रविवार, 29 अगस्त 2021

तुम चन्दन हम पानी : विद्यानिवास मिश्र

        घर में पिताजी और दो पितृव्य पूजा-पाठ बहुत निष्ठापूर्वक करते हैं, इसलिए तीन होरसे तो कम-से-कम घर में हैं ही। प्रतिदिन इन पर चंदन और प्राय: मलयागिरि चंदन ही घिसा जाता है। रक्तचंदन या देवी चंदन तो नवरात्र में या रविवार को ही इन होरसों पर घिसता है। इसलिए चंदन से बड़ी पुरानी जान-पहचान है। पाँच-छह वर्ष का था, मैं अपने बड़े पितृव्य के पास जाकर चुपचाप बैठ जाता था और उनका महिम्न स्त्रोत्र पूर्वक चंदन घिसना देखा करता था। पूजा उनकी घण्टों चलती थी। बीच-बीच में किसी वस्तु की आवश्यकता हुई, तो वे देव भाषा में ही संकेत करते और मैं ला देता। पूजा समाप्त होने पर गौरी, गणेश, पार्थिव शिव, एकादश रुद्र और श्री दुर्गासप्तशती तथा श्रीमद्‍भागवत पर चढ़ने से जो चंदन अवशिष्ट रहता था, उसको पितृव्य मेरे भाल पर या ग्रीवा में चर्चित करते और तब अपने भाल पर तिलक लगाते। इसके बाद प्रसाद देते, जिसके लोभ से मैं इतनी देर तक बैठा रहता था। उस चंदन-तिलक से भाल चर्चित करने के सुअवसर अब नहीं मिलते, पर उसकी सुरभिमन में यत्न से सुरक्षित है। कारण शायद यह हो कि जो उस समय मेरी जिज्ञासा के समाधान में पितृव्य चरण ने बतलाया था कि चंदन अपने-आप घिसकर बिना देवता को चढ़ाये अपने सिर पर लगाने से पाप होता है, उस वाक्य के पीछे युग की शिक्षा पर संघृष्ट महान्‍ सत्य की पावन स्मृति हो कि मनुष्य को अपने जीवन-संघर्ष से सुरभि अर्जित करने का अधिकार तभी मिलता है, जब वह अर्पित भाव से संघर्ष में रत होता है। या शायद चंदन के आमोद में पार्थिव आनदं के चरम उत्कर्ष की प्राप्ति होने के कारण जगदात्मा की उस चंदन से एकाकारता का भान हो, जिससे प्रेरित होकर किसी संत कवि ने गाया था- 'प्रभुजी तुम चंदन हम पानी' या शायद चंदन के तिलक से उभरे हुए उन गुरुजनों के व्यक्तित्व की मन पर गहरी छाप हो। बहराल, भाल चंदन-चर्चित हो न हो, मन मलयज से अब भी सुवासित है।

विद्या निवास मिश्र

सोचता हूँ प्रभुजी चंदन क्यों हैं? हम जिनके प्रति अपने को अर्पित कर रहे हैं, उन्हें अपने जीवन के साथ घिसने में सार्थकता क्या है? मुझे कभी-कभी तब यह ध्यान आता है कि काठ के टुकड़े की तरह सामान्य रूप से हमारे अंतस् के कोने में पड़ा हुआ चिदंश जब तक हमारे जीवन के साथ सम्पृक्त नहीं होता, तब तक वह निर्गुण, निरामोद और निर्व्यक्त बना रहता है ज्यों ही वह इस पार्थिव शरीर के शिलाखंड पर जीवन के छिड़काव से बार-बार रगड़ खाने लगता है, त्यों ही उसका गुण, उसका आमोद और उसका चैतन्य अभिव्यक्त हो उठते हैं। विश्वात्मा की सुषुप्त शक्ति स्फुरित हो जाती है। पर जो अभागा आदमी इस चंदन को घिसकर अपनी प्रेयसी का अंगराग बना डालता है, या अपने शारीरिक ताप का उपशम-साधन मात्र समझने लगता है, उसका जागरित, परिस्फुरित और प्रमुदित चिदंश पुन: उसकी प्रिया की विलासश्रमबिंदुओं या उसकी ही कायिक, मलिनताओं में घुलकर विलुप्त हो जाता है। जब विश्वात्मा के आंनद का वह लव कायिक धरातल से सुरभिकण के रूप में ऊपर उठता है तब चराचर विश्व में अभिव्याप्त आनंद-पारावार से एक होने के लिए, इसलिए इस सुरभि के अभ्युत्थान की सार्थकता इस पूर्णता की प्राप्ति में है, पूर्णता की प्राप्ति अर्थात्‍ एकांशिता से विमुक्त।

        नए मानवीय मानों पर बल देने वाले अभिनव मलयानिलों से मैंने यह संकेत पाया है कि मनुष्य महान है, वह दूसरे किसी महत्तर के प्रति अर्पित क्यों हो। भुजंगों से लिपटा हुआ चंदन का वृक्ष ही स्वत: महान्‍ है, वह आस-पास के कंकोल, निम्ब और कुटुज तक को चंदन बना डालता है। विषयों से परिवृत मानव अपने यश से अपने परिवेश में प्रत्येक युग में सुरभि भरता आया है, उसे अर्पित होने की क्या आवश्यकता है। ये मलयानिल दक्षिण से नहीं पश्चिम से आए हैं, अर्थात् दाएँ से नहीं पीछे से आए हैं। इनकी पुकार इसलिए पीछे मुड़कर सुनने की सबके मन में उत्कंठा-सी जग जाती है। सबसे बड़ा सृष्टि में मूर्धन्य कौन है? यह मनुष्य है। वह तब क्यों स्फीत होकर न चले, क्यों वह विनीत होने को विवश हो ?

        इस प्रश्न का उत्तर देने का साहस कौन करे? मुझे तो जयदेव के प्रसिद्ध विरह-गीत की कड़ियाँ बरबस याद आ जाती हैं :

निंदति   चंदनमिंदुकिरणमनुविंदति    खेदमधीरम।

व्यालनिलयमिलनेनगरलमिव कलयति मलयसमीरम।।

सा विरहे तव दीना माधव! मनसिजविशिखभयादिव भावनया त्वयि लीना।।

माधव के विरह में राधा अंग में आलिप्त चंदन को अधिक्षिप्त करती हैं और चंद्रमा की शीतल किरणों से दुख पाती हैं। सर्पों के वास से सम्पर्क होने के कारण मलय-समीर को विषतुल्य अनुभव करने लगती हैं, क्योंकि ये माधव के विरह में दीन हैं और पुष्पधन्वा के बाणों से भयभीत होकर भावना के द्वारा माधव में ही लीन होने का उपाय रच रही हैं। तो ऐसा समय भी आता है, जब चंदन की निंदा होती है, जब माधव, अपने प्रत्यगात्मा, अपने पारमार्थिक रूप, अपनी विश्वप्रसृत क्षमता और अपने आदर्श से बिछुड़ जाते हैं, मलयज का मान तभी है, जब मलयज भारवाही पवन सागर-प्रक्षालित चरणों से हिम मण्डित मुकुट तक उत्तर यान के लिए ललित गति से सतत प्रवहमान है। चंद्रिका का मान तभी है , जब मन में अविकल और पूर्ण काम चंद्रप्रकाश मान है, मनुष्य का गौरव भी तभी है तब वह अपने आप में अधिष्ठित है। जिस क्षण वह आत्म-विश्लिष्ट हो जाता है, उस क्षण वह अत्यंत हेय बन जाता है। इसलिए जब वह अपने को परात्पर के लिए अर्पित करता है, तब उस समय वह सचमुच बिकता नहीं है। उल्टे उसी समय उसका गिरा हुआ मूल्य एकदम ऊँचे चढ़ जाता है, क्योंकि उसके लघुतर और क्षुद्रतर अंश स्वयं उसी के बृहत्तर और महत्तर अंशी के प्रति प्रणत होते ही उसे बृहत्तर और महत्तर सत्ता से एकाकार कर देते हैं। जो नर के नियत भावी उत्कर्ष में विश्वास करेगा, वही नारायण में भी विश्वास करेगा, क्योंकि 'नराणां नरोत्तम' और नारायण दोनों वंदनीयता की समान कोटि में आते हैं। 'नार' का अर्थ पुराणों और स्मृतियों में जल अर्थात आदि सृष्टि कहा गया है, इस आदि सृष्टि में अभिव्याप्त सत्ता का नाम ही नारायण कहा गया है। इसलिए नरों में जो नरोत्तम होना चाहता है, उसे स्वभावत: नारायाणा भिमुख होना ही पड़ता है, क्योंकि नर का अर्थ ही है अपने में सिमटा हुआ। जिन लोगों ने मनुष्य मात्र को नमो नारायण कहकर प्रणाम करने की परंपरा चलायी, वे मनुष्य की अंतर्निहित शक्ति के सबसे बड़े दृष्टा थे, वे मनुष्य के विस्तार शील रूप को आवाहित करना जानते थे, इसलिए सामान्य से सामान्य जन को देखकर वे यही कहते थे, नारायण को नमस्कार है, तुम्हारे अंदर जो विश्व-भावना तत्त्व है, उसे नमस्कार करता हूँ ताकि वह तत्त्व तुम्हारी क्षुद्रता और संकीर्ण्ता के बहिरावण को फोड़कर बाहर आए।

        शायद कुछ लोग 'प्रभुजी हम चंदन, तुम पानी' कहकर मानव की क्षुद्रता और दुर्बलता को गौरव देना चाहें और कहें कि जरा-सा-उलट दिया, बात तो वही है, चाहे खरबूज गिरे छुरी पर या छुरी गिरे खरबूजे पर, खरबूजे का कटना अवश्यम्भावी है, चाहे प्रभुजी चंदन हों और हम पानी हों चाहे हम चंदन हों, प्रभुजी पानी हों, घिसना तो अवश्यम्भावी है, तो उनका तर्क तो बहुत ठीक है; परंतु चंदन तब नहीं घिसेगा। तो जरा-सा हमारा पानी लगता है और प्रभु का चंदन पसीज जाता है; पर हमार छोटा-सा चंदन प्रभु के अपार कृपा सिंधु में होरसा समेत बह निकलेगा, फिर चंदन घिसने की बात भी समाप्त हो जाएगी। इस सम्भावना को वे लोग एकदम भूल जाते हैं वस्तुत: छोटाई-बड़ाई की यह सापेक्षता किसी बाहरी वस्तु की तुलना में नहीं की गई है। प्रत्येक मनुष्य स्वयं अपने में ही छोटाई-बड़ाई दोनों से समवेत है और दोनों की सापेक्षता अपने में ही वह अल्प-मात्र आयास से अनुभव कर सकता है।

        मेरे बड़े दादा मिट्टी सानकर पार्थिव शिव की सुंदर आकृति बनाते, उनके आस-पास मिट्टी का ही गौरी गणेश रचते और चारों ओर ग्यारह रुद्रों की पंक्ति मिट्टी की ही खड़ी करते, तदनंतर इनके ऊपर रुद्राभिषेक के मंत्रों से जलाभिसिंचन करते और इन पर चंदन चढ़ाते। चंदन-चर्चित हो जाने पर ही उन्हें वे अन्य गंध-मालय, धूप-दीप और नैवेद्यादि का अधिकारी मानते। मैं समझता हूँ कि वे अपनी पार्थिव सीमा में बँधे महादेवता को अपने पवित्रतम जीवन से रससिक्त करने के अनंतर अपने जीवन के साथ संघृष्ट उत्कृष्टतम महत्त्व वासना का आमोद चढ़ाकर रही अपने महादेवता को पूर्ण प्रतिष्ठा दे पाते थे, या यों कहें अपने में दूर फैलने की महान बनने की और निर्माण करने की जो भी शक्ति सन्निहित है, उसको अपूर्णरूप से जगाकर ही मनुष्य अपने को प्रकाश का अधिकारी बना सकता है। निवेदनीय पात्र बनकर नैवेद्यका भोक्ता बना सकता है। इज्य बनकर धूप अर्थात-आहुति का अधिकारी बना सकता है। इसलिए पहले चंदन को, जो प्रभु का ही जड़ीभूत रूप है, जीवन के संस्पर्श से शरीर को शिला की तरह दृढ़ आधान बनाकर घिसो; तब तक घिसो , जब तक नख न घिस जाएँ। "चंदन घिसत-घिसत घिस गयो नख मेरोवासना न पूरत माँग को सँवार।" तानसेन के इस ध्रुपद की यह पुकार है कि जब तक वासना न पूरे तब तक नख घिस भी जाए, घिसने की प्रक्रिया न रुके, वासना पूरी तरह से जब तक इस चंदन के साथ घिसकर उतर न आए, तब तक वह चंदन अर्पणीय कैसे होगा! और यदि इस पूर्ण तल्लीनता के साथ चंदन घिसते ही तो चंदन बिना चढ़ाये ही जहाँ चढ़ाना है चढ़ जाएगा और तुम चंदन घिसते ही रहोगे, तुम्हारे चंदन का अर्चनीय तुम्हें तुम्हारे अनजाने में चंदन से तिलक कर जाएगा। "तुलसीदास चंदन घिसें तिलक देत रघुवीर।" यह न हो कि चंदन तो उतारते जाओ, पर उसी को भूल जाओ, जिसके लिए तुम चंदन उतारने बैठे थे, जैसा कि मेरे एक संबंधी के यहाँ के एक ब्राह्मण देवता किया करते हैं। निष्काम-भाव से वे छटाँक-छटाँक भर चंदन उतार डालते हैं और जब चंदन उनकी आवश्यकता से कहीं अधिक उतर जाता है, तो कई घर जाकर अनेक पुजारियों को इस लोभ में दे आते हैं कि चंदन घिसने में उनका जो परिश्रम बचा, उसके बदले में वे कुछ दे दें। मैं जानता हूँ ऐसे परार्थ-घटकों का, कहीं भी जाइए, अभाव नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में जाइए तो कई एक ऐसे साहित्य के सेवी मिलेंगे, जो किसी-न-किसी पुजारी के लिए रात-दिन चंदन उतारते ही रहते हैं। बदले में कुछ दान-दक्षिणा मिल ही जाती है। राजनीति के क्षेत्र में तो बड़ा पुजारी केवल आरती के समय ही आता है। चंदन उतारना तो हमेशा टुकड़खोरों के कर्तव्य-वितरण की सूची में आता है।

        हाँ, केवल रक्तचंदन उतारने वाला पुजारी निष्काम भाव से चंदन नहीं घिसता। वह तो शक्ति का पुजारी होता है। जिसके मस्तक पर वह रक्तचंदन का तिलक लगा देगा , वह या तो पशु होगा या फिर वीर ही होगा। पशु होगा, तो बलि होगा और वीर होगा, तो मुक्त होगा। मलयज घिसा जाता है, तो गंध जगती है; पर रक्त चंदन जब घिसा जाता है, तब राग जगता है। इस राग से रंजित होकर या तो मनुष्य बिल्कुल अध:पतित ही होता है, या फिर ऊँचे उठता है, या तो उसका उठान निस्सीम हो जाता है। मलयज में प्रभु की कृपा अधिक घिसती है और अपना जीवन यापन अल्पमात्र लगता है; रक्तचंदन उतरने में देवी की प्रेरणा कम, अपने जीवन का रस अधिक लगता है। इसलिए यह वक्रपंथगामियों की उपासना में ही अधिक उपयोगी माना जाता है। राजमार्ग पर चलने वाले धवल वेशधारियों के मस्तक पर यह फब ही नहीं सकता। यह तो सुनसान अंधकारित पथों पर निर्भय विचरण करने वाले नीलकंचुक धारियों के उज्ज्वल भाल का शृंगार है।

        काव्य में एक पथ के पांथ हैं तुलसीदास और दूसरे के कालिदास। तुलसी शील की छांह में छँहाते चलते हैं, और कालिदास बिजलियों की कौंध से आँखें मिलाते चलते हैं। तुलसी में मलयज की तरह ताप-निवारण की क्षमता है, कालिदास में लोहित चंदन की तरह उन्मादन राग-विवर्धन की शक्ति है। एक तीसरा भी पंथ है, केशर या हल्दी के रंग में मलयज को संसक्त करके तिलक देने वालों का। रागात्मिका भक्ति के द्वारा दक्षिण और वाम पंथ के बीच सहज समाधान प्राप्त करने वालों का। इनके तिलक में बंकिमा और सादगी दोनों होती है। सूरदास, हितहरिवंश, व्यास आदि इसी पंथ के प्रणेता हैं। और एक चौथा चंदन भी है, जिसको वैष्णव जन गोपी-चंदन कहते हैं। मेरी एक परम वैष्णव चाची हैं, वे बतलाती हैं कि जिस सरोवर में गोपियों ने स्नान करके अपने प्रेष्ठ भगवान का साक्षात्कार पाया, उस सरोवर की मिट्टी ही समर्पित गोपी के अंग से लगकर चंदन बन गई है। सम्भवत: जितने भी दुराव, आवरण और आत्मसंकोच आदि कृपणभाव हो सकते हैं, उन सबसे मुक्त होकर अपने को निश्शेष भाव से जो अपने सर्वश्रष्ठ काम के लिए अर्पण करते हैं, तो मलयाचल की तरह अपने आश्रय-मात्र को चंदन बनाने में वे समर्थ हो ही जाते हैं हाँ, यह गोपी-चंदन बहुत ही उच्चतर भूमिका वाले सिद्ध भक्तों के लिए ही है।

        पर मैं तो यह मानता हूँ कि चंदन जो भी हो, किसी रंग में भी सना हो, वह हमारी विश्वभावना का ही एक शुष्कप्राय खंड है , जिसे रस-सिक्त करना हमारा सतत कर्तव्य है। जिस किसी भी शिला का हम होरसा बनवाएँ, वह धरती पर टिकी हो, संघर्षण में वह डगमागाने वाली न हो। हम जो कोई भी जल सींच-सींचकर चंदन को आर्द्र करें; वह शुचि हो, स्वच्छ हो और अभिमंत्रित हो। हम तिलक जो भी लगाएँ, वह अर्पित चंदन का तिलक हो, स्वार्थ संघृष्ट न हो, सुविस्तृत विश्व को सुरभित करने से जो बचा हो, वही हम अपने सिर-आँखों लें, इसी में हमारी भव्य परंपरा की अभिवृद्धि और हम सभी के अंत:करणों का सौमन्य सन्निहित है। तत्त्वत: हमीं चंदन हैं, हमीं पानी हैं। हमीं होरसा हैं, हमी कटोरी हैं, जिसमें चंदन रखा जाता है। हमीं अर्चनीय देवता हैं और हमीं अर्चक भक्त हैं; पर यह हमारा विस्तार बोध भी तभी जगता है, जब हम प्रभु को चंदन और अपने को पानी मानकर चलते हैं। उदात्त रूपों का आकार सामने रखकर उनसे उनका सार ग्रहण करते हुए जीवन में उतारना है, यह ध्येय सामने रखकर चलते हैं और जो भी उदात्त गुण हम अर्जित करते हैं, उनको विश्वहित में विनियोजित करने का संकल्प लेकर चलते हैं।

        यही हमारी चंदन-चर्चा की पारमार्थिक परिभाषा है और इसी से हमारे गंधहीन, नि:स्व, रिक्त सांस्कृतिकम्मन्य जीवन में चंदन मांगल्य का अंग बना हुआ है। लिलार हमारा चाहे चंदन लगाने से चर्राने लगे और चंदन लगाते ही हम अपने को दशहरे के हाथी जैसा उपहसनीय प्राणी मानने लगें; पर हमारे अंतर्मन में चंदन का छिड़काव अभी गीला है, क्योंकि हमारे अक्षर अज्ञान के भीतर वह रागिनी अभी जागती है, जिसके किवाड़ चंदन के बनते हैं, जिसकी चौकी चंदन से गढ़ी जाती है, जिसके द्वार पर चंदन का बिरवा रोपा जाता है, जिसके गलहार भी चंदन के ही बनते हैं और जिस पर चंदन लिप्त हथेलियों की छाप पड़े बिना मंगल विधि नहीं पूरी होती। वह रागिनी ही जनता-जनार्दन की चंदन-खण्डिका है, जो एक कठोर विचार पीठिका पर बराबर ग्राम देवता की विलीयमान आनंदाश्रु बिंदुओं से परिषिक्त होकर घिसी जा रही है, घिसते-घिसते वह अब सूत मात्र रह गई है। उसकी सुरभि बिखर रही है; पर देवता नहीं उठ रहा है। कारण मैं नहीं जानता केवल इतना जानता हूँ कि निर्ममता से इस चंदन के छोटी-सी टुकड़ी को न घिसो। इसे सँभालकर घिसो. देवता को जगाओ, जिसके उद्‍बोधन से प्रत्येक काष्ठ चंदन बन लहक उठे। जिन भुजंगों के विष के भय से पेड़-के-पेड़ सूख-से गए, उनको भुजदंड बजाने वाले हिमवासी शंकर का इस तप्त मिट्टी के पिंड में आवाहन करो। वे चंदन स्वीकारें, जिससे जन-चेतना और उमंगित होकर पसरे, चंदन की महक प्रत्येक दिशा में फैले और चंदन का छिड़काव प्रत्येक पथ पर हो जाय। तभी हमारा बचा-खुचा पानी सार्थक होगा और तभी चंदन की प्रचुरता हमें इतना उदार बनने की प्रेरणा देगी कि चंदन की कुटी छवाकर निंदक को भी अपने निकट रख सकें। तभी चंदन-चर्चित संस्कृति का मंगलास्पद रूप अपना नवोत्कर्ष पा सकेगा।


(पण्डित विद्यानिवास मिश्र का यह ललित निबंध उत्तर प्रदेश के नए एकीकृत पाठ्यक्रम में कक्षा बी ए द्वितीय वर्ष के हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए रखी गयी है। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए हम पाठ्यक्रम के मूल पाठ को क्रमशः रखने का प्रयास कर रहे हैं। उसी कड़ी में यह निबंध। शीघ्र ही हम इसका पाठ कथावार्ता के यू ट्यूब चैनल पर प्रस्तुत करेंगे। - सम्पादक।)

शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

Kathavarta : प्रभाती : रघुवीर सहाय की कविता


आया प्रभात
चंदा जग से कर चुका बात
गिन गिन जिनको थी कटी किसी की दीर्घ रात
अनगिन किरणों की भीड़ भाड़ से भूल गये
पथऔर खो गये वे तारे।

अब स्वप्नलोक
के वे अविकल शीतल अशोक
पल जो अब तक वे फैल फैल कर रहे रोक
गतिवान समय की तेज़ चाल
अपने जीवन की क्षणभंगुरता से हारे।

जागे जनजन
ज्योतिर्मय हो दिन का क्षण क्षण
ओ स्वप्नप्रियेउन्मीलित कर दे आलिंगन।
इस गरम सुबहतपती दुपहर
में निकल पड़े।
श्रमजीवीधरती के प्यारे।

 रघुवीर सहाय

श्रमजीवी


सोमवार, 28 जून 2021

Kathavarta : तांडव का सॉफ्ट वर्जन है ग्रहण

-डॉ रमाकान्त राय 

डिजनी हॉटस्टार पर हालिया प्रदर्शित वेब सीरीज #ग्रहण (#Grahan) मशहूर लेखक सत्य व्यास की औपन्यासिक कृति "चौरासी" पर केंद्रित है। देश में 31 अक्टूबर, 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके अंगरक्षकों द्वारा हत्या कर दी गई थी। उसके बाद कांग्रेस दल के कार्यकर्ताओं ने अगले दो दिन तक देश भर में सिख समुदाय के लोगों को चिह्नित कर मारा। उनके घर जला दिएमहिलाओं के साथ बलात्कार किया और बच्चों को जलती आग में झोंक दिया। केन्द्रीय नेतृत्व मूक बधिर बना रहा। नव नियुक्त प्रधानमंत्री ने कहा था कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो आसपास कंपन होता ही है। यह एकतरह से खुली छूट थी। अकेले दिल्ली में पांच हजार से अधिक सिख मारे गए।

कालांतर में 1984 के इस नरसंहार को "सिख दंगा" कहा गया और इसे सांप्रदायिक हिंसा के रूप में देखे जाने के लिए विमर्श किया। आज भी एकतरफा किए गए इस कत्लेआम को बुद्धिजीवी "दंगा" कहते और लिखते हैं।

हिन्दी में 1984 के सिख नरसंहार को केंद्र में रखकर लिखे गए साहित्य का अभाव है। राही मासूम रज़ा के असंतोष के दिनअजय शर्मा के नाटक ऑपरेशन ब्लू स्टार आदि को छोड़ दिया जाए तो कुछ भी ढंग का नहीं लिखा गया है। बनारस टाकीज और दिल्ली दरबार से लोकप्रिय हुएलुगदी लेखक सत्य व्यास का उपन्यास चौरासी इसी नरसंहार को केंद्र में रखकर लिखा गया है जिसपर आठ एपिसोड का वेबसीरीज "ग्रहण" डिजनी हॉटस्टार पर प्रदर्शित हुआ है।

सिख नरसंहार केवल राजधानी दिल्ली में नहीं हुआ था। इसकी लपटें पूरे देश में उठीं। ऑपरेशन ब्लू स्टार अर्थात अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर में अलगाववादी खालिस्तानी समर्थक भिंडरावाला को पकड़ने के अभियान के बाद सिख समुदाय आक्रोशित था। सांप्रदायिक मामले में राजनीतिक हस्तक्षेप ने स्थितियों को गंभीर बना दिया था। इसके भयंकर दूरगामी परिणाम हुए।

सिख नरसंहार ने अब के झारखण्ड प्रांत के औद्योगिक नगर बोकारो में भी अपनी छाप छोड़ी थी। बोकारो में उस अवधि में जो कुछ हुआउसी को आधार बनाकर यह वेबसीरीज बनाई गई है। घटना के लगभग बत्तीस वर्ष बाद भी उस नरसंहार की जांच पूरी नहीं हो पाई। 2016 में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में इस नरसंहार के लिए एक एस आई टी बिठाई जाती है।

          इससे पहले रांची में एक पत्रकार की हत्या की जाती हैजो बोकारो सिख नरसंहार पर रिपोर्ट बना रहा था। तब एसपी अमृता सिंह इसके साजिशकर्ताओं तक पहुंचना चाहती हैं किंतु अदृश्य कारकों के दबाव में उन्हें इस मामले से हटा दिया जाता है और 84 के "दंगो" की जांच के लिए बनाई कमेटी का मुखिया बना दिया जाता है। उसके अनुक्रम में भी उथल पुथल चलती रहती है।

कहानी में एक प्रेमकथा 1984 की है और एक 2016 की। हिन्दी फिल्मेंवेबसीरिज गानों और प्रेम के लटको झटकों में खूब रमती हैं। यह भी उसका शिकार हुई है। जैसे तैसे यह प्रेम आगे बढ़ता है और कई मीठे दृश्यों का सृजन करता हैलेकिन वह तो अवांतर कथा है।

मूल कथा हैराजनीति। हिन्दी फिल्में राजनीतिक पटकथाओं का सबसे घटिया स्वरूप प्रस्तुत करती हैं। जब मैं इसे तांडव का सॉफ्ट वर्जन कहता हूं तो आशय यही है कि तांडव जिस तरह लचर राजनीतिक कहानी का उदाहरण हैग्रहण भी। यदि घटना सत्य हैदेश और काल वही हैं तो राजनीतिक हस्तियां भी वास्तविक होनी चाहिए क्योंकि वह एक संवैधानिक पद धारण करते हैं। हम सत्य घटना पर साहित्य निर्मित करेंगे तो रांचीबोकारोझारखंड, 84, 2016 आदि सही रखकर मुख्यमंत्रीविपक्ष के नेता आदि का नाम केदार और संजय कैसे कर सकते हैंलेकिन खैर!

जैसे तांडव में एक एजेंडा रखकर पटकथा लिखी गई थी और छात्र राजनीति,किसान आंदोलनफर्जी मुठभेड़उग्र सांस्कृतिक राष्ट्रवाद आदि को बहुत आसमानी किताब के आधार पर बढ़ाया गया थाग्रहण में भी। इसमें भी राजनीति की दुरभिसंधियां हैंप्रशासनिक भ्रष्टाचार हैदलित और मुस्लिम उभार है। नरसंहार की बजाय दंगा कहना भी एक सॉफ्ट प्वाइंट है। सामुदायिक गोलबंदी और हिंसा का सरलीकरण है। यह सब तांडव में भौंडे तरीके से थाग्रहण में सॉफ्ट।

Review of Grahan In Hindi

सिखों के साथ हुए दुर्व्यवहार को सामुदायिक हिंसा के रूप में दिखाने का प्रयास हुआ है। सामुदायिक गोलबंदी के लिए सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार वाले वीडियो सर्कुलेट करने आदि को जिम्मेदार ठहराया गया है। यह सब इतना सरलीकृत और छिछला है कि जी उचट जाए।

मैंने सत्य व्यास की लिखी पुस्तकें देखी हैंउनकी समीक्षाएं पढ़ी हैं और मुझे विश्वास था कि वह लुगदी साहित्य के लेखक हैं। लुगदी लेखक कहने का आशय यही है कि इनके लिखे हुए में तार्किकता और सुचिंतित विचार सरणी का सर्वथा अभाव रहता है। यह एक विशेष वर्ग को ध्यान में रखकर लिखा जाता है और इसमें एक विशेष एजेंडा निहित रहता है। जाने अनजाने ही यह सब आ जाता है। कई बार अतिरिक्त और अनावश्यक मसाला डालने के बाद व्यंजन जिस तरह अरुचिकर और हानिकर हो जाता हैलुगदी वाले भी वही परोसते हैं।

          ग्रहण प्रेम के कुछ लटके झटके वाले दृश्यों में मधुर है किन्तु उतना ही जितना हम एक कौर बहुत रंगीन/ऊपर से स्वादिष्ट दिखने वाले डिश को देखकर मुंह में रखते हैं। ज्योंहि हमारी इंद्रियां सक्रिय होने लगती हैंखाद्य अरुचिकर बन जाता हैउसी तरह इस वेबसीरिज के भी।

    इस वेबसीरिज में पात्रों का अभिनय स्तर ठीक ठाक है। पात्रोंपवन मल्होत्राज़ोया हुसैनअंशुमान पुष्करवमिका गब्बीटीकम जोशीसत्यकाम आनंद ने खूब परिश्रम और लगन से अपनी भूमिकाएं निभाई हैं। फिल्मांकन भी स्तरीय है। अनावश्यक दृश्य हैं किंतु उनमें भौंडापन और अश्लीलता नहीं है।

इसमें झारखंड के निवर्तमान मुख्यमंत्री (केदार) हेमंत सोरेन की इमेज बिल्डिंग की गई है और उन्हें शिबू सोरेनपिता के छाया से निकलने के लिए दृढ़ संकल्पित दिखाया गया है। इस क्रम में न चाहते हुए भी शिबू सोरेन को तिकड़मी और असहाय दिखाना पड़ा है। सत्य व्यास ने कहानी लिखते हुए इस पहलू पर विशेष राजनीतिक पक्ष रखा है। इंदिरा गांधी को भी भाषण करते दिखाया गया है और इसमें भी ऐतिहासिकता और प्रमाणिकता का अभाव है।

ग्रहण को कितना रेट करें। पांच अंक के अधिकतम में मैं इसे ढाई अंक इसलिए दूंगा कि इसने सॉफ्ट वर्जन बनाने में अपनी मेधा प्रदर्शित की है। उस तरीके के लूप होल्स नहीं छोड़े हैंजैसा कि तांडव आदि में है। इस नरसंहार को दंगा कहने के लिए तो मैं दो अंक काट लूंगा। नायक ऋषि रंजन बहुत तीक्ष्ण बुद्धि और हरफन मौला है किंतु मृतक आश्रित की नौकरी के लिए चप्पलें घिस रहा हैवह भी 1984 में! यह सब अविश्वसनीय और इतिहासबोध के अभाव में है। वस्तुत: जिस दृष्टि संपन्नता से गंभीरता आती है और रचना बड़ी हो जाती हैवही लुगदी साहित्य में विलुप्त हैइसलिए ग्रहण पर उसकी छाया भी दिखती रहती है। इसका निर्देशन रंजन चंदेल ने किया है।

 

असिस्टेंट प्रोफेसरहिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालयइटावा

206001, royramakantrk@gmail.com

9838952426

(जुड़ियेहमारे यू ट्यूब चैनल से-   कथावार्ता सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष)

शुक्रवार, 25 जून 2021

Kathavarta : आपातकाल पर केन्द्रित हिन्दी साहित्य

  भारतीय लोकतंत्र में सन १९७५ से १९७७ का वर्ष आपातकाल का है। २५ जून१९७५ को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की थी। और सभी मानवाधिकारों को स्थगित कर दिया था। प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक बिनोवा भावे ने आपातकाल को 'अनुशासन पर्व' कहा था और प्रगतिशील लेखक संघ ने इस आपातकाल का बचाव किया।

कथावार्ता : सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष

        आपातकाल पर केन्द्रित साहित्य बहुत कम है। हिन्दी में लिखे गए रचनात्मक लेखन में आपातकाल लगभग अनुपस्थित है।

आपातकाल की सांकेतिक छवि

आपातकाल की सांकेतिक छवि

    हमने यहां आपातकाल में और उसके बाद हिन्दी में लिखे गए साहित्य की एक सूची बनाई है। यह सूची मूल्यवान होगीऐसी अपेक्षा है। 

 

#जीवनी-

आपातकाल का धूमकेतु, राजनारायण- डॉ युगेश्वर

 

#उपन्यास - 

राही मासूम रज़ा का उपन्यास कटरा बी आरजू

निर्मल वर्मा का उपन्यास रात का रिपोर्टर

मुद्राराक्षस का उपन्यास 'शांतिभंगऔर  

रवींद्र वर्मा का उपन्यास 'जवाहर नगर'

 

#पत्रिकाएं -

"सारिका" पत्रिका के अनेक अंक (कमलेश्वर के संपादन में)

"स्वदेश" पत्र,

"पहल-३ और ४" पत्रिका,

उत्तरार्ध पत्रिका के ८ से १५ तक के अंक (संपादक सव्यसाची)

 

#गजलें -

कल्पना और सारिका के तत्कालीन अंकों में छपीं दुष्यंत कुमार की गजलें,

 

#कविता - 

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की "आपातकाल" शीर्षक कविता,

भवानी प्रसाद मिश्र की "आपातकाल" और "चार कौवे उर्फ चार हौवे" कविता,

दुष्यंत कुमार की "चल भाई गंगाराम भजन कर"

बाबा नागार्जुन की "मोर ना होगा...उल्लू होंगे"

जयकुमार जलज की "गैर रचनाधर्मी" 

हरिभाऊ जोशी की "विजयनी संघर्ष",

जगदीश तोमर की "काली आंधी के विरुद्ध",

राजेंद्र मिश्रा की "फिर सुबह" और "एक दर्शक की तरह",

प्रेमशंकर रघुवंशी की "आदेश सो रहे हैं",

कुमार विकल की "इश्तहार",

नीलाभ की "सन उन्नीस सौ छिहत्तर",

केदारनाथ अग्रवाल की "ओट में खड़ा मैं बोलता हूँ" संकलन में दो कविताएं ......

 

#कहानी -

 पंकज बिष्ट की "खोखल"

असगर वजाहत की "डंडा"

 

#डायरी -

चंद्रशेखर की जेल डायरी

-डॉ रमाकान्त राय

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावाउत्तर प्रदेश

9838952426

 

रविवार, 20 जून 2021

Katha-Varta : कथावार्ता के बारे में

कथावार्ता’ भारतवादी विचारधारा से ओतप्रोतशिक्षासाहित्य और संस्कृति को समर्पित ब्लॉगयू ट्यूब चैनल और एक सांस्कृतिक आंदोलन है। कथावार्ता पर हम आपके लिए इन्हीं विषयों से संबन्धित सामग्री प्रस्तुत करते हैं।

        कथावार्ता संस्कृत का संज्ञा शब्द है। यह स्त्रीलिंग के रूप में व्यवहृत होता है। इसका अर्थ है- 

        १. समसामयिक विषय पर होने वाली चर्चा अथवा बातचीत

        २. अनेक प्रकार की चर्चा

                ३.  पौराणिक अथवा धार्मिक कथाओं की चर्चा आदि।

        ‘कथावार्ता’ इसी अर्थ को किंचित व्यापक आयाम में लेकर चलने का संकल्प है। हमने कथावार्ता में उक्त के अतिरिक्त साहित्यिकसांस्कृतिक और राजनीतिक तथा सामाजिक विषयों को भी ध्यान में रखकर लिखे गए साहित्य को यहाँ रखा है और भविष्य में भी रखने का निश्चय किया है। कथावार्ता में ‘चर्चा’ एक व्यापक अर्थ धारण करने वाला शब्द हैजिसका आशय है-  

         १.   वार्तालापबातचीतविचार-विमर्शपरिचर्चा

         २.   बहसवाद-विवाद 

         ३.   बयानज़िक्र

४.   किंवदंतीबहुत से लोगों में फैली हुई बात।

कथावार्ता में आये कथा (Katha) का आशय है-

१.   कहानी ; बीते हुए जीवन की घटनाओं का क्रमवर्णनकिस्सा 

२.   वह जो कही जाएजैसेधर्मविषयक आख्यानकिसी घटना की चर्चा

३.   हालखबर।

        कथावार्ता अपने ब्लॉग और यू ट्यूब चैनल पर कहानी और उसकी विविध विधाओं को केंद्र में रखकर प्रस्तुतियाँ करती है। कथावार्ता के विविध पक्ष हैं। इसे अर्थ सहित इस तरह रखा जा सकता है-

       कथाकार-

         कथा लिखने वालाकहानीकारउपन्यासकारकथावाचक।

        कथानक अथवा कथावस्तु

         छोटी कथाकहानी या उपन्यास की आधारकथाकथावस्तुप्लॉट

        कथामुख

१.   कथा की भूमिका

२.    पत्रकारिता के क्षेत्र में पहले के सभी आमुखों के बदले दिया गया एक नया आमुख।

        कथावाचक

१.   कथा कहने या सुनाने वालाकथा उद्घोषक

२.   पूजा आदि में कथा सुनाने वाला।

३.   कहानी पढ़कर सुनाने वाला

        कथाशिल्प

        कथा लिखने का कलात्मक पक्षउपन्यासकार या कथाकार के लिखने की शैली।

        वार्ताकार

१.   बातचीतवृत्तांत या हालचाल सुनाने वाला व्यक्ति

२.    खबर सुनाने वाला

३.   ज्ञानवर्धक बात या कथा सुनाने वाला व्यक्ति।

        अङ्ग्रेज़ी में KathaVarta का अनुवाद ‘Narrative Dialogue’ भी किया गया है। कथा और वार्ता दोनों ही कहानी/बात कहने के लिए प्रयुक्त होते हैं। इस तरह कथावार्ता में ‘कहन’ एक विशेष पक्ष है। वार्ता को Discussion, Discourse, Talk के साथ संबन्धित कर देखा जाता है।

हम कथावार्ता में नए लेखकों को प्रोत्साहित करते हैं और उन्हें आमंत्रित करते हैं कि वह लिखेंपढ़ें और हमसे जुड़कर इस आंदोलन को आगे बढ़ाएँ। आप अपनी रचनाएँ हमें royramakantrk@gmail.com पर भेजें या इनबॉक्स करें-  डॉ रमाकान्त राय  के डीएम में। 


कथावार्ता की विशेष उपस्थिति है-  

ट्विटर-  कथावार्ता 

यू ट्यूब-  कथावार्ता 

फेसबुक पेज-  कथावार्ता


- डॉ रमाकान्त राय

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उत्तर प्रदेश

royramakantrk@gmail.com

9838952426

रविवार, 13 जून 2021

कथा समीक्षा : उषा राजे सक्सेना की कहानी ऑन्टोप्रेन्योर : आधुनिक स्त्री का आदर्श

-डॉ. कुलभूषण मौर्य

प्रवासी कथाकार उषा राजे सक्सेना यूनाइटेड किंगडम में बसी भारतीय मूल की लेखिका हैं। वे अपने लेखन के माध्यम से प्रवासी भारतीयों के अपने देश के साथ सम्बन्धों को पुख्ता करती हैं। प्रवास मेंवाकिंग पार्टनरवह रात और अन्य कहानियाँ के माध्यम से वे अपने देश भारत की सभ्यतासंस्कृति और भाषा के प्रति प्रेम को उजागर करती हैं। साथ ही प्रवासी भारतीयों के मन में घर वापसी की उम्मीद को कायम रखती हैं। उषा राजे सक्सेना की कहानी ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ वर्तमान की भाग-दौड़ भरी जिन्दगी में रिश्तों की गर्माहट को बचाये रखने की मर्मस्पर्शी गाथा है।

       ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ का अर्थ है- वित्तीय जोखिम उठाने वाला उद्यमी। उषा राजे की कहानी का यह शीर्षक कथा की मूल संवेदना को अपने भीतर समेटे हुए है। कथा नायिका के लिए व्यंग्य के रूप में प्रयोग होने वाला ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ शब्द उस समय एकदम सही साबित होता हैजब वह अपने पति के लिए सचमुच वित्तीय जोखिम उठाती है और अपनी सिंगापुर यात्रा को टाल देती है। वह ऑन्टोप्रेन्योर हैप्रोफेशनल हैकिन्तु पारिवारिक रिश्तों को निभाने में भी पीछे नहीं है।

      ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ रो और तिश नामक दो किशोरों के किशोरावस्था से युवावस्था में प्रवेश करने और अपने महत्वाकांक्षी लक्ष्य को प्राप्त करते हुए जीवन जीने की कथा है। रो और तिश की जान-पहचान बस से यात्रा करते हुए होती है। दोनों की बात-चीत से पता चलता है कि रो का पूरा नाम रोहन बिसारिया है और तिश का तुशारकन्या राय। यानी कि दोनों भारतीय मूल के हैं और साउथ लंदन के स्ट्रेथम के एक ही इलाके में रहते भी हैं। जिस समय दोनों की प्रथम मुलाकात होती हैदोनों ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के छात्र थे। रो फ्रेंच लिटरेचर में बी.ए. आनर्स कर रहा था तो तिश मीडिया और फैशन डिजाइनिंग में। दोनों की यह जान-पहचान धीरे-धीरे चाहत में बदल जाती है। किन्तु रो अपने पिता के स्वास्थ्य के कारण बात-चीत को आगे बढ़ाने से हिचकता है। रो अपनी घरेलू परेशानियों से घिरा है। पिता के खराब स्वास्थ्य के कारण उसे माँ के साथ फार्मेसी की दुकान में हेल्प करनी पड़ती है। रो और तिश दोनों ही अपने कैरियर को लेकर गम्भीर हैं। आर्ट और म्यूजिक के साथ स्पोट्र्स में भी रो की गहरी दखल थी । तिश भी मीडिया और फैशन डिजायनिंग के साथ पब्लिक स्पीकिंग में ए लेवल करती है। साथ ही हर गुरूवार को वह सालसा लैटिन अमेरिकन नृत्य का प्रशिक्षण लेती है। शुक्रवार और शनिवार को हैरडस के एकाउंट डिपार्टमेंट में काम करती है और रविवार को भारतीय विद्या भवन में कथक सीखती है। तिश अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील है और भविष्य को लेकर महात्वाकांक्षी है।  

        रो की किशोरावस्था की जान-पहचान घर से दूर जाकर ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से मास्टर डिग्री लेते हुए और घनिष्ठ होती है। वे एक दूसरे से प्रेम करने लगते हैं किन्तु विवाह के नाम पर तिश तैयार नहीं होती क्योंकि वह अपना स्वयं का बिजनेस करना चाहती है। यह बात वह रो से साफ-साफ कह देती है। मास्टर करने के बाद रो क्वींस कॉलेज में कामर्स विभाग में अध्यापन करने लगता है और तिश नॉर्थ लंदन के टैलिस्मान फैशन फर्म में काम करती है। वहाँ दोनों साथ ही रहते हैं। तिश अपना व्यापार स्थापित करने के लिए भारत में मुंबई जैसे शहर को चुनती है और मुंबई चली जाती है। कुछ दिनों के बाद रो भी मुंबई विश्वविद्यालय के कॉमर्स विभाग में फ्रेंच पढ़ाने लगता है। दोनों मुंबई में साथ ही रहते हैं। रो के माता-पिता के दबाव के कारण दोनों विवाह के बन्धन में इस वादे के साथ बँध जाते हैं कि ‘‘शादी के बाद तुम मुझे ट्रेडिशनल पत्नी के रोल मॉडल में ढलने का दबाव नहीं डालोगे और साथ ही मेरे व्यवसाय के मामले में टोका-टोकी नहीं करोगे।’’ रो और तिश का दाम्पत्य जीवन कुछ दिन तो ठीक चलता है किन्तु जैसे-जैसे तिश अपने व्यवसाय को बढ़ाती हैवह काम में उलझती जाती है। वह रो को समय नहीं दे पाती। इससे रो की खिन्नता बढ़ती जाती है। वह अपने को छला हुआ महसूस करता है । जब वह तिश से अपने माता-पिता को मुंबई बुलाने की बात करता है तो तिश मना कर देती हैउल्टे उसे ही लंदन हो आने की सलाह देती है। इससे रो के मन को ठेस पहुँचती है। वह गुस्से में यूनिवर्सिटी जाने के लिए निकलता है। ड्राइवर को पिछली सीट पर बैठा कर खुद ड्राइव करता है। तेज रफ्तार के कारण गाड़ी टकरा जाती है और रो गम्भीर रूप से घायल हो जाती है। व्यवसाय के सिलसिले में सिंगापुर के लिए निकल रही तिश को जब एक्सिडेंट की सूचना मिलती है तो वह सिंगापुर की यात्रा रद्द कर देती है। स्वयं की जगह अपनी असिस्टेंट को मीटिंग के लिए जाने को कहकर वह अस्पताल पहुँचती है। रो की स्थिति ज्यादा गम्भीर न होने पर वह चैन की साँस लेती है और रो के माता-पिता को मुंबई बुलाने के लिए फोन करती है। वह उनके बीजा से लेकर टिकट तक का प्रबन्ध स्वयं करती है। इससे रो के माता-पिता के मन में तिश के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में जो अवधारणा थीवह बदल जाती है। साथ ही रो की सोच में भी परिवर्तन आता है। रो और उसके माता-पिता तिश को न केवल एक सफल व्यवसायी के रूप में देखते हैं एक व्यवहार कुशल पत्नी के रूप में भी वह खरी उतरती है। रो को यह बात समझ में आती है कि स्वयं के खालीपन को भरने के लिए तिश को बन्धन में डालने की बजाय स्वयं को रचनात्मक रूप से सक्रिय करना चाहिए और वह अपने लिए पेंटिंग क्लास शुरू करने की सोचता है।

       ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ कहानी में मुख्य पात्र तिश है। उषा राजे ने तिश को आज के परिवेश की स्त्री के रूप में रचा है। वह कथा की नायिका है। तिश एक महत्वाकांक्षी लड़की है। अपनी पढ़ाई से लेकर कैरियर तक वह लक्ष्य केन्द्रित है। अपने छात्र जीवन से ही वह अपने व्यक्तित्व को निखारने को लेकर तत्पर है। तिश अपने भविष्य पर फोकस्ड एक मध्यमवर्गीय महत्वाकांक्षी लड़की है। जीवन के हर क्षण का आनन्द लेते हुए वह आगे बढ़ती है। रो को लेकर वह प्रतिबद्ध तो हैकिन्तु अपना स्वतन्त्र अस्तित्व खोना नहीं चाहती। वह विवाह के बन्धन में इसलिए बँधना नहीं चाहती कि उसे घर की जिम्मेदारयिाँ उठानी पड़ेंगी। वह एक ऐसी आधुनिक स्त्री के रूप में सामने आती हैजो जीवन के हर क्षेत्र में सफल साबित होती हैं। अपने काम को लेकर वह गम्भीर है। ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ उसके चरित्र के लिए सटीक बैठता है। वह वित्तीय जोखिम उठाने वाली उद्यमी हैइसीलिए वह सफल होती है। लेकिन वह रिश्तों को लेकर कहीं भी लापरवाह नजर नहीं आती। वह रो से कहती है-‘‘मेरे जीवन में तुम्हारी अपनी जगह है। तुम मेरे लिए महत्वपूर्ण होपर मेरे बिजनेस और महत्वाकांक्षाओं से ऊपर नहीं।’’ वह रो से रुकावटें न डालने का वादा लेकर उससे विवाह कर लेती है। रो के माता-पिता की नजर में भी वह व्यवहार कुशल और प्रियदर्शिनी है। तिश को आरम्भ से ही व्यस्त जीवन पसन्द है। वह एक पल भी शान्त नहीं बैठना चाहती। व्यस्त रहते हुए भी घर और परिवार को व्यवस्थित रखती है। उसके चरित्र का सबसे उन्नत पहलू वहाँ सामने आता हैजब वह रो के एक्सिडेंट में घायल होने पर सिंगापुर की अपनी महत्वपूर्ण मीटिंग कैंसिल कर देती है और रो के माता-पिता को बिना किसी तकलीफ के मुंबई बुलाने का प्रबन्ध करती है। यहाँ वह साबित कर देती कि व्यवसाय उसके लिए महत्वपूर्ण होते हुए भी पारिवारिक रिश्तों की अहमियत उसके जीवन में कम नहीं है। वह अपने जीवन साथी के लिए उसकी मुश्किलों में उसके साथ खड़ी है। वह अपने कार्य और पारिवारिक जीवन में संतुलन रखने वाली संवेदनशील और सक्षम स्त्री है। 

         रो विदेश में पला-बढ़ा एक संतुलित जीवन जीने वाला युवक है। वह अपनी पढ़ाई को लेकर गम्भीर है। साथ ही पारिवारिक जिम्मेदारी को समझने वाला है। पिता के खराब स्वास्थ्य के कारण उसे पढ़ाई के साथ ही दुकान पर भी बैठना पड़ता है। वह मास्टर डिग्री और पीएचडी करने के बाद अध्यापन करता है। इसके साथ ही वह भावनात्मक है। वह छात्र जीवन से ही तिश से प्रेम करता है किन्तु अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण बता नहीं पाता। आर्थिक रूप से सक्षम हो जाने पर वह तिश के साथ के लिए ही क्वींस कॉलेज छोड़कर मुंबई चला जाता है और तिश की हर शर्त को मानते हुए उससे विवाह करता है। किन्तु उसके भीतर कुछ कमजोरियाँ हैं। तिश की व्यस्तता उसे परेशान करती है। वह खिन्न रहता है और स्वयं को छला हुआ महसूस करता है। इतना ही नहीं वह क्रोधी भी है। तिश के व्यवहार से वह अपमानित महसूस करता है और आत्मघाती कदम उठाता है। तिश का गुस्सा गाड़ी के एक्सिलेटर पर निकालता है। फलस्वरूप् दुर्घटना का शिकार होता है। किन्तु दुर्घटना के पश्चात वह पाश्चाताप करता है। रो का व्यक्तित्व से उस समय पुरूष मानसिकता की गंध आती हैजब तिश अपने क्लाइंट के साथ दिल्ली चली जाती है। तिश रो को ‘लेड बैक’ कहती हैजो दस वर्ष पूर्व जहाँ खड़ा थावहीं आज भी है।

       तिश के अलावा कहानी के पात्रों में रो के माता-पितारो का मित्र मनीषशान्ताबाईनईम आदि हैं। रो के माता-पिता शोभना और अभय भारतीय हैंजो अच्छे भविष्य के लिए लंदन में रहते हैं। रिटायर होने के बाद वे फार्मेसी की दुकान चलाते हैं। रो के माता-पिता लंदन के स्व़च्छन्द वातावरण में रहते हुए भी रूढ़ियों और परम्पराओं से बँधे हैं। वे अपने बेटे रो का पारिवारिक जीवन सुखी देखने की मंशा रखने वाले माता-पिता हैं। वे पूर्वाग्रह से मुक्त हैं। तिश को लेकर जो उनके मन मे पूर्व धारणा बनी हैवह तिश की व्यवहार कुशलता को देखकर बदल जाती है। मनीष भारतीय मूल का युवक है। वह अपने परिवार की जिम्मेदारी को उठाने के लिए पढ़ाई के साथ ही पेट्रोल-पम्प पर कार्य भी करता है। वह अपने मित्र के प्रेम को पुख्ता करने की कोशिश करता दिखाई देता हैजैसा कि सभी मित्र होते हैं। शान्ताबाई एक सुरुचिपूर्णकुशलप्रशिक्षितहाउसकीपर हैजो अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी समझती है। नईम तिश का ड्राइवर और मैसेन्जर है। शान्ताबाई और नईम दोनों भरोसेमन्द और जिम्मेदार हैंजिनके ऊपर जिम्मेदारियाँ डालकर निश्चिन्त हुआ जा सकता है।

            उषा राजे सक्सेना संवादों के माध्यम से कहानी को आगे बढ़ाती हैं। कहानी के कथानक के अनुसार लम्बे और छोटे दोनों प्रकार के संवादों की रचना उन्होंने ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ कहानी में की है। संवाद के माध्यम से तिशरोउसके माता-पिता और मनीष की जीवन स्थितियाँउनकी मनोदशाभविष्य को लेकर उनके विचार उजागर होते हैं। एक संवाद देखिए-

  रो ने तिश का मन टटोला तो जिश चकित-सी बोली- ‘‘रो हम दोस्त हैं। एक दूसरे के लिए प्रतिबद्ध होते हुए भी स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं। शादी के बारे में मैंने कभीं सोचा ही नहीं।

   ‘‘ममा पापा शादी के लिए मुझ पर दबाव डाल रहे हैं। ज्यादा दिन उनको टालना मुश्किल होगातिश।’’

    ‘‘रो हम दोस्त हैं और दोस्त ही रहेंगे। शादी हमारे संबंधों को संकुचित करेगी। वे तुम्हारे ममा पापा हैं। उन्हें हैंडल करना तुम्हारा काम है।’’

  आगे कुछ सोचकर उसने कहा, ‘‘मेरे कैरियर का मेरे जीवन में अहम स्थान है रो। मैं घर की जिम्मेदारियाँ नहीं उठा सकती हूँ। शादी के बाद तुम्हारी अपेक्षाएँ मुझसे बहुत बढ़ जायेंगीं। तुम जानते होमेरा कैरियरमेरा व्यवसाय मेरे लिए महत्वपूर्ण है।’’

  ‘‘और मैंतुम्हारी जिन्दगी में क्या स्थान रखता हूँ तिश।’’ रो ने ठंडी सांस लेते हुए पूछा।

   ‘‘मेरे जीवन में तुम्हारी अपनी जगह है। तुम मेरे लिए महत्वपूर्ण हो। पर मेरे बिजनेस और महत्वाकांक्षाओं से ऊपर नहीं। तुम अभी जैसे होनिश्चिन्त , केयर फ्री स्वभाव केमुझे वैसे ही अच्छे लगते हो। शादी के बाद तुम मेरी चिंता करने का रोल ले लोगेयह मुझे अच्छा नहीं लगेगा।’’ उसने उसे बाहों में भर कर एक चुलबुलाता हुआ लम्बा चुंबन देते हुए कहा।

    ‘‘सच ?’’

   ‘‘हाँसच।’’ उसने ईमानदारी से कहा।

               यह संवाद रो और तिश के प्रेम को उजागर करने के साथ ही तिश के जीवन के प्रति दृष्टिकोण को उजागर करती है। इस संवाद के माध्यम से तिश एक सशक्त और संभावनाओं से भरी हुई आधुनिक युवती के रूप में सामने आती है। पूरी कहानी इस तरह के संवादों से भरी है। संवाद विषय के अनुरूप कहानी को आगे बढ़ाने वाले हैं।

        विदेशी पृष्ठभूमि पर रची गयी ‘ऑन्टोप्रेन्योर की कहानी साउथ लंदन के स्ट्रेथम से होते हुए ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के साथ ही क्वींस कॉलेज और नॉर्थ लंदन तक घूमती है। कहानी में रो और तिश की बात-चीत में यूनाइटेड किंगडम के स्वच्छन्द परिवेश की झलक मिलती है। साथ ही यूनाइटेड किंगडम की वेलफेयर एस्टेट की सुख-सुविधाओं का भी जिक्र हुआ हैजो बृद्धजनों को जीने का सहारा देती है। कहानी का अन्त भारत में हुआ है। भारत को एक उभरते हुए राष्ट्र के रूप में चित्रित किया गया हैजिसमें भविष्य की अपार संभावनाएँ छिपी हैं। कहानी किशोरों और युवाओं के मनोभावों को व्यक्त करती है।

       ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ कहानी का शीर्षक ही अंग्रेजी भाषा का है। पूरी कहानी में हिन्दी और अंग्रेजी के मिले-जुले शब्दों का प्रयोग करके भाषा को बोलचाल की भाषा बनाया गया है। भाषा विषयानुकूल है। किशोरों और युवाओं के आपसी संवाद में जिस तरह के अश्लील शब्दों का प्रयोग बढ़ा हैउषा राजे ने भाषा भी उसी के अनुकूल रखी है। ‘नितम्ब’ के लिए ‘बम’ जैसे शब्दों का प्रयोग किशोर मानसिकता का ही परिचायक है। लंदन के परिवेश पर आधारित कहानी में अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग अधिक होयह स्वाभाविक ही है। कोई भी वाक्य बिना अंग्रेजी शब्दों के पूरा नहीं हुआ है। कहीं-कहीं तो पूरा का पूरा वाक्य ही अंग्रेजी का है। कहानीकार ने नितम्ब के लिए ‘पिछवाड़ा’ और ‘चूतड़’ जैसे भदेस शब्दों का भी प्रयोग किया है। उषा राजे ने कहानी में वर्णनात्मक और संवादात्मक दोनों शैलियो का कुशल निर्वाह किया है। संवादों की अधिकता कहानी को कहीं भी उबाऊ नहीं होने देती।

        ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ कहानी को उषा राजे ने एक सार्थक दिशा देते हुए अपने उद्देश्य तक पहुँचाया है। तिश के माध्यम से उन्होंने एक सशक्त स्त्री चरित्र को रचा हैजो स्त्री-विमर्श को नया आयाम देती है। स्त्री-विमर्श में जहाँ इस बात की चर्चा होती रहती है  कि स्त्री को कितनी स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता लेनी चाहिएउसकी कार्य-शैलीपहनावा कैसा होना चाहिएउसकी सेक्स लाइफ कैसी होनी चाहिएउषा राजे तिश के माध्यम से स्त्री की एक नई छवि पेश करती हैं। तिश एक ऐसी उद्यमी है जो अपने रिश्तों को लेकर भी प्रतिबद्ध है। वह घर से लेकर बाहर तक सबकुछ व्यवस्थित रखती है। वह ट्रेडिशनल पत्नी नहीं बनना चाहतीपारिवारिक बन्धनों में नहीं बँधना चाहती किन्तु शारीरिक सम्बन्धों को लेकर स्वच्छन्दता भी नहीं चाहती। वह जहाँ बिना बताये दिन्ली चली जाती हैवहीं रो का एक्सिडेंट होने पर सिंगापुर की महत्वपूर्ण यात्रा भी स्थगित कर देती है। तिश के रूप में उषा राजे वर्तमान के अन्ध आधुनिकतावादी दौर में संवेदनशील और सक्षम स्त्री का चरित्र रचती हैंजो एक व्यवहार-कुशल ऑन्टोप्रेन्योर है। यह आधुनिक स्त्री का आदर्श स्वरूप हो सकता है।

       भौतिकतावादी दौर में जहाँ भारत का युवा वर्ग विेदेश जाने के सपने देखता हैउषा राजे तिश और रो की भारत वापसी दिखाकर भारत को एक सशक्त राष्ट्र के रूप में चित्रित करती हैंजिसमें अपार संभावनाएँ निहित हैं। तिश कहती है-‘‘इंडिया आज संभावनाओं से भरा एक ऐसा शक्तिशाली देश बनकर उभरा है कि सारा संसार उसकी तरफ नजरें उठाए देख रहा है। पश्चिम का ब्रेन ड्रेन भारत का ब्रेन गेन है।’’ यह कथन भारत की आर्थिक शक्ति को प्रमाणित करता है। कहानी में पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति की ओर आकर्षित हो रही युवा पीढ़़ी के लिए यह संदेश है कि भारत भी अपनी संस्कृति और नयी सोच एवं आर्थिक गतिविधियों से विदेश में निवास करने वालों का ध्यान आकर्षित कर रहा है। अमेरिका और इंग्लैण्ड जैसे देश भी भारत में आउट सोर्सिंग कर रहे हैंइंवेस्टमेंट कर रहे हैं। कहानी में भारतीय युवाओं के लिए जो सबसे बड़ा संदेश छिपा हैवह है- रो और तिश का पढ़ाई के प्रति समर्पण। दोनों अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इतना ही नहीं व्यक्तित्व के निखार के लिए अलग-अलग गतिविधियाँ करते हैं। तिश की जीवन शैली अनुकरणीय हो सकती है। वह सबके बीच संतुलन बनाते हुए अपने आप को व्यस्त रखती है। रो के मन में जो खिन्नता हैउसका कारण यही है कि वह खाली है। नौकरी के अलावा उसने दूसरी रुचि नहीं विकसित की है। यदि हम अपने को व्यस्त रखते हैं तो अनावश्यक तनाव और खिन्नता से अपने आप को बचा सकते हैं और आज के तनाव भरे माहौल में भी स्वयं को प्रसन्न रख सकते हैं। हमें अपनी खुशी के लिए दूसरे की ओर देखने की आवश्यकता नहीं होगी। इतना ही नहींकहानी घर वापसी का स्वप्न देख रहे भारतीय मूल के निवासियों के मन में भी आशा पल्लवित करती है।

डॉ कुलभूषण मौर्य

(मूलतः आजमगढ़ के निवासी डॉ कुलभूषण मौर्य युवा आलोचक और प्रतिभावान प्राध्यापक हैं। वह वर्तमान में  के० बी० झा महाविद्यालय, कटिहार में सहायक प्राध्यापक हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त डॉ मौर्य की एक पुस्तक "भारतीय स्वाधीनता आंदोलन और अमरकांत" नाम से प्रकाशित हो चुकी है। कुलभूषण मौर्य समसामयिक विषयों और आधुनिककालीन साहित्यिक विमर्शों पर लगातार लिखते रहते हैं। उनका संपर्क- मो. नं. 8004802485 है।

#कथावार्ता #Kathavarta1 पर उनका पहला लेख। इस लेख में उन्होंने उषा राजे सक्सेना की कहानी ऑन्टोप्रेन्योर पर आधुनिक स्त्री विमर्श और वृत्ति के आलोक में देखने का प्रयास किया है। यह कहानी प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में भी है, यह आलेख विद्यार्थियों के लिए आवश्यक सामग्री बनेगी, यह विश्वास है। 

ऑन्टोप्रेन्योर: उषा राजे सक्सेना की कहानी यहाँ क्लिक करके पढ़ी जा सकती है - सम्पादक।)

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