बुधवार, 26 अक्टूबर 2022

पंक्ति की तलाश में साहित्य का दीपक

                 -डॉ रमाकान्त राय 

        कोविड-19 के बाद इस वर्ष का दीपावली पर्व ऐसा है जिसमें कोरोना महामारी की प्रत्यक्ष छाया कम है। विश्वव्यापी बन्दी के बाद दुनिया में जो सुस्ती आई है, वह भारतीय बाजार पर भी स्पष्ट दिखाई पड़ती है। यद्यपि लोग इस आपदा से उबरने के लिए प्रयासरत हैं और बाजार उसे भुलाने में लगा हुआ है तथापि यह मंदी उपस्थित है। शासन-सत्ता की सक्रियता और सहभागिता ने इसमें जान फूंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी है किन्तु भारतीय सांस्कृतिक और साहित्यिक परिदृश्य में पारम्परिक भारतीय उत्सवों को लेकर एक प्रच्छन्न आपदाकाल जारी है। गजानन माधव मुक्तिबोध का अंधेरे में सर्वत्र व्याप्त है जहां दिया जल रहा है,/ पीतालोक-प्रसार में काल चल रहा है।” और अज्ञेय का गर्व भरा, मदमाता यह दीप अकेला’, इसको भी पंक्ति को दे दो की पुकार लगा रहा है।

यह दीप अकेला

          हिन्दी का समूचा साहित्य एक विशेष मनःस्थिति का सृजन है। आदिकाल से लेकर नयी कविता के आगमन तक हिन्दी पट्टी पराधीनता के साये में पली-बढ़ी है। मुग़ल काल में कृष्ण भक्तों का अष्टछाप सीकरी से दूर श्रीनाथ जी के मंदिर में दीप प्रज्ज्वलित करता है और रामभक्त राम नाम के मणिदीप को जिह्वा की देहरी पर रखकर अन्तः और बाह्य दोनों को प्रकाशित कर रहे हैं। निर्गुणिया कवि दीपक-तेल-बत्ती का व्यवहार संसार के आवागमन से मुक्ति के सम्बन्ध में ही करते दीखते हैं। रीतिकाल का कवि नायिका की देह के उजाले में मुग्ध है। अंग्रेज़ राज आने के बाद आधुनिक हिन्दी साहित्य के अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बलिया के ददरी मेले में भाषण देते हुए अनुभव साझा करते हैं कि "सब उन्नतियों का मूल धर्म है। इससे सबसे पहले धर्म की ही उन्नति करनी उचित है। देखो अंग्रेजों की धर्मनीति राजनीति परस्पर मिली है इससे उनकी दिन-दिन कैसी उन्नति हुई है। उनको जाने दो अपने ही यहाँ देखो। तुम्हारे धर्म की आड़ में नाना प्रकार की नीति, समाज-गठन, वैद्यक आदि भरे हुए हैं।" आज से लगभग डेढ़ सौ साल पहले भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है पर विचार करते हुए वह कहते हैं, “भाइयो, अब तो नींद से जागो। अपने देश की सब प्रकार से उन्नति करो। जिसमें तुम्हारी भलाई हो वैसी ही किताब पढ़ो। वैसे ही खेल खेलो। वैसी ही बातचीत करो। परदेसी वस्तु और परदेसी भाषा का भरोसा मत रखो। अपने देश में, अपनी भाषा में उन्नति करो।”


          जब स्वाधीनता की लौ सबसे ऊँची उमग रही थी तब सोहनलाल द्विवेदी, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा आदि साहित्यकारों ने दीपावली, दीपक और प्रकाश को नए अर्थ से जोड़ा। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद सम्प्रदायनिरपेक्ष बनने के क्रम में राजनीति, धर्मनीति से पृथक होती गयी और संतुलन के प्रयास में एक तरफ झुकती गयी। इसका प्रभाव साहित्य में भी देखा गया। जिस अंधेरे में का उल्लेख ऊपर मुक्तिबोध के साथ किया गया है, वह साहित्य में स्थायी भाव बनता गया और अज्ञेय का दीपक अधिक अकेला पड़ता गया। अंधेरा धीरे-धीरे साहित्य और समाज में भी छा गया। उदासीनता बढ़ती गयी। हरिवंशराय बच्चन ने इसे लक्षित कर लिखा- “है अंधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।” हरिवंशराय बच्चन, दीपावली पर इसी अँधेरे से जूझते दिखाई देते हैं-

साथी, घर-घर आज दिवाली।
फैल गयी दीपों की माला, मंदिर-मंदिर में उजियाला
किन्तु हमारे घर का, देखोदर काला, दीवारें काली!
साथी, घर-घर आज दिवाली।

          हिन्दी के आधुनिक साहित्य में दीपावली कभी नहीं आई। जब स्वतन्त्रता मिली तो एक समुदाय ने यह आजादी झूठी है का राग अलापा। प्रगतिशीलों का यह स्वर अद्यतन जारी है। वह आए दिन संविधान, जनतंत्र आदि को संकट में पड़ा हुआ देखता है और लोगों को निःसहाय, विवश तथा कठपुतली जानकर अपने नारे लगवाता है। हिन्दी का साहित्यिक समाज आज भी अँधेरे से जूझता हुआ, अदृश्य शत्रुओं ने निरन्तर युद्धरत है। भारतीय राजनीति सम्प्रदायनिरपेक्ष रहने के प्रयास में साहित्य को प्रभावित करती रही। इसी अवधि में यूरोप तथा अमेरिका धर्मनीति से ओतप्रोत हो अपना सांस्कृतिक प्रसार करते रहे और दीपावली के विषय में अपने फतवे सुनाते रहे। वह दीपावली को पर्यावरण प्रदूषक के रूप में और होली को अश्लीलता का पर्याय बताते रहे। भारतीय समाज में दीपावली प्रकाश और खुशियों का पर्व कम; प्रदूषण, आतिशबाज़ी, स्वास्थ्यनाशक, जीवहिंसक, व्यापार, बाजार आदि का कारक अधिक बनकर उभरा। दीपावली भगवान श्रीराम के घर आगमन का उत्सव नहीं रहा।

          जो दीपावली घर के राम-लक्ष्मण के शुभागमन का पर्व था, वह धनतेरस की चकाचौंध में पड़ गया। बाजार ने उसे उपहारों से ढँक दिया। स्वच्छता, सुगंधि और सुसज्जा को व्यर्थताबोध से जोड़ने की हरसंभव कोशिश की गयी। वातावरण को प्रदूषण से कराहता हुआ दिखाया गया। दीपावली पर हर बार पटाखे प्रभावी होते हैं। प्रकृति पूजा के पर्व छठ ने भी दीपावली की छटा को समेटा है। चौतरफा दबाव में इस त्योहार ने अपने मूल भाव को लगभग विस्मृत कर दिया है।

          वर्तमान सत्ता ने अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति को धर्मनीति से जोड़ा है। विगत कुछ वर्षों में धर्मस्थलों के पुनरुद्धार और सुंदरीकरण ने लोगों को अपने धार्मिक मान्यताओं से जोड़ने के मार्ग पर खड़ा किया है। जिस अयोध्या में भगवान श्रीराम के आगमन के अवसर पर घी के दिये जलाए गए थे, खुशियाँ मनाई गयी थीं, उस अयोध्या को सजाने-सँवारने के लिए प्रदेश और केन्द्र दोनों शासन सन्नद्ध हैं। विगत वर्षों से यह संलिप्तता संभवतः साहित्यिक मानस को प्रभावित करे और दीपों का, प्रकाश का यह पर्व रचनात्मक रूप से उर्वर करे, ऐसी उम्मीद की जा सकती है।

          हालाँकि हिन्दी साहित्य अपनी सार्थकता प्रतिरोध का साहित्य रचने में मानता है और उसके लिए यही प्रतिरोध खाद-पानी का काम करता है। शासन के साथ स्वर में स्वर मिलाकर रचे गए साहित्य को वह कभी मूल्यवान नहीं मानता और उसे हमेशा उपेक्षणीय मानता है। बीते दिवस एक प्रगतिशील साहित्यकार ने दुर्गासप्तशती के लोकभाषा अवधी में काव्यानुवाद करने की कामना प्रकट की तो प्रगतिशील समुदाय ने खूब खरी-खोटी सुनाई और उन्हें सत्ता के गलियारों में लाभ के आकांक्षी के रूप में प्रस्तुत कर दिया। हाशिया के विमर्शों ने भी पारम्परिक उत्सव और त्योहार को मलिन करने में अपनी भूमिका निभाई है। इसलिए यह सम्भावना बहुत कम है कि आगामी दिनों में भी भारतीय पर्व और त्योहारों को लेकर कोई सकारात्मक, रचनात्मक पहल होने वाली है। यदि होगी भी तो उसका संज्ञान नहीं लिया जाएगा।

हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा में शनिवार 22 अक्टूबर, 2022 को प्रकाशित 

पंक्ति की तलाश में साहित्य का दीपक

                                                                                             

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