सोमवार, 28 अगस्त 2017

नया ज्ञानोदय- जुलाई-2017 अंक



#नया_ज्ञानोदय पत्रिका एक अजीब संकल्पना वाली पत्रिका है। उसके विज्ञापन में यह लिखा जाता है कि उसका हर अंक विशेषांक है और वह अपने रचनाकारों के संपर्क में है। ऐसे में 'योजना के बाहर की रचनाओं में विलंब स्वाभाविक है।' ठीक बात है। बाहरी लोगों को इस पत्रिका में जगह कैसे मिलेगी? गुणा-गणित से! सम्पर्क से!! तो रचनाकारों!! नया ज्ञानोदय में छपना है तो इंस्टिट्यूशनल एरिया का चक्कर काटना शुरू कर दीजिए। खैर!! बात यह नहीं करनी है।
बात करनी है, पत्रिका के जुलाई अंक में छपी विविधता भरी कहानियों पर। अव्वल तो समझ में नहीं आया कि "संवाद एकाग्र" पर केंद्रित इस अंक में कहानियों और रचनाओं के चयन का तर्क क्या है?संवाद एकाग्र से क्या आशय है, यह संपादकीय स्पष्ट भी नहीं करता। सम्पादकीय केंद्रित है शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं को समझने के सूत्र पर। यद्यपि यह बहुत सूक्ष्म विवेचन है। फिर भी,
अंक में नरेंद्र नागदेव की कहानी 'हाउस ऑफ लस्ट' अच्छी लगी। पंकज सुबीर और विवेक मिश्र की कहानियाँ पढ़ूँगा। इसमें तीसरी कहानी रूपनारायण सोनकर की है-'ई.वी.एम.'। यह कहानी क्या है, एक रूपक है। पिछले दिनों विधानसभा चुनाव के बाद इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन ई. वी. एम. पर सवाल उठाए गए कि इस मशीन के माध्यम से धाँधली की गई है और बटन चाहे जो दबाओ, वोट वांछित जगह पर गिनने के लिए दर्ज हो जाता है। यद्यपि यह एक ऐसी बात थी जिसे हजारों गोएबल्स ने अपने दसो मुख से सैकड़ो दफा दुहराया था और लोगों को भरमाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी; तब भी कई विद्वानों ने यह अभियान जारी रखा था। रूप नारायण सोनकर की यह कहानी इसी संकल्पना का एक भोंडा से रूपक है।बहुत वाहियात और बेसिर-पैर का।
कहना इतना भर है कि उस एक झूठ को स्थापित करने में नया ज्ञानोदय भी शामिल हो गया है और तमाम जन संचार के माध्यमों के साथ साहित्य को भी, विशेषकर कथा साहित्य को भी झोंक दिया है।
इसी अंक में Mangalesh Dabral सर का साक्षात्कार छपा है और बहुत हैरानी की बात है कि साक्षात्कर्ता ने उन (पहाड़ में पले-बढ़े) से यह प्रश्न पूछा है कि 'उत्तराखंड राज्य बने हुए 10 वर्ष से अधिक समय हो गया है'। मैं होता तो टोकता कि 17 साल हो गए हैं। खैर,
और आखिर में, अंक में Uma Shankar Choudhary जी की कविता छपी है। अपनी कविता 'लौटना' के आरम्भ में ही वह रचते हैं कि--

"सच के लिए मैंने टेलीविजन देखना चाहा
परंतु वहां अंधेरा था
आज के अखबार के सारे पन्ने कोरे थे"

तो मैंने सोचा कि सचाई के लिए जब कवि टेलीविजन के पास जा रहा है तो मैं पत्रिका क्यों पढ़ रहा हूँ?



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सच्ची कहानी- झूठा कथाकार


कहते हैं कि एक गांव में एक बेहद उत्पाती किस्म का व्यक्ति रहा करता था। समूचे गांव के लोग उसकी हरकतों से परेशान थे। उसने जिंदगी में कभी किसी का भला नहीं किया था। वह निरंतर इस उधेड़बुन में लगा रहता था कि लोगों को परेशान कैसे रखा जाए। परेशान रखने के लिए उसने कई ऐसी तकनीक और तरकीबें अपना ली थी जिनसे लोगों की नाक में दम आ गया था। वह ऐसा करके बहुत सुख का अनुभव करता था।
गांव में कोई भी ऐसा नहीं रहा होगा जो उससे दुःखी ना हो। यद्यपि वह बहुत चापलूस पसंद व्यक्ति था और जी-हुजूरी उसका खुराक थी, फिर भी ऐसा देखा गया था कि वह उन लोगों को भी परेशान करने से बाज नहीं आता था जो लोग सदैव उसके हित की पूर्ति के लिए उसके आगे-पीछे घूमा करते थे। कहने का आशय यह कि गांव की सारी जनता उससे त्रस्त थी।
लेकिन जैसा कि सब के साथ होता है। एक दिन उसका अंत समय आ गया। अपने अंत समय को नजदीक जान वह बहुत दुखी हुआ। उसे इस बात का दुख सबसे अधिक था कि मेरे मरने के बाद गांव वालों को कौन परेशान करेगा।
खैर अपने अंतिम समय में उसने गांव के कुछ गणमान्य लोगों को बुलाया। बहुत अनुनय विनय करने के बाद उसने अपनी आखिरी इच्छा जाहिर की। उसने कहा कि हालांकि वह अभी तक गांव वालों को बहुत परेशान करता आया है और उसे इसका खेद है तो वह चाहता है कि जीते जी नहीं तो मरते समय इसका प्रायश्चित कर ले। और प्रायश्चित का तरीका यह है कि जब वह मर जाए तो उसके खास स्थान पर खूंटा ठोक दिया जाए। और उसकी लाश को लाठियों से पीटते हुए श्मशान ले जाया जाए। गांव वाले इस प्रस्ताव से बहुत प्रसन्न हुए। आखिर उसकी शरारतों से तंग जो थे।
फिर एक दिन मर गया। उसकी अंतिम इच्छा के अनुरूप उसके खास अंग में गाँव वालों द्वारा खूंटा ठोक दिया गया और उसकी अर्थी को लाठियों से पीटते हुए शमशान की तरफ ले जाने लगे।
फिर जो हुआ वह पूरे गांव के इतिहास में नहीं हुआ था। किसी ने पुलिस को खबर कर दी और पुलिस ने मृत शरीर के साथ दुर्व्यवहार करने के आरोप में सारे गांव को लॉकअप में बंद कर दिया।
बहुत बाद में लोगों को पता चला की मरते मरते भी उसने गांव वालों को चैन से न रहने दिया।

डिस्क्लेमर --इस कहानी का अभी हाल-फिलहाल और मेरे आस-पास से कोई संबंध नहीं है।

सद्य: आलोकित!

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