पद

रूप वर्णन में #विद्यापति का मन इस अंग के वर्णन में खूब रमा है। वह पदावली में अवसर निकाल निकाल कर एक पंक्ति अवश्य जोड़ देते हैं। दूसरा, अंग जिसपर #विद्यापति की काव्य प्रतिभा प्रगल्भ है, वह #नितंब हैं।
"कटिकेर गौरव पाओल नितंब, एकक खीन अओक अबलंब।" कटि अर्थात कमर का गौरव नितम्बों ने पा लिया है। एक क्षीण हुआ है तो अन्य पर जाकर आश्रित हो गया है।

विद्यापति की यह सुन्दरि पीन पयोधर दूबरि गाता है। वह क्षण क्षण की गतिविधि को अंकित करते हैं। सौंदर्य की यही तो परिभाषा कही गई है - प्रतिक्षण नवीन होना। सौंदर्य वहीं है जहां नित नूतन व्यवहार है, रूप है, दर्शन है।

इसी के प्रभाव से जो रूप बना, वह मनसिज अर्थात कामदेव को मोहित कर लेने वाला है। मुग्धा नायिकाओं के चरित्र को विद्यापति बहुत सजल होकर अपने पदों में व्यक्त करते हैं और इसे अपरूप कहकर रहस्यात्मक और अलौकिक बना देते हैं।

नागिन की लहर जैसे विद्यापति के पद

विद्यापति का यह रूप वर्णन इतना मांसल है कि कालांतर में यह सभा समाज से गोपनीय रखा जाने लगा।
यह विचार करने की बात है कि जिस समय विद्यापति थे, लगभग उसी समय खजुराहो और कोणार्क के मंदिर बन रहे थे। रूप वर्णन और काम कला के अंकन में कैसी अकुंठ भावना थी। समाज कितना आगे था। फिर बाहरी आक्रमण हुए, स्त्रियों को वस्तु मानने वाले लोगों का आधिपत्य हुआ, समाज में दुराचारी और बर्बर लोगों का हस्तक्षेप हुआ, लुच्चे और लंपट आततायी लोग आए और सामाजिक ताना बाना बिखर गया। नए बंधन मिल गए। घूंघट और पर्दा की प्रथा बन गई। मुक्त समाज बचने के लिए सिकुड़ता चला गया।

विद्यापति के रूप वर्णन को मुक्त मन की स्वाभाविक अभिव्यक्ति मानना चाहिए। वह बहुत आधुनिक कवि हैं। उनसा कोई और नहीं है। बाद के कवियों ने बहुत प्रयास किया, नख शिख वर्णन में कोशिश की लेकिन वह सहजता, स्वाभाविकता नहीं आई। यह स्वाभाविकता मुक्त सामाजिक व्यवस्था से आती है, जिसकी छवि विद्यापति के यह दिखती है।

#vidyapati #पदावली #रूप_वर्णन
#सौन्दर्य
#अपरूप

विद्यापति : भाग छह


कीर्तिलता : पहली रचना का महत्त्व

विद्यापति : भाग पांच

अपनी पहली रचना कीर्तिलता में विद्यापति ने आश्रयदाता राजा कीर्ति सिंह की कीर्ति कथा की है। इसमें राजा कीर्ति सिंह द्वारा अपने पिता का वध करके राज्य हड़पने वाले अरसलान को पराजित करने और राज्य वापस पाने की कथा है जिसमें जौनपुर के शासक इब्राहिम शाह की सहायता मिली है। इस रचना में विद्यापति ने अपने समय और समाज की गाथा सुनाई है। कीर्तिकथा के बीच-बीच में जौनपुर शहर का वर्णन तद्युगीन समाज का प्रतिबिंब है।

कीर्तिलता में वर्णित नगर जौनपुर ही है। इस रचना में एक ऐसी घटना का संदर्भ है जिसमें ओइनवार राजा, राजा गणेश्वर, को तुर्की सेनापति मलिक अरसलान ने 1371 ई में मार दिया था। 1401ई तक, विद्यापति ने जौनपुर सुल्तान इब्राहिम शाह ने अरसलान को उखाड़ फेंकने और गणेश्वर के पुत्रों, वीरसिंह और कीर्तिसिंह को सिंहासन पर स्थापित करने में योगदान दिया। सुल्तान की सहायता से, अरसलान को हटा दिया गया और सबसे बड़ा पुत्र कीर्ति सिंह मिथिला का शासक बने।

कीर्ति सिंह ने अपनी वीरता से अरसलान को पराजित किया। यह सच्चाई है। इस कृति में नगर वर्णन की चर्चा बारंबार इसलिए होती है क्योंकि नगर की जिस गहमा गहमी की बात उन्होंने की है, वह अद्भुत वर्णन के साथ है। सबसे अधिक मन वैश्याओं के रूप वर्णन में रमा है। रूप वर्णन करते हुए विद्यापति का ध्यान मांसल रूप पर अधिक है। मलिक मोहम्मद जायसी ने पद्मावत में भी यह किया है। रसिकों को आकर्षित करने के लिए यह होता होगा। शिवपूजन सहाय के अनुसार इस रचना के तृतीय पल्लव में पहली बार बिहार शब्द का प्रयोग स्वतंत्र राज्य के रूप में हुआ है।

दूसरे, इस ग्रंथ में जौनपुर के शासक के 'शांतिप्रिय समुदाय वाले' सैनिकों की लुच्चई को भी विद्यापति ने अपने पर्यवेक्षण में छोड़ा नहीं है। यह रचना विद्यापति की पहली कृति है। इसमें चार पल्लव हैं। भृंग भृंगी की कहानी में कीर्ति सिंह "सुपुरिस" हैं। सुपुरुष, अर्थात? सु की व्याख्या अच्छे अर्थ में जितनी कर ली जाए।

यह रचना अवहट्ट में है। विद्यापति देसिल बयना यानी लोक की बोली को मीठा मानते हैं। इसीलिए यह रचना अवहट्ट में हुई।
"देसिल बयना सब जन मिट्ठा।
ते तैसन जम्पओ अवहटट्ठा।।”
काव्य में सरसता का भाव भाषा के माध्यम से भी हो आया है। इसी कृति में विद्यापति ने कहा है कि बाल रूप में चंद्रमा (द्वितीया का चांद) और विद्यापति की भाषा पर दुर्जनों के उपहास का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
बाल चंद विज्जावइ भाषा,
दुहु नहि लग्गइ दुज्जन हासा।

आगामी शृंखला में पदावली की चर्चा करते हुए विद्यापति के प्रिय शब्द "अपरूप" की चर्चा करेंगे। यह शब्द उन्होंने राधा और कृष्ण दोनों के लिए किया है।

कीर्तिलता : पहली रचना का महत्त्व


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विद्यापति : भाग पांच

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कीर्तिलता : पहली रचना का महत्त्व



विद्यापति : रचनाएं

   विद्यापति : भाग चार

      वैसे तो विद्यापति की तीन कृतियों, कीर्तिलता, कीर्तिपताका और पदावली की ही चर्चा होती है लेकिन हम उनकी पुस्तक "पुरुष परीक्षा" से आरंभ करेंगे। यह विद्यापति की तीसरी पोथी है जिसको लिखने की आज्ञा शिव सिंह ने दी थी। यह धार्मिक और राजनीतिक विषय पर कथाओं की पोथी है। ध्यान रहे कि इसमें भी शृंगार विस्मृत नहीं है। पुरुष परीक्षा नामक पोथी का बहुत आदर है। सन 1830 में इसका अंग्रेजी अनुवाद हुआ और प्रसिद्ध फोर्ट विलियम कॉलेज में यह पढ़ाई जाती थी। बंगला के प्राध्यापक हर प्रसाद राय ने 1815 ई० में इसका भाषानुवाद किया।

कीर्तिलता विद्यापति की प्रथम रचना है। प्राकृत मिश्रित मैथिली, जिसे उन्होंने अवहट्ट नाम दिया है, में राजा कीर्तिसिंह प्रमुख हैं। इसी में विद्यापति ने "देसी बोली सबको मीठी लगती है" जैसा सिद्धांत प्रतिपादित किया है - देसिल बयना सब जन मिट्ठा! इस रचना में जौनपुर का वर्णन है। मेरे मित्र सुशांत झा ने विद्वानों के हवाले से बताया है कि यह जौनपुर असल में जौनापुर है, जो दिल्ली अथवा उसके निकट का कोई उपनगर है। अगली कड़ी में इस पर स्वतंत्र रूप से लिखेंगे।

दूसरी पोथी नैतिक कहानियों की है- भू परिक्रमा शीर्षक से। चौथी कृति कीर्तिपताका है। इसमें प्रेम कविताएं हैं। पांचवीं लिखनावली है जिसमें चिट्ठी लिखने की विधि बताई गई है। शिवार्चन पर संस्कृत में रचित 'शैवसर्वस्वसार' एक पूर्ण पुस्तक है, जिसमें विविध पुराणों के आधार पर शिवार्चन की पद्धति बतायी गयी है।

संस्कृत कृतियों में विभासागर, दान वाक्यावली, पुराणसंग्रह, गंगा वाक्यावली, दुर्गाभक्ति, तरंगिनी, मणिमंजरी, गयापत्तलक, वर्णकृत्य तथा व्यादिभाक्ति, विभाग सार आदि विद्यापति की अन्य प्रमुख कृतियां हैं जो उनकी विद्वता का परिचय देती हैं।

इन सबसे ऊपर है- पदावली! यही विद्यापति की लोकप्रियता का आधार और लंब सब कुछ है। इसमें गेय पद हैं, राग रागिनियों में आबद्ध। हम इसे केंद्र में रखकर आगे चर्चा करेंगे और कुछ सरस पदों की व्याख्या भी।
#विद्यापति #Vidyapati #maithil
#मैथिल_कोकिल
विद्यापति : चार
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विद्यापति : रचनाएं

रविवार, 26 जनवरी 2025

विद्यापति और किंवदंती

विद्यापति शृंखला तीन

विद्यापति का जीवन जितना प्रमाणिक है, उतना ही किंवदंतियों से भरा हुआ भी। इसमें सबसे प्रमुख है "उगना महादेव" से जुड़ी कथा। मिथिला क्षेत्र में मान्यता है कि भगवान शिव विद्यापति की भक्ति और प्रतिभा से बहुत मुदित थे और उनकी सेवा-टहल के लिए रूप बदल कर रहने लगे। विद्यापति के इस टहलुआ का नाम उगना था। विद्यापति जहां जहां जाते, उगना साथ रहता।

विद्यापति

एक दिन की बात। विद्यापति कहीं जा रहे थे। प्यास लगी। उगना साथ था। उन्होंने अपनी चिंता से अवगत कराया। उगना तत्क्षण आंख से ओझल हुआ और कुछ क्षण में ही जल लेकर उपस्थित हुआ। विद्यापति ने जल ग्रहण किया तो उन्हें आश्चर्य हुआ। वह गंगातीरी कवि थे। लाया गया जल गंगा नदी का था जबकि उस स्थान से गंगा पर्याप्त दूर थीं। उन्होंने इस संबंध में पूछताछ की तब उगना अपने असली स्वरूप में आ गए। यह साक्षात् महादेव थे।


महादेव ने कहा कि इस रहस्य के विषय में किसी को बताया तो अंतर्धान हो जाऊंगा। विद्यापति के समक्ष दोहरा संकट था। भगवान का सानिध्य और उनसे टहल कराना! बस किसी किसी तरह निबाह हो रहा था।


एक दिन किसी कार्य में देरी होने पर विद्यापति की पत्नी ने उगना को डांट लगाई। कथा है कि विद्यापति की पत्नी सुशीला ने उगना को जलावन के लिए लकड़ी लाने को भेजा। उन्हें देरी हो गई तो झुंझला कर उन्होंने लकड़ी का एक चेरा दे मारा। यह भी किंवदंती प्रचलित है कि महादेव की पूजा के लिए स्थान लीपा गया था जिस पर उगना ने आसन जमा लिया। इससे क्षुब्ध होकर सुशीला ने डांट दिया। विद्यापति से न रहा गया। हस्तक्षेप करते हुए  उन्होंने सब कुछ बता दिया। इस प्रसंग को संकेतित करता हुआ विद्यापति का गीत "उगना रे मोर कत गेलाह" इतना करुण है कि सिहरन उठती है।

"उगना रे मोरे कतए गेलाह.

कतए गेलाह हर किदहु भेलाह

माँग नही बटुआ रुसी बैसलाह.

जोही-हेरी आनी देल हंसी उठलाह.

जे मोरा उगनाक कहत उदेस.

ताहि देब कर कंगन सन्देश.

नंदन वन बिच भेटल महेश.

गौरी मन हरकित मेटल कलेस.

विद्यापति भन उगानासं काज.

नही हितकर मोर तिहुअन  राज."

भगवान शिव अंतर्धान हो गए। वह #उगना_महादेव कहे गए। आज भी मिथिला क्षेत्र में एक कुआं है, जिसे इससे जोड़कर देखा जाता है। लोग अपने घर में महादेव का मंदिर नहीं बनाते हैं कि विद्यापति के यहां जब महादेव नहीं रुके तो उनके यहां क्यों रुकेंगे। विद्यापति की शिव के प्रति भक्ति का यह अनूठा उदाहरण है।

उगना महादेव मंदिर


एक किंवदंती है कि अंतिम समय में विद्यापति ने मां गंगा का सानिध्य चाहा। गंगा उनके पास आईं और अपने गोद में रखकर बेटे को मुक्ति प्रदान की।


अगले भाग में हम विद्यापति द्वारा विरचित ग्रंथों की चर्चा करेंगे।


#मैथिल_कोकिल #साहित्य #Vidyapati #कविता #मिथिलांचल 

विद्यापति : तीन

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विद्यापति : सामान्य परिचय

विद्यापति : शृंखला दो

कुछ समय पहले तक विद्वान यही मानते रहे हैं कि विद्यापति बंगला भाषा के कवि थे। गौड़ीय संप्रदाय के महान भक्त चैतन्य महाप्रभु के बारे में कहा जाता है कि वह विद्यापति के गीत गाते-गाते विशेष मनःस्थिति में चले जाते थे, सुध बुध खो देने वाली स्थिति में।

विद्यापति : सामान्य परिचय

ओड़िया के प्रसिद्ध कवि हुए हैं चंडीदास! चंडीदास ने राधा और कृष्ण को आश्रय बनाकर कविताएं की हैं। उनकी कविता में विरह का पक्ष इतना प्रधान है कि राधा संयोग के क्षण में भी इस चिंता में रहती हैं कि कृष्ण चले जायेंगे।

सूरदास का नाम कृष्ण भक्त कवियों में आदर और श्रद्धा से लिया ही जाता है। उनके यहां भक्ति और प्रेम की सीमारेखा ही मिट गई है। चंडीदास, सूरदास और विद्यापति की तिकड़ी में विद्यापति सबसे उज्ज्वल पक्ष हैं।

उज्ज्वलनीलमणि के रचनाकार रूप गोस्वामी ने शृंगार को उज्ज्वल रस कहा है कि यह जीवन का सबसे ललित और उज्ज्वल पक्ष लाता है। समर्पण और प्रेम का शिखर शृंगार में है। ऐसे में विद्यापति के काव्य के उज्ज्वल पक्ष को रेखांकित करने का संदर्भ लेना चाहिए। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने विद्यापति के शृंगार संबंधी पदों के प्रभाव का वर्णन करते हुए इसकी मादकता को ‘नागिन की लहर’ कहा है।

अंग्रेजी अध्येता और इतिहासकार जॉर्ज ग्रियर्सन ने इस मान्यता को स्थायित्व प्रदान किया कि विद्यापति मिथिला के थे और उनकी पदावली मैथिली में है अन्यथा वह बंगला के कवि माने जाते थे। हालांकि ग्रियर्सन को इसका श्रेय भी है कि उसने विद्यापति के परिवार वालों के उत्तराधिकार के अधिकार को विलोपित कर दिया था।

विद्यापति का जन्म दरभंगा अब मधुबनी जिला के बिस्फी नामक ग्राम में 1380 ईसवी में हुआ था। कालांतर में उनके प्रिय राजा शिव सिंह ने यह गांव उन्हें जागीर में दे दी थी। इस आशय का एक ताम्रपत्र भी मिला है और यह प्रमाणिक है।

विद्यापति का काल सल्तनत के बादशाह गयासुद्दीन तुगलक का है, जिनके साथ विद्यापति का संवाद भी है। कीर्तिलता नामक ग्रंथ में विद्यापति ने जौनपुर शहर का बहुत सुंदर वर्णन किया है और यवनों के अत्याचार की तरफ संकेत भी। जौनपुर के हाट/बाजार में चहल पहल का भी वर्णन यथार्थपरक है।

#विद्यापति शृंखला के आरंभ में ही हम यह बताना चाहते हैं कि वह उन चुनिंदा कवियों में हैं जिनका जीवन वृत्त प्रमाणिक साक्ष्यों के आधार पर निर्मित किया जा सका है। वह मिथिला ही नहीं, समूचे बिहार और बंगाल में कितने लोकप्रिय हैं, इसका अनुमान चंडीदास, चैतन्य महाप्रभु के उल्लेख से समझा ही जा सकता है, यह देखकर भी जाना जा सकता है कि लोक में वह गहरे रचे बसे हैं। उनके काव्य में तत्कालीन ऐतिहासिक चरित्र बहुत ठाठ के साथ उपस्थित हैं। पदावली तो शिवसिंह और लखिमा देवी के उल्लेख से भरी हुई है जिनका ऐतिहासिक साक्ष्य है।

स्रोतों से पता चलता है कि विद्यापति को राजा शिवसिंह के साथ काम करने का कम समय मिला लेकिन युवराज रूप में शिवसिंह उनके बहुत अभिन्न मित्र थे। पदावली में बहुत से ऐसे पद हैं जो उनकी अभिन्नता की घोषणा करते हैं।

विद्यापति परम शैव थे। यद्यपि शक्ति और वैष्णव मत के प्रति उनके मन में पूरा सम्मान था लेकिन शिव के वह अनन्य उपासक थे। उन्हें गंगा नदी का सानिध्य मिला था और उनका देहावसान लगभग 80 साल की आयु में 1460 ईस्वी में गंगा तट पर ही हुआ। उनके विषय में कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। इनपर चर्चा करेंगे अगली कड़ी में।

विद्यापति : दो
#Vidyapati #साहित्य #पदावली #मैथिल_कोकिल

शनिवार, 25 जनवरी 2025

विद्यापति शृंखला एक

महत्वपूर्ण सूचना 

कभी निश्चय किया था कि दस दिन तक अभिनव जयदेव; #विद्यापति, मैथिल कोकिल के जीवन, काव्य और उनसे संबंधित इतिहास, किंवदंतियों आदि पर चर्चा करेंगे किंतु अपरिहार्य कारणों से वह शृंखला बीच में ही छूट गई थी। अब हम वह पूरा करना चाहते हैं।

हम जानते हैं कि हिंदी साहित्य के आरंभिक काल के कवि विद्यापति शैव, वैष्णव और शाक्त के संगम हैं। उनके यहां इतिहास बहुत स्पष्ट और अभिलिखित है। कविता में शृंगार योजना ऋषियों को भी विचलित कर देने वाला है। राधा और कृष्ण के प्रेम का अकुंठ और मादक रूप बहुत आकर्षक है। लोक में उनकी व्याप्ति अद्भुत है। आज भी एक बड़े क्षेत्र में विद्यापति की रचनाएं गाई जाती हैं और वह स्त्री समाज में समादरणीय हैं। वह बंगाल और ओडिसा तक में समान रूप से लोकप्रिय हैं। उनकी रचना में मिथिला क्षेत्र के साथ जौनपुर का भी उल्लेख है। तत्कालीन समाज का सबसे प्रमाणिक चित्रण उनके यहां है।

विद्यापति की रचनाओं ने हिंदी साहित्य को गहरे स्तर तक प्रभावित किया है। कवि शिरोमणि सूरदास से लेकर समस्त कृष्ण भक्त कवियों पर विद्यापति का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। आधुनिक काल में नागार्जुन, रेणु और रामवृक्ष बेनीपुरी पर उनका गहरा प्रभाव है।

तो आगामी कुछ दिन तक हम विद्यापति पर एक स्वतंत्र पोस्ट लिखेंगे जो एक दूसरे से जुड़े होंगे। आपसे अपेक्षा रहेगी कि हमारा उत्साहवर्धन हो।

#विद्यापति_एक
#विद्यापति #Vidyapati #MaithilKokil #मैथिलकोकिल #साहित्य #कविता #पदावली


शनिवार, 18 जनवरी 2025

हिन्दी में हस्ताक्षर

हस्ताक्षर, दस्तखत , signature की भाषा नहीं होती। वह आपके नाम की मुहर है, आपके व्यक्तित्व का चिह्न है। यह चिह्न रेखाओं से बनता है। सामान्य लोग सामान्यतः अपना हस्ताक्षर करते हैं तो वह अपनी जानी हुई लिपि में अपना नाम लिख देते हैं। यह प्रवृत्ति है। अपना नाम लिखना, पहचान बताने का सबसे आसान तरीका है। जो व्यक्ति जिस लिपि में साक्षर होता है, उसी लिपि में हस्ताक्षर करता है।
हिन्दी कोई लिपि नहीं है। हिन्दी एक भाषा है। इसकी लिपि देवनागरी है। नाम रमाकान्त राय लिखा जाए या Rama Kant Roy एक ही है। इसमें भाषा कहां है? लिपि अलग है। देवनागरी और रोमन।
तो कहना यह है कि आचार्य प्रशांत को बेसिक्स का ज्ञान नहीं है। वह सामान्य लोगों को मूर्ख बनाने के लिए यहां हैं और यह काम कर रहे हैं।


शुक्रवार, 17 जनवरी 2025

श्री हनुमान चालीसा

दोहा - 

श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि। 
बरनऊं रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि।।

बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरौं पवन कुमार। 
बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं हरहु कलेस बिकार।।

श्री हनुमान जी महाराज

चौपाई - 
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहुं लोक उजागर।
रामदूत अतुलित बल धामा।
अंजनि पुत्र पवनसुत नामा।
महाबीर बिक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी।
कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुंडल कुंचित केसा।
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै।
कांधे मूंज जनेऊ साजै।
संकर सुवन केसरीनंदन।
तेज प्रताप महा जग बन्दन।
विद्यावान गुनी अति चातुर।
राम काज करिबे को आतुर।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लखन सीता मन बसिया।
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा
बिकट रूप धरि लंक जरावा।
भीम रूप धरि असुर संहारे।
रामचंद्र के काज संवारे।
लाय सजीवन लखन जियाये।
श्रीरघुबीर हरषि उर लाये।
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
नारद सारद सहित अहीसा।
जम कुबेर दिगपाल जहां ते।
कबि कोबिद कहि सके कहां ते।
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।
राम मिलाय राज पद दीन्हा।
तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना।
लंकेस्वर भए सब जग जाना।
जुग सहस्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लांघि गये अचरज नाहीं।
दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।
राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे।
सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
 तुम रक्षक काहू को डर ना।
आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हांक तें कांपै।
भूत पिसाच निकट नहिं आवै।
महाबीर जब नाम सुनावै।
नासै रोग हरै सब पीरा।
जपत निरंतर हनुमत बीरा।
संकट तें हनुमान छुड़ावै।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै।
सब पर राम तपस्वी राजा।
तिन के काज सकल तुम साजा।
और मनोरथ जो कोई लावै।
सोइ अमित जीवन फल पावै।
चारों जुग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा।
साधु संत के तुम रखवारे।
असुर निकंदन राम दुलारे।
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।
अस बर दीन जानकी माता।
राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा।
तुम्हरे भजन राम को पावै।
जनम-जनम के दुख बिसरावै।
अन्तकाल रघुबर पुर जाई।
जहां जन्म हरि भक्त कहाई।
और देवता चित्त न धरई।
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।
संकट कटै मिटै सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।
जै जै जै हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।
जो सत बार पाठ कर कोई।
छूटहि बंदि महा सुख होई।
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा।। 
तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय मंह डेरा।। 
श्री राम लक्ष्मण सीता जी और हनुमान
दोहा - 
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुरभूप।।

मंगलवार, 14 जनवरी 2025

चंद्रभागा (चेनाब) नदी पर पुल

चंद्रभागा (चेनाब) नदी पर दुनिया का सबसे ऊंचा रेल पुल बनकर तैयार है! हम नित प्रति नई ऊंचाइयां छू रहे हैं। तेज गति की रेलगाड़ी अब इसपर चला करेंगी।

चंद्रभागा पर बना पुल वीडियो।

आइए चंद्रभागा के संबंध में कुछ रोचक जानते हैं।


चन्द्रभागा नदी हिमाचल प्रदेश में लाहौल और स्पीति जिले में सूरज ताल और चन्द्र ताल से निकलती है। इसे चेनाब या चिनाब कहने लगे हैं और अब यही नाम मिलता है। ऋग्वेद में इस नदी का नाम अस्किनी है। यह शतद्रु (सतलुज) की सहायक नदी है जो आगे जाकर सिंधु में समाहित होती है।

चन्द्र भागा
चंद्रभागा नदी


चंद्रभागा (चेनाब) त्रिमु में इरावती (रावी) और वितस्ता (झेलम) नदी से मिलती है और आगे बढ़कर उचशरीफ के पास शतद्रु (सतलज) में मिल जाती है। पञ्चनद (पंजाब) क्षेत्र की अन्य नदी विपासा (ब्यास) फिरोजपुर के पास शतद्रु नदी में मिलती है। यह शतद्रु मिथनकोट में सिंधु में समाहित हो जाती है।

सूरजताल, जहां से भागा नदी निकलती है, लेह जाने वाली सड़क पर स्थित बारा लाचा ला नामक दर्रे के पास स्थित है। स्पीति घाटी में स्थित चन्द्रताल के पास ही चन्द्रा नदी का उद्गम स्थान है। टांडी नामक स्थान पर भागा और चंद्रा संगम करती हैं।

ईसा से लगभग तीन सौ साल पहले इस चंद्रभागा और वितस्ता (झेलम) के बीच के क्षेत्र में राजा पोरस का राज्य था। वह पोरस जिसका संघर्ष सिकंदर के साथ हुआ। 

चंद्रभागा पर बना पुल


पंजाबी के साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त प्रसिद्ध कवि सुरजीत पातर बताते हैं - "पंजाब की कविता और साहित्य में चिनाब का उल्लेख सबसे ज़्यादा है। हीर-रांझा के दुखद रोमांस या किस्सा में, नायक रांझा चिनाब नदी को पार करके अपने पैतृक गांव तख्त हजारा से झंग शहर पहुंचता है। नदी के किनारे ही उसकी पहली मुलाकात हीर से होती है। वे नदी के किनारे जंगल में मिलते हैं।

सुरजीत पातर
सुरजीत पातर (चित्र - down to earth से)


सोहनी-महिवाल के एक अन्य लोकप्रिय किस्सा में नायिका सोहनी महिवाल से मिलने के लिए चिनाब नदी के पानी में मिट्टी का घड़ा तैराती है। अंत में, एक ईर्ष्यालु रिश्तेदार उसके घड़े की जगह एक नया बना घड़ा रख देता है, जो टूट जाता है और सोहनी डूब जाती है। महिवाल उसे बचाने के लिए तैरता है। लेकिन वह भी उफनते पानी में डूब जाता है।"

(डाउन टू अर्थ में)

देवेंद्र सत्यार्थी ने लिखा है - नहीं रीसां चिनाब दियां, भरेंव सुक्की वाघे। चेनाब अद्वितीय है, भले सूख जाए। बहुत सारे कवियों/साहित्यकारों ने इस नदी को बहुत प्यार से याद किया है। अमृता प्रीतम ने विभाजन के दृश्य को याद करते हुए लिखा है - "अज्ज बेले लशां बिछियां, ते लहू दी भरी चिनाब। वह लिखती हैं कि प्रेमियों की नदी आज लाशों और खून से भरी हुई है। प्रख्यात पंजाबी कवि प्रोफेसर मोहन सिंह ने एक कविता में कहा था कि उनकी अस्थियों को गंगा के बजाय चिनाब में प्रवाहित किया जाए, क्योंकि यह 'प्रेम की नदी' है।

चेनाब प्रेम की नदी है। हीर रांझा और सोहनी महिवाल की नदी है। इसमें बहने वाला जल प्रेमियों की आँख का जल है। मोहन सिंह ने एक कविता में लिखा कि गंगा नदी देवताओं को बनाती है, यमुना देवियों को जबकि चेनाब प्रेमियों का निर्माण करती है।


मैंने कहीं पढ़ा था कि चेनाब, चेन+आब से बना है जहां चेन का अर्थ चंद्रमा है, आब का जल। इस तरह चेनाब का अर्थ चंद्रमा का जल है। शीतल और प्रिय।

यह नाम चंद्रभागा से ही निष्पन्न समझना चाहिए। चंद्रमा का भाग, हिस्सा समझने पर भी यही अर्थ आयेगा। इस्लामिक संस्कृति के प्रभाव में इस नदी का नाम बदल गया। कवियों/कलाकारों ने इस नदी में सांस्कृतिक भाव भर दिए। चेनाब नाम चल गया। प्रेम की चर्चा होती है तो हीर रांझा याद आ जाते हैं। चेनाब नाम याद आ जाता है। जबकि यह चंद्रभागा है।

मैं हमेशा कहता हूं कि एक संघर्ष हर तरफ चल रहा है। कई मोर्चे पर जारी है। सभ्यता संघर्ष। इस संघर्ष में विरासत पर अधिकार करने की कोशिशें बदस्तूर जारी हैं। झेलम वितस्ता का बदला नाम है। सतलुज का नाम शतद्रु था। व्यास विपासा थी। रावी इरावती का परिवर्तित नाम है।

आज नदियों के नाम बदले हैं। पर्वत शिखरों के नाम बदले जा रहे हैं! नया चलन पहले फैशन और साझा विरासत के नाम पर चल रहा है और बाद में एक कागज लेकर कोई आ जाता है कि महाकुंभ क्षेत्र का इतना अंश हमारा है, जिसपर मेला लग रहा है।

अपने प्राचीन नाम को याद रखें। उन्हें प्रयोग में ले आएं। आज बिन्त नाम पढ़ते समय याद आया कि बिन्नी/बिनती/बंटी आदि नाम हमने उसी के प्रभाव में स्वीकार कर लिए हैं। हमने बहुत अंगीकृत किया है। इतना अधिक कि हम हम नहीं रह गए हैं, वह हो जाने के कगार पर हैं!

मुझे वह नहीं होना है! पुल हमें जोड़ें। अधिग्रहित न कर लें।
इति।

सोमवार, 13 जनवरी 2025

पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।

पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुरभूप।।

भाग- 23
अंतिम छंद, दोहा।
श्री हनुमान चालीसा शृंखला।
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।

श्री हनुमान चालीसा के इस अंतिम छंद में हनुमान जी को पुनः पवन तनय अर्थात पवन देव का पुत्र बताया गया है। यह कहकर उन्हें किसी भी तरह के संकट को हर लेने वाला यानि ले लेने वाला कहा गया है। हनुमान जी साक्षात् मंगल मूर्ति हैं। वह सदा सर्वदा मंगल करने वाले हैं। गोस्वामी तुलसीदास की प्रार्थना है कि हनुमान जी, जो देवताओं के राजा हैं- सुरभूप; वह भगवान श्रीराम, लक्ष्मण और जानकी जी के साथ हृदय में निवास करें।

इस दोहे में बहुत सहजता से भगवान श्रीराम, उनके अनुज शेषावतार लक्ष्मण और साक्षात् जगदम्बा सीता जी के साथ हनुमान जी को भी हृदयंगम करने की बात है। यह और इस जैसी कई अन्य युक्तियों को देखकर लगता है कि गोस्वामी तुलसीदास समन्वय की विराट चेष्टा के पैरोकार हैं।

श्री हनुमान चालीसा का समापन भी दोहे से हुआ है। आरंभ में दो दोहा और अंत में एक; कुल तीन दोहे श्री हनुमान चालीसा में हैं। तुलसीदास की काव्य योजना बहुत सुचिंतित और एक सुगठित वास्तु की तरह है। श्रीरामचरितमानस में जिस वर्ण से आरम्भ हुआ है उसी वर्ण से पूर्ण। यह महीन संरचना का एक अंग है।

श्री हनुमान चालीसा की यह कड़ी यहां पूरी होती है। हनुमान जी की चालीसा का यह शृंखलाबद्ध व्याख्या वाला प्रभाग पूर्ण हुआ। भगवान श्री राम और बजरंगी हनुमान जी की जय के साथ इस शृंखला को यहां विराम देता हूं।
 
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राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुरभूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुरभूप।


रविवार, 12 जनवरी 2025

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।
होय  सिद्धि  साखी  गौरीसा॥
तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय मँह डेरा॥

भाग- 22
बीसवीं चौपाई।
श्री हनुमान चालीसा शृंखला।

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।


श्री हनुमान चालीसा पाठ सिद्धिदायक है। हनुमान जी अष्ट सिद्धि के दाता हैं, यह वरदान उन्हें माता जानकी ने दे रखा है। अष्ट सिद्धि नौ निधि पर हमने विस्तार से चर्चा की है। श्री हनुमान चालीसा को पढ़ने से सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं, यह बात इस चौपाई में कही गई है और इसके लिए यह भी कहा गया है कि इस बात की साक्षी स्वयं गौरी पार्वती हैं। उन्होंने इस चौपाई में स्वयं को भगवान का सदा सदा से चेरा अर्थात सेवक माना है और प्रार्थना की है कि श्री भगवान जी हमेशा उनके हृदय में निवास करें। हम जानते हैं कि हनुमान चालीसा लिखने की प्रेरणा तुलसीदास जी को भगवान शिव के कहने से मिली थी। यह हनुमान चालीसा पढ़ना प्रभावकारी है, इसकी साक्षी स्वयं माता पार्वती हैं।

तुलसीदास जी ने सामान्य मानवी पर विश्वास जताने के लिए इस वाक्य की योजना की है। जिस बात का साक्ष्य स्वयं माता पार्वती हैं, उसमें अविश्वास करने का कोई कारण नहीं हो सकता।

यह श्री हनुमान चालीसा की अंतिम चौपाई है। सभी कवियों की तरह तुलसीदास जी इस पंक्ति में अपनी छाप के साथ हैं। तुलसीदास का नाम तुलसी ही था किंतु भगवान से भक्ति और स्वयं को सेवक मानने के उनके आग्रह को देखते हुए उनके नाम के साथ ही दास शब्द जुड़ गया। जब यह संज्ञा में परिवर्तित हो गया तो तुलसी ने अपने सेवक रूप को पृथक प्रकट किया और इसी भाव को धारण किया। वह रघुकुल शिरोमणि श्रीरामचंद्र जी के सदा सदा से सेवक बनकर रहना चाहते हैं।

भगवान के भक्त के लिए इससे सुघड़ और उच्च भाव नहीं हो सकता कि वह श्री हरि के सबसे निकट के सेवक बनें। चूंकि भगवान की लीलाओं के भगवान के निकट के संबंधी किसी न किसी के अवतार हैं, इसलिए उसमें सम्मिलित होने की गुंजाइश नहीं है तो सेवक के रूप में रहना सबसे अधिक स्वीकार्य और सहज है। तुलसीदास जी यही प्रार्थना भी करते हैं।

होय सिद्ध साखी गौरीसा।
होय सिद्ध साखी गौरीसा।


पुनः बताना है कि हमारे विवेचन में अब तक बाईस भाग में दो दोहा के साथ जिन बीस चौपाइयों की चर्चा हुई है, वह चालीस अर्द्धाली हैं। चौपाई की एक अर्द्धाली में दो चरण होते हैं। चालीस पंक्तियों की रचना होने के कारण यह चालीसा है।
#जय_श्री_राम_दूत_हनुमान_जी_की
#हनुमानचालीसा_व्याख्या_सहित #Hanuman #चौपाई
#श्री_हनुमान_चालीसा
#हनुमानचालीसा_शृंखला


शनिवार, 11 जनवरी 2025

जय जय जय हनुमान गोसाईं।

जय जय जय हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु  गुरुदेव  की नाई॥
जो सत बार पाठ कर कोई।
छुटहि बँदि महा सुख होई॥

भाग- 21
उन्नीसवीं चौपाई।
श्री हनुमान चालीसा शृंखला।

जय जय जय हनुमान गोसाईं।

जय जय जय हनुमान गोसाईं


हनुमान जी की वंदना बहुविध करने के बाद गोस्वामी तुलसीदास ने इस चौपाई में उनकी जयकार की है और उन्हें गुसाईं कहा है। साथ ही उनसे अपेक्षा की है कि वह गुरुदेव की तरह कृपा करें। वह कहते हैं कि  यदि कोई व्यक्ति हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करे तो वह समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है और उसे महासुख की प्राप्ति हो जाती है। यहां चौपाई में प्रयुक्त गुसाईं गोस्वामी का लोक व्यवहारित शब्दरूप है। गोस्वामी दो शब्दों का युग्म है- गो+स्वामी। गो का अर्थ है इंद्रिय। हम जानते हैं कि पांच कर्म इंद्रियां हैं और पांच ज्ञानेंद्रियां। यह किसी भी शरीर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग है। कहा जाए कि यही वास्तव में शरीर है तो गलत न होगा। इस प्रकार काया का स्वामी जो है, जो हमारा आराध्य है, उसे गोस्वामी कहा जाएगा। जो अपनी काया का स्वामी है वह भी गोस्वामी होता है।

दूसरे प्रभाग में हनुमान जी से गुरुदेव की भाँति कृपा करने को कहा गया है। गुरुदेव की महिमा भारतीय सनातन परंपरा में खूब गाई गई है। वह अंधकार से प्रकाश में ले जाने वाले हैं। कबीर ने तो उन्हें गोविंद से भी श्रेष्ठ कहा है। यहां श्री हनुमान चालीसा में हनुमान जी की वंदना पूरी होती है। इसी चौपाई में हनुमान चालीसा पढ़ने के माहात्म्य पर चर्चा है।

इस चौपाई में शत बार पाठ करने की बात है। यह बारम्बारता के लिए है। गुणी जन शत की संख्या सात भी बताते हैं किंतु यहां यह समझना चाहिए कि एक दिन में ही पाठ नहीं करना है। बंदी जीवन से आशय है बंधन से युक्त जीवन। यह अनावश्यक प्रतिबंधों, कष्ट आदि से जनित होता है। महासुख की बात भी इसी चौपाई में है। #महासुख का अर्थ है साधकों को सिद्धि प्राप्त हो जाने पर मिलने वाला परमानंद। बौद्ध साधना पद्धति में महासुख को निर्वाण के सुख की तरह समझा गया है। इसे मैथुन अथवा रति से प्राप्त सुख के लिए भी जोड़ते हैं।लेकिन कुल मिलाकर महासुख का अर्थ अतिशय आनंद की स्थिति से है। गोस्वामी तुलसीदास ने हनुमान चालीसा के पाठ से अपरिमित सुख प्राप्ति का उपाय इस चौपाई में बताया है।
#जय_श्री_राम_दूत_हनुमान_जी_की
#हनुमानचालीसा_व्याख्या_सहित #Hanuman #चौपाई
#श्री_हनुमान_चालीसा
#हनुमानचालीसा_शृंखला


शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

और देवता चित न धरई।

और  देवता  चित न  धरई।
हनुमत सेई सर्व सुख करई॥
संकट  कटै  मिटै  सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥

भाग- 20
अठारहवीं चौपाई।
श्री हनुमान चालीसा शृंखला।
और  देवता  चित न  धरई।

श्री हनुमान चालीसा के इस चौपाई में कहा गया है कि हनुमान जी की सेवा करने से सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति हो जाती है। इसलिए अन्य किसी देवता का स्मरण करने की आवश्यकता नहीं है। जो भी व्यक्ति हनुमान जी का ध्यान करता है, उसके समस्त संकट कट जाते हैं और पीड़ा दूर हो जाती है।

यहां तुलसीदास जी ने एकनिष्ठता पर बल दिया है और हनुमान जी के प्रति अगाध श्रद्धा व्यक्त की है। हनुमान जी सभी सुख देने वाले हैं। यहां चौपाई के दूसरे अर्द्धाली में 'और देवता' की चर्चा किंचित विचार करने के लिए रोकती है।

स्वयं तुलसीदास जी वैष्णव हैं। भगवान श्रीराम में उनकी गहन आस्था है। राम के प्रति उनकी भक्ति की अनन्यता सर्वविदित है तब वह हनुमान जी के अतिरिक्त अन्य देवता का ध्यान तक नहीं करने के लिए क्यों कहते हैं? इसका एक उत्तर तो यह है कि रघुकुल शिरोमणि श्रीरामचंद्र कोई देवता नहीं हैं। वह तीनों लोकों के स्वामी हैं। इसमें देवलोक भी आता है। वह सृष्टि के पालक हैं। और दूसरे, वह हनुमान जी से इस प्रकार अभिन्न हैं कि एक का स्मरण दूसरे के साथ ही है। वस्तुत: हनुमान और श्रीराम में अभेद है। तुलसीदास जी ने आजीवन शैव और वैष्णव मत की एकात्मकता पर बल दिया और अपनी रचना में इसी प्रकार विन्यास भी किया। इसलिए यहां हनुमान जी के संबंध में चर्चा करते हुए यह कहना तर्कसंगत और उचित तथा समावेशी है।

श्री हनुमान चालीसा की इस चौपाई में हनुमान जी के नाम स्मरण के माहात्म्य को पुनः बताया गया है। तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी के नाम का जो भी व्यक्ति सुमिरन करता रहता है, उसके समस्त संकट कट जाते हैं और पीड़ा समाप्त हो जाती है।

तुलसीदास जी न केवल हनुमान चालीसा में अपितु अपने समस्त साहित्य में स्मरण, स्मृति पर सबसे अधिक जोर देते हैं। हमें याद रखना है। हनुमान जी याद रहेंगे तो श्रीराम की याद रहेगी। श्रीराम की स्मृति ध्यान में आएगी तो मर्यादा का स्मरण रहेगा। नीति का ध्यान रहेगा। वह प्रतिबद्धता स्मरण में रहेगी। रावण का संज्ञान रहेगा। हमें हमारी परम्परा और अनुशासन का ज्ञान रहेगा। यह सब अज्ञान और भय को मिटा देने वाले हैं। रोग और शोक को खत्म कर देने वाले हैं।

श्री हनुमान चालीसा में हनुमान जी को याद रखना है और इसे बार बार स्मरण में रखना है, ऐसा कहा गया है। सुमिरन शब्द में बारंबारता है। इसे सदैव ध्यान में रखना है।
 
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गुरुवार, 9 जनवरी 2025

तुम्हरे भजन राम को पावै।

तुम्हरे  भजन  राम  को  पावै।
जनम जनम के दुख बिसरावै॥
अन्त काल रघुबर पुर  जाई।
जहां जन्म हरी भक्त कहाई।।

भाग- 19
सत्रहवीं चौपाई।
श्री हनुमान चालीसा शृंखला।
तुम्हरे  भजन  राम  को  पावै।
तुम्हरे  भजन  राम  को  पावै।

श्री हनुमान चालीसा में हनुमान जी की कृपा, उनके नाम का स्मरण, उनके गुणों का बखान करना आदि का माहात्म्य बारम्बार हुआ है। इस चौपाई में कहा गया है कि हनुमान जी को बार बार याद करने, भजने से भगवान श्रीराम का सानिध्य प्राप्त होता है। इसके साथ ही जन्म जन्मांतर के कष्ट से मुक्ति मिल जाती है।

जन्म जन्मांतर की अवधारणा भारतीय सनातन संस्कृति की पहचान है। हमारे यहां जीवन से पहले के जीवन का और जीवन के बाद के जीवन का भी लेखा जोखा है। सृष्टि में 84 लाख योनियां बताई गई हैं जिसमें मनुष्य जीवन सर्वश्रेष्ठ है। इसमें भी शृंखला चलती रहती है। भगवत कृपा से यह क्रम बंद होता है। भगवत कृपा होती है तो भगवान विष्णु के धाम बैकुंठ में जगह मिलती है। यह भगवान श्रीराम का लोक है। श्री हनुमान चालीसा इसी लोक में स्थान पाने के लिए हनुमान जी के भजन पर जोर देता है।

श्री हनुमान चालीसा के इस चौपाई में भी हनुमान जी की महिमा गाई गई है। तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी के भजन के प्रभाव से प्राणी अन्त समय श्री रघुनाथजी के धाम जाते हैं। श्रीरघुनाथ जी का धाम बैकुंठ है। यह तीनों लोकों से इतर है। यहां जाने का अर्थ है- जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो जाना। यही मोक्ष है। बैकुंठ धाम जाने का आशय है जन्म जन्मांतर के बंधन से मुक्त हो जाना। तुलसीदास जी यह भी लिखते हैं कि यदि मृत्युलोक में जन्म लेंगे तो भक्ति करेंगे और श्रीहरिभक्त कहलायेंगे। इसमें पुनर्जन्म की धारणा में विश्वास तो जताया ही गया है यह भी कहा गया है कि श्रीहरि का भक्त होना अत्यंत गौरव का विषय है। भगवान श्रीराम का भक्त सभी प्राणियों में श्रेष्ठ माना जाता है। जो श्रीराम का भक्त है, वही वैष्णव है। जो वैष्णव है वह सहृदय, दयालु और सज्जन है। नरसी मेहता गुजरात के कवि हुए हैं। अपने गीत में वह कहते हैं कि वैष्णव वह है जो दूसरे का दुःख जानता है। यह जानना किसी भी व्यक्ति को श्रेष्ठ बनाता है।

श्री हनुमान चालीसा का प्रभाव यह है कि इसके गायन/पाठ से व्यक्ति बैकुंठ धाम का पात्र हो जाता है और मर्त्यलोक में वह श्री विष्णु का भक्त समझा जाता है। यह चौपाई एक अन्य विशिष्ट पक्ष की ओर ध्यान कराती है कि स्वयं भगवान शिव के रूप हनुमान जी भी बैकुंठ धाम को श्रेष्ठ मानते हैं।

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बुधवार, 8 जनवरी 2025

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।
अस बर दीन जानकी माता।।
राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति कर दासा।।

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन जानकी माता।।
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।

भाग- 18
सोलहवीं चौपाई।
श्री हनुमान चालीसा शृंखला।

श्री हनुमान चालीसा की यह चौपाई बहुत महत्वपूर्ण है। इस चौपाई में हनुमान जी को अष्ट सिद्धि, नौ निधि का प्रदाता कहा गया है। और यह भी बताया गया है कि राम रसायन उनके पास है। हनुमान जी को सिद्धियां और निधियाँ सहज प्राप्त हैं। आठ सिद्धियां जो बताई गई हैं, वह हैं - अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व। नौ निधियाँ- पद्म, महापद्म, नील, मुकुंद, नंद, मकर, कच्छप, शंख, खर्व या मिश्र हैं।

जब हनुमान जी ने श्री जानकी जी का पता लगाया और उन्हें भगवान श्रीराम का संदेश सुनाया तो प्रसन्न होकर साक्षात् जगदम्बा ने उन्हें वरदान किया कि वह अष्ट सिद्धि और नौ निधि किसी को भी प्रदान कर सकते हैं। हनुमान जी इन्हीं सिद्धियों के बल पर अपना आकार घटा बढ़ा सकते थे और आवश्यकता के अनुसार रूप धारण कर सकते हैं। वह बल बुद्धि और विद्या के आगार इसलिए भी हैं।
हनुमान जी की कृपा से हम सृष्टि के समस्त लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

इस चौपाई में हनुमान जी को सदैव भगवान श्रीराम के निकट रहने वाले सेवक के रूप में बताया गया है जिसके पास राम रसायन है।

राम रसायन क्या है?
सामान्यतया रसायन का अर्थ ओषधि से लिया जाता है। कहा जाता है कि राम नाम एक ओषधि है जो हर तरह के दुःख और कष्ट से मुक्त करने में सक्षम है। किंतु यह राम रसायन का सरलीकरण ही है। राम रसायन कष्ट में पड़े और दुःखी जन के लिए ओषधि है लेकिन यह नाम सर्वजन के लिए आनंददायी है इसलिए ओषधि कहना इसका क्षेत्र संकोच करना है।

रसायन रस का आनंद है। रस की व्याख्या करते हुए तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा गया है - रसो वै स:।
रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति।
अर्थात् वह रस का स्वरूप है। जो इस रस को पा लेता है वही आनन्दमय बन जाता है। सः यहाँ स्वयम्भू सर्जक के लिए प्रयोग किया गया है और रस उनकी सुन्दर रचना से मिला आनन्द है। जब प्राणी इस आनन्द को, इस रस को प्राप्त कर लेता है तो वह स्वयं आनन्दमय बन जाता है।
राम रसायन तुम्हरे पासा।


अथर्ववेद में आता है - "श्रीरामएवरसोवैसः।यस्यदासरसोवैपादः। यस्य शान्तरसो वै शिरः। वात्सल्यः प्राणः। शृङ्गारो बाहू। संख्यात्मा।" अर्थात् वह रसो वै सः ही एकमात्र #श्रीराम हैं। जिसका दास्य रस है उसके पैर हैं, शांत रस है सिर है, वात्सल्य रस है प्राण है, श्रृंगार रस है भुजा है और सख्य रस है आत्मा।

अतः स्पष्ट है कि रसायन और उसमें भी राम रसायन अतिविशिष्ट तत्त्व है। श्री हनुमान जी के पास यह है। हनुमान चालीसा इसे विशेष रूप से उल्लिखित करता है।
 
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सद्य: आलोकित!

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