मनुष्य अपने भावों, विचारों और व्यापारों को लिये-दिये दूसरों के भावों, विचारों और व्यापारों के साथ कहीं मिलता और कहीं लड़ाता हुआ अन्त तक चला चलता है और इसी को जीना कहता है। जिस अनन्त-रूपात्मक क्षेत्र में यह व्यवसाय चलता रहता है उसका नाम है जगत्। जब तक कोई अपनी पृथक् सत्ता की भावना को ऊपर किए इस क्षेत्र से नाना रूपों और व्यापारो को अपने योग-क्षेम, हानि-लाभ, सुख-दुख आदि से सम्बद्ध करके देखता रहता है तब तक उसका हृदय एक प्रकार से बद्ध रहता है। इन रूपों और व्यापारों के सामने जब कभी वह अपनी पृथक् सत्ता की धारणा से छूटकर—अपने आपको बिल्कुल भूलकर—विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त-हृदय हो जाता है। जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं। इस साधना को हम भावयोग कहते हैं और कर्मयोग और ज्ञानयोग का समकक्ष मानते हैं।
कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-सम्बन्धों के संकुचित मंडल से
ऊपर उठाकर लोक-सामान्य भाव-भूमि पर ले जाती है जहाँ जगत् की नाना गतियों के
मार्मिक स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का सञ्चार होता है। इस भूमि पर
पहुँचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिए अपना पता नहीं रहता। वह अपनी सत्ता को
लोकसत्ता में लीन किए रहता है। उसकी अनुभूति सब की अनुभूति होती है। या हो सकती
है। इस अनुभूति-योग के अभ्यास से हमारे मनोविकारों का परिष्कार तथा शेष सृष्टि के
साथ हमारे रागात्मक सम्बन्ध की रक्षा और निर्वाह होता है। जिस प्रकार जगत्
अनेक-रूपात्मक है उसी प्रकार हमारा हृदय भी अनेक-भावात्मक है। इन अनेक भावों का
व्यायाम और परिष्कार तभी समझा जा सकता है जब कि इन सबका प्रकृत सामञ्जस्य जगत् के
मिन्न-भिन्न रूपों, व्यापारों या तथ्यों के साथ हो जाय।
इन्हीं भावो के सूत्र से मनुष्य-जाति जगत् के साथ तादात्मय का अनुभव चिरकाल से
करती चली आई है। जिन रूपों और व्यापारों से मनुष्य आदिम युगों से ही परिचित है, जिन रूपों और व्यापारों को सामने पाकर वह
नर-जीवन के आरम्भ से ही लुब्ध और क्षुब्ध होता आ रहा है, उनका हमारे भावों के साथ मूल या सीधा सम्बन्ध
है। अतः काव्य के प्रयोजन के लिए हम उन्हें मूल रूप और मूल व्यापार कह सकते हैं।
इस विशाल विश्व के प्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष और गूढ़ से गूढ़ तथ्यों को भावों के
विषय या आलम्बन बनाने के लिए इन्हीं मूल रूपों और मूल व्यापारों में परिणत करना
पड़ता है। जब तक वे इन मूल मार्मिक रूपों में नहीं लाए जाते तब तक उनपर
काव्यदृष्टि नहीं पड़ती।
वन, पर्वत, नदी, नाले, निर्झर, कछार, पटपर, चट्टान, वृक्ष, लता, झाड़ी, फुस, शाखा, पशु-पक्षी, आकाश, मेघ, नक्षत्र, समुद्र
इत्यादि ऐसे ही चिरसहचर रूप हैं। खेत, ढुर्री, हल, झापड़े, चौपाए इत्यादि भी कुछ कम पुराने नही हैं। इसी
प्रकार पानी का बहना, सूखे पत्तों का झड़ना, बिजली का चमकना, घटा का घेरना,
नदी का उमड़ना, मेह का बरसना, कुहरे का छाना, डर
से भागना, लोभ से लपकना, छीनना, झपटना, नदी या दलदल से बाँह पकड़कर निकालना, हाथ से खिलाना, आग में झोंकना, गला
काटना ऐसे व्यापारों का भी मनुष्य-जाति के भावों के साथ अत्यन्त प्राचीन साहचर्य
है। ऐसे आदिम रूपो और व्यापारो में, वंशानुगत
वासना की दीर्घ-परम्परा के प्रभाव से, भावों
के उद्बोधन की गहरी शक्ति सञ्चित है; अतः
इनके द्वारा जैसा रस-परिपाक सम्भव है वैसा कल, कारखाने, गोदाम, स्टेशन
एंजिन, हवाई जहाज ऐसी वस्तुओं तथा अनाथालय के
लिए चेक काटना, सर्वस्व-हरण के जाली दस्तावेज़ बनाना, माटर की चरखी घुमाना या एञ्जिन में कोयला झोकना
आदि व्यापारो द्वारा नहीं।
सभ्यता के आवरण और कविता
सभ्यता की वृद्धि के साथ साथ
ज्यों-ज्यों मनुष्य के व्यापार बहुरूपी और जटिल होते गए त्यों-त्यों उनके मूल रूप
बहुत कुछ आच्छन्न होते गए। भावों के आदिम और सीधे लक्ष्यों के अतिरिक्त और-और
लक्ष्यों की स्थापना होती गई, वासनाजन्य
मूल व्यापारों के सिवा बुद्धि-द्वारा निश्चित व्यापारों का विधान बढ़ता गया। इस
प्रकार बहुत से ऐसे व्यापारों से मनुष्य घिरता गया जिनके साथ उसके भावों का सीधा
लगाव नहीं। जैसे आदि में भय का लक्ष्य अपने शरीर और अपनी सन्तति ही की रक्षा तक था; पर पीछे गाय, बैल, अन्न आदि की रक्षा आवश्यक हुई, यहाँ तक कि होते-होते धन, मान, अधिकार, प्रभुत्व इत्यादि अनेक बातों की रक्षा की
चिन्ता ने घर किया और रक्षा के उपाय भी वासनाजन्य प्रवृत्ति से भिन्न प्रकार के
होने लगे इसी प्रकार क्रोध,
घृणा, लोभ आदि अन्य भावों के विषय भी अपने मूल रूपों से भिन्न रूप धारण
करने लगे। कुछ भावों के विषय तो अमूर्त तक होने लगे, जैसे कीर्ति की लालसा। ऐसे भावों को ही बौद्ध-दर्शन में ‘अरूपराग’
कहते हैं।
भावों के विषयों और उनके द्वारा प्रेरित व्यापारों में जटिलता आने पर
भी उनका सम्बन्ध मूल विषयों और मूल व्यापारों से भीतर भीतर बना है और बराबर बना
रहेगा। किसी का कुटिल भाई उसे सम्पत्ति से एकदम वञ्चित रखने के लिए वकीलों की सलाह
से एक नया दस्तावेज़ तैयार करता है। इसकी ख़बर पाकर वह क्रोध से नाच उठता है।
प्रत्यक्ष व्यावहारिक दृष्टि से तो उसके क्रोध का विषय है वह दस्तावेज़ या काग़ज़
का टुकड़ा। पर उस कागज़ के टुकड़े के भीतर वह देखता है कि उसे और उसकी सन्तति को
अन्न-वस्त्र न मिलेगा। उसके क्रोध का प्रकृत विषय न तो वह कागज़ का टुकड़ा है और न
उस पर लिखे हुए काले-काले अक्षर। ये तो सभ्यता के आवरण मात्र हैं। अतः उसके क्रोध
में और उस कुत्ते के क्रोध में जिसके सामने का भोजन कोई दूसरा कुत्ता छीन रहा है
काव्यदृष्टि से कोई भेद नहीं है—भेद है केवल विषय के थोड़ा रूप बदलकर आने का। इसी
रूप बदलने का नाम है सभ्यता। इस रूप बदलने से होता यह है कि क्रोध आदि को भी अपना
रूप कुछ बदलना पड़ता है, वह भी कुछ सभ्यता के साथ अच्छे
कपड़े-लत्ते पहनकर समाज में आता है जिससे मार-पीट, छीन-खसोट आदि भद्दे समझे जानेवाले व्यापारों का कुछ निवारण होता है।
पर यह प्रच्छन्न रूप वैसा मर्मस्पर्शी नहीं हो सकता। इसी से इससे
प्रच्छन्नता का उद्घाटन कवि-कर्म का एक मुख्य अंग है। ज्यों-ज्यों सभ्यता बढ़ती
जायगी त्यों-त्यो कवियो के लिए यह काम बढ़ता जायगा। मनुष्य के हृदय की वृत्तियों
से सीधा सम्बन्ध रखनेवाले रूपों और व्यापारों को प्रत्यक्ष करने के लिए उसे बहुत
से पदों को हटाना पड़ेगा। इससे यह स्पष्ट है कि ज्यो-ज्यों हमारी वृत्तियों पर
सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जायँगे त्यों-त्यो एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती
जायगी, दूसरी ओर कवि कर्म कठिन होता जायगा।
ऊपर जिस क्रद्ध व्यक्ति का उदाहरण दिया गया है वह यदि क्रोध से छुट्टी पाकर अपने
भाई के मन में दया का सञ्चार करना चाहेगा तो क्षोभ के साथ उससे कहेगा, “भाई! तुम यह सव इसी लिए न कर रहे हो कि तुम
पक्की हवेली में बैठकर हलवा पूरी खाओ और मैं एक झोपड़ी में बैठा सूखे चने चबाऊँ, तुम्हारे लड़के दोपहर को भी दुशाले ओढ़कर
निकलें और मेरे बच्चे रात को भी ठण्ड से काँपते रहे। यह हुआ प्रकृत रूप का
प्रत्यक्षीकरण। इसमें सभ्यता के बहुत से आवरणों को हटाकर वे मूल गोचर रूप सामने
रखे गए हैं जिनसे हमारे भावों का सीधा लगाव है और जो इस कारण भावों को उत्तेजित
करने में अधिक समर्थ हैं। कोई बात जब इस रूप में आएगी तभी उसे काव्य के उपयुक्त
रूप प्राप्त होगा। “तुमने हमें नुकसान पहुँचाने के लिए जाली दस्तावेज बनाया” इस
वाक्य में रसात्मकता नहीं। इस बात को ध्यान में रखकर ध्वनिकार ने कहा है—”नहि
कवेरितिवृत्तमात्रनिर्वाहेणात्मपदलाभः।”
देश की वर्तमान दशा के वर्णन में यदि हम केवल इस प्रकार के वाक्य
कहते जायँ कि “हम मूर्ख, बलहीन और आलसी हो गए हैं, हमारा धन विदेश चला जाता है, रुपये का डेढ़ पाव घी बिकता है, स्त्री-शिक्षा का अभाव है” तो ये छन्दोबद्ध
होकर भी काव्य पद के अधिकारी न होंगे। सारांश यह कि काव्य के लिये अनेक स्थलों पर
हमें भावों के विषयों के मूल और आदिम रूपों तक जाना होगा जो मूर्त और गोचर होंगे।
जब तक भावों से सीधा और पुराना लगाव रखनेवाले मूर्त और गोचर रूप न मिलेगे तब तक
काव्य का वास्तविक ढाँचा खड़ा न हो सकेगा। भावों के अमूर्त विषयों की तह में भी
मूर्त और गोचर रूप छिपे मिलेंगे; जैसे, यशोलिप्सा में कुछ दूर भीतर चलकर उस आनन्द के
उपभोग की प्रवृत्ति छिपी हुई पाई जायगी जो अपनी तारीफ़ कान में पड़ने से हुआ करता
है।
काव्य में अर्थग्रहण मात्र से काम नहीं चलता; बिम्बग्रहण अपेक्षित होता है। यह बिम्बग्रहण
निदिष्ट, गोचर और मूर्त विषय का ही हो सकता है।
‘रुपये का डेढ़ पाव घी मिलता है,’ इस
कथन से कल्पना में यदि कोई बिम्ब या मूर्ति उपस्थित होगी तो वह तराजू लिए हुये
बनिये की होगी जिससे हमारे करुणा भाव का कोई लगाव न होगा। बहुत कम लोगों को घी
खाने को मिलता है, अधिकतर लोग रूखी-सूखी खाकर रहते हैं, इस तथ्य तक हम अर्थग्रहण-परम्परा द्वारा इस
चक्कर के साथ पहुँचते हैं—एक रुपये का बहुत कम घी मिलता है; इससे रुपयेवाले ही घी खा सकते हैं, पर रुपयेवाले बहुत कम हैं; इससे अधिकांश जनता घी नहीं खा सकती, रूखी-सूखी खाकर रहती है।
कविता और सृष्टि-प्रसार
हृदय पर नित्य प्रभाव रखवाले रूपो और
व्यापारो को भावना के सामने लाकर कविता बाह्य प्रकृति के साथ मनुष्य की
अन्तःप्रकृति का सामञ्जस्य घटित करती हुई उसकी भावात्मक सत्ता के प्रसार का प्रयास
करती है। यदि अपने भावों को समेटकर मनुष्य अपने हृदय को शेष सृष्टि से किनारे कर
ले या स्वार्थ की पशुवृत्ति में ही लिप्त रखे तो उसकी मनुष्यता कहाँ रहेगी? यदि वह लहलहाते हुए खेतों और जंगलों, हरी घास के बीच घूम-घूमकर बहते हुए नालों, काली चट्टानों पर चाँदी की तरह ढलते हुए झरनों, मंजरियों से लदी हुई अमराइयों और पट पर के बीच
खड़ी झाड़ियों को देख क्षण भर लीन न हुआ, यदि
कलरव करते हुए पक्षियों के आनन्दोत्सव में उसने योग न दिया यदि खिले हुए फूलों को
देख वह न खिला, यदि सुन्दर रूप सामने पाकर अपनी भीतरी
कुरूपता का उसने विसर्जन न किया, यदि
दीनदुखी का आर्तनाद सुन वह न पसीजा, यदि
अनाथों और अबलाओं पर अत्याचार होते देख क्रोध से न तिलमिलाया, यदि किसी वेढव और विनोदपूर्ण दृश्य या उक्ति पर
न हँसा तो उसके जीवन में रह क्या गया? इस
विश्वकाव्य की रसधारा में जो थोड़ी देर के लिए निमग्न न हुआ उसके जीवन को मरुस्थल
की यात्री ही समझना चाहिये।
काव्यदृष्टि कहीं तो १. नरक्षेत्र के भीतर रहती है, कहीं २. मनुष्येतर बाह्य सृष्टि के और ३. कहीं
समस्त चराचर के।
१. पहले नरक्षेत्र को लेते हैं। संसार में अधिकतर कविता इसी क्षेत्र
के भीतर हुई है। नरत्व की बाह्य प्रकृति और अन्तःप्रकृति के नाना सम्बन्धों और
पारस्परिक विधानों का सङ्कलन या उद्भावना ही काव्यों में—मुक्तक हों या
प्रबन्ध—अधिकतर पाई जाती है।
प्राचीन महाकाव्यों और खण्डकाव्यों के मार्ग में यद्यपि शेष दो
क्षेत्र भी बीच-बीच में पड़ जाते हैं पर मुख्य यात्रा नरक्षेत्र के भीतर ही होती
है। वाल्मीकि-रामायण में यद्यपि बीच-बीच में ऐसे विशद वर्णन बहुत कुछ मिलते हैं
जिनमें कवि की मुग्ध दृष्टि प्रधानतः मनुष्येतर बाह्य प्रकृति के रूप जाल में फँसी
पाई जाती है, पर उसका प्रधान विषय लोकचरित्र ही है।
और प्रबन्ध-काव्यों के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है। रहे मुक्तक या
फुटकल पद्य, वे भी अधिकतर मनुष्य ही की भीतरी बाहरी
वृत्तियों से सम्बन्ध रखते हैं। साहित्य-शास्त्र की रस-निरूपण-पद्धति में आलम्बनों
के बीच बाह्य प्रकृति को स्थान ही नहीं मिला है। वह उद्दीपन मात्र मानी गई है।
शृंगार के उद्दीपन रूप में जो प्राकृतिक दृश्य लाए जाते है, उनके प्रति रतिभाव नहीं होता; नायक या नायिका के प्रति होता है। वे दूसरे के
प्रति उत्पन्न प्रीति को उद्दीप्त करनेवाले होते हैं; स्वयं प्रीति के पात्र या आलम्बन नहीं होते।
संयोग में वे सुख बढ़ाते हैं और वियोग में काटने दौड़ते हैं। जिस भावोद्रेक और जिस
ब्योरे के साथ नायक या नायिका के रूप का वर्णन किया जाता है उस भावोद्रेक और उस
ब्योरे के साथ उनकी नहीं। कहीं कहीं तो उनके नाम गिनाकर ही काम चला लिया जाता है।
मनुष्यों के रूप, व्यापार
या मनोवृत्तियों के साद्दश्य, साधर्म्य
की दृष्टि से जो प्राकृतिक वस्तु-व्यापार आदि लाए जाते हैं उनका स्थान भी गौण ही
समझना चाहिए। वे नर-सम्बन्धी भावना को ही तीव्र करने के लिए रखे जाते हैं।
२. मनुष्येतर बाह्य प्रकृति का आलम्बन के रूप में ग्रहण हमारे यहाँ
संस्कृत के प्राचीन प्रबन्ध-काव्यों के बीच-बीच में ही पाया जाता है। वहाँ प्रकृति
का ग्रहण आलम्बन के रूप में हुआ है, इसका
पता वर्णन की प्रणाली से लग जाता है। पहले कह आए हैं कि किसी वर्णन में आई हुई
वस्तुओं का मन में ग्रहण दो प्रकार का हो सकता है—बिम्बग्रहण और अर्थग्रहण। किसी
ने कहा ‘कमल’। अब इस, ‘कमल’ पद का ग्रहण कोई इस प्रकार भी कर
सकता है कि ललाई लिये हुए सफेद पङ्खड़ियों और झुके हुए नाल आदि के सहित एक फूल की
मूर्ति मन में थोड़ी देर के लिए आ जाय या कुछ देर बनी रहे; और इस प्रकार भी कर सकता है कि कोई चित्र
उपस्थित न हो; केवल पद का अर्थ मात्र समझकर काम चला
लिया जाय। काव्य के दृश्य-चित्रण में पहले प्रकार का सङ्केत-ग्रहण अपेक्षित होता
है और व्यवहार तथा शास्त्रचर्चा में दूसरे प्रकार का। बिम्बग्रहण वहीं होता है
जहाँ कवि अपने सूक्ष्म निरीक्षण द्वारा वस्तुओं के अंग-प्रत्यंग, वर्ण, आकृति
तथा उनके आस-पास की परिस्थिति का परस्पर संश्लिष्ट विवरण देता है। बिना अनुराग के
ऐसे सूक्ष्म ब्योरों पर न दृष्टि जा ही सकती है, न रम ही सकती है। अतः जहाँ ऐसा पूर्ण और संश्लिष्ट चित्रण मिले वहाँ
समझना चाहिए कि कवि ने बाह्य प्रकृति को आलम्बन के रूप में ग्रहण किया है। उदाहरण
के लिए वाल्मीकि का यह हेमन्त वर्णन लीजिए—
अवश्याय-निपातेन किञ्चित्प्रक्लिन्नशाद्वला।
वनाना शोभते भूमिर्निविष्टतरुणातपा॥
स्पृशंस्तु विपुलं शीतमुदकं द्विरदः
सुखम्।
अत्यन्ततृपितो वन्यः प्रतिसहरते करम्॥
अवश्याय-तमौनद्धा नीहार-तमसावृतः।
प्रसुप्ता इव लक्ष्यन्ते विपुष्पा
वनराजयः॥
वाष्पसंछन्नसलिला रुतविज्ञेयसारसः।
हिमार्द्रवालुकैस्तीरैः सरितो भान्ति
साम्प्रतम्॥
जरा-जर्जरितैः पद्मैः
शीर्णकेसरकर्णिकैः।
नालशेषैर्हिमध्वस्तैर्न भान्ति
कमलाकराः॥
(वन
की भूमि, जिसकी हरी हरी घास ओस गिरने से कुछ कुछ
गीली हो गई हैं, तरुण धूप के पड़ने से कैसी शोभा दे रही
है। अत्यन्त प्यासा जंगली हाथी बहुत शीतल जल के स्पर्श से अपनी सूँड़ सिकोड़ लेता
है। बिना फूल के वन-समूह कुहरे के अन्धकार में सोये से जान पड़ते हैं। नदियाँ, जिनका जल कुहरे से ढका हुआ है और जिनमें सारस
पक्षियों का पता केवल उनके शब्द से लगता है, हिम
से आर्द्र बालू के तटों से ही पहचानी जाती हैं। कमल, जिनके पत्ते जीर्ण होकर झर गए हैं, जिनकी केसर-कर्णिकाएँ टूट-फूटकर छितरा गई हैं, पाले से ध्वस्त होकर नाल मात्र खड़े हैं।
मनुष्येतर वाह्य प्रकृति का इसी रूप में ग्रहण कुमारसम्भव के आरम्भ
तथा रघुवंश के बीच-बीच में मिलता हैं। नाटक यद्यपि मनुष्य ही की भीतर बाहरी
वृत्तियों के प्रदर्शन के लिए लिखे जाते हैं और भवभूति अपने मार्मिक और तीव्र
अन्तर्वृत्ति विधान के लिए ही प्रसिद्ध हैं, पर
उनके ‘उत्तर-रामचरित’ में कहीं कहीं बाह्य प्रकृति के बहुत ही सांग और संश्लिष्ट
खण्ड चित्र पाए जाते हैं। पर मनुष्येतर बाह्य प्रकृति की जो प्रधानता मेघदूत में
मिली है वह संस्कृत के और किसी काव्य में नहीं। ‘पूर्वमेघ’ तो यहाँ से वहाँ तक
प्रकृति की ही एक मनोहर झाँकी या भारतभूमि के स्वरूप का ही मधुर ध्यान है। जो इस
स्वरूप के ध्यान में अपने को भूलकर कभी-कभी मग्न हुआ करता है वह घूम-घूमकर वक्तृता
दे या न दे, चन्दा इकट्ठा करे या न करे, देशवासियों की आमदनी का औसत निकाले या न निकाले, सच्चा देशप्रेमी है। मेघदूत न कल्पना की
क्रीड़ा है, न कला की विचित्रता। वह है प्राचीन
भारत के सबसे भावुक हृदय की अपनी प्यारी भूमि की रूप-माधुरी पर सीधी-सादी
प्रेम-दृष्टि।
अनन्त रूपों में प्रकृति हमारे सामने आती है—कहीं मधुर, सुसज्जित या सुन्दर रूपों में, कहीं रूखे बेडौल या कर्कश रूप में; कहीं भव्य, विशाल
या विचित्र रूप मे; कहीं उग्र कराल या भयङ्कर रूप में।
सच्चे कवि का हृदय उसके इन सब रूपों में लीन होता है क्योंकि उसके अनुराग का कारण
अपना खास सुख-भोग नहीं, बल्कि चिर-साहचर्य द्वारा प्रतिष्ठित
वासना है। जो केवल प्रफुल्ल-प्रसून-प्रसाद के सौरभ-सञ्चार, मकरन्द-लोलुप, मधुप-गुञ्जार,
कोकिल-कूँजित, निकुञ्ज और शीतल-सुखस्पर्श समीर इत्यादि की ही
चर्चा किया करते हैं वे विषयी या भोगलिप्सु है। इसी प्रकार जो केवल मुक्ताभास
हिमबिन्दु-मण्डित मरकताभ-शाद्वल-जाल, अत्यन्त
विशाल गिरिशिखर से गिरते हुए जलप्रपात के गम्भीर गर्त्त से उठी हुई सीकर-नीहारिका
के बीच विविधवर्ण स्फुरण की विशालता, भव्यता
और विचित्रता में ही अपने हृदय के लिये कुछ पाते हैं, वे तमाशबीन है—सच्चे भावुक या सहृदय नहीं।
प्रकृति के साधारण असाधारण सब प्रकार के रूप में रमानेवाले वर्णन हमें वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति
आदि संस्कृत के प्राचीन कवियों में मिलते हैं। पिछले खेवे के कवियों ने
मुक्तक-रचना में तो अधिकतर प्राकृतिक वस्तुओं का अलग-अलग उल्लेख मात्र उद्दीपन की
दृष्टि से किया है। प्रबन्ध रचना में जो थोड़ा-बहुत संश्लिष्ट चित्रण किया है वह
प्रकृति की विशेष रूप-विभूति को लेकर ही। अँगरेज़ी के पिछले कवियों में वड्सवर्थ
की दृष्टि सामान्य, चिर-परिचित, सीधे-सादे प्रशान्त और मधुर दृश्यों की ओर रहती
थी; पर शेली की असाधारणा, भव्य और विशाल की ओर।
साहचर्य-सम्भूत रस के प्रभाव से सामान्य सीधे-सादे चिरपरिचित दृश्यों
में कितने माधुर्य्य की अनुभूति होती है! पुराने कवि कालिदास ने वर्षा के प्रथम जल
से सिक्त तुरन्त की जोती हुई धरती तथा उसके पास बिखरी हुई भोली चितवनवाली
ग्रामवनिताओं में, साफ सुथरे ग्रामचैत्यों और कथा-कोविंद
ग्राम-वृद्धों में इसी प्रकार के माधुर्य्य का अनुभव किया था। आज भी इसका अनुभव
लोग करते है। बाल्य या कौमार अवस्था में जिस पेड़ के नीचे हम अपनी मण्डली के साथ
बैठा करते थे, चिड़चिड़ी बुढ़िया की जिस झोंपड़ी के
पास से होकर हम आते-जाते थे उसकी मधुर स्मृति हमारी भावना को बराबर लीन किया करती
है। बुड्ढी की झोपड़ी में न कोई चमक-दमक थी, न
कला-कौशल का वैचित्र्य। मिट्टी की दीवारों पर फूस का छप्पर पड़ा था; नींव के किनारे चढ़ी हुई मिट्टी पर सत्यानासी
के नीलाभ-हरित कटीले, कटावदार पौधे खड़े थे जिनके पीले फूलों
के गोल सम्पुटों के बीच लाल-लाल बिन्दियाँ झलकती थीं।
सारांश यह कि केवल
असाधारणत्व की रुचि सच्ची सहृदयता की पहचान नहीं है। शोभा और सौन्दर्य की भावना के
साथ जिनमें मनुष्य-जाति के उस समय के पुराने सहचरों की वंशपरम्परागत स्मृति वासना
के रूप में बनी हुई है जब वह प्रकृति के खुले क्षेत्र में विचरती थी, वे ही पूरे सहृदय या भावुक कहे जा सकते हैं।
वन्य और ग्रामीण दोनों प्रकार के जीवन प्राचीन है; दोनों पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, नदी-नालों और पर्वत-मैदानों के बीच व्यतीत होते
हैं, अतः प्रकृति के अधिक रूपों के साथ
सम्बन्ध रखते हैं। हम पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों के सम्बन्ध तोड़कर बड़े-बड़े
नगरों में आ बसे; पर उनके बिना रहा नहीं जाता। हम उन्हें
हर वक्त पास न रखकर एक घेरे में बन्द करते है और कभी-कभी मन बहलाने के लिए उनके
पास चले जाते हैं। हमारा साथ उनसे भी छोड़ते नहीं बनता। कबूतर हमारे घर के छज्जों
के नीचे सुख से सोते हैं,
गौरे हमारे घर के भीतर आ बैठते हैं; बिल्ली अपना हिस्सा या तो म्यावँ म्यावँ करके
माँगती है या चोरी से ले जाती है, कुत्ते
घर की रखवाली करते हैं, और वासुदेवजी कभी-कभी दीवार फोड़कर
निकल पड़ते हैं। बरसात के दिनों में जब सुर्खी चूने की कड़ाई की परवा न कर हरी हरी
घास पुरानी छत पर निकलने लगती है, तब
हमें उसके प्रेम का अनुभव होता है। वह मानों हमें ढूँढती हुई आती है और कहती है कि
“तुम हमसे क्यों दूर-दूर भागे फिरते हो?”
जो केवल अपने विलास या शरीर-सुख की सामग्री ही प्रकृति में ढूँढा
करते हैं उनमें उस रागात्मक “सत्त्व” की कमी है जो व्यक्त सत्ता मात्र के साथ एकता
की अनुभूति में लीन करके हृदय के व्यापकत्व का आभास देता है। सम्पूर्ण सत्ताएँ एक
ही परम सत्ता और सम्पूर्ण भाव एक ही परम भाव के अन्तर्भूत है। अतः बुद्धि की
क्रिया से हमारा ज्ञान जिस अद्वैत भूमि पर पहुँचता है उसी भूमि तक हमारा भावत्मक
हृदय भी इस सत्त्व-रस के प्रभाव से पहुँचता है। इस प्रकार अन्त में जाकर दोनों
पक्षों की वृत्तियों का समन्वय हो जाता है। इस समन्वय के बिना मनुष्यत्व की साधना
पूरी नहीं हो सकती हैं।
मार्मिक तथ्य
मनुष्येतर प्रकृति के बीच के
रूप-व्यापार कुछ भीतरी भावों या तथ्यों की भी व्यञ्जना करते है। पशु-पक्षियों के
सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, राग-द्वेष, तोष-क्षोभ, कृपा-क्रोध इत्यादि भावों की व्यञ्जना जो उनकी
आकृति, चेष्टा, शब्द आदि से होती है, वह
तो प्रायः बहुत प्रत्यक्ष होती है। कवियों के उन पर अपने भावों का आरोप करने की
आवश्यकता प्रायः नहीं होती। तथ्यों का आरोप या सम्भावना अलबत वे कभी-कभी किया करते
हैं। पर इस प्रकार का आरोप कभी-कभी कथन को, ‘काव्य’
के क्षेत्र से घसीटकर ‘सूक्ति’ या “सुभाषित” के क्षेत्र में डाल देता है। जैसे, ‘कौवे सवेरा होते ही क्यों चिल्लाने लगते हैं? वे समझते हैं कि सूर्य अन्धकार का नाश करता
बढ़ा आ रहा है, कहीं धोखे में हमारा भी नाश न कर दे।’
यह सूक्ति मात्र है, काव्य नहीं। जहाँ तथ्य केवल आरोपित या
सम्भावित रहते हैं वहाँ वे अलङ्कार रूप में ही रहते हैं। पर जिन तथ्यों का आभास
हमें पशु-पक्षियों के रूप,
व्यापार या परिस्थिति में ही मिलता है
वे हमारे भावों के विषय वास्तव में हो सकते हैं। मनुष्य सारी पृथ्वी छेंकता चला जा
रहा है। जंगल कट-कटकर खेत,
गाँव और नगर बनते चले जा रहे हैं।
पशु-पक्षियों का भाग छिनता चला जा रहा है। उनके सब ठिकानों पर हमारा निष्ठुर
अधिकार होता चला जा रहा है। वे कहाँ जायँ? कुछ
तो हमारी गुलामी करते हैं। कुछ हमारी बस्ती के भीतर या आसपास रहते हैं और छीन
झपटकर अपना हक ले जाते हैं। हम उनके साथ बराबर ऐसा ही व्यवहार करते हैं मानों
उन्हें जीने का कोई अधिकार ही नहीं है। इन तथ्यों का सच्चा अभास हमें उनकी
परिस्थिति से मिलता है। अतः उनमें से किसी की चेष्टाविशेष में इन तथ्यों की
मार्मिक व्यञ्जना की प्रतीति काव्यानुभूति के अन्तर्गत होगी। यदि कोई बन्दर हमारे
सामने से कोई खाने-पीने की चीज़ उठा ले जाय और किसी पेड़ के ऊपर बैठा-बैठा हमें
घुड़की दे, तो काव्यदृष्टि से हमें ऐसा मालूम हो
सकता है कि—
देते है घुड़की यह अर्थ-ओज-भरी हरि
“जीने का हमारा
अधिकार क्या न गया रह?
पर-प्रतिषेध के प्रसार बीच तेरे, नर!
क्रीड़ामय जीवन-उपाय है हमारा यह।
दानी जो हमारे रहे वे भी दास तेरे हुए;
उनकी उदारता भी सकता नही तू सह।
फूली फली उनकी उमङ्ग उपकार की तू
छेकता है जाता हम जायँ कहाँ, तूही कह!”
पेड़-पौधे लता-गुल्म आदि भी इसी प्रकार कुछ भावों या तथ्यों की
व्यञ्जना करते हैं जो कभी-कभी कुछ गूढ़ होती है। सामान्य दृष्टि भी वर्षा की झड़ी
के पीछे उनके हर्ष और उल्लास को; ग्रीष्म
के प्रचण्ड आतप में उनकी शिथिलता और म्लानता को; शिशिर के कठोर शासन में उनकी दीनता को; मधुकाल में उनके रसोन्माद, उमंग
और ह्रास को; प्रबल बात के झकोरों में उनकी विकलता
को; प्रकाश के प्रति उनकी ललक को देख सकती
है। इसी प्रकार भावुकों के समक्ष वे अपनी रूप चेष्टा आदि द्वारा कुछ मार्मिक
तथ्यों की भी व्यञ्जना करते हैं। हमारे यहाँ के पुराने अन्त्योक्तिकारों ने
कहीं-कहीं इस व्यञ्जना की ओर ध्यान दिया है। कहीं-कहीं का मतलब यह है कि बहुत जगह
उन्होंने अपनी भावना का आरोप किया है, उनकी
रूपचेष्टा या परिस्थिति से तथ्य-चयन नहीं। पर उनकी विशेष-विशेष परिस्थितियों की ओर
भावुकता से ध्यान देने पर बहुत से मार्मिक
तथ्य सामने आते हैं। कोसों तक फैलें कड़ी धूप में तपते मैदान के बीच
एक अकेला वट वृक्ष दूर तक छाया फैलाए खड़ा है। हवा के झोंकों से उसकी टहनियाँ और
पत्ते हिलहिलकर मानो बुला रहे हैं। हम धूप से व्याकुल होकर उसकी ओर बढ़ते हैं।
देखते हैं उसकी जड़ के पास एक गाय बैठी आँख मूँदे जुगाली कर रही है। हम लोग भी उसी
के पास आराम से जा बैठते हैं। इतने में एक कुत्ता जीभ बाहर निकाले हाँफता हुआ उस
छाया के नीचे आता है और हममें से कोई उठकर उसे छड़ी लेकर भगाने लगता हैं। इस
परिस्थिति को देख हममें से कोई भावुक पुरुष उस पेड़ को इस प्रकार सम्बोधन करें तो
कर सकता है—
काया की न छाया यह केवल तुम्हारी, द्रुम!
अंतस् के मर्म का प्रकाश यह छाया है।
भरी है इसी में वह स्वर्ग स्वप्न-धारा
अभी
जिसमें न पूरा-पूरा नर बह पाया है।
शातिसार शीतल प्रसार यह छाया धन्य!
प्रीति सा पसारे इसे कैसी हरी काया है।
हे नर! तू प्यारा इस तरु का स्वरूप देख,
देख फिर घोर रूप तूने जो कमाया है॥
ऊपर नरक्षेत्र और मनुष्येतर सजीव सृष्टि के क्षेत्र का उल्लेख हुआ
है। काव्यदृष्टि कभी तो इन पर अलग-अलग रहती है और कभी समष्टि रूप में समस्त
जीवन-क्षेत्र पर। कहने की आवश्यकता नहीं कि विच्छिन्न दृष्टि की अपेक्षा
समष्टि-दृष्टि में अधिक व्यापकता और गम्भीरता रहती है। काव्य का अनुशीलन करनेवाले
मात्र जानते हैं कि काव्यदृष्टि सजीव सृष्टि तक ही बद्ध नहीं रहती। वह प्रकृति के
उस भाग की ओर भी जाती है जो निर्जीव या जड़ कहलाती है। भूमि, पर्वत, चट्टान, नदी, नाले, टीले, मैदान, समुद्र, आकाश, मेघ, नक्षत्र
इत्यादि की रूप-गति आदि से भी हम सौन्दर्य, माधुर्य, भीषणता, भव्यता, विचित्रता, उदासी, उदारता, सम्पन्नता, इत्यादि की भावना प्राप्त करते हैं। कड़कड़ाती
धूप के पीछे उमड़ती हुई घटा की श्यामल स्निग्धता और शीतलता का अनुभव मनुष्य क्या
पशु-पक्षी, पेड़-पौधे तक करते हैं। अपने इधर-उधर
हरी-भरी लहलहाती प्रफुलता का विधान करती हुई नदी की अविराम जीवन-धारा में हम
द्रवीभूत औदार्य का दर्शन करते हैं। पवन की ऊँची चोटियों में विशालता और भव्यता का, वात-विलोड़ित जलप्रसार में क्षोभ और आकुलता का; विकीर्ण-घन-खण्ड-मण्डित, रश्मि-रञ्जित सांध्य-दिगञ्चल में चमत्कारपूर्ण
सौन्दर्य का; ताप से तिलमिलाती धरा पर धूल झोंकते
हुए अंधड़ के प्रचण्ड झोंकों में उग्रता और उच्छङ्खलता का; बिजली की कँपानेवाली कड़क और ज्वालामुखी के
ज्वलन्त स्फोट में भीषणता का अभास मिलता है। ये सब विश्वरूपी महाकाव्य की भावनाएँ
या कल्पनाएँ हैं। स्वार्थभूमि से परे पहुँचे हुए सच्चे अनुभूति-योगी या कवि इनके
द्रष्टा मात्र होते हैं।
जड़ जगत् के भीतर पाये जानेवाले रूप, व्यापार या परिस्थितियाँ अनेक मार्मिक तथ्यों की भी व्यञ्जना करती
है। जीवन में तथ्यों के साथ उनके साम्य का बहुत अच्छा मार्मिक उद्घाटन कहीं कहीं
हमारे यहाँ के अन्योक्तिकारों ने किया है। जैसे, इधर नरक्षेत्र के बीच देखते हैं तो सुख-समृद्धि और सम्पन्नता की दशा
में दिन-रात घेरे रहनेवाले,
स्तुति का खासा कोलाहल खड़ा करनेवाले, विपत्ति और दुर्दिन में पास नहीं फटकते; उधर जड़ जगत् के भीतर देखते हैं तो भरे हुए
सरोवर के किनारे जो पक्षी बराबर कलरव करते रहते हैं वे उसके सूखने पर अपना-अपना
रास्ता लेते है—
कोलाहल सुनि खगन के, सरवर!
जनि अनुरागि।
ये सब स्वारथ के सखा, दुर्दिन दैहैं त्यागि॥
दुर्दिन दैहैं त्यागि, तोय तेरो जब जैहै।
दूरहि ते तजि आस, पास कोऊ नहि ऐहै॥
इसी प्रकार सूक्ष्म और मार्मिक दृष्टिवालों को और गूढ़ व्यञ्जना भी
मिल सकती है। अपने इधर-उधर हरियाली और प्रफुल्लता को विधान करने के लिये यह आवश्यक
है कि नदी कुछ काल तक एक बँधी हुई मर्यादा के भीतर बहती रहे। वर्षा की उमड़ी हुई
उच्छङ्खलता में पोषित हरियाली और प्रफुल्लता का ध्वंस सामने आता है। पर यह
उच्छृङ्खलता और ध्वंस अल्प-कालिक होता है और इसके द्वारा आगे के लिए पोषण की नई
शक्ति का सञ्चय होता है। उच्छृङ्खलता नदी की स्थायी वृत्ति नहीं है। नदी के इस
स्वरूप के भीतर सूक्ष्म मार्मिक दृष्टि लोकगति के स्वरूप का साक्षात्कार करती है।
लोकजीवन की धारा जब एक बँधे मार्ग पर कुछ काल तक अबाध गति से चलने पाती है तभी
सभ्यता के किसी रूप का पूर्ण विकास और उसके भीतर सुख-शान्ति की प्रतिष्ठा होती है।
जब जीवन-प्रवाह क्षीण और अशक्त पड़ने लगता है और गहरी विपसता आने लगती है तब नई
शक्ति का प्रवाह फूट पड़ता है जिसके वेग की उच्छृङ्खलता के सामने बहुत कुछ ध्वंस
भी होता है। पर यह उच्छृङ्खल वेग जीवन का या जगत् का नित्य स्वरूप नहीं है।
(३)
पहले कहा जा चुका है कि नरक्षेत्र के भीतर वद्ध रहनेवाली काव्यदृष्टि की अपेक्षा
सम्पूर्ण जीवन-क्षेत्र और समस्त चराचर के क्षेत्र से मार्मिक तथ्यों का चयन
करनेवाली दृष्टि उत्तरोत्तर अधिक व्यापक और गम्भीर कही जायगी। जब कभी हमारी भावना
का प्रसार इतना विस्तीर्ण और व्यापक होता है कि हम अनन्त व्यक्त सत्ता के भीतर
नरसत्ता के स्थान का अनुभव करते हैं तब हमारी पार्थक्य-बुद्धि का परिहार हो जाता
है। उस समय हमारा हृदय ऐसी उच्च भूमि पर पहुँचता रहता है जहाँ उसकी वृत्ति प्रशांत
और गम्भीर हो जाती है, उसकी अनुभूति का विषय ही कुछ बदल जाता
है।
तथ्य चाहे नरक्षेत्र के ही हों, चाहे
अधिक व्यापक क्षेत्र के हों, कुछ
प्रत्यक्ष होते हैं और गूढ़। जो तथ्य हमारे किसी भाव को उत्पन्न करे उसे उस भाव का
आलम्बन कहना चाहिये। ऐसे रसात्मक तथ्य आरम्भ में ज्ञानेन्द्रियाँ उपस्थित करती
हैं। फिर ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त सामग्री से भावना या कल्पना उनकी योजना
करती है। अतः यह कहा जा सकता है कि ज्ञान ही भावों के सञ्चार के लिए मार्ग खोलता
है ज्ञान-प्रसार के भीतर ही भाव-प्रसार होता है। आरम्भ में मनुष्य की चेतन सत्ता
अधिकतर इन्द्रियज ज्ञान की समष्टि के रूप में ही रही। फिर ज्यों-ज्यों अन्तःकरण का
विकास होता गया और सभ्यता बढ़ती गई त्यों-त्यों मनुष्य का ज्ञान
बुद्धि-व्यवसायात्मक होता गया। अब मनुष्य का ज्ञानक्षेत्र बुद्धि-व्यवसायात्मक या
विचारात्मक होकर बहुत ही विस्तृत हो गया है। अतः उसके विस्तार के साथ हमें अपने
हृदय का विस्तार भी बढ़ाना पड़ेगा। विचारों की क्रिया से, वैज्ञानिक विवेचन और अनुसन्धान द्वारा उद्घाटित
परिस्थितियों और तथ्यों के मर्मस्पर्शी पक्ष का मूर्त और सजीव चित्रण भी—उसका इस
रूप में प्रत्यक्षीकरण भी कि वह हमारे किसी भाव का आलम्बन हो सके—कवियों का काम और
उच्च काव्य एक लक्षण होगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन तथ्यों और परिस्थितियों के
मार्मिक रूप न जाने कितनी बातों की तह में छिपे होगे।
काव्य और व्यवहार
भावों या मनोविकारों के विवेचन में हम कह चुके हैं कि मनुष्य को कर्म
में प्रवृत्त करनेवाली मूल वृत्ति भावात्मिका है। केवल तर्कबुद्धि या विवेचना के
बल से हम किसी कार्य्य में प्रवृत्त नहीं होते। जहाँ जटिल बुद्धि व्यापार के
अनन्तर किसी कर्म का अनुष्ठान देखा जाता है वहाँ भी तह में कोई भाव या वासना छिपी
रहती है। चाणक्य जिस समय अपनी नीति की सफलता के लिए किसी निष्ठुर व्यापार में
प्रवृत्त दिखाई पड़ता है उस समय वह दया, करुणा
आदि सब मनोविकारों या भावो से परे दिखाई पड़ता है। पर थोडा अन्तर्दृष्टि गड़ाकर
देखने से कौटिल्य को नचानेवाली डोर का छोर भी अन्तःकरण के रागात्मक खण्ड की ओर
मिलेगा। प्रतिज्ञा-पूर्ति की आनन्द-भावना और नन्दवंश के प्रति क्रोध या वैर की
वासना बारी-बारी से उस डोर को हिलाती हुई मिलेंगी। अर्वाचीन राष्ट्रनीति के
गुरु-घण्टाल जिस समय अपनी किसी गहरी चाल से किसी देश की निरपराध जनता का सर्वनाश
करते हैं उस समय वे दया आदि दुर्बलताओं से निर्लिप्त, केवल बुद्धि के कठपुतले दिखाई पड़ते हैं। पर
उनके भीतर यदि छानबीन की जाय तो कभी अपने देशवासियों के सुख की उत्कण्ठा, कभी अन्य जाति के प्रति घोर विद्वेष, कभी अपनी जातीय श्रेष्ठता का नया या पुराना
घमण्ड, इशारे करता हुआ मिलेगा।
बात यह है कि केवल इस बात को जानकर ही हम किसी काम को करने या न करने
के लिए तैयार नहीं होते कि वह काम अच्छा है या बुरा, लाभदायक है या हानिकारक। जब उसकी या इसके परिणाम की कोई ऐसी बात
हमारी भावना में आती है जो आह्लाद, क्रोध, करुणा, भय, उत्कण्ठा आदि का सञ्चार कर देती है तभी हम उस
काम को करने या न करने के लिये उद्यत होते हैं। शुद्ध ज्ञान या विवेक में कर्म की
उत्तेजना नहीं होती। कर्म-प्रवृत्ति के लिए मन में कुछ वेग का आना आवश्यक हैं। यदि
किसी जनसमुदाय के बीच कहा जाय कि अमुक देश तुम्हारा इतना रुपया प्रतिवर्ष उठा ले
जाता है तो सम्भव है कि उस पर कुछ प्रभाव न पड़े। पर यदि दारिद्रय और अकाल का भीषण
और करुण दृश्य दिखाया जाय,
पेट की ज्वाला से जले हुए कङ्काल
कल्पना के सम्मुख रखे जायँ और भूख से तड़पते हुए बालक के पास बैठी हुई माता का
आर्त क्रन्दन सुनाया जाय तो बहुत से लोग क्रोध और करुणा से व्याकुल हो उठेंगे और
इस दशा को दूर करने का यदि उपाय नहीं तो सङ्कल्प अवश्य करेंगे। पहले ढंग की बात
कहना राजनीतिज्ञ या अर्थशास्त्री का काम है और पिछले प्रकार का दृश्य भावना में
लाना कवि का। अतः यह सधारणा कि काव्य व्यवहार का बाधक है, उसके अनुशीलन से अकर्मण्यता आती है, ठीक नहीं। कविता तो भावप्रसार द्वारा कर्मण्य
के लिए कर्मक्षेत्र का और विस्तार कर देती है।
उक्त धारणा का आधार यदि कुछ हो सकता है तो यही कि जो भावुक या सहृदय
होते हैं, अथवा काव्य के अनुशीलन से जिनके
भावप्रसार का क्षेत्र विस्तृत हो जाता है, उनकी
वृत्तियाँ उतनी स्वार्थबद्ध नहीं रह सकतीं। कभी-कभी वे दूसरों का जी दुखने के डर
से; आत्मगौरव, कुलगौरव या जातिगौरव के ध्यान से, अथवा जीवन के किसी पक्ष की उत्कर्ण-भावना में
मौन होकर अपने लाभ के कर्म में अतत्पर या उससे विरत देखे जाते हैं। अतः अथोगम से
हृष्ट, ‘स्वकार्य साधयेत्’ के अनुयायी काशी के
ज्योतिषी और कर्मकाण्डी, कानपुर के बनिये और दलाल, कचहरियों के अमले और मुख्तार, ऐसो का कार्य-भ्रंशकारी मूर्ख, निरे निठल्ले या खब्त-उल-हवास समझ सकते हैं।
जिनकी भावना किसी बात के मार्मिक पक्ष का, चित्रानुभव
करने में तत्पर रहती है, जिनके भाव चराचर, के बीच किसी के भी आलम्बनोपयुक्त रूप या दशा
में पाते ही उसकी ओर दौड़ पड़ते हैं; वे
सदा अपने लाभ के ध्यान से या स्वार्थबुद्धि द्वारा ही परिचालित नहीं होते। उनकी
यही विशेषता अर्थपरायणों को—अपने काम से काम रखनेवालों को—एक त्रुटि-सी जान पड़ती
है! कवि और भावुक हाथ-पैर न हिलाते हों, यह
बात नहीं है। पर अथियों के निकट उनकी बहुत-सी क्रियाओं का कोई अर्थ नहीं होता।
मनुष्यता की उच्च भूमि
मनुष्य की चेष्टाओं और कर्मकलाप से भावों का मूल सम्बन्ध निरूपित हो
चुका है और यह भी दिखाया जा चुका है कि कविता इन भावों या मनेाविकारों के क्षेत्र
को विस्तृत करती हुई उनका प्रसार करती है। पशुत्व से मनुष्यत्व में जिस प्रकार
अधिक ज्ञान-प्रसार की विशेषता है उसी प्रकार अधिक भाव-प्रसार की भी। पशुओं के
प्रेम की पहुँच प्रायः अपने जोड़े, बच्चों
या खिलाने-पिलानेवालों तक ही होती है। इसी प्रकार उनका क्रोध भी अपने सतानेवालों
तक ही जाता है, स्ववर्ग या पशुमात्र को सतानेवालों तक
नहीं पहुँचता। पर मनुष्य में ज्ञान-प्रसार के साथ-साथ भाव-प्रसार भी क्रमशः बढ़ता
गया है। अपने परिजनों, अपने सम्बन्धियों, अपने पड़ोसियों; अपने देशवासियों क्या मनुष्यमात्र और प्राणिमात्र तक से प्रेम करने
भर को जगह उसके हृदय में बन गई है। मनुष्य की त्योरी मनुष्य को ही सतानेवाले पर
नहीं चढ़ती, गाय, बैल और कुत्ते-बिल्ली को सतानेवाले पर भी चढ़ती है। पशु की वेदना
देखकर भी उसके नेत्र सजल होते हैं। बन्दर को शायद बँदरिया के मुँह में ही सौन्दर्य
दिखाई पड़ता होगा पर मनुष्य पशु-पक्षी, फूल-पत्ते
और रेत-पत्थर में भी सौन्दर्य पाकर मुग्ध होता है। इस हृदय-प्रसार का स्मारक
स्तम्भ काव्य है जिसकी उत्तेजना से हमारे जीवन में एक नया जीवन आ जाता है। हम
सृष्टि के सौन्दर्य को देखकर रसमग्न होने लगते हैं, कोई निष्ठुर कार्य हमें असह्य होने लगता है, हमें जान पड़ता है कि हमारा जीवन कई गुना बढ़कर
सारे संसार में व्याप्त हो गया है।
कवि-वाणी के प्रसाद से हम संसार के सुख-दुख, आनन्द क्लेश आदि का शुद्धस्वार्थमुक्त रूप में
अनुभव करते हैं। इस प्रकार के अनुभव के अभ्यास से हृदय का बन्धन खुलता है और
मनुष्यता की उच्च भूमि की प्राप्ति होती है। किसी अर्थ पिशाच कृपण को देखिए, जिसने केवल अर्थलोभ के वशीभूत होकर क्रोध, दया, श्रद्धा, भक्ति, आत्माभिमान, आदि भावों को एकदम दबा दिया है और संसार के
मार्मिक पक्ष से मुँह मोड़ लिया है। न सृष्टि के किसी रूपमाधुर्य को देख वह पैसों
का हिसाब-किताब भूल कभी मुग्ध होता है, न
किसी दीन दुखिया को देख कभी करुणा से द्रवीभूत होता है; न कोई अपमानसूचक बात सुनकर क्रुद्ध या क्षुब्ध
होता है। यदि उससे किसी लोमहर्षण अत्याचार की बात कही जाय तो वह मनुष्य धर्मानुसार
क्रोध या घृणा प्रकट करने के स्थान पर रुखाई के साथ कहेगा कि “जाने दो, हमसे क्या मतलब; चलो, अपना काम देखें।” यह महा भयानक मानसिक
रोग है। इससे मनुष्य आधा मर जाता है। इसी प्रकार किसी महाक्रूर पुलिस कर्मचारी को
जाकर देखिए; जिसका हृदय पत्थर के समान जड़ और कठोर
हो गया है, जिसे दूसरे के दुःख और क्लेश की भावना
स्वप्न में भी नहीं होती। ऐसो को सामने पाकर स्वभावतः यह मन में आता है कि क्या
इनकी भी कोई दवा है। इनकी दवा कविता है।
कविता ही हृदय को प्रकृति दशा में लाती है और जगत् के बीच क्रमशः
उसका अधिकाधिक प्रसार करती हुई उसे मनुष्यत्व की उच्च भूमि पर ले जाती है। भावयोग
की सबसे उच्च कक्षा पर पहुँचे हुए मनुष्य का जगत् के साथ पूर्ण तादात्म्य हो जाता
है, उसकी अलग भावसत्ता नहीं रह जाती, उसका हृदय विश्वहृदय हो जाता है। उसकी अश्रु
धारा में जगत् की अश्रु धारा का, उसके
हास-विलास में जगत् के आनन्द-नृत्य का, उसके
गर्जन-तर्जन में जगत् के गर्जन-तर्जन का आभास मिलता है।
भावना या कल्पना
इस निबन्ध के आरम्भ में ही हम काव्यानुशीलन को भावयोग कह आए हैं और
उसे कर्मयोग और ज्ञानयोग के समकक्ष बता आए है। यहाँ पर अब यह कहने की आवश्यकता
प्रतीत होती है कि ‘उपासना’ भावयोग का ही एक अंग है। पुराने धार्मिक लोग उपासना का
अर्थ ‘ध्यान’ ही लिया करते हैं। जो वस्तु हमसे अलग है, हमसे दूर प्रतीत होती है, उसकी मूर्ति मन में लाकर उसके सामीप्य का अनुभव
करना ही उपासना है। साहित्यवाले इसी को ‘भावना’ कहते हैं और आजकल के लोग ‘कल्पना’।
जिस प्रकार भक्ति के लिए उपासना या ध्यान की आवश्यकता होती है उसी प्रकार और भावों
के प्रवर्त्तन के लिए भी भावना या कल्पना अपेक्षित होती है। जिनकी भावना या कल्पना
शिथिल या अशक्त होती है, किसी कविता या सरस उक्ति को पढ़-सुनकर
उनके हृदय में मार्मिकता होते हुए भी वैसी अनभूति नहीं होती। बात यह है कि उनके
अन्तःकरण में चटपट वह सजीव और स्पष्ट मूर्तिविधान नहीं होता जो भावों को परिचालित
कर देता है। कुछ कवि किसी बात के सारे मार्मिक अंगों का पूरे ब्योरे के साथ चित्रण
कर देते हैं, पाठक या श्रोता की कल्पना के लिए बहुत
कम काम छोड़ते हैं और कुछ कवि कुछ मार्मिक खण्ड रखते हैं जिन्हें पाठक की तत्पर
कल्पना आपसे आप पूर्ण करती है।
कल्पना दो प्रकार की होती है—विधायक और ग्राहक। कवि में विधायक
कल्पना अपेक्षित होती है और श्रोता या पाठक में अधिकतर ग्राहक। अधिकतर कहने का
अभिप्राय यह है कि जहाँ कवि पूरा चित्रण नहीं करता वहाँ पाठक या श्रोता को भी अपनी
ओर से कुछ मूर्ति-विधान करना पड़ता है। योरपीय साहित्य-मीमांसा में कल्पना को बहुत
प्रधानता दी गई है। है भी यह काव्य का अनिवार्य साधन, पर है साधन ही, साध्य नहीं,
जैसा कि उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है।
किसी प्रसंग के अन्तर्गत कैसा ही विचित्र मूर्ति-विधान हो पर यदि उसमें उपयुक्त
भावसञ्चार की क्षमता नहीं है तो वह काव्य के अन्त त न होगा।
मनोरञ्जन
प्रायः सुनने में आता है कि कविता का उद्देश्य मनोरञ्जन है। पर जैसा
कि हम पहले कह आए हैं कविता का अन्तिम लक्ष्य जगत् के मार्मिक पक्षों का
प्रत्यक्षीकरण करके उनके साथ मनुष्य-हृदय का सामञ्जस्य-स्थापन है। इतने गम्भीर
उद्देश्य के स्थान पर केवल मनोरञ्जन का हलका उद्देश्य सामने रखकर जो कविता का
पठन-पाठन या विचार करते है वे रास्ते ही में रह जानेवाले पथिक के समान हैं। कविता
पढ़ते समय मनोरञ्जन अवश्य होता है, पर
उसके उपरान्त कुछ और भी होता है और वही और सब कुछ है। मनोरञ्जन वह शक्ति है जिससे
कविता अपना प्रभाव जमाने के लिए मनुष्य की चित्रवृत्ति को स्थित किए रहती है, उसे इधर-उधर जाने नहीं देती। अच्छी से अच्छी
बात को भी कभी-कभी लोग केवल कान से सुन भर लेते है, उनकी ओर उनका मनोयोग नही होता। केवल यही कहकर कि ‘परोपकार करो’, ‘दूसरों पर दया करो’, ‘चोरी करना महापाप है’, हमें यह आशा कदापि न करनी चाहिए कि कोई अपकारी
उपकारी, कोई क्रूर दयावान् या कोई चोर साधु हो
जायगा। क्योकि ऐसे वाक्यों के अर्थ की पहुँच हृदय तक होती ही नहीं, वह ऊपर ही ऊपर रह जाता है। ऐसे वाक्यों द्वारा
सूचित व्यापारों का मानव-जीवन के बीच कोई मार्मिक चित्र सामने न पाकर हृदय उनकी
अनुभूति की ओर प्रवृत्त ही नहीं होता।
पर कविता अपनी मनोरञ्जन-शक्ति द्वारा पढ़ने या सुननेवाले का चित्त
रमाए रहती है, जीवन-पट पर उक्त कर्मों की सुन्दरता या
विरूपता अङ्कित करके हृदय के मर्मस्थलों का स्पर्श करती है। मनुष्य के कुछ कर्मों
में जिस प्रकार दिव्य सौन्दर्य और माधुर्य होता है उसी प्रकार कुछ कर्मों में भीषण
कुरूपता और भद्दापन होता है। इसी सौन्दर्य या कुरूपता का प्रभाव मनुष्य के हृदय पर
पड़ता है और इस सौन्दर्य या कुरूपता का सम्यक् प्रत्यक्षीकरण कविता ही कर सकती है।
कविता की इसी रमानेवाली शक्ति को देख कर जगन्नाथ पंडितराज ने रमणीयता
का पल्ला पकड़ा और उसे काव्य का साध्य स्थिर किया तथा योरपीय समीक्षकों ने ‘आनन्द’
को काव्य का चरम लक्ष्य ठहराया। इस प्रकार मार्ग को ही अन्तिम गन्तव्य स्थल मान
लेने के कारण बड़ा गड़बड़झाला हुआ। मनोरञ्जन या आनन्द तो बहुत सी बातों में हुआ
करता है। किस्सा-कहानी सुनने में भी तो पूरा मनोरञ्जन होता है, लोग रात-रात भर सुनते रह जाते हैं। पर क्या
कहानी सुनना और कविता सुनना एक ही बात है? हम
रसात्मक कथाओं या आख्यानों की बात नहीं कहते हैं; केवल घटना वैचित्र्य-पूर्ण कहानियों की बात कहते हैं। कविता और कहानी
का अन्तर स्पष्ट है। कविता सुननेवाला किसी भाव में मग्न रहता है और कभी-कभी
बार-बार एक ही पद्य सुनना चाहता है। पर कहानी सुननेवाला आगे की घटना के लिए आकुल
रहता है। कविता सुननेवाला कहता है, “ज़रा
फिर तो कहिए।” कहानी सुननेवाला कहता है, “हाँ!
तब क्या हुआ?”
मन को अनुरञ्जित करना, उसे
सुख या आनन्द पहुँचाना, ही यदि कविता का अन्तिम लक्ष्य माना
जाय तो कविता भी केवल विलास की एक सामग्री हुई। परन्तु क्या कोई कह सकता है कि
वाल्मीकि ऐसे मुनि और तुलसीदास ऐसे भक्त ने केवल इतना ही समझकर श्रम किया कि लोगों
को समय काटने का एक अच्छा सहारा मिल जायगा? क्या
इससे गम्भीर कोई उद्देश्य उनका न था? खेद
के साथ कहना पड़ता है कि बहुत दिनों से बहुत से लोग कविता को विलास की सामग्री
समझते आ रहे हैं। हिन्दी के रीति-काल के कवि तो मानो राजाओं-महाराजाओं की
काम-वासना उत्तेजित करने के लिए ही रखे जाते थे। एक प्रकार के कविराज तो रईसों के
मुँह में मकरध्वज रस झोकते थे, दूसरे
प्रकार के कविराज कान में मकरध्वज रस की पिचकारी देते थे। पीछे से तो ग्रीष्मोपचार
आदि के नुसख़े भी कवि लोग तैयार करने लगे। गर्मी के मौसम के लिए एक कविजी व्यवस्था
करते हैं—
सीतल गुलाब-जल भरि चहबच्चन में,
डारि कै कमलदल न्हायवे को धँसिए।
कालिदास अंग अंग अगर अतर सङ्ग,
केसर उसीर नीर धनसार घँसिए॥
जेठ में गोविंद लाल चन्दन के चहलन,
भरि भरि गोकुल के महलन बसिए।
इसी प्रकार शिशिर के मसाले सुनिए—
गुलगुली गिलमै, गलीचा
है, गुनीजन हैं,
चिक हैं, चिराकैं हैं,
चिरागन की माला हैं।
कहै पदमाकर है गजक गजा हू सजी,
सज्जा है, सुरा है, सुराही
हैं, सुप्याला हैं॥
शिशिर के पाला को न व्यापत कसाला
तिन्है
जिनके अधीन एते उदित मसाला हैं॥
सौन्दर्य
सौन्दर्य बाहर की कोई वस्तु नहीं है, मन के भीतर की वस्तु है। योरपीय कला-समीक्षा की यह एक बड़ी ऊँची
उड़ान या बड़ी दूर की कौड़ी समझी गई है। पर वास्तव में यह भाषा के गड़बड़झाले के
सिवा और कुछ नहीं है। जैसे वीरकर्म से पृथक् वीरत्व कोई पदार्थ नहीं, वैसे ही सुन्दर वस्तु से पृथक् सौन्दर्य कोई
पदार्थ नहीं। कुछ रूप-रंग की वस्तुएँ ऐसी होती है जो हमारे मन में आते ही थोड़ी
देर के लिए हमारी सत्ता पर ऐसा अधिकार कर लेती हैं कि उसका ज्ञान ही हवा हो जाता
है और हम उन वस्तुओं की भावना के रूप में ही परिणत हो जाते हैं। हमारी अन्तस्सत्ता
की यहीं तदाकार-परिणति सौन्दर्य की अनुभूति है। इसके विपरीत कुछ रूप-रंग की
वस्तुएँ ऐसी होती हैं जिनकी प्रतीति या जिनकी भावना हमारे मन में कुछ देर टिकने ही
नहीं पाती और एक मानसिक आपत्ति सी जान पड़ती है। जिस वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान या
भावना से तदाकार-परिणति जितनी ही अधिक होगी उतनी ही वह वस्तु हमारे लिए सुन्दर कही
जायगी। इस विवेचन से स्पष्ट है कि भीतर बाहर का भेद व्यर्थं है। जो भीतर है वही
बाहर है।
यही बाहर हँसता-खेलता, रोता-गाता, खिलता-मुरझाता जगत् भीतर भी है जिसे हम मन कहते
हैं। जिस प्रकार यह जगत् रूपमय और गतिमय है उसी प्रकार मन भी। मन भी रूप-गति का
सङ्घात ही है। रूप मन और इन्द्रियों द्वारा सङ्घटित है या मन और इन्द्रियाँ रूपों
द्वारा इससे यहाँ प्रयोजन नहीं। हमें तो केवल यही कहना है कि हमें अपने मन का और
अपनी सत्ता का बोध रूपात्मक ही होता है।
किसी वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान या भावना से हमारी अपनी सत्ता के बोध
का जितना ही अधिक तिरोभाव और हमारे मन की उस वस्तु के रूप में जितनी ही पूर्ण
परिणति होगी उतनी ही बढ़ी हुई हमारी सौन्दर्य की अनुभूति कही जायगी। जिस प्रकार की
रूपरेखा या वर्णविन्यास से किसी की तदाकार-परिणति होती है उसी प्रकार की रूपरेखा
या वर्णविन्यास उसके लिए सुन्दर है। मनुष्यता की सामान्य भूमि पर पहुँची हुई संसार
की सब सभ्य जातियों में सौन्दर्य के सामान्य आदर्श प्रतिष्ठित हैं। भेद अधिकतर
अनुभूति की मात्रा में पाया जाता है। न सुन्दर को कोई एकबारगी कुरूप कहता है और न
बिलकुल कुरूप को सुन्दर। जैसा कि कहा जा चुका है, सौन्दर्य का दर्शन मनुष्य मनुष्य ही में नहीं करता है, प्रत्युत पल्लव-गुम्फित पुष्पहास में, पक्षियों के पक्षजाल में, सिन्दूराम सान्ध्य दिगञ्चल के
हिरण्य-मेखला-मण्डित घनखण्ड में, तुषारावृत
तुंग गिरि-शिखर में, चन्द्रकिरण से झलझलाते निर्झर में और न
जाने कितनी वस्तुओं में वह सौन्दर्य की झलक पाता है।
जिस सौन्दर्य की भावना में मग्न होकर मनुष्य अपनी पृथक् सत्ता की
प्रतीति का विसर्जन करता है वह अवश्य एक दिव्य विभूति है। भक्त लोग अपनी उपासना या
ध्यान में इसी विभूति का अवलम्बन करते हैं। तुलसी और सूर ऐसे सगुणोपासक भक्त राम
और कृष्ण की सौन्दर्य-भावना में मग्न होकर ऐसी मंगल-दशा का अनुभव कर गए हैं जिसके
सामने कैवल्य या मुक्ति की कामना का कहीं पता नहीं लगता।
कविता केवल वस्तुओं के ही रंग-रूप के सौन्दर्य की छटा नहीं दिखाती
प्रत्युत कर्म और मनोवृत्ति के सौन्दर्य के भी अत्यन्त मार्मिक दृश्य सामने रखती
है। वह जिस प्रकार विकसित कमल, रमणी
के मुखमण्डल आदि का सौन्दर्य मन में लाती है उसी प्रकार उदारता, वीरता, त्याग, दया, प्रेमोत्कर्ष
इत्यादि कर्मों और मनोवृत्तियों का सौन्दर्य भी मन में जमाती है। जिस प्रकार वह शव
को नोचते हुए कुत्तों और शृगालों के वीभत्स व्यापार की झलक दिखाती है उसी प्रकार
क्रूरों की हिंसावृत्ति और दुष्टों की ईर्ष्या आदि की कुरूपता से भी क्षुब्ध करती
है। इस कुरूपता का अवस्थान सौन्दर्य की पूर्ण और स्पष्ट अभिव्यक्ति के लिए ही
समझना चाहिए। जिन मनावृत्तियों का अधिकतर बुरा रूप हम संसार में देखा करते हैं
उनका भी सुन्दर रूप कविता ढूँढ़कर दिखाती है। दशवदन-निधनकारी राम के क्रोध के
सौन्दर्य पर कौन मोहित न होगा?
जो कविता रमणी के रूपमाधुर्य्य से हमें तृप्त करती है, वही उसकी अन्तर्वृत्ति की सुन्दरता का आभास
देकर हमें मुग्ध करती है। जिस बंकिम की लेखनी ने गढ़ पर बैठी हुई राजकुमारी
तिलोत्तमा के अंगप्रत्यंग की सुषमा को अङ्कित किया है उसी ने नवाबनन्दिनी आयशा के
अन्तस् की अपूर्व सात्त्विकी ज्योति की झलक दिखाकर पाठकों को चमत्कृत किया है। जिस
प्रकार बाह्य प्रकृति के बीच वन, पर्वत, नदी, निर्झर
आदि की रूप-विभूति से हम सौन्दर्य-मग्न होते हैं उसी प्रकार अन्तःप्रकृति में दया, दाक्षिण्य, श्रद्धा, भक्ति आदि वृत्तियों की स्निग्ध शीतल आभा में
सौन्दर्य लहराता हुआ पाते हैं। यदि कहीं बाह्य और आभ्यन्तर दोनों सौन्दर्यों का
योग दिखाई पड़े तो फिर क्या कहना है! यदि किसी अत्यन्त सुन्दर पुरुष की धीरता, वीरता, सत्यप्रियता
आदि अथवा किसी अत्यन्त रूपवती स्त्री की सुशीलता, कोमलता और प्रेम-परायणता आदि भी सामने रख दी जायँ तो सौन्दर्य की
भावना सर्वांगपूर्ण हो जाती है।
सुन्दर और कुरूप—काव्य में बस ये ही दो पक्ष हैं। भला बुरा, शुभ अशुभ, पाप
पुण्य, मंगल अमंगल, उपयोगी अनुपयोगी—ये सब शब्द काव्यक्षेत्र के
बाहर के हैं। ये नीति, धर्म, व्यवहार, अर्थशास्त्र आदि के शब्द हैं। शुद्ध
काव्यक्षेत्र में न कोई बात भली कही जाती है न बुरी; न शुभ न अशुभ,
न उपयोगी न अनुपयोगी। सब बातें केवल दो
रूपों में दिखाई जाती हैं—सुन्दर और असुन्दर। जिसे धार्मिक शुभ या मंगल कहता है
कवि उसके सौन्दर्य-पक्ष पर आप ही मुग्ध रहता है और दूसरो को भी मुग्ध करता है।
जिसे धर्मज्ञ अपनी दृष्टि के अनुसार शुभ या मंगल समझता है उसी को कवि अपनी दृष्टि
के अनुसार सुन्दर कहता है। दृष्टिभेद अवश्य है। धार्मिक की दृष्टि जीव के कल्याण, परलोक में सुख, भवबन्धन से मोक्ष आदि की ओर रहती है। पर कवि की दृष्टि इन सब बातों
की ओर नहीं रहती। वह उधर देखता है जिधर सौन्दर्य दिखाई पड़ता है। इतनी सी बात
ध्यान में रखने से ऐसे-ऐसे झमेलों में पड़ने की आवश्यकता बहुत कुछ दूर हो जाती है
कि “कला में सत् असत्, धर्माधर्म का विचार होना चाहिए या
नहीं”, “कवि को उपदेशक बनना चाहिए या नहीं”।
कवि की दृष्टि तो सौन्दर्य की ओर जाती है, चाहे वह जहाँ हो—वस्तुओं के रूपरंग में अथवा
मनुष्यों के मन, वचन और कर्म में। उत्कर्ष-साधन के लिए, प्रभाव की वृद्धि के लिए, कवि लोग कई प्रकार के सौन्दर्यों का मेल भी
किया करते हैं। राम की रूपमाधुरी और रावण की विकरालता भीतर का प्रतिबिम्ब सी जान
पड़ती है। मनुष्य के भीतरी बाहरी सौन्दर्य के साथ चारों ओर की प्रकृति के सौन्दर्य
को भी मिला देने से वर्णन का प्रभाव कभी-कभी बहुत बढ़ जाता है चित्रकूट ऐसे रम्य
स्थान में राम और भरत ऐसे रूपवानों की रम्य अन्तःप्रकृति की छटा का क्या कहना है!
चमत्कारवाद
काव्य के सन्बन्ध में ‘चमत्कार’, ‘अनूठापन’
आदि शब्द बहुत दिनों से लाए जाते हैं। चमत्कार मनोरंजन की सामग्री है, इसमें सन्देह नहीं। इससे जो लोग मनोरञ्जन को ही
काव्य का लक्ष्य समझते हैं वे यदि कविता में चमत्कार ही ढूँढ़ा करें तो कोई
आश्चर्य की बात नहीं। पर जो लोग इससे ऊँचा और गम्भीर लक्ष्य समझते हैं वे चमत्कार
मात्र को काव्य नहीं मान सकते। ‘चमत्कार’ से हमारा अभिप्राय यहाँ प्रस्तुत वस्तु
के अद्भुतत्व या वैलक्षण्य से नहीं जो अद्भुत रस के आलम्बन में होना है। ‘चमत्कार’
से हमारा तात्पर्य उक्ति के चमत्कार से है जिसके अन्तर्गत वर्णविन्यास की विशेषता
(जैसे, अनुप्रास में), शब्दों की क्रीड़ा (जैसे श्लेष, यमक आदि में, वाक्य की वक्रता या वचनभंगी (जैसे, काव्यार्थापत्ति, परिसंख्या, विरोधाभास, असंगति
इत्यादि में) तथा अप्रस्तुत वस्तुओं का अद्भुतत्व अथवा प्रस्तुत वस्तुओं के साथ
उनके सादृश्य या सम्बन्ध की अनहोनी या दूरारूढ़ कल्पना (जैसे, उत्प्रेक्षा अतिशयोकि आदि में) इत्यादि बातें
आती हैं।
चमत्कार का प्रयोग भावुक कवि भी करते हैं, पर किसी भाव की अनुभूति को तीव्र करने के लिए।
जिस रूप या जिस मात्रा में भाव की स्थिति है उसी रूप और उसी मात्रा में उसकी
व्यञ्जना के लिए प्रायः कवियों को व्यञ्जना का कुछ असामान्य ढंग पकड़ना पड़ता है।
बातचीत में भी देखा जाता है कि कभी-कभी हम किसी को मूर्ख न कहकर ‘बैल’ कह देते
हैं। इसका मतलब यही है कि उसकी मूर्खता की जितनी गहरी भावना मन में है वह ‘मूर्ख’
शब्द से नहीं व्यक्त होती। इसी बात को देखकर कुछ लोगों ने यह निश्चय किया कि यही
चमत्कार या उक्तिवैचित्र्य ही काव्य का नित्य लक्षण है। इस निश्चय के अनुसार कोई
वाक्य, चाहे वह कितना ही मर्मस्पर्शी हो, यदि उक्ति-वैचित्र्यशून्य है तो काव्य के
अन्तर्गत न होगा और कोई वाक्य जिसमें किसी भाव या मर्म-विकार की व्यञ्जना कुछ भी न
हो पर उक्तिवैचित्र्य हो,
वह खासा काव्य कहा जायगा। उदाहरण के
लिए पद्माकर का यह सीधा-सादा वाक्य लीजिए—
“नैन
नचाय कही मुसकाय ‘लला फिर आइयो खेलन होली’।”
अथवा मण्डन का यह सवैया लीजिए—
अलि! हौं तौ गई जमुना-जल को,
सो कहा कहौं, वीर! विपत्ति परी।
घहराय कै कारी घटा उनई,
इतनेई में गागर सीस धरी॥
रपट्यौ पग, घाट चढ्यो न गयो,
कवि मंडन ह्वैकै बिहाल गिरि।
चिरजीवहु नंद को बारो अरी,
गहि बाँह गरीब ने ठाढ़ी करी॥
इस प्रकार ठाकुर की यह अत्यन्त स्वाभाविक वितर्क-व्यंजना देखिए—
वा निरमोहिनी रूप की रासि जऊ उर हेतु न ठानति ह्वैहै।
बारहि बार बिलोकि घरी घरी सूरति तौ
पहिचानति ह्वैहै॥
ठाकुर या मन की परतीति है, जौ पै सनेह न मानति ह्वैहै।
आवत हैं नित मेरे लिए; इतनो तो विसेष कै जानति ह्वैहै॥
मण्डन ने प्रेम-गोपन के जो वचन कहलाए हैं वे ऐसे ही हैं जैसे जल्दी
में स्वभावतः मुँह से निकल पड़ते हैं। उनमें विदग्धता की अपेक्षा स्वाभाविकता कहीं
अधिक झलक रही है। ठाकुर के सवैये में भी अपने प्रेम का परिचय देने के लिए आतुर नये
प्रेमी के चित्त के वितर्क की सीधे-सादे शब्दों में, बिना किसी वैचित्र्य या लोकोत्तर चमत्कार के, व्यञ्जना की गई है। क्या कोई सहृदय वैचित्र्य
के अभाव के कारण कह सकता है कि इनमें काव्यत्व नहीं है?
अब इनके सामने उन केवल चमत्कारवाली उक्तियों का विचार कीजिए जिनमें
कहीं कोई कवि किसी राजा की कीर्ति की धवलता चारों ओर फैलती देख यह आशङ्का प्रकट
करता है कि कहीं मेरी स्त्री के बाल भी सफ़ेद न हो जायँ अथवा प्रभात होने पर कौवों
के काँव-काँव का कारण यह भय बताता है कि कालिमा या अन्धकार का नाश करने में
प्रवृत्त सूर्य कहीं उन्हें काला देख उनका भी नाश न कर दे भोज-प्रबन्ध तथा और-और
सुभाषित-संग्रहों में इस प्रकार की उक्तियाँ भरी पड़ी हैं। केशव की रामचन्द्रिका
में पचीसों ऐसे पद्य हैं जिनमें अलंकारों की भद्दी भरती के चमत्कार के सिवा हृदय
को स्पर्श करने वाली या किसी भावना में मग्न करनेवाली कोई बात न मिलेगी। उदाहरण के
लिए पताका और पंचवटी के ये वर्णन लीजिए।
पताका
अति सुन्दर अति साधु। थिर न रहति पल आधु।
परम तपोमय मानि। दंडधारिणी जानि॥
पंचवटी
बेर भयानक सी अति लगै। अर्क समूह जहाँ जगमगै।
पाडव की प्रतिमा सम लेखौ। अर्जुन भीम महामति देखौ॥
है सुभगा सम दीपति पूरी। सिंदूर और तिलकावलि रूरी।
राजति है यह ज्यों कुलकन्या। धाय विराजति है सँग धन्या॥
क्या कोई भावुक इन उक्तियों के शुद्ध काव्य कह सकता है? क्या ये उसके मर्म का स्पर्श कर सकती हैं?
ऊपर दिये हुए अवतरणों में हम अस्पष्ट देखते हैं कि किसी उक्ति की तह
में उसके प्रवर्तक के रूप में यदि कोई भाव या मामिक अन्तर्वृत्ति छिपी है तो चाहे
वैचित्र्य हो या न हो, काव्य की सरलता बराबर पाई जायगी। पर
यदि कोरा वैचित्र्य या चमत्कार ही चमत्कार तो थोड़ी दूर के लिए कुछ कुतूहल या
मनबहलाव चाहे हो जाय पर काव्य को लीन करनेवाली सरसता न पाई जायगी। केवल कुतूहल तो
बालवृत्ति है। कविता सुनना और तमाशा देखना एक ही बात नहीं है। यदि सब प्रकार की
कविता में केवल आश्चर्य या कुतूहल का ही संचार मानें तब तो अलग-अलग स्थाई भावों की
रसरूप में अनुभूति और भिन्न-भिन्न भावों के आश्रयों के साथ तादात्म्य का कहीं
प्रयोजन ही नहीं रह जाता।
यह बात ठीक है कि हृदय पर जो प्रभाव पड़ता है, उसके मर्म का जो स्पर्श होता है, वह उक्ति ही के द्वारा। पर उक्ति के लिए यह
आवश्यक नहीं कि वह सदा विचित्र, अद्भुत
या लोकोत्तर हो—ऐसी हो जो सुनने में नहीं आया करती या जिसमें बड़ी दूर की सूझ होती
है। ऐसी उक्ति जिसे सुनते ही मन किसी भाव या मार्मिक भावना (जैसे प्रस्तुत वस्तु
का सौन्दर्य आदि) में लीन न होकर एकबारगी कथन से अनूठे ढंग, वर्ण-विन्यास या पद-प्रयोग की विशेषता, दूर की सूझ, कवि
की चातुरी या निपुणता इत्यादि का विचार करने लगे, वह काव्य नहीं, सूक्ति
है। बहुत से लोग काव्य और सूक्ति को एक ही समझा करते हैं। पर इन दोनों का भेद सदा
ध्यान में रहना चाहिए। जो उक्ति हृदय में कोई भाव जाग्रत कर दे या उसे प्रस्तुत
वस्तु या तथ्य की मार्मिक भावना में लीन कर दे, वह
तो है काव्य। जो उक्ति केवल कथन के ढंग के अनूठेपन, रचना-वैचित्र्य, चमत्कार, कवि के श्रम या निपुणता के विचार में ही
प्रवृत्त करे, वह है सूक्ति।
यदि किसी उक्ति में रसात्मकता और चमत्कार दोनों हो तो प्रधानता का
विचार करके सूक्ति या काव्य का निर्णय हो सकता है। जहाँ उक्ति में अनूठापन अधिक
मात्रा में होने पर भी उसकी तह में रहनेवाला भाव अच्छन्न नहीं हो जाता वहाँ भी
काव्य ही माना जायगा। जैसे,
देव का यह सवैया लीजिए—
साँसन ही में समीर गयो अरु आँसुन ही सब नीर गयो ढरि।
तेज गयो गुन लै अपनो अरु भूमि गई तन की तनुता करि॥
देव जियै मिलिबेई की आस कै, आसहु
पास अकास रह्यो भरि।
जा दिन तें मुख फेरि हरै हँसि हेरि हियो जो लियो हरि जू हरि॥
सवैये का अर्थ यह है कि वियोग में उस नायिका के शरीर को संघटित
करनेवाले पंचभूत धीरे-धीरे निकलते जा रहे हैं। वायु दीर्घ निःश्वासों के द्वारा
निकल गई, जलतत्त्व सारा आँसुओं ही आँसुओं में ढल
गया, तेज भी न रह गया—शरीर की सारी दीप्ति
या कान्ति जाती रही, पार्थिव तत्त्व के निकल जाने से शरीर
भी क्षीण हो गया; अब तो उसके चारों ओर आकाश ही आकाश रह
गया है—चारों ओर शून्य दिखाई पड़ रहा है। जिस दिन से श्रीकृष्ण ने उसकी ओर मुँह
फेरकर ताका है और मन्द मन्द हँसकर उसके मन को हर लिया है उसी दिन से उसकी यह दशा
है।
इस वर्णन में देवजी ने विरह की भिन्न-भिन्न दशाओं में चार भूतों के
निकलने की बड़ी सटीक उद्भावना की है। आकाश का अस्तित्व भी बड़ी निपुणता से
चरितार्थ किया है। यमक अनुप्रास आदि भी है। सारांश यह कि उनकी उक्ति में एक पूरी
सावयव कल्पना है, मजमून की पूरी बन्दिश है, पूरा चमत्कार या अनूठापन है। पर इस चमत्कार के
बीच में भी विरह-वेदना स्पष्ट झलक रही है, उसकी
चकाचौंध में अदृश्य नहीं हो गई है। इसी प्रकार मतिराम के इस सवैये की पिछली दो
पंक्तियों में वर्षा के रूपक का जो व्यंग्य-चमत्कार है वह भाव शबलता के साथ अनूठे
ढंग से गुम्फित है—
दोऊ आनन्द सों आँगन माँझ बिराजैं
असाढ़ की साँझ, सुहाई।
प्यारी के बूझत और तिया को
अचानक नाम लियो रसिकाई॥
आई उनै मुँह में हँसी,
कोहि तिया पुनि चाँप सी भौंह चढ़ाई।
आँखिन तें गिरे आँसू के बूँद,
सुहाग गयो उड़ि हंस की नाई॥
इसके विरुद्ध बिहारी की उन उक्तियों में जिनमें विरहिणी के शरीर के
पास ले जाते ले जाते शीशी का गुलाबजल सूख जाता है; उसके विरह ताप की लपट के मारे माघ के महीने में भी पड़ोसियों का रहना
कठिन हो जाता है, कृशता के कारण विरहिणी साँस खींचने के
साथ दो-चार हाथ पीछे और साँस छोड़ने के साथ दो-चार हाथ आगे उड़ जाती है, अत्युक्ति का एक बड़ा तमाशा ही खड़ा किया गया
है। कहाँ यह सब मजाक, कहाँ विरह वेदना!
यह कहा जा चुका है कि उमड़ते हुए भाव की प्ररेणा से अकसर कथन के ढङ्ग
मे कुछ वक्रता आ जाती है। ऐसी वक्रता काव्य की प्रक्रिया के भीतर रहती है। उसका
अनूठापन भाव-विधान के बाहर की वस्तु नहीं। उदाहरण के लिए दासजी की ये विरहदशासूचक
उक्तियाँ लीजिए—
अब तौ बिहारी के वे बानक गए री,
तेरी तन-दुति-केसर को नैन कसमीर भो।
श्रौन तुव बानी स्वाति बूँदन के चातक भे,
साँसन को भरिबो द्रुपदजा को चीर भो।
हिय को हरष मरुधरनि को नीर भो,
री! जियरो मनोभव-शरन को तुनीर भो।
ए री! बेगि करिकै मिलापु थिर थापु,
न तौ आपु अब चहत अतनु को सरीर भो॥
ऐसी ही भाव-प्रेरित वक्रता द्विजदेव की इस मनोहर उक्ति में है—
तू जो कही, सखी! लोनो सरूप,
सो मो अखियान को लोनी गई लगि।
प्रेम के स्फुरण की विलक्षण अनुभूति नायिका को हो रही है—कभी आँसू
आते हैं, कभी अपनी दशा पर अचरज होता है, कभी हलकी सी हँसी भी आ जाती है कि अच्छी बला
मैंने मोल ली। इसी बीच अपनी अन्तरंग सखी को सामने पाकर किञ्चित विनोद-चातुरी की भी
प्रवृत्ति होती है। ऐसी जटिल अन्तर्वृत्ति द्वारा प्रेरित उक्ति में विचित्रता आ
ही जाती है। ऐसी चित्र-वृत्तियों के अवसर घड़ी-घड़ी नहीं आया करते। सूरदासजी का
‘भ्रमरगीत’ ऐसी भाव-प्रेरित वक्र उक्तियों से भरा पड़ा है।
उक्ति की वहीं तक की वचनभंगी या वक्रता के सम्बन्ध में हमसे कुन्तलजी
का “वक्रोक्तिः काव्यजीवितम्” मानते बनता है, जहाँ
तक कि वह भावानुमोदित हो या किसी मार्मिक अन्तर्वृत्ति से सम्बद्ध हो; उसके आगे नहीं। कुन्तलजी की वक्रता बहुत व्यापक
है जिसके अन्तर्गत वे वाक्य-वैचित्र्य की वक्रता और वस्तु-वैचित्र्य की वक्रता
दोनों लेते हैं। सालंकृत वक्रता के चमत्कार ही में वे काव्यत्व मानते हैं योरप में
भी आजकल क्रोस के प्रभाव से एक प्रकार का वक्रोक्तिवाद जोर पर है। विलायती
वक्रोक्तिवाद लक्षणा-प्रधान है। लाक्षणिक चपलता और प्रगल्भता में ही, उक्ति के अनूठे स्वरूप में ही, बहुत से लोग वहाँ कविता मानने लगे हैं। उक्ति
ही काव्य होती है, यह तो सिद्ध बात है। हमारे यहाँ भी
व्यञ्जक वाक्य ही काव्य माना जाता है। अब प्रश्न यह है कि कैसी उक्ति, किस प्रकार की व्यञ्जना करनेवाला वाक्य।
वक्रोक्तिवादी कहेंगे कि ऐसी उक्ति जिसमें कुछ वैचित्र्य या चमत्कार हो, व्यञ्जना चाहे जिसकी हो, या किसी ठीक-ठीक बात की न भी हो। पर जैसा कि हम
कह चुके हैं, मनोरंजन मात्र काव्य का उद्देश्य न
माननेवाले उनकी इस बात का समर्थन करने में असमर्थ होंगे। वे किसी लक्षणा में उसका
प्रयोजन अवश्य ढूँढ़ेंगे।
कविता की भाषा
कविता में कही गई बात चित्र-रूप में हमारे सामने आनी चाहिए, यह हम पहले कह आए हैं। अतः उसमें गोचर रूपों का
विधान अधिक होता है। वह प्रायः ऐसे रूपों और व्यापारों को ही लेती है जो स्वाभाविक
होते हैं और संसार में सबसे अधिक मनुष्यों को सबसे अधिक दिखाई पड़ते हैं।
अगोचर बातों या भावनाओं को भी, जहाँ
तक हो सकता है, कविता स्थूल गोचर रूप में रखने का
प्रयास करती है। इस मूर्तिविधान के लिए वह भाषा की लक्षण-शक्ति से काम लेती है।
जैसे, “समय बीता जाता है” कहने की अपेक्षा
“समय भागा जाता है” कहना वह अधिक पसन्द करेगी। किसी काम से हाथ खींचना, किसी का रुपया खा जाना, कोई बात पी जाना, दिन ढलना या डूबना, मन
मारना, मन छूना, शोभा बरसना,
उदासी टपकना इत्यादि ऐसी ही
कवि-समय-सिद्ध उक्तियाँ हैं जो बोलचाल में रूढ़ि होकर आ गई है। लक्षणा-द्वारा
स्पष्ट और सजीव आकार-प्रदान का विधान प्रायः सब देशों के कवि-कर्म में पाया जाता
है। कुछ उदाहरण देखिए—
(क)
धन्य भूमि बनपंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाँव तुम धारा।—तुलसी।
(ख)
मनहु उमगि अँग अँग छबि छलकै।—तुलसी।
(ग)
चूनरि चारु चुई सी परे।
(घ)
बनन में बागन में बगरो बसन्त है।—पद्माकर।
(ङ)
बृन्दाबन-बागन पै बसन्त बरसो परै।—पद्माकर।
(च)
हौं तो श्यामरंग में चोराय,
चित्त चोराचोरी बोरत तो बोरयो पै
निचोरत बनै नहीं।—पद्माकर।
(छ)
एहो नन्दलाल ऐसी व्याकुल परी है बाल,
हाल ही चलो,
तौ चलौ, जोरे जुरि जायगो।
कहै पद्माकर नहीं तौ ये झकोरे लगे,
ओरे लौं अचाका बिनु घोरे घुरि जायगी।
तौ ही लगि चैन जौ लौं चेति है न चन्दमुखी,
चेतैगी कहूँ तो चाँदनी में चुरि जायगी।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि वस्तु या तथ्य के पूर्ण प्रत्यक्षीकरण
तथा भाव या मार्मिक अन्तर्वृत्ति के अनुरूप व्यञ्जना के लिए लक्षणा का बहुत कुछ
सहारा कवि को लेना पड़ता है।
भावना को मूर्त्त रूप में रखने की आवश्यकता के कारण कविता की भाषा
में दूसरी विशेषता यह रहती है कि उसमें जातिसङ्केतवाले शब्दों की अपेक्षा
विशेष-रूप-व्यापार-सूचक शब्द अधिक रहते हैं। बहुत से ऐसे शब्द होते हैं जिनसे किसी
एक का नहीं बल्कि बहुत से रूपों या व्यापारों का एक साथ चलता सा अर्थग्रहण हो जाता
है। ऐसे शब्दों को हम जाति-संकेत कह सकते हैं। ये मूर्त विधान के प्रयोजन के नहीं
होते। किसी ने कहा “वहाँ बड़ा अत्याचार हो रहा है। इस अत्याचार शब्द के अन्तर्गत
मारना-पीटना, डाँटना-डपटना, लूटना-पाटना इत्यादि बहुत से व्यापार हो सकते
हैं, अतः ‘अत्याचार’ शब्द के सुनने से उन सब
व्यापारों की एक मिली-जुली अस्पष्ट भावना थोड़ी देर के लिए मन में आ जाती है; कुछ विशेष व्यापारों का स्पष्ट चित्र या
मूर्त्त रूप नहीं खड़ा होता। इससे ऐसे शब्द कविता के उतने काम के नहीं। ये
तत्त्व-निरूपण, शास्त्रीय विचार आदि में ही अधिक
उपयोगी होते हैं। भिन्न-भिन्न शास्त्रों में बहुत से शब्द तो विलक्षण ही अर्थ देते
हैं और पारिभाषिक कहलाते हैं। शास्त्र-मीमांसक या तत्त्व-निरूपक को किसी सामान्य
तथ्य या तत्त्व तक पहुँचने की जल्दी रहती है इससे वह किसी सामान्य धर्म के
अन्तर्गत आनेवाली बहुत सी बातों को एक मानकर अपना काम चलाता है, प्रत्येक का अलग-अलग दृश्य देखने-दिखाने में
नही उलझता।
पर कविता कुछ वस्तुओं और व्यापारों को मन के भीतर मूर्त्त रूप में
लाना और प्रभाव उत्पन्न करने के लिए कुछ देर रखना चाहती है। अतः उक्त प्रकार के
व्यापक अर्थ संकेतों से ही उसका काम नहीं चल सकता। इससे जहाँ उसे किसी स्थिति का
वर्णन करना रहता है वहाँ वह उसके अन्तर्गत सबसे अधिक मर्मस्पर्शिनी कुछ विशेष
वस्तुओं या व्यापारों को लेकर उनका चित्र खड़ा करने का आयोजन करती है। यदि कहीं के
घोर अत्याचार का वर्णन करना होगा तो वह कुछ निरपराध व्यक्तियों के वध, भीषण यन्त्रणा, स्त्री-बच्चों पर निष्ठुर प्रहार आदि का क्षोभकारी दृश्य सामने
रखेगी। “वहाँ घोर अत्याचार हो रहा है” इस वाक्य द्वारा वह कोई प्रभाव नहीं उत्पन्न
कर सकती। अत्याचार शब्द के अन्तर्गत न जाने कितने व्यापार आ सकते हैं, अतः उसे सुनकर या पढ़कर सम्भव है कि भावना में
एक भी व्यापार स्पष्ट रूप से न आए या आए भी तो ऐसा जिसमें मर्म को क्षुब्ध करने की
शक्ति न हो।
उपर्युक्त विचार से ही किसी व्यवहार या शास्त्र के पारिभाषिक शब्द भी
काव्य में लाए जाने योग्य नहीं माने जाते। हमारे यहाँ के आचार्यों ने पारिभाषिक
शब्दों के प्रयोग को ‘अप्रतीतत्व’ दोष माना है। पर दोष स्पष्ट होते हुए भी चमत्कार
के प्रेमी कब मान सकते हैं?
संस्कृत के अनेक कवियों ने वेदान्त, आयुर्वेद, न्याय
के पारिभाषिक शब्दों को लेकर बड़े-बड़े चमत्कार खड़े किये हैं या अपनी बहुज्ञता
दिखाई है। हिन्दी के किसी मुक़दमेबाज़ कवित्त कहनेवाले ने “प्रेमफ़ौजदारी” नाम की
एक छोटी सी पुस्तक में शृंगाररस की बातें अदालती कार्रवाइयों पर घटाकर लिखी हैं।
“एकतरफ़ा डिगरी”, “तनकीह” ऐसे-ऐसे शब्द चारों ओर अपनी
बहार दिखा रहे हैं, जिन्हें सुनकर कुछ अशिक्षित या भद्दी
रुचिवाले वाह-वाह भी कर देते हैं।
शास्त्र के भीतर निरूपित तथ्य को भी जब कोई कवि अपनी रचना के भीतर
लेता है तब वह पारिभाषिक तथा अधिक व्याप्तिवाले जाति-संकेत शब्दों को हटाकर उस
तथ्य को व्यंजित करनेवाले कुछ विशेष मार्मिक रूपों और व्यापारों का चित्रण करता
है। कवि गोचर और मूर्त्त रूपों के द्वारा ही अपनी बात कहता है। उदाहरण के लिए
गोस्वामी तुलसीदासजी के ये वचन लीजिए—
जेहि निसि सकल जीव सूतहिं तब कृपापात्र जन जागै।
इसमें माया में पड़े हुए जीव की अज्ञानदशा का काव्य-पद्धति पर कथन
है। और देखिये। प्राणी आयु भर क्लेश-निवारण और सुखप्राप्ति का प्रयास करता रह जाता
है और कभी वास्तविक सुख-शान्ति प्राप्त नहीं करता, इस बात को गोस्वामीजी यों सामने रखते हैं—
डासत ही गई बीति निसा सब,
कबहुँ न नाथ! नींद भरि सोयो।
भविष्य का ज्ञान अत्यन्त अद्भुत और रहस्यमय है जिसके कारण प्राणी
आनेवाली विपत्ति की कुछ भी भावना न करके अपनी दशा में मग्न रहता है। इस बात को
गोस्वामीजी ने “चरै हरित तृन बलिपशु” इस चित्र द्वारा व्यक्त किया है। अँगरेज़ कवि
पोप ने भी भविष्य के अज्ञान का यही मार्मिक चित्र लिया है, यद्यपि उसने इस अज्ञान को ईश्वर का बड़ा भारी
अनुग्रह कहा है—
उस बलिपशु को देख आज जिसका तू, रे
नर?
अपने रँग में रक्त बहाएगा वेदी पर।
होता उसको ज्ञान कहीं तेरा है जैसा,
क्रीड़ा करता कभी उछलता फिरता ऐसा?
अन्तकाल तक हरा-हरा चारा चभलाता।
हनन हेतु उसे उठे हाथ को चाटे जाता।
आगम का अज्ञ न ईश का परम अनुग्रह॥
(The lamb thy riot dooms to bleed today,
Had he thy reason, would he skip and play?
Pleas’d to the last, he crops the flow’ry food,
And licks the hand just rais’d to shed his blood.
Oh blindness to the future! kindly giv’n,)
-Essay on Man.
बातचीत में जब किसी को अपने कथन द्वारा कोई मार्मिक प्रभाव उत्पन्न
करना होता है तब वह इसी पद्धति का अवलम्बन करता है। यदि अपनी पत्नी पर अत्याचार
करनेवाले किसी व्यक्ति को उसे समझाना है तो वह कहेगा कि “तुमने इसका हाथ पकड़ा है”; यह न कहेगा कि “तुमने इसके साथ विवाह किया है।”
‘विवाह’ शब्द के अन्तर्गत न जाने कितने विधि-विधान हैं जो सबके सब एकबारगी मन में
आ भी नहीं सकते और उतने व्यंजक या मर्मस्पर्शी भी नहीं होते। अतः कहनेवाला उनमें
से जो सबसे अधिक व्यंजक और स्वाभाविक व्यापार “हाथ पकड़ना” है, जिससे सहारा देने का चित्र सामने आता है, उसे भावना में लाता है।
तीसरी विशेषता कविता की भाषा में वर्ण-विन्यास की है। “शुष्को
वृक्षस्तिष्ठत्यग्रे” और “नीरसतरुरिह विलसति पुरतः” का भेद हमारी पण्डित-मण्डली
में बहुत दिनों से प्रसिद्ध चला आता है। काव्य एक बहुत ही व्यापक कला है। जिस
प्रकार मूर्त्त विधान के लिए कविता चित्र-विद्या की प्रणाली का अनुसरण करती है उसी
प्रकार नाद-सौष्ठव के लिए वह संगीत का कुछ-कुछ सहारा लेती है। श्रुति-कटु मानकर
कुछ वर्णों का त्याग, वृत्तविधान, लय, अन्त्यानुप्रास
आदि नादसौन्दर्य-साधन के लिए ही हैं। नाद-सौष्ठव के निमित्त निरूपित
वर्ण-विशिष्टता को हिन्दी के हमारे कुछ पुराने कवि इतनी दूर तक घसीट ले गए कि उनकी
बहुत-सी रचना बेडौल और भावशून्य हो गई। उसमें अनुप्रास की लम्बी लड़ी—वर्ण-विशेष
की निरन्तर आवृत्ति—के सिवा और किसी बात पर ध्यान नहीं जाता। जो बात भाव या रस की
धारा का मन के भीतर अधिक प्रसार करने के लिए थी, वह अलग चमत्कार या तमाशा खड़ा करने के लिए काम में लाई गई।
नाद-सौन्दर्य से कविता की आयु बढ़ती है। तालपत्र, भोजपत्र काग़ज़ आदि का आश्रय छूट जाने पर भी वह
बहुत दिनों तक लोगों की जिह्वा पर नाचती रहती है। बहुत सी उक्तियों को लोग, उनके अर्थ की रमणीयता इत्यादि की ओर ध्यान ले
जाने का कष्ट उठाए बिना ही,
प्रसन्न-चित्त रहने पर गुनगुनाया करते
हैं। अतः नाद-सौन्दर्य का योग भी कविता का पूर्ण स्वरूप खड़ा करने के लिए कुछ न
कुछ आवश्यक होता है। इसे हम बिलकुल हटा नहीं सकते। जो अन्त्यानुप्रास को फालतू
समझते हैं वे छन्द को पकड़े रहते हैं, जो
छन्द को भी फालतू समझते हैं वे लय में ही लीन होने का प्रयास करते हैं। संस्कृत से
सम्बन्ध रखनेवाली भाषाओं में नाद-सौन्दर्य के समावेश के लिए बहुत अवकाश रहता है।
अतः अँगरेज़ी आदि अन्य भाषाओं की देखादेखी, जिनमें
इसके लिए कम जगह है, अपनी कविता को हम विशेषता से वंचित
कैसे कर सकते हैं?
हमारी काव्यभाषा में एक चौथी विशेषता भी है जो संस्कृत से ही आई है।
वह है कि कही-कहीं व्यक्तियों के नामों के स्थान पर उनके रूप-गुण या कार्य-बोधक
शब्दों का व्यवहार किया जाता है। ऊपर से देखने में तो पद्य के नपे हुए चरणों में
शब्द खपाने के लिए ही ऐसा किया जाता है, पर
थोड़ा विचार करने पर इससे गुरुतर उद्देश्य प्रकट होता है। सच पूछिए तो यह बात
कृत्रिमता बचाने के लिए की जाती है। मनुष्यों के नाम यथार्थ में कृत्रिम संकेत है, जिनसे कविता की पूर्ण परिपोषकता नहीं होती।
अतएव कवि मनुष्यों के नामों के स्थान पर कभी-कभी उनके ऐसे रूप, गुण या व्यापार की ओर इशारा करता है जो
स्वाभाविक और अर्थगर्भित होने के कारण सुननेवाले की भावना के निर्माण में योग देते
हैं। गिरिधर, मुरारि, त्रिपुरारि,
दीनबन्धु, चक्रपाणि, मुरलीधर, सव्यसाची इत्यादि शब्द ऐसे ही हैं।
ऐसे शब्दों को चुनते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे
प्रकरण-विरुद्ध या अवसर के प्रतिकूल न हों। जैसे, यदि कोई मनुष्य किसी दुर्धर्ष अत्याचारी के हाथ से छुटकारा पाना
चाहता हो तो उसके लिए “हे गोपिकारमण! हे वृन्दावन बिहारी!” आदि कहकर कृष्ण को
पुकारने की अपेक्षा “हे मुरारि! हे कंसनिकन्दन!” आदि संबोधनों से पुकारना अधिक
उपयुक्त है; क्योंकि श्रीकृष्ण के द्वारा कंस आदि
दुष्टों का मारा जाना देखकर उसे उनसे अपनी रक्षा की आशा होती है, न कि उनका वृन्दावन में गोपियों के साथ विहार
करना देखकर। इसी तरह किसी आपत्ति से उद्धार पाने के लिए कृष्ण को “मुरलीधर” कहकर
पुकारने की अपेक्षा “गिरिधर” कहना अधिक अर्थसंगत है।
अलंकार
कविता में भाषा की सब शक्तियों से काम लेना पड़ता है। वस्तु या
व्यापार की भावना चटकीली करने और भाव को अधिक उत्कर्ष पर पहुँचाने के लिए कभी किसी
वस्तु का आकार या गुण बहुत बढ़ाकर दिखाना पड़ता है; कभी उसके रूप-रंग या गुण की भावना को उसी प्रकार के और रूप-रंग
मिलाकर तीव्र करने के लिए समान रूप और धर्मवाली और-और वस्तुओं को सामने लाकर रखना
पड़ता है। कभी-कभी बात को भी घुमा-फिराकर कहना पड़ता है। इस तरह के भिन्न-भिन्न
विधान और कथन के ढंग अलंकार कहलाते हैं। इनके सहारे से कविता अपना प्रभाव बहुत कुछ
बढ़ाती है। कहीं-कहीं तो इनके बिना काम ही नहीं चल सकता। पर साथ ही यह भी स्पष्ट
है कि ये साधन है, साध्य नहीं। साध्य को भुलाकर इन्हीं को
साध्य मान लेने से कविता का रूप कभी-कभी इतना विकृत हो जाता है कि वह कविता ही
नहीं रह जाती। पुरानी कविता में कहीं-कहीं इस बात के उदाहरण मिल जाते हैं।
अलंकार चाहे अप्रस्तुत वस्तु-योजना के रूप में हों (जैसे, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा इत्यादि में) चाहे वाक्य-वक्रता के
रूप में (जैसे; अप्रस्तुत-प्रशंसा, परिसंख्या, व्याजस्तुति, विरोध इत्यादि में), चाहे वर्ण-विन्यास के रूप में (जैसे, अनुप्रास में) लाए जाते हैं वे प्रस्तुत भाव या
भावना के उत्कर्ष-साधन के लिए ही। मुख के वर्णन में जो कमल, चन्द्र आदि सामने रखे जाते हैं वह इसी लिए
जिनमें इनकी वर्णरुचिरता,
कोमलता, दीप्ति इत्यादि के योग से सौन्दर्य की भावना और बढ़े। सादृश्य या
साधर्म्य दिखाना उपमा, उत्प्रेक्षा इत्यादि का प्रकृत लक्ष्य
नहीं है। इस बात को भूलकर कवि परम्परा में बहुत से ऐसे उपमान चला दिए गए हैं जो
प्रस्तुत भावना में सहायता पहुँचाने के स्थान पर बाधा डालते हैं। जैसे, नायिका का अंग-वर्णन सौन्दर्य की भावना
प्रतिष्ठित करने के लिए ही किया जाता है। ऐसे वर्णन में यदि कटि का प्रसंग आने पर
भिड़ या सिंह की कमर सामने कर दी जायगी तो सौन्दर्य की भावना में क्या, वृद्धि होगी? प्रभात के सूर्यबिम्ब के सम्बन्ध में इस कथन से कि “है शोणित-कलित
कपाल यह किल कापालिक काल को” अथवा शिखर की तरह उठे हुए मेघखण्ड के ऊपर उदित होते
हुए चन्द्रबिम्ब के सम्बन्ध में इस उक्ति से कि “मनहुँ क्रमेलकपीठ पै धर्यो गोल
घण्टा लसत,” दूर की सूझ चाहे प्रकट हो, पर प्रस्तुत सौन्दर्य की भावना की कुछ भी
पुष्टि नहीं होती।
पर जो लोग चमत्कार ही को काव्य का स्वरूप मानते हैं वे अलंकार को
काव्य का सर्वस्व कहा ही चाहे। चन्द्रालोककार तो कहते हैं कि—
अंगीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलंकृती!
असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलंकृती॥
भरत मुनि ने रस की प्रधानता की ओर ही संकेत किया था; पर भामह, उद्भट
आदि कुछ प्राचीन आचार्यों ने वैचित्र्य का पल्ला पकड़ अलंकारों को प्रधानता दी।
इनमें बहुतेरे आचार्यों ने अलंकार शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में—रस, रीति, गुण
आदि काव्य में प्रयुक्त होनेवाली सारी सामग्री के अर्थ में—किया है। पर
ज्यों-ज्यों शास्त्रीय विचार गम्भीर और सूक्ष्म होता गया त्यों-त्यों साध्य और
साधनों को विविक्त करके काव्य के नित्य स्वरूप या मर्म-शरीर को अलग निकालने का
प्रयास बढ़ता गया। रुद्रट और मम्मट के समय से ही काव्य का प्रकृत स्वरूप
उभरते-उभरते विश्वनाथ महापात्र के साहित्यदर्पण में साफ़ ऊपर आ गया।
प्राचीन गड़बड़झाला मिटे बहुत दिन हो गए। वर्ण्य वस्तु और
वर्णन-प्रणाली बहुत दिनों से एक दूसरे से अलग कर दी गई है। प्रस्तुत अप्रस्तुत के
भेद ने बहुत सी बातों के विचार और निर्णय के सीधे रास्ते खोल दिए हैं। अब यह
स्पष्ट हो गया है कि अलंकार प्रस्तुत या वर्ण्य-वस्तु नहीं; बल्कि वर्णन की भिन्न-भिन्न प्रणालियाँ हैं, कहने के ख़ास-ख़ास ढंग हैं। पर प्राचीन
अव्यवस्था के स्मारकस्वरूप कुछ अलंकार ऐसे चले आ रहे हैं जो वर्ण्य-वस्तु का
निर्देश करते हैं और अलंकार नहीं कहे जा सकते—जैसे, स्वभावोक्ति,
उदात्त, अत्युक्ति। स्वभावोक्ति को लेकर कुछ अलंकार-प्रेमी कह बैठते हैं कि
प्रकृति का वर्णन भी तो स्वभावोक्ति अलंकार ही है। पर स्वभावोक्ति अलंकार-कोटि में
आ ही नहीं सकती। अलंकार वर्णन करने की प्रणाली है। चाहे जिस वस्तु या तथ्य के कथन
को हम किसी अलंकार-प्रणाली के अन्तर्गत ला सकते हैं। किसी वस्तु-विशेष से किसी
अलंकार-प्रणाली का संबन्ध नहीं हो सकता। किसी तथ्य तक वह परिमित नहीं रह सकती।
वस्तु-निर्देश अलंकार का काम नहीं, रस-व्यवस्था
का विषय है। किन-किन वस्तुओं, चेष्टाओं
या व्यापारों का वर्णन किन-किन रसों के विभावों और
अनुभावों के अन्तर्गत आएगा, इसकी
सूचना रसनिरूपण के अन्तर्गत ही हो सकती है।
अलंकारों के भीतर स्वभावोक्ति का ठीक-ठीक लक्षण-निरूपण हो भी नहीं
सका है। काव्यप्रकाश की कारिका में यह लक्षण दिया गया है—
स्वभावोक्तिस्तु डिम्भादेः स्वक्रिया रूप-वर्णनम्।
अर्थात्—”जिसमें बालकादिको की निज की क्रिया या रूप का वर्णन हो वह
स्वभावोक्ति है।” प्रथम तो बालकादिक पद की व्याप्ति कहाँ तक है, यही स्पष्ट नहीं। अतः यही समझा जा सकता है कि
सृष्टि की वस्तुओं के रूप और व्यापार का वर्णन स्वभावोक्ति है। खैर बालक की
रूपचेष्टा को लेकर ही स्वभावोक्ति की अलंकारता पर विचार कीजिए। वात्सल्य में बालक
के रूप आदि का वर्णन आलम्बन विभाग के अन्तर्गत और उसकी चेष्टाओं का वर्णन उद्दीपन
विभाग के अन्तर्गत होगा। प्रस्तुत वस्तु की रूप-क्रिया आदि के वर्णन को रस-क्षेत्र
से घसीटकर अलंकार-क्षेत्र में हम कभी नहीं ले जा सकते। मम्मट ही के ढंग के और
आचार्यों के लक्षण भी हैं। अलंकार-सर्वस्वकार राजानक रुय्यक कहते हैं—
सूक्ष्म-वस्तु-स्वभाव-यथावद्वर्णनं स्वभावोक्तिः।
आचार्य दंडी ने अवस्था की योजना करके यह लक्षण लिखा है—
नानावस्थं पदार्थांना साक्षाद्विवृण्वती!
स्वभावोक्तिश्च जातिश्चेत्याद्या सालं
कृतिर्यथा॥
बात यह है कि स्वभावोक्ति अलंकारों के भीतर आ ही नहीं सकती।
वक्रोक्तिवादी कुन्तल ने भी इसे अलंकार नहीं माना है।
जिस प्रकार एक कुरूपा स्त्री अलंकार लादकर सुन्दर नहीं हो सकती उसी
प्रकार प्रस्तुत वस्तु या तथ्य की रमणीयता के अभाव में अलंकारों का ढेर काव्य का
सजीव स्वरूप नहीं खड़ा कर सकता। केशवदास के पचीसों पद्य ऐसे रखे जा सकते हैं
जिनमें यहाँ से वहाँ तक उपमाएँ और उत्प्रेक्षाएँ भरी हैं, शब्दसाम्य के बड़े-बड़े खेल-तमाशे जुटाए गए हैं, पर उनके द्वारा कोई मार्मिक अनुभूति नहीं
उत्पन्न होती। उन्हें कोई सहृदय या भावुक काव्य न कहेगा। आचार्यों ने भी अलंकारों
को ‘काव्य-शोभाकर,’ ‘शोभातिशायी’ आदि ही कहा है। महाराज भोज
भी अलंकार को ‘अलमर्थमलंकर्त्तुः’ ही कहते हैं। पहले से सुन्दर अर्थ को ही अलंकार
शोभित कर सकता है। सुन्दर अर्थ की शोभा बढ़ाने में जो अलंकार प्रयुक्त नहीं वे
काव्यालंकार नहीं। वे ऐसे ही हैं जैसे शरीर पर से उतारकर किसी अलग कोने में रखा
हुआ गहनों का ढेर। किसी भाव या मार्मिक भावना से असंपृक्त अलंकार चमत्कार या तमाशे
हैं। चमत्कार का विवेचन पहले हो चुका है।
अलंकार हैं क्या? सूक्ष्म
दृष्टिवालों ने काव्यों के सुन्दर-सुन्दर स्थल चुने और उनकी रमणीयता के कारणों की
खोज करने लगे। वर्णन-शैली या कथन की पद्धति में ऐसे लोगों को जो-जो विशेषताएँ
मालूम होती गई उनका वे नामकरण करते गए। जैसे, ‘विकल्प’
अलंकार का निरूपण पहले-पहल राजानक रुय्यक ने किया। कौन कह सकता है कि काव्यों में
जितने रमणीय स्थल हैं सब ढूँढ़ डाले गए, वर्णन
की जितनी सुन्दर प्रणालियाँ हो सकती हैं सब निरूपित हो गई अथवा जो-जो स्थल रमणीय
लगे उनकी रमणीयता का कारण वर्णन-प्रणाली ही थी? आदि-काव्य
रामायण से लेकर इधर तक के काव्यों में न जाने कितनी विचित्र वर्णन-प्रणालियाँ भरी
पड़ी हैं जो न निर्दिष्ट की गई हैं और न जिनके कुछ नाम रखे गये हैं।
कविता पर अत्याचार
(कविता
पर अत्याचार) भी बहुत कुछ हुआ है। लोभियों, स्वार्थियों
और खुशामदियों ने उसका गला दबाकर कहीं अपात्रों की—आसमान पर चढ़ानेवाली—स्तुति
कराई है, कहीं द्रव्य न देनेवालों की निराधार
निन्दा। ऐसी तुच्छ वृत्तिवालों का अपवित्र हृदय कविता के निवास के योग्य नहीं।
कविता-देवी के मन्दिर ऊँचे,
खुले, विस्तृत और पुनीत हृदय है। सच्चे कवि राजाओं की सवारी, ऐश्वर्य की सामग्री, में ही सौन्दर्य नहीं ढूँढ़ा करते। वे फूस के
झोपड़ों, धूल-मिट्टी में सने किसानों, बच्चों के मुँह में चारा डालते हुए पक्षियों, दौड़ते हुए कुत्तों और चोरी करती हुई बिल्लियों
में कभी-कभी ऐसे सौन्दर्य का दर्शन करते हैं जिसकी छाया भी महलों और दरबारों तक
नहीं पहुँच सकती। श्रीमानों के शुभागमन पर पद्य बनाना, बात-बात में उनको बधाई देना, कवि का काम नहीं। जिनके रूप या कर्म-कलाप जगत्
और जीवन के बीच में उसे सुन्दर लगते हैं उन्हीं के वर्णन में वह ‘स्वान्तःसुखाय’
प्रवृत्त होता है।
कविता की आवश्यकता
मनुष्य के लिए कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य-असभ्य
सभी जातियों में, किसी न किसी रूप में, पाई जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो,
पर कविता का प्रचार अवश्य रहेगा। बात
यह है कि मनुष्य अपने ही व्यापारों का ऐसा सघन और जटिल मंडल बाँधता चला आ रहा है
जिसके भीतर बँधा-बँधा वह शेष सृष्टि के साथ अपने हृदय का सम्बन्ध भूला सा रहता है।
इस परिस्थिति में मनुष्य को अपनी मनुष्यता खोने का डर बराबर रहता है। इसी से
अन्तःप्रकृति में मनुष्यता को समय-समय पर जगाते रहने के लिए कविता मनुष्य जाति के साथ लगी चली आ रही है और चली चलेगी।
जानवरों को इसकी जरूरत नहीं।
(चिन्तामणि)