(राजेन्द्र यादव नहीं रहे. यह समाचार मैंने जब अपने विद्यालय में एक साथी से शेयर किया तो उन्होंने पूछा- कौन राजेन्द्र यादव ? कोन का दूधिया?
मुझे काशीनाथ सिंह की 'सुख' कहानी याद आई. उन्हें सुनाया भी. वे हँसते रहे. आपने अगर पढ़ा है तो समझ गए होंगे, नहीं पढ़ा है तो कोई बात नहीं, और भी काम होंगे आपके जिम्मे!
उनके लाख पूछने के बाद भी मैं बता सकने की हिम्मत नहीं जुटा सका कि कौन राजेन्द्र यादव? क्या बताता? आपने (फेसबुक के दोस्तों ने) उन्हें ऐसे याद किया है, वह पढ़ेंगे तो शायद जान जाएँ..)
अब
सारा आकाश तुम्हारा ...
राजेंद्र यादव जैसी
शख्सियत हिंदी में दूसरी न थी। अंत तक सक्रिय रहे। लिखते
रहे, 'हंस' निकालते
रहे, आयोजन
करते रहे, मुद्दे
उठाते रहे, विवादों में
उलझते रहे, लड़ते
रहे, हँसते
रहे ... मोहन राकेश के बाद ठहाका यादवजी ने ही बचा रखा था।
हमारे करीब जीवट और जिंदादिली के वे अनूठे प्रतीक थे।
उम्र को सदा पैताने
रखकर सोने वाले राजेन्द्रजी ने मौत की चादर चुपचाप तान ली। उनकी स्मृति बनी रहेगी। कृतज्ञ
नमन।
निरंतर विवादों में घिरे रहने वाले हमारे
वक्त के सर्जक को लेकर बस इतना ही:
राजेन्द्र यादव की
स्त्री दृष्टि कमोबेश सीमोन द बउवार से प्रभावित है और वे सीमोन द्वारा दी गई स्त्री मुक्ति की इस परिभाषा को
स्वीकार भी करते हैं कि स्त्री मुक्ति एक गहरा दायित्व
बोध है - स्त्री और पुरुष दोनों के कंधे पर समान रूप से पड़ा गहरा दायित्व बोध जो दोनों को सम्बन्धों के पारंपरिक स्वरूप को निरस्त कर अपनी-अपनी
स्वायत्तता में दूसरे की अनन्यता को देखने का आग्रह करता है। अपने पहले ही उपन्यास 'उखड़े हुए लोग' में वे शरद के माध्यम से कहते भी हैं कि ''आप लोग स्त्री का मूल्य केवल उसके शरीर के उपयोग से ही नापना चाहते हैं कि कितने
आदमियों ने या एक आदमी ने कितने समय उसका उपयोग या उपभोग किया है? क्या सेक्स के
अतिरिक्त आदमी अपने आप में कुछ नहीं है? . . . हमारा संस्कारगत और धार्मिक दृष्टिकोण
जितना ही सेक्स को नगण्य, महत्वहीन और साधारण बनाने के नारे लगाता है, व्यवहार में उतना ही अपने आप को उस पर केन्द्रित कर लेता है।
मनुष्य की सारी अच्छाई-बड़ाई उसी से नापता है। मुझे याद है सामरसैट मॉम ने कहीं लिखा है, जब हम सदाचार की, वर्चू की बात करते हैं तो हमारे दिमाग
में सिर्फ एक चीज होती है, वह है सेक्स, लेकिन सेक्स
सदाचार का न तो अनिवार्य हिस्सा है, न सबसे अधिक प्रधान ही।''
उन्हें याद करता
हूं तो आंख भर आती है।
सचमुच राजेन्द्र जी
के चले जाने के बाद आंखे नम है। कई बार आंसू छलक जाते हैं।
उनकी दबंग और आत्मीय छवि भूले नहीं भूलती। इसलिए भी कि मैं और राजेन्द्र
राजन अभी 10
अक्तूबर को उनसे उनके कार्यालय मिले थे। लंच में हम
जब उनके कमरे में गए तो वे अपने साफे पर लेते हुए थे। हमारे भीतर जाते ही
आत्मीयता से इतना भर कहा कि 'बस 10
मिनट दे दीजिए'।
लेकिन अभी पांच
मिनट भी नहीं हुए थे उन्होंने हमें बुला लिया। मैं बहुत
सालों पहले उनसे
मिला था और इस बार केवल दूसरी दफा उनसे मिलना हुआ। लेकिन उनकी
स्मृतियां देखिए, मुझे
नाम से पुकारा लिया। और साथ उन पाँच मिनटों के लिए क्षमा याचना भी
की। फिर वही पुराने अंदाज में चाय के लिए आवाज। शिमला कैसा है। मौसम कैसा
रहता है। हमारे पुराने साथी कैसे हैं। तुमने नया क्या पढा है। हमारे अंक
कैसे लगते हैं। संपादकीय कैसे हैं। नया क्या लिखा है। इधर नए लोगों में
कौन ज्यादा पसंद है। आखीर में कि 'हरनोट तुमने हंस को बहुत दिनों से कहानी
नहीं दी है'।
यह राजेन्द्र जी की शालीनता, अपनापन और प्यार था जो वे
सभी को इसी तरह बांटते थे। मुझे याद है
जब 1997 में मेरी पहली कहानी दारोश उन्होंने हंस में छापी थी तो उसके बाद
उन्हें मिलना हुआ
था। यह वह समय था जब हम कहानियां लिखना सीख रहे थे, सीख तो अभी तक रहे हैं लेकिन हंस में छपने की प्यास बहुत होती
थी। उसके बाद उन्होंने मेरी तीन कहानियां लगातार छापी। हंस में अंतिम
कहानी 'मां
पढती है' छपी थी उसके बाद हंस को उनके कई बार मांगने पर भी कहानी नहीं
दे पाया। उनसे बीच बीच में बातें होती थीं। मेरे जैसे दूर-दराज रहने
वाले हंस के पाठक के लिए उनके मन में कभी अपनापन कम नहीं हुआ, उस समय जब पहली बार मिला
था और इस समय जब आखिरी
बार 10
अक्तूबर को मिलना हुआ। क्या पता था कि यह
उनसे आखिरी मुलाकात
होगी। उनके चेहने की चमक से कभी नहीं लगा कि उनकी उम्र
उस दिन के बाद केवल 18 दिनों की शेष रही है। लगभग 16 सालों का अंतराल। लगा
ही नहीं कि उनसे
दूसरी बार मिलना हो रहा है। राजेन्द्र जी ने उस समय यदि
हंस में स्थान न
दिया होता तो शायद आज थोड़ा बहुत जो लोग हमे जानते हैं, नहीं जानते क्योंकि वह दौर ऐसा था कि मुझे तो हिमाचल के पत्र-पत्रिका
भी छापते
नहीं थे। हंस में छपना बड़ी बात थी। यादव जी के साथ कितने विवाद जुडते
और टूटते रहे। कितने
विमर्श उन्होंने शुरू किए। वे हमेशा अपना काम दबंगता
से करते रहे, बिना किसी डर के, संकोच के। नए लोगों की एक बडी फौज
उन्होंने यानि हंस
ने तैयार की जो आज खूब फल फूल रही है। मेरे जैसा छोटा सा पढ़ने-लिखने वाला भी उसी का हिस्सा है। हर वो व्यक्ति जो
राजेन्द्र जी को कई कारणों से पसंद भी नहीं करता होगा वह भी हंस के अंक का
बेसब्री से इंतजार करता रहता था। साहित्य जगत में उनकी उपस्थिति बेहिसाब
थी, वे
न होते
हुए भी हर जगह, हर
गोष्ठी में उपस्थित थे, हर दिल में उपस्थित थे। और
आज के बाद भी रहेंगे, हर जगह हमारे और आपके दिलों में, लेकिन उनके जाने से
जो खालीपन हो गया है
वही न भर सकेगा------यह किसी लेखक के उद्गार नहीं
बल्कि हंस के एक
पाठक की उनके लिए विनम्र श्रद्धांजलि है-एस आर हरनोट
दुखद खबर- नयी कहानी आंदोलन के महत्वपूर्ण और
सुप्रसिद्ध कहानीकार और 'सारा आकाश' जैसी औपन्यासिक
कृति के लेखक,प्रेमचंद के 'हंस' को पुनः शुरू कर उसे एक नए मुकाम तक पहुचने वाले संपादक और
लगातार विवादों से घिरे रहने वाले राजेंद्र यादव नहीं रहे! उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि! सब कुछ के बावजूद वे लोकतान्त्रिक व्यव्हार के धनी थे.जिससे
वे असहमत होते थे या जो उनसे असहमत रहता था,उसके प्रति भी वाज़िब सम्मान रखते थे.
उनका जाना बहुत खलेगा.
राजेन्द्र यादव का
जाना दलित साहित्य का जाना नहीं
इसमें कोई संदेह नहीं है कि राजेन्द्र यादव का जाना सिर्फ एक
लेखक का जाना
नहीं है, बल्कि
एक युग का खत्म होना है. एक नये क्रान्तिकारी विमर्श के
लिए उन्हें हमेशा याद किया जायेगा. और यह भी सच है कि उनकी जगह कोई नहीं ले
सकता. उनका निधन हिंदी साहित्य की क्षति है, पर क्या यह दलित साहित्य की
भी क्षति है? सवाल
उठाया जा रहा है कि राजेन्द्र यादव के जाने से दलित साहित्य
पर क्या असर पड़ेगा? यह
सवाल मुझसे कई पत्रकारों द्वारा पूछा गया है. इसलिए इस सवाल
पर मेरे लिए विचार करना जरूरी है. इन सवालों से एक तो यह पता
चलता है कि राजेन्द्र यादव की छवि इन लोगों के जेहन में किस तरह की थी? वे
उन्हें सिर्फ एक दलित-स्त्री-विमर्शकार के रूप में ही देखते हैं. वे उन्हें
हिंदी साहित्य में रेडिकल प्रगतिशील चिंतक के रूप में नहीं देखते या
देखना नहीं चाहते, जिसने
अपने विचारों में अंगार बरसाये थे, जिसके शब्द तीर
की तरह चुभते थे. इसका क्या कारण हो सकता है कि वे उन्हें दलित-स्त्री-विमर्श
तक ही सीमित कर देना चाहते हैं? क्या इसका
कारण यह तो नहीं है
कि राजेन्द्र यादव ने साहित्य के उन मठों पर प्रहार
किया था, जो प्रगतिशीलता के नाम पर ब्राह्मणवाद के पोषक मठ हैं?
सवाल
यह होना चाहिए कि
दलित साहित्य के सन्दर्भ में राजेन्द्र यादव का क्या
योगदान है, न यह कि उनके निधन के बाद दलित साहित्य का क्या होगा या उस पर
क्या असर पड़ेगा? ये दोनों सवाल अलग-अलग हैं. पहला सवाल राजेन्द्र यादव को
बड़ा बनाता है, जबकि दूसरा सवाल उन्हें बहुत छोटा कर देता है. राजेन्द्र
यादव ने संभवता नवें
दशक में दलित साहित्य को अपना समर्थन दिया था. इसके
बाद उन्होंने लगातार
दलित साहित्य को प्रोत्साहित किया, उसकी पक्षधरता पर ‘हंस’ में सम्पादकीय लेख लिखे और बहुत से दलित लेखकों को छापा.
इसलिये, राजेन्द्र
यादव दलित साहित्य के समर्थक, प्रशंसक और प्रोत्साहनकर्ता थे, उसके प्रतिष्ठापक और नियामक नहीं थे. दलित साहित्य उनसे पहले
भी था और उनके बाद भी रहेगा. यह भी उल्लेखनीय है कि दलित साहित्य राजेन्द्र यादव
से प्रभावित
होकर कभी नहीं चला और न वह कभी उसके आदर्श बने. इसलिए यह सवाल कोई
मायने नहीं रखता कि
राजेन्द्र यादव के निधन के बाद दलित साहित्य पर क्या
असर पड़ेगा? सच तो यह है कि दलित साहित्य को समर्थन और प्रोत्साहन देने
में राजेन्द्र
यादव से भी बड़ा काम रमणिका गुप्ता ने किया है और शायद उनसे भी
पहले. पर दलित
साहित्य की प्रतिष्ठापक वह भी नहीं हैं. दलित साहित्य और
विमर्श सामाजिक
परिवर्तन की वह धारा है, जो अविरल बह रही है और रुकने वाली
नहीं है. इस धारा को
समर्थन और प्रोत्साहन देने का काम जिन्होंने भी किया
है, उन्होंने सिर्फ अपना लोकतान्त्रिक दायित्व निभाया है और कुछ
नहीं है.
मैने राजेन्द्र यादव को सारा आकाश से पहचाना था। माध्यमिक पास करने
के बाद एच.एस.
में यह उपन्यास पाठ्यक्रम में शामिल था - तब नहीं जानता था कि हंस पत्रिका उनके संपादन में निकलती है। मेरे पास अध्यापकों ने जो
सूचना दी थी वह इतनी भर थी कि हंस पत्रिका प्रेमचंद निकालते थे।
बाद
में आई.ए.एस. की तैयारी के लिए जब एम.ए. की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर पटना
गया तो वहां के फूटपाथ से हंस के ढेरों पुराने अंक खरीदे। हंस में प्रकाशित
सामग्रियों से परिचय उसी समय हुआ। बाद में हंस खरीदकर पढ़ना भी शुरू किया और
हंस के पत्र और सम्दाकीय को सबसे पहले पढ़ा।
राजेन्द्र
जी से मेरी कभी कोई मुलाकात नहीं हुई - मैं सोचता रहा कि कभी न कभी उनसे मुलाकात होगी।
कोलकाता में रविन्द्र कालिया द्वारा आयोजित कथा-कुंभ में उनके आने की खबर
सुनकर मैं उत्साहित
था - लेकिन अंतिम समय में उनका आना रद्द हो गया।
राजेन्द्र जी एक
सुयोग्य एवं निडर संपादक होने के साथ ही बहसतलब शक्स थे।
उनका इस तरह जाना
हमें इस अफसोस से भर देता है कि अगर वे कुछ दिन और रहते तो शायद कभी उनसे मुलाकात
हो जाती। मेरी एक यह साध उनके साथ ही चली गई।
उन्हें विनम्र
श्रद्धांजलि।
राजेन्द्र यादव का जाना हिंदी पब्लिक स्फीयर के लिए
बहुत बड़ा नुक़सान है। इस समय जब जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय जैसे
मूल्यों और राजनीति को खुली चुनौती दी जा
रही हो, उनकी ग़ैर-मौजूदगी खलेगी। उनकी स्मृति को नमन और हार्दिक
श्रद्धांजलि।
साहित्य में
आने का रास्ता मुझे ‘हंस’ ने
ही दिखाया था | 1990 के
किसी माह में जब
यह पत्रिका पहली बार मेरे हाथों में पहुंची थी , तो
लगा था जैसे कि जीवन में एक नया दरवाजा खुल गया है | हालाकि प्रतियोगी
परीक्षाओं की तैयारी के दबाव के चलते उस समय उसका नियमित पाठक नहीं बन सका था , लेकिन
बाद में जब उससे
थोड़ा और जुड़ाव् हुआ , तो
फिर प्रत्येक महीने ‘प्रतियोगिता
दर्पण’ जैसे
ही उसका भी इन्तजार रहने लगा | और फिर 1997-98 के बाद से जब इसका नियमित पाठक हुआ , तो
अपनी तमाम सहमतियों-असहमतियों के बावजूद आज तक बना हुआ
हूँ |
राजेन्द्र जी ने
पर्याप्त लिखा , और
कहें हिंदी साहित्य
को कई कालजयी कृतियाँ दी ,
लेकिन मेरी नजर में हंस में लिखा गया उनका
सम्पादकीय उनके रचनात्मक लेखन पर बीस पड़ा | उसने न सिर्फ साहित्य की प्रचलित
दिशा को सार्थक रूप से बदलने की कोशिश की , वरन उसे गहरे रूप में उद्वेलित
भी किया | हंस
में चलने वाली तमाम बहसें हमारे लिए ‘आई-ओपनर’ की तरह
रही , और
उन्होंने राजेन्द्र जी को भी उस स्थान पर ला खड़ा किया , जिसमें
वे हमारे दौर के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक सत्ता
केंद्र के रूप में
उभरे | यह
विडम्बना ही कही जायेगी , कि अपने जीवन में ‘सामंतवाद और अभिजनवाद’ का सबसे मुखर विरोध करने वाले राजेन्द्र यादव अपने
अंतिम दिनों में एक ‘सामंतवादी’ कहलाये | ‘सारा आकाश’ लिखने वाले राजेन्द्र
जी ‘बीमार विचार’ लिखने लगे, और ‘एक दुनिया समांनातर’ का संपादक ‘मुड़-मुड़कर अपनी जुगुप्साओं’ को याद करने लगा | उनका आखिरी समय , मेरे जैसे उनके हजारों-हजार चाहने वालों के लिए सचमुच बहुत कठिन गुजरा | इस ढलान से न सिर्फ ‘हंस’ को हानि हुयी , वरन उस समूचे विमर्श को भी , जिसे वे केंद्र में ले आये थे |
पंद्रह
सालों के ‘हंस’ की लगभग दो सौ प्रतियाँ
आज मेरे पास मौजूद
हैं , और
किसी भी साल अपनी किताबों की सफाई करते समय
मेरे मन में यह
ख्याल नहीं उठता है , कि इन्हें हटा देना चाहिए | वरन जिन कुछ चीजों को मैं पहले सुरक्षित करता हूँ , उनमें हंस की ये दो सौ प्रतियाँ
ही हैं | हालाकि राजेन्द्र जी से मेरी न तो कभी मुलाकात हुयी , और न ही अपना लिखा कभी ‘हंस’ में भेजा | वरन यह समूचा रिश्ता एक लेखक-पाठक का ही
रहा |
आज
हिंदी साहित्य की ‘एक समानांतर दुनिया’ के चले जाने के बाद मन बहुत उदास है , और ऐसा लगता है , कि जैसे भीतर का एक कोना रिक्त हो
गया है | सचमुच ..अपने तमाम असहमतियों के बावजूद वे हमारे दिलों में
राज करते
थे ....| उन्हें
भावभीनी श्रद्धांजली ...|
आज सुबह ६ बजे धीरज चौहान का फ़ोन आया, बहुत सुबह और देर रात के फ़ोन आशंकित करते हैं और अक्सर दुखद समाचार से युक्त होते हैं। धीरज ने कहा - राजेंद्र यादव नहीं रहे और कुछ समय बाद सहारा समय से आपके पास फ़ोन आएगा
, आप अपनी श्रद्धांजलि दीजियेगा। मैंने राजेंद्र जी को श्रद्धांजलि सुमन अर्पित करते हुए कहा -- राजेंद्र यादव ने न केवल अपने रचनात्मक लेखन से
अपितु ' हंस
' के माध्यम से
साहित्य को सक्रिय रचनात्मकता प्रदान की। उन्होंने युवा स्वर को आवश्यक मंच दिया। उन्होंने ने दलित विमर्श एवं नारी विमर्श
के माध्यम से
वंचितों को ताकत दी। मोहन राकेश, कमलेश्वर के साथ जो उन्होंने कथा साहित्य को नवीनता प्रदान करने का आंदोलन आरम्भ किया था , उसे निरंतर जीवित रखा। वे साहित्य के युग पुरुष थे। राजेंद्र यादव से मिलना किसी भी आयु का व्यक्ति मिले उससे वह मित्रवत मिलते थे। …… '' मित्रों उनके जन्मदिन पर मुझे उनसे अनोपचारिक मिलने का सौभग्य मिला। उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धांजलि
अभी-अभी पता चला कि
राजेन्द्र यादव नहीं रहे। जिसके बिना हिंदी जगत सचमुच कुछ सूना होगा, एक
ऐसा सशक्त मसीजीवी लेखक,
संपादक नहीं रहा। हिंदी
में आत्मलीन, संकीर्ण
और परंपरा-पूजक अज्ञेय-निर्मलवादी आधुनिकता का
विपरीत छोर
यथार्थवादी, उनमुक्त
और रूढि़भंजक लेखक-चिंतक नहीं रहा। जनवाद के इंद्रधनुषी व्यापक वैचारिक फलक को मूर्त करने वाला
व्यक्ति नहीं रहा। भक्तों और फतवों के बजाय शंकालुओं और बहसों से ताकत लेने वाला
सर्जक नहीं रहा। नहीं रहा जीवन और विचारों की कथित निषिद्ध गलियों में
स्वतंत्र भाव से विचरण करते हुए सभी विरूपताओं पर से पर्दा उठाने के लेखक के
मूल धर्म का उद्घोषक। तमाम मध्यवर्गीय मिथ्याचारों को अपनी कूट मुस्कान भर से मात
देने वाला एक अंतर्यामी द्रष्टा नहीं रहा।
साहित्य और
साहित्यिक पत्रिकाओं के बारे में असंख्य अनसुलझे सवालों को
हमारे बीच छोड़ जाने
वाला एक कभी न थकने वाला विवादी नहीं रहा।
एक ऐसे रचनाकार, संपादक , विचारक को हमारी आंतरिक श्रद्धांजलि।
पूरे लेखक समुदाय के
इस गहरे शोक में समवेदना के हमारे स्वर भी शामिल है।
मन्नू जी और यादव जी
की बेटी तथा हंस परिवार के सभी सदस्यों के प्रति हमारी आंतरिक संवेदना।
राजेंद्र यादव ऐन इस वक्त बहुत मुश्किल में होंगे, वे सब शब्द, जुमले, वाक्य जो रस्मी और मृत माने जाते हैं किसी मृतक के बारे में, जिनका वे खुद भी
मज़ाक उड़ाते रहे; उनके बारे में पूर्णतः सच हैं, आज वे 'सत्य' हो गए हैं, जीवित हो गए हैं. आज और आज के बाद उनके बारे में बात करते हुए अगर 'युग', 'युग निर्माता', 'युगांतरकारी', 'एक अध्याय', 'जनतांत्रिक', 'महान' आदि सुनाई पड़े तो, फॉर ए चेंज, रस्मी नहीं लगेंगे. अलविदा, राजेंद्रजी. हिंदी साहित्य और समाज की बीसवीं शताब्दी का एक अहम अवसान है, आपका जाना.
हिंदी की नयी कहानी आंदोलन के आखिरी स्तंम्भ और समकालीन हिंदी कहानी
को भी एक नयी
दिशा और धारा में मोड़ने वाले राजेंद्र यादव का इस तरह अचानक चले जाना मेरे लिए एक बेहद अफसोसनाक खबर है।राजेंद्र यादव ने 'हंस' पत्रिका के माध्यम से स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श को सामने लाने में एक
महत्वपूर्ण भूमिका
अदा की। उन्होंने हाशिये के समाज के लेखकों को अग्रिम पंक्ति में ला खड़ा किया। वे एक युगांतरकारी संपादक थे। वे खुले विचारों के
लेखक थे। वे जीवन के आखिरी क्षणों तक विवादों में घिरे रहे। उनके बारे में
कहा जाता है कि वे अपनी शर्तों पर जिए और लिखा पढ़ा। भले ही उनका कायदे का
पारिवारिक जीवन
न रहा हो फिर भी हिंदी साहित्य में वे एक बहुत बड़ा परिवार छोड़ गए हैं।मुझे उनसे दो चार बार मिलने का मौका मिला था। वे एक बेहद
जिंदादिल इंसान
थे। वे हमेशा युवाओं कि तरह जोश से भरे रहते थे। उनकी स्मृति को शत-शत नमन !
रात लगभग डेढ़ बजे
कवि भरत तिवारी का फोन आया- sir has left us। कलेजा धक्क से रह गया। पूरी रात कई तरह यादें
आईं। पहली याद लगभग बत्तीस साल की है।तब मैदिल्ली विश्वविद्यालय क हिंदी विभाग में पढ़ता था और हिंदी साहित्य सभा का अध्य़क्ष था। सभा की पहली बैठक होनेवाली थी। किसी मुख्य अतिथि की तलाश था। डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी तब साहित्य सभा के सलाहकार थे। तय हुआ कि राजेंद्र यादव को
बतौर मुख्य अतिथि बुलाया जाए। उनको निमंत्रित करने
में शक्ति नगर गया जहां वे उस वक्त रहते थे। हालांकि उनकी किताबें पढ़ चुका था पर भेंट पहली थी। मन में था कि पता नहीं किस तरह मिलेंगे। पर पहली बार ही
वे इतने औपचारिक हो गए कि लगा ही नहीं ये पहली मुलाकात है।
आज ये लग रहा है कि ये पहली मुलाकात कल ही हुई थी। लेकिन कल ही तो वे नहीं
रहे।
कल रात 12 बजे मेरे 1960 से आत्मीय रहे मित्र राजेन्द्र यादव का निधन हो गया। एक ज़िंदा दिल इंसान और दोस्तों के दोस्त के चले जाने से
आज ख़ालीपन लग
रहा है। आई आई टी में जब मैंने रचनात्मक लेखन केंद्र खोला था तो राजेन्द्र ही पहले लेखक अतिथि थे। जाड़े की रात में जब खट खट
करते आते था और दरवाज़ा खटखटाते थे तो मुझे लगता था कि जैसे वह खट खट मेरे
अंदर हो रही है। एक खुशमिज़ाज और हर दिल अज़ीज़ लेखक इस तरह से हमारे बीच
से चला जाएगा यह सोचा नहीं था। इस बीच मेरा दिल्ली जाना भी कम होता था। बस
कभी कभी फ़ोन आता था कहो पिता जी कैसे हो, मैं ताऊ जी कहता था। दो वाक्यों की बातचीत से बीती बातें हरिया जाती थीं। इधर की घटनाओं से सुस्त हो गए थे।
बातचीत भी कम होने लगी थी। तहलका में एक रपट छपी थी मैंने फ़ोन किया था। वे
बहुत दबाव में
थे। कुछ बताना चाहते थे पर लग रहा था कह नहीं पा रहे हैं। मैंने कभी उन्हें इतना डरा हुआ नहीं देखा था। मैंने कहा भी कि मैं आता
हूं तो उन्होंने
मना कर दिया। मैं दुखी हूं कि मैं उनके मना करने पर क्यों नहीं गया। शायद बातचीत से मन हल्का होता। कई बार चीज़ें अपने
नियंत्रण से बाहर हो जाती हैं। चीटी भी हाथी पर भारी पड़ जाती है। किसान जिन
जिन्सों को लगाता है उसके काँटे भी उसको ज़ख्मी कर देते है। उम्र के कारण
शिथिल तो थे ही पर हिम्मत से कम नहीं थे। उनके न रहने के पीछे लगता है
शरीर से ज्यादा मानसिक स्थितियाँ हैं। उनका जीवन जितना आनन्दप्रद रहा है उतना
ही संघर्षमय रहा है। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।
हंस को पंख देने वाले राजेंद्र यादव जी हम सब से दूर का फिर कभी न
मिलने का उडान
भर कर चल दिए आज सारा आकाश उनका है पर अब वे हमारे बीच नहीं है आज बहुत दुखी हु क्योकि दिल्ली प्रवास के दौरान बाबु जी से अक्सर मुलाकात होती रहती थी जो अब कभी नहीं हो पायेगी अभी इसी माह इलाहबाद जाने से पहले बाबु जी से मिलने गया था अस्वस्थ होने के बावजूद काफी बोल रहे
थे और खिन्न भी थे क्योकि घर का उनका काम करने वाला सहयोगी और ऑफिस का काम
देखने वाली सहयोगी
में कुछ अनबन चल रही थी जिसका वे समाधान नहीं कर पा रहे थे. बाबुजी से मेरी
मुलाकात 2003 में
हुई थी तब से लगातार जारी थी ,मेरी पहली मुलाकात दरियागंज में हुई थी जब हम अपनी समीक्षा ले कर गए थे 258 पेज वाले "भारतीय मुसलमान:वर्तमान और भविष्य" वाले हंस के विशेषांक
पर बड़े ही आत्मीयता
से मेरा वो हस्त लिखित पन्ना लेने के बाद बैठाये और लम्बी बात की तब से यह मिलना अनवरत था जिस पर अब पूर्ण विराम लग गया .
क्या कहूं? कोई शब्द ही नहीं मिल रहा..अनेकानेक भाव घुमड़ रहे हैं। सोचता
हूं राजेंद्र
यादव न होते, हंस
न होता, तो
मैं आज कैसा होता? यह
हिंदी समाज कैसा
होता? वे
हम जैसे, संभवत:
हजारों युवाओं के प्रेरणा श्रोत थे। हमलोग भले ही उनसे बहुत कम मिले हों, दिल्ली से सुदूर किसी कस्बे में रह रहे हों लेकिन हम गर्व से कहते रहे कि हमने पढना-लिखना राजेंद्र
यादव सीखा है।
अगर
कोई दूसरी दुनिया होती होगी, तो वह वहां भी बहस कर रहे होंगे. अब तक तो मार कोहराम मचा
दिया होगा.
वह
असहमति की वर्तनी थे. छोटी-छोटी असहमतियों पर दंगा करने वालों को अनुभव करना चाहिए
कि इतना लंबा असमहत जीवन जिया जा सकता है.
राजेंद्र
यादव को श्रद्धांजलि.
- साहित्य
में जो कहानियां गुनाह की तरह होतीं, जिन्हें दूसरी पत्रिकाओं के संपादक सांप्रदायिक, अश्लील और जी का जंजाल बताते हुए प्रकाशित करने से इंकार करते... राजेंद्र यादव हंस में उन कहानियों को पंख और
परवाज देते थे... अब कहां जाएंगे परवाने...? अब राजेंद्र यादव और याद आएंगे.
साहित्य का
राजहंस हमें छोड़ गया। आदरणीय राजेंद्र यादव के न रहने से हमने हिंदी साहित्य
के उस आवेग, असहमति
और साहस को गंवा दिया है,
जिसकी भरपाई शायद ही कभी संभव हो और उसके
बिना हम एक भारी निरसता और ठंडेपन का अनुभव करेंगे। अभी
कल ही तो दृश्यांतर में उनके उपन्यास भूत का अंश पढ़कर मैंने टिप्पणी की
थी। राजेंद्र जी के साथ मुझे भी कुछ महीनों काम करने का समय मिला था। मैंने
अब तक के जीवन में उन जैसा जनतांत्रिक व्यक्ति नहीं देखा। वे हम जैसे नवोदित
और अपढ़-अज्ञानी लोगों से भी बराबरी के स्तर पर बात करते थे और अपनी
श्रेष्ठता को बीच में कही फटकने तक नहीं देते थे। किशन से नजरें चुराकर
कवि रवींद्र स्वप्निल प्रजापति और मुझे अनेक बार उन्होंने
अपनी थाली
की रोटी खिलाया था। मैं जब-तब उनका हमप्याला भी बना। वे एक बार कृष्णबिहारी
जी के पास अबूधावी गये थे,
तो वहाँ से मेरे लिये वहाँ की एक सिगरेट
का पैकेट लेकर आये थे। उन्होंने सबसे नौसिखुआ दिनों में हंस के कुछ महीनों
में मुझे जो आजादी दी थी,
उसे मैं भूल नहीं सकता। बाद में रोजी-रोटी और
पारिवारिक जरूरतों के कारण मुझे हंस छोड़ना
पड़ा था। राजेंद्र
जी को जब पता चला कि हंस से अधिक मेहनताने का ऑफर एक
दूसरी जगह से मुझे
है, तो
उन्होंने मेरी भावुकता को फटकारते हुए कहा था कि
जा, तू...आगे की जिंदगी देख। तुम्हारे आगे अभी लंबी जिंदगी पड़ी
है। उन्होंने
हंस के संपादकीय में अगले महीने लिखा कि हमारे सहायक संपादक हरे
प्रकाश उपाध्याय अब
कादंबिनी में आ रहे हैं। ऐसा ही कुछ था। मैंने उनसे
पूछा कि आपने जा रहे
हैं, क्यों
नहीं लिखा तो बोले कि तुम जा नहीं सकते मेरे यहाँ से। बाद में जीवन की आपाधापी में उनसे मिलना कम
होता गया। मैंने उनसे क्या-क्या छूट नहीं ली। अपनी अज्ञानता में उन पर
तिलमिलानेवाली न जाने कैसी-कैसी टिप्पणियां की, कभी एकदम सामने तो कभी लिखकर, पर उन्होंने शायद ही कभी बुरा माना। अगर माना भी हो, तो मुझे तो कम से कम ऐसा आभास नहीं होने
दिया। आज यह सब
लिखते हुए मैं सचमुच रो रहा हूँ। राजेंद्र जी, आपसे जो लोग निरंतर असहमत रहते थे और झगड़ते रहते थे- वे सब रो रहे होंगे।
अब हमें जीवन और कोई राजेंद्र यादव नहीं मिलेगा। राजेंद्र यादव जैसा
कोई नहीं मिलेगा। राजेंद्र जी का जीवन सचमुच खुली किताब की तरह है।
दिल्ली के बड़े लेखकों में अगर सबसे ज्यादा उपलब्ध, सहज और मानवीय कोई था, तो राजेंद्र यादव। दिल्ली के मेरे दिनों की अगर मेरी कोई उपलब्धि है, तो राजेंद्र यादव से मिलना, उनसे बहसना और उनके साथ काम करना। बातें काफी हैं, पर मैं अभी नहीं लिख पाऊंगा और सभी तो कभी नहीं लिख पाऊंगा।
वे तेजस्वी थे.
बेबाक थे . इसलिए विवादास्पद भी .स्त्री और दलित प्रश्नों को सबसे पहले और सबसे
ज्यादा तवज्जो उन्होंने ही दी .उनसे नाखुश मित्रों ने 'हंस' को
'कौवा' कहा
पर वे हिन्दी के सबसे चर्चित संपादक बने रहे.अब तो बहुत से क्लोन उपलब्ध हैं पर
सांप्रदायिकता के खिलाफ सबसे मुखर और जुझारू मोर्चा उन्होंने ही खोला .
सब उन्हें अपने-अपने
कारणों से और अपनी-अपनी तरह से याद करेंगे. मैं
उन्हें याद करूंगा 'सारा आकाश' के लिए. उस उम्र में बहुत कम किताबों ने मुझ
पर ऐसा प्रभाव छोड़ा
जैसा 'सारा
आकाश' ने
. वह 'गुनाहों
का देवता' पढ़ने
की उम्र
थी पर हाथ आया 'सारा
आकाश' और
एक बार हाथ में लिया तो पूरा पढ़ कर ही रखा. आभार राजेन्द्र यादव हमारी पीढ़ी की अकथ संघर्ष-कथा कहने
के लिए . लिखने के लिए. कहीं पढ़ा कि उपन्यास की दस लाख से अधिक
प्रतियां बिक चुकी हैं तो आश्चर्य नहीं हुआ.
उन्होंने
भूमि-वंचितों में आकाश मापने का हौसला जगाया. असहमति का साहस और सहमति का विवेक
सदा उनके साथ रहा. विदा ! राजेन्द्र जी . विनम्र श्रद्धांजलि !
हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव नहीं रहे. रात
को अस्वस्थता की स्थिति में जब उन्हें उनके आवास से मैक्स हास्पीटल ले जाया जा रहा था तभी बीच रास्ते में ही रात के लगभग बारह बजे चौरासी वर्ष की
उम्र में उनका निधन हो गया. उनके निधन के साथ ही एक युग का अवसान हो गया. विवादों के साथ चोली दामन का साथ रखने वाले राजेन्द्र यादव अपनी उस सहजता
के लिए भी याद किये जायेंगे, जिससे वे नए से नए रचनाकार के साथ संवाद कायम
कर लेते थे. साहित्य के लोकतन्त्र में उनका पूरा-पूरा यकीन था और असहमति
को सुनने-सहने का साहस था. साहित्य के इस पुरोधा को नमन और श्रद्धांजलि.
राजेंद्र यादव से प्यार करने वाले लोग बहुत थे क्योंकि वह
सत्ता-प्रतिष्ठानों की जड़, बासी तथा दकियानूस दुनिया के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा थे।
संभवतः उन्होंने
सबसे अच्छे संपादकीय बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद लिखे और हजारों लोगों को सांप्रदायिकता के खतरों से सचेत किया। हजारों
को साहित्य से
जोड़ा और दलित-स्त्री साहित्य को केंद्र में स्थापित किया। धर्मयुग और सारिका के बाद साहित्य की व्यापक आधार वाली गंभीर पत्रिका 'हंस' को खड़ा करके साबित किया कि बड़ी पूंजी वाले घरानों के बगैर भी
साहित्यिक पत्रिका को सफलतापूर्वक चलाया जा सकता है। हंस का दफ्तर तो नए युवा
लेखकों-लेखिकाओं के लिए तीर्थस्थल जैसा ही रहा है। हर आगंतुक को अद्भुत
आत्मीयता के साथ वह चाय जरूर पिलाते थे। इतनी तेजस्वी बौद्धिकता और खुद को लगातार
नया करते जाने
वाला लेखक-संपादक हिंदी में फिलहाल तो दूसरा नहीं है। राजेंद्र जी की स्मृति को नमन!
हंस
आकाश में विलीन....
मुझे याद है वर्ष १९८५-८६ का या उससे पहले, मैने राजेन्द्र यादव को जिन वर्षों में पढ़ा था उन वर्षों उनकी छवि एक प्रगतिशील लेखक के रूप उभरी
थी, कुछ प्रेम चंद से अनुप्रेरित राजेन्द्र यादव, खैर वह समय हिंदी के अवसान का समय था धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान,सारिका नवनीत हिंदी डाइजेस्ट,कादंबनी आदि हिंदी की तमाम पत्रिकाओं के अवसान को मैंने देखा और भोगा, इन विपरीत परिस्थितियों में भी हिंदी अलख जगाने वाले राजेन्द्र यादव ने
लेखन के एक नए युग का सूत्रपात किया,अब प्रेम चन्द्र के सामजिक जीवन का भारत बदल चुका था,लोकतंत्र के नाम पर अब साहित्य सृजन वैचारिकी न प्रधान हो कर साहित्य का सृजन भी राजनितिक खेमों में बटता नजर आ रहा था,समाज के प्रति प्रगतिशील चिंतन रखने वाले साहित्य के उपासकों ने इस देश कि समग्र संस्कृति पृष्ठिभूमि को खेमो,जातियों वर्गों समूहों का साहित्य सृजन प्रारम्भ किया इस यात्रा में,जो बहुत ही सकारात्मक और धनात्मक बात थी वह यह थी जब हिंदी कि पत्रिकाओं कि टिकठी निकल रही थी उस समय साहित्य के नाम पर प्रगतिशीलता का नकाब ओढ़े ही सही हंस जैसी पत्रिका का निकलना और उसकी अलख
को जगाये रखना भी कम न था,राजेन्द्र यादव उसके लिए सदैव अविष्मरणीय रहेंगे,उनको मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि
वंचित तबकों के नायक राजेन्द्र यादव जिन्हें तथाकथित सभ्य साहित्यिक
समाज ने खलनायक
बना दिया | आप
नायक बने रहेंगे .....विनम्र श्रद्धांजलि....
मृत्यु
की एक दुनिया समानांतर ! विदा !
उड़ चला हिंदी कहानी का सशक्त " हंस " ....... आधुनिक हिंदी साहित्य में वंचितो दलितों पिछड़ो को हंस में जगह देने का उस वक़्त काम किया
जब सवर्ण उच्चकुलीन
हिंदी साहित्य के मठाधीश हर विधा पर कुंडली मार के बैठे थे . इसके बरक्स मेनस्ट्रीम साहित्य में " नारिविमर्श "
को एक आधुनिक मोड़ पर ला के उसे भी स्थापित करने और एक " क्लासिकल " खांचे से बहार लाने का काम
भी बखूबी
किया . हिंदी साहित्य में सामंती और अभिजातीय ठसक को मरहूम राजेन्द्र यादव के न्रेतत्व में हंस ने खूब चुनौती दी . ...........
अलविदा साथी .... आप
कि लगायी हई बेल " जलकुम्बी कि तरह फल फूल रहीहैं . श्रद्धांजलि !
कुछ शब्द, एक वाक्य, एक पैरा, एक पेज, एक अध्याय नहीं- कहानी का एक युग समाप्त हो गया,…राजेन्द्र जी नहीं रहे। रात 12 बजे, मैक्स बालाजी अस्पताल में, उनकी कलाई पर बंधी घड़ी चल रही थी, पर देखते-देखते नब्ज़ रुक गई। आज हम बिना लड़े, समय से हार गए……सलाम।
आज दोपहर 3 बजे, लोधी क्रेमेटोरियम, लोधी रोड से उन्हें विदा करेंगे
हंस के संपादक राजेन्द्र यादव की अदृश्य उपस्थिति बनी रहेगी. हंस
ने हिंदी साहित्य
को उसके सबसे
बुरे दौर में भी बचाए रखा है. समकालीन लेखकों की पीढ़ी हंस की पीढ़ी है. पढकर, उसमें लिखकर या फिर उसकी वैचारिकी के समर्थन या विरोध से अपना कोई पक्ष चुन कर अपने को मांजते हुए. एक महान संपादक के रूप में राजेन्द्र जी के योगदान को याद करते हुए, समालोचन की ओर से नमन.
आज दिन की शुरुआत हुई एक दुखद खबर के साथ.. इलाहाबाद में ग्रैजुएशन के वक्त पहली बार राजेन्द्र यादव का लिखा उपन्यास 'शह और मात' पढ़ा था.. तभी से इनका फैन बन गया था.. दिल्ली में इक्का-दुक्का बार मुलाकात भी
हुई थी. अब यादें
ही शेष..
हार्दिक नमन.
राजेन्द्र
यादव का जाना, महाकवि
शंकर शैलेन्द्र के शब्दों में,
'तेरा
जाना, दिल
के अरमानों का लुट जाना' हिन्दी
साहित्य का एक बड़ा स्तम्भ गिर गया। बहुत याद आओगे, मेरे अग्रज मेरे मेरे मित्र !
दिया गया जीवन तो सभी जी लेते हैं. राजेन्द्र
यादव ने सीमाओं को मिटाकर इच्छित जीवन जिया. इस साहसी अग्रगामी की जरूरत हमारे पाखंडी समाज को बार बार पड़ेगी. श्रद्धांजलि.
वे
देवता नहीं थे . देवता न होने पर बज़िद थे. देव -अनुसरण , देवपूजन और दैवीकरण से उनकी दुश्मनी थी. वे शिद्दत से एक मनुष्य की तरह
जिए और मरे . उनका लेखन और जीवन मनुष्य होने की कुल उजली संभावनाओं और अंधेरी गुंजाइशों का
उत्सव था. बेबाक.
श्रद्धांजलि, राजेंद्रजी .
‘प्रेत बोलते हैं’ से शुरू हुए कथा सफर ने अनेक ऊंचाइयों को छुआ. नयी
कहानी आंदोलन के स्तंभ, हंस के संपादक, अपनी शर्तों पर जिंदगी को जीने वाले, विवादों से घिरे रहने के बावजूद हमारे समय के महत्त्वपूर्ण साहित्यकार
राजेंद्र यादव हमारे बीच नहीं रहे | विनम्र श्रद्धांजलि |
एक
अत्यंत दुखद खबर –
हिंदी
कहानी के सबसे चर्चित किरदार राजेन्द्र यादव नहीं रहे ! दुखी
हूँ ...
चले
जाने के बाद अक्सर लोग याद आते हैं।
[राजेंद्र
यादव जी की पत्रिका हंस में एक बार मेरा भी नाम छपा था-लिखा था-वर्तमान साहित्य के नाटक विशेषांक में संतोष राय का आलेख
सबसे उल्लेखनीय है- खुशी हुई थी क्योंकि मैं सबसे छोटा था-बाकी सब बड़े-बड़े
छपे थे।]
राजेंद्र
यादव जी को भावभीनी श्रद्धांजलि!
मुझे लगता है दुख जताने, नमन करने और श्रद्धांजलि देने के साथ ही इस वक्त राजेंद्र यादव के निधन के तुरंत बाद एक चेतावनी जारी करना
कहीं ज्यादा जरूरी है। मैं नहीं जानता कि अभी यह बात कहना कितना सही है, फिर भी...
राजेंद्र
जी अनिवार्यत: वैज्ञानिक चेतना, वाम वैश्विकता और सबाल्टर्न प्रतिरोध के आधुनिक प्रतीक हैं। उनका जाना कई किस्म की
राजनीति करने वालों को अपने हिसाब से उन्हें अपने प्रतीक पुरुष के रूप में गढ़ने
की छूट देता है। मुझे आशंका है कि जिस तरह हिंदी के साहित्य जगत में वाम
प्रतिरोध की धारा फिलवक्त हाशिये पर है, उन्हें पहचान की राजनीति करने वाली वाम विरोधी ताकतें कहीं हथिया न लें। अगर राजेंद्र यादव कल को आइडेंटिटी पॉलिटिक्स (पिछड़ा, दलित या स्त्री वर्ग की राजनीति) का चारा बन गए, तो हमारे लिए इससे बड़ी त्रासदी और कुछ नहीं होगी। आज प्रेमचंद
को कम्युनिस्ट
या गैर-कम्युनिस्ट ठहराने की जो बहस चल रही है, मुझे डर है कि बीस साल बाद राजेंद्र जी के साथ भी ऐसा ही न हो जाए।
अभी
और तुरंत
यह बात कहे जाने की जरूरत है कि राजेंद्र यादव स्त्रियों, दलितों, पिछड़ों आदि के exclusive प्रतीक पुरुष नहीं थे। वे अपनी तमाम निजी खूबियों-खराबियों के साथ समूची प्रगतिशील हिंदी चेतना के
संरक्षक थे जो अनिवार्यत: शोषितों-उत्पीडि़तों की राजनीतिक एकता के हामी
थे। अगर आपको उनसे वास्तव में प्रेम है, तो प्लीज़, उन्हें हाइजैक मत होने दीजिए।
हिंदी साहित्य में 'एक समानान्तर दुनिया' स्थापित करने वाला साहित्यकार अब हमारे बीच नहीं रहा । 'सारा आकाश' सूना पड़ा है । पता नहीं 'हंस' किस दिशा में उड़ गया ।
भावभीनी
श्रद्धांजलि......
राजेंद्र यादव का जाना साहित्य के एक युग का अंत
है। उन जैसा जिंदादिल, सहज और नवोदितों को सम्मान देने वाला कोई व्यक्ति हो सकता है, यह उनसे मिले बिना नहीं जा सकता था! दिल्ली में रहते हुए मुझे उनसे मिलने का
अवसर मिला था और तब मुझे पता चला कि एक बड़ा लेखक, बड़ा संपादक कैसे बनता है।'हंस' में जिस समभाव से उन्होंने स्थापितों और नवोदितों को स्थान दिया वह
अभूतपूर्व है।उन्होंने मेरी पहली कहानी 'हंस' में प्रकाशित की थी।और बाद में कितनी लघुकथा, कविता, लेख और पुस्तक
समीक्षाएं! उनकी 'जहाँ लक्ष्मी कैद है' कहानी मुझे आज भी चमत्कृत करती है।उनको विनम्र श्रद्धांजलि!
हंस
उड़ा काया कुम्हिलानी...
संजीव सिन्हा
साहित्यकार राजेंद्र यादव नहीं रहे। उनके व्यक्तित्व ने मुझे काफी
आकर्षित किया था। कथा-कहानी में दिलचस्पी न होने के बाद
भी गत 15 सालों से 'हंस' पत्रिका जरूर खरीदता रहा। अधिकांश बार यही हुआ कि केवल संपादकीय
पढ़कर ही रह गया। उनका संपादकीय पढ़कर बेचैन हो जाता था।
मन में सवाल उठते थे। चिंतन-हिलोरें।
गत 15 सालों में राजेंद्रजी को अनेक बार सुन चुका हूं। हर बार सुनको सुनना एक नये बहस से टकराने जैसा रहा। अभी तीन दिन पहले ही
बड़े भाई उमेश चतुर्वेदी जी के साथ 'दृश्यांतर' पत्रिका के विमोचन
कार्यक्रम में जाना हुआ। संयोग से राजेंद्र जी वहां अतिथि के नाते उपस्थित थे। कम शब्दों में अच्छा बोले। मेरे लिए उनका अंतिम दर्शन यही था।
राजेंद्र जी के
बारे में मैं यही कहूंगा कि लगातार यांत्रिक होती जा रही
दुनिया में उन्होंने साहित्य को जिंदा रखा, यह छोटी बात नहीं है। साहित्य से
संवेदनशीलता प्रखर होती है। राजेंद्र जी ने दलित और स्त्री विमर्श को मुखर किया और इसे केंद्र में लाए। हां, उनका जीवन ठीक नहीं लगा। अनैतिकता से ओत-प्रोत। स्त्रीविरोधी।
धर्म के कर्मकांड और पोंगापंथ स्वरूप पर उनका
प्रहार करना ठीक लगा लेकिन वे धर्म के प्रगतिशील तत्वों पर भी प्रहार करते रहे, यानी धर्म को लेकर पूर्वग्रहग्रस्त थे। इसी तरह कविता विधा की नाहक आलोचना करते थे कि यह अतीतजीवी होती है।
खैर, मेरे जीवन में जिन थोड़ी सी शख्सियतों का प्रभाव पड़ा, उनमें से एक राजेंद्र जी का निधन मेरे
लिए व्यक्तिगत क्षति है। उन्हें
श्रद्धांजलि।
बड़ी उत्सुकता थी कि एक कॉमरेड का अंतिम
संस्कार कैसे होता है ?
सो, आज वामपंथी साहित्यकार राजेंद्र यादव के अंतिम संस्कार
में शरीक हुआ। लोधी रोड स्थित श्मशान घाट। हिंदू
परंपरा और कर्मकांड के विरोध में जीवन भर कलम चलाने वाले राजेंद्र जी का अंतिम संस्कार उनके परिवारवालों ने 'गायत्री मंत्र' और 'राम नाम सत्य है' के बीच वैदिक रीति-नीति से संपन्न कराया। चंदन की लकड़ी और घी का इस्तेमाल
कर उनके पार्थिव शरीर को अग्नि के हवाले किया गया।
कोई वामपंथी मित्र बताएंगे कि कॉमरेड का
अंतिम संस्कार क्या धार्मिक विधि से ही संपन्न होता है या फिर कोई और तरीका है ?
राजेंद्र यादव अब हमारे बीच नहीं हैं .....आज उनकी अर्थी जब लोदी रोड
स्थित शमशान घाट पहुंची तो वहाँ पत्रकारों साहित्यकारों और समाजसेवियों
बुद्धिजीवियों और राजनीतिक लोगों की भीड़ लगी थी ...जैसा लोगों को विशवास ही
नहीं हो पा रहा
था कि अब राजेंद्र यादव जी हमारे बीच नहीं हैं ...मैं भी वहाँ पहुंचा ..डाक्टर नामवर सिंह से लेकर जतीन दास जैसे मशहूर चित्रकार वहाँ
मौजूद थे ...मेरी
तरफ से इस धाकड साहित्यकार को एक श्रद्धांजलि ...
राजेन्द्र यादव के खुद के भीतर एक अस्मितावादी संघर्ष था और वह कही बाहर
से नही आया था
अपने समाज के भीतर से ही उपजा था। हंस को अस्मितावादी विमर्श का मंच बनाना उनके भीतरी संघर्ष की ही अभिव्यक्ति थी। लाख मतभेदो के
बावजूद वे गैर न थे।अपने बड़े बूढ़ो के जाने का जो ग़म होता है वह उनके जाने से
हुआ। अलविदा हमारे बेहद जिन्दादिल पुरखे।
'सारा आकाश' (राजेंद्र यादव जी का एक प्रसिद्ध उपन्यास) मैंने पढ़ा तो नहीं
है; लेकिन
इसपर बनी फ़िल्म 'सारा
आकाश' जो
कि बासु चटर्जी द्वारा निर्देशित है मैंने देखा है । .... एक युवा मन की परेशानियों को दिखाता यह
उपन्यास राजेंद्र
जी की एक महत्वपूर्ण रचना है। आज सुबह अचानक यह खबर मिली कि 'राजेंद्र यादव' जी का देहांत हो गया है। एक झटका सा लगा। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे।
सारा आकाश' के अलावा राजेन्द्र जी का कुछ भी मुझे अच्छा नहीं लगता पर
उनके जीवन
से जुड़ी छोटी से छोटी चीजों के प्रति जिज्ञासु रहा हूँ | शायद 'उत्तर राजेन्द्र' का यही हासिल भी है | अपने लेखक को विनम्र श्रद्धांजलि .....
जा
थल कीन्हें बिहार अनेकन, ता थल काँकरी बैठि चुन्यो करैं।
जा
रसना सों करी बहु बातन, ता रसना सों चरित्र गुन्यो करैं।।
'आलम' जौन से कुंजन में करी केलि, तहाँ अब सीस धुन्यो करैं।
नैनन
में जो सदा रहते, तिनकी
अब कान कहानी सुन्यो करैं।।
'' ये
गलियां थीं, जिनसे
हो कर मैं गुज़र गया ......"
ये पंक्तियां थीं तो
धर्मवीर भारती की लेकिन इरफ़ान द्वारा राज्यसभा टीवी के
गुफ़्तगू नामके कार्यक्रम में लिये गये इस इंटरव्यू के
अंत में राजेंद्र
यादव जी इसी पंक्ति को दुहराते हैं ....! और फिर इस पंक्ति के
बाद एक ऐसी व्यंजना और विरक्ति की हंसी, जो देर तक बनी रह जाती है !
आज अभी इसे देखा
....
राजेंद्र
जी का जाना मेरे जैसे लेखक के लिए एक निजी दुखद घटना है ..अब दिल्ली उनके बाद बहुत
दूसरी लग रही है ...
ओह... यह
खबर अंतहीन सन्नाटा छोड़ गई..! राजेन्द्र यादव को पढ़ते हुए ही शायद हम जैसे
पाठकों ने शब्द की दुनियां में आँखें खोली थी, 'हंस' तो जैसे जीवनचर्या
का हिस्सा ही था.. माह की एक या दो तारीख तक, जब तक राजेन्द्र जी का
सम्पादकीय नहीं पढ़ लेती.. चैन ही नहीं पड़ता था, ...'मेरी तेरी उसकी बात' अब
कौन लिखेगा...? राजेन्द्र
जी को पढ़ते हुए लगभग तीस बरस बीत चुके थे, जब उनसे लखनऊ में 'कथाक्रम' के
एक आयोजन में पहली बार मिलने का अवसर मिला... मैं तो एकटक उन्हें देखे जा रही
थी..कि उन्होंने पूछा--'क्या
नाम है' और
जैसे ही मैंने अपना नाम बताया तो तपाक से बोले कि अच्छा-अच्छा तुम्हारा
ही पत्र है इस बार 'हंस' में
? मैंने
कहा -- जी, फिर
मुस्कराते हुए
बोले --'तुम
तो बहुत अच्छा लिखती हो यार'........... राजेन्द्र जी का मुझे
'यार' कहना
उस क्षण मुझे झंकृत कर गया था.. मुझे शर्म भी आ रही थी..., फिर
उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया और अपने पास बिठाया, फिर अपने मोबाइल से मेरी
कई तस्बीरें भी लेते रहे.. मैंने कहा भी कि काले चश्मे से कैसे देखते हैं..
तो बोले थे दिल खोलकर घूर लेता हूँ..! उसके
बाद तो कई बार 'कथाक्रम' की संगोष्ठी में उनसे मिलना उन्हें सुनना एक न
भूलने वाली यादें
हैं, उनकी
ठहाकेदार हंसी और जीवन्तता अद्भुत थी, उनका व्यक्तित्व बेहद सरल और प्रेम से लबरेज था.
उनका सिगार पीना
देखना भी कम रोमांटिक नहीं था, सिगार को लेकर भी मैंने उनसे खूब बातें की थी, उनकी कहानियों, उपन्यासों पर भी कई बार बड़े तीखे सवाल भी किये थे मैंने, पर हर बार वे मुस्कराते हुए लाजवाब कर देते थे...! मैंने उनका 'जहाँ लक्ष्मी कैद है', 'अनदेखे अनजान पुल', 'छोटे-छोटे ताजमहल', 'एक इंच मुस्कान', 'मुड-मुड़ के देखता हूँ', सारा आकाश, 'हासिल', 'प्रेत बोलते हैं', 'एक था शैलेन्द्र','कांटे की बात के कई खण्डों के साथ उन पर आधारित 'देहरि भई विदेश' आदि अनगिन रचनायें पढ़ी हैं...! राजेन्द्र यादव एक व्यक्ति
नहीं, समूचा
संगठन थे, पूरी
लोकतांत्रिकता के साथ उन्होंने जिस हिम्मत व वृहद्
सरोकारों के साथ
समाज की विभीषिकाओं से मुठभेड़ किया वह विरल है..! मैं तो
उन्हें चिर-युवा
कहती थी... हर जन्मदिन पर फोन से बात करती.. और हर बार
उनका जीवंत ठहाका
देर तक गूंजता था..! राजेन्द्र यादव जी का भौतिक अवसान
भले हुआ.. पर वे
सदियों तक अपने शब्दों के साथ हमारे बीच उपस्थित रहेंगे..!
अश्रुपूर्ण अंतिम
प्रणाम..!!
सुबह उठते ही एक ’धक्का’ सा लगा. राजेन्द्र जी नहीं रहे. उनके लेखकीय 'साहस' को हमेशा दिल से सलाम किया ,हजार 'असहमतियों' के बावजूद ........., एक बार मैंने भी उनके कार्यालय (हंस) में चाय पी. लगा था सचमुच में
किसी 'लेखक' से मिल रहा हूँ. सहज ,बेबाक .....आदमी , मेरी भी श्रद्धांजलि ......
अंततः हमने कल्लोल क्रिकेट का फाइनल एकतरफा मुकाबले में उस टीम से
ही जीत लिया जिससे हम पिछली बार फ़ाइनल में हार गए थे | वो चीज जिसके लिए पिछले 15-20 दिनों से हमलोगों की पढ़ाई तेल लेने चली गयी थी | किसी का टर्म पेपर जमा नहीं हुआ है तो किसी को फाइन के साथ एसाइनमेंट जमा करना है | हम इस जीत को श्रद्धांजलि के रूप में राजेंद्र यादव को समर्पित करते हैं |
राजेन्द्र यादव की
मौत पर
आसूऒं से
भरी हुई है नदी
कल भरे मिलेंगे
अखबार भी,न्यूज चैनल वाले
आए थे न्यौता पुराने,शोक धुन बजा कर
चले गए अपने अपने
गांव
शोक की इन लहरों में
इस वक्त बहुत कठिन
है पहचानना
आंसूओं का खारापन, इसलिए खडा हूं जरा
पीछे हट कर, अकेला नहाऊंगा,
सबके जाने के बाद
नेपथ्य में
मुझे सुनाई दे रही
है गालियां
बहिष्कार की धमकियां, माफ़ीनामा
और उनकी जिन्दा दिली
को
सरलीकृत कर
फ़तवा बनाते मजाक
दिखाई दे रहा है
मुझे
उनके ग्रह नक्षत्रो
से भरा सारा आकाश
दिखाई दे रहे है
हंसा के
कटे पंख.
(यह सारे टीप आज
२९ अक्टूबर, २०१३ को मेरी दीवार पर टंगे मिले. आज सुबह जब मैंने फेसबुक पर दस्तक
दी तो रामजी तिवारी सर की लम्बी टीप हंस और राजेन्द्र यादव पर थी. वह रोचक लग रही
थी. मैं पढता गया. वे हमेशा रोचक टीप लगाते हैं, और गंभीर भी.
मैंने सोचा कि यह उन्हीं का एक हिस्सा होगी, कि नीचे एक और
टिप्पणी झलक रही थी, जिसमें राजेन्द्र यादव के निधन की सूचना
थी. पहले तो मैंने सोचा कि यह कोई मजाक है. सुबह-सुबह यह मनहूस खबर मजाक की तरह ही
मानने का मन कर रहा था लेकिन पोस्ट दर पोस्ट यह हकीकत दिन को गहराती गयी. शाम को
तो अंत्येष्टि के चित्र भी दिखाई दिए. यकीन पुख्ता करना पड़ा. सोचा कि इसे ऐसे याद
रखा जाए. यह सब बेतरतीब ही है. इनमें कोई संगति नहीं है. कई ऐसी टिप्पणियों को छोड़ दिया हूँ जो एक लाइन की थीं, फोटोयुक्त श्रद्धांजलि थीं. इसमें कमेन्ट शामिल नहीं हैं.)