शुक्रवार, 5 जून 2020

कथावार्ता : भारतीयता की तलाश और कुबेरनाथ राय


कुबेरनाथ राय : पुण्यतिथि विशेष - 01

-डॉ मनोज राय

भारत और भारतीयता की बात को फैशन के तौर पर जहां-तहां खूब उठाया जाता रहा है। शिक्षाविद से लेकर राजनीतिक कार्यकर्ता तक सभी अपने-अपने हिसाब से सक्रिय हैं। पर सच तो यह है कि यह सिर्फ स्थापित पार्टी-राजनीति के लंबरदारों के कानों तक पहुंचाने की कोशिश भर ही है। तात्कालिक लाभ के लिए इसे एक हथकंडे (टूल) की तरह इस्तेमाल करना हम सब की आदत बन गई है। कोई नारे लगवाकर अपनी स्पृहा की संतुष्टि चाहता है तो कोई दूसरों से ज्यादा स्वयं को राष्ट्रभक्त साबित करना चाहता है। कुल मिलाकर कहें तो उसके तत्वों के विश्लेषण के गंभीर प्रयत्न नहीं हो रहे हैं। दरअसल भारतीयता को समझने के लिए भारतीय मानसको समझना जरूरी है। यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें अनुसंधान और चिंतन बहुत कम हुआ है। आज जब देश में विघटनमूलक और विच्छिन्नतावादी राजनीति अपना रूप बदल-बदलकर सक्रिय है तब इस पर गहन चिंतन-मनन की आवश्यकता और बढ़ जाती है।



          भारतीयता पर विचार करते हुए  हिन्दी के प्रसिद्ध ललित निबंधकार और गांधीवादी चिंतक श्री कुबेरनाथ राय एक साथ अनेक प्रश्न उठाते हैं : भारतीयता क्या है? इसका ढांचा कैसा है? इसकी परिभाषा क्या है? इसकी आवश्यकता क्या है? इसकी पहचान कैसे की जाय’? भारत से हम कैसे जुड़ सकते हैं? हम जानते हैं कि ये प्रश्न नए नहीं हैं। पर ये प्रश्न इसलिए जरूरी हैं कि इन प्रश्नों ने हमारी कई पीढ़ियों को उद्वेलित किया है और आज भी इस पर बहस जारी है किन्तु किसी निश्चयात्मक उत्तर तक हम नहीं पहुँच पाये हैं। शायद पहुंचा भी नहीं जा सकता है- भारतीय संस्कृति या भारतीयता क्या है? यह एक अति प्रश्न (चरम प्रश्न) है। अति प्रश्नका उत्तर परिभाषित करना संभव नहीं। जहां परिभाषा संभव नहीं वहाँ एक मात्र समाधान है पहचानबनाना। (मराल,पृ.160)  इस उद्घोष के साथ ही श्री कुबेरनाथ राय लेखन क्षेत्र में उतरते हैं और न केवल उतरते हैं अपितु इसकी पहचान की तलाश में गंगातीरी/भोजपुरी इलाके से लगायत ईशानकोण से प्रवहमान ब्रह्मपुत्र और काजीरङ्गा  तक की यात्रा करते/कराते  हैं।

          कुबेरनाथ राय अपने लेखन-उद्देश्य के प्रति सतत जागरूक रहे हैं-‘‘सच तो यह है कि मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध है, नहीं तो अंतर का हाहाकार। पर इस क्रोध और आर्तनाद को मैंने सारे हिंदुस्तान के क्रोध और आर्तनाद के रूप में देखा है। इन निबंधों को लिखते समय मुझे सदैव अनुभव होता रहा : अहं भारतोऽस्मि(रस-आखेटक, पृ॰195) अपने एक निबंध संग्रह के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए वे लिखते  हैं- निषाद-बांसुरीसंग्रह का एक गौण उद्देश्य यह भी है : भारतीयता का प्रत्यभिज्ञान, अर्थात भारत की सही आइडेंटिटीका पुनराविष्कार, जिससे वे जो कई हजार वर्षों से आत्महीनता की तमसा में आबद्ध रहें हैं.....।’’ (निषाद बांसुरी, पृ॰244)  श्री राय अपने सम्पूर्ण लेखन में उनकी अनिमेष लोचन-दृष्टि भारतीयता के गुणसूत्रों की तलाश करती है- जिस भारतकी बात मेरे सम्पूर्ण साहित्य में आती गई है वह है इस देश का चिन्मयऔर मनोमयसंस्करण। वह चिन्मय और मनोमय रूप किसी प्रकार की क्षुद्रता और संकीर्णता से ऊपर है। शिवत्व, बुद्धत्व, रामत्व ही इसके प्रतीक हैं। (मराल, पृ- 168)


          
श्री राय की नजर में यह भारतीयताकिसी एक की बपौती नहीं अपितु संयुक्त उत्तराधिकारहै और इस उत्तराधिकार के रचयिता सिर्फ आर्य ही नहीं रहे हैं। वस्तुत: आर्यों के  नेतृत्व में इस संयुक्त उत्तराधिकार की रचना द्रविड़-निषाद-किरात ने की है। ग्राम-संस्कृति और कृषि-सभ्यता का बीजारोपण और विकास निषाद द्वारा हुआ है। नगर सभ्यता, कला-शिल्प, ध्यान-धारणाभक्तियोग के पीछे द्रविड़ मन है। आरण्यक शिल्प और  कला-संस्कारों  में किरातों का योगदान है।  श्री राय के लिए भारतीयताकोई अमूर्त भाव अथवा यूटोपिया नहीं है अपितु प्रत्यक्ष सगुण रूप है- मुझसे जब कोई पूछता है कि भारतीयता क्या हैतो मैं इसका एक शब्द में उत्तर देता हूँ, वह शब्द है रामत्व’-राम जैसा होना ही सही ढंग की भारतीयता है। हमारे युग में  भी एक पुरुष ऐसा हो गया था जिसने राम जैसा होने की चेष्टा की और बहुत कुछ सफल भी रहा। वह पुरुष था महात्मा गांधी।” (त्रेता का वृहत्साम, पृ.165) श्री राय के लिए भारतकोई मानसिक भोगया भौगोलिक सत्तानहीं है। यह उससे बढ़कर एक प्रकाशमय, संगीतमय भाव-प्रत्यय या चैतन्य-प्रतिमा का रूपतो है ही अधिक सत्य एवं शाश्वत भी है। (कामधेनु, पृ.90) श्री राय का आग्रह है कि भारतको मात्र एक राजनीतिक और भौगोलिक इकाई के रूप मे न देखकर उसे भारतीय मनुष्य, भारतीय धरती और भारतीय संस्कार के त्रिक के रूप में देखना चाहिए। एक राजनीतिक इकाई मात्र मान लेने से भारतका अस्तित्व एक मतदाता सूची में बदल जाता है।  एक भौगोलिक  इकाई मात्र स्वीकार कर लेने पर उसका बंटवारा हो सकता है। पर एक संस्कार समूह और बोध सत्ता के रूप मे उसका विशिष्ट निराकार रूप कालजयी है- भारत की यह निराकार मूर्ति  (अर्थात संस्कार समूहके रूप में) सूक्ष्मतर होने की वजह से अधिक कालजयी है। कोई जवाहरलाल या कोई जिन्ना इसकापार्टीशनया बंदर-बाँट नहीं कर सकता।” (कामधेनु, पृ.-90) महात्मा गांधी ने भी हिन्द-स्वराजमें इसी बात को थोड़ा और गर्वीले भाव में कहा है -हिंदुस्तान को बहुत से अक्ल देने वाले आए और गए पर हिंदुस्तान जस का तस रहा। अपने एक अन्य निबंध संग्रह मरालमें श्री राय भारतीयताको और भी स्पष्ट करते हैं- अत: रामशब्द के मर्म को पहचानने का अर्थ है भारतीयता के सारे स्तरों के आदर्श रूप को पहचानना..... सही भारतीयता क्षुद्र, संकीर्ण राष्ट्रीयता के दम्भ से बिल्कुल अलग तथ्य है। यह सर्वोत्तम मनुष्यत्वहै। पूर्ण भारतीयबनने का अर्थ  है रामजैसा बनना।” (मराल, पृ.163)

          कुबेरनाथ राय की दृष्टि में भारत भूगोल से ज्यादा एक जीवन दर्शन और एक मूल्य परंपरा है’, जिसे वे  ‘मनुष्यत्व का महायानकहते हैं। (उत्तरकुरु, पृ.-105) इसके पीछे के कारणों को भी वे स्पष्ट करते हैं- इसी जम्बूद्वीप में देवता मनुष्य के लोक में नीचे उतरकर मनुष्यों के साथ मिश्रहोकर रहते आये हैं। (उत्तरकुरु, पृ.-105)  देवता से उनका तात्पर्य किसी पारलौकिक सत्ता से न होकर देवोपम जीवन दृष्टि से है। वे लिखते हैं वह सारी मानसिक ऋद्धि, मानसिक दिव्यता जिसकी कल्पना देवता में की जाय यदि किसी मनुष्य में उतर जाये तो वह देवोपम हो जाता है। (उत्तरकुरु, पृ.-105-6) इसी देवोपम की पहचान ही असल में भारतीयताकी पहचान है। इस पहचान-स्वरूप की निर्मिति के लिए वे इतिहास में पसरे कला, शिल्प, शास्त्र के खोह में प्रवेश करते चले जाते हैं और वहाँ से भारतीयता की मणिलेकर निकलते हैं।   


          
प्रसिद्ध समाजशास्त्री डा श्यामाचरण दुबे ने अपने निबंध भारतीयता की तलाशमें भारतीयता की सही समझ की कुछ पूर्व शर्तों की ओर इशारा किया है, जिनमें इतिहास दृष्टि’, ‘परंपरा बोध’, ‘समग्र जीवन-दृष्टिऔर वैज्ञानिक विवेकप्रमुख हैं। (समय और संस्कृति, पृ- 44-5) श्री राय के लेखन में यह चतुरानन-दृष्टिहर जगह देखने को मिलती  है। भारतीयताकी पहचान के लिए जिस शास्त्रीय, स्थानीय और क्षेत्रीय परम्पराओं के अंतरावलंबन की  सूक्ष्म समझ की आवश्यकता पर डॉ श्यामाचरण दुबे ने जोर दिया है, वह श्री राय को संस्कार में मिली है। कला-शिल्प की आंतरिक संरचना और बुनावट को जिस आत्मीयता से वे प्रस्तुत करते हैं, वह अद्भुत तो है ही असल भारतीय मनका प्रमाण भी है। महाकवि कालिदास की अमरकृति शकुंतलाउनके लिए दुष्यंत-शकुंतलाकी प्रणय-गाथा मात्र न होकर भारतीयता की निर्मितिके एक महत्वपूर्ण कोण की तरफ इशारा करती है। उनकी दृष्टि में यह कथा आर्येतर और आर्य के महासमन्वय और वर्णाश्रम के सही ऐतिहासिक स्वरूप की ओर इशारा करने के साथ ही भारतीय धर्म साधना की पूर्णांगता को भी प्रस्तुत करती है, जिसके अनुसार काम और तप परस्पर विरोधी न होकर सहजीवी हैं। भारत के जल-जंगल-जमीन को लेकर लिखे गये उनके निबंधो में भारतीयताका इंद्र्धनुषी रूप देखने को मिलता है। इस आसेतु हिमाचल वसुंधराको वे मामूली मिट्टी मानने के लिए कत्तई तैयार नहीं हैं। यह उनके लिए साक्षात देव-विग्रहहै जिसे कोई जय नहीं कर सकतामहीमातानिबंध में भारतवर्ष के मृण्मय स्वरूप की सार्थक विवेचना करते हुए श्री राय ने यह सिद्ध किया है कि भारत का सिर्फ झंडा ही तिरंगा नहीं  है अपितु मिट्टी के रंग की दृष्टि से यह भारतवर्ष तिरंगा, त्रिवर्णी भूमि है- सादी, लाल और काली। श्री राय की नजर में यह स्वर्णगर्भा वसुंधरा है, शस्य लक्ष्मी,... साक्षात माता है। (निषाद बांसुरी, पृ.-84)

          श्री राय एक जगह लिखते हैं कि भारतीय सभ्यता में बाह्य तत्वों को आत्मसात करने की अपूर्व क्षमता थी। ऐसे तत्वों का भारतीय सांस्कृतिक परिवेश में अनुकूलन भी हुआ,समाकलन भी। सच तो यह है कि भारतीयता का विकास एक लम्बी सांस्कृतिक यात्रा है। यह प्रक्रिया निरंतर जारी है। लेकिन आज परिस्थितियां भिन्न हैं। आज हम पर फिर चौतरफा आक्रमण हो रहा है। हर्षवर्धनोत्तर काल में जो स्थिति पैदा हुई थी कुछ वैसी ही परिस्थितियां आज फिर से हमारे सामने उत्पन्न हो गई हैं। आज बड़ी सफाई और बारीकी से भारतीयताको कुचलने की कोशिश हो रही है- भारतीयता के सगुण प्रतीक महात्मा गांधीके नाम को ही मिटाने की कोशिश हो रही है। इसी के साथ अन्नों के देशी बीज, पशुओं की देशी नस्लें, देशी भूषा और सज्जा, देशी भाषा और शब्दावली सब कुछ से हमें धीरे-धीरे काटने की कोशिश चालू है जिससे हम सर्वथा जड़-मूलहीन हो जाएँ। अत: ठहरकर सोचने की जरूरत है। आज हमारे लिए जरूरी है कि पश्चिमी मानसिकता को निरंतर उधार लेने की जगह अपने देशी मानसिक उत्तराधिकारों की चर्चा करें। (उत्तरकुरु, पृ.-70) सरस्वती के वरद पुत्र श्री कुबेरनाथ राय की यह चिंता अत्यंत सहज और स्वाभाविक है। उनके लेखन का गम्भीर अनुशीलन आवश्यक है। भारतीयताके महत्वपूर्ण प्रतीकों की सारगर्भित विवेचना जिस ईमानदारी और प्रमाणिकता के साथ उन्होने अपने निबंधों में की है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। आज समय की मांग है कि हम उसे समझकर सही परिप्रेक्ष्य में समाज के सामने रखें। 

          श्री राय की एक बड़ी चिंता है हमारा अपनी जड़ों से अपरिचित होना। प्रसिद्ध समाजशास्त्री  डॉ श्यामा चरण दुबे ने भी स्वीकार किया है कि जड़ों की तलाश एक बुनियादी सवाल है। वह एक सार्थक जिज्ञासा से जुड़ा है और अस्तित्वबोध को एक नया आयाम और नए मूल्य देता है।” (समय और संस्कृति, पृ.-44) श्री राय का मानना है कि पिछले डेढ़-दो सौ वर्षों में इस आर्ष चिंतन को अँग्रेजी भाषा के माध्यम से गलत ढंग से समझा और परोसा जा रहा है। स्वतंत्र भारत के बुद्धिजीवी अपने निजी पर्यवेक्षण, अपनी भारतीय दृष्टि और अपने भारतीय स्रोतों के आधार पर आर्ष चिंतन और भारतीय समाज को समझने तथा तत्संबंधी सिद्धांतों को विकसित करने की अपेक्षा पश्चिमी अवधारणाओं और प्रत्ययों के सहारे अपने अधूरे सरलीकरण प्रस्तुत कर रहे हैं जिनसे देश का भयानक अहित अवश्यंभावी है। सच तो यह है कि भारतीय चिंतन और संरचना को ठीक-ठीक समझने के लिए भारतीय बुद्धिजीवियों को अपना निजी समाजशास्त्र या देशी नृतत्वशास्त्र या सौन्दर्य शास्त्र विकसित करना चाहिए। श्री राय इन्हीं जड़ों की तलाश में निरंतर मानसिक यात्रा करते रहे हैं। श्री राय विदेशी विद्वानों से विचारों के आदान-प्रदान के विरोधी नहीं हैं। परंतु गांधी की ही तरह अपने घर की खिड़कियों को खोले रखने के साथसाथ अपनी निजी-देशी-सोंधी जमीन-हमारे हरि हारिल की लकड़ी’-को मजबूती से पकड़े रखने का आग्रह करते हैं। श्री राय उसी आर्ष चिंतन परंपरा के प्रामाणिक दस्तावेज़ के साथ हमारे सामने उपस्थित होते हैं। इसके लिए वे नृतत्व शास्त्र के साथ-साथ भाषा विज्ञान का भी सहारा लेते हैं और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भारतवर्ष को जानने के लिए भारतऔर भारतीय विश्वको जानना आवश्यक है। भारतीयता की तलाश का रास्ता-लेखन नीरस और उबाऊ न हो इसके लिए उन्होने आवश्यकतानुसार लालित्यका खूब सहारा लिया है। भारतीयता की समझ के लिए लालित्य-बोध एक आवश्यक कड़ी है क्योंकि भारतीयता एक ही साथ भावनाऔर मनोदशादोनों है। बोधयुक्त देशज लालित्य के अखाड़े में खड़े श्री राय दोनों भुजाओं और जंघों पर भीम-ताल ठोंक कर चुनौती देते हैं। यह सच है कि इस तरह की यह ललकार तो कोई मरदवाही दे सकता है जिसकी अपनी जमीन उर्वरा शक्ति से भरपूर हो।

          यह एक तथ्य है कि स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद ही देश में एक सांस्कृतिक अराजकता की शुरुआत हो गई थी। हुमायूँ कबीर जैसे लोगों ने उल-जुलूल व्याख्या से इसकी शुरुआत की और नुरूल हसन की छ्त्रछाया में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद ने इसे खाद-पानी दिया। परिणाम यह हुआ कि आज राष्ट्रीय भावनाएँ बड़ी तेजी से अशक्त और निष्प्राण होती जा रही हैं। हम बेझिझक पश्चिम का अनुकरण कर अपनी अस्मिता खोते जा रहे हैं। कल तक यह प्रवृत्ति एक छोटे और प्रभावशाली तबके तक ही सीमित थी पर अब उसका फैलाव बड़ी तेजी से बढ़ता जा रहा है। आज हम सब इस बात से परिचित हैं कि संस्कृति आज की दुनिया में एक राजनीतिक अस्त्र के रूप में उभर रही है। अपने स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राष्ट्र और संस्थायें इसका खुलकर उपयोग कर रही हैं। यदि हम निष्ठा और प्रतिबद्धता से भारतीयता की तलाश करें, उसे पहचाने और आत्मसात करने की कोशिश करें  तो उन पर रोक लग सकती है। पर यह कहने और लिखने में जितना आसान है उतना ही व्यवहार में जटिल भी  है।

          भारतीयता की पहचान का असल स्वरूप हमें उसकी वांगमय परंपरा अर्थात साहित्य और शिल्प में देखने को मिलता है। इस पहचान के उद्घाटन के लिए हमारा आर्ष चिंतन से परिचित होना जरूरी है। चिन्मय भारतनामक पुस्तक में श्री राय ने आर्ष चिंतन के बुनियादी सूत्रों को स्पष्ट करने की कोशिश की है- आर्ष से हमारा तात्पर्य वैदिकमात्र या ऋषि दृष्टि प्रसूतमात्र नहीं है। हम उस पूरी परंपरा को, जो ऋषि के अनुधावन से बनती है, आर्ष परंपरा मानते हैं। आर्ष से हमारा तात्पर्य उस समूची चिंतन परंपरा से जिसका प्रस्थान बिन्दु तो ऋषि ही है, पर अविच्छिन्न रूप में कालिदास, शंकराचार्य, रामानुज-वल्लभ-चैतन्य, संत और भक्त से होती हुई आधुनिक गांधी-अरविंद तक आती है। बीज है ऋषि और भारतीय चिंतन का यह अश्वत्थ अभी तक विराजमान है। वृक्ष बीज के आधार पर ही नामांकित होता है। अत: इस इतिहासव्यापी अखंड चिंतन परंपरा की संज्ञा आर्ष हो सकती है।” (चिन्मय भारत, पृ.-16-17)

          आज जब समाज के सभी तबके- बुद्धिजीवी से लेकर साहित्यकार तक सभी सरकार-बाजार के पिछलग्गू बनने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं वैसे समय में श्री राय गंगातीरी पगड़ी बांधे हुए कंधे पर मजबूत देशी में भारतीयता का अमृत-घट लटकाये हुए आर्यावर्त से लगायत जंबूद्वीपे-भरतखंडे की परिक्रमा करते हैं। इस बोध-परिक्रमा के  लिए जिस अकुंठ साहस, निर्भयता, स्पष्टता और दोटूकपन की जरूरत होती है वह कुबेरनाथ राय के लेखन में सर्वत्र मौजूद है। श्री राय ने भारतीयता के उदात्त तत्वों को न केवल आत्मसात किया है अपितु अपने निबंधों में इसकी गंभीर विवेचना भी की है। उनकी तर्कशक्ति अद्भुत है। इसे धार देने के लिए वे विज्ञान, नृतत्व शास्त्र, भाषा विज्ञान, मिथक, इतिहास आदि अनुशासनों का यथासंभव सहारा भी लेते हैं। श्री राय किसी के विरोध या उपेक्षा से मुक्त  सम्पूर्ण आर्यावर्त में शिव के सांड की तरह मुक्त विचरण करते हैं। सच तो यह है कि श्री राय अपने आत्मलब्ध सत्य के प्रति न केवल पूरी  तरह ईमानदार हैं अपितु  साहस के साथ उसकी अभिव्यक्ति भी करते हैं जिसका प्रथम और आखिरी सूत्र है-अहं भारतोऽस्मि

डॉ मनोज राय
-एसोसिएट प्रोफेसर
अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा

(डॉ मनोज राय  गांधीवादी चिंतक हैं। हिन्द स्वराज पर आपकी एक पुस्तक हिन्द स्वराज अरथ अमित आखर अति थोरे’ शीर्षक से प्रकाशित है। आपने ‘बापू ने कहा था’ शीर्षक से गांधी जी के साहित्य से 19 महत्त्वपूर्ण लेखों को चुनकर एक पुस्तक संपादित की है। ‘महात्मा गांधी का सौन्दर्य बोध’, ‘गांधी चिंतन में योग और शांति’ तथा ‘महात्मा गांधी की धर्म दृष्टि’ शीर्षक से आपकी अन्य उल्लेखनीय पुस्तकें प्रकाशित हैं। आप वर्तमान में अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभागमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालयवर्धा में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। आपकी कृति ‘महात्मा गांधी की धर्म दृष्टि’ को मध्य प्रदेश विधानसभा द्वारा गांधी दर्शन पुरस्कार प्राप्त है। आप कुबेरनाथ राय साहित्य के मर्मज्ञ हैं। उनके साहित्य का जैसा अनुशीलन आपने किया हैवह मेरे देखे अनूठा है। 

आज कुबेरनाथ राय की पुण्यतिथि पर यह विशेष आलेख मेरा गाँव मेरा देश पर विशेष रूप से आपके लिए।)

शनिवार, 23 मई 2020

कथावार्ता : दूसरी परम्परा की खोज का एक नया आयाम : मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता

- डॉ रमाकान्त राय


भारत में मुग़ल बादशाहों के शासनकाल को कई इतिहासकारों ने स्वर्ण काल की संज्ञा दी है। यह स्वर्णकाल महज एकीकृत शासन प्रणाली और प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना के लिए नहीं बल्कि महान सांस्कृतिक विरासत को अधिक समृद्ध करने के दृष्टिकोण से भी तर्कसंगत कहा जा सकता है। यद्यपि सही मायने में मुग़लिया सल्तनत जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर के समय स्थापित हुई और औरंगजेब के समय तक शबाब पर रही लेकिन ऐतिहासिक रूप से यह सही है कि बाबर ने मुगल वंश की स्थापना की और बहादुर शाह जफ़र (सानी) इस राजवंश का आखिरी सम्राट हुआ। सांस्कृतिक दृष्टि से मुग़लों का प्रमुख योगदान उनकी अनूठी वास्तुकला थी। मुग़ल काल के दौरान मुस्लिम सम्राटों द्वारा ताजमहल, लालकिला, जामा मस्जिद सहित कई महान स्मारक बनाए गए थे। मुग़ल राजवंश ने भव्य महलों, कब्रों, मीनारों और किलों को निर्मित किया था। उन्होंने पर्सियन शैली को भारतीय शैली से मिलाकर एक अनूठी भारतीय वास्तुकारी को जन्म दिया था। चित्रकला और संगीत तथा साहित्य में भी यह काल सबसे समृद्ध था। हिंदी साहित्य का स्वर्ण काल कहा जाने वाला भक्ति साहित्य इसी राजवंश के समय रचित है। यद्यपि आचार्य शुक्ल ने अपने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में इस अवधि को “पौरूष से हताश जाति के लिए भगवान् की शक्ति और करुणा के लिए ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग” न होने को के रूप में रेखांकित किया है और “मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो” जाने और परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्यों के न रहने को इस समय की राजनीतिक स्थिति से जोड़कर रखा है लेकिन इस तथ्य को भी उल्लिखित किया है कि दिल्ली के बादशाह कवियों का संरक्षण करते थे और हिन्दू-मुसलमान दोनों ने भक्ति की रसधार में डुबकी लगाईं थी।


मुगल बादशाह कला प्रेमी तो थे ही। सम्राट अकबर के दरबार के नवरत्न, जहाँगीर और शाहजहाँ के दरबार के कलावंतों का संरक्षण और संगीत, चित्रकला, साहित्य तथा वास्तु की गहरी अभिरुचि इन मुग़लिया शहंशाहों को अनूठा बनाती हैं। इस क्रम में एक चीज उल्लेखनीय है कि “भारतीय मुगल राजवंश के बादशाहों और उनके परिवार के सदस्यों के जीवन में कविता हमेशा मौजूद रही है। यहाँ तक की उनके बारे में जो इतिहास-लेखन हुआ है उसमें भी कविता मिलती है। भारत में मुगल राजवंश का संस्थापक बाबर था। वह चागताई तुर्की और फारसी में कविता लिखता था।” मुग़ल बादशाहों में मुहम्मद शाह रंगीला की ठुमरियां तथा होलीगीत और बहादुर शाह जफ़र की शायरी साहित्यिक दुनिया में बहुत मकबूल हुई है। “उम्रे दराज मांग के लाये थे चार दिन/ दो आरजू में कट गए दो इंतिजार में” का शायर अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफ़र ही है।
प्रख्यात आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने मुगल बादशाहों के जिस विशिष्ट पक्ष को अपनी इस समीक्ष्य कृति में संकलित किया है, वह है मुगल बादशाहों की हिंदी कविता। इस संग्रह में मुग़ल बादशाह अकबर से लेकर अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुर शाह जफ़र की हिंदी कवितायेँ संकलित हैं। इससे पहले की मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता पर कुछ बात की जाए, मैनेजर पाण्डेय द्वारा लिखी भूमिका पर कुछ बात करना नितांत आवश्यक है। उन्होंने अपनी भूमिका में तीन खण्ड करके कुछ मूल्यवान और बहसतलब विवेचन किया है। भारतीय मुग़ल राजवंश और कविता खण्ड में उन्होंने मुग़ल राजवंश के बादशाह और उनके सम्बन्धियों के कविता प्रेम को संकेतित किया गया है। दूसरे खण्ड में भारतीय मुग़ल दरबार में आश्रय पाकर समृद्ध हुई हिंदी कविता और उसके कवियों का उल्लेख किया गया है। कहना न होगा कि इसमें अब्दुर्रहीम खानखाना, तानसेन, बीरबल, टोडरमल और फैजी का उल्लेख तो है ही, वृन्द, कालिदास, और कृष्ण कवि का आश्रय पाकर कविता करना रेखांकित किया गया है और मुगल बादशाहों की दरियादिली और कलाप्रेमी व्यक्तित्व की चर्चा की गयी है। तीसरे खण्ड में उन्होंने भारतीय मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता के संकलन, सम्पादन की कठिनाइयों का जिक्र करते हुए इन राजाओं की कविता पर विद्वतापूर्ण टिप्पणी दी है। वह सचेत भी करते हैं कि “इस कविता संग्रह को पढ़ते हुए पाठकों को ध्यान में रखना चाहिए कि ये पद, गीत और गान जिस ग्रन्थ से लिए गए हैं, वह संगीत का ग्रन्थ है।" (पृष्ठ-21) इस संग्रह में चुनी गयी अधिकांश कवितायेँ ‘संगीत रागकल्पद्रुम’ नामक ग्रन्थ से ली गयी हैं, जिसे कृष्णानन्द व्यास देव ने एकत्रित किया था। इन कविताओं के पाठ का वही प्रभाव नहीं है, जो इनके श्रवण से मिलेगा। विशेषकर गीतों में, जहाँ कोई कोई पंक्ति कई बार और भिन्न आलाप के साथ गायी जाती है।
मुगल बादशाहों की हिंदी कविता पढ़ते हुए कई बातें ज़ेहन में उभरती हैं, मसलन-मुसलमानों के आक्रमण, कत्लेआम और मंदिरों को गिराकर हिन्दू जाति में हताशा का भाव भरने वाले मुग़ल बादशाह हिन्दी (ब्रजभाषा) में कविता किया करते थे? यह तो पता ही है कि अकबर के नवरत्नों में शामिल रहीम ने भक्ति की कवितायेँ लिखी हैं, लेकिन औरंगजेब सरीखा बादशाह भी हिंदी में कवितायेँ लिखता था! कवि ह्रदय था उसके पास? तब हम यह सोचने को मजबूर होते हैं कि इतिहास का पाठ कुछ दूसरा ही किया जाना चाहिए। जिस इतिहास को अंग्रेजों ने लिखा और लिखवाया, उसकी मंशा को समझा जाना चाहिए। जिस इतिहास का निर्माण वर्तमान समय में करने की कोशिश हो रही है, उसे अधिक सतर्क होकर लिखा जाना चाहिए और इस पक्ष को जरुर ही ध्यान में रखा जाना चाहिए।
मैनेजर पाण्डेय द्वारा संकलित और सम्पादित इस संग्रह की कवितायेँ संगीतमय पदों, गीत और गान के साथ साथ दोहा आदि छंद में भी हैं। संगीतमय पदों, गीत और गान से यह अंदाज करना सहज है कि मुगल बादशाह संगीत प्रेमी ही नहीं थे बल्कि राग-रागिनियों की अच्छी समझ भी रखते थे। राग-रागिनियों को ध्यान में रखकर रचना करना संगीत की बारीक समझ के अभाव में असंभव है। इसके अतिरिक्त छन्द का ज्ञान होना भी आवश्यक है। मुग़ल बादशाहों द्वारा लिखित यह कवितायेँ संगीत रागकल्पद्रुम में संकलित किये जाने का मतलब भी यही है कि यह कवितायेँ सांगीतिक दृष्टिकोण से खरी हैं।
प्रस्तुत किताब में सबसे अधिक कवितायेँ शाह आलम सानी द्वारा लिखित हैं। शाह आलम सानी द्वारा लिखित कवितायेँ ‘नदिराते शाही’ से भी ली गयी हैं। सम्राट अकबर द्वारा लिखित कवितायेँ संख्या के हिसाब से दूसरे नंबर पर हैं। इसमें जिन बारह मुग़ल बादशाहों की हिंदी कवितायेँ संकलित की गयी हैं, वह हैं- अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब, आजमशाह, ‘मोजमशाह’ शाहआलम बहादुरशाह, मुइजउद्दीन जहाँदार शाह ‘मौज’ मोहम्मदशाह, अहमदशाह, अजीज अल-दीन आलमगीर, आलमशाह सानी और बहादुरशाह जफ़र। बाबर और हुमायूँ का कविता प्रेम मिलता तो है लेकिन हिंदी में उनकी कवितायेँ नहीं मिल सकी हैं।
संग्रह में संकलित कविताओं को पढ़ते हुए कहीं भी इसका कोई संकेत नहीं मिलता कि तत्कालीन समाज में हिन्दू-मुसलमान को लेकर धार्मिक स्तर पर कोई द्वंद्व था। इन बादशाहों की कविताओं में इसका कोई लक्षण नहीं दिखाई देता जैसा आचार्य शुक्ल ने हताश हिन्दू जाति के लिए जिम्मेदार बताते हुए लिखा है। अलबत्ता अकबर बादशाह की कविताओं में श्रीकृष्ण की आराधना करता हुआ तो दीखता ही है, कई कविताओं में खुद को भी ईश्वर के स्थान पर रखकर प्रस्तुत करता है।
अकबर प्राणनाथ अनाथन को यहनाथ ए जापै अष्टसिद्ध नव निध पाइए।
परमदाता ज्ञाता सबही को मनरंजन यह दुखभंजन कल्पवृक्ष प्रतक्ष धाइये।।
अन्तरयामी खामीजग काज करबे को ए रस नाल बनाइये।
जलालदी महम्मद ऐसे दाता किये तिंहूँ लोक में यश गाइए।।
उसकी कविताओं में संगीत की गहरी समझ तो मिलती ही है, आत्मप्रशंसा और भक्ति भावना भी मिलती है। उसके यहाँ अनेक पदों में ईश्वर की वंदना है और कई में खुद को वन्दनीय बनाकर की गयी प्रस्तुति। शाहजहाँ और औरंगजेब लगायत लगभग सभी मुग़ल बादशाहों की कविताओं में प्रेम की अभिव्यक्ति मिलती है। औरंगजेब का उदयपुरी बेगम से प्रेम उसकी कविताओं में भी जाहिर हुआ है-
तुव गुण रवि उदै कीनो याही तें कहत तुमकों बाई उदैपुरी।।
जानन मन जान शाह औरंगजेब रीझ रहे याही तें कहत तुमकों विद्यारूप चातुरी।।
औरंगजेब सरीखे कट्टर शासक का यह पक्ष उसके मूल्यांकन के लिए एक नया आयाम उपलब्ध कराता है और उसकी कट्टरता को साम्प्रदायिकता से पृथक करके देखने को उकसाता है। आजमशाह की कविताओं में भी प्रेम की अभिव्यक्ति मिलती है। मुहम्मद शाह ‘रंगीला’ तो रसिक मिजाजी के लिए मशहूर ही था, इसलिए उसकी कविताओं में प्रेम की भावना का अभिव्यक्त होना स्वाभाविक है। उसकी कविताओं में होली के गीत भारतीय संस्कृति से मुग़ल बादशाहों के गहरे लगाव को प्रकट करते हैं। बादशाह अकबर द्वारा होली और जन्माष्टमी मनाये जाने के ऐतिहासिक साक्ष्य तो मिलते ही हैं। प्रेम की इन अभिव्यक्तियों में वैसा द्वंद्व और तड़प तो नहीं है और न ही वह प्रगाढ़ता, जिसे प्रेम की उत्कट अभियक्ति माना गया है किन्तु अहमदशाह की एकाध कविताओं में इसे देखा जा सकता है।
संकलित कविताओं में सबसे विशिष्ट कवितायेँ शाह आलम सानी की हैं। उनकी कविताओं में लोक का गहरा रंग देखा जा सकता है। संकलन में सबसे अधिक कवितायेँ शाह आलम सानी की ही हैं। उनकी कवितायेँ निर्दिष्ट राग रागिनियों में रचित हैं। होली, कवित्त, दोहरा आदि तो उनकी कविताओं में हैं ही, जैसा कि मैनेजर पाण्डेय ने संकेत किया है, उनकी कविताओं में लोक का पक्ष बहुत गाढा होकर आया है, खासकर सीठने वाली कविताओं में। सीठने विवाह संगीत के द्विअर्थी संवाद, हँसी-ठिठोली और अश्लील चुटकुलों से भरे हुए होते हैं और शाह आलम सानी के सीठने बहुत चर्चित हुए हैं। “ऐसी कवितायेँ लिखने के लिए देश के लोक-जीवन और लोक-संस्कृति का आत्मीय ज्ञान होना जरुरी है। शाह आलम के सीठने यह साबित करते हैं कि उनको भारतीय लोक-जीवन और लोक-संस्कृति की पूरी और गहरी जानकारी थी।” (पृष्ठ-29) रीतिकाल की अवधि का यह कवि लोक रंग के साथ-साथ नायिकाभेद आदि में भी बहुत उम्दा रचनाएँ कर सका है।
मुग़ल बादशाहों की कवितायेँ यद्यपि काव्य की कसौटी पर बहुत उत्तम नहीं कही जा सकती हैं लेकिन तब भी शाह आलम सानी की कवितायेँ ध्यान खींचती हैं। उनकी कई कविताओं में ब्रजभाषा का माधुरी भी देखा जा सकता है। शाहजहाँ की एक कविता अपने रचना-विधान और प्रकृति-चित्रण में बहुत विशिष्ट बन पड़ी है। इसका भाषिक सौन्दर्य भी बहुत निखर कर अभिव्यक्त हुआ है-
दादुर चातक मोर करो किन सर सुहावन को भरू है,
नाह तेही सोई पायो सखी मोंहिं भाग सोहागहु को बरु है।
जानी सिरोमनि साहिजहाँ ढिग बैठो महा विरहा-हरु है,
चपला चमको, गरजो बरसो घन, पास पिया तो कहा डरु है।।
मुगल बादशाहों की हिंदी कवितायेँ ब्रजभाषा में हैं। छंदबद्ध हैं, राग रागिनियों को ध्यान में रखकर लिखी गयी हैं। इन कविताओं में एक बेहद शांत समाज की प्रतिच्छाया महसूस की जा सकती है। किसी भी तरह के सांप्रदायिक भाव को यहाँ नहीं महसूस किया जा सकता। कुछेक कविताओं को छोड़ दिया जाय तो कहा जा सकता है कि अधिकांश कवितायेँ विशिष्ट होने के भाव बोध से लिखी गयी हैं और इस बात का प्रमाण देती हैं कि मुग़ल बादशाह गायन-वादन का रियाज भी करते रहे होंगे। संकलन की कवितायेँ मुग़ल बादशाहों के काव्य रसिक होने का परिचय तो देती ही हैं, यह सोचने के लिए अवकाश भी देती हैं कि उन्होंने अपने शासन काल में कला-साहित्य और संगीत को जो इतना प्रश्रय दिया, शान्ति का वातावरण बनाया और विद्वानों को संरक्षण दिया वह उनके सह्रदय शासक होने का भी परिचायक है। इस संकलन से मुग़ल शासकों के बारे में एक सर्वथा ही नई और मानवीय छवि निर्मित होती है।
आखिर में, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की शिष्य परम्परा में एक दूसरी परम्परा की खोज की जो ललक विरासत में मिली हुई है, मैनेजर पाण्डेय ने इस संकलन से उसे और समृद्ध किया है। यह संकलन मुग़ल बादशाहों के विषय में एक दूसरी ही छवि निर्मित करता है और उनके खानदान में काव्य की परम्परा को रेखांकित करता है। विशेष यह है कि यह संकलन हिंदी कविता की परम्परा से जुड़ता है और विशुद्ध भारतीय अवधारणा से नाभि-नालबद्ध दिखता है। मैनेजर पाण्डेय का यह संकलन भारतीय कविता परम्परा और इतिहास बोध के निर्माण के लिहाज से बहुत मूल्यवान है।
समीक्षित कृति- मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता
संकलन और संपादन- मैनेजर पाण्डेय
प्रकाशक- राजकमल पेपरबैक्स, राजकमल प्रकाशन प्रा. लिमिटेड, नई दिल्ली
मूल्य- 125 रु.
पहला संस्करण- 2016
(पक्षधर पत्रिका में प्रकाशित)

मंगलवार, 19 मई 2020

कथावार्ता : नेहरू युग की रोचक कहानी


-पीयूष कान्त राय

वैचारिक निरपेक्षता के साथ अपने आप को किसी कालखंड विशेष में रखकर इतिहास लेखन करना दुरूह कार्य है। यह काम तब और कठिन हो जाता है जब हमारे पास बहुस्तरीय सामग्री मौजूद हो। हालांकि इस किताब की प्रस्तावना में लेखक खुद को किसी विचारधारा से न जोड़कर तथा व्यक्ति विशेष से प्रेरित हुए बिना आज़ादी मिलने के बाद के भारत का इतिहास लिखने की पुष्टि करते हैं लेकिन प्रस्तावना का शीर्षक ही 'एक अस्वाभाविक राष्ट्र" रखकर वैचारिक पृष्ठभूमि पर सोचने के लिए मजबूर कर देते हैं। एक अस्वाभाविक राष्ट्र के पक्ष में यूरोपीय विद्वानों एवं राजनीतिज्ञों के कथनों को रखा गया है। यूरोपीय लोगों के कथनों के साथ समस्या यह है कि पूर्वी यूरोप से पश्चिमी यूरोप तक सम्पूर्ण क्षेत्र में शायद उतनी विविधता नहीं है जितनी अकेले भारत देश में है। भारत की विविधता को उसकी अस्वाभाविकता मानने से पहले 1857 की महान क्रांति के एक पक्ष को समझना जरूरी है, जहाँ अलग-अलग जगहों के क्रांतिकारियों ने एकमत में दिल्ली में बैठे मुगल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र को अपना शासक माना। यह एकमात्र तथ्य भी इसका संकेतक हो सकता है कि हमारा देश एक स्वाभाविक राष्ट्र है। हम पेंगुइन बुक्स से छपी, जाने माने इतिहासकार रामचंद्र गुहा की किताब 'भारत : गांधी के बाद' की चर्चा कर रहे हैं।


                यह पुस्तक "आज़ादी और राष्ट्रपिता की हत्या" अध्याय के साथ शुरू होती है और बड़े ही रोचक एवं व्यवस्थित ढंग से घटनाओं एवं तथ्यों की जाँच करते हुए आगे बढ़ती है। उसके बाद देश के विभाजन का विश्लेषण "विभाजन का तर्क'' नामक अध्याय में करती हुई रियासतों एवं रजवाड़ों के एकीकरण का विवरण "टोकरी में सेब" शीर्षक में होता है। इसके बाद कश्मीर समस्या पर लिखे अध्याय "एक रक्तरंजित हसीन वादी" और शरणार्थी समस्या पर "शरणार्थी समस्या और गणराज्य" नामक शीर्षकों वाले अध्याय को गहन शोध के बाद लिखा गया है । हालांकि सभी घटनाओं एवं तथ्यों को तात्कालिक प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के संदर्भ में परखा जाना इस पुस्तक को इतिहास की जगह इतिवृत्तात्मक उपन्यास की शक्ल में बदल देता है जहाँ एक केंद्रीय पात्र के इर्दगिर्द सभी घटनाएं घूम रही हैं एवं उसके मरणोपरांत सब खत्म हो गया है।
          इस पुस्तक में रामचंद्र गुहा ने देश के बंटवारे के बाद के दर्द को तथ्यात्मक रूप से बखूबी उल्लिखित किया है, बंटवारे के बाद पलायन कर रहे लाखों लोगों को मुख्य धारा में जोड़ने के प्रयासों के राजनैतिक संघर्ष को भी लेखक ने बेहद खूबसूरत एवं व्यवस्थित तरीके से सामने रखा है जो पाठक को बांधे रखता है। तात्कालिक परिस्थितियों में राजनैतिक संघर्षों के उस दौर में भिन्न-भिन्न मुद्दों पर नियमित रूप से चल रहे हड़ताल एवं उग्र आंदोलनों का पूरा विवरण इस पुस्तक में मिलता है जिनमें मुख्य रूप से भाषायी आधार पर राज्यों का बंटवारा, उत्तर-पूर्वी भारत में अलग देश को लेकर चल रहा आंदोलन एवं कश्मीर मुद्दे शामिल हैं। इस पुस्तक में आज़ादी मिलने के तुरंत बाद के भारत में जहाँ एक तरफ स्वाभाविक व्याकुलता,अराजकता एवं झुंझलाहट को दर्शाया गया है, वहीं उस कालखंड की प्रमुख उपलब्धियों पर भी विशेष रूप से बल दिया गया है जैसे देश को एकता के सूत्र में बंधना हो या उत्तर-पूर्वी राज्यों के आंदोलनों को शांत करना, भारत की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा हो अथवा आत्मनिर्भर बनने के प्रयासों पर अमल करना इन सभी मुद्दों पर लेखक ने बड़ी बेबाकी से अपना मत दिया है। हालांकि इसके बावजूद लेखक कई मुद्दों से बचता नजर आया है, जैसे कश्मीर एवं तात्कालिक भारतीय गुटनिरपेक्षता की वास्तविकता को ऊपर- ऊपर ही विश्लेषित किया गया है।
          भारत से तात्कालिक अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों के सांस्कृतिक, आर्थिक एवं सामाजिक आयामों को "राष्ट्र और विश्व" अध्याय में व्यवस्थित एवं गहन शोध के बाद रखा गया है। जिसमें अमेरिका, रूस, ब्रिटेन के साथ रिश्तों को तर्कों की कसौटी पर कसा है एवं भारत के पड़ोसी देश चीन के साथ ऐतिहासिक रिश्ते को पूर्ण रूप से निरपेक्षता के साथ दर्शाया गया है।
          भारतीय आर्थिक नीतियों के व्यवहार पर भी यह पुस्तक एक गहन विश्लेषण प्रस्तुत करती है, जैसे पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत, कल कारखानों की तरफ आकर्षण एवं ब्रिटेन, रूस तथा अमेरिका जैसे परस्पर विरोधी स्वभाव के आर्थिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों वाले देशों के साथ आर्थिक सहयोग पर विवेचना मिलती है।
      "एक नए भारत की परिकल्पना" नाम से लिखे एक अध्याय में संविधान सभा के गठन, उसके स्वरूप, भिन्न-भिन्न समुदाय से आने वाले लोगों का चित्रण एवं संविधान सभा के विषय में विद्वानों के व्यक्तव्यों को बड़े ही रोचक ढंग से दिखाया गया है, जिसे पढ़ते वक्त पाठक को अपने सामने घटनाओं के सजीव चित्रण का आभास होता है। वहीं "इतिहास का सबसे बड़ा दाँव" अध्याय में भारत में हुए पहले आम चुनावों में तथ्यों और घटनाओं का दिलचस्प वर्णन मिलता है। जहाँ एक तरफ इस पुस्तक में चुनाव कराने में सरकार की दिक्कतों का जिक्र है तो दूसरी तरफ लोगों का देश के पहले आम चुनाव में बढ़- चढ़कर भागीदारी करने का काफी मनोरंजक दृश्य प्रस्तुत किया गया है। "देश का पुनर्गठन" अध्याय में भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की गंभीरता को दर्शाया गया है जिसके तुरंत बाद "प्रकृति पर विजय" में भारतीय अर्थव्यवस्था की पृष्ठभूमि का वर्णन मिलता है। भारतीय संविधान के कुछ विवादास्पद एवं चटपटे विषय जैसे समान नागरिक संहिता एवं हिन्दू कोड बिल के संदर्भ में जानकारी "कानून और इसके निर्माता" अध्याय में मिलती है। कश्मीर समस्या पर लिखे एक और अध्याय "कश्मीर की रक्षा में” लेखक ने मुख्य रूप से शेख अब्दुल्ला की लोकप्रियता तथा डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के कश्मीर अभियान  का जिक्र किया है। "आदिवासी समस्या" अध्याय में आदिवासियों की समस्याओं पर भी एक विस्तृत जानकारी दी गयी है।
            अपनी पुस्तक के तीसरे एवं अंतिम भाग में लेखक ने चार महत्वपूर्ण अध्यायों को रखा है जिनमें पहले "दक्षिण से चुनौती" अध्याय में केरल में कम्युनिस्टों की जीत का राष्ट्रीय प्रभावों पर मुख्य रूप से चर्चा की गई है।  भारत-चीन युद्ध का विवरण "पराजय का अनुभव" एवं उसके बाद शांति के लिए किए जा रहे प्रयासों पर "शांति का प्रयास" नामक अध्याय में गहनता के साथ विवरण प्रस्तुत किया गया है। और अंत में "अल्पसंख्यक और दलित" नामक अध्याय में बड़े ही रोचक और दिलचस्प विवरणों सहित तात्कालिक भारत मे मुसलमान एवं दलित समाज का जिक्र मिलता है।
          आज़ादी मिलने के बाद के भारत के इतिहास पर व्यवस्थित तरीके से लिखित इतिहास कम ही मिलता है । ऐसे में इस पुस्तक के व्यवस्थित एवं सुसंगठित लेखनी से यह कमी दूर होती दिखती है। हालाँकि यह पुस्तक बहुत हद तक नेहरूवाद की तरफ झुकी हुई नजर आती है एवं पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि 20वीं सदी के दूसरे भाग में नेहरू के सम्मुख न सिर्फ भारत में बल्कि सम्पूर्ण विश्व में कोई बड़ा नेता नहीं है। राष्ट्रीय,अन्तराष्ट्रीय एवं व्यक्तिगत सभी तरह की घटनाओं को पंडित नेहरू के संदर्भ में विश्लेषण करने के कारण यह पुस्तक एक खास मानसिकता का आईना हो गयी है जिसे पढ़ते हुए इसकी निरपेक्षता के संदर्भ में किये जा रहे दावों पर शंका होने लगती है। नेहरूवाद की तरफ अत्यधिक झुकाव के कारण इस पुस्तक के शीर्षक पर भी सवालिया निशान खड़ा होता है एवं "भारत गांधी के बाद" के स्थान पर "नेहरू का भारत" शीर्षक ज्यादा सार्थक लगता है। "इस पुस्तक में व्यक्त दिए गए विचार लेखक के हैं और इसके लिए प्रकाशक जिम्मेदार नहीं है" इस कथन के साथ प्रकाशक ने अपने आप को जिम्मेदारियों से अलग कर लिया है लेकिन मूल पुस्तक के सुशांत झा द्वारा किये गए हिंदी अनुवाद में वर्तनी की अनगिनत अशुद्धियाँ हैं जो इसे पढ़ते हुए हिंदी भाषी पाठक के मन में खीझ पैदा करती हैं। और तो और, इसकी जिम्मेदारी न तो अनुवादक ने और न ही प्रकाशक ने ली है।
     हालांकि उपरोक्त खामियों के बावजूद 525 पृष्ठों की यह भारी-भरकम पुस्तक भारत की आज़ादी के बाद के तात्कालिक राजनैतिक हालातों, सामाजिक संघर्षों, जनसांखिकी एवं अर्थव्यवस्था के आधार को समझने का एक उपयोगी माध्यम है। पुस्तक की मुख्य विशेषता घटनाचक्र को क्रमबद्ध करने के बजाए मुद्दों को क्रमबद्ध किया जाना है जिससे एक आम पाठक भी अपने आप को इस किताब से जुड़ा हुआ पाता है।

समीक्षित कृति- भारत : गांधी के बाद
लेखक- रामचन्द्र गुहा
अनुवाद- सुशांत झा
प्रकाशक- पैंगविन बुक्स
मूल्य- 450रु



(पीयूष कान्त राय मूलतः गाजीपुर, उत्तर प्रदेश के हैं। उनकी पाँखें अभी जम रही हैं। वह साहित्य और साहित्येतर पुस्तकें पढ़ने में रुचि रखते हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी में स्नातक तृतीय वर्ष के विद्यार्थी हैं। वह फ्रेंच भाषा, यात्रा और पर्यटन प्रबन्धन तथा प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व के अध्येता हैं और फ्रेंच-अङ्ग्रेज़ी-हिन्दी अनुवाद सीख रहे हैं। उनका एक विशेष नजरिया है। यहाँ उन्होंने हमारे अनुरोध पर यह उत्कृष्ट समीक्षा की है। आप पढ़कर अपनी सम्मति दें और उनकी हौसला-अफजाई करें- संपादक)


मंगलवार, 12 मई 2020

कथावार्ता : भाष्य_ शमशेर बहादुर सिंह की कविता- उषा


शमशेर भाव और उसके सम्प्रेषण कला दोनों स्तर पर विशिष्ट हैं। उनकी एक छोटी सी कविता ‘उषा’ है (शमशेर बहादुर सिंह की कविता "उषा" यहाँ क्लिक करके पढ़ें।) जिसमें उनका प्रकृति के प्रति पवित्र अनुराग दिखाई पड़ता है। हम इस कविता के काव्य सौन्दर्य पर चर्चा करेंगे उससे पूर्व शमशेर के यहाँ रंग, गंध और गति सम्पन्न प्रकृति पर कुछ नोट्स साझा कर लेना जरूरी समझता हूँ।

शमशेर बहादुर सिंह

शमशेर की कविताओं में प्रकृति विविध रूपों में विद्यमान है जिसमें उसका रंग-बिरंगा कोमल रूप ही अधिक है। वह रंग उदासी, प्रेम, आनंद आदि किसी भी रूप में हो सकता है। उनकी प्रकृति रंग और गंध के साथ गतिशील रहती है और अंत में मानवीय संवेदनाओं का रूप ग्रहण कर लेती है। उन्होंने जितनी बारीकी से प्रकृति के रंगों की पहचान की है उतनी बारीकी से हिंदी के शायद ही किसी और कवि ने की है! जब वे प्रकृति में रमते हैं तो उनके कवि पर उनका चित्रकार रूप सबसे अधिक हावी रहता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वे कविता न लिखकर चित्र बना रहे हैं। उनकी कविता के इन चित्रों में रंग ही नहीं गति भी महसूस होती है। उनकी ‘संध्या’ कविता में रंग और गति का यह सौन्दर्य खिला हुआ है-
बादल अक्टूबर के
हलके रंगीन ऊदे
मद्धम मद्धम रूकते
रूकते से आ जाते
इतने पास अपने
शमशेर को ‘शाम’ बहुत पसंद है। उनकी अनेक कविताएँ ऐसी हैं जिनमें सायंकालीन आसमान का दृश्य अधिक आया हुआ है। ऐसा लगता है कि शमशेर अपने निजी अवसाद, अकेलेपन और दुःख को शाम के रंग में घोलकर कविता तैयार कर रहे हैं। दरअसल वे दृश्यों में इतना डूब जाते हैं कि पाठक उन्हीं की नजरों से उस दृश्य को देखने लगता है। उनकी कविताओं में जो रंग और दृश्य हैं वे मानव जीवन से इस तरह अटूट संबंध रखते हैं कि उन कविताओं का रस बोध वे पाठक भी सहजता से कर लेते हैं जो अर्थबोध में असमर्थ होते हैं। जैसे-
                                                   एक पीली शाम
पतझर का जरा अटका पत्ता
यहाँ शाम और पतझर के पत्ते का ‘पीलापन’ एकमेक हैं जो उदासी और निराशा के भाव को प्रबल कर रहा है। जैसे शाम का पीलापन अँधेरे की पूर्वसूचना है, उसका पीलापन निराशा के अंधेरे में बदलने वाला है उसी तरह पतझर के पत्ते का पीलापन उसकी समाप्ति की पूर्वसूचना है। वास्तव में यह ‘पत्ता’ मृत्यु शैय्या पर पड़े जीवन का बोध करवा रहा है जिसका अस्तित्व पतझर के पीले पत्ते की भांति अब समाप्त होने ही वाला है। यहाँ केवल प्रतीकात्मकता ही नहीं है बल्कि उसमें गहरी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है।
शमशेर की प्रकृति संबंधी कविताओं पर रामविलास शर्मा आरोप लगाते हुए कहते हैं कि “शमशेर की प्रकृति संबंधी कविताएँ प्रतीकात्मक हैं जो किताब पढ़कर भी रची जा सकती है। वे संवेदनालोक का हिस्सा नही है।” तो वह उनकी कविताओं की प्रतीकात्मकता को ही ध्यान में रखते हैं। जबकि ये दृश्य केवल शब्द चित्र नहीं हैं क्योंकि इनकी प्रकृति के दृश्य धीरे-धीरे संवेदनाओं में परिवर्तित हो जाते हैं। इसमें केवल एक दृश्य भर नहीं है अपितु कवि का पूरा संवेदनालोक भी है। जैसे ‘धूप की कोठरी के आईने में खड़ी है’ कविता में-
                             मोम-सा पीला
                             बहुत कोमल
                             एक मधुमक्खी हिलाकर फूल को
                             उड़ गई
                             आज बचपन का
                             उदास माँ का मुख
                             याद आता है
‘मोम-सा पीला नभ’ आगे चलकर माँ के चेहरे की उदासी को याद दिलाता है जबकि मधुमक्खी का फूल हिलाकर उड़ना ‘कवि के मन’ को कुरेद जाता है। इस तरह प्रकृति को निहारते-निहारते कवि जीवन के पिछले पन्ने पर लौट जाता है।इससे पता चलता है कि उनके द्वारा रचे गए प्रकृति के दृश्य उनकी अनुभूतियों का हिस्सा हैं जो उनकी संवेदना की उपज है। इसलिए इस दृष्टि से रामविलास शर्मा का सारा आरोप बेमानी लगने लगता है। अपूर्वानंद लिखते हैं- “शमशेर के प्रकृति चित्रों को उन्हीं के नजरिए से देखना चाहिए न कि उस दृष्टि से जिससे केदारनाथ अग्रवाल या नागार्जुन के प्रकृति चित्रणों को देखा जाता है। शाम की नीलाहट, रात का अँधेरा, जाड़े की सुबह की कोमल धूप, सागर की लहरें ये सब उनके संवेदनालोक के अभिन्न अंग हैं।”
शमशेर का शाम के प्रति  लगाव देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि उनके मन के किसी कोने में बैठा अवसाद उन्हें खींचकर ‘शाम के रंगों’ की तरफ ले जाता है लेकिन साथ ही उनके यहाँ प्रकृति के मधुर और आकर्षक रूप भी पर्याप्त रूप से मौजूद हैं। एक कविता में वे ‘दिन’ के लिए जिस बिम्ब का प्रयोग करते हैं वह बहुत ही अनूठा है-
                   दिन
                   किशमिशी रेशमी गोरा
                   मुस्कराता
                   आब
                   मोतियों की छिपाए अपनी
                   पंखुड़ियों तले
दिन के लिए प्रयुक्त ‘किशमिशी रेशमी गोरा/मुस्कराता’ बहुत ही सुन्दर दृश्य बिम्ब है। पूरी कविता बिम्बों में ही खिली है। इसी तरह उनकी एक कविता ‘बसंत आया’ में बसंत के सौन्दर्य बड़े आकर्षक चित्र हैं। इस कविता को पढकर कभी-कभी निराला की ‘सखि, वसंत आया’ या ‘अट नहीं रही है’ जैसी कविताओं की याद आ जाती है -
                   फिर बाल बसंत आया, फिर लाल बसंत आया
                   फिर आया बसंत!
                   फिर पीले गुलाबों का, रस-भीने गुलाबों का
                   आया बसंत
शमशेर के प्रकृति संबंधी कविताओं पर इस विहंगम दृष्टि के बाद अब हमें ‘उषा’ कविता के सौन्दर्यबोध को समझना चाहिए जिसमें उन्होंने सुबह के सौन्दर्य का जादुई चित्र खींचा है। वह लोक-जीवन को ध्यान में रखते हुए सुबह के रंग बदलते आसमान का ऐसा चित्र उकेरते हैं कि भोर के साथ ही पूरा गँवई परिवेश साकार हो उठता है। इस कविता को पढ़ने से ऐसा लगता है कि मानो कोई चित्रकार अपने कैनवास पर सुबह के रंग और गति से भरे आसमान के चित्र को बड़ी जीवंतता से चित्रित कर रहा हो।
शमशेर का गाँव के जन-जीवन और प्रकृति से बढ़िया परिचय था। उनका काफी समय उत्तर प्रदेश के गोंडा जनपद में बीता था जहाँ उनके पिता सरकारी सेवा में थे। इसलिए गंवई प्रकृति और वहाँ का जन-जीवन उनके संवेदनालोक का अभिन्न अंग हैं।‘उषा’ कविता को इसी आलोक में देखने की कोशिश है। भोर की प्रथम बेला के आकाश से कविता का प्रारम्भ होता है - ‘प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे’ - सुबह का प्रथम प्रहर है। आसमान की रंगत बदलनी शुरू हो गई है। उसमे नीलिमा लौट रही है लेकिन उसमें अँधेरे की कालिमा मिली हुई है। कवि उसकी कल्पना ‘शंख’ के रूप में करता है। आसमान बहुत नीला है लेकिन उसकी छवि ‘शंख’ जैसी है।कविता की इस पहली पंक्ति में प्रयुक्त बिम्ब ‘बहुत नीला शंख’ प्रात:कालीन आसमान के रंग-बोध के साथ-साथ वातावरण की शुद्धता और पवित्रता के लिए भी सार्थक है। यह भी संभव है कि इस दृश्य को उतारते हुए कवि के कानों में भोर की प्रथम बेला में मंदिरों से उठने वाली शंखध्वनि भी रही हो क्योंकि उत्तर-प्रदेश के गाँव की सुबह का यह यथार्थ है। प्राय: आज भी गाँव के बाहर मंदिरों में प्रात:काल की प्रथम बेला में शंख की आवाज को सुना जा सकता है।
पहली पंक्ति के बाद अंतराल है। उसके बाद कविता की अगली पंक्ति है “भोर का नभ राख से लीपा हुआ चौका (अभी गीला पड़ा है)” शमशेर की कविताओं में अंतराल का विशेष महत्व है। उनकी कविताओं में पंक्तियों के अंतरालों में भी कविता चलती रहती है। वहाँ पाठक को सोचने का अवकाश रहता है कि इस अंतराल में क्या-क्या संभावनाएं हैं। इससे वह अगली पंक्ति के पूर्व के अर्थ की कल्पना कर लेते हैं। एक अर्थ में इन अंतरालों में पाठक सर्जक के काफी करीब होता है। यहाँ यह अंतराल एक तो समय परिवर्तन की ओर संकेत है कि थोड़ा-सा समय और व्यतीत हो जाने पर आसमान का रंग परिवर्तित हो गया। दूसरे वह गाँव के लोगों की कार्यशैली को भी व्यक्त करता प्रतीत होता है। जैसे भोर के प्रथम प्रहर में ही गाँव के लोग उठ जाते हैं, उनका दैनिक क्रिया-कलाप प्रारम्भ होजाता है। भोर का यह समय रात के अंधेरे और सुबह के उजाले का संधिस्थल है और इस समय आसमान का रंग ‘राख के रंग’ के समान प्रतीत होता है जिसमें ओस के कारण थोड़ी नमी है । यहाँ कोष्ठक में जिस गीलेपन की बात कवि ने की है वह ओस की नमी की ओर संकेत है। इस बिम्ब से यह संकेत मिलता है कि अब गाँव के घरों में लोग चौके को राख से लीप कर साफ़-सुथरा कर रहे हैं। यहाँ आसमान को राख से लीपे हुए चौके के बिम्ब में ‘लीपा’ और ‘चौका’ का प्रयोग बड़ा अनूठा और सार्थक है।
एक और अंतराल के बाद कविता पुन: आगे बढ़ती है ‘बहुत काली सिल जरा से लाल केसर से/ कि जैसे धुल गई हो’। आसमान में थोड़ी सी और हलचल होती है और सूर्योदय से पूर्व की लालिमा छाने लगती है। इस समय कवि को आसमान में ‘काली सिल पर घिसे हुए लाल केसर की लालिमा’ का बिम्ब दिखाई पड़ता है। ‘सिल’ ग्रामीण जीवन-शैली का अहम् हिस्सा होती है। वह उनके दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। ऐसा लग रहा है कि कवि गाँव की महिलाओं के चूल्हे-चौके की व्यस्तता और आसमान को एक साथ निहार रहा है और उनके चित्र को अंकित करता जा रहा है। आसमान की इस सुन्दर लालिमा के लिए उसकी नजर बच्चों के स्लेट पर भी पड़ती है जहाँ वे नन्हें-मुन्ने अपने हाथों से स्लेट को लाल खड़िया चाक(दुद्धी) से रंग रहे हैं। कवि लिखता है “स्लेट पर लाल खड़िया चाक / मल दी हो किसी ने” । यहाँ कवि की दृष्टि में गाँव के बच्चों का भोली-भाली छवि भी है जो सुबह-सुबह अपनी स्लेट और चाक के साथ पढ़ने बैठ जाते हैं। स्लेट जैसे आसमान में लाल खड़िया चाक का रंग जैसे इन ग्रामीण किसान के घरों के बच्चों के जीवन का सूर्योदय तय कर रहे हों कि इस शिक्षा से ही जीवन में लालिमा का संचार होगा।
कवि एक अन्तराल के बाद लिखता है कि “नील जल में या किसी की/ गौर झिलमिल देह/ जैसे हिल रही हो” अर्थात थोड़ा सा समय और गुजर गया, सूर्योदय का प्रारम्भ हो रहा है लेकिन सूर्य अभी पूरी तरह निकला नहीं है।जब सूर्य निकल रहा है तो उसकी सुनहरी आभा नीले आसमान में ऐसे चमक रही है जैसे कोई गौर वर्ण का व्यक्ति स्वच्छ नील जल में स्नान कर रहा हो। पूरा आसमान नीले सरोवर की भाँति दिखाई पड़ता है और ‘सूर्य’ स्वर्णाभ शरीर की भांति। ठीक ऐसे ही जयशंकर प्रसाद के यहाँ भी आसमान को ‘पनघट’ कहा गया है जिसमें सुबह रूपी सुन्दरी तारे रूपी घड़े को डुबो रही है- “अम्बर पनघट में डुबो रही/ताराघट उषा नागरी।” लेकिन शमशेर के यहाँ यह बिम्ब थोड़ा बदल गया है क्योंकि वह अपने बिम्बों में सूर्योदय के आसमान के सौन्दर्य के साथ ही जमीनी कार्य-कलाप भी देख रहे हैं। जैसे लोग अब नहा-धोकर अपने भावी दिनचर्या के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं। वे अब काम पर भी निकलने वाले हैं। कविता के इस पूरे बिम्ब में मानवीकरण का अद्भुत सौन्दर्य है।
इस कविता का आखिरी बंध पूरी कविता के सौन्दर्य को उद्घाटित कर देता है क्योंकि प्रात:काल के जिस जादुई सौन्दर्य के प्रभाव में कवि के साथ पूरा ग्रामीण समाज संचालित हो रहा है वह अब सूर्योदय के साथ टूट जाएगा और कवि के साथ पाठकों को भी उस दिव्य सौन्दर्य की अनुभूति करवा देगा जिसका अभी तक वे रस-पान कर रहे थे। कवि लिखता है “और / जादू टूटता है इस उषा का/ अब सूर्योदय हो रहा है।” यहाँ हम देखते हैं कि दो अन्तरालों के बीच में एक योजक शब्द ‘और’ है। यह ‘और’इस कविता की खूबसूरती है। यह प्रात:काल के जादुई प्रभाव और उसकी समाप्ति का संधिस्थल है। यह ‘और’ प्रात:कालीन सौन्दर्य की आभा को दिन की कठोर श्रमशीलता के यथार्थ से अलग करता है। इसलिए कवि ने सूर्योदय होने के साथ ही सुबह के दिव्य सौन्दर्य के टूट जाने की घोषणा की है। ग्रामीण लोग भी अब अपने दिन भर के कार्यों में व्यस्त हो जाएंगे।
इस तरह हम देखते हैं कि खूबसूरत बिम्बों से सजी यह कविता ‘प्रात:कालीन सौन्दर्य’ और ‘ग्रामीण जीवनचर्या’ को एक साथ लेकर चलती है। इस कविता के बिम्ब अनूठे हैं । यह हिंदी कविता में सुबह के सौन्दर्य को व्यक्त करने वाली कुछ विशिष्ट कविताओं में से एक है जिसमें रंग परिवर्तन अद्भुत सौन्दर्य और गाँव की दिनचर्या एक साथ व्यक्त हुई है। इसमें शमशेर ने एक प्रकार से बिम्बलोक की सर्जना की है। यह बिम्बलोक एक तरफ सर्वथा नया है तो दूसरी ओर बड़ा मानवीय भी है। इसके बिम्बों द्वारा कविता के अर्थ का विस्तार होता है। इसकी विशिष्टता से प्रभावित होकर अशोक वाजपेयी कहते हैं कि इस कविता में गहरा रोमान हैअनूठा बिम्ब है। मुझे नहीं मालूम की पहले किसी कवि ने चाहे संस्कृत मेंअपभ्रंश में या हिन्दी में हीआसमान को देखकर कहा हो कि वह राख से लिपा हुआ चौका जैसा लग रहा है। बड़ा कवि यही करता है कि  ब्रम्हाण्ड को संक्षिप्त करके आपकी मुट्ठी में ला देता है और कई बार पाठक को ऐसा साहस और कल्पनाशीलता देता है कि वह अपना हाथ बढ़ाकर आकाश को छू सके।”


(डॉ शत्रुघ्न सिंह हिन्दी साहित्य और संस्कृति के मूर्धन्य अध्येता हैं। वह रचना को डूबकर पढ़ते और समझते हैं। उनके लिए पढ़ना मतलब आत्मसात करना है। साहित्य के ऐसे पाठक और मीमांसक विरले ही हैं। शत्रुघ्न सिंह ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज से स्त्री आत्मकथाओं का स्त्री विमर्श की दृष्टि से अध्ययन विषय पर शोध कार्य किया है और वह बहुत विशेष है। शीघ्र ही उनका यह शोधकार्य एक नामचीन प्रकाशन संस्थान से प्रकाशित होने वाला है। उन्होने शमशेर बहादुर सिंह की पुण्यतिथि पर उनकी एक बहुचर्चित कविता उषा ( यू ट्यूब पर यहाँ देखें) पर उन्होंने भाष्य किया है। यह भाष्य हिन्दी की बहुचर्चित कविताओं के भाष्य की शृंखला में दूसरा है। यहाँ ब्लॉग पर यह साझा करते हुए खुशी हो रही है। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। - संपादक)

शनिवार, 9 मई 2020

कथावार्ता : उषा- शमशेर बहादुर सिंह


उषा

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे
 
भोर का नभ
 
राख से लीपा हुआ चौका
[अभी गीला पड़ा है]
 
बहुत काली सिल जरा-से लाल केसर से
कि जैसे धुल गयी हो
 
स्‍लेट पर या लाल खड़िया चाक
                 मल दी हो किसी ने
 
नील जल में या किसी की
                 गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो।
 
और...
     जादू टटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।




उषा : शमशेर बहादुर सिंह की कविता

(महत्त्वपूर्ण कृतियों के भाष्य के क्रम में अगली प्रस्तुति शमशेर बहादुर सिंह की कविता उषा। भाष्यकार रहेंगे - डॉ शत्रुघ्न सिंह)

शुक्रवार, 1 मई 2020

कथावार्ता : भाष्य_ अज्ञेय की कविता - नदी के द्वीप

(हिन्दी की एक बहुत चर्चित और विशिष्ट कविता नदी के द्वीप का भाष्य प्रस्तुत कर रहे हैं डॉ गौरव तिवारी- सम्पादक)


आधुनिक हिंदी साहित्य में अज्ञेय का व्यक्तित्व विशिष्ट है  हम उनकी एक बहुचर्चित काव्य कृति "नदी के द्वीप" की चर्चा कर रहे हैं  ('नदी के द्वीप' कविता को यहाँ क्लिक करके पढ़ें) "नदी के द्वीपकविता अज्ञेय द्वारा 11 दिसम्बर, 1949 को तत्कालीन इलाहाबाद में लिखी गई कविता है। यह कविता 1965 में आए उनके काव्य संग्रह 'हरी घास पर क्षण भरमें संकलित है। अज्ञेय ऐसे साहित्यकार हैं जो साहित्य में नए-नए प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग करते रहे हैं  उनका मानना है की कई शताब्दियों से साहित्य में एक ही प्रकार के प्रतीकों और बिंबों के प्रयोग से विचारों और भावों के संप्रेषण में बाधा हुई है। अपनी एक कविता "कलगी बाजरे कीमें वह कहते भी हैं कि जिस प्रकार वासन को अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है उसी प्रकार किसी भी शब्द को प्रतीक या बिंब के रूप में एक सीमा से ज्यादा प्रयोग करने पर उसकी अर्थवत्ता वह नहीं रह जाती जो रचनाकार चाहता है। अपने इस विचार के मद्देनजर वे अपने साहित्य में प्रतीकों और बिंबों के स्तरों पर ढेर सारे प्रयोग करते हैं  उनके सभी प्रयोग बड़े सार्थक और उनके भावों का वहन करने वाले हैं 
          "नदी के द्वीपकविता व्यक्तिसंस्कृति/परंपराइतिहास और समाज के संबंधों को व्यक्त करने वाली कविता है। अज्ञेय के साहित्य के प्रत्येक रूप चाहें वह कविता होकहानी होउपन्यास होनिबंध साहित्य हो यात्रा या संस्मरण साहित्यसभी में व्यक्तित्वसंस्कृतिपरम्परासमाज आदि के अंतर्संबंधों को पर्याप्त स्थान प्राप्त हुआ है। अज्ञेय के साहित्यिक के रूप में आरम्भ से अंत तक ये विषय उनके चिन्तना के केंद्र में रहे हैं।
          कविता पर आने के पहले इस बात पर भी चर्चा कर लेना आवश्यक है कि अज्ञेय के साहित्य पर अंग्रेजी कवि और आलोचक टी एस इलियट का बहुत ज्यादा प्रभाव है  टी एस इलियट ने अपने साहित्य में परम्परा को बहुत महत्व दिया है। 'परंपरा का सिद्धांतदेते हुए वे कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति जब अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता है तो उस व्यक्तित्व की निर्मित में ना सिर्फ उसकी मेधाउसकी समझउसके ज्ञानउसके परिवेश का प्रभाव होता है बल्कि वह अपने इतिहास और परंपरा से भी निर्मित होता है। अज्ञेय इलियट की इस बात से न सिर्फ प्रभावित हैं बल्कि बहुत सहमत भी हैं। इसके अतिरिक्त इनकी यह भी मान्यता है कि ' संस्कृति मूलतः  एक मूल्य दृष्टि और उससे निर्दिष्ट होने वाले निर्माता प्रभावों का नाम हैउन सभी निर्माता प्रभावों का जो समाज कोव्यक्ति कोपरिवार कोसबके आपसी सम्बन्धों कोश्रम और सम्पत्ति के विभाजन और उपयोग कोप्राणिमात्र से ही नहींवस्तुमात्र से हमारे सम्बन्धों कोनिरूपित और निर्धारित करते हैं।उनका यह भी मानना है कि 'संस्कृतियाँ लगातार बदलती हैंक्योंकि भौतिक परिस्थितियाँ भी लगातार बदलती हैं।' (संस्कृति की चेतनानिबंध)
          यह पूरी कविता प्रतीकात्मक है।  इस कविता में नदी परंपरा या संस्कृति का प्रतीक है तो द्वीप व्यक्तित्व का प्रतीक है।  नदी के किनारे हमारा इतिहास भी हो सकते हैं और समाज भी। कविता शुरू होती है'हम नदी के द्वीप हैं।/हम नहीं कहते कि हम को छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाय।/वह हमें आकार देती है। हमारे कोणगलियाँ अंतरीपउभारसैकत कूल/सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।' कवि बताता है कि हम नदी के द्वीप के समान हैं। चारो तरफ से जल से घिरा भूस्थल द्वीप कहलाता है।  जिस प्रकार नदी द्वारा लाई गई मिट्टीबालू आदि से द्वीप को एक रूप और आकार की प्राप्ति होती है उसी प्रकार हमारा व्यक्तित्व भी हमारी परम्परा या संस्कृति से रूप और आकार प्राप्त करता है। अपने उद्गम स्थल से द्वीप तक पहुँचते-पहुँचते नदी विभिन्न परिस्थितियों और अनुभवों से गुजरती है। जिस प्रकार विभिन्न उतार-चढ़ावों से गुजरती हुई नदी अपने साथ विभिन्न प्रकार की मिट्टी और रेत आदि से द्वीप का निर्माण करती है उसी प्रकार हमारी परम्परा भी अपने लंबे और विभिन्न प्रकार के ज्ञान अनुभवों से हमारा निर्माण करती है। हमारे चाहे अनचाहे हमारा व्यक्तित्व हमारी परम्परा से जुड़ जाता है। हमारे व्यक्तित्व के विभिन्न रूप (कोण), हमारे मन का सकरापन या तुच्छता (गलियां), हमारी हरे-भरेपन और जीवंतता से युक्त टापू रूपी कोई विशिष्टता (अंतरीप), हमारी उदात्तता (उभारऔर हमारे व्यक्तित्व का वह रेतीलापन जो हमें बंजर सा बना देता है (सैकत कूलये सब अपनी-अपनी इयत्ता के साथ इसी परम्परा द्वारा निर्मित हैं। इसलिए हम अपनी परम्परा को खुद से अलगाने की बात कह ही नहीं सकते।  कवि यहाँ यह सीधे बताता है कि किसी के व्यक्तित्व की जो भी विशिष्टताबड़प्पनअच्छाईन्यूनता या बुराई होती है उसके निर्माण में उसकी परम्परा का भी हाथ होता है । इसलिए अपनी परम्परा से खुद को एकदम से काट लेना सम्भव नहीं है।
          कवि कहता है - 'माँ है वह। हैइसी से हम बने हैं।' कविता का यह वाक्य अपने पहले और बाद के अन्तरे से अलग है। मतलब सीधा है। कवि इस बात को अपनी विशिष्ट बात की तरह जोर देते हुए प्रस्तुत कर रहा है। वह एक व्यक्ति के लिए उसकी परम्परा का स्थान माँ के बराबर मानता है। जिस प्रकार माँ न सिर्फ अपने बच्चे को जन्म देती है बल्कि उसका भरण पोषण करके उसे तैयार करती है उसी प्रकार परम्परा भी एक व्यक्तित्व को रूप देती है और अपने विभिन्न तत्वों से उसका पोषण करती है।
 अपनी परम्परा के प्रति इतनी आस्था के बावजूद कवि काव्यक्तित्व की विशिष्टता के प्रति और उसकी स्वतंत्र पहचान के प्रति सजगता है। अज्ञेय का मानना है कि एक ही संस्कृति या परम्परा से एक ही समय में अनेक व्यक्तित्वों की निर्मिति होती है। ये सभी व्यक्तित्व या रूप किसी सांचे में ढले नहीं होते। ये अपनी परम्परा के भिन्न-भिन्न तत्वों से अलग अलग प्रकार से निर्मित होते हैं। इनकी विशिष्टता अलग-अलग होती है इसलिए प्रत्येक व्यक्तित्व परम्परा का अंग होता हुआ भी अपनी एक अलग पहचान रखता है। इसलिए वह कहता है'किंतु हम हैं द्वीप।/हम धारा नहीं हैं।स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी केकिंतु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।हम बहेंगे तो हम रहेंगे ही नहीं।/पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जायेंगे।और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते?/ रेत बनकर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे।अनुपयोगी ही बनाएंगे।' यहाँ कवि द्वीप होना और धारा होने की विशिष्टता को अलग अलग रेखांकित कर रहा है और बता रहा है कि जिस प्रकार धारा का अंग या धारा की निर्मिति होते हुए भी द्वीप की अपनी वह विशिष्टता होती है जो उसकी पहचान को धारा से अलग आधार देती है उसी प्रकार परम्परा की निर्मित होते हुए भी व्यक्तित्व की एक विशिष्ट पहचान होती है । इसलिए परम्परा के प्रति व्यक्तित्व के समर्पण की सीमा निश्चित है। अगर हम गाँधी और बुद्ध के उदाहरण से समझें  तो दिखेगा कि महात्मा गाँधी ने अपनी परम्परा के बुद्ध से अहिंसा को ग्रहण किया। यह अहिंसा बुद्ध की भी एक पहचान बनी थी और बाद में गांधी की भी पहचान बनी। गाँधी की निर्मिति में बुद्ध की भी भूमिका है। लेकिन गाँधी का बुद्ध के प्रति एक स्थिर समर्पण है। गाँधी बुद्ध की ज्यों की त्यों नकल नहीं करते। अगर गाँधी बुद्ध का ज्यों का त्यों नकल करते तो उनके व्यक्तित्व की अलग पहचान नहीं बनती। सम्भव है ज्यों का त्यों नकल में वे बौद्ध भिक्षुओं की भीड़ का कोई भिक्षु बनकर रह जाते। वे अहिंसा को मन की वृत्ति से बड़ा फलक देते हैं। वे उसे आंदोलन बनाते हैं। हथियार बनाते हैं। उसे सत्याग्रह से भी जोड़ते हैं। बुद्ध से गाँधी तक आते आते अहिंसा की मूल आत्मा तो वही रहती है लेकिन युग के अनुरूप उसकी शक्ति का विस्तार होता है। और यही बात गांधी को अलग व्यक्तित्व का रूप भी देती है। इसीलिए कवि कहता है कि परम्परा के अंग तो हैं किंतु परम्परा का अंग होते हुए भी एकदम से परम्परा ही नहीं हैं। हमारे अंदर कुछ और विशिष्टताएं हैं जो हमारी अलग पहचान बनाती हैं। हमारी यदि अलग विशिष्टता नहीं हुई तो हमारा अस्तित्व ही नहीं रह जाएगा। हम नदी की रेत की तरह भीड़ का शुष्कअनुपजाऊ हिस्सा बनकर ही रह जाएंगे। अपनी अलग विशिष्टता के कारण ही हमारा वजूद है। अन्यथा हमारी न कोई पहचान होगी और न वजूद। हम भीड़ बनकर बह जाएंगे। कवि यहाँ एक और महत्वपूर्ण बात रेखांकित करता है। वह कहता है कि अपनी परम्परा से पोषण पाकर जो लोग अपनी अलग पहचान नहीं बनातेरेत के समान सिर्फ बहते या जीते चले जाते हैं वे अपनी परम्परा को गन्दा ही करते हैं।
          कवि आगे कहता है'द्वीप हैं हम। / यह नहीं है शाप। यह अपनी नियति है।हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी के क्रोड में। / वह बृहद भूखंड से हमको मिलाती है। / और वह भूखंड अपना पितर है।' यहाँ कवि ने परम्परा और व्यक्तित्व को नदी और द्वीप के प्रतीक से प्रस्तुत करते हुए बताया है कि विशिष्ट व्यक्तित्व होना दुर्भाग्य नहीं सौभाग्य की बात है। वह कहता है कि  हमारे व्यक्तित्व को हमारी परम्परा हमारे समाज और इतिहास से जोड़ती है। वह यदि परम्परा और संस्कृति को माँ का स्थान देता है तो हमारे समाज और इतिहास को पिता के रूप में रखता है। वह कहता है कि जैसे नदी अपने गोद में द्वीप को धारण करती है उसी प्रकार एक परम्परा की गोद में एक विशिष्ट व्यक्तित्व होता है। और जिस प्रकार नदी द्वीप और बड़े भूखंड को जोड़ती है उसी प्रकार हमारी परम्परा भी हमारे समाज और हमारे इतिहास से हमें जोड़ती है। यहाँ कवि स्पष्ट करता हुआ दिखता है कि किसी व्यक्तित्व के निर्माण में सिर्फ परम्परा की नहीं बल्कि समाज और इतिहास की भी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बाप होना माँ होने से कम महत्वपूर्ण नहीं है।
          कवि परम्परा के आगे बढ़ते चले जाने की बात करता हुआ कहता है कि - 'नदीतुम बहती चलो। / भूखंड से जो दाय हमको मिला हैमिलता रहा है, / माँजतीसंस्कार देती चलो'  अर्थात परम्परा प्रवाहमान रहे। समाज और इतिहास से व्यक्ति जो प्राप्त करता है उसकी कमियोंबुराइयोंगंदगियों को साफ करती और सुन्दर रूप देती चले। प्रत्येक समाज के अंदर समय के साथ अनेक बुराइयाँ आ जाती हैं। कवि स्पष्ट कह रहा है कि हमारे समाज के अंदर आयी बुराइयों को दूर करने के तत्व हमारी परम्परा में ही मौजूद होते हैं और इन तत्वों के सहारे समाज में आ गई बुराइयों से मुक्ति पाई जा सकती है।
          एक निबंध में अज्ञेय संस्कृति पर चर्चा करते हुए कहते हैं - 'संस्कृति व्यक्तित्व का विस्तार और प्रसार माँगती हैसंकोच या छँटाव नहीं। संस्कारी व्यक्ति बराबर नयी उपलब्धियों को आत्मसात करता चलता है।' (प्राची-प्रतीची)। वे सिर्फ आंतरिक कारणों से समाज में आ गई बुराइयों पर नजर नहीं रखते। वे कहते हैं - 'यदि ऐसा कभी हो / तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के किसी स्वैराचार से - अतिचार से-/ तुम बढ़ोप्लवन तुम्हारा घरघरा उठे, / यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल-प्रवाहिनी बन जाय / तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर / फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे। / कहीं फिर खड़ा होगा नये व्यक्तित्व का आकार। / मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।'कभी-कभी कोई समाज अति-आत्मविश्वास से इतना भर जाता है कि वह इसके कारण अनेक बातों पर नजर नहीं रख पाता। हमारी अत्यधिक प्रसन्नता या अत्यधिक श्रेष्ठता का भाव भी कई बार समाज में अनेक कमियों के आने का कारण बन जाता है। हम खुद को बड़ा और श्रेष्ठ मानने के कारण इतने लापरवाह या दम्भी हो जाते हैं कि सब कुछ नष्ट होना अनिवार्य हो जाता है। जयशंकर प्रसाद ने कामायनी के चिन्ता सर्ग में ऐसी ही स्थिति की देव संस्कृति के ध्वंस की बात की है जो जीवन के विभिन्न आयामों की श्रेष्ठता को प्राप्त करने के बाद अपनी वासना के आह्लाद में ऐसी डूबी की सब कुछ नष्ट हो गया। वे लिखते हैं कि देवताओं की संस्कृति का रूप ऐसा था कि - 'कीर्तिदीप्तिशोभा थी नचती अरुण किरण सी चारो ओर,/ सप्तसिंधु के तरल कणों मेंद्रुम दल मेंआनंद विभोर।शक्ति रही हाँ शक्तिप्रकृति थी पड़-तल में विनम्र विश्रांत, / कँपती धरणी उन चरणों से होकर प्रतिदिन ही आक्रांत!' प्रसाद वर्णन करते हैं कि मनु कहते है - 'स्वयं देव थे हम सबतो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि?' कामायनी में देव संस्कृति के नष्ट होने का प्रसंग आह्लाद के कारण किसी संस्कृति के नष्ट होने का श्रेष्ठ उदाहरण है।
          आगे कवि बताता है कि कभी किसी देश या समाज को किसी दूसरे देश या समाज के क्रूर स्वेच्छाचारिता या अत्याचार का सामना करना पड़ता है। ऐसे में कोई परम्परा किसी बाहरी तत्वकिसी विस्तारवादी नीति वाली संस्कृतिकिसी आक्रमणकारी,  किसी आततायी या किसी भी अन्य के सम्पर्क में आकर भी अनेक बुराइयों से युक्त हो जाती है। कभी सत्ता के बल पर या कभी किसी अन्य प्रकार की कुटिलता के द्वारा भिन्न-भिन्न तरीके से जैसे किसी संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास किया जाता है। इसके लिए वह बारिश या अन्य बाहरी कारणों से उफनाई हुई नदी द्वारा किसी द्वीप या समाज को डुबो देने का उदाहरण देता है। वह कहता है कि यह सब कर्मनाशा नदी की तरह भी हो सकता हैकि उसके जल के स्पर्श मात्र से सभी पुण्य समाप्त हो जाते हैं । इसी प्रकार का कोई झंझा भी यदि संस्कृति या परम्परा को वह रूप को प्रदान कर ले कि उसके अंदर समाजहंता बुराइयां आ जाएंवह परम्परा कई युगों में प्राप्त सभी अच्छाइयों को नाश करने वाली हो जाए तो भी घबराने की कोई बात नहीं है। हम इस स्थिति को भी यह सोचकर स्वीकार कर लेंगेकि हमें अपने अंदर आई इन कमियों से मुक्त होना है। हमारे व्यक्तित्व की विशिष्टता यदि इस विपरीत स्थिति में समाप्त हो जाए तो भी घबराने की कोई बात नहीं। हमें इस बात के लिए धैर्य धारण करना होगा कि हमारी परम्परा या संस्कृति में इतनी शक्ति है कि अपने आंतरिक सकारात्मक तत्वों के सहयोग से वह हमें फिर कोई रूप देगी। हमारे अंदर की गंदगियों को वह दूर करेगी। फिर कोई व्यक्ति अपने लिए किसी आधार को बनाएगा और इस आधार पर किसी बड़े व्यक्तित्व का निर्माण होगा जो समाज में आ चुकी कमियों और बुराइयों को दूर करने का प्रयास करेगा और  दूसरों के लिए प्रकाश स्तम्भ का कार्य करेगा।
          कविता की अंतिम पंक्ति में अज्ञेय अपनी परम्परा और संस्कृति को बड़ी आत्मीयता से माँ सम्बोधन देते हैं। और कहते हैं कि ऐ मेरी संस्कृतिपरम्परा रूपी माताइस नए बनते व्यक्तित्व के निर्माण में फिर तुम्हारी आवश्यकता होगी और तुम उसे अपने संस्कारो से निर्मित करना। इस कविता के आरम्भ में भी उन्होंने एक पंक्ति के अलग बन्ध में नदी रूपी संस्कृति को माँ सम्बोधन देते हुए कहा है कि एक व्यक्तित्व की सभी अच्छाईयों और न्यूनताओं के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका माँ की होती है।
          जिस प्रकार "असाध्य वीणामहान रचना की निर्माण प्रक्रिया और उसके आस्वादन की प्रक्रिया को बताने वाली महान रचना है उसी प्रकार "नदी के द्वीपकवितापरम्परा और सांस्कृति के अंदर आए उतार चढ़ावों के बीच सार्थक व्यक्तित्वों के निर्माण में उसकी भूमिका को बताने वाली कविता है। कवि इस कविता में संस्कृति के तत्वों को ग्रहण करके खुद को सार्थक व्यक्तित्व बनाने की बात कर रहा है और कह रहा है कि यदि हम खुद को सार्थक नहीं बनाए तो जिस प्रकार रेत नदी के जल को गन्दा करता है उसी प्रकार निरर्थक व्यक्ति के रूप में हम अपनी परम्परा और संस्कृति को गन्दा करेंगे।




लेखक परिचय- 

डॉ गौरव तिवारी भगवान बुद्ध और प्रसिद्ध साहित्यकार अज्ञेय की पावन धरती कुशीनगर के निवासी हैं। वह हिंदी साहित्य और संस्कृति के मूर्धन्य  समीक्षक और गंभीर अध्येता हैं। साहित्यिक रचनाएं आपके संस्पर्श से अपने भाव और संवेदना के साथ खिल उठती हैं। डॉ गौरव तिवारी ने उच्च शिक्षा 'हिंदी साहित्य के तीर्थ' इलाहाबाद विश्वविद्यालयप्रयागराज से प्राप्त की है। उन्हें हिंदी साहित्य के ख्यातिलब्ध विद्वान आचार्य सत्यप्रकाश मिश्र के सानिध्य में डी. फिल. की उपाधि प्राप्त हुई। आपकी एक महत्वपूर्ण पुस्तक 'मुस्लिम उपन्यासकार : परिवेश और उपन्यास' प्रकाशित हो चुकी है तथा लगभग दो दर्जन से अधिक आलेख एवं शोध-आलेख विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों में प्रकाशित हैं। आपके कुशल सम्पादन में शीघ्र ही निबंध विधा पर आलोचना की एक महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित होने जा रही है। आप देश-प्रदेश की अनेक सभा, संगोष्ठियों एवं संस्थाओं में मुख्य वक्ता के तौर पर आमंत्रित होते रहते हैं। सम्प्रति बुद्ध पी जी कॉलेज, कुशीनगर में सहायक आचार्य, हिन्दी के रूप में समाज और साहित्य की सेवा में समर्पित हैं।


सद्य: आलोकित!

श्री हनुमान चालीसा: छठीं चौपाई

 संकर सुवन केसरी नंदन। तेज प्रताप महा जग वंदन।। छठी चौपाई श्री हनुमान चालीसा में छठी चौपाई में हनुमान जी को भगवान शिव का स्वरूप (सुवन) कहा ग...

आपने जब देखा, तब की संख्या.