अपनी पुस्तक ‘हिन्दी
साहित्य का इतिहास दर्शन’ में दोनों की दृष्टियों के अंतर को
स्पष्ट करते हुए जगदीश्वर चतुर्वेदी लिखते हैं कि शुक्ल जी की इतिहास दृष्टि का
केंद्र हिंदी प्रदेश था जबकि द्विवेदी जी ने पूरे भारत के परिप्रेक्ष्य में
साहित्य का इतिहास लिखने का प्रयत्न किया है।
शुक्ल जी का आलोचकीय विवेक छायावादी साहित्यिक आंदोलन से निर्मित हुआ
था जबकि द्विवेदी जी का प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन से। दोनों के बीच का यह
बुनियादी फर्क ही उनके लेखन की धुरी थी लेकिन आधुनिक आलोचना जगत (जिसमें डॉ
रामविलास शर्मा और डॉ नामवर सिंह प्रमुख है) ने शुक्ल-द्विवेदी स्कूलों की कल्पना
कर दोनों के बीच एक कृत्रिम लड़ाई खड़ी कर दी और बाद में पूरा हिन्दी जगत इसी
फ्रेम में फ्रेम्ड हो गया और दो खेमे बन गए- शुक्ल-खेमा और द्विवेदी खेमा। शुक्ल
को ब्राह्मणवादी और द्विवेदी को ब्राह्मणवाद का विरोधी कहकर खूब प्रचारित किया गया
जबकि इस तरह की ज़मीन पर दोनों ही महात्मा लेखक लेखन नहीं कर रहे थे।
एक लेखक का लेखकीय विवेक किस पृष्ठभूमि में तैयार होता है, बिना उसे समझे लेखक के लेखन और
दृष्टि को कभी भी समझा नहीं जा सकता है। लेखक अपने निर्णयों से ज़्यादा अपनी संवाद
शैली के लिए महत्त्वपूर्ण होता है। वह किन विषयों को छूता है और किन्हें छोड़ता है
वह उसका निजी फैसला नहीं होता अथवा वह किसी गैंगवॉर की दृष्टि से लेखन नहीं करता
बल्कि उसका लेखन उसके समकालीन साहित्यिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों की उपज होता है।
असल में उसका मानस ही ऐसे तैयार होता है।
जो लेखक छायावादीन साहित्यिक आंदोलन से आप्लावित था उसके आदर्श में
लोककल्याण और तुलसीदास थे और जो लेखक प्रगतिशील आंदोलन के आलोक में तैयार हुआ उसके
आदर्श कबीर और नाथपंथ था। द्विवेदी जी अपने युगबोध को रिप्रेजेंट कर रहे थे। हर
लेखक यही करता है। प्रतिरोध की जो हवा उनके युग में चल रही थी उसका मध्यकालीन
वैचारिक संबल कबीर में ही था। इसलिए वे कबीर और उनके युगबोध को इतनी सजीवता से
प्रकट कर सके। जबतक प्रगतिशील आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में द्विवेदी जी का लेखन
कसकर नहीं देखा जाएगा तबतक वे शुक्ल जी तो इस जी या उस जी के विरोध करते तुक्कों
में फिट होते देखते रहेंगे।
द्विवेदी जी ने अपने एक उपन्यास में लिखा है- ‘एकांत का तप बड़ा तप नहीं है।
संसार में कितना कष्ट है, रोग है, शोक
है, दरिद्रता है, कुसंस्कार है,
लोग दुःख से व्याकुल हैं। उनमें जाना चाहिए। उनके दुःख का भागी बनकर
उनका कष्ट दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। यही वास्तविक तप है।’
यह तप और कष्टों को केन्द्र में रखकर लेखन किस मस्तिष्क की उपज हो
सकती है, यह पाठक
तय करें। अगर भारत में विराट प्रगतिशील आंदोलन न हुआ होता तो द्विवेदी जी का ऐसा
स्वर भी न होता। द्विवेदी जी तो खैर, दूर की बात है; छायावाद के सबसे बड़े प्रतिनिधि सुमित्रानंनदन पंत और निराला तक पर
प्रगतिशील आंदोलन का भयंकर प्रभाव पड़ा। इतना कि छायावाद को छोड़ प्रगतिशीलता में
आकंठ डूब गए।
द्विवेदी जी का यह स्वर देखिए जब वे खुद को कोसते हुए कहते हैं- ‘मैं साधारण मनुष्य के रूप में ही
सोच सकता हूँ। किसी को सिखाना इसका उद्देश्य नहीं है। पीछे की ओर देखता हूँ विराट
रिक्तता। जो कुछ करता रहा हूँ वह क्या सचमुच किसी काम का था? अपनी सीमाओं, त्रुटियों, ओछाइयों
को छिपाकर अपने को कुछ इस ढंग से दिखाना कि मैं सचमुच कुछ हूँ, यही तो किया है।
'छोटी-छोटी बातों के लिए संघर्ष को बहादुरी समझा है,
पेट पालने के लिए छीना-झपटी को कर्म माना है, झूठी
प्रशंसा पाने के लिए स्वाँग रचे हैं- इसी को सफलता मान लिया है। किसी बड़े को लक्ष्य
को समर्पित नहीं हो सका, किसी के दुःख दूर करने के लिए अपने
को उलीचकर नहीं दे सका। सारा जीवन केवल दिखावा, केवल भोंडा
अभिनय, केवल हाय-हाय करने में बीत गया।’ यह कितना तीव्र और ब्लंट आत्मसाक्षात्मकार है। इसकी तुलना मुक्तिबोध की
कविता ‘अँधेरे में’ की पंक्ति ‘अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया’ से कर सकते हैं। समाज के लिए जीने और कुछ करने की इतनी तीव्र छटपटाहट और
भूख प्रगतिशील आंदोलन में तैयार मानस की ही हो सकती है।
इसकाल के विवेक के लिए साहित्य अभिव्यक्ति का साधन मात्र नहीं है
बल्कि समाज कल्याण का शस्त्र है। यह काल औसा ही विवेक तैयार करता है जिसे चाँद में
प्रेमिका का चेहरा नहीं बल्कि रोटी का टुकड़ा दिखता है।
द्विवेदी जी इसी कारण प्रगतिशील आलोचक थे उनका साहित्य कर्म समाज को
केंद्र में रखकर चल रहा था। वे अपने युग को दरकिनार करके नहीं चल सकते थे। कोई भी
नहीं चल सका। वे सच्चे मायने में मानवतावादी लेखक थे। उनका मानवतावाद नारा नहीं था, बल्कि वह उनके अंदर गहरे पैठा था।
उनका समूचा लेखन वंचितों की दृष्टि से लिखा तो गया ही है लेकिन साथ ही वह उपेक्षित
एवं विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करके खड़े हुए अनुभवों और व्यक्तियों के पक्ष
में भी रहा है।
यह उनकी पृष्ठभूमि का परिणाम थी जिसकी ओर ऊपर मैंने इशारा किया है।
तो दो अलग-अलग काल के, अलग-अलग
परिस्थितियों के, अलग-अलग विवेक के, अलग-अलग
सरोकारों के लेखकों को एक ज़मीन पर खड़ा करके एक दूसरे के शत्रु के रूप में
चित्रित करना कितना बड़ा पाप है, यह आप खुद तय कीजिए।
द्विवेदी जी के भीतर शुक्ल जी के प्रति अगाध प्रेम और आदर था। एक
विद्वान दूसरे विद्वान का अनादर कर भी नहीं सकता। जब भी कोई चरित्रहनन का प्रयास
होता है तब असल में वह छोटे मन और व्यक्तित्वों द्वारा किए प्रयास होते हैं।
कहते हैं एकबार रवींद्रनाथ ठाकुर ने द्विवेदी जी को अपने कमरे में
बुलाया। शांतिनिकेतन में उसदिन मूसलाधार बारिश हो रही थी। इतनी कि घुटने-घुटने भर
पानी था। कलकत्ते की बारिश तो ऐसे ही मशहूर है। द्विवेदी जी को लेकिन उस अँधेरी
रात में कोई भ्रम नहीं था कि बारिश है, कि पानी है, कि अँधेरा,
कि कैसे जाएँ और न जाएँ। गुरुदेव ने बुलाया है, तो जाना तो है ही। अतः भीगते-भागते वे रवींद्रनाथ के कमरे तक पहुंचे।
देखा, रवींद्रनाथ
आराम कुर्सी पर लेटे खिड़की के परे उस छप्पनों कोट हो रही बारिश को देख रहे थे।
द्विवेदी जी वहीं, एक कोने में चुपचाप खड़े हो गए। कोई आधे
घण्टे बाद रवींद्रनाथ की तंद्रा भंग हुई और उनकी नज़र द्विवेदी जी पर गयी। उन्होंने
बच्चों के से उत्साह से आह्लादित होकर कहा 'देख चो, एतो शुन्दोर बृष्टि।' (देख रहे हो, कितनी अच्छी बारिश हो रही है।)
द्विवेदी जी ने खिड़की के बाहर नज़र घुमाई और एकटक देखते रह गए।
द्विवेदी जी ने उस पल को अपनी आत्मा में क़ैद कर लिया।
यह कथा सुनाने के पीछे मेरी एक मंशा है। वह यह कि कोई साधारण व्यक्ति
होता तो कमरे में घुसते ही कहता कि ‘हाँ सर, आ गया। क्यों बुलाया
आपने ?’
लेकिन द्विवेदी जी ने ऐसा कुछ नहीं कहा। वे वहाँ गए और चुपचाप खड़े
हो गए। क्यों ? क्योंकि
वे एक लेखक थे, एक संवेदनशील व्यक्ति थे। एक लेखक और एक
संवेदनशील व्यक्ति ही दूसरे लेखक की संवेदनाओं को समझ सकता है। और उसपर रवींद्रनाथ
जैसे व्यक्ति को।
द्विवेदी जी देखकर समझ गए होंगे कि रवींद्रनाथ इतनी तल्लीनता से बाहर
देख रहे हैं तो दृश्य को देखकर अपनी किसी काव्यात्मक संवेदना में खोए गए होंगे।
अतः उन्होंने उन्हें टोका नहीं। लेखक को टोकना उसे उसके भावलोक से खींचना होता है।
उसकी तंद्रा में बाधा पहुँचाना होता है। इसे द्विवेदी जी जैसा व्यक्ति ही समझ सकता
है।
लिखने वाला हर आदमी लेखक नहीं होता। लेखक बनाती है उसकी संवेदनशीलता, उसकी सूक्ष्मता और ‘अन्य’ को समझने और सम्मान देने की उसकी दृष्टि और
मनःस्थिति।
मैंने इसलिए ही कहा कि एक विद्वान कभी भी दूसरे विद्वान की उपेक्षा
या अनादर कर ही नहीं सकता। द्विवेदी जी जैसा प्रकांड पंडित तो और नहीं कर सकता था।
उनके लेखन में शुक्ल जी के प्रति यदा-कदा आदर झलकता रहता है।
अज्ञेय ने अपनी डायरी में एक जगह लिखा है कि किसी व्यक्ति को समझना
हो तो उसे किसी की बुराई करते सुनो। दूसरों की बुराई करते समय एक आदमी कैसी भाषा, कैसा टेम्परामेंट, कैसी उदारता या अनुदारता बरतता है, उसी से उसके
चरित्र और स्वभाव का पता चलता है।
लेकिन मैं अज्ञेय से सहमत होते हुए भी इसकी आगे की कड़ी में कहना चाहूँगा
कि अगर किसी व्यक्ति के चरित्र को समझना हो तो उसे किसी की प्रशंसा करते सुनो। आप
देखेंगे कि उस समय व्यक्ति उदार है या काईंयाँ, इसका सबसे ज़्यादा पता चलता है। क्योंकि प्रशंसा भी
उदारता की निशानी है, कृपण व्यक्ति तो प्रशंसा करने में भी
कंजूसी करता है।
तो इस दृष्टि से देखें तो द्विवेदी जी जैसा उदार तो कोई है ही नहीं।
द्विवेदी जी का समूचा आलोचकीय और नैरेटिव लेखन उठाकर देख लीजिए। वे जब-जब किसी की
प्रशंसा करते हैं कलम तोड़ देते हैं। एकदम मुक्त कंठ से,खुले हृदय से , उच्छावासित होकर प्रशंसा करते हैं।
तुलसीदास पर लिखते समय उन्होंने उनकी प्रशंसा में जो-जो लिखा है वह
तो शुक्ल जी ने भी नहीं कहा है। हिन्दी का हर विद्यार्थी, हर आलोचक तुलसीदास पर लिखते समय
द्विवेदी जी को बिना उद्धृत किए पार ही नहीं पा सकता।
उनके तमाम उद्धरणों में से एक यह है- ‘भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके, क्योंकि भारतीय समाज में
नाना-भाँति की परस्पर-विरोधिनी संस्कृतियाँ, साधनाएँ,
जातियाँ, आचारनिष्ठा और विचार-पद्धतियाँ
प्रचलित हैं। बुद्धदेव समन्वयकारी थे, गीता में समन्वयकारी
चेष्टा है और तुलसीदास भी समन्वयकारी थे। वे स्वयं नाना प्रकार के सामाजिक स्तरों
में रह चुके थे। ब्राह्मणवंश में उनका जन्म हुआ था, दरिद्र
होने के कारण उन्हें दर-दर भटकना पड़ा था, गृहस्थ-जीवन की
सबसे निकृष्ट आसक्ति के वे शिकार हो चुके थे, अशिक्षित और
संस्कृतिविहीन जनता में वह रह चुके थे और काशी के दिग्गज पंडितों तथा संन्यासियों
के संसर्ग में उन्हें खूब आना जाना पड़ा था।
'नाना-पुराण-निगमागम का अभ्यास उन्होंने किया था और
लोकप्रिय साहित्य और साधना की नाड़ी उन्होंने पहचानी थी। पंडितों ने सप्रमाण सिद्ध
किया है कि उस युग में प्रचलित ऐसी कोई भी काव्य-पद्धति नहीं थी, जिसपर उन्होंने अपनी छाप न लगा दी हो।’
इसी तरह कबीर की प्रशंसा में उन्होंने जो कहा वह हिन्दी में मील का
पत्थर बन गया। कबीर पर अनपढ़ता और विद्वता के आलोक में हुए आघातों के इस उद्धरण से
परखच्चे उड़ सकते हैं। द्विवेदी जी ने हिन्दी के पाठकों को आलोचना की सभ्य तमीज़
दी। उद्धरण है- ‘हिन्दी
साहित्य के हज़ार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर उत्पन्न नहीं
हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वंद्वी जानता है-तुलसीदास।’
(नामवर सिंह लॉबी ने जिन द्विवेदी जी को प्रो-कबीर
दिखाया है वे कबीर और तुलसी को लेकर क्या सोचते थे देखिए।) ‘भाषा
पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस
रूप में प्रकट करना चाहा है उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया। बन गया तो
सीधे-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर।’ कबीर
के अशास्त्रीय लेखन का दुनिया में इससे बड़ा डिफेंस हो नहीं सकता। असल में
द्विवेदी जी सकारात्मकता के लेखक थे। द्विवेदी जी जिस गद्गद भाव से प्रशंसा करते
थे वह उनके निश्छल हृदय का परिचायक है। ऐसा आदमी किसी के प्रति विद्वेष रखकर लिखता
हो, यह शिष्यमंडली ने कैसे देख लिया, भगवान
जाने।
द्विवेदी जी गरीबी के उस स्तर से आए थे जहाँ कई-कई दिन भूखे रातें
कटती हैं। वे बलिया के भोजपुरी भाषी थे। पूजा करके घर चलता था। उन्होंने ज्योतिष
विद्या की पढ़ाई ही इसलिए की ताकि उन्हें कमाने का ज़रिया मिल सके। उनके गुरु ने
कहा कि संस्कृत सीख लो फिल कभी भूखे नहीं मरोगे। अतः कालीदास के साहित्य को चिखुर
जाओ। (चिखुरना एक भोजपुरी शब्द है जिसका अर्थ गाय या बकरी द्वारा ज़मीन से घास
चरने के तरीके से है।) बस द्विवेदी जी कालीदास को चिखुर गए। उनके संस्कृत ज्ञान के
आधार पर ही कलकत्ते के शांतिनिकेतन में उन्हें बुलाया गया था लेकिन बाद में उन्हें
हिन्दी-विभाग का प्रोफेसर नियुक्त कर दिया गया। रवींद्रनाथ का द्विवेदी जी पर
विशेष स्नेह था।
द्विवेदी जी सही मायने में विराटता के पूजक थे। उन्होंने खंड में
अखंड के होने की बात को मज़बूती से स्वीकारा है। वे मानते थे कि ‘सत्य एक और अखंड है। इसके एक भी
पहलू को सही-सही पकड़ लेने पर बाकी साफ हो जाते हैं।’ द्विवेदी
जी साहित्य या समाज को संपूर्णता में देखने वाले जीव थे, वे
किसी को भी निंदा या रिजेक्शन की नज़र से नहीं देखते थे।
उनका विमर्श विपरीत फल देने पर भी किसी को छोड़ने या उपेक्षा करने के
पक्ष में नहीं था। तभी तो शुक्ल जी द्वारा त्याज्य साहित्य(सिद्ध्-नाथ-जैन
साहित्य) को भी साहित्य के विमर्श में ले आए। द्विवेदी जी का लेखकीय विवेक
संप्रदाय के संकुचित घेरे में रहकर नहीं सोचता था। वह अखिल भारतीय था।
वे जिस सांस्कृतिक-पृष्ठभूमि से आए थे वह किसी दलीय हित के परे
मानवता को केंद्र में रखकर सोचता था इसीलिए वे सबको गले लगाते गए लेकिन तमाम
पूर्वग्रहों और संकीर्णताओं वाले इस मुख्यधारा ने सदैव उनकी उपेक्षा की, तिरस्कार किया।
वे सच में फफ्कड़ थे, शिरीष के फूल थे, अशोक के फूल,
कुटज थे। विपरीत परिस्थितियों में, बेतरह
गरीबी में रहकर, पलकर अपनी योग्यता के बल पर न सिर्फ खुद को
बल्कि अपने सारे विद्यार्थियों को स्थापित किया। हिन्दी में शायद ही कोई ऐसा
विश्वविद्यालय हो जहाँ द्विवेदी जी की षिष्य परंपरा का कोई एक प्रतिनिधि न हो।
द्विवेदी जी ने अपने लेखन में घृणा और रिजेक्शन्स को कभी स्थान नहीं दिया।
उन्होंने ही लेखन को संवाद शैली से जोड़ा वर्ना आलोचना एक सूत्रयुक्त गूढ़ लेखन
था। द्विवेदी जी के बाद आलोचना में उपन्यास का सा मज़ा प्रविष्ट हो गया।
आचार्य द्विवेदी की सकारात्मक आलोचना दृष्टि को उनकी पुण्यतिथि पर
स्मरण करते हुए उनके प्रति आदर और कृतज्ञता से भरकर मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ।