रविवार, 21 जून 2020

कथावार्ता : ललित निबन्ध : सूर्यग्रहण और हमारे मिथक

-डॉ रमाकान्त राय 

          आज सूर्यग्रहण निश्चित है।

          वैसे तो यह एक खगोलीय घटना है लेकिन इसका मिथकीय स्वरूप बहुत दिलचस्प है। वह समुद्र मंथन और देवासुर संग्राम से सम्बद्ध है। राहु-केतु से जुड़ा हुआ। राहु सूर्य को और केतु चंद्रमा को जब तब ग्रसने के लिए उद्धत होते हैं। गाँव में तो ग्रहण को सूर्य भगवान और चन्द्र देव पर संकट की तरह माना जाता है और मैंने देखा है कि कई धर्मपरायण लोग ऐसी अवधि में एक पैर पर खड़ा होकर उग्रह होने के लिए तपस्या करते हैं, पानी के परात में उनपर आए संकट को देखा जाता है और उसके कटने तक धार्मिक कथाओं का श्रवण किया जाता है। इस अवधि में भोजन आदि ग्रहण नहीं किया जाता और कोई ऐसा खाद्य पदार्थ है तो उसमें तुलसीदल डालकर शुद्ध रखने का प्रयास किया जाता है।

          महाभारत युद्ध की एक घटना को मैं इसी सूर्यग्रहण से जोड़कर देखता हूँ। अभिमन्यु के वीरगति के बाद अर्जुन शपथ लेते हैं कि अगले दिन के सूर्यास्त से पहले वह इस हत्या के जिम्मेदार जयद्रथ को यमपुरी पहुँचा देंगे। ऐसा न कर सके तो अग्नि समाधि ले लेंगे।

          यह एक कठिन शपथ है। अत्यन्त आवेश में लिया गया। पुत्रशोक में अर्जुन ने सबके समक्ष इसे दुहराया। कौरव पक्ष के लिए यह अवसर है। आपदा में अवसर। कुटिल लोगों के लिए आपदा में अवसर इसी तरह का होता है। सहज सामान्य लोगों के लिए ऐसे में जीवन को मजबूत करने का उपाय खोजना/नये अनुसंधान करना, समय का सदुपयोग करना अवसर है तो कुटिल, खल और कामी जन के लिए इसमें अपने लिए "अवसर" है। अवसर एक लचीला शब्द है। इसका मनमाना उपयोग किया जा सकता है। स्वाति नक्षत्र में वर्षा की बूँद केले के पत्ते पर गिरकर कपूर बनती है, सीप के मुख में पड़कर मोती और साँप के पास जाकर विष! यह पात्र पर निरभर करता है कि वह अवसर को कैसे लेता है। खैर,

          कौरव पक्ष के पास यह अवसर है कि अगर जयद्रथ को बचा लिया गया तो अर्जुन स्वतः जल मरेगा। जिस काम को बड़े बड़े योद्धा बड़ी कोशिश के बाद भी नहीं कर पा रहे हैं, वह निमिष मात्र में हो जायेगा। बस रणनीति बनानी है। आपदा में अपने लिए जगह बनाना है। कौरव पक्ष ने पिछले दिन सुशर्मा को इसके लिए राजी किया था कि वह अर्जुन को प्रातः काल ही युद्ध के लिए ललकारेगा और युद्ध भूमि से इतनी दूर ले जायेगा कि सूर्यास्त तक अर्जुन कुरुक्षेत्र में चक्रव्यूह तक ही न पहुँच सके। चक्रव्यूह में ही अभिमन्यु को मारा गया है।

          फिर जयद्रथ विशेष गुण सम्पन्न योद्धा है। उसे मारना एक अलग ही कौशल की अपेक्षा रखता है। उसके पिता ने अपने बेटे के लिए विशेष आयुष कवच बनाया है। जो मारेगा, जिसके हाथ से उसका सिर धराशायी होगा, वह तत्क्षण भस्म हो जायेगा। अर्जुन की चुनौती बड़ी है। उसे इसका ध्यान भी रखना है कि विषाणु का उन्मूलन करते हुए स्वयं संक्रमित न हो जाए।

          उस दिन सभी कुरुवीर जयद्रथ की रक्षा में सन्नद्ध हो गए थे। जयद्रथ के आगे कई छोटी छोटी चुनौतियाँ भी थीं। आप एक बड़ा काम करने चलते हैं तो राह में छोटी-छोटी बाधाएँ उपस्थित हो ही जाती हैं। विद्वान कहते हैं कि उससे किनारा कर लेना ही उचित है लेकिन कूटनीति और राजनीति के विद्वान कौटिल्य/चाणक्य कुछ दूसरा ही सोचते थे। कहते हैं कि चाणक्य विवाह करने जा रहे थे। दूल्हा बने थे। जामा जोड़ा पहनकर सज धज कर जा रहे थे। राह में एक कुश की नोक उनके पैर में चुभ गयी। यह उनके लिए पीड़ादायी था। कहाँ सुख के लिए दल बल चला है, बारात सजी है और कहाँ पैरों में कांटा चुभ रहा है! चाणक्य ने माथे पर सजा मौर उतारा और कुश उन्मूलन में लग गया। कुश की जड़ें बहुत गहरी होती हैं। उसकी नोक भी बहुत तीक्ष्ण होती है। एक जमाने में कुश लाने वाले लोग प्रशिक्षित होते थे। उन्हें 'कुशल' कहा जाता था। अब तो कोई भी व्यक्ति जो अपने काम में निष्णात है, कुशल कहा जाता है और उसके 'कौशल' की चर्चा की जाती है। कुशल शब्द का खूब अर्थ विस्तार हुआ है।

          तो चाणक्य ने कुश उन्मूलन शुरू किया। जब हाथ से, उपकरणों से वह सफल न हुआ तो उसकी जड़ों में मट्ठा डालने लगा। उसने बारात स्थगित कर दी। पहले यह कर लेगा तभी बियाह करेगा। वह दूसरे ही तरीके का ब्राह्मण था। उसकी प्राथमिकतायें सुस्पष्ट थीं। तभी वह मगध के महाप्रतापी राजा महापद्मनंद का राज एक सामान्य लड़के चंद्रगुप्त की मदद से मिटा सका।

          आज के युद्ध के प्रारम्भ में ही कृष्ण ने बताया था कि आपका लक्ष्य क्या है? कृष्ण ने शुरू में सलाह दी कि आज तुमने कुछ शपथ ली है लेकिन बाद में वह अपने रथी की आज्ञा का अनुपालन करने लगे। एक सारथि का यही कर्तव्य है। उसे शल्य बनने से बचना चाहिए। शल्य कर्ण का सारथी बने तो हर बात पर उसे कहते रहते कि तुम्हें ऐसा नहीं, बल्कि वैसा करना चाहिए। कर्ण शल्य को रथ पूर्व दिशा में ले चलने को कहता तो वह बताने लगते कि उधर जाने में क्या हानि होगी। कहते हैं कि अंग्रेज राजा अपने मंत्रियों से कहते थे कि वह गलत नहीं हो सकता। अब राजा के विश्वस्त लोगों का काम है कि वह राजा के काम के औचित्य को सिद्ध करें और उसे ही न्यायसंगत बतायें। ताकत यही करती है। वह अपना इतिहास इसी तरह बनवाती है। कृष्ण ने एक बार बलराम से कहा था कि अगर कौरव युद्ध जीत जाते तो वह द्यूत क्रीड़ा और द्रोपदी के चीर हरण को भी तार्किक और विधि सम्मत सिद्ध कर देते।

          कृष्ण रथ बढ़ाते गये और अर्जुन कौरवों से युद्ध में उलझ गया। आज तो सभी योद्धा जयद्रथ की रक्षा में लग गए थे। इतने योद्धाओं के रहने पर कृष्ण जानते हैं कि जयद्रथ को मारना सम्भव नहीं! तब वह विधि को अनुकूल कर लेते हैं। अचानक सूर्यास्त हो जाता है। सब भौंचक हैं। अभी तो दिन ढलने में समय है। ऐसे कैसे सूर्यास्त हो सकता है? सभी पाण्डव आश्चर्यचकित हैं। शोकाकुल हो रहे हैं। अर्जुन को अग्निसमाधि लेनी पड़ेगी। राम अपने भाई के शक्ति बाण लगने पर फूट फूट कर रोते हैं- मेरो सब पुरुषारथ थाको! उनकी चिंता में भ्राता से विछोह के दुख के साथ-साथ अपना वचन न पूरा कर पाने का कष्ट भी है। लेकिन राम और उनकी कहानी शुद्ध लौकिक है। रामायण में चमत्कार कम हैं, न के बराबर। वह पुरुषार्थ से सम्पन्न होता है। महाभारत में पारलौकिक सत्ता का हस्तक्षेप बहुत अधिक है। चमत्कारिक ताकतें बहुत हैं।



          अर्जुन के इस गति से कौरव अत्यन्त प्रसन्न हैं। जश्न मनने लगता है। सभी वीर अर्जुन के पास आ जाते हैं। उसे याद दिलाने लगते हैं कि उसने कल प्रतिज्ञा की थी। अर्जुन भी गान्डीव रख चुका है। थक कर बैठ गया है। एक तरफ कौरव दल ने चिता सजा दी है। सब तमाशा देखने एकत्र हैं। जयद्रथ सबसे आगे खड़ा है। उसकी वजह से कौरव लगातार दूसरे दिन युद्ध में आगे हैं। आज तो एक शानदार 'अवसर' है। तभी सूर्य उदित हो जाते हैं। दिन निकल आता है। सब स्पष्ट हो जाता है। कृष्ण कहते हैं- 'अर्जुन! उठो। देखो, सूर्य आसमान में चमक रहे हैं, अभी दिन नहीं ढला है। जयद्रथ ठीक तुम्हारे सामने ही है। तुम्हारे पास प्रतिज्ञा पूरी करने का यह "अवसर" है। ध्यान रखना- शत्रु विशेष प्रकृति वाला है। इसका नाश करने के लिए विशेष पीपीई किट चाहिए।'

          क्या हुआ होगा उस समय? मैं जब इस प्रसंग के बारे में सोचता हूँ तो मुझे सूर्यग्रहण की याद आती है। उस दिन पूर्ण सूर्यग्रहण रहा होगा। कुछ घड़ी के लिए ऐसी ही खगोलीय घटना हुई होगी। पिछला सूर्यग्रहण इतना जबरदस्त था कि पक्षी अपने नीड़ की ओर चल पड़े थे। सूरजमुखी के फूलों ने अपना पट बन्द कर लिया था। एक विशेष अन्धकार हर तरफ व्याप्त हो गया था। उस काल में यह ग्रहण बहुत विकट रहा होगा। सभी योद्धा इस खगोलीय घटना के प्रति उदासीन रहे होंगे। लेकिन फिर सोचता हूँ कि क्या वाकई? उन उद्भट विद्वानों को यह पता नहीं रहा होगा? जरुर रहा होगा! तो क्या वाकई श्री कृष्ण ने अपना चक्र चलाया था? वह सूर्य के प्रकाश को आच्छादित कर सकता था?

          एकादश रुद्रावतार हनुमान के बारे में भी यह कथा है कि उन्होंने सूर्य को निगल लिया था। मुझे लगता है कि यह भी सूर्यग्रहण का ही समय रहा होगा जिसकी कल्पना कवि ने उनके पराक्रम का वर्णन करने के लिए किया है। कवि की कल्पना मानस का निर्माण करने में सक्षम है। इसीलिए कवि की भूमिका बहुत मायने रखती है। लेकिन यूनानी विचारक प्लेटो तो कवियों से बहुत चिढ़ता है। उन्हें राज्य से बाहर फेंक देने के लिए राजा को उकसाता है लेकिन भारतीय परम्परा में वह परिभू: स्वयंभू कहे गये हैं! नयी सृष्टि के रचनाकार।

          लेकिन मेरा उद्देश्य यह सब विवेचन करना नहीं। मैं तो आज के सूर्यग्रहण के मिथकीय काव्य प्रयोग पर अपनी उधेड़बुन आपके समक्ष रख रहा था। आप बताइये तो!


असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उ०प्र०

9838952426, royramakantrk@gmail.com



1 टिप्पणी:

Vidyakar Jha ने कहा…

बहुत अच्छा है

सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।। आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति  जब भगवान श्रीराम अयोध्या जी लौटे तो सबसे प्रेमपूर्वक मिल...

आपने जब देखा, तब की संख्या.