- डॉ रमाकान्त राय
आज त्रिमुहानी का मेला था। आज की तिथि वामन द्वादशी की तिथि है। हमारी लहुरी काशी में आज का दिन भगवान श्रीराम और उनके अनुज लक्ष्मण तथा उनके आचार्य ऋषि विश्वामित्र के दर्शन का दिन है। उत्सव है। मेला है।
आपको त्रिमुहानी के इस विख्यात मेले के बारे में पता है न? जनश्रुति है कि भगवान श्रीराम ताड़का वध के समय बक्सर जाते समय जल्लापुर, गाधिपुरी (गाजीपुर) में गंगा तट पर रात्रि विश्राम के लिए रुके थे। जिस दिन पहुँचे उस दिन यानि कल के दिन छतर का मेला लगता है और दंगल होता है। दूर दूर के पहलवान अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। भगवान श्रीराम और लक्ष्मण के प्रति समर्पण का यह विशिष्ट तरीका है। राम और लक्ष्मण अभी बालक ही तो हैं। ऋषि विश्वामित्र उन्हें अपने यज्ञ की रक्षा के लिए दशरथ से मांगकर ले जा रहे हैं। बक्सर। वहां कुख्यात राक्षस उनकी यज्ञ वेदी में हड्डियां डाल देते थे। राम और लक्ष्मण ऋषि वशिष्ठ से ज्ञानार्जन कर अभी लौटे ही थे। परीक्षा की घड़ी है।
आज मेला लगता है। लोग रघुवंशियों को देखने और उन्हें विदा करने गंगा तट पर उमड़ते हैं। लोक की स्मृति अद्भुत है। रात्रि विश्राम के बाद रघुकुलनंदन जाने की तैयारी कर रहे हैं। ऋषि विश्वामित्र आगे आगे चल रहे हैं। लोग यह देखकर धन्य हो रहे हैं।
सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष |
लोक की स्मृति अद्भुत है। अभी हाल ही में एक विद्वान हस्तिनापुर के निकट स्थित दनकौर के बारे में बता रहे थे। दनकौर द्रोणाचार्य के अखाड़े से जुड़ा हुआ है। द्रोण के आश्रम का यह कोर (कोना) कौरव और पांडव के दीक्षांत का था। हजारों वर्ष बीत गए, आज भी उसकी याद में मेला लगता है। मुगल काल में स्मृति क्षीण करने का प्रयास अवश्य हुआ, किन्तु लोगों ने इसे अपनी परम्परा में बचाए रखा। त्रिमुहानी का मेला ताड़का वध के लिए जा रहे भगवान श्रीराम और लक्ष्मण की याद में आयोजित करते हैं।
कहते हैं कि जब यह खबर अब के फिरोजपुर, सुल्तानपुर, कठउत-गौसपुर (दुर्योग से यह नाम आक्रांताओं की याद दिलाते हैं) के लोगों को पता चली तो वह लोग अगले दिन जमा हुए। उनका यह जमावड़ा चटनी का मेला कहा गया।
कई साल हो गए। मेला नहीं गया लेकिन मेला स्मृति में बसा हुआ है। छुटपन में जाते थे तो गुरहिया जिलेबी और केला जरूर खाते थे। खजुली खाते। चरखी पर भी चढ़ते। हनुमान जी के मंदिर में शीश नवाते थे। आज के दिन बरसात अवश्य होती है। सबको इस बारिश में भीगना रहता था, उसी दशा में घूमना भी। यह मेला शिवपालगंज के मेले से किसी भी दृष्टि से कम नहीं था।
त्रिमुहानी के मेले की कई मीठी स्मृतियां हैं। अगली बार अवश्य जाऊंगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें