ात यह नहीं करनी है।
बात
करनी है, पत्रिका के जुलाई अंक में छपी विविधता
भरी कहानियों पर। अव्वल
तो समझ में नहीं आया कि "संवाद एकाग्र" पर केंद्रित इस अंक में कहानियों
और रचनाओं के चयन का तर्क क्या है?संवाद
एकाग्र से क्या आशय है, यह
संपादकीय स्पष्ट भी नहीं करता। सम्पादकीय केंद्रित है शमशेर बहादुर सिंह की
कविताओं को समझने के सूत्र पर। यद्यपि यह बहुत सूक्ष्म विवेचन है। फिर भी,
अंक में नरेंद्र नागदेव की कहानी 'हाउस ऑफ लस्ट' अच्छी लगी। पंकज सुबीर और विवेक मिश्र की कहानियाँ पढ़ूँगा। इसमें तीसरी कहानी रूपनारायण सोनकर की है-'ई.वी.एम.'। यह कहानी क्या है, एक रूपक है। पिछले दिनों विधानसभा चुनाव के बाद इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन ई. वी. एम. पर सवाल उठाए गए कि इस मशीन के माध्यम से धाँधली की गई है और बटन चाहे जो दबाओ, वोट वांछित जगह पर गिनने के लिए दर्ज हो जाता है। यद्यपि यह एक ऐसी बात थी जिसे हजारों गोएबल्स ने अपने दसो मुख से सैकड़ो दफा दुहराया था और लोगों को भरमाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी; तब भी कई विद्वानों ने यह अभियान जारी रखा था। रूप नारायण सोनकर की यह कहानी इसी संकल्पना का एक भोंडा से रूपक है।बहुत वाहियात और बेसिर-पैर का।
अंक में नरेंद्र नागदेव की कहानी 'हाउस ऑफ लस्ट' अच्छी लगी। पंकज सुबीर और विवेक मिश्र की कहानियाँ पढ़ूँगा। इसमें तीसरी कहानी रूपनारायण सोनकर की है-'ई.वी.एम.'। यह कहानी क्या है, एक रूपक है। पिछले दिनों विधानसभा चुनाव के बाद इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन ई. वी. एम. पर सवाल उठाए गए कि इस मशीन के माध्यम से धाँधली की गई है और बटन चाहे जो दबाओ, वोट वांछित जगह पर गिनने के लिए दर्ज हो जाता है। यद्यपि यह एक ऐसी बात थी जिसे हजारों गोएबल्स ने अपने दसो मुख से सैकड़ो दफा दुहराया था और लोगों को भरमाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी; तब भी कई विद्वानों ने यह अभियान जारी रखा था। रूप नारायण सोनकर की यह कहानी इसी संकल्पना का एक भोंडा से रूपक है।बहुत वाहियात और बेसिर-पैर का।
कहना
इतना भर है कि उस एक झूठ को स्थापित
करने में नया ज्ञानोदय भी शामिल हो गया है और तमाम जन संचार के माध्यमों
के साथ साहित्य को भी, विशेषकर
कथा साहित्य को भी झोंक दिया है।
इसी
अंक में Mangalesh Dabral सर
का साक्षात्कार छपा है और बहुत हैरानी की बात है कि साक्षात्कर्ता ने उन
(पहाड़ में पले-बढ़े) से यह प्रश्न पूछा है कि 'उत्तराखंड
राज्य बने हुए 10 वर्ष से अधिक समय हो गया है'।
मैं होता तो टोकता कि 17 साल
हो गए हैं। खैर,
और
आखिर में, अंक में Uma Shankar Choudhary जी
की कविता छपी है। अपनी कविता 'लौटना' के
आरम्भ में ही वह रचते हैं कि--
"सच
के लिए मैंने टेलीविजन देखना चाहा
परंतु
वहां अंधेरा था
आज
के अखबार के सारे पन्ने कोरे थे"
तो
मैंने सोचा कि सचाई के लिए जब कवि टेलीविजन के पास जा रहा है तो मैं पत्रिका क्यों
पढ़ रहा हूँ?
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