(1)
ताप के ताए हुए दिन
ताप के ताए हुए दिन ये
क्षण के लघु मान से
मौन नपा किए ।
चौंध के अक्षर
पल्लव-पल्लव के उर में
चुपचाप छपा किए ।
कोमलता के सुकोमल प्राण
यहाँ उपताप में
नित्य तपा किए ।
क्या मिला-क्या मिला
जो भटके-अटके
फिर मंगल-मंत्र जपा किए ।
(2)
अन्तर
तुलसी और त्रिलोचन में
अन्तर जो झलके
वे कालान्तर के कारण हैं । देश वही है,
लेकिन तुलसी ने जब-जब जो बात कही है,
उसे समझना होगा सन्दर्भों में कल के।
वह कल, कब का बीत चुका है .. आँखें मल के
ज़रा देखिए, इस घेरे से कहीं निकल के,
पहली स्वरधारा साँसों में कहाँ रही है;
धीरे-धीरे इधर से किधर आज बही है।
क्या इस घटना पर आँसू ही आँसू ही ढलके।
और त्रिलोचन के सन्दर्भों का पहनावा
युग ही समझे, तुलसी को भी नहीं सजेगा,
सुखद हास्यरस हो जाएगा। जीवन अब का
फुटकर मेल दिखाकर भी कुछ और बनावा
रखता है। अब बाज पुराना नहीं बजेगा
उसके मन का। मान चाहिए, सबको सबका।
(3)
फिर न हारा
मैं तुम्हारा
बन गया तो
फिर न हारा
आँख तक कर
फिरी थक कर
डाल का फल
गिरा पक कर
वर्ण दृग को
स्पर्श कर को
स्वाद मुख को
हुआ प्यारा ।
फूल फूला
मैं न भूला
गंध-वर्णों
का बगूला
उठा करता
गिरा करता
फिरा करता
नित्य न्यारा ।
(4)
जलरुद्ध दूब
मौन के सागर में
गहरे गहरे
निशिवासर डूब रहा हूँ
जीवन की
जो उपाधियाँ हैं
उनसे मन ही मन ऊब रहा हूँ
हो गया ख़ाना ख़राब कहीं
तो कहीं
कुछ में कुछ ख़ूब रहा हूँ
बाढ़ में जो
कहीं न जा सकी
जलरुद्ध रही वही दूब रहा हूँ ।
(5)
सहस्रदल कमल
जब तक यह पृथ्वी रसवती
है
और
जब तक सूर्य की प्रदक्षिणा में लग्न है,
तब तक आकाश में
उमड़ते रहेंगे बादल मंडल बाँध कर;
जीवन ही जीवन
बरसा करेगा देशों में, दिशाओं में;
दौड़ेगा प्रवाह
इस ओर उस ओर चारों ओर;
नयन देखेंगे
जीवन के अंकुरों को
उठ कर अभिवादन करते प्रभात काल का ।
बाढ़ में
आँखो के आँसू बहा करेंगे,
किन्तु जल थिराने पर,
कमल भी खिलेंगे
सहस्रदल ।
(6)
पाहुन
बना बना कर चित्र सलौने
यह सूना आकाश सजाया
राग दिखाया
क्षण-क्षण छवि में चित्त चुराया
बादल चले गए वे
आसमान जब नीला-नीला
एक रंग रस श्याम सजीला
धरती पीली हरी रसीली
शिशिर -प्रभात समुज्ज्वल गीला
बादल चले गए वे
दो दिन दुःख का दो दिन सुख का
दुःख सुख दोनों संगी जग में
कभी हास है अभी अश्रु हैं
जीवन नवल तरंगी जग में
बादल चले गए वे
दो दिन पाहुन जैसे रह कर ।
(7)
यूँ ही कुछ मुस्काकर तुमने
यूँ ही
कुछ मुस्काकर तुमने
परिचय की वो गाँठ लगा दी !
था पथ पर मैं भूला-भूला
फूल उपेक्षित कोई फूला
जाने कौन लहर थी उस दिन
तुमने अपनी याद जगा दी ।
कभी कभी यूँ हो जाता है
गीत कहीं कोई गाता है
गूँज किसी उर में उठती है
तुमने वही धार उमगा दी ।
जड़ता है जीवन की पीड़ा
निस्-तरँग पाषाणी क्रीड़ा
तुमने अन्जाने वह पीड़ा
छवि के शर से दूर भगा दी ।
(8)
तुलसी बाबा
तुलसी बाबा, भाषा मैंने तुमसे सीखी
मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो।कह सकते थे तुम सब कड़वी, मीठी तीखी।
प्रखर काल की धारा पर तुम जमे हुए हो।
और वृक्ष गिर गए मगर तुम थमे हुए हो।
कभी राम से अपना कुछ भी नहीं दुराया,
देखा, तुम उन के चरणों पर नमे हुए हो।
विश्व बदर था हाथ तुम्हारे उक्त फुराया,
तेज तुम्हारा था कि अमंगल वृक्ष झुराया,
मंगल का तरु उगा; देख कर उसकी छाया,
विघ्न विपद के घन सरके, मुँह नहीं चुराया।
आठों पहर राम के रहे, राम गुन गाया।
यज्ञ रहा, तप रहा तुम्हारा जीवन भू पर।
भक्त हुए, उठ गए राम से भी, यों ऊपर ।
(9)
भाषा की लहरें
भाषाओं
के अगम समुद्रों का अवगाहन
मैंने किया। मुझे मानव–जीवन की माया
सदा मुग्ध करती है, अहोरात्र आवाहन
सुन सुनकर धाया–धूपा, मन में भर लाया
ध्यान एक से एक अनोखे। सबकुछ पाया
शब्दों में, देखा सबकुछ ध्वनि–रूप हो गया।
मेघों ने आकाश घेरकर जी भर गाया।
मुद्रा, चेष्टा, भाव, वेग, तत्काल खो गया,
जीवन की शैय्या पर आकर मरण सो गया।
सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ भाषा ।
भाषा की अंजुली से मानव हृदय टो गया
कवि मानव का,
जगा नया नूतन अभिलाषा।
भाषा की लहरों में जीवन की हलचल है,
ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है
(10)
चम्पा काले काले अच्छर नहीं
चीन्हती
चम्पा काले काले अच्छर
नहीं चीन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता है:
इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर
निकला करते हैं।
चम्पा सुन्दर की लड़की है
सुन्दर ग्वाला है : गाय भैंसे रखता है
चम्पा चौपायों को लेकर
चरवाही करने जाती है
चम्पा अच्छी है
चंचल है
न ट ख ट भी है
कभी कभी ऊधम करती है
कभी कभी वह कलम चुरा देती है
जैसे तैसे उसे ढूंढ कर जब लाता हूँ
पाता हूँ - अब कागज गायब
परेशान फिर हो जाता हूँ
चम्पा कहती है:
तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर
क्या यह काम बहुत अच्छा है
यह सुनकर मैं हँस देता हूँ
फिर चम्पा चुप हो जाती है
उस दिन चम्पा आई , मैने कहा कि
चम्पा, तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम सरेगा
गांधी बाबा की इच्छा है -
सब जन पढ़ना लिखना सीखें
चम्पा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढूंगी
तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं
वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे
मैं तो नहीं पढ़ूँगी
मैने कहा चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा , तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम सँग साथ रह चला जायेगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर है वह कलकत्ता
कैसे उसे सँदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी
चम्पा पढ़ लेना अच्छा है!
चम्पा बोली : तुम कितने झूठे हो, देखा,
हाय राम , तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करुंगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूंगी
कलकत्ता में कभी न जाने दूँगी
कलकत्ते पर बजर गिरे।
(11)
सॉनेट पथ
इधर त्रिलोचन सॉनेट के
ही पथ पर दौड़ा;
सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट,
सॉनेट; क्या कर डाला
यह उस ने भी अजब तमाशा। मन की माला
गले डाल ली। इस सॉनेट का रस्ता चौड़ा
अधिक नहीं है, कसे कसाए भाव अनूठे
ऐसे आएँ जैसे क़िला आगरा में जो
नग है, दिखलाता है पूरे ताजमहल को;
गेय रहे, एकान्विति हो। उस ने तो झूठे
ठाटबाट बाँधे हैं। चीज़ किराए की है।
स्पेंसर, सिडनी, शेक्सपियर,
मिल्टन की वाणी
वर्ड्सवर्थ, कीट्स की अनवरत प्रिय कल्याणी
स्वर-धारा है, उस ने नई चीज़ क्या दी है।
सॉनेट से मजाक़ भी उसने खूब किया है,
जहाँ तहाँ कुछ रंग व्यंग्य का छिड़क दिया है।
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त्रिलोचन |
(त्रिलोचन (1917-2007ई0) प्रगतिवादी कवियों की त्रयी के प्रधान कवि हैं। त्रयी के अन्य स्तम्भ हैं- नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल। त्रिलोचन शास्त्री का असली नाम वासुदेव सिंह था। वह हिन्दी कविता में सोनेट के जन्मदाता माने जाते हैं। उन्होने अपनी कविताओं में कई प्रयोग किए हैं। गुलाब और बुलबुल, ताप के ताए हुए दिन, उस जनपद का कवि हूँ उनके चर्चित कविता संकलन हैं। यहाँ त्रिलोचन की ग्यारह कवितायें दी गयी हैं। इनमें से प्रारम्भिक पाँच कवितायें छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर के बी ए तृतीय वर्ष के पाठ्यक्रम में भी हैं। शेष कवितायें त्रिलोचन के विविध रूप का निदर्शन कराती हैं। - सम्पादक)