सोमवार, 9 नवंबर 2020

कथावार्ता : अश्वत्थामा की कहानी से क्या सीखना है?

-डॉ रमाकान्त राय


        महाभारत में युद्ध के अठारहवें दिन दुर्योधन को भीम ने बुरी तरह मारा था। वह पीड़ा से तड़प रहा था। उसकी जाँघ टूट गयी थी। दुर्योधन आखिरी दिन सेनापति था। अब युद्ध समाप्तप्राय था कि शाम ढलने के बाद उसे खोजते हुए शेष बचे तीन कुरुपक्षी, महारथी और अतिरथी आए- अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा। अश्वत्थामा द्रोण का पुत्र था। कृपाचार्य कुलगुरु थे और कृतवर्मा वृष्णिवंशी वीर था। कृतवर्मा के कहने पर दुर्योधन ने अश्वत्थामा को प्रधान सेनापति बनाया। अश्वत्थामा को उस हससम एक विचित्र घटना दिखी। एक उल्लू कौवे के घोंसलें में रखे अंडों को नष्ट-भ्रष्ट कर रहा था। उसी से प्रेरणा पाकर उसने आधी रात को पांडव पक्ष पर आक्रमण करना तय किया। इन तीनों ने आधी रात को पांडवों की अनुपस्थिति में जमकर मारकाट की और सबको मार दिया। अश्वत्थामा पांडवों के पाँच पुत्रों का सिर लेकर दुर्योधन के पास पहुँचा। उसे विश्वास था कि उसने पांडवों को मार दिया है। जब दुर्योधन ने जाँचकर बताया कि यह पांडव नहीं हैं, तब वह अति उद्विग्न हो गया।

        पांडवों को इस हत्याकाण्ड की सूचना मिली तो उसमें से अर्जुन अश्वत्थामा के वध के लिए उद्धत हो गया। प्रतिज्ञा की। कृष्ण ने अर्जुन की मदद की। अश्वत्थामा से घनघोर युद्ध हुआ। पराजय का आसन्न संकट देख अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र चला दिया।

           आज यह कहानी इसी बिन्दु से शुरू करना चाहता था। ब्रह्मास्त्र की अपनी मर्यादा होती है। उसके नियम कानून होते हैं। वह प्रयोग की वस्तु नहीं है। आजमाया नहीं जाता। वह अन्तिम उपाय है। साम-दाम-दण्ड-भेद सब चुक जाये, आखिरी प्रयास भी निष्फल हो जाये तो भी एक क्षण विचार करने, चेतावनी देने के बाद का अस्त्र है। इसलिए इस अस्त्र को धारण करने वाले के लिए कई अर्हताएँ रखी गयी हैं। साथ ही यह व्यवस्था भी थी कि इसे वापस भी बुलाया जा सकता है। लेकिन दुर्भावना और कुंठा तथा हीन भावना से ग्रस्त, चंचल स्वभाव वाला, कलुषित और उदण्ड अश्वत्थामा ने अर्जुन के सम्मुख पराजय देख उसे चला दिया। प्रतिउत्तर में अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। महामुनि व्यास को हस्तक्षेप करना पड़ा। अर्जुन ने तो यह अस्त्र वापस कर लिया किन्तु अश्वत्थामा वापस लेना नहीं जानता था। उसने यह सीखा ही नहीं था।

          अश्वत्थामाओं को इसका ज्ञान सदैव रहना चाहिए कि ब्रह्मास्त्र चलाना एक उद्वेग में हो सकता है, क्षणिक आवेश में इसका निर्णय लिया जा सकता है किन्तु एक बार इसका संधान कर लिया जाये तो उसे वापस बुलाना उतना आसान नहीं। इसके लिए सच्ची वीरता आवश्यक है। द्रोण अश्वत्थामा से परिचित थे। वह उसे यह विद्या देना नहीं चाहते थे किन्तु मोहवश, अपना पुत्र जान, अजेय बनाने के लिए प्रदान किया था। सभी द्रोणाचार्यों को इसका अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि विद्यादान में उपयुक्त पात्र का विशेष महत्त्व है। और अधिकार के मामले में तो यह अत्यन्त ही ध्यातव्य है। द्रोण ने इसका कुछ ध्यान रखा था इसलिए अर्जुन को सभी विद्या दीं। वह इसके सर्वथा योग्य था। किन्तु अश्वत्थामा को पुत्रमोह में दी। महाभारत में पुत्रमोह कई स्थलों पर दिखाई देता है।

          अर्जुन के साथ छिड़े युद्ध में ब्रह्मास्त्र छोड़ देने के बाद अश्वत्थामा निरुपाय था। तब उससे कहा गया कि वह इस अस्त्र की दिशा मोड़ दे। कुटिल और कुंठित अश्वत्थामा ने पांडवों के वंश वृक्ष को नष्ट करना चाहा और उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु को निशाना बनाया। यह श्रीकृष्ण थे, जिन्होंने उत्तरा के गर्भस्थ शिशु को जीवन दान किया। सभी अर्जुनों को ध्यान रखना चाहिए कि एक श्रीकृष्ण अत्यावश्यक है। 

        अश्वत्थामा के इस कृत्य से कृष्ण इतने क्षुब्ध हुए कि उन्होंने अर्जुन से कहा कि इसके प्राण हर लो। ‘हे अर्जुन! धर्मात्मासोए हुएअसावधानमतवालेपागलअज्ञानीरथहीनस्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया हैसोए हुए निरपराध बालकों की हत्या की है। जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा अतः तत्काल इसका वध करके और इसका कटा हुआ सिर द्रौपदी के सामने रखकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।' (सौप्तिक पर्वमहाभारत) अर्जुन ने द्रोपदी से पूछा। द्रोपदी के केश दुःशासन के रक्त से धोए जा चुके थे। दुर्योधन की जंघा टूट गयी थी। पर्याप्त रक्तपात हो चुका था। अब करुणाजनित शान्ति पसर रही थी। और हत्या असहनीय हो रही थी। अर्जुन ने गुरुपुत्र से पूर्वकाल का स्नेहब्राह्मणकुमारगुरुमाता का ध्यान आदि कर अश्वत्थामा के केश कतर दियेभीम ने मणि निकाल ली। श्रीकृष्ण ने छ: हजार वर्षों तक भटकने का शाप दिया।

          अश्वत्थामा महामुनि व्यास के साथ व्यास वन चला गया। कहते हैं कि आज भी उसके माथे से मवाद रिसता है। वह श्रीहीन होकर विक्षिप्त अवस्था में मुक्ति की कामना करता हुआ यत्र-तत्र विचरण कर रहा है। सभी अश्वत्थामा इसी गति को प्राप्त होते हैं।


          मैंने यह कथा क्यों सुनाईजिन-जिन अश्वत्थामाओं को यह कथा विस्मृत हो गयी हैवह पढ़ें तो उन्हें जीवन को समझने में सहायता मिलेगी। ब्रह्मास्त्र छोड़ने से पहले विकल्प आजमाएँगे। माथे से मवाद का रिसना कोई दिव्य चमत्कार नहीं हैयह शापित जीवन का बहुत बड़ा कष्ट है। कृपाचार्य पुन: हस्तिनापुर के कुलगुरु हुएकृतवर्मा द्वारिका चले गए और कृष्ण के निकट रहे। जो महारथी थासेनापति बनाजिसने बिना सोचे-समझे ब्रह्मास्त्र छोड़ा वह वन-वन भटकता रहा। भटकने के लिए अभिशप्त हुआ।

          अश्वत्थामा महाभारत के अमर पात्रों में हैं। उनके लिए अमरता अभिशाप बन गयी। वह हमारे लिए आकाशदीप हैं।

 

असिस्टेण्ट प्रोफेसरहिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावाउत्तर प्रदेश

+91 9838952426, royramakantrk@gmail.com

5 टिप्‍पणियां:

शिवम कुमार पाण्डेय ने कहा…

बहुत बढ़िया।

Amisha ने कहा…

अश्वत्थामा की कहानी से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
कि हम सब अपनी विद्या का सही उपयोग करें और किसी योग्य व्यक्ति को अपनी विद्या दान करें या यदि किसी को मोहवश ही विद्या दान करना है तो विद्या दान करने से पूर्व व्यक्ति को विद्या पाने योग्य बनाये,यदि अपनी विद्या किसी अयोग्य व्यक्ति को दान करते है या अपनी विद्या का दुरुपयोग करते है तो उसका परिणाम घातक सिद्ध हो सकता है।

अमीषा ने कहा…

किसी भी रूप में एक जैसा नहीं होता और फिर हम किसी और के और की तरह क्यों बनना चाहेंगे सब के भीतर अपनी अलग विशेषता होती हैं प्रयास हो कि उसे निखारे ।

Shivam ने कहा…

Kathavarta par dr ramakant royki achchi post

Unknown ने कहा…

Nice massage
Thank you kathavarta and ramakant roy sir

सद्य: आलोकित!

सच्ची कला

 आचार्य कुबेरनाथ राय का निबंध "सच्ची कला"। यह निबंध उनके संग्रह पत्र मणिपुतुल के नाम से लिया गया है। सुनिए।

आपने जब देखा, तब की संख्या.