इतिहास
लेखन एक चुनौती है। इसलिए कि इसे निरपेक्ष होकर नहीं लिखा जा सकता है और उपलब्ध
संसाधनों और तथ्यों का पाठ कभी भी इतना वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकता कि घटना की
वास्तविकता को ज्यों का त्यों रख सके। फिर लिखे हुए कि भी एक सीमा है। उसके पाठ की
और अंतर्पाठ की भी। यह और कठिन तब हो जाता है जब हम एक औपनिवेशिक शासन से मुक्त
हुए हों। औपनिवेशिक शासन अपनी सत्ता को वैध बनाने और स्थायित्व देने के लिए कई तरह
के छल-छद्म रचता है। उसमें एक है, घटनाओं को प्रस्तुत करने का औपनिवेशिक तरीका। इस
तरीके में सत्ता विरोधी घटनाएँ इस स्याही से लिखी जाती हैं कि उनकी कालिमा मिटाने
में तथ्यों के अंतर्पाठ भी सहायक नहीं हो पाते। औपनिवेशिक शासन अपने लिए
इतिहासकारों को गढ़ता है ताकि वे उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों को अपने लाभ के लिए
इस्तेमाल कर सकें।
भारत
में इतिहास लेखन का एक दूसरा पहलू यह है कि इसे कांग्रेसी सरकारों ने अपने
मनमुताबिक करवाया। हमारे देश का दुर्भाग्य यह रहा है कि इस देश के मुक्ति का
संग्राम लड़ने वाली अग्रणी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने मूल चरित्र में
जनविरोधी रही है। इसकी स्थापना ही अंग्रेजी सत्ता के लिए सेफ्टी वाल्व के उद्देश्य
से हुई। इस पार्टी में जमींदारों, रजवाड़े और सत्ता के लोलुप अवसरवादी भरे हुए थे।
जिन महात्मा गांधी के विषय में कहा जाता है कि उन्होंने इस पार्टी को आमजन से
जोड़ा, उन महात्मा गांधी का मूल रुझान भी बहुत जनवादी नहीं था। वे व्यवस्था के पोषक
चरित्रों में से एक थे। जमींदारों और पूंजीपतियों के लिए ट्रस्टीशिप वाला उनका
सिद्धांत कोई परिवर्तनकामी नहीं था। इस तरह से देश का इतिहास कांग्रेसी इतिहास बन
कर रह गया। इसके उलट वामपंथी इतिहास सबाल्टर्न और जनवादी होने के अतिशय आग्रह में
भी उस तरह का नहीं रह गया है जिसे स्वीकार्य कहा जा सके। राष्ट्रवादियों का इतिहास
लेखन तो अतीत के स्वर्णिम नास्टेल्जिया में उलझ जाता है। इस तरह देश में कम से कम
चार तरह के इतिहास बनते हैं। औपनिवेशिक, कांग्रेसी, वामपंथी और राष्ट्रवादी। इसमें
अपनी मान्यता के लिए सबसे अधिक संघर्ष राष्ट्रवादी इतिहासकार करते हैं। यही कारण
है कि जब इतिहास की पूर्व प्रचलित मान्यताएं जब खतरे में पड़ती हैं या आधी
अधूरी-अधकचरी सिद्ध होने लगती हैं तो राष्ट्रवादी इतिहासकार इतिहास के पुनर्लेखन
की मांग करने लगते हैं। इसके अलावा एक दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि इतिहास
के लिए और आधुनिक इतिहास के लिए उपलब्ध अधिकांश सामग्री भी उस मनोयोग और श्रमसाध्य
तरीके से उपयोग में नहीं लाई जाती कि कम से कम तथ्य और घटनाएं सही हों।
इतिहास
के साथ एक समस्या यह भी है, जिसे साहित्य के साथ रखकर अक्सर कहा जाता है कि
साहित्य में तिथियों और तथ्यों के अलावा सब सही होता है और इतिहास में तिथियों और
तथ्यों के अलावा सब गलत। बहस में आगे न बढ़ते हुए सुभाष चन्द्र कुशवाहा की किताब “चौरी
चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन” पर बात की जाए जो चौरी चौरा मसले का विधिवत,
तथ्य सहित और बहुत परिश्रम से तैयार किये हुए इतिहास पर गवेषणापूर्वक बात करती है।
किस्सागोई की हद तक की रोचक यह किताब बहुत गहराई से जाँच पड़ताल करती है और कई पुरानी
मान्यताओं पर प्रश्न खड़े करती है।
चौरी-चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन |
चौरी चौरा का स्वाधीनता आन्दोलन इतिहास
की उन चुनिन्दा घटनाओं में से एक है, जिसके मूल्यांकन में इतिहासकार चूक गए हैं।
कई ऐतिहासिक स्मारक स्थलों, अभिलेखों और प्रस्तुतियों में इस घटना का जो विवरण
दर्ज है वह सच्चाई को तोड़ता-मरोड़ता है। कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा की ‘चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन’ नामक पुस्तक
में चौरी चौरा विद्रोह के पहलुओं का बहुत विचारोत्तेजक और हृदयस्पर्शी विवेचन किया
गया है। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने इस पुस्तक में बताया है कि उन्होंने इसे तैयार
करने में तमाम उपलब्ध संसाधनों का समुचित प्रयोग किया है और उनका साम्य बिठाने और
तर्क आधारित व्याख्या करने की कोशिश की है। इस क्रम में उन्होंने न सिर्फ सरकारी,
गैरसरकारी तथ्यों का अपितु स्थानीय साक्ष्यों का प्रयोग भी किया है। इस पुस्तक के
निर्माण में उन्होंने चौरी चौरा स्वाधीनता आन्दोलन के क्रांतिकारियों के परिजनों
से मिलकर उन सूत्रों को गूंथने की कोशिश की है, जो इतिहास और तत्कालीन सरकारी दमन
तथा दूर दराज के क्षेत्रों में बैठकर गढ़ने में ओझल कर दिया गया है।
चौरी चौरा स्वाधीनता संघर्ष इतिहास की
एक बहुत चर्चित घटना है जिसमें दिनांक ०४ फ़रवरी, १९२२ को चौरी चौरा थाना, जिला
गोरखपुर, को २४ सिपाहियों समेत लगभग २००० ग्रामीणों ने फूंक दिया था। इस घटना से
भारतीय इतिहास का एक अन्य महत्त्वपूर्ण पन्ना जुड़ा है। ऐसा कहा जाता है कि इस घटना
में हुई हिंसा के फलस्वरूप क्षुब्ध होकर गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया
था, जिसके बारे में कहा जाता है कि इस आन्दोलन ने अंग्रेजों की नींद उड़ा दी थी और
अगर वह आन्दोलन चलता रहता तो देश को स्वाधीनता उसी के आसपास मिल गयी होती।
चौरी चौरा विद्रोह की स्मृति |
सुभाष चन्द्र कुशवाहा अपनी पुस्तक में
उन तमाम विसंगतियों और तथ्यात्मक भूलों की तरफ संकेत कराते हैं, जिनकी वजह से एक त्रुटिपूर्ण
इतिहास की नींव रखी जा रही है। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने इस विद्रोह का सही और
समुचित मूल्यांकन के न होने के लिए जिस महत्त्वपूर्ण कारक का उल्लेख किया है वह सहज
ही हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने तमाम साक्ष्यों को रखकर स्थापना
की है कि “जिस समाज ने चौरी चौरा विद्रोह का नेतृत्व किया, वह मूलतः दलित समाज ही
था।” (पृष्ठ-९१) वे लिखते हैं, “चौरी चौरा के मूल्यांकन में अस्पृश्यता ने दशकों
तक भारी भूमिका निभाई। कांग्रेस इस नतीजे पर पहुँची थी कि गोरखपुर के आसपास
स्वयंसेवकों की भर्ती के समय उनके सामजिक स्तर का ख्याल नहीं रखे जाने से वैसा
काण्ड हुआ।” (पृष्ठ-९३) चौरी चौरा के विद्रोह को गांधीजी ने गुंडों का कृत्य कहा।
सुभाष चन्द्र कुशवाहा चौरी चौरा विद्रोह के बहाने उस साजिश की तरफ भी संकेत करते
हैं जिसमें स्वतन्त्रता आन्दोलन को कुछ जमींदारों, ऊँची जाति के लोगों ने अपने
स्वार्थ के लिए उपयोग किया। किताब बहुत तर्कपूर्ण तरीके से गांधीजी के आन्दोलन और
औचित्य पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है। लेखक इस बात की तरफ अनेकशः ध्यान आकृष्ट कराता
है कि गांधीजी के विरोधी और अनुयायी भी उनके सिद्धांतों के अंतर्विरोधों को
पहचानते थे। उनका विरोध करने के बावजूद, “उनका चमत्कारी व्यक्तित्व जनता के दिलो
दिमाग पर छाया हुआ था। वह (जनता) अपने सारे आन्दोलन महात्मा गांधी के नाम और नारों
से ही करने लगी थी।, क्योंकि वह जानती थी कि इसी करिश्माई व्यक्तित्व ने देश को
आंदोलित किया है।” (पृष्ठ- ४९)
चौरी चौरा स्मारक |
चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन
नामक इस किताब में सबसे रोचक, तार्किक लाग्ने वाला और इतिहास की दृष्टि से
महत्त्वपूर्ण किन्तु उलझाऊ अध्याय वह है, जिसमें 4 फरवरी, १९२२ की घटना के कारणों
को खोजने की कवायद हुई है। उक्त तिथि को लगभग दो हजार लोगों के समूह ने थाना को
फूंक दिया था और सिपाहियों को पीटकर मार डाला था तथा उन्हें आग में फेंक दिया था।
सुभाष चन्द्र कुशवाहा बताते हैं कि इसका तात्कालिक कारण तो यह था कि सिर्फ दो दिन
पहले थानेदार गुप्तेश्वर सिंह ने भगवान अहीर नामक एक स्वयंसेवक को बुरी तरह पीटा
था, जिसके विरोध में लोग इकठ्ठा हो रहे थे। वे यह भी बताते हैं कि यह स्वतःस्फूर्त
था लेकिन इस स्वतःस्फूर्तता में वे गांधीजी के असहयोग आन्दोलन की भूमिका भी बताते
हैं। उनके दिए गए विवरण के अनुसार गांधी जी के इस असहयोग आन्दोलन वाले स्वरूप को
कतिपय स्थानीय नेताओं ने अपनी व्याख्या से संचालित किया था और लोगों को इस
स्वयंसेवक बनने के लिए डर और प्रलोभन भी दिया। स्वयंसेवक जहाँ बाजार में दारू की
दुकानों पर पिकेटिंग करने के लिए कार्ययोजना बनाते थे वहीँ लोगों को यह भी बताते
थे कि- “जब स्वराज आ जायेगा तो सभी स्वयंसेवकों को प्रति बीघा चार आना कर देना
होगा और उसे आठ आना की आमदनी होगी।” (पृष्ठ- ९९) लेखक यह भी बताते हैं कि ०४ फरवरी
को स्वयंसेवक जिस समूह के साथ चल रहे थे वह बहुत अहिंसक था और दारोगा के उकसाने
तथा लाठी चार्ज करने से उत्तेजित हुआ था। फिर यह भी कि इस आन्दोलनकारी समूह पर
गांधी जी के चमत्कारी व्यक्तित्व का प्रभाव कम था। यह सही है कि चौरी चौरा के
विद्रोहियों का समूचा अभियान महज विरोध जताने के लिए था और वे शांतिपूर्ण तरीके से
अपनी बात मनवाना चाहते थे लेकिन वहां इस तरह का घटनाक्रम हुआ कि जनता उत्तेजित हो
गयी और हिंसा पर उतारू हो आई। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने लिखा है कि इस घटना के पीछे
बरसों से सुलग रही उस चिनगारी को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए जो अंग्रेजी शासन और
जमींदारों के अत्याचार से जनता के दिलो-दिमाग में सुलग रही थी।
लेखक ने बहुत मार्मिक तरीके से बताया है
कि चौरी चौरा के विद्रोहियों को असहाय अवस्था में छोड़ दिया गया और उन्हें न तो ठिकाने
की कानूनी सहायता दी गयी और न ही उनकी रिहाई का समुचित प्रयास किया गया। यह कोशिश
भी नहीं की गयी कि इस घटना के बाद जो पुलिसिया अत्याचार बढ़ा उसपर कोई प्रतिरोध
दर्ज कराया जाए। इस घटना के बाद जिला कांग्रेस के सचिव, उपाध्यक्ष और अन्य
पदाधिकारी खिलाफत कमिटी के सदस्यों के साथ चौरी चौरा पहुँचे तो थे लेकिन लेखक के
अनुसार, “आश्चर्य का विषय तो यह है कि जांचकर्ताओं और मौलवी सुभानुल्लाह ने एक बार
भी स्वयंसेवकों से मिलने, उनका पक्ष जानने की आवश्यकता नहीं समझी। ०५ फ़रवरी को
सुभानुल्लाह डुमरी खुर्द गाँव गए थे। वहां २०-२५ मिनट तक रुके भी लेकिन उन्होंने
किसी से बात नहीं की थी।” लोग उस घटना के बाद न सिर्फ पुलिस के जुर्म से बल्कि
अवसरवादियों के हाथों प्रताड़ित हुए। जमींदारों का खौफ और बढ़ा। यह तथ्य भी इस पुस्तक
में उल्लेखित है कि इस घटना के बाद कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व विद्रोही
स्वयंसेवकों से विलग ही रहने में अपनी भलाई समझता रहा। गांधी जी ने तो स्पष्ट रूप
से माना था कि स्वयंसेवकों ने स्वराज के रास्ते में बाधा पहुंचाई है।
चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन
नामक इस किताब में असहयोग आन्दोलन के स्थगित किये जाने के औचित्य पर प्रश्न उठाया
गया है। लेखक ने साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए मान्यता दी है कि असहयोग आन्दोलन
स्थगित किये जाने का कारण दूसरा था। अंग्रेजों के साथ साथ स्वयं गांधी जी और तमाम
जमींदार भी नहीं चाहते थे कि चौरी चौरा विद्रोह की आँच पूरे देश में धधके और
अंग्रेजी हुकूमत को खतरा हो। लेखक के अनुसार “गांधीजी के असहयोग आन्दोलन से
जमींदारों का नुक्सान हो रहा था। लगान देने या न देने से हिंसा नहीं हो रही थी।
मामला उस वर्ग हित का था जिसको इस आन्दोलन से नुकसान हो रहा था और गांधी जी कतई
नहीं चाहते थे कि जमींदारों के हितों पर कुठाराघात हो। कांग्रेसियों को इस
बात का अनुमान ही न था कि असहयोग आन्दोलन
में जनता इतनी व्यग्रता से भाग लेगी कि जमींदारों को खतरा महसूस होने लगेगा।”
चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन नामक यह
पुस्तक बहुत रोचक है और कई नए तथ्यों का उद्घाटन करती है। लेखक ने बहुत प्रतिबद्धता
से इस बात को रखा है कि चौरी चौरा विद्रोह का मूल्यांकन इसलिए सही से नहीं किया
गया और यह आन्दोलन इसीलिए सबके डर का कारक बना कि इसमें मुख्य भूमिका किसानों और
दलितों की थी। फिर इतिहास को जिन स्वार्थों के तहत तैयार किया गया है वह भी
ध्यातव्य है।
स्वाधीनता आंदोलन में जनप्रतिरोध की एक झलक |
आखिर में, इसी किताब में उल्लिखित
इतिहास की न्यूनताओं को संज्ञान में रखकर यह कहना है कि देश का इतिहास फिर से लिखे
जाने की आवश्यकता है ताकि उसमें सबको पर्याप्त स्थान मिल सके और उन सबकी भूमिकाओं
का सही मूल्यांकन हो सके जिन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई
किन्तु जिनके योगदान को रेखांकित नहीं किया गया। इस पुस्तक को पढ़ते हुए हम सहज ही अनुमान
कर पाते हैं कि लेखक ने सबाल्टर्न सिद्धांतों का उपयोग करते हुए इतिहास लेखन का प्रयास
किया है। उनका एक विशेष कोण दलित और किसानों की भूमिका को रेखांकित करना है। कई बार
ऐसा करते हुए उनके शब्द अति की सीमा तक पहुँच जाते हैं और दुर्भावना झलकने लगती है।
अब जबकि चौरी चौरा की घटना शताब्दी वर्ष
में प्रवेश कर रही है, तब ऐसी कृतियों का महत्त्व बढ़
जाता है। यह कृति लोगों को उकसाएगी कि वह स्वाधीनता आन्दोलन ही नहीं, इतिहास की बहुतेरी स्थापनाओं की जांच करें और उसके न्यून पक्षों का परिहार
करते हुए सबल पक्षों को रेखांकित करें। हमें अपने देश का इतिहास नए सिरे से निर्मित
करने की महती आवश्यकता है।
पुस्तक- चौरी चौरा
विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन
लेखक- सुभाष चन्द्र
कुशवाहा
पेंगुइन बुक्स, नई दिल्ली
मूल्य- २९९rs
समीक्षक- डॉ रमाकान्त
राय
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी
राजकीय महिला
स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
इटावा, उत्तर प्रदेश 206001
9838952426, royramakantrk@gmail.com
2 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया जानकारी दी है आपने।
valuable knowledge for us. this incident was historic and everybody should know about it. thanks dr ramakant roy fir this.
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