शुक्रवार, 16 दिसंबर 2022

मधुआ : जयशंकर प्रसाद की कहानी

-“आज सात दिन हो गए पीने को कौन कहे --छुआ तक नहीं! आज सातवाँ दिन है, सरकार !

-“तुम झूठे हो। अभी तो तुम्हारे कपड़ों से महक आ रही है

-“वह.. वह तो कई दिन हुए। सात दिन से ऊपर---कई दिन हुए--अँधेरे में बोतल उड़ेलने लगा था। कपड़ों पर गिर जाने से नशा भी न आया और आपको कहने का... क्या कहूँ सच मानिये। सात दिन---ठीक सात दिन से एक बूँद भी नहीं।"

ठाकुर सरदार सिंह हँसने लगे। लखनऊ में लड़का पढ़ता था। ठाकुर साहब भी कभी-कभी वहीँ आ जाते। उनको कहानी सुनने का चसका था। खोजने पर यही शराबी मिला। वह रात को, दोपहर में, कभी-कभी सवेरे भी आता। अपनी लच्छेदार कहानी सुनाकर ठाकुर का मनोविनोद करता।

ठाकुर ने हँसते हुए कहा--"तो आज पियोगे न?"

"झूठ कैसे कहूँ। आज तो जितना मिलेगा, सब पीऊँगा।  सात दिन चने-चबैने पर बिताए हैं किसलिए।"

"अद्भुत! सात दिन पेट काटकर आज अच्छा भोजन न करके तुम्हें पीने की सूझी है! यह भी...।"

"सरकार मौज बहार की एक घड़ी, एक लम्बे दुखपूर्ण जीवन से अच्छी है। उसकी ख़ुमारी में रूखे दिन काटे जा सकते हैं।"

"अच्छा आज दिन भर तुमने क्या-क्या किया है?"

"मैंने?---अच्छा सुनिए--सवेरे कुहरा पड़ता था, मेरे धुआँसे कम्बल-सा वह भी सूर्य के चारों ओर लिपटा था। हम दोनों मुंह छिपाए पड़े थे।"

ठाकुर साहब ने हँस कर कहा, "अच्छा, तो इस मुंह छिपाने का कोई कारण?"

"सात दिन से एक बूँद भी गले से न उतरी थी। भला मैं कैसे मुँह दिखा सकता था! और जब बारह बजे धूप निकली, तो फिर लाचारी थी! उठा, हाथ-मुंह धोने में जो दुःख हुआ, सरकार, वह क्या कहने की बात है! पास में पैसे बचे थे चना चबाने से दांत भाग रहे थे। कट-कटी लग रही थी। परांठे वाले के यहाँ पहुँचा, धीरे-धीरे खाता रहा और अपने को सेंकता भी रहा। फिर गोमती किनारे चला गया। घूमते-घूमते अँधेरा हो गया, बूंदे पड़ने लगी, तब कहीं भाग के आप के पास आया।"

"अच्छा, जो उस दिन तुमने गड़रिये वाली कहानी सुनाई थी, जिसमें आसफुद्दौला ने उसकी लड़की का आँचल भुने हुए भुट्टे के दाने के बदले मोतियों से भर दिया था! वह क्या सच है?"

"सच! अरे, ग़रीब लड़की भूख से उसे चबाकर थू-थू करने लगी। रोने लगी! ऐसी निर्दयी दिल्लगी बड़े लोग कर ही बैठते हैं। सुना है श्री रामचन्द्र ने भी हनुमानजी से ऐसा ही... ।"

ठाकुर साहब ठठाकर हँसने लगे। पेट पकड़ कर हँसते-हँसते लोट गए। सांस बटोरते हुए सम्हल कर बोले, "और बड़प्पन किसे कहते हैं? कंगाल तो कंगाल! गधी लड़की! भला उसने कभी मोती देखे थे, चबाने लगी होगी। मैं सच कहता हूँ, आज तक तुमने जितनी कहानियां सुनाई, सब में बड़ी टीस थी। शाहज़ादे के दुखड़े, रंगमहल की अभागिनी बेगमों के निष्फल प्रेम, करुण-कथा और पीड़ा से भरी हुई कहानियां ही तुम्हें आती हैं; पर ऐसी हंसाने वाली कहानी और सुनाओ, तो मैं अपने सामने ही बढ़िया शराब पिला सकता हूँ।"

"सरकार! बूढ़ों से सुने हुए वे नवाबी के सोने से दिन, अमीरों की रंग-रेलियां, दुखियों की दर्द-भरी आहें, रंगमहलों में घुल-घुल कर मरने वाली बेगमें, अपने-आप सिर में चक्कर काटती रहती हैं। मैं उनकी पीड़ा से रोने लगता हूँ। अमीर कंगाल हो जाते हैं। बड़े-बड़ों का घमंड चूर होकर धूल में मिल जाता है। तब भी दुनिया बड़ी पागल है। मैं उसके पागलपन को भुलाने के लिए शराब पीने लगता हूँ---सरकार! नहीं तो यह बुरी बला कौन अपने गले लगाता।"

ठाकुर साहब ऊँघने लगे थे। अंगीठी में कोयला दहक रहा था। शराबी सर्दी में ठिठुरा जा रहा था।  हाथ सेंकने लगा।

सहसा नींद से चौंक कर ठाकुर साहब ने कहा, -“अच्छा जाओ, मुझे नींद लग रही है। वह देखो, एक रूपया पड़ा है, उठा लो, लल्लू को भेजते जाओ।"

शराबी रूपया उठा कर धीरे से खिसका। लल्लू था ठाकुर साहब का जमादार। उसे खोजते हुए जब वह फाटक पर की बगल वाली कोठरी के पास पहुंचा, तो सुकुमार कंठ से सिसकने का शब्द सुनाई पड़ा। वह खड़ा होकर सुनने लगा।

"तो सूअर रोता क्यों है?" कुँवर साहब ने दो ही लातें लगाईं हैं! कुछ गोली तो नहीं मार दी?" -कर्कश स्वर में लल्लू बोल रहा था; किन्तु उत्तर में सिसकियों के साथ एकाध हिचकी भी सुनाई पड़ जाती। अब और भी कठोरता से लल्लू ने कहा, "मधुआ! जा सो रह, नखरा न कर, नहीं तो उठूंगा तो खाल उधेड़ दूंगा! समझा न?"

शराबी चुपचाप सुन रहा था। बालक की सिसकी और बढ़ने लगी।  फिर उसे सुनाई पड़ा --"ले अब भागता है कि नहीं? क्यों मार खाने पर तुला है?"

भयभीत बालक बाहर चला आ रहा था। शराबी ने उसके छोटे से सुन्दर गोरे मुंह को देखा। आँसू की बूँदें ढलक रही थीं। बड़े दुलार से उसका मुंह पोंछते हुए उसे लेकर वह फाटक के बाहर चला आया। दस बज रहे थे। कड़ाके की सर्दी थी। दोनों चुपचाप चलने लगे। शराबी की मौन सहानुभूति को उस छोटे से सरल हृदय ने स्वीकार कर लिया। वह चुप हो गया। अभी वह एक तंग गली पर रुका ही था कि बालक के फिर सिसकने की आहट लगी। वह झिड़क कर बोल उठा--

"अब क्यों रोता है रे छोकरे?"

"मैंने दिनभर से कुछ खाया नहीं।"

"कुछ खाया नहीं; इतने बड़े अमीर के यहाँ रहता है और दिन भर तुझे खाने को नहीं मिला?"

"यही कहने तो मैं गया था जमादार के पास; मार तो रोज़ ही खाता हूँ। आज तो खाना ही नहीं मिला। कुंवर साहब का ओवरकोट लिए खेल में दिनभर साथ रहा। सात बजे लौटा, तो और भी नौ बजे तक काम करना पड़ा। आटा रख नहीं सका था, रोटी बनती तो कैसे! जमादार से कहने गया था।" भूख की बात कहते-कहते बालक के ऊपर उसकी दीनता और भूख ने एक साथ ही जैसे आक्रमण कर दिया, वह फिर हिचकियाँ लेने लगा।

शराबी उसका हाथ पकड़ कर घसीटता हुआ गली में ले चला। एक गन्दी कोठरी का दरवाज़ा ठेलकर बालक को लिए हुए वह भीतर पहुंचा, टटोलते हुए सलाई से मिटटी की ढिबरी जला कर वह फटे कम्बल के नीचे कुछ खोजने लगा। एक परांठे का टुकड़ा मिला। शराबी उसे बालक के हाथ में देकर बोला, "तब तक तू इसे चबा, मैं तेरा गढ़ा भरने के लिए कुछ और ले आऊँ --सुनता है रे छोकरे! रोना मत, रोएगा तो खूब पीटूंगा। मुझे रोने से बड़ा बैर है। पाजी कहीं का, मुझे भी रुलाने का .....।"

शराबी गली के बाहर भागा। उसके हाथ में एक रूपया था। बारह आने का एक देसी अद्धा और दो आने की चाय...दो आने की पकौड़ी ....नहीं--नहीं, आलू-मटर.... अच्छा, न सही, चारों आने का मांस ले लूँगा, पर वह छोकरा! उसका गढ़ा जो भरना होगा, यह कितना खाएगा और क्या खाएगा? ओह! आज तक तो कभी मैंने दूसरों के खाने का सोच-विचार किया ही नहीं। तो क्या ले चलूँ?---पहले एक अद्धा तो ले लूँ---इतना सोचते-सोचते उसकी आँखों पर बिजली के प्रकाश की झलक पड़ी। उसने अपने को मिठाई की दुकान पर खड़ा पाया।

वह शराब का अद्धा लेना भूल कर मिठाई-पूरी खरीदने लगा। नमकीन लेना भी न भूला। पूरा एक रुपये का सामान लेकर वह दुकान से हटा। जल्द पहुँचने के लिए एक तरह से दौड़ने लगा। अपनी कोठरी में पहुंचकर उसने दौनों की पाँत बालक के सामने सजा दी। उनकी सुगंध से बालक के गले में एक तरावट पहुंची। वह मुस्कराने लगा।

शराबी ने मिट्टी की गगरी से पानी उड़ेलते हुए कहा, "नटखट कहीं का, हँसता है, सौंधी बास नाक में पहुंची ना! ले खूब, ठूँस कर खा ले और फिर रोया कि पीटा।"

दोनों ने, बहुत दिन पर मिलने वाले दो मित्रों की तरह साथ बैठ कर भर पेट खाया। सीली जगह पर सोते हुए बालक ने शराबी का पुराना बड़ा कोट ओढ़ लिया था। जब उसे नींद आ गई, तो शराबी भी कम्बल तान कर बड़बड़ाने लगा। सोचा था, आज सात दिन पर भर पेट पीकर सोऊँगा लेकिन यह छोटा-सा रोता पाजी न जाने कहाँ से आ धमका?

एक चिंतापूर्ण आलोक में आज पहले-पहल शराबी ने आँखें खोल कर कोठरी में बिखरी हुई दारिद्र्य की विभूति को देखा और देखा उस घुटनों से ठुड्डी लगाए हुए निरीह बालक को; उसने तिलमिला कर मन-ही-मन प्रश्न किया-- किसने ऐसे सुकुमार फूल को कष्ट देने के लिए निर्दयता की सृष्टि की? आह री नियति! तब इसको लेकर मुझे घर-बारी बनना पड़ेगा क्या? दुर्भाग्य! जिसे मैंने कभी सोचा भी न था। मेरी इतनी माया-ममता --- जिसपर, आज तक केवल बोतल का ही पूरा अधिकार था--- इसका पक्ष क्यों लेने लगी? इस छोटे-से पाजी ने मेरे जीवन के लिए कौन-सा इन्द्रजाल रचने का बीड़ा उठाया है? तब क्या करूँ? कोई काम करूँ? कैसे दोनों का पेट चलेगा? नहीं, भगा दूंगा इसे ---आँख तो खोले।

बालक अंगड़ाई ले रहा था। वह उठ बैठा। शराबी ने कहा, "ले उठ, कुछ खा ले, अभी रात का बचा हुआ है; और अपनी राह देख! तेरा नाम क्या है रे?"

बालक ने सहज हंसी हँस कर कहा, "माधव! भला हाथ-मुँह भी न धोऊँ? और जाऊँगा कहाँ?"

"आह!" कहाँ बताऊँ इसे कि चला जाए! कह दूँ कि भाड़ में जा; किन्तु वह आज तक दुःख की भट्टी में जलता ही रहा है। तो.... वह चुपचाप घर से झल्ला कर सोचता हुआ निकला ---ले पाजी अब यहाँ लौटूँगा ही नहीं। तू ही इस कोठरी में रह!

शराबी घर से निकला। गोमती किनारे पहुँचने पर उसे स्मरण हुआ कि वह कितनी ही बातें सोचता आ रहा था, पर कुछ भी सोच न सका। हाथ-मुँह धोने लगा। उजली धूप निकल आई थी। वह चुपचाप गोमती की धारा को देख रहा था। धूप की गरमी से सुखी होकर वह चिंता भुलाने का प्रयत्न कर रहा था कि किसी ने पुकारा --- "भले आदमी रहे कहाँ? सालों पर दिखाई पड़े. तुमको खोजते-खोजते मैं थक गया।"

शराबी ने चौंक कर देखा। वह कोई जान-पहचान का तो मालूम होता था; पर ठीक-ठीक न जान सका।

उसने फिर कहा, -- "तुम्हीं से कह रहे हैं। सुनते हो, उठा ले जाओ अपनी सान धरने की कल, नहीं तो सड़क पर फेंक दूंगा। एक ही तो कोठरी, जिसका मैं दो रुपए किराया देता हूँ, उसमे क्या मुझे अपना कुछ रखने के लिए नहीं है। "

"ओ हो? रामजी। तुम हो भाई, मैं भूल गया था। तो चलो, आज ही उसे उठा लाता हूँ।"----कहते हुए शराबी ने सोचा, -'अच्छी रही, उसी को बेचकर कुछ दिनों तक काम चलेगा।' गोमती नहाकर, रामजी, पास ही अपने घर पर पहुंचा। शराबी की कल देते हुए उसने कहा, "ले जाओ, किसी तरह मेरा इससे पिंड छूटे।"

बहुत दिनों पर आज उसको कल ढोना पड़ा। किसी तरह अपनी कोठरी में पहुँच कर उसने देखा कि बालक बैठा है। बड़बड़ाते हुए उसने पूछा, "क्यूँ रे, तूने कुछ खा लिया कि नहीं?"

"भर पेट खा चुका हूँ और वह देखो तुम्हारे लिए भी रख दिया है।" कह कर उसने अपनी स्वाभाविक हंसी से उस रूखी कोठरी को तर कर दिया।

          शराबी एक क्षण भर चुप रहा। फिर चुपचाप जलपान करने लगा।---मन-ही-मन सोच रहा था ---यह भाग्य का संकेत नहीं तो और क्या है? चलूँ फिर सान देने का काम चलता करूँ। दोनों का पेट भरेगा।  वही पुराना चरखा फिर सिर पड़ा। नहीं तो दो बातें किस्सा कहानी इधर-उधर की कह कर काम चला ही लेता था? पर अब तो बिना कुछ किए घर नहीं चलने का। जल पीकर बोलै, "क्यूँ रे मधुआ, अब तू कहाँ जाएगा?"

          "कहीं नहीं।"

          "यह लो तो फिर यहाँ जमा गड़ी है कि मैं खोद-खोद कर तुझे मिठाई खिलाता रहूंगा?"

          "तब कोई काम करना चाहिए।"

          "करेगा?"

          "जो कहो?"

          "अच्छा तो आज से मेरे साथ-साथ घूमना पड़ेगा। यह कल तेरे लिए लाया हूँ! चल, आज से तुझे सान देना सिखाऊंगा। कहाँ, इसका कुछ ठीक नहीं। पेड़ के नीचे रात बिता सकेगा न?"

          "कहीं भी रह सकूंगा; पर उस ठाकुर की नौकरी न कर सकूंगा।" शराबी ने एक बार फिर स्थिर दृष्टि से उसे देखा। बालक की आँखें दृढ़ निश्चय की सौगंध खा रही थी।

          शराबी ने मन-ही मन कहा, "बैठे-बिठाये यह हत्या कहाँ से लगी? अब तो शराब न पीने की मुझे भी सौगंध लेनी पड़ी।"

          वह साथ ले जाने वाली वस्तुओं को बटोरने लगा। एक गट्ठर का और दूसरा कल का, दो बोझ हुए। शराबी ने पूछा, "तू किसे उठाएगा?"

          "जिसे कहो!"

          "अच्छा तेरा बाप जो मुझे पकड़े तो?"

          "कोई नहीं पकड़ेगा, चलो भी। मेरे बाप कभी के मर गए। "

          शराबी आश्चर्य से उसका मुंह देखता हुआ कल उठा कर खड़ा हो गया। बालक ने गठरी लादी। दोनों कोठरी छोड़ कर चल पड़े।

जयशंकर प्रसाद

(जयशंकर प्रसाद की यह कहानी उनके कथा संकलन आँधी में है। यह कहानी उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालय के परास्नातक के पाठ्यक्रम का अंग है। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए यह कहानी यहाँ अविकल रखी जा रही है। इस कहानी का पाठ आप कथावार्ता के यू ट्यूब चैनल  पर भी सुन सकेंगे। - सम्पादक)

मंगलवार, 29 नवंबर 2022

विद्यापति के पाँच पद

राधा की वन्दना


देख-देख राधा रूप अपार।
अपुरूब के बिहि आनि मिलाओलखिति-तल लावनि-सार॥
अंगहि अंग-अनंग मुरछायतहेरए पडए अथीर॥
मनमथ कोटि-मथन करू जे जनसे हेरि महि-मधि गीर॥
कत कत लखिमी चरन-तल ने ओछरंगिन हेरि विभोरि॥
करू अभिलाख मनहि पद पंकजअहनिसि कोर अगोरि॥


विद्यापति


श्रीकृष्ण प्रेम

जहं-जहं पग जुग धरई। तहिं-तहिं सरोरूह झरई।

जहं-जहं झलकत अंग। तहिं-तहिं बिजुरि तरंग।।

कि हेरल अपरुब गोरि। पैठलि हियमधि मोरि।।

जहं-जहं नयन बिकास। तहिं-तहिं कमल प्रकाश।।

जहं लहु हास संचार। तहिं-तहिं अमिय बिकार।।

जहं-जहं कुटिल कटाख। ततहिं मदन सर लाख।।

हेरइत से धनि थोर। अब तिन भुवन अगोर।।

पुनु किए दरसन पाब। अब मोहे इत दुख जाब।।

विद्यापति कह जानि। तुअ गुन देहब आनि।।


राधा का प्रेम


 सखि पेखलि एक अपरूप। सुनइत मानबि सपन सरूप।।

कमल जुगल पर चांदक माला। तापर उपजत तरुन तमाला।।

तापर बेढ़लि बीजुरि लता। कालिंदी तट धीरे चलि जाता।।

साखा सिखर सुधाकर पाति। ताहि नब पल्लव अरुनक भांति।।

बिमल बिंबफल जुगल विकास। थापर कीर थीर करू बास॥

थापर चंचल खंजन-जोर।  तापर सांपिनी झापल मोर।।

ए सखि रंगिनि कहल निसान। हेरइत पुनि मोर हरल गेआन।।

कवि विद्यापति एह रस भान। सपुरुख मरम तुहुं भल जान।।



(4)


सैसव जौबन दुहु मिली गेल। स्रवन क पाठ दुः लोचन लेल॥

वचनक चातुरि लहु-लहु हास। धरनिए चाँद कएल परगास॥

मुकुर हाथ लए करए सिंगार। सखी पूछए कइसे सुरत-बिहार॥

निरजन उरज हेरए कत बेरि।बिहंसए अपन पयोधर हेरि॥
पहिलें बदरि समपुनि नवरंग। दिन-दिन अनंग अगोरल अंग॥
माधव पेखल अपरुब बाला। सईसव जौबन दुहु एक भेला॥
भनई विद्यापति हे अगेयानी। दुहु एक जोग के कह सेयानी॥
(5)

सखि हे, कि पूछसि अनुभव मोए।
से पिरिति अनुराग बखानिअतिल-तिल नूतन होए॥
जनम अबधि हम रूप निहारलनयन  तिरपित भेल॥
सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनलस्रुति पथ परसन गेल॥
कत मधु-जामिनि राभास गमाओलि, न बूझल कइसन केलि॥
लाख लाख जुगहिअ-हिअराखलतइओहि अजर निन गेल॥
कत बिदगध जनरस अनुमोदएअनुभव काहु  पेख॥
विद्यापति कह प्रान जुड़ाइतेलाखे  मीलल एक॥




गुरुवार, 24 नवंबर 2022

त्रिलोचन की ग्यारह कविताएं

 (1)

ताप के ताए हुए दिन

 

ताप के ताए हुए दिन ये
क्षण के लघु मान से
मौन नपा किए ।

चौंध के अक्षर
पल्लव-पल्लव के उर में
चुपचाप छपा किए ।

कोमलता के सुकोमल प्राण
यहाँ उपताप में
नित्य तपा किए ।

क्या मिला-क्या मिला
जो भटके-अटके
फिर मंगल-मंत्र जपा किए ।

 

(2)

अन्तर

 

तुलसी और त्रिलोचन में अन्तर जो झलके

वे कालान्तर के कारण हैं । देश वही है,

लेकिन तुलसी ने जब-जब जो बात कही है,

उसे समझना होगा सन्दर्भों में कल के।

वह कल, कब का बीत चुका है .. आँखें मल के

ज़रा देखिए, इस घेरे से कहीं निकल के,

पहली स्वरधारा साँसों में कहाँ रही है;

धीरे-धीरे इधर से किधर आज बही है।

क्या इस घटना पर आँसू ही आँसू ही ढलके।


और त्रिलोचन के सन्दर्भों का पहनावा

युग ही समझे, तुलसी को भी नहीं सजेगा,

सुखद हास्यरस हो जाएगा। जीवन अब का

फुटकर मेल दिखाकर भी कुछ और बनावा

रखता है। अब बाज पुराना नहीं बजेगा

उसके मन का। मान चाहिए, सबको सबका।

 

(3)

फिर न हारा

 

मैं तुम्हारा

बन गया तो

फिर न हारा


आँख तक कर

फिरी थक कर

डाल का फल

गिरा पक कर

वर्ण दृग को

स्पर्श कर को

स्वाद मुख को

हुआ प्यारा ।


फूल फूला

मैं न भूला

गंध-वर्णों

का बगूला

उठा करता

गिरा करता

फिरा करता

नित्य न्यारा ।

 

(4)

जलरुद्ध दूब

 

मौन के सागर में

गहरे गहरे

निशिवासर डूब रहा हूँ


जीवन की

जो उपाधियाँ हैं

उनसे मन ही मन ऊब रहा हूँ


हो गया ख़ाना ख़राब कहीं

तो कहीं

कुछ में कुछ ख़ूब रहा हूँ


बाढ़ में जो

कहीं न जा सकी

जलरुद्ध रही वही दूब रहा हूँ ।

 

(5)

सहस्रदल कमल

 

जब तक यह पृथ्वी रसवती है

और

जब तक सूर्य की प्रदक्षिणा में लग्न है,

तब तक आकाश में

उमड़ते रहेंगे बादल मंडल बाँध कर;

जीवन ही जीवन

बरसा करेगा देशों में, दिशाओं में;

दौड़ेगा प्रवाह

इस ओर उस ओर चारों ओर;

नयन देखेंगे

जीवन के अंकुरों को

उठ कर अभिवादन करते प्रभात काल का ।

बाढ़ में

आँखो के आँसू बहा करेंगे,

किन्तु जल थिराने पर,

कमल भी खिलेंगे

सहस्रदल ।

 

(6)

पाहुन

बना बना कर चित्र सलौने
यह सूना आकाश सजाया
राग दिखाया
क्षण-क्षण छवि में चित्त चुराया
बादल चले गए वे

आसमान जब नीला-नीला
एक रंग रस श्याम सजीला
धरती पीली हरी रसीली
शिशिर -प्रभात समुज्ज्वल गीला
बादल चले गए वे

दो दिन दुःख का दो दिन सुख का
दुःख सुख दोनों संगी जग में
कभी हास है अभी अश्रु हैं
जीवन नवल तरंगी जग में
बादल चले गए वे
दो दिन पाहुन जैसे रह कर ।

 

(7)

यूँ ही कुछ मुस्काकर तुमने


यूँ ही कुछ मुस्काकर तुमने
परिचय की वो गाँठ लगा दी !

था पथ पर मैं भूला-भूला
फूल उपेक्षित कोई फूला
जाने कौन लहर थी उस दिन
तुमने अपनी याद जगा दी ।

कभी कभी यूँ हो जाता है
गीत कहीं कोई गाता है
गूँज किसी उर में उठती है
तुमने वही धार उमगा दी ।

जड़ता है जीवन की पीड़ा
निस्-तरँग पाषाणी क्रीड़ा
तुमने अन्जाने वह पीड़ा
छवि के शर से दूर भगा दी ।

 

(8)

तुलसी बाबा

 

तुलसी बाबा, भाषा मैंने तुमसे सीखी

मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो।कह सकते थे तुम सब कड़वी, मीठी तीखी।

प्रखर काल की धारा पर तुम जमे हुए हो।

और वृक्ष गिर गए मगर तुम थमे हुए हो।

कभी राम से अपना कुछ भी नहीं दुराया,

देखा, तुम उन के चरणों पर नमे हुए हो।

विश्व बदर था हाथ तुम्हारे उक्त फुराया,

तेज तुम्हारा था कि अमंगल वृक्ष झुराया,

मंगल का तरु उगा; देख कर उसकी छाया,

विघ्न विपद के घन सरके, मुँह नहीं चुराया।

आठों पहर राम के रहे, राम गुन गाया।

यज्ञ रहा, तप रहा तुम्हारा जीवन भू पर।

भक्त हुए, उठ गए राम से भी, यों ऊपर ।

 

(9)

भाषा की लहरें

 

भाषाओं के अगम समुद्रों का अवगाहन
मैंने किया। मुझे मानवजीवन की माया
सदा मुग्ध करती है, अहोरात्र आवाहन

सुन सुनकर धायाधूपा, मन में भर लाया
ध्यान एक से एक अनोखे। सबकुछ पाया
शब्दों में, देखा सबकुछ ध्वनिरूप हो गया।
मेघों ने आकाश घेरकर जी भर गाया।
मुद्रा, चेष्टा, भाव, वेग, तत्काल खो गया,
जीवन की शैय्या पर आकर मरण सो गया।

सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ भाषा ।
भाषा की अंजुली से मानव हृदय टो गया
कवि मानव का, जगा नया नूतन अभिलाषा।

भाषा की लहरों में जीवन की हलचल है,
ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है

 

(10)

चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती

 

चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता है:
इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर
निकला करते हैं।

चम्पा सुन्दर की लड़की है
सुन्दर ग्वाला है : गाय भैंसे रखता है
चम्पा चौपायों को लेकर
चरवाही करने जाती है

चम्पा अच्छी है
चंचल है
न ट ख ट भी है
कभी कभी ऊधम करती है
कभी कभी वह कलम चुरा देती है
जैसे तैसे उसे ढूंढ कर जब लाता हूँ
पाता हूँ - अब कागज गायब
परेशान फिर हो जाता हूँ

चम्पा कहती है:
तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर
क्या यह काम बहुत अच्छा है
यह सुनकर मैं हँस देता हूँ
फिर चम्पा चुप हो जाती है

उस दिन चम्पा आई , मैने कहा कि
चम्पा, तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम सरेगा
गांधी बाबा की इच्छा है -
सब जन पढ़ना लिखना सीखें
चम्पा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढूंगी
तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं
वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे
मैं तो नहीं पढ़ूँगी

मैने कहा चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा , तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम सँग साथ रह चला जायेगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर है वह कलकत्ता
कैसे उसे सँदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी
चम्पा पढ़ लेना अच्छा है!

चम्पा बोली : तुम कितने झूठे हो, देखा,
हाय राम , तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करुंगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूंगी
कलकत्ता में कभी न जाने दूँगी

कलकत्ते पर बजर गिरे।

 

 

(11)

सॉनेट पथ

 

इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौड़ा;
सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट; क्या कर डाला
यह उस ने भी अजब तमाशा। मन की माला
गले डाल ली। इस सॉनेट का रस्ता चौड़ा

अधिक नहीं है, कसे कसाए भाव अनूठे
ऐसे आएँ जैसे क़िला आगरा में जो
नग है, दिखलाता है पूरे ताजमहल को;
गेय रहे, एकान्विति हो। उस ने तो झूठे
ठाटबाट बाँधे हैं। चीज़ किराए की है।
स्पेंसर, सिडनी, शेक्सपियर, मिल्टन की वाणी
वर्ड्सवर्थ, कीट्स की अनवरत प्रिय कल्याणी
स्वर-धारा है, उस ने नई चीज़ क्या दी है।

सॉनेट से मजाक़ भी उसने खूब किया है,

जहाँ तहाँ कुछ रंग व्यंग्य का छिड़क दिया है।


त्रिलोचन


(त्रिलोचन (1917-2007ई0) प्रगतिवादी कवियों की त्रयी के प्रधान कवि हैं। त्रयी के अन्य स्तम्भ हैं- नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल। त्रिलोचन शास्त्री का असली नाम वासुदेव सिंह था। वह हिन्दी कविता में सोनेट के जन्मदाता माने जाते हैं। उन्होने अपनी कविताओं में कई प्रयोग किए हैं। गुलाब और बुलबुल, ताप के ताए हुए दिन,  उस जनपद का कवि हूँ उनके चर्चित कविता संकलन हैं। यहाँ त्रिलोचन की ग्यारह कवितायें दी गयी हैं। इनमें से प्रारम्भिक पाँच कवितायें छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर के बी ए तृतीय वर्ष के पाठ्यक्रम में भी हैं। शेष कवितायें त्रिलोचन के विविध रूप का निदर्शन कराती हैं। - सम्पादक)

सद्य: आलोकित!

हनुमान चालीसा: चौथी चौपाई

 कंचन बरन बिराज सुबेसा। कानन कुंडल कुंचित केसा।। चौथी चौपाई श्री हनुमान चालीसा की चौथी चौपाई में हनुमान जी के रूप का वर्णन है। उन्हें कंचन अ...

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