शनिवार, 15 मार्च 2025

फर्जी आचार्य प्रशांत की दृष्टि में स्त्री

प्रशांत त्रिपाठी, जिन्हें आचार्य प्रशांत कहा जा रहा है, एक भारी वक्ता हैं। वह अद्वैत वेदांत की शिक्षाओं को विकृत कर रहे हैं। उनके बारे में यह प्रसिद्ध है कि वह एक "फर्जी आचार्य" हैं। यह कई लोगों की व्यक्तिगत राय और अनुभवों पर आधारित तथ्य है।


कुछ लोग, जिन्हें प्रशांत त्रिपाठी ने अपने झुंड से जोड़ लिया है, उन्हें एक प्रेरणादायक व्यक्ति मानते हैं, जो गीता, उपनिषद और अन्य भारतीय ग्रंथों की को लोगों तक पहुंचा रहे हैं। उनके समर्थकों का कहना है कि उन्होंने IIT दिल्ली और IIM अहमदाबाद जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से शिक्षा प्राप्त की, सिविल सेवा में कार्य किया जो संदेहास्पद है और अप्रमाणित।  उनके यूट्यूब चैनल, जहां उनके 50 मिलियन से अधिक सब्सक्राइबर हैं जो प्रमोशन के अंतर्गत क्रय करके पाए गए हैं।

प्रशांत त्रिपाठी

कुछ आलोचक उन्हें "फर्जी" कहते हैं। उनका तर्क है कि "आचार्य" की उपाधि पारंपरिक रूप से संस्कृत विद्या या शास्त्रीय शिक्षा से जुड़ी होती है, और प्रशांत त्रिपाठी के पास ऐसी औपचारिक डिग्री का कोई सार्वजनिक प्रमाण नहीं है। कुछ का यह भी कहना है कि वे अपने प्रचार और लोकप्रियता के लिए विज्ञापन का सहारा लेते हैं, जिसे वे गंभीर आध्यात्मिकता से जोड़ते नहीं देखते। उदाहरण के लिए, X पर कुछ यूजर्स ने दावा किया है कि उनके पास शास्त्री या आचार्य की डिग्री नहीं है। यह सच है।

यद्यपि "आचार्य" शब्द का प्रयोग आधुनिक संदर्भ में औपचारिक डिग्री से ही नहीं जुड़ा है बल्कि यह एक सम्मानजनक संबोधन भी है, जो प्रशांत के अनुयायियों द्वारा दिया गया है। प्रशांत त्रिपाठी ने अपनी शिक्षा पारंपरिक गुरुकुल प्रणाली से नहीं ली है। वह अभियांत्रिकी और प्रबंधन के छात्र अवश्य रहे हैं।

उनके व्याख्यानों को सुनकर हालांकि वह झेले नहीं जाते,  उनकी मुद्रित सामग्री पढ़कर, या उनके संगठन के काम को देखकर स्वयं निर्णय ले सकते हैं और पायेंगे कि वह फर्जी वक्ता हैं।


उनकी शैली घटिया है और विचार अस्पष्ट तथा अपरिपक्व

आचार्य प्रशांत की शैली "घटिया" है और उनके विचार "अस्पष्ट तथा अपरिपक्व"। प्रशांत त्रिपाठी की प्रस्तुति बोलचाल की भाषा में होती है, इसमें शास्त्रीयता का अभाव है।इस बोलचाल में वे जटिल आध्यात्मिक अवधारणाओं को दैनंदिन के उदाहरणों से जोड़ते हैं। यह सरल और प्रभावी नहीं अपितु "घटिया" और उलझाऊ होता है। अगर पारंपरिक आचार्यों की औपचारिक, संस्कृत-आधारित और शास्त्रीय शैली की अपेक्षा से देखें तो प्रशांत बहुत सतही दिखेंगे। उदाहरण के लिए, वे अक्सर आधुनिक मुद्दों जैसे रिश्ते, करियर या सोशल मीडिया को अपने बोलने में शामिल करते हैं, जो कुछ को कम गंभीर या सतही लग सकता है। 


प्रशांत त्रिपाठी के विचार मुख्य रूप से अद्वैत वेदांत पर आधारित हैं, जिसमें आत्म-जागरूकता, अहंकार का त्याग, और सत्य की खोज पर जोर होता है। वे इसे आधुनिक संदर्भ में पेश करने का प्रयास करना चाहते हैं, जो मूल ग्रंथों के अर्थ से एक बड़े विचलन का सूचक है। उनके व्याख्यान दोहराव वाले या बहुत सामान्य होते हैं, जब वह "अहंकार छोड़ो" या "सत्य को जानो,"  जैसे बिना गहरे दार्शनिक विश्लेषण के अपनी बात रखते हैं। उनके विचारों में गहराई की कमी है। वे हर विशेष विषय पर असंगत स्थापनाएं करते हैं?

हिरण्यपु प्रशांत त्रिपाठी 

एक प्रसिद्ध विद्वान, अभी वह इतने बड़े विद्वान भी नहीं है कि नाम लिया जाए तथापि आप गूगल कर सकते हैं, का कहना है कि "प्रशांत त्रिपाठी आध्यात्मिकता को ओवरसिम्प्लिफाई करते हैं, जो इसे सस्ता बनाता है।" यह एकदम सटीक विश्लेषण है। इसके विपरीत, उनके खरीदे हुए भाड़े के प्रशंसक इसे उनकी खासियत बताते हैं। उनके मत में यह जटिलता को आम आदमी तक पहुँचाना है। हालांकि यह एक प्रोपेगंडा भर है।


हम प्रशांत त्रिपाठी के विचारों की  "अस्पष्टता" और "अपरिपक्वता" को ठोस उदाहरणों के साथ देखना चाहें तो उनकी एक सर्वाधिक बिकी मुद्रित सामग्री "स्त्री" (Stree) के आधार पर कह सकते हैं जो उनके विचारों की एक बानगी हो सकती है। 

मुद्रित सामग्री "स्त्री" का संक्षिप्त परिचय


"स्त्री" में प्रशांत त्रिपाठी महिलाओं की सामाजिक स्थिति, उनकी मानसिक गुलामी, और आध्यात्मिक मुक्ति पर बात करते हैं। वे अद्वैत वेदांत के दर्शन को आधार बनाकर कहते हैं कि स्त्री का वस्तुकरण (objectification) उसकी दासता का कारण है, और इससे मुक्ति आत्म-जागरूकता से संभव है। इस में वे शरीर और मन के बंधनों को छोड़ने की बात करते हैं।


इस मुद्रित सामग्री में प्रशांत त्रिपाठी बार-बार "स्त्री को वस्तु न समझें" या "अहंकार छोड़ें" जैसे वाक्य प्रयोग करते हैं, लेकिन कहीं भी यह स्पष्ट नहीं करते कि यह व्यावहारिक रूप से कैसे लागू होगा! उदाहरण के लिए, वे कहते हैं, "स्त्री जब अपना स्त्रीत्व छोड़ देती है, तो वह वासना की वस्तु न रहकर देवी बन जाती है।" यह विचार ऊपरी तौर पर गहन लगता है, लेकिन "स्त्रीत्व छोड़ना" का आशय क्या है? क्या यह भावनाओं को दबाना है, सामाजिक भूमिकाओं को नकारना है, या कुछ और? इसकी व्याख्या अस्पष्ट रहती है, जिससे पाठक को व्यावहारिक दिशा नहीं मिलती। यहीं प्रशांत त्रिपाठी की सीमा प्रकट हो जाती है।


प्रशांत त्रिपाठी बिना ठीक से स्पष्ट किए दार्शनिक जटिलता को अपने कथन में ले आते हैं। वे बार बार अद्वैत वेदांत की बात करते हैं, जैसे "आत्मा ही सत्य है, देह मिथ्या है," लेकिन इसे दैनंदिन की ज़िंदगी से जोड़ने में कमी रहती है। एक सामान्य पाठक, खासकर जो दर्शन से परिचित नहीं है, यह समझने में तो असमर्थ रहता ही है कि यह विचार उनकी जटिल सामाजिक वास्तविकता में कैसे फिट बैठता है। विशेष पाठक अपना माथा पीट लेता है। यह अस्पष्टता उनके लेखन/बड़बोलेपन को सतही बना देती है।


अति-सामान्यीकरण: मुद्रित सामग्री "स्त्री" में प्रशांत त्रिपाठी स्त्री की स्थिति को एक व्यापक दार्शनिक ढांचे में रखते हैं, लेकिन सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक विविधताओं को वह संज्ञान में नहीं रखते। उदाहरण के तौर पर, वह कहते हैं कि स्त्री की दासता का कारण उसका "देह से तादात्म्य" है। यह विचार सभी महिलाओं पर एकसमान लागू नहीं हो सकता—एक मज़दूर की समस्याएँ और एक शिक्षित शहरी स्त्री की समस्याएँ अलग हैं। इस जटिलता को न संबोधित करना उनके विश्लेषण को अपरिपक्व बनाता है, क्योंकि यह वास्तविकता की गहराई को नहीं छूता। इसी प्रकार और भी कोण निकाले जा सकते हैं।


प्रशांत त्रिपाठी में आलोचनात्मक परिपक्वता की कमी स्पष्ट परिलक्षित होती है। वे पारंपरिक मान्यताओं (जैसे स्त्री का मातृत्व या भावुकता) पर सवाल उठाते हैं, लेकिन वैकल्पिक रास्ता सुझाने में असफल रहते हैं। उदाहरण के लिए, वे "आंचल में दूध और आँखों में पानी" को स्त्री की गुलामी का प्रतीक बताते हैं, लेकिन यह नहीं बताते कि इन गुणों को त्यागने के बाद समाज कैसे संतुलन बनाएगा। यह एकतरफा दृष्टिकोण अपरिपक्व ही है, क्योंकि यह सामाजिक संरचनाओं के प्रति संपूर्ण समझ नहीं दिखाता। यह उनकी सीमा का परिचायक है।


प्रशांत त्रिपाठी के यहां बिना ठोस आधार का आदर्शवादी रवैया दिखता है। एक जगह वह कहते हैं, "स्त्री को मन और तन की बंधकता से मुक्त होना चाहिए।" यह आदर्शवादी कथन है, क्योंकि इसके लिए कोई परिपक्व कार्ययोजना नहीं है। क्या यह शिक्षा से होगा, सामाजिक सुधार से, या व्यक्तिगत साधना से? इसकी अनुपस्थिति उनके विचारों को अपरिपक्व बनाती है, क्योंकि यह केवल सिद्धांत तक सीमित रहता है।


हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि मुद्रित सामग्री "स्त्री" में प्रशांत त्रिपाठी के विचार अस्पष्ट हैं, क्योंकि वे  दार्शनिक बातें तो करने का प्रयास करते हैं लेकिन उलझ जाते हैं क्योंकि स्वयं उनका कॉन्सेप्ट क्लियर नहीं है। उनकी व्याख्या या अनुप्रयोग स्पष्ट नहीं है। उनकी सोच अपरिपक्व है, क्योंकि वे जटिल सामाजिक मुद्दों को बहुत सरल या सतही तरीके से देखते हैं, बिना व्यावहारिक समाधान या गहरे विश्लेषण के।

बुधवार, 12 मार्च 2025

प्रशांत फ्रॉडेंडेशन के फर्जी आचार्य प्रशांत

गंभीर बात!
१+
प्रशांत त्रिपाठी का लिखा हुआ (अव्वल तो वह लिखा हुआ नहीं है, नशे के उन्माद में बोला हुआ है) जो कुछ बताया जाता है वह उसके निजी प्रकाशन गृह का एक उत्पाद है। ऐसी पुस्तकों के प्रकाशन क्रम में कोई संपादक/रिव्यू करने वाला नहीं होता है, अतः जो उन्होंने कहा, उसे लिपिबद्ध कर दिया गया है।
अब मैं प्रशांत और उसके चेल्लरों को कहता हूं कि वह प्रशांत का एक लेख/संपादकीय/फीचर/निबंध दिखा दें जो उसके प्रकाशन गृह से बाहर प्रिंट में हो।
प्रशांत ने इंटरनेट मीडिया में, जहां वह आसानी से कुछ घूस देकर, अकाउंट बनवाकर लिख ले रहा है, वहां वहां स्वयं को उपस्थित कर दिया है। उसने इसके लिए ठेके दिए हैं।

प्रशांत त्रिपाठी

गंभीर बात!
१+१
किसी ने कोई पुस्तक लिखी है! यदि वह रचनात्मक साहित्य नहीं है तो रचना को पुस्तक मानने के कुछ आधार हैं।

१. लेखक मान्यता प्राप्त विद्वान है।
२. वह किसी संस्थान में अध्यापन कार्य से संबद्ध है। (प्रोफेसर हो।)
३. जिस संस्था से संबंधित है, उसमें उसका दायित्व पठन पाठन और अकादमिक/बौद्धिक जगत से जुड़ा हुआ है। उसका संबंध लिखने/पढ़ने के क्षेत्र से है।
४. रचना मौलिक होनी चाहिए और उसमें यह गुण हो कि उसकी व्याख्या की जा सके।
५. उसकी लिखी गई रचना एक विशेष विधा में परिगणित की जा सकती है।
६. उसका साइटेशन होता हो, यानि दूसरे अध्येता उसको उद्धृत करते हैं और उसे अपने विमर्श में लाते हैं।
७. उसका प्रकाशन किसी मान्यताप्राप्त प्रकाशन गृह से हुआ है।
८. रचना लिखी हुई होनी चाहिए। बोलकर, ट्रांस्क्रिप्ट प्रस्तुति को पुस्तक नहीं कहेंगे।
९. पुस्तक तथ्यों का संकलन नहीं है न उद्धरणों की व्याख्या। वह विश्लेषण और अतःप्रज्ञा का प्रकटन है।
१०. उसे लिखने वाला चरसी और गंजेड़ी न हो।

(प्रशांत की तथाकथित कुटीर उद्योग की प्रस्तुतियों को देखकर जांचना चाहिए कि क्या वह खरा उतर रहा है?)


गंभीर बात!

१+१+१

प्रशांत त्रिपाठी ने अपनी प्रबंधकीय मेधा का प्रयोग इस अर्थ में किया है कि इंटरनेट पर छा जाओ। यूट्यूब, इंस्टा, फेसबुक, एक्स, विकिपीडिया, गूगल हर जगह उसने खुद को प्रोजेक्ट किया है। उसने एक झुंड बनाया है जो दिन रात इंटरनेट पर प्रशांत का नाम खोजता, सराहता और प्रसारित करता है। झुंड को इसी की रोटी मिलती है।

इससे यह हुआ है कि आप प्रशांत, वेदांत, गीता, सनातन, हिंदू, आदि पदों के साथ खोजेंगे तो यह सर्च इंजन में सबसे पहले दर्शित होता है। फीड में आ जाने से प्रशांत को बड़ी संख्या में लोग क्लिक करते हैं और यह रक्तबीज की तरह बढ़ता जाता है।

वह तो गनीमत है कि प्रशांत की बातें अबूझ हैं। उसकी मान्यताएं अस्पष्ट हैं। वह स्वयं क्या बोलते हैं, उन्हें ज्ञात नहीं है क्योंकि वह सब पिनक में चलता है। तो इस तरह वह फीड में दिखने के बाद भी लोगों के बीच चर्चा में नहीं आता। लेकिन उसने स्पेस में स्वयं को बिठाया हुआ है।

प्रशांत का एक कॉल सेंटर है। प्रशांत के फाउंडेशन को कोई गलती से भी रजिस्टर कर ले तो इसका कॉल सेंटर सक्रिय हो जाता है और पहले प्यार से फिर धमका कर और अंत में ब्लैकमेल करके उगाही करता है। मेरे साथ फाउंडेशन के लड़के की बातचीत इसका प्रमाण है। यह बातचीत यूट्यूब पर है। लिंक साझा कर दूंगा नीचे।

प्रशांत के गीता सेशन में चाहे जो प्रबोध कराया जाता हो, लड़के सीखते गालियां हैं। यह अपने से असहमति रखने वालों को भिन्न भिन्न तरीके से डराते हैं। लोग लोक लाज और छवि का ध्यान करके इनसे दूरी बना लेते हैं। इनका झुंड उकसा कर गलत व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता है और गलती होने पर मास रिपोर्टिंग करके अकाउंट सस्पेंड करा देता है। आपकी लड़ाई वहीं समाप्त हो जाती है।

प्रशांत के चिल्लर अनुयाई घुटे हुए हैं। ज्योंहि यह धराते हैं, तुरंत भूमिगत हो जाते हैं और रूप बदलकर आ जाते हैं। जब फंस जाते हैं, कहते हैं, यह हमारे समूह के लोगों का नहीं, विरोधियों का काम है।

जारी रहेगा..




सोमवार, 3 मार्च 2025

पाँच महत्वपूर्ण कोश ग्रन्थ,

पाँच महत्वपूर्ण कोश ग्रन्थ, जो एक पाठक, अध्येता, लेखक के पास अवश्य होना चाहिए।


पहले कोश और कोष का अंतर स्पष्ट करते चलें।

सामान्यतया दोनों समानार्थी हैं और मूल्यवान वस्तुओं के संग्रह स्थल के परिचायक। अंतर यह है कि कोष संपत्ति, धन, रत्न और मूल्यवान धातुओं के संग्रह से जुड़ा हुआ है। राजकोष, कोषागार आदि इसी से संबंधित हैं। जबकि कोश शब्दों के संग्रह से संबंधित है। यह भाषा से संबंधित है।


१. संस्कृत हिन्दी कोश, कोशकार, वामन शिवराम आप्टे।

संस्कृत के शब्दों का सही हिन्दी अर्थ मुझे इस कोश में मिला। अब यह कोश कॉपीराइट से मुक्त हो गया है तो कई प्रकाशकों ने इसे छाप दिया है। अतः यह चुनाव करना माथापच्ची हो सकती है कि सही पाठ कौन सा है?

संस्कृत हिन्दी कोश


आप मोतीलाल बनारसीदास से प्रकाशित ग्रन्थ चुन सकते हैं!


२. लोकभारती वृहत् प्रामाणिक हिन्दी कोश। कोशकार आचार्य रामचन्द्र वर्मा, डॉ बदरीनाथ कपूर।

हिन्दी से हिन्दी शब्दों का कोश ग्रन्थ लोकभारती प्रकाशन जो राजकमल प्रकाशन का अनुषंगी है, से प्रकाशित है और बहुत उपयोगी है। हिन्दी से हिन्दी शब्दों का एक कोश डॉ हरदेव बाहरी ने भी बनाया है। सबसे समृद्ध तो नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी का है जिसे आचार्य श्याम सुंदर दास ने संपादित किया है। (वहां से इसका नया रूप शीघ्र ही आने की संभावना है। प्रतीक्षारत हूं।) विगत दिवस महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ने भी एक कोश प्रस्तुत किया था किंतु ...।   



  ३. उर्दू - हिन्दी शब्दकोश। कोशकार - मुहम्मद मुस्तफा खां 'मद्दाह'। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने यह सबसे अधिक मूल्यवान कोश प्रकाशित किया है। उर्दू अरबी फारसी के शब्दों का हिन्दी अर्थ इसमें बहुत सावधानी से बताने का प्रयास किया गया है। बहुत से ऐसे शब्द जो उर्दू फारसी के हैं, उनका अर्थ जानने के लिए यह एक आवश्यक कोश ग्रन्थ है।



४. OXFORD Advanced Learner's dictionary. ऑक्सफोर्ड की यह प्रस्तुति बहुत सही है। इसमें अंग्रेजी से अंग्रेजी के पर्याय हैं। वैसे तो भार्गव की अंग्रेजी से हिन्दी डिक्शनरी बहुत काम की है और हम सबलोगों के बचपन में वह सबसे अधिक उपयोग में आई है लेकिन जब अंग्रेजी भाषा के शब्दकोश का मामला हो तो यह अपने निकट रखना चाहिए। एक आवश्यक कोश ग्रन्थ है। अंग्रेजी से हिन्दी शब्दों का एक कोश भी ऑक्सफोर्ड के सौजन्य से प्रकाशित किया हुआ रखना चाहिए।

५. हिन्दी साहित्य कोश। यह कोश दो खंड में है। एक में लेखकों के नाम से और दूसरा रचनाओं/परिभाषिक शब्दों के साथ। इसमें साहित्य से संबंधित शब्दों, लेखकों, उनकी रचनाओं का बहुत सही विवरण और परिचय है। एक आवश्यक ग्रन्थ।

हिंदी साहित्य कोश


इसके अतिरिक्त हिन्दी का एक थिसारस (समांतर कोश) भी आवश्यक है, जिसमें शब्दों के उत्पत्ति विषयक अवधारणा भी है।

परिभाषिक शब्दों का एक कोश भी आवश्यक हो गया है। समय की मांग के अनुसार विभिन्न विभागों में प्रयोग के लिए अपने कोश हो सकते हैं। अन्य भाषाओं से हिंदी और हिंदी से अन्य भाषाओं का कोश भी आवश्यक हो तो रख सकते हैं।


धन्यवाद।

रविवार, 2 मार्च 2025

श्री हनुमान चालीसा

श्री गुरु चरण सरोज रज निज मनु मुकर सुधारि।

बरनों रघुवर बिमल जस, जो दायक फल चारि।।


बुद्धि हीन तनु जानिके, सुमिरों पवन कुमार।

बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेश बिकार।।


श्री हनुमान चालीसा


जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।

जय कपीस तिहुं लोक उजागर।।


 

रामदूत अतुलित बल धामा।

अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा।।



महाबीर बिक्रम बजरंगी।

कुमति निवार सुमति के संगी।।



कंचन बरन बिराज सुबेसा।

कानन कुंडल कुंचित केसा।।



हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै।

कांधे मूंज जनेऊ साजै।



संकर सुवन केसरीनंदन।

तेज प्रताप महा जग बन्दन।।



विद्यावान गुनी अति चातुर।

राम काज करिबे को आतुर।।



प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।

राम लखन सीता मन बसिया।।



सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।

बिकट रूप धरि लंक जरावा।।



भीम रूप धरि असुर संहारे।

रामचंद्र के काज संवारे।।



लाय सजीवन लखन जियाये।

श्रीरघुबीर हरषि उर लाये।।



रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।

तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।।



सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।

अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।।



सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।

नारद सारद सहित अहीसा।।



जम कुबेर दिगपाल जहां ते।

कबि कोबिद कहि सके कहां ते।।



तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।

राम मिलाय राज पद दीन्हा।।



तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना।

लंकेस्वर भए सब जग जाना।।



जुग सहस्र जोजन पर भानू।

लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।



प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।

जलधि लांघि गये अचरज नाहीं।।



दुर्गम काज जगत के जेते।

सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।



राम दुआरे तुम रखवारे।

होत न आज्ञा बिनु पैसारे।।



सब सुख लहै तुम्हारी सरना।

तुम रक्षक काहू को डर ना।।



आपन तेज सम्हारो आपै।

तीनों लोक हांक तें कांपै।।



भूत पिसाच निकट नहिं आवै।

महाबीर जब नाम सुनावै।।



नासै रोग हरै सब पीरा।

जपत निरंतर हनुमत बीरा।।



संकट तें हनुमान छुड़ावै।

मन क्रम बचन ध्यान जो लावै।।



सब पर राम तपस्वी राजा।

तिन के काज सकल तुम साजा।



और मनोरथ जो कोई लावै।

सोइ अमित जीवन फल पावै।।



चारों जुग परताप तुम्हारा।

है परसिद्ध जगत उजियारा।।



साधु-संत के तुम रखवारे।

असुर निकंदन राम दुलारे।।



अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।

अस बर दीन जानकी माता।।



राम रसायन तुम्हरे पासा।

सदा रहो रघुपति के दासा।।



तुम्हरे भजन राम को पावै।

जनम-जनम के दुख बिसरावै।।



अन्तकाल रघुबर पुर जाई।

जहां जन्म हरि-भक्त कहाई।।



और देवता चित्त न धरई।

हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।।



संकट कटै मिटै सब पीरा।

जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।।



जै जै जै हनुमान गोसाईं।

कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।।

 


जो सत बार पाठ कर कोई।

छूटहि बंदि महा सुख होई।।




जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।

होय सिद्धि साखी गौरीसा।।



तुलसीदास सदा हरि चेरा।

कीजै नाथ हृदय मंह डेरा।।


पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।

राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुरभूप।।

सद्य: आलोकित!

भारतीय न्यायपालिका का दर्पण : हावेरी कांड

भारतीय न्यायपालिका: रक्षात्मकता और जमानत के दुरुपयोग की त्रासदी भारत का संविधान विश्व के सबसे विस्तृत और समावेशी संविधानों में से एक है , जो...

आपने जब देखा, तब की संख्या.