शनिवार, 26 सितंबर 2020

कथावार्ता : रसप्रिया: फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी

धूल में पड़े क़ीमती पत्थर को देखकर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई-अपरूप-रूप!

चरवाहा मोहना छौंड़ा को देखते ही पंचकौड़ी मिरदंगिया के मुंह से निकल पड़ा अपरूप-रूप!... खेतों, मैदानों, बाग़-बगीचों और गाय-बैलों के बीच चरवाहा मोहना की सुंदरता!

मिरदंगिया की क्षीण-ज्योति आंखें सजल हो गईं।

मोहना ने मुस्कराकर पूछा,‘तुम्हारी उंगली तो रसपिरिया बजाते टेढ़ी हुई है, है न?’

ऐं!बूढ़े मिरदंगिया ने चौंकते हुए कहा, रसपिरिया?... हाँनहीं। तुमने कैसे तुमने कहाँ सुना बे।।।?’

बेटाकहते-कहते वह रुक गया... परमानपुर में उस बार एक ब्राह्मण के लड़के को उसने प्यार से बेटाकह दिया था। सारे गांव के लड़कों ने उसे घेरकर मारपीट की तैयारी की थी-बहरदार होकर ब्राह्मण के बच्चे को बेटा कहेगा? मारो साले बुड्ढे को घेरकर! मृदंग फोड़ दो।

          मिरदंगिया ने हँसकर कहा था-अच्छा, इस बार माफ़ कर दो सरकार! अब से आप लोगों को बाप ही कहूंगा। बच्चे ख़ुश हो गए थे। एक दो-ढाई साल के नंगे बालक की ठुड्डी पकड़कर वह बोला था,‘क्यों, ठीक है न बापजी?’

          बच्चे ठठाकर हँस पड़े थे।

          लेकिन, इस घटना के बाद फिर कभी उसने किसी बच्चे को बेटा कहने की हिम्मत नहीं की थी। मोहना को देखकर बार-बार बेटा कहने की इच्छा होती है।

          रसपिरिया की बात किसने बताई तुमसे ? ... बोलो बेटा!

          दस-बारह साल का मोहना भी जानता है, पंचकौड़ी अधपगला है... कौन इससे पार पाए! उसने दूर मैदान में चरते हुए अपने बैलों की ओर देखा।


          मिरदंगिया कमलपुर के बाबू लोगों के यहाँ जा रहा था। कमलपुर के नन्दू बाबू के घराने में अब भी मिरदंगिया को चार मीठी बातें सुनने का मिल जाती हैं। एक-दो जून भोजन तो बंधा हुआ है ही; कभी-कभी रस-चरचा भी यहीं आकर सुनता है वह। दो साल के बाद वह इस इलाक़े में आया है। दुनिया बहुत जल्दी-जल्दी बदल रही है। ... आज सुबह शोभा मिसर के छोटे लड़के ने तो साफ़-साफ़ कह दिया,‘तुम जी रहे हो या थेथरई कर रहे हो मिरदंगिया?’

          हाँ, यह जीना भी कोई जीना है? निर्लज्जता है; और थेथरई की भी सीमा होती है... पन्द्रह साल से वह गले में मृदंग लटकाकर गांव-गांव घूमता है, भीख माँगता है। दाहिने हाथ की टेढ़ी उंगली मृदंग पर बैठती ही नहीं है, मृदंग क्या बजाएगा! अब तो, ‘धा तिंग धा तिंगभी बड़ी मुश्क़िल से बजाता है।

          अतिरिक्त गांजा-भांग सेवन से गले की आवाज़ विकृत हो गई है। किन्तु मृदंग बजाते समय विद्यापति की पदावली गाने की वह चेष्टा अवश्य करेगा। फूटी भाथी से जैसी आवाज़ निकलती है, वैसी ही आवाज़सों-य सों-य!

          पन्द्रह-बीस साल पहले तक विद्यापति नाम की थोड़ी पूछ हो जाती थी। शादी-ब्याह, यज्ञ-उपनैन, मुण्डन-छेदन आदि शुभ कार्यों में विदपतिया मण्डली की बुलाहट होती थी। पंचकौड़ी मिरदंगिया की मण्डली ने सहरसा और पूर्णिया ज़िले में काफ़ी यश कमाया है। पंचकौड़ी मिरदंगिया को कौन नहीं जानता! सभी जानते हैं, वह अधपगला है!... गांव के बड़े-बूढ़े कहते हैं,‘अरे, पंचकौड़ी मिरदंगिया का भी एक ज़माना था!

          इस ज़माने में मोहना जैसा लड़का भी है-सुंदर, सलोना और सुरीला! रसप्रिया गाने का आग्रह करता है,‘एक रसपिरिया गाओ न मिरदंगिया!

          रसपिरिया सुनोगे? अच्छा सुनाऊंगा। पहले बताओ, किसने...

          हे-ए-ए हे-ए... मोहना, बैल भागे... !एक चरवाहा चिल्लाया, रे मोहना, पीठ की चमड़ी उधेड़ेगा करमू!

          अरे बाप! मोहना भागा। कल ही करमू ने उसे बुरी तरह पीटा है। दोनों बैलों को हरे-हरे पाट के पौधों की महक खींच ले जाती है बार-बार... खटमिट्ठा पाट!

          पंचकौड़ी ने पुकारकर कहा,‘मैं यहीं पेड़ की छाया में बैठता हूं। तुम बैल हाँककर लौटो। रसपिरिया नहीं सुनोगे?’

          मोहना जा रहा था। उसने पलटकर देखा भी नहीं।

         

          रसप्रिया!

          विदापत नाच वाले रसप्रिया गाते थे। सहरसा के जोगेन्दर झा ने एक बार विद्यापति के बारह पदों की एक पुस्तिका छपाई थी। मेले में ख़ूब बिक्री हुई थी रसप्रिया पोथी की। विदापत नाच वालों ने गा-गाकर जनप्रिया बना दिया था रसप्रिया को।

          खेत के आलपर झरजामुन की छाया में पंचकौड़ी मिरदंगिया बैठा हुआ है; मोहना की राह देख रहा है। ... जेठ की चढ़ती दोपहरी में खेतों में काम करने वाले भी अब गीत नहीं गाते हैं। ... कुछ दिनों के बाद कोयल भी कूकना भूल जाएगी क्या? ऐसी दोपहरी में चुपचाप कैसे काम किया जाता है! पांच साल पहले तक लोगों के दिल में हुलारस बाकी था। ... पहली वर्षा में भीगी हुई धरती के हरे-भरे पौधों से एक ख़ास किस्म की गन्ध निकलती है। तपती दोपहरी में मोम की तरह गल उठती थी-रस की डाली। वे गाने लगते थे बिरहा, चांचर, लगनी। खेतों में काम करते हुए गाने वाले गीत भी समय-असमय का ख़याल करके गाए जाते हैं। रिमझिम वर्षा में बारहमासा, चिलचिलाती धूप में बिरहा, चांचर और लगनी:

 

          हाँ...  रे, हल जोते हलवाहा भैया रे...

          खुरपी रे चलावे... म-ज-दू-र!

          एहि पंथे, धानी मोरा हे रूसलि।...

 

          खेतों में काम करते हलवाहों और मज़दूरों से कोई बिरही पूछ रहा है, कातर स्वर में-उसकी रूठी हुई धनी को इस राह से जाते देखा है किसी ने?

          अब तो दोपहरी नीरस ही कटती है, मानो किसी के पास एक शब्द भी नहीं रह गया है। आसमान में चक्कर काटते हुए चील ने टिंहकारी भरी-टिं... ई... टिं-हि-क!

          मिरदंगिया ने गाली दी-शैतान!

          उसको छेड़कर मोहना दूर भाग गया है। वह आतुर होकर प्रतीक्षा कर रहा है। जी करता है, दौड़कर उसके पास चला जाए। दूर चरते हुए मवेशियों के झुंडों की ओर बार-बार वह बेकार देखने की चेष्टा करता है। सब धुंधला!

          उसने अपनी झोली टटोलकर देखा-आम हैं, मूढ़ी है। उसे भूख लगी।

          मोहना के सूखे मुंह की याद आई और भूख मिट गई।

          मोहना जैसे सुंदर, सुशील लड़कों की खोज में ही उसकी ज़िंदगी के अधिकांश दिन बीते हैं। बिदापत नाच में नाचने वाले नटुआका अनुसन्धान खेल नहीं। सवर्णों के घर में नहीं, छोटी जाति के लोगों के यहाँ मोहना जैसे लड़की-मुंहा लड़के हमेशा पैदा नहीं होते। ये अवतार लेते हैं समय-समय पर जदा जदा हि

          मैथिल ब्राह्मण, कायस्थों और राजपूतों के यहाँ विदापत वालों की बड़ी इज़्ज़त होती थी। अपनी बोली मिथिलाम में नटुआ के मुंह से जनम अवधि हम रूप निहारलसुनकर वे निहाल हो जाते थे। इसलिए हर मण्डली का मूलगैन नटुआ की खोज में गांव-गांव भटकता फिरता था-ऐसा लड़का, जिसे सजा-धजाकर नाच में उतारते ही दर्शकों में एक फुसफुसाहट फैल जाए।

          ठीक ब्राह्मणी की तरह लगता है। है न?’

          मधुकान्त ठाकुर की बेटी की तरह।

          न:! छोटी चम्पा जैसी सूरत है!

          पंचकौड़ी गुनी आदमी है। दूसरी-दूसरी मण्डली में मूलगैन और मिरदंगिया की अपनी-अपनी जगह होती। पंचकौड़ी मूलगैन भी था और मिरदंगिया भी। गले में मृदंग लटकाकर बजाते हुए वह गाता था, नाचता था। एक सप्ताह में ही नया लड़का भांवरी देकर परवेश में उतरने योग्य नाच सीख लेता था।

          नाच और गाना सिखाने में कभी उसे कठिनाई नहीं हुई; मृदंग के स्पष्ट बोलपर लड़कों के पांव स्वयं ही थिरकने लगते थे। लड़कों के ज़िद्दी माँ-बाप से निबटना मुश्किल व्यापार होता था। विशुद्ध मैथिल में और भी शहद लपेटकर वह फुसलाता।

          किसन कन्हैया भी नाचते थे। नाच तो एक गुण हैअरे, जाचक कहो या दसदुआरी। चोरी, डकैती और आवारागर्दी से अच्छा है अपना-अपना गुनदिखाकर लोगों को रिझाकर गुजारा करना।

          एक बार उसे लड़के की चोरी भी करनी पड़ी थी। बहुत पुरानी बात है। इतनी मार लगी थी कि बहुत पुरानी बात है।

          पुरानी ही सही, बात तो ठीक है।

          रसपिरीया बजाते समय तुम्हारी उंगली टेढ़ी हुई थी। ठीक है न?’ मोहना न जाने कब लौट आया।

          मिरदंगिया के चेहरे पर चमक लौट आई। वह मोहना की ओर एक टकटकी लगाकर देखने लगा। यह गुणवान मर रहा है। धीरे-धीरे, तिल-तिलकर वह खो रहा है। लाल-लाल ओठों पर बीड़ी की कालिख लग गई है। पेट में तिल्ली है ज़रूर!

          मिरदंगिया वैद्य भी है। एक झुंड बच्चों का बाप धीरे-धीरे एक पारिवारिक डॉक्टर की योग्यता हासिल कर लेता है। उत्सवों के बासी-टटका भोज्यान्नों की प्रतिक्रिया कभी-कभी बहुत बुरी होती। मिरदंगिया अपने साथ नमक-सुलेमानी, चानमार-पाचन और कुनैन की गोली हमेशा रखता था। लड़कों को सदा गरम पानी के साथ हल्दी की बुकनी खिलाता। पीपल, काली मिर्च, अदरक वगैरह को घी में भूनकर शहद के साथ सुबह-शाम चटाता। 

          ...  गरम पानी!

          पोटली से मूढ़ी और आम निकालते हुए मिरदंगिया बोला,‘हाँ, गरम पानी! तेरी तिल्ली बढ़ गई है। गरम पानी पिओ!

          यह तुमने कैसे जान लिया? फारबिसगंज के डाकडर बाबू भी कह रहे थे तिल्ली बढ़ गई है। दवा...

          आगे कहने की ज़रूरत नहीं। मिरदंगिया जानता है, मोहना जैसे लड़कों के पेट की तिल्ली चिता पर ही गलती है! क्या होगा पूछकर, कि दवा क्यों नहीं करवाते!

          माँ भी कहती है, हल्दी की बुकनी के साथ रोज़ गरम पानी। तिल्ली गल जाएगी।

          मिरदंगिया ने मुस्कराकर कहा,‘बड़ी सयानी है तुम्हारी माँ!केले के सूखे पत्तल पर मूढ़ी और आम रखकर उसने बड़े प्यार से कहा,‘आओ, एक मुट्ठी खा लो।

          नहीं, मुझे भूख नहीं।

          किन्तु मोहना की आँखों से रह-रहकर कोई झांकता था, मूढ़ी और आम को एक साथ निगल जाना चाहता थाभूखा, बीमार भगवान्। आओ, खा लो बेटा! ... रसपिरिया नहीं सुनोगे?’

          माँ के सिवा, आज तक किसी अन्य व्यक्ति ने मोहना को इस तरह प्यार से कभी परोसे भोजन पर नहीं बुलाया।...  लेकिन, दूसरे चरवाहे देख लें तो माँ से कह देंगे। ... भीख का अन्न!

          नहीं, मुझे भूख नहीं।

          मिरदंगिया अप्रतिभ हो जाता है। उसकी आंखें फिर सजल हो जाती है। मिरदंगिया ने मोहना जैसे दर्जनों सुकुमार बालकों की सेवा की है। अपने बच्चों को भी शायद वह इतना प्यार नहीं दे सकता। ... और अपना बच्चा! हूं! ...  अपना-पराया? अब तो सब अपने, सब पराए...

          मोहन!

          कोई देख लेगा तो?’

          तो क्या होगा?’

          माँ से कह देगा। तुम भीख माँगते हो न?’

          कौन भीख माँगता है?’ मिरदंगिया के आत्म-सम्मान को इस भोले लड़के ने बेवजह ठेस लगा दी। उसके मन की झांपी में कुण्डलीकार सोया हुआ सांप फन फैलाकर फुफकार उठा,‘ए-स्साला! मारेंगे वह तमाचा कि...’ 

          ऐ! गाली क्यों देते हो!मोहना ने डरते-डरते प्रतिवाद किया।

          वह उठ खड़ा हुआ, पागलों का क्या विश्वास?

          आसमान में उड़ती हुई चील ने फिर टिंहकारी भरी-टिं-हीं... ई...  टिं टिं-ग!

          मोहना! मिरदंगिया की आवाज़ गम्भीर हो गई।

          मोहना ज़रा दूर जाकर खड़ा हो गया।

          किसने कहा तुमसे कि मैं भीख माँगता हूं? मिरदंग बजाकर पदावली गाकर, लोगों को रिझाकर पेट पालता हूं...  तुम ठीक कहते हो, भीख का ही अन्न है यह। भीख का ही फल है यह।...  मैं नहीं दूंगा। ...  तुम बैठो, मैं रसपिरिया सुना दूं।

          मिरदंगिया का चेहरा धीरे-धीरे विकृत हो रहा है। ... आसमान में उड़ने वाली चील अब पेड़ की डाली पर आ बैठी है! टिं-टिं-हिं टिंटिक!

          मोहना डर गया। एक डग, दो डग।...  दे दौड़। वह भागा।

          एक बीघा दूर जाकर उसने चिल्लाकर कहा,‘डायन ने बान मारकर तुम्हारी उंगली टेढ़ी कर दी है। झूठ क्यों कहते हो कि रसपिरिया बजाते समय।।।

          ऐ! कौन है यह लड़का? कौन है यह मोहना?... रमपतिया भी कहती थी, डायन ने बान मार दिया है!

          मोहना!

          मोहना ने जाते-जाते चिल्लाकर कहा, करैला!’ 

          अच्छा, तो मोहना यह भी जानता है कि मिरदंगिया करैला कहने से चिढ़ता है! कौन है यह मोहना?

          मिरदंगिया आतंकित हो गया। उसके मन में एक अज्ञात भय समा गया। वह थर-थर कांपने लगा। कमलपुर के बाबुओं के यहाँ जाने का उत्साह भी नहीं रहा। सुबह शोभा मिसर के लड़के ने ठीक ही कहा था। उसकी आँखों से आंसू झरने लगे।

 

 

          जाते-जाते मोहना डंक मार गया। उसके अधिकांश शिष्यों ने ऐसा ही व्यवहार किया है उसके साथ। नाच सीखकर फुर्र से उड़ जाने का बहाना खोजने वाले एक-एक लड़के की बातें उसे याद है।

          सोनमा ने तो गाली ही दी थी,‘गुरुगिरी करता है, चोट्टा!

          रसपतिया आकाश की ओर हाथ उठाकर बोली थी,‘हे दिनकर! साच्छी रहना। मिरदंगिया ने फुसलाकर मेरा सर्वनाश किया है। मेरे मन में कभी चोर नहीं था। हे सुरुज भगवान् इस दसदुआरी कुत्ते का अंग-अंग फूटकर...मिरदंगिया ने अपनी टेढ़ी उंगली को हिलाते हुए एक लम्बी सांस ली।

          रमपतिया? जोधन गुरुजी की बेटी रमपतिया! जिस दिन वह पहले-पहल जोधन की मण्डली में शामिल हुआ था- रमपतिया बारहवें में पांव रख रही थी। बाल-विधवा रमपतिया पदों का अर्थ समझने लगी थी। काम करते-करते वह गुनगुनाती- नवअनुरागिनी राधा, किछु नंहि मानय बाधा...  मिरदंगिया मूलगैनी सीखने गया था और गुरुजी ने उसे मृदंग धरा दिया थाआठ वर्ष तक तालीम पाने के बाद जब गुरुजी ने स्वजात पंचकौड़ी से रमपतिया के चुमौना की बात चलाई तो मिरदंगिया सभी ताल-मात्रा भूल गया। जोधन गुरुजी से उसने अपनी जात छिपा रखी थी। रमपतिया से उसने झूठा परेम किया था।

          गुरुजी की मण्डली छोड़कर वह रातों-रात भाग गया। उसने गांव आकर अपनी मण्डली बनाई, लड़कों को सिखाया-पढ़ाया और कमाने-खाने लगा। लेकिन, वह मूलगैन नहीं हो सका कभी। मिरदंगिया ही रहा सब दिन। जोधन गुरुजी की मृत्यु के बाद, एक बार गुलाब-बाग मेले में रमपतिया से उसकी भेंट हुई थी।

          रमपतिया उसी से मिलने आई थी। पंचकौड़ी ने साफ़ जवाब दे दिया था,‘क्या झूठ-फरेब जोड़ने आई है? कमलपुर के नन्दूबाबू के पास क्यों नहीं जाती, मुझे उल्लू बनाने आई है। नन्दूबाबू का घोड़ा बारह बजे रात को…’

 

 

          चीख उठी थी रमपतिया,‘पांचू!।।। चुप रहो!

          उसी रात रसपिरिया बजाते समय उसकी उंगली टेढ़ी हो गई थी। मृदंग पर जमनिका देकर वह परबेस का ताल बजाने लगा। नटुआ ने डेढ़ मात्रा बेताल होकर प्रवेश किया तो उसका माथा ठनका। परबेस के बाद उसने नटुआ को झिड़की दी,‘एस्साला! थप्पड़ों से गाल लाल कर दूंगा।... और रसपिरिया की पहली कड़ी ही टूट गई। मिरदंगिया ने ताल को सम्हालने की बहुत चेष्टा की।

          मृदंग की सूखी चमड़ी जी उठी, दहिने पूरे पर लावा-फरही फूटने लगे और ताल कटते-कटते उसकी उंगली टेढ़ी हो गई। झूठी टेढ़ी उंगली! ...  हमेशा के लिए पंचकौड़ी की मण्डली टूट गई। धीरे-धीरे इलाके से विद्यापति नाच ही उठ गया। अब तो कोई विद्यापति की चर्चा भी नहीं करते हैं। ... धूप-पानी से परे, पंचकौड़ी का शरीर ठण्डी महफ़िलों में ही पनपा था। ... बेकार ज़िंदगी में मृदंग ने बड़ा काम दिया। बेकारी का एकमात्र सहारा-मृदंग!

          एक युग से वह गले में मृदंग लटकाकर भीख माँग रहा है- धा तिंग, धा तिंग!

          वह एक आम उठाकर चूसने लगा-लेकिन, लेकिन, ... लेकिन...  मोहना को डायन की बात कैसे मालूम हुई?

          उंगली टेढ़ी होने की ख़बर सुनकर रमपतिया दौड़ी आई थी, घण्टों उंगली को पकड़कर रोती रही थी- हे दिनकर, किसने इतनी बड़ी दुश्मनी की? उसका बुरा हो। ...  मेरी बात लौटा दो भगवान्! ग़ुस्से में कही हुई बातें। नहीं, नहीं। पांचू मैंने कुछ भी नहीं किया है। ज़रूर किसी डायन ने बान मार दिया है।

          मिरदंगिया ने आंखें पोंछते हुए ढलते हुए सूरज की ओर देखा...  इस मृदंग को कलेजे से सटाकर रमपतिया ने कितनी रातें काटी हैं! मिरदंग को उसने छाती से लगा लिया।

          पेड़ की डाली पर बैठी हुई चील ने उड़ते हुए जोड़े से कुछ कहा-टिं-टिं-हिंक्!

          एस्साला!उसने चील को गाली दी। तम्बाकू चुनियाकर मुंह में डाल ली और मृदंग के पूरे पर उंगलियां नचाने लगा- धिरिनागि, धिरिनागि, धिरिनागि-धिनता!

          पूरी जमनिका वह नहीं बजा सका। बीच में ही ताल टूट गया।

          अ्-कि-हे-ए-ए-ए-हा-आआ-ह-हा!

          सामने झरबेरी के जंगल के उस पार किसी ने सुरीली आवाज़ में, बड़े समारोह के साथ रसप्रिया की पदावली उठाई,‘न-व-वृन्दा-वन, न-व-न-व-तरु ग-न, न-व-नव विकसित फूल...

          मिरदंगिया के सारे शरीर में एक लहर दौड़ गई। उसकी उंगलियां स्वयं की मृदंग के पूरे पर थिरकने लगीं। गाय-बैलों के झुण्ड दोपहर की उतरती छाया में आकर जमा होने लगे।

          खेतों में काम करने वालों ने कहा,‘पागल है। जहाँ जी चाहा, बैठकर बजाने लगता है।

          बहुत दिन के बाद लौटा है।

          हम तो समझते थे कि कहीं मर-खप गया।

          रसप्रिया की सुरीली रागिनी ताल पर आकर कट गई। मिरदंगिया का पागलपन अचानक बढ़ गया। वह उठकर दौड़ा। झरबेरी की झाड़ी के उस पार कौन है? कौन है यह शुद्ध रसप्रिया गाने वाला? ... इस ज़माने में रसप्रिया का रसिक? झाड़ी में छिपकर मिरदंगिया ने देखा, मोहना तन्मय होकर दूसरे पद की तैयारी कर रहा है। गुनगुनाहट बन्द करके उसके गले को साफ़ किया।

          मोहना के गले में राधा आकर बैठ गई है! क्या बन्दिश है!

          न-दी-बह नयनक नी...र!

          आहो...पललि बहए ताहि ती....र!

          मोहना बेसुध होकर गा रहा था। मृदंग के बोल पर वह झूम-झूम-कर गा रहा था। मिरदंगिया की आंखें उसे एकटक निहार रही थीं और उसकी उंगलियां फिरकी की तरह नाचने को व्याकुल हो रही थी। चालीस वर्ष का अधपागल युगों के बाद भावावेश में नाचने लगा। रह-रहकर वह अपनी विकृत आवाज़ में पदों की कड़ी धरता,‘फोंय-फोंय, सोंय-सोंय!

          धिरिनागि धिनता!

          दुहु रस...म...य तनु गुने नहीं ओर।

          लागल दुहुक न भांगय जो-र!

          मोहना के आधे काले और आधे लाल ओंठों पर नई मुस्कराहट दौड़ गई। पर समाप्त करते हुए वह बोल़ा,‘इस्स! टेढ़ी उंगली पर भी इतनी तेजी?’

          मोहना हाँफने लगा। उसकी छाती की हड्डियां!

 

 

          उफ़!मिरदंगिया धम्म से ज़मीन पर बैठक गया। कमाल! कमाल! किससे सीखे? कहाँ सीखी तुमने पदावली? कौन है तुम्हारा गुरु?’

          मोहना ने हँसकर जवाब दिया,‘सीखूंगा कहाँ? माँ तो रोज़ गाती है। ... प्रातकी मुझे बहुत याद है, लेकिन अभी तो उसका समय नहीं।

          हाँ बेटा! बेताले के साथ कभी मत गाना-बजाना। जो कुछ भी है, सब चला जाएगा... समय-कुसमय का भी ख़याल रखना। लो, अब आम खा लो।

          मोहना बेझिझक आम लेकर चूसने लगा।

          एक और लो।

          मोहना ने तीन आम खाए और मिरदंगिया के विशेष आग्रह पर दो मुट्ठी मूढ़ी भी फांक गया।

          अच्छा, अब एक बात बताओगे मोहना, तुम्हारे माँ-बाप क्या करते हैं?’

          बाप नहीं है, अकेली माँ है। बाबू लोगों के घर कुटाई-पिसाई करती है।

          और तुम नौकरी करते हो? किसके यहाँ?’

          कमलपुर के नन्दू बाबू के यहाँ।

          नन्दू बाबू के यहाँ?’

          मोहना ने बताया, उसका घर सहरस में है। तीसरे साल सारा गांव कोसी मैया के पेट में चला गया। उसकी माँ उसे लेकर अपने ममहर आई है- कमलपुर।

          कमलपुर में तुम्हारी माँ के मामू रहते हैं?’

          मिरदंगिया कुछ देर तक चुपचाप सूर्य की ओर देखता रहा... नन्दू बाबू. मोहना...  मोहना की माँ!

डायन वाली बात तुम्हारी माँ कह रही थी?’

          हाँ। और एक बार सामदेव झा के यहाँ जनेऊ में तुमने गिरधरपट्टी मण्डली वालों का मिरदंग छीन लिया था। ... बेताला बजा रहा था। ठीक है न?’

          मिरदंगिया की खिचड़ी दाढ़ी मानो अचानक सफ़ेद हो गई। उसने अपने को सम्हालकर पूछा,- तुम्हारे बाप का क्या नाम है?’

          अजोधादास!

          अजोधादास?’

          बूढ़ा अजोधादास, जिसके मुंह में न बोल, न आँख में लोर।... मण्डली में गठरी होता था। बिना पैसे का नौकर बेचारा अजोधादास?

          बड़ी सयानी है तुम्हारी माँ।एक लम्बी सांस लेकर मिदंगिया ने अपनी झोली से एक छोटा बटुआ निकाला। लाल-पीले कपड़ों के टुकड़ों को खोलकर कागज़ की एक पुड़िया निकाली उसने।

 

 

 

          मोहन ने पहचान लिया,‘लोट? क्या है, लोट?’

          हाँ, नोट है।

          कितने रुपये वाला है? पंचटकिया। ऐं।... दसटकिया? ज़रा छूने दोगे? कहाँ से लाए?’ मोहना एक सांस में सब-कुछ पूछ गया,‘सब दसटकिया हैं?’

          हाँ, सब मिलाकर चालीस रुपए हैं।मिरदंगिया ने एक बार इधर-उधर निगाहें दौड़ाईं; फिर फुसफुसाकर बोला,‘मोहना बेटा! फारबिसगंज के डागडर बाबू को देकर बढ़िया दवा लिखा लेना। खट्टा-मिट्ठा परहेज़ करना। गरम पानी ज़रूर पीना।

          रुपये मुझे क्यों देते हो?’

          जल्दी रख ले, कोई देख लेगा।

          मोहना ने भी एक बार चारों ओर नज़र दौड़ाई। उसके ओंठों की कालिख और गहरी हो गई।

          मिरदंगिया बोला,‘बीड़ी-तम्बाकू भी पीते हो? खबरदार!

          वह उठ खड़ा हुआ।

          मोहना ने रुपए ले लिए।

          अच्छी तरह गांठ में बांध ले। माँ से कुछ मत कहना।

          और हाँ, यह भीख का पैसा नहीं। बेटा यह मेरी कमाई के पैसे हैं। अपनी कमाई के...

मिरदंगिया ने जाने के लिए पांव बढ़ाया। 

          मेरी माँ खेत में घास काट रही हैं, चलो न!मोहना ने आग्रह किया।

          मिरदंगिया रुक गया। कुछ सोचकर बोला,‘नहीं मोहना! तुम्हारे जैसा गुणवान बेटा पाकर तुम्हारी माँ महारानीहैं, मैं महाभिखारी दसदुआरी हूं। जाचक, फकीर...  दवा से जो पैसे बचें, उसका दूध पीना।

          मोहना की बड़ी-बड़ी आंखें कमलपुर के नन्दू बाबू की आँखों जैसी हैं।

          रे मो-ह-ना-रे-हे! बैल कहाँ हैं रे?’

          तुम्हारी माँ पुकार रही है शायद।

          हाँ। तुमने कैसे जान लिया?’

          रे-मोहना-रे-हे!

          एक गाय ने सुर-में-सुर मिलाकर अपने बछड़े को बुलाया।

          गाय-बैलों के घर लौटने का समय हो गया। मोहना जानता है, माँ बैल हाँककर ला रही होगी। झूठ-मूठ उसे बुला रही है। वह चुप रहा।

          जाओ।मिरदंगिया ने कहा,‘माँ बुला रही हैं जाओ। ।।।अब से मैं पदावली नहीं, रसपिरिया नहीं, निरगुन गाऊंगा। देखो, मेरी उंगली शायद सीधी हो रही है। शुद्ध रसपिरिया कौन गा सकता है आजकल?’

          अरे, चलू मन, चलू मन-ससुरार जइवे हो रामा,

          कि आहो रामा,

          नैहरा में अगिया लगायब रे-की।।।।

          खेतों की पगडंडी, झरबेरी के जंगल के बीच होकर जाती है। निरगुन गाता हुआ मिरदंगिया झरबेरी की झाड़ियों में छिप गया।

          ले। यहाँ अकेला खड़ा होकर क्या करता है? कौन बजा रहा था मृदंग रे?’ घास का बोझा सिर पर लेकर मोहना की माँ खड़ी है।

          पंचकौड़ी मिरदंगिया।

          ऐं, वह आया है? आया है वह?’ उसकी माँ ने बोझ जमीन पर पटकते हुए पूछा।

          मैंने उसके ताल पर रसपिरिया गाया है। कहता था, इतना शुद्ध रसपिरिया कौन गा सकता है आजकल! ... उसकी उंगली अब ठीक हो जाएगी।

          माँ ने बीमार मोहना को आह्लाद से अपनी छाती से सटा लिया।

          लेकिन तू तो हमेशा उसकी टोकरी-भर शिकायत करती थी; बेईमान है, गुरु-द्रोही है झूठा है।

          -‘है तो! वैसे लोगों की संगत ठीक नहीं। ख़बरदार, जो उसके साथ फिर कभी गया। दसदुआरी जाचकों से हेलमेल करके अपना ही नुकसान होता है।

          चल, उठा बोझ।

          मोहना ने बोझ उठाते समय कहा,‘जो भी हो, गुनी आदमी के साथ रसपिरिया।।।

          चोप! रसपिरिया का नाम मत ले।

          अजीब है माँ। जब गुस्सायेगी तो बाघिन की तरह और जब खुश होती है तो गाय की तरह हुंकारती आएगी और छाती से लगा लेगी। तुरंत खुश, तुरंत नाराज...

          दूर से मृदंग की आवाज़ आई-धा तिंग, धा तिंग।

          मोहना की माँ खेत की ऊबड़-खाबड़ मेड़ पर चल रही थी। ठोकर खाकर गिरते-गिरते बची। घास का बोझ गिरकर खुल गया। मोहना पीछे-पीछे मुंह लटकाकर जा रहा था। बोला,‘क्या हुआ, माँ?’

          कुछ नहीं।

          धा तिंग, धा तिंग!

          मोहना की माँ खेत की मेड़ पर बैठ गई। जेठ की शाम से पहले जो पुरवैया चलती है, धीरे-धीरे तेज़ हो गई। ... मिट्टी की सोंधी सुगंध हवा में धीर-धीरे घुलने लगी।

          धा तिंग, धा तिंग!

         

          मिरदंगिया और कुछ बोलता था, बेटा?’ मोहना की माँ आगे कुछ न बोल सकी।

          कहता था, तुम्हारे-जैसा गुणवान बेटा पाकर तुम्हारी माँ महारानी है, मैं तो दसदुआरी हूँ...

          झूठा, बेईमान!मोहना की माँ आंसू पोंछकर बोली। ऐसे लोगों की संगत कभी मत करना।

          मोहना चुपचाप खड़ा रहा।

 



धर्मवीर भारती द्वारा संपादित पत्रिका- निकष में प्रकाशित (1955)। 

ठुमरी में संकलित।


बुधवार, 23 सितंबर 2020

कथावार्ता : शेखर जोशी की कहानी- गलता लोहा

 

कथा-वार्ता की नवीनतम प्रस्तुति- शेखर जोशी की कहानी- गलता लोहा।

गलता लोहा- शेखर जोशी की कहानी




 

                शेखर जोशी (जन्म- १९३२ ई०, अल्मोड़ा) नयी कहानी के प्रमुख लेखक हैं। उनकी कहानियों के संग्रह हैं- कोसी का घटवार’, ‘साथ के लोग’,  हलवाहा’, ‘नौरंगी बीमार है,’ ‘मेरा पहाड़’, ‘डागरी वाले’, ‘दस बच्चे का सपना’, ‘आदमी का डर’, ‘शब्दचित्र।  एक पेड़ की यादऔर स्मृति में रहें वेउनके संस्मरण हैं।  न रोको उन्हें शुभा शीर्षक से उनकी कविताओं का एक संग्रह २०१२ ई० में प्रकाशित हुआ है। शेखर जोशी को महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार, साहित्य भूषण और पहल सम्मान मिल चुका है।

 

          शेखर जोशी नयी कहानी के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उनकी कहानियों में मजदूर जीवन और पहाड़ का परिवेश बहुत बहुत अनूठे तरीके से अभिव्यक्त हुआ है। गलता लोहा, वास्तव में एक राजनीतिक चेतना सम्पन्न कहानी है, जिसमें आफ़र पर लोहा नहीं गल रहा, वर्ण व्यवस्था की कठोरता पिघल रही है और नया आकार ले रही है। यह कहानी शिक्षा और समाज व्यवस्था का बहुत मार्मिक चित्र भी हमारे सामने प्रस्तुत करती है।

 

          आगामी वीडियो में हम इस कहानी का आलोचनात्मक पाठ प्रस्तुत करेंगे। अगर आपको यह कहानी अच्छी लगी तो टिप्पणी करें और अपने प्रश्न तथा सुझाव से अवगत कराएं।

 

          वाचन स्वर है- डॉ रमाकान्त राय का।       

बुधवार, 16 सितंबर 2020

जिउतिया : जीवित्पुत्रिका व्रत

 ....

“ए अरियार, का बरियार, सीता से कहिह भेंट अकवार, हमार पूत मारि आवें, मरा न आवें, ओरहन लेके कब्बो न आवें”।

सतपुतिया/सरपुतिया

माताएं बरियार वृक्ष (यद्यपि यह एक तरह की झाड़ीनुमा पौधा होता था, लेकिन इसकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं. इसे उखाड़ने में दम साधना पड़ता था.) से बतियाती हुई अपने बेटे के लिए पराक्रमी होने का आशीष मांगती थीं. उनका आशीष भी ख़ासा दिलचस्प होता था. बेटे को पराक्रमी देखने के लिए वे मनौती करती थीं कि वे रणक्षेत्र में जीत कर आयें, मार कर आयें. पिटकर, हारकर न लौटें, वे शहीद होकर न लौटें. और तो और वे उलाहना लेकर भी न लौटें. उलाहना क्यों? लड़ाई-भिड़ाई में/ धर्मक्षेत्र में वह धर्मयुद्ध करे, छल-कपट से नहीं जीतें. अब यह खासा रोचक और अप्रासंगिक लग सकता है लेकिन कुछ साल पहले तक जब सामंती समाज अपने पूरे रोब-दाब पर था, यह और इसकी प्रासंगिकता समझी जा सकती थी.

कल जिउतिया है. आज सतपुतिया की सब्जी और टिकरा खाकर माँ कल निर्जला व्रत रहेंगी. हमारे लिए. हम भाइयों के लिए. मेरे यहाँ बहन के लिए भी. 

लिखे जा रहे एक निबंध का अंश..

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शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

कथावार्ता : यादगारे फिराक़ : लीजेण्ड फ़िराक़

आज फ़िराक़ गोरखपुरी का जन्मदिन है। लीजेण्ड फ़िराक़। किम्बदंती फ़िराक़। इलाहाबाद में रहने वाला, तनिक भी साहित्यिक अभिरुचि का व्यक्ति फ़िराक़ साहब के बारे में गजब की जानकारी रखता/शेयर करता है। रघुपति सहाय फ़िराक़ इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज में अंग्रेजी के प्राध्यापक थे। उर्दूअदब में बहुत आदर से गिने जाते हैं। उनकी पुस्तक गुल-ए-नगमा को प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था। किताबी हिंदी के प्रखर विरोधी फ़िराक़ साहब तहजीब के प्रति अव्वल दर्जे तक जुनूनी थे। उज्जडता की हद तक जुनूनी थे।

फिराक गोरखपुरी ने गुल-ए-नगमा, मश्अल, रूह-ए-कायनात, नग्म-ए-साज, ग़ज़लिस्तान, शेरिस्तान, शबनमिस्तान, रूप, धरती की करवट, गुलबाग, रम्ज व कायनात, चिरागां, शोअला व साज, हजार दास्तान, बज्मे जिन्दगी रंगे शायरी आदि शायरी की पुस्तकों के साथ हिंडोला, जुगनू, नकूश, आधीरात, परछाइयाँ और तरान-ए-इश्क जैसी खूबसूरत नज्में और सत्यम् शिवम् सुन्दरम् जैसी रुबाइयों की रचना की है। उन्होंने एक उपन्यास साधु और कुटिया भी लिखा। 


फ़िराक़ गोरखपुरी ने भारतीयता को अपनी कविताओं में व्यक्त किया है। उनके यहाँ कविता में पारंपरिक उर्दू कविता की तरह साकी, हाला, ग़म और इश्क-मुश्क भर नहीं है। उनकी कविता में उच्च स्तर की दार्शनिक प्रतिपत्ति, वात्सल्य की अभिव्यक्ति और देश-प्रेम की भावना की प्रधानता है। उनकी सांस्कृतिक विरासत की हद भारतीय सनातन परम्परा से जुड़ती है और इस तरह विशिष्ट हो जाती है। वह लिखते हैं-

          खेतों को संवारा तो सँवरते गए ख़ुद भी

          फ़सलों को उभारा तो उभरते गए ख़ुद भी

          फ़ित्रत को निखारा तो निखरते गए ख़ुद भी

          नित अपने बनाए हुए साँचों में ढलेंगे।

 

          हम ज़िंदा थे, हम ज़िंदा हैं, हम ज़िंदा रहेंगे।

 

बीते दिन फ़िराक़ साहब पर केंद्रित कॉमरेड रामजी राय की पुस्तिका 'यादगारे फ़िराक़' मिली। फ़िराक़ साहब के जीवन, अदब, शायरी और चिंतन को केंद्र में रखकर संस्मरण की शैली में लिखी यह पुस्तिका बहुत रोचक और शानदार बन पड़ी है। फ़िराक़ साहब के बारे में जानने, समझने के लिहाज से यह विशिष्ट पुस्तिका है। इसमें आये उनके संस्मरण फ़िराक़ साहब के व्यक्तित्व को बखूबी उजागर करते हैं। उनके विट, उनकी अदा, सोचने और समझने की काबिलियत और व्यवहार को स्पष्ट करती है। यों ही फ़िराक़ साहब नहीं कहा करते थे कि आने वाली नस्लें उनपर फक्र करेंगी।


पुस्तिका उनकी शायरी, उनके लिखे पर बहुत आत्मीयता किन्तु बहुत वस्तुनिष्ठ तरीके से विचार करती है। यह मिसाल है कि एक पुस्तिका कैसे अपनत्व रखकर भी निर्मम हो सकती है। अपने को अस्सी फीसद मार्क्सवादी मानने वाले फ़िराक़ साहब को समझने के लिहाज से यह पुस्तिका बहुत मानीखेज है।

          उनकी एक रुबाई से यह बात खत्म करता हूँ। उनकी इस रुबाई में माँ और बालक के वात्सल्य भरे व्यवहार में जो सरलता और तरलता है, वह फ़िराक़ को अत्यंत ऊँचे स्तर पर स्थापित करती है। जन्मदिवस पर भावपूर्ण स्मरण- 

                    “किस प्यार से होती है ख़फ़ा बच्चे से

                    कुछ त्योरी चढ़ाये हुए मुँह फेरे हुए

                    इस रुठने पर प्रेम का संसार निसार

                    कहती है कि जा तुझसे नहीं बोलेंगे”।


मंगलवार, 25 अगस्त 2020

कथावार्ता : आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी : हिन्दी के संवेदनशील महात्मा जिन्हें मुख्यधारा ने कभी गले नहीं लगाया


-आदित्य कुमार गिरि
मैं ठीक-ठीक सोचकर कह रहा हूँ कि आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी हिंदी के बड़े लेखक थे/हैं। मेरे मन में उनके प्रति अपार श्रद्धा व आदर है। उनके लेखन ने मुझे बहुत समृद्ध किया है, संवेदनशील बनाया है और मुझे मेरी अल्पज्ञता का एहसास कराया है और इसका भी कि विद्या केवल विनम्र होकर ही अर्जित की जा सकती है। द्विवेदी जी विनम्रता और सीधेपन को मनुष्य के लिए बेहद जरूरी मानते थे। और उन्हें इसका एहसास भी था कि सीधा होना, बहुत टेढ़ा काम है। तभी तो उन्होंने लिखा कि सीधी लकीर खींचना सबसे टेढ़ा काम है। उन्होंने स्वयं की तलाश में, विद्यार्जन के मार्ग पर निडर होकर आगे बढ़ने को नियम की तरह ज़रूरी माना है। वे कहते हैं किसी से भी न डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।

मैं द्विवेदी जी को हिन्दी आलोचना में शुक्ल जी की अगली कड़ी मानता हूँ। हिंदी में बहुत संकीर्ण सोच के तहत शुक्ल जी और द्विवेदी जी को लड़ा दिया गया जबकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। शुक्ल न होते तो द्विवेदी भी न होते। द्विवेदी जी के लेखन का एक अंश शुक्ल जी से संवाद के क्रम में विकसित हुआ है। और शुक्ल जी जो नहीं कह सके हैं द्विवेदी जी ने उन बिंदुओं को बेहतरीन ढंग से प्रकट किया है। ये दोनों हमारी हिन्दी की थाती हैं। संवाद के क्रम में ही दुनिया और ज्ञान का विकास होता है।

  अपनी पुस्तक हिन्दी साहित्य का इतिहास दर्शनमें दोनों की दृष्टियों के अंतर को स्पष्ट करते हुए जगदीश्वर चतुर्वेदी लिखते हैं कि शुक्ल जी की इतिहास दृष्टि का केंद्र हिंदी प्रदेश था जबकि द्विवेदी जी ने पूरे भारत के परिप्रेक्ष्य में साहित्य का इतिहास लिखने का प्रयत्न किया है।

  शुक्ल जी का आलोचकीय विवेक छायावादी साहित्यिक आंदोलन से निर्मित हुआ था जबकि द्विवेदी जी का प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन से। दोनों के बीच का यह बुनियादी फर्क ही उनके लेखन की धुरी थी लेकिन आधुनिक आलोचना जगत (जिसमें डॉ रामविलास शर्मा और डॉ नामवर सिंह प्रमुख है) ने शुक्ल-द्विवेदी स्कूलों की कल्पना कर दोनों के बीच एक कृत्रिम लड़ाई खड़ी कर दी और बाद में पूरा हिन्दी जगत इसी फ्रेम में फ्रेम्ड हो गया और दो खेमे बन गए- शुक्ल-खेमा और द्विवेदी खेमा। शुक्ल को ब्राह्मणवादी और द्विवेदी को ब्राह्मणवाद का विरोधी कहकर खूब प्रचारित किया गया जबकि इस तरह की ज़मीन पर दोनों ही महात्मा लेखक लेखन नहीं कर रहे थे।

  एक लेखक का लेखकीय विवेक किस पृष्ठभूमि में तैयार होता है, बिना उसे समझे लेखक के लेखन और दृष्टि को कभी भी समझा नहीं जा सकता है। लेखक अपने निर्णयों से ज़्यादा अपनी संवाद शैली के लिए महत्त्वपूर्ण होता है। वह किन विषयों को छूता है और किन्हें छोड़ता है वह उसका निजी फैसला नहीं होता अथवा वह किसी गैंगवॉर की दृष्टि से लेखन नहीं करता बल्कि उसका लेखन उसके समकालीन साहित्यिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों की उपज होता है। असल में उसका मानस ही ऐसे तैयार होता है।

  जो लेखक छायावादीन साहित्यिक आंदोलन से आप्लावित था उसके आदर्श में लोककल्याण और तुलसीदास थे और जो लेखक प्रगतिशील आंदोलन के आलोक में तैयार हुआ उसके आदर्श कबीर और नाथपंथ था। द्विवेदी जी अपने युगबोध को रिप्रेजेंट कर रहे थे। हर लेखक यही करता है। प्रतिरोध की जो हवा उनके युग में चल रही थी उसका मध्यकालीन वैचारिक संबल कबीर में ही था। इसलिए वे कबीर और उनके युगबोध को इतनी सजीवता से प्रकट कर सके। जबतक प्रगतिशील आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में द्विवेदी जी का लेखन कसकर नहीं देखा जाएगा तबतक वे शुक्ल जी तो इस जी या उस जी के विरोध करते तुक्कों में फिट होते देखते रहेंगे।

  द्विवेदी जी ने अपने एक उपन्यास में लिखा है- एकांत का तप बड़ा तप नहीं है। संसार में कितना कष्ट है, रोग है, शोक है, दरिद्रता है, कुसंस्कार है, लोग दुःख से व्याकुल हैं। उनमें जाना चाहिए। उनके दुःख का भागी बनकर उनका कष्ट दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। यही वास्तविक तप है।

  यह तप और कष्टों को केन्द्र में रखकर लेखन किस मस्तिष्क की उपज हो सकती है, यह पाठक तय करें। अगर भारत में विराट प्रगतिशील आंदोलन न हुआ होता तो द्विवेदी जी का ऐसा स्वर भी न होता। द्विवेदी जी तो खैर, दूर की बात है; छायावाद के सबसे बड़े प्रतिनिधि सुमित्रानंनदन पंत और निराला तक पर प्रगतिशील आंदोलन का भयंकर प्रभाव पड़ा। इतना कि छायावाद को छोड़ प्रगतिशीलता में आकंठ डूब गए।

  द्विवेदी जी का यह स्वर देखिए जब वे खुद को कोसते हुए कहते हैं- मैं साधारण मनुष्य के रूप में ही सोच सकता हूँ। किसी को सिखाना इसका उद्देश्य नहीं है। पीछे की ओर देखता हूँ विराट रिक्तता। जो कुछ करता रहा हूँ वह क्या सचमुच किसी काम का था? अपनी सीमाओं, त्रुटियों, ओछाइयों को छिपाकर अपने को कुछ इस ढंग से दिखाना कि मैं सचमुच कुछ हूँ, यही तो किया है।

'छोटी-छोटी बातों के लिए संघर्ष को बहादुरी समझा है, पेट पालने के लिए छीना-झपटी को कर्म माना है, झूठी प्रशंसा पाने के लिए स्वाँग रचे हैं- इसी को सफलता मान लिया है। किसी बड़े को लक्ष्य को समर्पित नहीं हो सका, किसी के दुःख दूर करने के लिए अपने को उलीचकर नहीं दे सका। सारा जीवन केवल दिखावा, केवल भोंडा अभिनय, केवल हाय-हाय करने में बीत गया।यह कितना तीव्र और ब्लंट आत्मसाक्षात्मकार है। इसकी तुलना मुक्तिबोध की कविता अँधेरे मेंकी पंक्ति अब तक क्या किया, जीवन क्या जियासे कर सकते हैं। समाज के लिए जीने और कुछ करने की इतनी तीव्र छटपटाहट और भूख प्रगतिशील आंदोलन में तैयार मानस की ही हो सकती है।

  इसकाल के विवेक के लिए साहित्य अभिव्यक्ति का साधन मात्र नहीं है बल्कि समाज कल्याण का शस्त्र है। यह काल औसा ही विवेक तैयार करता है जिसे चाँद में प्रेमिका का चेहरा नहीं बल्कि रोटी का टुकड़ा दिखता है।

  द्विवेदी जी इसी कारण प्रगतिशील आलोचक थे उनका साहित्य कर्म समाज को केंद्र में रखकर चल रहा था। वे अपने युग को दरकिनार करके नहीं चल सकते थे। कोई भी नहीं चल सका। वे सच्चे मायने में मानवतावादी लेखक थे। उनका मानवतावाद नारा नहीं था, बल्कि वह उनके अंदर गहरे पैठा था। उनका समूचा लेखन वंचितों की दृष्टि से लिखा तो गया ही है लेकिन साथ ही वह उपेक्षित एवं विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करके खड़े हुए अनुभवों और व्यक्तियों के पक्ष में भी रहा है।

यह उनकी पृष्ठभूमि का परिणाम थी जिसकी ओर ऊपर मैंने इशारा किया है। तो दो अलग-अलग काल के, अलग-अलग परिस्थितियों के, अलग-अलग विवेक के, अलग-अलग सरोकारों के लेखकों को एक ज़मीन पर खड़ा करके एक दूसरे के शत्रु के रूप में चित्रित करना कितना बड़ा पाप है, यह आप खुद तय कीजिए।

  द्विवेदी जी के भीतर शुक्ल जी के प्रति अगाध प्रेम और आदर था। एक विद्वान दूसरे विद्वान का अनादर कर भी नहीं सकता। जब भी कोई चरित्रहनन का प्रयास होता है तब असल में वह छोटे मन और व्यक्तित्वों द्वारा किए प्रयास होते हैं।

कहते हैं एकबार रवींद्रनाथ ठाकुर ने द्विवेदी जी को अपने कमरे में बुलाया। शांतिनिकेतन में उसदिन मूसलाधार बारिश हो रही थी। इतनी कि घुटने-घुटने भर पानी था। कलकत्ते की बारिश तो ऐसे ही मशहूर है। द्विवेदी जी को लेकिन उस अँधेरी रात में कोई भ्रम नहीं था कि बारिश है, कि पानी है, कि अँधेरा, कि कैसे जाएँ और न जाएँ। गुरुदेव ने बुलाया है, तो जाना तो है ही। अतः भीगते-भागते वे रवींद्रनाथ के कमरे तक पहुंचे।

देखा, रवींद्रनाथ आराम कुर्सी पर लेटे खिड़की के परे उस छप्पनों कोट हो रही बारिश को देख रहे थे। द्विवेदी जी वहीं, एक कोने में चुपचाप खड़े हो गए। कोई आधे घण्टे बाद रवींद्रनाथ की तंद्रा भंग हुई और उनकी नज़र द्विवेदी जी पर गयी। उन्होंने बच्चों के से उत्साह से आह्लादित होकर कहा 'देख चो, एतो शुन्दोर बृष्टि।' (देख रहे हो, कितनी अच्छी बारिश हो रही है।)

द्विवेदी जी ने खिड़की के बाहर नज़र घुमाई और एकटक देखते रह गए। द्विवेदी जी ने उस पल को अपनी आत्मा में क़ैद कर लिया।

यह कथा सुनाने के पीछे मेरी एक मंशा है। वह यह कि कोई साधारण व्यक्ति होता तो कमरे में घुसते ही कहता कि हाँ सर, आ गया। क्यों बुलाया आपने ?’

लेकिन द्विवेदी जी ने ऐसा कुछ नहीं कहा। वे वहाँ गए और चुपचाप खड़े हो गए। क्यों ? क्योंकि वे एक लेखक थे, एक संवेदनशील व्यक्ति थे। एक लेखक और एक संवेदनशील व्यक्ति ही दूसरे लेखक की संवेदनाओं को समझ सकता है। और उसपर रवींद्रनाथ जैसे व्यक्ति को।

द्विवेदी जी देखकर समझ गए होंगे कि रवींद्रनाथ इतनी तल्लीनता से बाहर देख रहे हैं तो दृश्य को देखकर अपनी किसी काव्यात्मक संवेदना में खोए गए होंगे। अतः उन्होंने उन्हें टोका नहीं। लेखक को टोकना उसे उसके भावलोक से खींचना होता है। उसकी तंद्रा में बाधा पहुँचाना होता है। इसे द्विवेदी जी जैसा व्यक्ति ही समझ सकता है।

  लिखने वाला हर आदमी लेखक नहीं होता। लेखक बनाती है उसकी संवेदनशीलता, उसकी सूक्ष्मता और अन्यको समझने और सम्मान देने की उसकी दृष्टि और मनःस्थिति।

  मैंने इसलिए ही कहा कि एक विद्वान कभी भी दूसरे विद्वान की उपेक्षा या अनादर कर ही नहीं सकता। द्विवेदी जी जैसा प्रकांड पंडित तो और नहीं कर सकता था। उनके लेखन में शुक्ल जी के प्रति यदा-कदा आदर झलकता रहता है।

अज्ञेय ने अपनी डायरी में एक जगह लिखा है कि किसी व्यक्ति को समझना हो तो उसे किसी की बुराई करते सुनो। दूसरों की बुराई करते समय एक आदमी कैसी भाषा, कैसा टेम्परामेंट, कैसी उदारता या अनुदारता बरतता है, उसी से उसके चरित्र और स्वभाव का पता चलता है।

लेकिन मैं अज्ञेय से सहमत होते हुए भी इसकी आगे की कड़ी में कहना चाहूँगा कि अगर किसी व्यक्ति के चरित्र को समझना हो तो उसे किसी की प्रशंसा करते सुनो। आप देखेंगे कि उस समय व्यक्ति उदार है या काईंयाँ, इसका सबसे ज़्यादा पता चलता है। क्योंकि प्रशंसा भी उदारता की निशानी है, कृपण व्यक्ति तो प्रशंसा करने में भी कंजूसी करता है।

तो इस दृष्टि से देखें तो द्विवेदी जी जैसा उदार तो कोई है ही नहीं। द्विवेदी जी का समूचा आलोचकीय और नैरेटिव लेखन उठाकर देख लीजिए। वे जब-जब किसी की प्रशंसा करते हैं कलम तोड़ देते हैं। एकदम मुक्त कंठ से,खुले हृदय से , उच्छावासित होकर प्रशंसा करते हैं।

तुलसीदास पर लिखते समय उन्होंने उनकी प्रशंसा में जो-जो लिखा है वह तो शुक्ल जी ने भी नहीं कहा है। हिन्दी का हर विद्यार्थी, हर आलोचक तुलसीदास पर लिखते समय द्विवेदी जी को बिना उद्धृत किए पार ही नहीं पा सकता।

उनके तमाम उद्धरणों में से एक यह है- भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके, क्योंकि भारतीय समाज में नाना-भाँति की परस्पर-विरोधिनी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ, आचारनिष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। बुद्धदेव समन्वयकारी थे, गीता में समन्वयकारी चेष्टा है और तुलसीदास भी समन्वयकारी थे। वे स्वयं नाना प्रकार के सामाजिक स्तरों में रह चुके थे। ब्राह्मणवंश में उनका जन्म हुआ था, दरिद्र होने के कारण उन्हें दर-दर भटकना पड़ा था, गृहस्थ-जीवन की सबसे निकृष्ट आसक्ति के वे शिकार हो चुके थे, अशिक्षित और संस्कृतिविहीन जनता में वह रह चुके थे और काशी के दिग्गज पंडितों तथा संन्यासियों के संसर्ग में उन्हें खूब आना जाना पड़ा था।

  'नाना-पुराण-निगमागम का अभ्यास उन्होंने किया था और लोकप्रिय साहित्य और साधना की नाड़ी उन्होंने पहचानी थी। पंडितों ने सप्रमाण सिद्ध किया है कि उस युग में प्रचलित ऐसी कोई भी काव्य-पद्धति नहीं थी, जिसपर उन्होंने अपनी छाप न लगा दी हो।

इसी तरह कबीर की प्रशंसा में उन्होंने जो कहा वह हिन्दी में मील का पत्थर बन गया। कबीर पर अनपढ़ता और विद्वता के आलोक में हुए आघातों के इस उद्धरण से परखच्चे उड़ सकते हैं। द्विवेदी जी ने हिन्दी के पाठकों को आलोचना की सभ्य तमीज़ दी। उद्धरण है- हिन्दी साहित्य के हज़ार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वंद्वी जानता है-तुलसीदास।

(नामवर सिंह लॉबी ने जिन द्विवेदी जी को प्रो-कबीर दिखाया है वे कबीर और तुलसी को लेकर क्या सोचते थे देखिए।) भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया। बन गया तो सीधे-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर।कबीर के अशास्त्रीय लेखन का दुनिया में इससे बड़ा डिफेंस हो नहीं सकता। असल में द्विवेदी जी सकारात्मकता के लेखक थे। द्विवेदी जी जिस गद्गद भाव से प्रशंसा करते थे वह उनके निश्छल हृदय का परिचायक है। ऐसा आदमी किसी के प्रति विद्वेष रखकर लिखता हो, यह शिष्यमंडली ने कैसे देख लिया, भगवान जाने।

  द्विवेदी जी गरीबी के उस स्तर से आए थे जहाँ कई-कई दिन भूखे रातें कटती हैं। वे बलिया के भोजपुरी भाषी थे। पूजा करके घर चलता था। उन्होंने ज्योतिष विद्या की पढ़ाई ही इसलिए की ताकि उन्हें कमाने का ज़रिया मिल सके। उनके गुरु ने कहा कि संस्कृत सीख लो फिल कभी भूखे नहीं मरोगे। अतः कालीदास के साहित्य को चिखुर जाओ। (चिखुरना एक भोजपुरी शब्द है जिसका अर्थ गाय या बकरी द्वारा ज़मीन से घास चरने के तरीके से है।) बस द्विवेदी जी कालीदास को चिखुर गए। उनके संस्कृत ज्ञान के आधार पर ही कलकत्ते के शांतिनिकेतन में उन्हें बुलाया गया था लेकिन बाद में उन्हें हिन्दी-विभाग का प्रोफेसर नियुक्त कर दिया गया। रवींद्रनाथ का द्विवेदी जी पर विशेष स्नेह था।

द्विवेदी जी सही मायने में विराटता के पूजक थे। उन्होंने खंड में अखंड के होने की बात को मज़बूती से स्वीकारा है। वे मानते थे कि सत्य एक और अखंड है। इसके एक भी पहलू को सही-सही पकड़ लेने पर बाकी साफ हो जाते हैं।द्विवेदी जी साहित्य या समाज को संपूर्णता में देखने वाले जीव थे, वे किसी को भी निंदा या रिजेक्शन की नज़र से नहीं देखते थे।

उनका विमर्श विपरीत फल देने पर भी किसी को छोड़ने या उपेक्षा करने के पक्ष में नहीं था। तभी तो शुक्ल जी द्वारा त्याज्य साहित्य(सिद्ध्-नाथ-जैन साहित्य) को भी साहित्य के विमर्श में ले आए। द्विवेदी जी का लेखकीय विवेक संप्रदाय के संकुचित घेरे में रहकर नहीं सोचता था। वह अखिल भारतीय था।

वे जिस सांस्कृतिक-पृष्ठभूमि से आए थे वह किसी दलीय हित के परे मानवता को केंद्र में रखकर सोचता था इसीलिए वे सबको गले लगाते गए लेकिन तमाम पूर्वग्रहों और संकीर्णताओं वाले इस मुख्यधारा ने सदैव उनकी उपेक्षा की, तिरस्कार किया।

वे सच में फफ्कड़ थे, शिरीष के फूल थे, अशोक के फूल, कुटज थे। विपरीत परिस्थितियों में, बेतरह गरीबी में रहकर, पलकर अपनी योग्यता के बल पर न सिर्फ खुद को बल्कि अपने सारे विद्यार्थियों को स्थापित किया। हिन्दी में शायद ही कोई ऐसा विश्वविद्यालय हो जहाँ द्विवेदी जी की षिष्य परंपरा का कोई एक प्रतिनिधि न हो। द्विवेदी जी ने अपने लेखन में घृणा और रिजेक्शन्स को कभी स्थान नहीं दिया। उन्होंने ही लेखन को संवाद शैली से जोड़ा वर्ना आलोचना एक सूत्रयुक्त गूढ़ लेखन था। द्विवेदी जी के बाद आलोचना में उपन्यास का सा मज़ा प्रविष्ट हो गया।

आचार्य द्विवेदी की सकारात्मक आलोचना दृष्टि को उनकी पुण्यतिथि पर स्मरण करते हुए उनके प्रति आदर और कृतज्ञता से भरकर मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ।


आदित्य कुमार गिरि

(युवा चिंतक आदित्य कुमार गिरि एक सजग पाठक, मौलिक चिन्तक और सुधी आलोचक हैं। वह कोलकाता स्थित जयपुरिया गर्ल्स कालेज में हिन्दी के प्राध्यापक हैं। विभिन्न साहित्यिक और सांस्कृतिक विषयों पर उनका विवेचन और विश्लेषण मौलिक और तथ्यपरक होता है। यह आलेख उन्होंने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के जन्मदिवस पर हमारे विशेष अनुरोध पर लिखा था।

हमारे ब्लॉग पर आदित्य कुमार गिरि की यह दूसरी प्रस्तुति!)

सद्य: आलोकित!

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