मंगलवार, 26 सितंबर 2023

सुमित्रानन्दन पन्त की तीन कविताएँ

 

१. यह धरती कितना देती है


मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,
सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी
और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूँगा!
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बन्ध्या मिट्टी ने न एक भी पैसा उगला!-
सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये!
मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक
बाल-कल्पना के अपलक पाँवड़े बिछाकर
मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे,
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था!

अर्द्धशती हहराती निकल गयी है तबसे!
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने,
ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई;
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे, खिले वन!
\' जब फिर से गाढ़ी, ऊदी लालसा लिये
गहरे, कजरारे बादल बरसे धरती पर,
मैंने कौतूहल-वश आँगन के कोने की
गीली तह यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे-
भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिये हों!
मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को,
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन!
किन्तु, एक दिन जब मैं सन्ध्या को आँगन में
टहल रहा था,- तब सहसा, मैने देखा
उससे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से!

देखा- आँगन के कोने में कई नवागत
छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं!
छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की,
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी-
जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे-
डिम्ब तोड़कर निकले चिड़ियों के बच्चों से!
निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता-
सहसा मुझे स्मरण हो आया, -कुछ दिन पहिले
बीज सेम के मैंने रोपे थे आँगन में,
और उन्हीं से बौने पौधों की यह पलटन
मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से,
नन्हें नाटे पैर पटक, बढ़ती जाती है!

तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे
अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ,
हरे-भरे टंग गये कई मखमली चँदोवे!
बेलें फैल गयीं बल खा, आँगन में लहरा,
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को,-
मैं अवाक् रह गया- वंश कैसे बढ़ता है!
छोटे तारों-से छितरे, फूलों के छींटे
झागों-से लिपटे लहरों श्यामल लतरों पर
सुन्दर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से,
चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से!

ओह, समय पर उनमें कितनी फलियाँ फूटी!
कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ,-
पतली चौड़ी फलियाँ! उफ उनकी क्या गिनती!
लम्बी-लम्बी अँगुलियों - सी नन्हीं-नन्हीं
तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी,
झूठ न समझें चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़ती,
सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल
झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी!


आः इतनी फलियाँ टूटी, जाड़ो भर खाई,
सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के
जाने-अनजाने सब लोगों में बँटवाई
बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मँगतों ने
जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाई !-
कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ!

यह धरती कितना देती है! धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को!
नहीं समझ पाया था मैं उसके महत्व को,-
बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर!
रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।
इसमें सच्ची समता के दाने बोने है;
इसमें जन की क्षमता का दाने बोने है,
इसमें मानव-ममता के दाने बोने है,-
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की, - जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ-
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।



२. प्रथम रश्मि का आना रंगिणि!

तूने कैसे पहचाना?
कहाँ, कहाँ हे बाल-विहंगिनि!
पाया तूने वह गाना?
सोयी थी तू स्वप्न नीड़ में,
पंखों के सुख में छिपकर,
ऊँघ रहे थे, घूम द्वार पर,
प्रहरी-से जुगनू नाना।

शशि-किरणों से उतर-उतरकर,
भू पर कामरूप नभ-चर,
चूम नवल कलियों का मृदु-मुख,
सिखा रहे थे मुसकाना।

स्नेह-हीन तारों के दीपक,
श्वास-शून्य थे तरु के पात,
विचर रहे थे स्वप्न अवनि में
तम ने था मंडप ताना।
कूक उठी सहसा तरु-वासिनि!
गा तू स्वागत का गाना,
किसने तुझको अंतर्यामिनि!
बतलाया उसका आना!


३.  मौन निमन्त्रण


स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार
चकित रहता शिशु सा नादान ,
विश्व के पलकों पर सुकुमार
विचरते हैं जब स्वप्न अजान,
           न जाने नक्षत्रों से कौन
           निमंत्रण देता मुझको मौन !
सघन मेघों का भीमाकाश
गरजता है जब तमसाकार,
दीर्घ भरता समीर निःश्वास,
प्रखर झरती जब पावस-धार ;
            न जाने ,तपक तड़ित में कौन
            मुझे इंगित करता तब मौन !
देख वसुधा का यौवन भार
गूंज उठता है जब मधुमास,
विधुर उर के-से मृदु उद्गार
कुसुम जब खुल पड़ते सोच्छ्वास,
               न जाने, सौरभ के मिस कौन
               संदेशा मुझे भेजता मौन !
क्षुब्ध जल शिखरों को जब बात
सिंधु में मथकर फेनाकार ,
बुलबुलों का व्याकुल संसार
बना,बिथुरा देती अज्ञात ,
               उठा तब लहरों से कर कौन
               न जाने, मुझे बुलाता कौन !
स्वर्ण,सुख,श्री सौरभ में भोर
विश्व को देती है जब बोर
विहग कुल की कल-कंठ हिलोर
मिला देती भू नभ के छोर ;
              न जाने, अलस पलक-दल कौन
              खोल देता तब मेरे मौन  !
तुमुल तम में जब एकाकार
ऊँघता एक साथ संसार ,
भीरु झींगुर-कुल की झंकार
कँपा देती निद्रा के तार
              न जाने, खद्योतों से कौन
              मुझे पथ दिखलाता तब मौन !
कनक छाया में जबकि सकल
खोलती कलिका उर के द्वार
सुरभि पीड़ित मधुपों के बाल
तड़प, बन जाते हैं गुंजार;
             न जाने, ढुलक ओस में कौन
             खींच लेता मेरे दृग मौन !
बिछा कार्यों का गुरुतर भार
दिवस को दे सुवर्ण अवसान ,
शून्य शय्या में श्रमित अपार,
जुड़ाता जब मैं आकुल प्राण ;
            न जाने, मुझे स्वप्न में कौन
            फिराता छाया-जग में मौन !
न जाने कौन अये द्युतिमान !
जान मुझको अबोध, अज्ञान,
सुझाते हों तुम पथ अजान
फूँक देते छिद्रों में गान ;
            अहे सुख-दुःख के सहचर मौन !
            नहीं कह सकता तुम हो कौन !



-सुमित्रानंदन पंत

शुक्रवार, 22 सितंबर 2023

महाकवि माघ का प्रभात वर्णन : महावीर प्रसाद द्विवेदी

         

रात अब बहुत ही थोड़ी रह गयी है। सुबह होने में कुछ ही कसर है। जरा सप्तर्षि नाम के तारों को तो देखिए। वे आसमान में लंबे पड़े हुए हैं। उनका पिछला भाग तो नीचे को झुका सा है और अगला ऊपर को। वही उनके अधोभाग मेंछोटा-सा ध्रुवतारा कुछ-कुछ चमक रहा है। सप्तर्षियों का आकार गाड़ी के सदृश जिसका धुआँ ऊपर को उठ गया हैइसी से उनके और ध्रुवतारा के दृश्य को देखकर श्रीकृष्ण के बालपन की एक घटना याद आ जाती है। शिशु श्रीकृष्ण को मारने के लिए एक बार गाड़ी का रूप बनाकर शकटासुर नाम का एक दानव उनके पास आया। श्रीकृष्ण ने पालने में पड़े ही पड़ेखेलते-खेलतेउसे एक लात मार दी। उसके आघात से उसका अग्रभाग ऊपर को उठ गयाऔर पश्चाद्भाग खड़ा ही रह गया। श्रीकृष्ण उसके तले आ गये। वही दृश्य इस समय सप्तर्षियों की अवस्थिति का है। वे तो कुछ उठे हुए से लंबे पड़े हैंछोटा-सा ध्रुव उनके नीचे चमक रहा है।

पूर्व दिशारूपिणी स्त्री की प्रभा इस समय बहुत ही भली मालूम होती है। वह हँस सी रही है। वह यह सोचती-सी है कि इस चन्द्रमा ने जब तक मेरा साथ दिया - जब तक यह मेरी संगति में रहा तब तक उदित ही नहीं रहाइसकी दीप्ति भी खूब बढ़ी। परन्तुदेखोवही अब पश्चिम दिशारूपिणी स्त्री की तरफ जाते ही (हीन-दीप्ति होकर) पतित हो रहा है। इसी से पूर्व दिशाचन्द्रमा को देख-देख प्रभा के बहाने,  ईर्ष्या से मुस्करा सी रही है। परन्तु चन्द्रमा को उसके हँसी-मजाक की कुछ भी परवाह नहीं।

वह अपने ही रंग में मस्त मालूम होता है। अस्त समय होने के कारण उसका बिंब तो लाल हैपर किरणें उसकी पुराने कमल की नाल के कटे हुए टुकड़ों के समान सफेद है। स्वयं सफेद होकर भीबिंब की अरूणता के कारणवे कुछ-कुछ लाल भी है। कुंकुम मिश्रित सफेद चन्दन के सदृश उन्हीं लालिमा मिली हुई सफेद किरणों से चन्द्रमा पश्चिम दिग्वधू का शृंगार सा कर रहा है - उसे प्रसन्न करने के लिए उसके मुख पर चन्दन का लेप-सा समा रहा है - पूर्व दिग्वधू के द्वारा किये गये उपहास की तरह उसका ध्यान ही नहीं।

जब कमल शोभित होते हैंतब कुमुद नहींऔर जब कुमुद शोभित होते हैं तब कमल नहीं। दोनों की दशा बहुधा एक सी नहीं रहती। परन्तु इस समयप्रातःकालदोनों में तुल्यता देखी जाती है। कुमुद बन्द होने को हैपर अभी पूरे बन्द नहीं हुए। उधर कमल खिलने को हैपर अभी पूरे खिले नहीं। एक की शोभा आधी ही रह गयी हैऔर दूसरे को आधी ही प्राप्त हुई है। रहे भ्रमरसो अभी दोनों ही पर मंडरा रहे हैं और गुंजा रव के बहाने दोनों ही के प्रशंसा के गीत से गा रहे हैं। इसी सेइस समय कुमुद और कमलदोनों ही समता को प्राप्त हो रहे हैं।

सायंकाल जिस समय चन्द्रमा का उदय हुआ थाउस समय वह बहुत ही लावण्यमय था। क्रम-क्रम से उसकी दीप्ति - उसकी सुन्दरता- और भी बढ़ गयी। वह ठहरा रसिक। उसने सोचायह इतनी बड़ी रात यों ही कैसे कटेगीलाओ खिली हुई नवीन कुमुदिनियों (कोकाबेलियों) के साथ हँसी-मजाक ही करें। अतएव वह उनकी शोभा के साथ हास-परिहास करके उनका विकास करने लगा। इस तरह खेलते-कूदते सारी रात बीत गयी। वह थक भी गयाशरीर पीला पड़ गयाकर (किरण-जाल) अस्त अर्थात शिथिल हो गये। इससे वह दूसरी दिगंगना (पश्चिम दिशा) की गोद में जा गिरा। यह शायद उसने इसलिए किया कि रात भर के जगे हैंलाओ अब उसकी गोद में आराम से सो जाएँ।

अंधकार के विकट वैरी महाराज अंशुमाली अभी तक दिखाई भी नहीं दिये। तथापि उसके सारथी अरुण ही ने उनके अवतीर्ण होने के पहले ही थोड़े ही नहींसमस्त तिमिर का समूल नाश कर दिया। बात यह है कि जो प्रतापी पुरूष अपने तेज से अपने शत्रुओं का पराभव करने की शक्ति रखते हैंउनके अग्रगामी सेवक भी कम पराक्रमी नहीं होते। स्वामी को श्रम न देकर वे खुद ही उसके विपक्षियों का उच्छेद कर डालते हैं। इस तरहअरुण के द्वारा अखिल अंधकार का तिरोभाव होते ही बेचारी रात पर आफत आ गयी। इस दशा में वह कैसे ठहर सकती थी। निरुपाय होकर वह भाग चली। रह गयी दिन और रात की संधिअर्थात प्रातःकालीन संध्या। सो अरुण कमलों ही को आप इस अल्पवयस्क सुता-सदृश संध्या के लाल-लाल और अतिशय कोमल हाथ-पैर समझिए। मधुप-मालाओं से छाए हुए नील कमलों ही को काजल लगी हुई उसकी आँखें जानिये। पक्षियों के कल-कल शब्द ही को उसकी तोतली बोली अनुमान कीजिए। ऐसी संध्या ने जब देखा कि रात इस लोक से जा रही हैतब पक्षियों के कोलाहल के बहाने यह कहती हुई कि ''अम्मामैं भी आती हूँ,'' वह भी उसी के पीछे दौड़ ग़ई।

अंधकार गयारात गयीप्रातःकालीन संध्या भी गयी। विपक्षीदल के एकदम ही पैर उखड़ ग़ये। तबरास्ता साफ देखवासर-विधाता भगवान भास्कर ने निकल आने की तैयारी की। कुलिश-पाणि इन्द्र की पूर्व दिशा में नये सोने के समानउनकी पीली-पीली किरणों का समूह छा गया। उनके इस प्रकार आविर्भाव से एक अजीब ही दृश्य दिखायी दिया। आपने बड़वानल का नाम सुना ही होगा। वह एक प्रकार की आग हैजो समुद्र के जल को जलाया करती है। सूर्य के उस लाल-पीले किरण समूह को देख कर ऐसा मालूम होने लगा जैसे वही बड़वाग्नि समुद्र की जल-राशि को जलाकरत्रिभुवन को भस्म कर डालने के इरादे सेसमुद्र के ऊपर उठ आयी हो। धीरे-धीरे दिननाथ का बिंब क्षितिज के ऊपर आ गया। तब एक और ही प्रकार के दृश्य के दर्शन हुए। ऐसा मालूम हुआजैसे सूर्य का वह बिंब एक बहुत बडा घडा हैऔर दिग्वधुएँ जोर लगाकर समुद्र के भीतर से उसे खींच रही हैं। सूर्य की किरणों ही को आप लंबी-लंबी मोटी रस्सियाँ समझिए। उन्हीं से उन्होंने बिंब को बाँध सा दिया हैऔर खींचते वक्तपक्षियों के कलरव के बहानेवे यह कह-कहकर शोर मचा रही है कि खींच लिया है कुछ ही बाकी हैऊपर आना ही चाहता हैजरा और जोर लगाना।

दिगंगनाओं के द्वारा खींच-खींचकर किसी तरह सागर की सलिल राशि से बाहर निकाले जाने पर सूर्यबिंब चमचमाता हुआ लाल-लाल दिखायी दिया। अच्छाबताइए तो सहीयह इस तरह का क्यों है। हमारी समझ में यो यह आता है कि सारी रात पयोनिधि के पानी के भीतर जब यह पडा थातब बड़वाग्नि की ज्वाला ने इसे तपाकर खूब दहकाया होगा। तभी तो खैर (खदिर) के जले हुद कुंदे के अंगार के सदृश लालिमा लिए हुए यह इतना शुभ्र दिखायी दे रहा है। अन्यथाआप ही कहिएइसके इतने अंगार गौर होने का और क्या कारण हो सकता है?

सूर्यदेव की उदारता और न्यायशीलता तारीफ के लायक है। तरफदारी तो उसे छू तक नहीं गयी- पक्षपात की तो गंध तक उसमें नहींदेखिए नउदय तो उसका उदयाचल पर हुआपर क्षण ही भर में उसने अपने नये किरण-कलाप को उसी पर्वत के शिखर पर नहींप्रत्युत सभी पर्वतों के शिखरों पर फैलाकर उन सब की शोभा बढा दी। उसकी इस उदारता के कारण इस समय ऐसा मालूम हो रहा हैजैसे सभी भूधरों ने अपने शिखरों-अपने मस्तकों- पर दुपहरिया के लाल-लाल फूलों के मुकुट धारण कर लिये हो। सच हैउदारशील सज्जन अपने चारूचरितों से अपने ही उदय-देश को नहींअन्य देशों को भी आप्यायित करते हैं।

उदयाचल के शिखर रूप आँगन में बाल सूर्य को खेलते हुए धीरे-धीरे रेंगते देख पद्मिनियों का बडा प्रमोद हुआ। सुन्दर बालक को आँगन में जानुपाणि चलते देख स्त्रियों का प्रसन्न होना स्वाभाविक ही है। अतएव उन्होंने अपने कमल-मुख के विकास के बहाने हँस-हँसकर उसे बडे ही प्रेम से देखा। यह दृश्य देखकर माँ के सदृश अंतरिक्ष देवता का हृदय भर आया। वह पक्षियों के कलरव के मिस बोल उठी - आ जाआ जाआ बेटाफिर क्या थाबालसूर्य बाललीला दिखाता हुआझट अपने मृदुल कर(किरणें) फैलाकर अंतरिक्ष की गोद में कूद गया। उदयाचल पर उदित होकर जरा ही देर में वह आकाश में आ गया।

आकाश में सूर्य के दिखायी देते ही नदियों ने विलक्षण ही रूप धारण किया। दोनों तटों या कगारों के बीच से बहते हुए जल पर सूर्य की लाल-लाल प्रातःकालीन धूप जो पडीतो वह जल परिपक्व मदिरा के रंग सदृश हो गया। अतएव ऐसा मालूम होने लगाजैसे सूर्य ने किरण बाणों से अंधकाररूपी हाथियों की घटा को सर्वत्र मार गिरायाउन्हीं के घावों से निकला हुआ रूधिर बह कर नदियों में आ गया होऔर उसी के मिश्रण से उनका जल लाल हो गया हो। कहियेयह सूझ कैसी हैबहुत दूर की तो नहीं।

तारों का समुदाय देखने में बहुत भला मालूम होता है यह सत्य है। यह भी सच है कि भले आदमियों को न कष्ट ही देना चाहिएऔर न उनको उनके स्थान से च्युत ही करना - हटाना ही - चाहिए। परन्तु सूर्य का उदय अंधकार का नाश करने ही के लिए होता हैऔर तारों की श्री वृद्धि अंधकार ही की बदौलत है। इसी से लाचार होकर सूर्य को अंधकार के साथ ही तारों का भी विनाश करना पडा - उसे उनको भी जबरदस्ती निकाल बाहर करना पडा। बात यह है कि शत्रु की बदौलत ही जिन लोगों की संपत्ति और प्रभुता प्राप्त होती हैउनको भी मार भगाना पड़ता है - शत्रु के साथ ही उनका भी विनाश-साधन करना ही पड़ता है। न करने से भय का कारण बना ही रहता है। राजनीति यही कहती है।

सूर्योदय होते ही अंधकार भयभीत होकर भागा। भागकर वह कहीं गुहाओं के भीतर और कहीं घरों के कोनों और कोठरियों के भीतर जा छिपा। मगर वहाँ भी उसका गुजारा न हुआ। सूर्य यद्यपि बहुत दूर आकाश में थातथापि उसके प्रबल तेज प्रताप ने छिपे हुए अंधकार को उन जगहों से भी निकाल बाहर किया। निकाला ही नहींअपितु उसका सर्वथा नाश भी कर दिया। बात यह है कि तेजस्वियों का कुछ स्वभाव ही ऐसा होता है कि निश्चित स्थान में रहकरभी वे अपने प्रताप की धाक से दूर स्थित शत्रुओं का भी सर्वनाश कर डालते हैं।

सूर्य और चन्द्रमाये दोनों ही आकाश की दो आँखों के समान हैं। उनमें से सहस्त्रकिरणात्मक - मूर्तिधारी सूर्य ने ऊपर उठकर जब अशेष लोकों का अंधकार दूर कर दियातब वह खूब ही चमक उठा। उधर बेचारा चन्द्रमा किरण-हीनहो जाने से बहुत ही धूमिल हो गया। इस तरह आकाश की एक आँख तो खूब तेजस्क और दूसरी तेजोहीन हो गयी। अतएव ऐसा मालूम हुआजैसे एक आँखप्रकाशवती और अंधी बाला आकाश काना हो गया हो।

कुमुदिनियों का समूह शोभाहीन हो गया और सरोरूहों का समूह शोभा संपन्न। उलूकों को तो शोक ने आ घेरा और चक्रवाकों को अत्यानन्द ने। इसी तरह सूर्य तो उदय हो गया और चन्द्रमा अस्त। कैसा आश्चर्यजनक विरोधी दृश्य है। दुष्ट दैव की चेष्टाओं का परिवाक कहते नहीं बनता। वह बडा ही विचित्र है। किसी को तो वह ह/साता हैकिसी को रूलाता है।

सूर्य को आप दिग्वधुओं का पति समझ लीजिएऔर यह भी समझ लीजिए कि पिछली रात वह कही और किसी जगहअर्थात् विदेश चला गया था। मौका पाकरइसी बीच उसकी जगह पर चन्द्रमा आ विराजा। पर ज्यों ही सूर्य अपना प्रवास समाप्त करके सबेरेपूर्व दिशा में फिर आ धमकात्यों ही उसे देख चन्द्रमा के होश उड़ ग़ये। अब क्या होऔर कोई उपाय न देख अपने किरण-समूह को कपडे लत्ते के सदृश छोड़ उपपति के समान गर्दन झुकाकर वह पश्चिम - दिशारूपी खिड़क़ी के रास्ते निकल भागा।

महामहिम भगवान मधुसूदन जिस समय कल्पांत में समस्त लोकों का प्रलयबात की बात में कर देते हैंउस समय अपनी समधिक अनुरागवती श्री (लक्ष्मी) को धारण करके - उन्हें साथ लेकर क्षीर-सागर में अकेले ही जा विराजते हैं। दिन चढ़ आने पर महिमामय भगवान भास्कर भीउसी तरह एक क्षण मेंसारे तारा-लोक का संहार करकेअपनी अतिशायिनी श्री (शोभा) के सहितक्षीर-सागर ही के समान आकाश में देखिएअब यह अकेले ही मौज कर रहे हैं।

-           महावीर प्रसाद द्विवेदी

ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता और समझ

ठाकुर गांव के कुल देवता को कहा जाता है। हर गांव में एक उपासना स्थान होता है जिसके स्वामी ठाकुर जी होते हैं। इस नाते वह गांव के मालिक होते हैं। वह गांव की रक्षा का दायित्व लेते हैं।

ठाकुर श्री राधास्नेह बिहारी

कालांतर में क्षत्रिय कुल के योद्धाओं ने गांव की रक्षा का प्रत्यक्ष श्रेय लिया और ठाकुर बन गए।

ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता ठीक ही है। "चूल्हा मिट्टी का/मिट्टी तालाब की/तालाब ठाकुर का।" इस सृष्टि की हर रचना ठाकुर जी की ही है। बस उनकी कविता में ठाकुर जी के प्रति अवज्ञा का भाव है। ऐसा इसलिए कि वह तथाकथित शोषण के लिए उत्तरदायी लोगों को ही ठाकुर मान कर सपाट बयानी कर रहे हैं। वह सांस्कृतिक परंपरा से विच्छिन्न हैं। इसलिए वह समांतर अधिकार की इच्छा रखते हैं। इसी कामना से यह पीड़ा उपजी है। 

यही पीड़ा रह रहकर जिसमें जन्म लेती हैवही इसकी बात करता है। बिहार में शिक्षा मंत्री डॉ चंद्रशेखर नए मार्टिन लूथर हैं। मनोज कुमार झा लूथर के पादड़ी हैं।

ठाकुर राजा रामचंद्र राय


मूल कविता

_______________

 

चूल्‍हा मिट्टी का

मिट्टी तालाब की

तालाब ठाकुर का।

 

भूख रोटी की

रोटी बाजरे की

बाजरा खेत का

खेत ठाकुर का।

 

बैल ठाकुर का

हल ठाकुर का

हल की मूठ पर हथेली अपनी

फ़सल ठाकुर की।

 

कुआँ ठाकुर का

पानी ठाकुर का

खेत-खलिहान ठाकुर के

गली-मुहल्‍ले ठाकुर के

फिर अपना क्‍या ?

गाँव ?

शहर ?

देश ?

- ओम प्रकाश वाल्मीकि

रविवार, 3 सितंबर 2023

यह कठपुतली कौन नचावे!

--    डॉ रमाकान्त राय

मुम्बई में 21-22 अगस्त, 2023 ई० को आयोजित नगरवधुओं के संगठन आल इंडिया नेटवर्क ऑफ़ सेक्स वर्कर्स (AINSW) के राष्ट्रीय परामर्श कार्यशाला में ‘सिस्टरहुड एंड सोलिडरिटी विथ सेक्स वर्कर्स’ पर ख़ुशी व्यक्त करते हुए वरिष्ठ पत्रकार और भारतीय भाषाओँ के संवर्द्धन में सन्नद्ध श्री राहुल देव ने “देखो बहनें आती हैं” शीर्षक लगाया और ‘बहनों की समझ, आत्मविश्वास और वक्तृता की प्रशंसा की। उन्होंने सेक्स वर्कर्स के लिए ‘बहन’ संबोधन लगाया और उनके सिस्टरहुड को ‘बहनें आती हैं’ से जोड़ा।

चर्चा में यह बात निकल आई कि क्या यहाँ कथित सिस्टरहुड और सिस्टर्स, भारतीय परिवार के ‘बहन का पर्याय है? एक परिवार, गोत्र आदि में सहोदर अथवा सह सम्बन्ध में बालक का बालिका से जो सम्बन्ध है वह भाई का बहन से जुड़ा हुआ है। भारतीय परिवारों में बहन की स्थिति बहुत स्पष्ट तौर पर परिभाषित है और इसकी मर्यादा भी व्याख्यायित है। इसमें दो अथवा दो से अधिक सम्बन्धी बहनों का बहनापा भी प्रकट है। अंग्रेजी का ‘सिस्टर’ और ‘सिस्टरहुड’ भारतीय परिवार के बहन और बहनापा से सर्वथा पृथक है। ‘सिस्टर’ और ‘सिस्टरहुड’ अंग्रेजी और संस्कृति के स्तर पर ईसाई समुदाय के परिवार की अवधारणा से कम और मिशनरी धारणा से अधिक जुड़ा हुआ है। अव्वल तो यह समझना चाहिए कि ईसाई समुदाय में पुरुष तत्त्व की प्रधानता है और वही वास्तव में सृष्टि के केन्द्र में है। उस समुदाय में स्त्रियाँ जन्मना ‘सिनर अर्थात पापी हैं। इसे एडम और इव से अर्थात समुदाय के आदिपुरुष से जोड़कर देखना चाहिए। इस समुदाय में स्त्रियों को दोयम दर्जा मिला हुआ है और मान्यता है कि उनके लिए परलोक में कोई स्थान नहीं है। वस्तुतः क़यामत के दिन केवल मर्दों का हिसाब किताब होगा, औरतों का नहीं। इस धारणा के अन्तर्गत औरतें भोग-विलास और संतानोत्पत्ति हेतु मात्र हैं। अतएव परिवार अथवा समुदाय में सम्बन्ध की पवित्रता जैसी कोई आग्रही धारणा नहीं है जैसी सनातन परम्परा में है। ऐसी स्थिति में औरतों के लिए, चाहे वह किसी भी सम्बन्ध में आती हों, सेवा ही धर्म निर्धारित है। यह ‘सेवा’ अर्थात सर्विस किसी भी प्रकार की हो सकती है।

यह समझना कठिन नहीं है कि ईसाई समुदाय वाले देशों से स्त्री विमर्श का जो नारा गुंजित हुआ उसमें ‘देह से मुक्ति’ एक शक्तिशाली पक्ष था और वह पक्ष भी इसी ‘सेवा वृत्ति से जुड़ा हुआ है। ‘जीवों पर दया करो मन्त्र के साथ जब औरतें सेवा हेतु समर्पित होती हैं तो वह ‘सिस्टर’ बन जाती हैं। सिस्टर बनकर यह औरतें जहाँ जाती हैं, वहां अन्य ‘सिस्टर्स से जो परिचय बनता है, वह ‘सिस्टरहुड’ है। यह सिस्टर आयु और ध्यान के एक पड़ाव को पूर्ण करने पर ‘मदर’ बनाई जाती हैं। यह चर्च की प्रणाली का अंग है।

ईसाई समुदाय में स्त्रियों की क्या दशा है, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित और वेटिकन सिटी में व्याख्यान के लिए आमंत्रित मदर टेरेसा को मृत्यु 1997 ई० के 18 वर्ष बाद सन 2015 ई० में सन्त की उपाधि दी जा सकी और इसके लिए विहितकरण क्रिया को अपनाया गया। यह तथ्य इस बात का संकेतक है कि इस समुदाय में स्त्रियों को सन्त बनने की अर्हता प्राप्त नहीं थी।

ईसाई समुदाय का ब्रदर और ब्रदरहुड भी विशेष है। वस्तुतः भारतीय परिवारों में भाई और भाइयों को लेकर जो स्नेह और आत्मीयता की भावना मिलती है, वह दुनिया के किसी भी अन्य संस्कृति में नहीं है। एक निश्चित उद्देश्य के लिए दो अथवा दो पुरुष यदि साथ आते हैं, तो उनमें ब्रदरहुड विकसित हुआ माना जाता है। हालाँकि ईसाई ब्रदरहुड से अधिक चर्चा मुस्लिम ब्रदरहुड की होती है, जिसकी स्थापना मिस्र में सन 1928 ई० में एक अध्यापक और इमाम हसन अल बन्ना ने की थी। यह मुस्लिम ब्रदरहुड कुरान और हदीस को शरिया का एकमात्र स्रोत मानता है, उसके आधार पर वैश्विक इस्लामिक समाज और साम्राज्य क़ायम करना चाहता है। उसकी कामना है कि सभी इस्लामी क्षेत्र एक ख़लीफ़ा के तहत एकजुट रहें। इसके लिए सभी मुसलमान ब्रदर की तरह रहें।

ऐसी स्थिति में जहाँ सम्प्रदाय में सिस्टर, मदर और ब्रदर शब्द एक मिशनरी सम्बन्ध से अर्थवान होते हैं, जहाँ एकल परिवारों का ही चलन है, वहां इनका हिन्दी रुपान्तरण करते हुए ध्यान रखना चाहिए कि यह भारतीय सम्बन्धों के सूचक शब्द बहन, भाई अथवा माता से पृथक हैं। सामुदायिक प्रकरणों में सिस्टर को सिस्टर ही कहा जाना चाहिए, मदर को मदर और फादर को फादर। यह शब्द किसी सम्बन्ध के सूचक नहीं हैं।

वर्तमान दशा यह है कि ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में संस्कृति को दूषित करने के लिए अकादमिक क्षेत्रों से भी खूब प्रयोग किये जा रहे हैं। नित्य प्रति संचार माध्यमों से इस प्रकार की सायास कोशिशें हो रही हैं और इन्हें इस प्रकार मिलाया जा रहा है कि यह हमारी संस्कृति से जुड़कर विरूप होती जा रही हैं। भारतीय परिवार को तोड़ने और उसकी शक्ति को दुर्बल बनाने के लिए कई मोर्चों से प्रयास जारी हैं क्योंकि दुनिया भर के दूसरे सम्प्रदाय भारतीयता को खंडित करने के अभियान में लगे हुए हैं। इसके लिए संयुक्त परिवार की शक्तिशाली भावना में भी विविध तरीके से सेंधमारी जारी है। भारतीय पर्व और त्योहारों को दकियानूस सिद्ध करने के लिए मिशनरियों के असंख्य योद्धा जी जान से लगे हुए हैं। इस अपसंस्कृति का एक ताजा उदाहरण एशियानेट न्यूज की वेबसाइट पर रक्षाबन्धन से जोड़कर प्रस्तुत किया जाने वाला ‘अदर लाइफ स्टाइल फीचर है। इसमें यह शीर्षक रखा गया है कि ‘हैवी ब्रेस्ट साइज़ वाली महिलाएं राखी पर पहनें ये 10 ब्लाउज डिज़ाइन। यह प्रस्तुति जीवन शैली से जुडी हुई अवश्य है किन्तु भाई बहन के पवित्र सम्बन्ध वाले पर्व के अवसर पर यौनिकता को परोसने वाले इस समाचार प्रस्तुति में एक दुष्ट मानसिकता छिपी हुई है। राखी के अवसर पर ‘हैवी ब्रेस्ट’ की तरफ ध्यान ले जाने वाली इस संस्कृति की जड़ें ईसाई संस्कृति से जुडी हुई हैं। जहाँ मदर, सिस्टर और कोई अन्य महिला एक ‘औरत’ भर है और वह केवल सेवा के लिए है।

ऐसे वातावरण में जब भारतीय भाषाओँ के संवर्धन की मुहिम में जुटे हुए और वरिष्ठ पत्रकार रह चुके श्री राहुल देव भी नगरवधुओं को बहन कहते हैं, उनके सिस्टरहुड का सामान्यीकरण करते हैं तो सोचने का मन करता है कि इनका उद्देश्य क्या है? यह लोग किस वृत्ति का प्रसार करने में जुटे हुए हैं। बीते दिनों में सांप्रदायिक विषयों पर उनके दृष्टिकोण को देखते हुए उनकी मंशा पर संदेह होता है और प्रतीत होता है कि यह लोग किसी के संकेत पर अपनी मेधा का दुरुपयोग कर रहे हैं। फिल्म समीक्षक और कवि रामजी तिवारी की एक पुस्तिका के शीर्षक को उद्धृत करते हुए पूछने का मन है कि ‘यह कठपुतली कौन नचावे!’

 

डॉ रमाकान्त राय

(स्तम्भकार, लेखक)

असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिंदी

पञ्चायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उत्तर प्रदेश 206001

Email- royramakantrk@gmail.com

kathavarta@outlook.com

Mobile- 9838952426

https://twitter.com/RamaKRoy


सोमवार, 28 अगस्त 2023

जयशंकर प्रसाद की दो कविताएं (गीत)

1. हिमाद्रि तुंग शृंग से

हिमाद्रि तुंग शृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती–
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती–

अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!’

असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ
विकीर्ण दिव्यदाह-सी,
सपूत मातृभूमि के–
रुको न शूर साहसी!

अराति सैन्य–सिंधु में, सुवाड़वाग्नि से जलो,
प्रवीर हो, जयी बनो – बढ़े चलो, बढ़े चलो!



2. अरुण यह मधुमय देश हमारा।


अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।
सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा।।
लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा।।
बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनन्त की, पाकर जहाँ किनारा।।
हेम कुम्भ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मंदिर ऊँघते रहते जब, जगकर रजनी भर तारा।।


#KathaVarta की प्रस्तुति, बी ए तृतीय सेमस्टर के पाठ्यक्रम में सम्मिलित.

गुरुवार, 24 अगस्त 2023

जन गण मन सम्पूर्ण गीत

जनगणमन-अधिनायक जय हे भारतभाग्यविधाता!

पंजाब सिन्ध गुजरात मराठा द्राविड़ उत्कल बंग
विन्ध्य हिमाचल यमुना गंगा उच्छलजलधितरंग
तव शुभ नामे जागे, तव शुभ आशिष मागे,
गाहे तव जयगाथा।
जनगणमंगलदायक जय हे भारतभाग्यविधाता!
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।

अवनींद्र नाथ ठाकुर द्वारा चित्रित भारत माता


अहरह तव आह्वान प्रचारित, सुनि तव उदार बाणी
हिन्दु बौद्ध सिख जैन पारसिक मुसलमान खृष्तानी
पूरब पश्चिम आसे तव सिंहासन-पासे
प्रेमहार हय गाथा।
जनगण-ऐक्य-विधायक जय हे भारतभाग्यविधाता!
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।

पतन-अभ्युदय-वन्धुर पन्था, युग युग धावित यात्री।
हे चिरसारथि, तव रथचक्रे मुखरित पथ दिनरात्रि।
दारुण विप्लव-माझे तव शंखध्वनि बाजे
संकटदुःखत्राता।
जनगणपथपरिचायक जय हे भारतभाग्यविधाता!
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।

घोरतिमिरघन निविड़ निशीथे पीड़ित मूर्छित देशे
जाग्रत छिल तव अविचल मंगल नतनयने अनिमेषे।
दुःस्वप्ने आतंके रक्षा करिले अंके
स्नेहमयी तुमि माता।
जनगणदुःखत्रायक जय हे भारतभाग्यविधाता!
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।

रात्रि प्रभातिल, उदिल रविच्छवि पूर्व-उदयगिरिभाले –
गाहे विहंगम, पुण्य समीरण नवजीवनरस ढाले।
तव करुणारुणरागे निद्रित भारत जागे
तव चरणे नत माथा।
जय जय जय हे जय राजेश्वर भारतभाग्यविधाता!
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।


- रवींद्र नाथ ठाकुर

गुरुवार, 17 अगस्त 2023

भूषण की चार कविताएं

इन्द्र जिमि जंभ पर, बाडब सुअंभ पर,

रावन सदंभ पर, रघुकुल राज हैं।


पौन बारिबाह पर, संभु रतिनाह पर,
ज्यौं सहस्रबाह पर राम-द्विजराज हैं॥

दावा द्रुम दंड पर, चीता मृगझुंड पर,
'भूषन वितुंड पर, जैसे मृगराज हैं।

तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर,
त्यौं मलिच्छ बंस पर, सेर शिवराज हैं॥


2
बाने फहराने घहराने घण्टा गजन के,
नाहीं ठहराने राव राने देस देस के।
नग भहराने ग्रामनगर पराने सुनि,
बाजत निसाने सिवराज जू नरेस के।।
हाथिन के हौदा उकसाने कुंभ कुंजर के,
भौन को भजाने अलि छूटे लट केस के।
दल के दरारे हुते कमठ करारे फूटे,
केरा के से पात बिगराने फन सेस के।।

भावार्थ 

(शिवाजी की सेना के झंडों के फहराने से और हाथियों के गले में बंधे हुए घण्टों की आवाजों से देश-देश के राजा-महाराजा पल भर भी न ठहर सकें। नगाड़ों की आवाज़ से पहाड़ तक हिल गए, गांवों और नगरों के लोग इधर-उधर भागने लगे।शिवाजी महाराज की सेना के नगाड़ों के बजने से भी यही प्रभाव पड़ रहा था। शत्रु-सेना के हाथियों पर बंधे हुए हौदे उसी तरह खुल गये, जैसे हाथियों के उपर रखे युए घड़े हों।

शत्रु-देशों की स्त्रियां, ऐसे दृश्यों को देखकर जब अपने-अपने घरों की ओर भाग रही थीं, तब उनके सुंदर और घुंगराले केश हवा में इस तरह उड़ रहे थे, जैसे कि काले रंग के भौंरों के झुंड के झुंड उड़ रहे हों। शिवाजी की सेना के चलने से धरती पर जो धमक पैदा हो रही है, उसके कारण कछुए की मजबूत पींठ टूटने लगी है और शेषनाग के फनों की तो ऐसी दुर्दशा हो गयी है, जैसे केले के वृक्ष के पत्ते टूक-टूक हो रहे हों।)



- कविराज भूषण

गुरुवार, 3 अगस्त 2023

इतिहास और शुक-सारिका कथा

                              -कुबेरनाथ राय    

    आज का साधारण भारतीय, विशेषतः मूर्तिपूजक वर्ग, अपनी बुद्धि को भारतीय राजनीति के केंद्रीय और प्रांतीय पुरोहितों के चरणों पर सौंपकर बड़े मौज की तंद्रा में लीन है। आखिर जब घोड़ा बेच ही दिया तो फिर जुम्मन को घास काटने की फिक्र क्यों सताये! इधर गत वर्ष देश में प्रांतीयता और ‘मजहब’ के नाम पर काफी रक्तपात हुआ। श्वान-पुच्छ न्याय से पुरानी बातें फिर लौटी। सरदार पटेल और गांधी जी भी सभी को याद आने लगे। राष्ट्र के कर्णधारों ने सोच समझकर तथ्य ढूंढ निकाला कि इन सारे खुराफातों की जड़ इस देश का इतिहास ही है। अतः क्यों न सर्वप्रथम उसे ही दुरुस्त किया जाए! फिर क्या था ? गली-कूचे, बाग-बाजार हर जगह, लोकसभाई विधानसभाई बंधुओं से लेकर प्रांत-पतियों और भारत-भाग्य-विधाता के मनसबदारों तक, सभी एक स्वर से कीर-वचन बोल उठे। राष्ट्रीयता का सैलाब आ गया। ‘भावात्मक एकता’ की चर्चा ऐसी चली कि राष्ट्र का सारा बौद्धिक समाज डूब गया। सबने महसूस किया, इतिहास फिर से लिखा जाय। जितने संघर्षपूर्ण स्थल हैं उन्हें या तो हटा दिया जाय या इस रूप में संशोधित किया जाए कि वे ‘कुश्ती’ की जगह ‘आलिंगन’ प्रतीत हों । प्रस्ताव की भलमनसाहत से किसी को एतराज नहीं ! बिल्कुल भोली-भाली बात है, -बाल-सुलभ, हर एक अर्थ में बाल-सुलभ। पर इतिहासकार का दायित्व क्या है ? क्या यह सिद्धांततः उचित है कि साहित्य और इतिहास, जो विशेषज्ञों से संबंधित क्षेत्र हैं, एक विशेष नीति या पूर्वाग्रह स्थापित करके लिखे जाएँ चाहे उस नीति का सामाजिक महत्त्व कितना भी अधिक क्यों न हो ? क्या यह संभव नहीं कि व्यक्तिगत रूप से ऐसी छूट पा जाने पर इतिहासकार गण अपने वर्गों के निहित स्वार्थों के लिए इस सद्भावना पूर्ण लक्ष्य का दुरुपयोग करेंगे ? क्या यह कदम मार्क्सवादियों की इतिहास की “पॉजीटिव व्याख्या” ‘पुनराकलन’ (रिवीजन) और ‘दिमाग परिष्कार’ (ब्रेनवाशिंग) का रूप आगे चल कर नहीं धारण कर सकता? इतिहासकार की अपनी एक मर्यादा होती है। उस मर्यादा को सरकारी नीति से निगड़-बद्ध करने की यह प्रथम ‘भूमिका’ (यदि ‘प्रयास’ नहीं तो) समस्त भारत के बुद्धिजीवियों के सामने एक चुनौती, एक प्रश्नचिह्न उपस्थित करती है।

Kubernath Rai

प्रस्ताव का कल्पित अर्थ और फल

तथ्यों के ज्ञापन या अध्ययन की दो प्रक्रियाएँ होती हैं। ‘रिजनिंग’ (विवेचन) और ‘रेशनलाइजेशन’ (ऊहा)। किसी सच्ची बात को सिद्ध करने के लिए जो तर्क पेश किए जाते हैं वह तो है ‘रिजनिंग’। किसी मिथ्या की वकालत के लिए जो तर्क बनाए जाते हैं वह है ‘ऊहा’ या ‘रेशनलाइजेशन’। ऐसा लगता है कि वर्तमान सरकारी इतिहास नीति ‘ऊहा’ की ओर अधिक बल देने वाली है। पर इस निष्कर्ष से पूर्व हम इसके लक्ष्य आदि पर प्रथम विचार करें तो अच्छा है।

जहाँ तक लक्ष्य का प्रश्न है इसकी ईमानदारी में किसी को शक नहीं हो सकता। भूमिति के साध्यों में प्रतिज्ञा कथन के दो भाग होते हैं : कल्पित अर्थ और फल। प्रस्ताव के कल्पित अर्थ से कोई एतराज नहीं।

इतिहास-संशोधन के प्रधान व्याख्याता और हमारी ‘संस्कृति’ के सरकारी विधाता प्रोफेसर हुमायूं कबीर ने हाल ही में एक लेख लिखा है ‘भारत की राष्ट्रीय एकता’ जो इस देश के अनेक दैनिक पत्रों में प्रकाशित हुआ है। उसमें सरकार की इतिहास नीति का भी एक स्पष्ट आकलन मिलता है। लेख का प्रारंभ इस प्रकार होता है- “भारत के इतिहास में एक ओर तो धर्म और संस्कृति के आधार एकत्व की ओर झुकाव दिखायी पड़ता है दूसरी ओर भाषा, रीति-रिवाज, राजनीतिक और आर्थिक स्वार्थ के आधार पर टुकड़े-टुकड़े में विभक्त होने की प्रवृत्ति विद्यमान है।” प्रोफेसर कबीर का यह प्रारंभिक कथन ही भ्रामक और आधारहीन है। भाषा या राजनीतिक आधारों पर देश विगत काल में भी विभक्त था पर उस विभक्तता को हमने कभी भी ‘महसूस’ नहीं किया। हमने कभी भी यह अनुभव नहीं किया कि तमिलनाडु या बंगाल अलग राष्ट्र हैं-आर्य परंपरा (वैदिक्, द्रविड़, हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख आदि), संस्कृत भाषा और उसकी उत्तराधिकारिणी सधुक्कड़ी हिंदी, ये दो सूत्र देश की एकता के विधायक सदैव रहे। भाषा और रीति-रिवाजों के आधार पर नेहरू-युग में संघर्ष का सूत्रपात हुआ और इसका बीज उन लोगों के भाषणों में निहित है जिनमें भारतवर्ष में सर्वप्रथम ‘हिंदी इंपीरियलिज्म’ (हिंदी साम्राज्यवाद) शब्द की रचना की गयी। गांधी युग में भी भाषा के आधार पर संघर्ष का कहीं भी वृहद रूप नहीं दिखाई देता। ऊपर के वक्तव्य में सत्य को उल्टा रखकर देखने की चेष्टा की गयी है। भारत के प्राचीन इतिहास में संघर्ष हुआ है पर विजातीय तत्त्वों के साथ। अंत में वे विजातीय तत्त्व आत्मसात हो गये और शेष आत्मसात होने की प्रक्रिया में हैं। पर यह सब एक स्वाभाविक नियम के अनुसार होगा, न कि सरकारी कानून द्वारा। 

आगे चलकर प्रोफेसर कबीर भी विजातीयता को दबी जुबान से संघर्ष का मूल कारण मानते हुए प्रतीत होते है। उनका कथन है कि बहुत थोड़े से भारतीय ऐसे है जो भारत के “संपूर्ण सांस्कृतिक उत्तराधिकार” को अपना निजी समझते हैं और ज़्यादातर लोग ऐसे ही हैं जो अपने वर्ग विशेष की संस्कृति और इतिहास को ही महत्त्व देकर अपने को धन्य मानते हैं। मुसलमान प्राचीन भारत के नायकों यथा राम, कृष्ण, व्यास, अशोक, चंद्रगुप्त, विक्रमादित्य आदि को अपना नहीं मानते हैं। उनके नायकों की विचारधारा विदेशी आक्रमणकारियों से चलती है- यथा- महमूद गजनवी, गौरी आदि। हिंदू भी शेरशाह, अकबर और बहादुर शाह के प्रति वैसी भक्ति नहीं दिखाते। प्रोफेसर कबीर की स्पष्टवादिता की हम सराहना ही करेंगे। यह देश के लिए दुर्भाग्य-सूचक है कि ‘भारतीय इतिहास’ को हम ‘हिंदू इतिहास’ या ‘मुस्लिम इतिहास’ के रूप में पढ़ें। अतः प्रोफेसर कबीर का यह निष्कर्ष कि भारतीय इतिहास को अ-सांप्रदायिक रूप दिया जाय, इससे असहमत होने का कोई कारण नहीं। 

आपत्ति का धरातल

    तब प्रश्न उठता है कि आपत्ति और मतभेद की गुंजाइश कहाँ है, जब हम मूलतः स्वीकार कर लेते हैं कि भारतीय इतिहास असांप्रदायिक रूप में लिखा जाय ? मतभेद का सूत्रपात है इस इतिहास के ‘भारतीयकरण’ की प्रणाली पर। व्यक्तिगत और वर्गगत पूर्वाग्रहों से रहित सत्य अर्थात ‘निष्पक्ष सत्य’ का उद्घाटन तो इतिहास का कर्तव्य ही है, इससे कौन इंकार करेगा ? पर जब इसका उपयोग इतिहासकार वकील की तरह करने लगेगा और असत्य की वकालत को ‘सत्य का संशोधन’ का रूप देने लगेगा, तब तो मतभेद अवश्य उपस्थित होगा। प्रोफेसर कबीर ने प्रारंभिक इतिहास-पुस्तकों की चर्चा की है—उस चर्चा से ही ज्ञात होता है कि सरकार का किस प्रकार के इतिहास की ओर झुकाव है। जो पूर्वाग्रह सरकारी नीति से प्रारंभिक पुस्तकों में पोषित होगा, उसे सरकार उच्च स्तर पर भी प्रोत्साहन निश्चय ही देगी। अतः जब कोई अधिकारी प्रारंभिक इतिहास-पुस्तकों के स्वरूप पर कोई बात करता है तो उस बात के अंदर सरकार की इतिहास-नीति का लघु-चित्र निहित है। बड़े पैमाने पर वही चित्र बड़ा बनकर आयेगा ही। प्रोफेसर कबीर का कथन है—“स्कूलों की प्रारंभिक इतिहास-पुस्तकें केवल सच्ची बातें ही बतायें, परंतु यह आवश्यक नहीं कि प्रारंभिक इतिहास में ‘पूर्ण सत्य’ दिया जाय। प्रारंभिक इतिहास में केवल गिने-चुने प्रसंग ही रहें और वे सब प्रसंग जो विविध वर्गों या संप्रदायों के संघर्ष एवं घात-प्रतिघात से संबंधित हैं, दिए जाएँ और इतिहास लेखन में भारतीय जीवन और संस्कृति में निहित पारस्परिक सहयोगिता पर बल दिया जाय”। अर्थात प्रारंभिक इतिहास पुस्तकों में (जो हायर सेकन्डरी स्कूलों तक चलेंगी) ‘पूर्ण सत्य’ देना आवश्यक नहीं। उनमें ‘अर्धसत्य’ या ‘संशोधित सत्य’ को ही मान्यता दी जाय, तो अच्छा है। 

बात ऊपर से देखने पर उतनी आपत्तिपूर्ण नहीं लगती, जितना उसके परिणाम-चिंतन पर। ‘संशोधित सत्य’ को मान्यता देकर हम ‘निष्पक्ष सत्य’ को उसके चरम अधिकार से वंचित करते हैं। अभी तक तो इतिहास का लक्ष्य था कि जहाँ तक हो सके, वह ‘निष्पक्ष’ और ‘पूर्वाग्रह-हीन’ सत्य उपस्थित करे। अब तो वह बात रही नहीं। अब तो एक माध्यमिक (सेकंडरी) ध्येय उसके बुनियादी ध्येय के ऊपर बैठा दिया गया है। किसी भी घटना या चरित्र के ऊपर ‘समग्रता’ से विचार करना, उक्त ध्येय के अनुसार, कठिन हो जाएगा। अलाउद्दीन खिलजी की लूट और रक्तपात विश्व के इतिहास में अतुलनीय है। उसने चीजों का भाव स्थिर करने की चेष्टा भी की थी। यह उसने किया था अपने लश्कर-खर्च को कम करने और हिंदू व्यापारियों के दमन के लिए। पर आज का इतिहासकार इसे वकील की तरह देखेगा। उसके मर्मांतक अत्याचारों की कथा तो राष्ट्रीयता के नाम पर दबा दी जायेगी, और उसका उक्त प्रयत्न एक अर्थशास्त्री दूरदर्शिता के रूप में देखा जाएगा। फलतः नये इतिहास में आयेगा – जन-नायक, एवं जन-मंगलकारी शासक के रूप में। पर क्या यह ‘सत्य’ का मज़ाक नहीं होगा ?

इतिहास के पुनराकलन एवं पुनर्गठन की आवश्यकता हम भी मानते हैं। पर ‘संशोधित सत्य’ के फार्मूले से इतिहास-लेखक अपने वर्ग के निहित स्वार्थों का भी पोषण कर सकते हैं, एक नये किस्म का पूर्वाग्रह गढ़ सकते हैं। श्री नेहरू ने एक ऐसा ही भ्रामक पूर्वाग्रह गढ़ने की चेष्टा ‘विश्व इतिहास की झलक’ में की है। अलाउद्दीन खिलजी के अध्याय में वे कहते हैं कि उक्त युग में अफगान भारतवर्ष को अपना घर समझकर अपने को भारतीय मानने लगे थे और हिंदुओं से शादी-ब्याह करने की चेष्टा उन्होंने की, एवं अलाउद्दीन की बीवियों में भी कई हिंदू थीं। (यह शब्द-प्रति-शब्द उद्धरण नहीं। पर श्री नेहरू के कथन का सारांश यही है।) गोया ऐसा सब हुआ हिंदू-मुस्लिम ऐक्य के नाम पर ! पर इतिहास बताता है कि वास्तविकता क्या थी। यदि हिंदू पूर्वाग्रह या मुस्लिम पूर्वाग्रह से सत्य के आधे या चौथाई पहलू को देखते थे तो इस प्रकार के गढ़े पूर्वाग्रह से हमें सत्य का वह भाग भी नहीं दिखाई पड़ेगा। भूषण की कविताएँ आज की पाठ्य पुस्तकों में अनुपस्थित हैं। पद्मिनी हिंदू कुल में जन्म लेने के कारण भविष्य की पुस्तकों में जाति-बहिष्कृत हो जाएंगी। प्रताप एक कबीले का सरदार रह जाएगा और मानसिंह राष्ट्रीय नायक के रूप में आयेंगे। महाराष्ट्र वालों की चढ़ी –त्यौरियों का डर न रहा तो शिवाजी भी काल क्रम से...।

इधर स्वतंत्रता के बाद राजनीति कुछ इस प्रकार से हमारे जीवन के हर एक अंग में घुस गयी है कि हमें सत्य को छिपाना धर्म प्रतीत होने लगा है। किसी भी राष्ट्र के चरित्र की प्रथम एवं अंतिम कसौटी सत्य-ज्ञापन एवं सत्य-सहन की क्षमता। प्रौढ़ता का यही लक्षण है। पर हमें असत्य और सत्य को एक-दूसरे में गड्डमड्ड करना आज के राष्ट्र–कर्णधार ज्यादा सिखाते हैं। अनेक लेखक, नेता और एम.पी. तहे दिल से असत्य और अनर्थकारी तथ्यों को नापसंद करते हैं। वर्ग-विशेष या व्यक्ति-विशेष के नाखुश होने की चिंता अधिक है, उक्त सत्य के पालन और ज्ञापन की कम। इसी सिलसिले में एक “संतुलित निंदा” का नवीन सिद्धांत निकला है, जिसमें वादी-प्रतिवादी दोनों की बराबर निंदा करके सबके तुष्टीकरण की चेष्टा की जाती है। यही अगर अलीगढ़ विश्वविद्यालय में होता है तो सजा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को भी साथ ही भुगतनी पड़ेगी। अथवा उक्त रक्तपात को ‘राष्ट्रीयता’ के नाम पर “चुप-चुप” करके दबा दिया जायेगा। इस “संतुलित निंदा” के आधार पर ही श्री दिनकर ने पाकिस्तान बनाने का श्रेय हिंदुओं को दिया है। प्रोफेसर कबीर ने औरंगजेब के अत्याचारों (लेखक ने ‘मुस्लिम’ शब्द का प्रयोग नहीं किया है) का उदाहरण देते हुए उसकी भूमिका में ब्राह्मणों द्वारा किए गये ‘अत्याचारों’ की चर्चा इस प्रकार की है “जब अभिनव-ब्राह्मण धर्म के उदय से बौद्ध धर्म के प्रति अश्रद्धा या दमन का प्रारंभ हुआ तो भारत का पतन शुरू।” यदि दमन का भौतिक अर्थ लिया जाय तो इतिहास साक्षी है कि धर्म के नाम पर ब्राह्मण ने कभी रक्तपात नहीं किया। दो एक स्थानीय संघर्षों को छोड़कर भारत में धर्म के नाम पर हत्याकाण्ड इस्लाम के पूर्व कभी नहीं हुआ। रही अश्रद्धा की बात। वह तो बौद्धिक धरातल की वस्तु है। यदि बुद्धि ने यह सुझाया कि यह तथ्य श्रद्धा का पात्र नहीं तो इसे क्या औरंगजेब के अत्याचार के समानांतर रखा जाएगा ? पर ‘संतुलित-निंदा’ का राष्ट्रीय सिद्धांत यही कहता है। 

प्रोफेसर कबीर द्वारा ‘संशोधित’ सत्य

    प्रोफेसर कबीर के अनेक भाषणों और पुस्तकों में ऐसे ‘संशोधित सत्यों’ की भरमार है जो उन्होने ‘नवीन राष्ट्रीयता’ के नाम पर प्रसारित किया है। प्रोफेसर कबीर ने अपनी पुस्तक ‘आवर इंडियन हेरिटेज’ (‘भारत की सांस्कृतिक विरासत’ या ‘भारत का सांस्कृतिक उत्तराधिकार’) में हिंदू और इस्लामी संस्कृतियों का ऐक्य दिखाने की चेष्टा करते हुए बताया है कि बहुत संभव है कि शंकराचार्य ने अद्वैत की शिक्षा इस्लाम से ग्रहण की हो। कितनी ज़बरदस्ती है ! दो शताब्दियों तक तो इस्लाम एक ‘अनुशासन संहिता’ मात्र रहा। ‘कुरान’ के वर्तमान संस्करण में भी दर्शन नाम की वस्तु अत्यल्प है। बाद में ग्रीक प्रभाव के फलस्वरूप (या भारतीय प्रभाव के फलस्वरूप) उसमें अद्वैत लाने की चेष्टा इमाम गजाली जैसी प्रतिभाओं ने की जो 10वीं एवं 11वीं शती में उत्पन्न हुई। फिर भी इस चेष्टा से इस्लाम में एकेश्वरवाद को दार्शनिक धरातल मात्र ही मिला। उसे अद्वैत कहना बुद्धि की बलिहारी है। ‘एकेश्वरवाद’ और अद्वैतवाद’ में एक भेद होता है। यह साधारण दार्शनिक भी जानता है। मुहम्मद साहब का जन्म होता है 6वीं शती पूर्व, और उपनिषदों की रचना है गौतम बुद्ध से कम से कम 500 वर्ष पूर्व। ऐसी स्थिति में शंकर को इस्लाम का ऋणी बताना बौद्धिक अराजकता है, चाहे उद्देश्य कितना भी सुंदर क्यों न हो। अराजकता का वास्तविक श्रेय श्री कबीर को नहीं बल्कि “कांग्रेसी” इतिहासकार एवं नेहरू-दरबार के मनसबदार श्री ताराचंद को है।

प्रोफेसर कबीर द्वारा ‘संशोधित सत्य’ का दूसरा उदाहरण उनके “गोहाटी वि.वि.—कमला-लेक्चर” में मिलता है जब उन्होंने अपने शोध का यह तत्त्व प्रस्तुत किया है कि भारत में इस्लाम का प्रवेश आक्रामक रूप में नहीं बल्कि व्यापारी एवं नाविक-संगठन के रूप में हुआ है। इसी संशोधित सत्य का उदाहरण प्रोफेसर कबीर का विश्वविद्यालय में भाषण देते हुए “हिंदुस्तानी” को विधान-सम्मत राष्ट्र भाषा बताना भी है जिस पर ‘सरस्वती’ संपादक पण्डित श्रीनारायण चतुर्वेदी ने कड़ी टीका की थी। 

इसी प्रकार अन्य उदाहरण प्रोफेसर कबीर के श्री मुख से निकले अनेक वचनों से दिए जा सकते हैं। जब श्री सुनीति कुमार चटर्जी और श्री सुकुमार सेन दशकों पूर्व बहुत पहले से ही असमिया को स्वतंत्र भाषा मानते आ रहे हैं, तो हमारे प्रोफेसर ने 1952 में वक्तव्य दिया था कि ‘असमिया’ बंगला की एक बोली-मात्र है। इसका उल्लेख गत वर्ष असमिया के प्रधान साहित्यकार श्री अंबिका गिरि चौधरी ने किया था। इन पंक्तियों का लेखक प्रोफेसर कबीर की व्यक्तिगत प्रतिभा एवं उनकी देशभक्ति का कायल है। पर राष्ट्रीय स्तर पर तथ्यों की तोड़-मरोड़ का विरोध हरेक भारतीय द्वारा होना चाहिए, विशेषतः जब कि तथ्यों का संबंध संस्कृति और इतिहास से है। संस्कृति के विकारों का निराकरण निष्पक्ष होकर करना आवश्यक है, पूर्वाग्रह लेकर नहीं। यदि आज का ‘हरिजनोद्धार’‘ब्राह्मण दमन’ का रूप धारण कर ले, तो उसका समर्थन कोई भी विवेकशील व्यक्ति नहीं करेगा। 

ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है कि सरकार द्वारा प्रसारित नीति की भावी दिशा क्या होगी। जिस देश के नागरिकों का पाप-पुण्य, अच्छा-बुरा, शिव-अशिव दोनों को राजनीति के नाम पर समान पूजा देकर स्वीकृति करने की प्रेरणा दी जाती है, उस राष्ट्र की बौद्धिक एवं सांस्कृतिक बरबादी निश्चित है। 


इतिहास-लेखन : एक कठोर संयम

संन्यासी और इतिहासकार दोनों को चराचर-जितेंद्रिय होना चाहिए। जिस प्रकार संन्यासी व्यक्तिगत भावों और पूर्वाग्रहों का दमन कर के विश्व के प्रति कठोर वस्तुगत (ऑब्जेक्टिव) दृष्टि रखता है उसी प्रकार इतिहासकार को भी व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों और वर्गगत स्वार्थों की वंचनापूर्ण मरीचिका में, जल-कमल न्याय से, निर्विकार रहना चाहिए। इतिहास-लेखक के लिए ऐसे आत्म-संयम की घोर आवश्यकता है और इसी अर्थ में वह ‘जितेंद्रिय’ है। इतिहासकार पर साधारणतः तीन प्रकार के पूर्वाग्रह काम करते हैं : धरातल, दिशा और बिंदु। उसके दृष्टिकोण पर इन तीनों तथ्यों का प्रभाव पड़ता है। एक ही तथ्य प्रांतीय धरातल पर एक विशिष्ट प्रकार का महत्त्व रखता है और देशगत धरातल पर दूसरे प्रकार का। प्लासी की हार बंग-धरातल पर नवाब की हार थी, अखिल भारतीय धरातल पर अँग्रेजी साम्राज्य का बीजारोपण बनी तथा विश्व-धरातल पर औद्योगिक क्रांति और आधुनिक सभ्यता के उदय एवं एशिया से मुस्लिम-दर्प के अंत की शुरुआत बन गयी। घटना एक ही रही। पर इतिहास के विविध धरातलों ने उसका महत्त्व अन्य प्रकारों से दिखाया। दूसरा नियामक तत्त्व है दृष्टिकोण की दिशा। आर्थिक दृष्टिकोण से लिखे गये भारतीय इतिहास में वास्कोडिगामा का आगमन पानीपत की तीसरी लड़ाई से कई गुना अधिक महत्त्वपूर्ण घटना के रूप में आएगा। यदि इतिहासकार की दिशा एक संप्रदाय विशेष का स्वार्थ है तो दूसरे संप्रदाय के चरित्रों पर वह सच्ची कलम नहीं चला सकता। बदायूँनी के दृष्टिकोण से अकबर कोई अच्छा बादशाह नहीं था, क्योंकि वह हिंदू-प्रजा से भी प्रेम करता था। दरबारी इतिहासकार सदैव राजा की तारीफ लिखते है क्योंकि उनका दृष्टिकोण चारु-कथन (या ‘चाटु-कथन’ कहिए) तक ही सीमित होता है। ‘रामचरित मानस’ की रूसी भूमिका में इस तथ्य का उल्लेख किया गया है कि तुलसी ने रावण-युग के बहाने मुगल-युग का वर्णन किया है। खेद है कि मुगल-युग के इतिहासकार दरबारी लेखकों बादशाह-नामों पर ही अधिक निर्भर रहते हैं पर मध्य युग के हिंदी साहित्य के भक्तिवादी कवियों ने दैत्य का और जन-पीड़न का जो चित्र रावण या कंस या कलियुग की वक्रोक्ति से दिया है, उसे भूल जाते हैं। मुगल-युग का इतिहास ‘मानस’ के उत्तरकाण्ड के आधार पर रचित होना चाहिए। ‘उत्तरकाण्ड’ ही जनमत की करुणा और आत्म-निवेदन प्रस्तुत करता है। तीसरा इतिहासकार को प्रभावित करने वाला तथ्य है उसका स्थिति-बिंदु। दृष्टि-पथ का सिद्धांत चित्रकला का राजमार्ग है। दूर की चीज बड़ी होने पर भी छोटी नजर आती है। दृष्टिकोण या ‘पर्सपेक्टिव’ का प्रभाव इतिहासकार पर भी पड़ता है। भारत के अंदर साधारणतः लोग समझते हैं कि विश्व में जो कुछ हुआ वह यहीं हुआ। दूरदराज़ के यूरोपियन या गोरे इतिहासकार ‘ग्रीक’ की पुरखागिरी के सामने मिश्र, भारत या चीन की कोई कदर ही नहीं करते। आज के इतिहासकारों में विश्वगत धरातल से हरेक घटना के निरीक्षण करने का फैशन चला है। पर इसी स्थिति बिंदु के कारण वे भयंकर भूलें कर बैठते हैं। सबसे विचित्र निष्कर्ष कभी-कभी प्रोफेसर टॉयनबी देते हैं जिनकी विशालकाय पुस्तक ‘ए स्टडी ऑफ हिस्ट्री’ उनकी प्रतिभा का प्रमाण है। टॉयनबी महाशय ने अपनी पुस्तक ‘सभ्यता की परीक्षा’ (सिविलाइजेशन ऑन ट्रायल) में लिखा है कि हिंदू सभ्यता का उदय वैदिक् धर्म पर ग्रीक प्रभावों के कारण हुआ। भारतीय शिल्प पर विशेषतः गांधार शैली की मूर्तिकला पर, ग्रीक प्रभाव अवश्य है। थोड़ा बहुत ज्योतिष का प्रभाव पड़ा हो तो नहीं कह सकते, क्योंकि इस पर पर्याप्त मतभेद है। पर इतने से ही इतना बड़ा निष्कर्ष है कि सभ्यता पर ग्रीक सभ्यता के प्रभाव से ब्राह्मण या हिंदू सभ्यता का उदय हुआ, निरर्थक और अनर्थक प्रयास है तथा घोर पूर्वाग्रह का परिचायक है। 

प्रत्येक इतिहासकार को इन धरातल-गत, दिशागत और बिंदुगत पूर्वाग्रहों के बीच ‘निष्पक्ष सत्य’ खोजना पड़ता है। ‘निष्पक्ष सत्य’ ही उसका लक्ष्य बिंदु और आत्मसंयम (संभावित अंशों तक) उसकी साधना है। अभी तक चरम रूप में निष्पक्ष सत्य इतिहासकार को नहीं मिला है और न तो शायद मिलेगा। फिर भी सापेक्ष सत्य के लिए भी निष्पक्षता का आदर्श– “सत्य सत्य के लिए न कि एक नीति विशेष के लिए” यह नारा इतिहासकार के लिए अंधकार की लाठी है। इस लाठी के परित्याग करने पर उसके पास कोई मार्गदर्शक नहीं रह जायेगा। 

हम चाहते हैं कि भारतीय इतिहास निष्पक्ष और आत्म-संयम के साथ लिखा जाय, हिंदू और मुस्लिम, भाषा एवं पूर्वाग्रहों का परित्याग करके। मुस्लिम शासनकाल में केवल काले धब्बे ही नहीं, सुनहले बिंदु भी हैं। शेरशाह और अकबर, मीर कासिम और बहादुरशाह ऐसे ही सुनहले बिंदु हैं जिनका अभिनंदन हिंदू-मुसलमान-सिक्ख-ईसाई सभी उसी भांति करें जिस तरह से अशोक-विक्रमादित्य, पृथ्वीराज, प्रताप, शिवाजी और रणजीत सिंह का करते हैं। उसी भाँति हिंदू-मुसलमान दोनों के अंदर सत्य सहने की इतनी क्षमता हो कि वे अत्याचारी की निंदा सहन कर सकें, चाहे वह कोई भी क्यों न हो। प्रत्येक भारतीय को यह स्वीकार करना होगा कि मुहम्मद गौरी विदेशी आक्रामक था, पर शेरशाह एक स्वदेशी बंधु। शेरशाह को स्वदेशी स्वीकार करके गौरी के बारें में मौन धारण कर लेना या तो कायरता है अथवा भयंकर चालबाजी। यदि इतिहास सच्चा इतिहास है तो वह पूर्व और उत्तर दोनों पक्षों पर यही निर्भीक निर्णय देगा। यदि इस ऑब्जेक्टिव एवं निर्विकार बौद्धिकता को मानने की क्षमता देश के अंदर नहीं आई तो भावात्मक एकता कभी नहीं आयेगी। महमूद गजनवी को जब एक वर्ग अपना पुरखा मानता रहेगा, तो दूसरा वर्ग अपनी घृणा और अपमान को बिल्कुल भूलकर चुप रहेगा, यह सामाजिक मनोविज्ञान के प्रतिकूल है। कोई भी व्यक्ति जो मुसलमान था इसी से स्वदेशी माना जाना चाहिए, यह दुराग्रह देश को शायद ही स्वीकार होगा। साथ ही कोई भी व्यक्ति मुसलमान है, इसी से वह विजातीय है, यह भी उसी किस्म का दुराग्रह है जो तथ्य-हीन एवं भ्रामक है। नवीन भारतीय इतिहासकार इन दोनों दुराग्रहों से युद्ध कर के राष्ट्र को सत्य-दृष्टि प्रदान करें, यही हमारी कामना है। आज यदि वह इन दोनों दुराग्रहों को ललकारता नहीं है तो द्रोणाचार्य की तरह उसे राष्ट्र का चीरहरण फिर 1947 की तरह, देखना पड़ेगा। “सत्यं वद, धर्मं चर” की जय हो !

(सरस्वती, फरवरी 1962)


सद्य: आलोकित!

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