सोमवार, 29 जुलाई 2024

महाजनी सभ्यता : प्रेमचन्द का निबन्ध


मुज़द: ए दिल कि मसीहा नफ़से मी आयद;

कि जे़ अनफ़ास खुशश बूए कसे मी आयद।

 

( हृदय तू प्रसन्न हो कि पीयूषपाणि मसीहा सशरीर तेरी ओर आ रहा है। देखता नहीं कि लोगों की साँसों से किसी की सुगन्धि आ रही है।)

 

जागीरदारी सभ्यता में बलवान भुजाएँ और मजबूत कलेजा जीवन की आवश्यकताओें में परिगणित थे, और साम्राज्यवाद में बुद्धि और वाणी के गुण तथा मूक आज्ञापालन उसके आवश्यक साधन थे। पर उन दोनों स्थितियों में दोषों के साथ कुछ गुण भी थे। मनुष्य के अच्छे भाव लुप्त नहीं हो गये थे। जागीरदार अगर दुश्मन के खून से अपनी प्यास बुझाता था, तो अकसर अपने किसी मित्र या उपकारक के लिए जान की बाजी भी लगा देता था। बादशाह अगर अपने हुक्म को कानून समझता था और उसकी अवज्ञा को कदापि सहन न कर सकता था, तो प्रजापालन भी करता था, न्यायशील भी होता था।

 

दूसरे के देश पर चढ़ाई वह या तो किसी अपमान-अपकार का बदला फेरने के लिए करता था या अपनी आन-बान, रोब-दाब कायम करने के लिए या फिर देश-विजय और राज्य-विस्तार की वीरोचित महत्वाकांक्षा से प्रेरित होता था। उसकी विजय का उद्देश्य प्रजा का खून चूसना कदापि न होता था। कारण यह कि राजा और सम्राट जनसाधारण को अपने स्वार्थसाधन और धन-शोषण की भटठी का ईंधन न समझते थे। किन्तु उनके दुख-सुख में शरीक होते थे और उनके गुण की कद्र करते थे।

 

प्रेमचन्द

    मगर इस महाजनी सभ्यता में सारे कामों की गरज महज पैसा होती है। किसी देश पर राज्य किया जाता है, तो इसलिए कि महाजनों, पूँजीपतियों को ज़्यादा से ज़्यादा नफ़ा हो। इस दृष्टि से मानों आज दुनिया में महाजनों का ही राज्य है। मनुष्य समाज दो भागों में बँट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है, और बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का, जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को अपने बस में किये हुए हैं। इन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं, ज़रा भी रू-रियायत नहीं। उसका अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाये, खून गिराये और एक दिन चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाय। अधिक दुख की बात तो यह है कि शासक वर्ग के विचार और सिद्धान्त शासित वर्ग के भीतर भी समा गये हैं, जिसका फल यह हुआ है कि हर आदमी अपने को शिकारी समझता है और उसका शरीर है समाज। वह खुद समाज से बिल्कुल अलग है। अगर कोई संबंध है, तो यह कि किसी चाल या युक्ति से वह समाज का उल्लू बनावे और उससे जितना लाभ उठाया जा सकता हो, उठा ले।

 

धन-लोभ ने मानव भावों को पूर्ण रूप से अपने अधीन कर लिया है। कुलीनता और शराफ़त, गुण और कमाल की कसौटी पैसा, और केवल पैसा है। जिसके पास पैसा है, वह देवता स्वरूप है, उसका अन्त:करण कितना ही काला क्यों न हो। साहित्य, संगीत और कला-सभी धन की देहली पर माथा टेकने वालों में है। यह हवा इतनी ज़हरीली हो गई है कि इसमें जीवित रहना कठिन होता जा रहा है।

 

डाक्टर और हकीम है कि वह बिना लम्बी फ़ीस लिये बात नहीं करता। वकील और बारिस्टर है कि वह मिनटों को अशर्फियों से तौलता है। गुण और योग्यता की सफलता उसके आर्थिक मूल्य के हिसाब मानी जा रही है। मौलवी साहब और पण्डित जी भी पैसे वालों के बिना पैसे के गुलाम हैं, अखबार उन्हीं का राग अलापते हैं। इस पैसे ने आदमी के दिलोदिमाग़ पर इतना कब्ज़ा जमा लिया है कि उसके राज्य पर किसी ओर से भी आक्रमण करना कठिन दिखाई देता है। वह दया और स्नेह, सचाई और सौजन्य का पुतला मनुष्य दया-ममताशून्य जड़ यन्त्र बनकर रह गया है।

 

इस महाजनी सभ्यता ने नये-नये नीति-नियम गढ़ लिये हैं जिन पर आज समाज की व्यवस्था चल रही है। उनमें से एक यह है कि समय ही धन है। पहले समय जीवन था, और उसका सर्वोत्तम उपयोग विद्या-कला का अर्जन अथवा दीन-दुखी जनों की सहायता था। अब उसका सबसे बड़ा सदुपयोग पैसा कमाना है। डाक्टर साहब हाथ मरीज की नब्ज़ पर रखते हैं और निगाह घड़ी की सुई पर। उनका एक-एक मिनट एक-एक अशर्फी है। रोगी ने अगर केवल एक अशर्फी नज़र की है, तो वह उसे मिनट से ज़्यादा वक्त नहीं दे सकते। रोगी अपनी दुख-गाथा सुनाने के लिए बेचैन हैं; पर डाक्टर साहब का उधर बिल्कुल ध्यान नहीं। उन्हें उससे ज़रा भी दिलचस्पी नहीं। उनकी निगाह में उस व्यक्ति का अर्थ केवल इतना ही है कि वह उन्हें फ़ीस देता है। वह जल्द-से-जल्द नुस्ख़ा लिखेंगे और दूसरे रोगी को देखने चले जायेेंगे। मास्टर साहब पढ़ाने आते हैं, उनका एक घण्टा वक्त बंधा है। वह घड़ी सामने रख लेते हैं, जैसे ही घण्टा पूरा हुआ, वह उठ खड़े हुए। लड़के का सबक अधूरा रह गया तो रह जाय, उनकी बला से, वह घण्टे से अधिक समय कैसे दे सकते हैं; क्योंकि समय रुपया है। इस धन-लोभ ने मनुष्यता और मित्रता का नाम शेष कर डाला है। पति को पत्नी-बच्चों से बात करने की फुर्सत नहीं, मित्र और संबंधी किस गिनती में हैं। जितनी देर वह बातें करेगा, उतनी देर में तो कुछ कमा लेगा। कुछ कमा लेना ही जीवन की सार्थकता है, शेष सब कुछ समय-नाश है। बिना खाये-सोये काम नहीं चलता, बेचारा इससे लाचार है और इतना समय नष्ट करना ही पड़ता है।

 


आपका कोई मित्र या सम्बन्धी अपने नगर में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है, तो समझ लीजिए उसके यहाँ अब आपकी रसाई मुमकिन नहीं। आपको उसके दरे-दौलत पर जाकर कार्ड भेजना होगा। उन महाशय को बहुत से काम होंगे, मुश्किल से आपसे एक-दो बातें करेंगे या साफ जवाब दे देंगे कि आज फुर्सत नहीं है। अब वह पैसे के पुजारी हैं, मित्रता और शील-संकोच के नाम पर कब की तिलांजलि दे चुके हैं।

 

आपका कोई दोस्त वकील है और आप किसी मुकदमे में फँस गये हैं, तो उससे किसी प्रकार की सहायता की आशा न रखिए। अगर वह मुरौवत को गंगा में डुबो नहीं चुका है, तो आपसे देन-लेन की बात शायद न करेगा, पर आपके मुकदमें की ओर तनिक भी ध्यान न देगा। इससे तो कहीं अच्छा है कि आप किसी अपरिचित के पास जायँ और उसकी पूरी फ़ीस अदा करें। ईश्वर न करे कि आज किसी को किसी चीज़ में कमाल हासिल हो जाय, फिर उसमें मनुष्यता नाम को न रह जायगी, उसका एक-एक मिनट कीमती हो जाएगा।

 

इसका अर्थ यह नहीं कि व्यर्थ की गपशप में समय नष्ट किया जाय, पर यह अर्थ अवश्य है कि धन-लिप्सा को इतना बढ़ने न दिया जाय कि वह मनुष्यता, मित्रता, स्नेह-सहानुभूति सबको निकाल बाहर करे।

 

पर आप उस पैसे के गुलाम को बुरा नहीं कर सकते। सारी दुनिया जिस प्रवाह में बह रही है, वह भी उसी में बह रहा है। मान-प्रतिष्ठा सदा से मानवीय आकांक्षाओं का लक्ष्य रहा है। जब विद्या-कला मान-प्रतिष्ठा का साधन थी, उस समय लोग इन्हीं का अर्जन-अभ्यास करते थे। जब धन उसका एकमात्र उपाय है, तब मनुष्य मजबूर है कि एकनिष्ठ भाव से उसकी उपासना करे। वह कोई  साधु-महात्मा, सन्यासी-उदासी नहीं; वह देख रहा है कि उसके पेशे में जो सौभाग्यशाली सफलता की कठिन यात्रा पूरी कर सके हैं, वह उसी राजमार्ग के पथिक थे, जिस पर वह खुद चल रहा है। समय धन है एक सफल व्यक्ति का। वह उसको इस सिद्धान्त का अनुसरण करते देखता है, फिर वह भी उसी के पद-चिन्हों का अनुसरण करता है, तो उसका क्या दोष? मान-प्रतिष्ठा की लालसा तो दिल से मिटाई नहीं जा सकती। वह देख रहा है कि जिनके पास दौलत नहीं, और इसलिए नहीं कि उन्होंने वक्त को दौलत नहीं समझा, उनको कोई पूछने वाला नहीं। वह अपने पेशे में उस्ताद है फिर भी उसकी कहीं पूछ नहीं।

 

जिस आदमी में तनिक भी जीवन की आकांक्षा है वह तो इस उपेक्षा की  स्थिति   को सहन नहीं कर सकता। उसे तो मुरौवत, दोस्ती और सौजन्य को धता बताकर लक्ष्मी की आराधना में अपने को लीन कर देना होगा, तभी इस देवी का वरदान उसे मिलेगा, और वह कोई  इच्छाकृत कार्य नहीं किन्तु सर्वथा बाध्यकारी है। उसके मन की अवस्था अपने आप कुछ इस तरह की हो गई है कि उसे  धनार्जन के सिवा किसी काम से लगाव नहीं रहा। अगर उसे किसी सभा या व्याख्यान में आधा घण्टा बैठना पड़े, तो समझ लो, वह कैद की घड़ी काट रहा है। उसकी सारी मानसिक, भौतिक और सांस्कृतिक दिलचस्पियां इसी केन्द्र बिन्दु पर आकर एकत्र हो गई हैं।

 

और क्यों न हों? वह देख रहा है कि पैसे के सिवा उसका और कोई अपना नहीं। स्नेही मित्र भी अपनी गरज लेकर ही उसके पास आते हैं, स्वजन-सम्बन्धी भी उसके पैसे के ही पुजारी हैं। वह जानता है कि अगर वह निर्बल होता, तो वह जो दोस्तों का जमघट लग रहा है, उसमें से एक के भी दर्शन न होते, इन स्वजन-सम्बन्धियों में से एक भी पास न फटकता। उसे समाज में अपनी एक हैसियत बनानी है, बुढ़ापे के लिए कुछ बचाना है, लड़कों के लिए कुछ कर जाना है जिसमें उन्हें दर-दर ठोकरें न खानी पड़ें। इस निष्ठुर, सहानुभूति शून्य दुनिया का उसे पूरा अनुभव है। अपने लड़कों को वह उन कठिन अवस्थाओं में नहीं पड़ने देना चाहता, जो सारी आशाओं-उमंगों पर पाला गिरा देती है, हिम्मत-हौसले को तोड़कर रख देती है। उसे वह सारी मंजि़लें जो एक साथ जीवन के आवश्यक अंग हैं, खुद तय करनी होगी और जीवन को व्यापार के सिद्धान्त पर चलाये बिना वह इनमें से एक भी मंजि़ल पार नहीं कर सकता।

 

इस सभ्यता का दूसरा सिद्धान्त है’बिजनेस इज़ बिजनेस’ अर्थात व्यवसाय व्यवसाय है, उसमें भावुकता के लिए गुंजाइश नहीं। पुराने जीवन-सिद्धान्त में वह लठमार साफगोई नहीं है, जो निर्लज्जता कही जा सकती है और जो इस नवीन सिद्धान्त की आत्मा है। जहाँ लेन-देन का सवाल है, रुपये-पैसे का मामला है, वहां न दोस्ती का गुज़र है, न मुरौवत का, न इन्सानियत का, ‘बिजनेस’में दोस्ती कैसी। जहाँ किसी ने इस सिद्धान्त की आड़ ली और आप लाजवाब हुए। फिर आपकी जबान नहीं खुल सकती। एक सज्जन ज़रूरत से लाचार होकर अपने किसी महाजन मित्र के पास जाते हैं और चाहते हैं कि वह उनकी कुछ मदद करें। वह भी आशा रखते हैं कि शायद सूद के दर में वह कुछ रियायत कर दें; पर जब देखते हैं कि वह महानुभाव मेरे साथ भी वही कारबारी बर्ताव कर रहे हैं, तो कुछ रियायत की प्रार्थना करते हैं, मित्रता और घनिष्ठता के आधार पर आँखों में आँसू भरकर बड़े करुण स्वर में कहते हैं-महाशय, मैं इस समय बड़ा परीशान हूँ, नहीं तो आपको कष्ट न देता, ईश्वर के लिए मेरे हाल पर रहम कीजिए। समझ लीजिए कि एक पुराने दोस्त…. वहीं बात काटकर आज्ञा के स्वर में फ़रमाया जाता है: लेकिन जनाब, आप’बिजनेस इज़ बिजनेस’ इसे भूल जाते हैं। उस दिन कातर प्रार्थी पर मानों बम का गोला गिरा। अब उसके पास कोई तर्क नहीं, कोई दलील नहीं। चुपके से उठकर अपनी राह लेता है या फिर अपने व्यवसाय-सिद्धान्त के भक्त मित्र की सारी शर्तें कबूल कर लेता है।

 

इस महाजनी सभ्यता ने दुनिया में जो नई रीति-नीतियाँ चलाई हैं, उनमें सबसे अधिक और रक्तपिपासु यही व्यवसाय वाला सिद्धान्त है। मियाँ-बीवी में बिजनेस, बाप-बेटे में बिजनेस, गुरु-शिष्य में बिजनेस। सारे मानवी आध्यात्मिकऔर सामाजिक नेह-नाते समाप्त। आदमी-आदमी के बीच बस कोई लगाव है, तो बिजनेस का। लानत है इस ‘बिजनेस’ पर। लड़की अगर दुर्भाग्यवश क्वाँरी रह गई और अपनी जीविका का कोई  उपाय न निकाल सकी, तो अपने बाप के घर में ही लौंडी बन जाना पड़ता है। यों लड़के-लड़कियाँ सभी घरों में काम-काज करते ही हैं,  पर उन्हें कोई टहलुआ नहीं समझता; पर इस महाजन सभ्यता में लड़की एक खास उम्र के बाद लौंडी और अपने भाइयों की मजदूरनी हो जाती है। पूज्य पिताजी भी अपने पितृ-भक्त बेटे के टहलुए बन जाते हैं और माँ अपने सपूत की टहलुई । स्वजन-सम्बन्धी तो किसी गिनती में नहीं। भाई  भी भाई  के घर आये तो मेहमान है। अकसर तो उसे मेहमानी का बिल भी चुकाना पड़ता है। इस सभ्यता की आत्मा है व्यक्तिवाद, आप स्वार्थी बना सब कुछ अपने लिए।

 

पर यहाँ भी हम किसी को दोषी नहीं ठहरा सकते। वही मान प्रतिष्ठा, वही भविष्य की चिन्ता, वही अपने बाद बीवी-बच्चों के गुज़र का सवाल, वही नुमाइश और दिखावे की आवश्यकता हर एक की गरदन पर सवार है, और वह हिल तक नहीं सकता। वह इस सभ्यता के नीति-नियमों का पालन न करे तो उसका भविष्य अन्धकारमय है।

 

अब तक इस दुनिया के लिए सभ्यता की रीति-नीति का अनुसरण करने के सिवा और कोई  उपाय न था। उसे झख मारकर उसके आदेशों के सामने सिर झुकाना पड़ता था। महाजन अपने जोम से फूला फिरता था। सारी दुनिया उसके चरणों पर नाक रगड़ रही थी। बादशाह उसका बन्दा, वजीर उसके गुलाम, संधि-विग्रह की कुंजी उसके हाथ में, दुनिया उसकी महत्वाकांक्षाओं के सामने सिर झुकाए हुए, हर मुल्क में उसका बोलबाला।

 

परन्तु अब एक नई सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम में उदय हो रहा है, जिसने इस नाटकीय महाजनवाद या पूँजीवाद की जड़ खोदकर फेंक दी है, जिसका मूल सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक व्यक्ति, जो अपने शरीर या दिमाग़ से मेहनत करके कुछ पैदा कर सकता है, राज्य और समाज का परम सम्मानित सदस्य हो सकता है, और जो केवल दूसरों की मेहनत या बाप-दादों के जोड़े हुए धन पर रईस बना फिरता है, वह पतिततम प्राणी है। उसे राज्य प्रबन्ध में राय देने का हक नहीं और वह नागरिकता के अधिकारों का भी पात्र नहीं। महाजन इस नई  लहर से अति उद्विग्न होकर बौखलाया हुआ फिर रहा है और सारी दुनिया के महाजनों की शामिल आवाज उस नई  सभ्यता को कोस रही है, उसे शाप दे रही है। व्यक्ति-स्वातन्त्र्य, धर्म-विश्वास की स्वाधीनता, अपनी अन्तरात्मा के आदेश पर चलने की आज़ादी वह इन सबकी घातक, गला घोंट देने वाली बतायी जा रही है। उस पर नये-नये लांछन लगाये जा रहे हैं,नई -नई  हुरमतें तराशी जा रही हैं। वह काले से काले रंग में रँगी जा रही है, कुत्सित रूप में चित्रित की जा रही है। उन सभी साधनों से जो पैसे वालों के लिए सुलभ है, काम लेकर उसके विरुद्ध प्रचार किया जा रहा है; पर सचाई  है जो इस सारे अन्धकार को चीरकर दुनिया में अपनी ज्योति का उजाला फैला रही है।

 

निस्सन्देह इस नई  सभ्यता ने व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के पंजे नाखून और दाँत तोड़ दिये हैं। उसके राज्य में अब एक पूँजीपति लाखों मज़दूरों का ख़ून पीकर मोटा नहीं हो सकता। उसे अब यह आज़ादी नहीं कि अपने नफ़े के लिए साधारण आवश्यकता की वस्तुओं के दाम चढ़ा सके, अपने माल की खपत कराने के लिए युद्ध करा दे, गोला-बारूद और युद्ध सामग्री बनाकर दुर्बल राष्ट्रों का दमन कराये। अगर इसकी स्वाधीनता ही स्वाधीनता का अर्थ है कि यह जनसाधारण को हवादार मकान, पुष्टिकर भोजन, साफ-सुथरे गाँव, मनोरंजन और व्यवसाय की सुविधाएँ, बिजली के पंखे और रोशनी, सस्ता और सद्य:  सुलभ न्याय की प्राप्ति हो, तो इस समाज-व्यवस्था में जो स्वाधीनता और आज़ादी है, वह दुनिया की किसी सभ्यतम कहाने वाली जाति को भी सुलभ नहीं है। धर्म की स्वतंत्रता का अर्थ अगर पुरोहितों, पादरियों, मुल्लाओं की मुफ्तखोर ज़मात के दंभमय उपदेशों और अन्धविश्वास-जनित रूढि़यों का अनुसरण है, तो निस्संदेह वहाँ इस स्वातन्त्र्य का अभाव है; पर धर्म-स्वातन्त्र्य का अर्थ यदि लोक-सेवा,सहिष्णुता, समाज के लिए व्यकित का बलिदान, नैकनीयती, शरीर और मन की पवित्रता है, तो इस सभ्यता में धर्माचरण की जो स्वाधीनता है, और किसी देश को उसके दर्शन भी नहीं हो सकते।

 

जहाँ धन की कमी-बेशी के आधार पर असमानता है वहाँ ईर्ष्या, ज़ोर, जबर्दस्ती,बेईमानी, झूठ, मिथ्या अभियोग-आरोप, वेश्या-वृत्ति, व्यभिचार और सारी दुनिया की बुराइयाँ अनिवार्य रूप से मौजूद हैं। जहाँ धन का आधिक्य नहीं, अधिकाँश मनुष्य एक ही स्थिति में है, वहाँ जलन क्यों हो और जब्र क्यों हो? सतीत्व-विक्रय क्यों हो और व्यभिचार क्यों हो? झूठे मुकदमे क्यों चलें और चोरी-डाके की वारदातें क्यों हों? ये सारी बुराइयाँ तो दौलत की देन हैं, पैसे के प्रसाद हैं, महाजनी सभ्यता ने इनकी सृष्टि की है। वही इनको पालती है और वही यह भी चाहती है कि जो दलित, पीडि़त और विजित हैं, वे इसे ईश्वरीय विधान समझकर अपनी स्थिति पर सन्तुष्ट रहें। उनकी ओर से तनिक भी विरोध-विद्रोह का भाव दिखाया गया, तो उनका सिर कुचलने के लिए-पुलिस है, अदालत है, काला पानी है। आप शराब पीकर उसके नशे से बच नहीं सकते। आग लगाकर चाहें कि लपटें न उठें, असम्भव है। पैसा अपने साथ यह सारी बुराइयाँ लाता है, जिन्होंने दुनिया को नरक बना दिया है। इस पैसा-पूजा को मिटा दीजिए, सारी बुराइयाँ अपने-आप मिट जायँगी, जड़ न खोदकर केवल फुनगी की पत्तियां तोड़ना बेकार है। यह नई  सभ्यता धनाढयता को हेय और लज्जाजनक तथा घातक विष समझती है। वहाँ कोई  आदमी अमीरी ढंग से रहे तो लोगों की ईर्ष्या का पात्र नहीं होता;बल्कि तुच्छ और हेय समझा जाता है। गहनों से लदकर कोई  स्त्री सुन्दरी नहीं बनती, घृणा की पात्र बनती है। साधारण जन-समाज से ऊँचा रहन-सहन रखना वहाँ बेहूदगी समझी जाती है। शराब पीकर वहाँ बहका नहीं जा सकता,अधिक मद्यपान वहाँ दोष समझा जाता है, क्योंकि शराबखोरी से आदमी में धैर्य और कष्ट-सहन, अध्यवसाय और श्रमशीलता का अन्त हो जाता है।

 

हाँ, इस समाज-व्यवस्था ने व्यक्ति को यह स्वाधीनता नहीं दी है कि वह जनसाधारण को अपनी महत्वाकांक्षाओं की तृप्ति का साधन बनाये और तरह-तरह के बहानों से उनकी मेहनत का फ़ायदा उठाये, या सरकारी पद प्राप्त करके मोटी-मोटी रकमें उड़ाये और मूछों पर ताव देता फिरे। वहाँ ऊँचे से ऊँचे अधिकारी की तनख़्वाह भी उतनी ही है,जितनी एक कुशल कारीगर की। वह गगनचुम्बी प्रासादों में नहीं रहता, तीन-चार कमरों में ही उसे गुजर करना पड़ता है। उसकी श्रीमती जी रानी साहबा या बेगम बनी हुर्इ स्कूलों में इनाम बाँटती नहीं फिरतीं; बलिक अक्सर मेहनत-मजदूरी या किसी अखबार के दफ्तर  में काम करती हैं। सरकारी पद पाकर वह अपने को लाट साहब नहीं बलिक जनता का सेवक समझता है। महाजनी सभ्यता का प्रेमी इस समाज-व्यवस्था को क्यों पसन्द करने लगा जिसमें उसे दूसरों पर हुकूमत जताने के लिए सोने-चाँदी के ढेर लगाने की सुविधाएँ नहीं? पूँजीपति और ज़मींदार तो इस सभ्यता की कल्पना से ही काँप उठते हैं। उनकी जूड़ी का कारण हम समझ सकते हैं। पर जब वह लोग भी उसकी खिल्ली उड़ाने और उस पर फबतियाँ कसने लगते हैं जो अनजान में महाजनी सभ्यता का उल्लू सीधा कर रहे हैं, तो हमें उनकी दास-मनोवृतित पर हँसी आती है। जिसमें मनुष्यता, आध्यात्मिकता,उच्चता और सौन्दर्यबोध है, वह कभी ऐसी समाज-व्यवस्था की सराहना नहीं कर सकता, जिसकी नींव लोभ,स्वार्थपरता और दुर्बल मनोवृत्ति  पर खड़ी हो। ईश्वर ने तुम्हें विद्या और कला की संपत्ति दी है, तो उस का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे जन-समाज की सेवा में लगाओ, यह नहीं कि उससे जन-समाज पर हुकूमत चलाओ, उसका खून चूसो और उसे उल्लू बनाओ।

 

धन्य है वह सभ्यता, जो मालदारी और व्यक्तिगत संपत्ति का अन्त कर रही है, और जल्दी या देर से दुनिया उसका पदानुसरण अवश्य करेगी। यह सभ्यता अमुक देश की समाज-रचना अथवा धर्म-मजहब से मेल नहीं खाती या उस वातावरण के अनुकूल नहीं है-यह तर्क नितान्त असंगत है। ईसाई  मजहब का पौधा यरूशलम में उगा और सारी दुनिया उसके सौरभ से बस गई । बौद्ध-धर्म ने उत्तर भारत में जन्म ग्रहण किया और आधी दुनिया ने उसे गुरुदक्षिणा दी। मानव-स्वभाव अखिल विश्व में एक ही है। छोटी-मोटी बातों में अन्तर हो सकता है; पर मूलस्वरूप की दृष्टि से सम्पूर्ण जाति में कोई  भेद नहीं। जो शासन-विधान और समाज -व्यवस्था एक देश के लिए कल्याणकारी है, वह दूसरे देशों के लिए भी हितकारी होगी। हाँ,महाजनी सभ्यता और उसके गुर्गे अपनी शक्ति भर उसका विरोध करेंगे, उसके बारे में भ्रमजनक बातों का प्रचार करेंगे,जन-साधारण को बहकावेंगे, उनकी आँखों में धूल झोकेंगे; पर जो सत्य है एक न एक दिन उसकी विजय होगी और अवश्य होगी।

शुक्रवार, 26 जुलाई 2024

मोचीराम / धूमिल

राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे

क्षण-भर टटोला

और फिर

जैसे पतियाये हुये स्वर में

वह हँसते हुये बोला-

बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में

न कोई छोटा है

न कोई बड़ा है

मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है

जो मेरे सामने

मरम्मत के लिये खड़ा है।


और असल बात तो यह है

कि वह चाहे जो है

जैसा है,जहाँ कहीं है

आजकल

कोई आदमी जूते की नाप से

बाहर नहीं है

फिर भी मुझे ख्याल है रहता है

कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच

कहीं न कहीं एक आदमी है

जिस पर टाँके पड़ते हैं,

जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर

हथौड़े की तरह सहता है।


यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं

और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’

बतलाते हैं

सबकी अपनी-अपनी शक्ल है

अपनी-अपनी शैली है

मसलन एक जूता है:

जूता क्या है-चकतियों की थैली है

इसे एक आदमी पहनता है

जिसे चेचक ने चुग लिया है

उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है

जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे पर

कोई पतंग फँसी है

और खड़खड़ा रही है।


‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?’

मैं कहना चाहता हूँ

मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है

मैं महसूस करता हूँ-भीतर से

एक आवाज़ आती है-’कैसे आदमी हो

अपनी जाति पर थूकते हो।’

आप यकीन करें,उस समय

मैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँ

और पेशे में पड़े हुये आदमी को

बड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ।


एक जूता और है जिससे पैर को

‘नाँघकर’ एक आदमी निकलता है

सैर को

न वह अक्लमन्द है

न वक्त का पाबन्द है

उसकी आँखों में लालच है

हाथों में घड़ी है

उसे जाना कहीं नहीं है

मगर चेहरे पर

बड़ी हड़बड़ी है

वह कोई बनिया है

या बिसाती है

मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है

‘इशे बाँद्धो,उशे काट्टो,हियाँ ठोक्को,वहाँ पीट्टो

घिस्सा दो,अइशा चमकाओ,जूत्ते को ऐना बनाओ

…ओफ्फ़! बड़ी गर्मी है’

रुमाल से हवा करता है,

मौसम के नाम पर बिसूरता है

सड़क पर ‘आतियों-जातियों’ को

बानर की तरह घूरता है

गरज़ यह कि घण्टे भर खटवाता है

मगर नामा देते वक्त

साफ ‘नट’ जाता है

शरीफों को लूटते हो’ वह गुर्राता है

और कुछ सिक्के फेंककर

आगे बढ़ जाता है

अचानक चिंहुककर सड़क से उछलता है

और पटरी पर चढ़ जाता है

चोट जब पेशे पर पड़ती है

तो कहीं-न-कहीं एक चोर कील

दबी रह जाती है

जो मौका पाकर उभरती है

और अँगुली में गड़ती है।


मगर इसका मतलब यह नहीं है

कि मुझे कोई ग़लतफ़हमी है

मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूते

और पेशे के बीच

कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है

जिस पर टाँके पड़ते हैं

जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट

छाती पर

हथौड़े की तरह सहता है

और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे

अगर सही तर्क नहीं है

तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की

दलाली करके रोज़ी कमाने में

कोई फर्क नहीं है

और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी

अपने पेशे से छूटकर

भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है

सभी लोगों की तरह

भाष़ा उसे काटती है

मौसम सताता है

अब आप इस बसन्त को ही लो,

यह दिन को ताँत की तरह तानता है

पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजा़रों सुखतल्ले

धूप में, सीझने के लिये लटकाता है

सच कहता हूँ-उस समय

राँपी की मूठ को हाथ में सँभालना

मुश्किल हो जाता है

आँख कहीं जाती है

हाथ कहीं जाता है

मन किसी झुँझलाये हुये बच्चे-सा

काम पर आने से बार-बार इन्कार करता है

लगता है कि चमड़े की शराफ़त के पीछे

कोई जंगल है जो आदमी पर

पेड़ से वार करता है

और यह चौकने की नहीं,सोचने की बात है

मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है

जो असलियत और अनुभव के बीच

खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है

वह बड़ी आसानी से कह सकता है

कि यार! तू मोची नहीं ,शायर है

असल में वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी का

शिकार है

जो वह सोचता कि पेशा एक जाति है

और भाषा पर

आदमी का नहीं,किसी जाति का अधिकार है

जबकि असलियत है यह है कि आग

सबको जलाती है सच्चाई

सबसे होकर गुज़रती है

कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं

कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं

वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं

और पेट की आग से डरते हैं

जबकि मैं जानता हूँ कि ‘इन्कार से भरी हुई एक चीख़’

और ‘एक समझदार चुप’

दोनों का मतलब एक है-

भविष्य गढ़ने में ,’चुप’ और ‘चीख’

अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से

अपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं।

खिड़की - शीला राय शर्मा की कहानी की समीक्षा

शीला राय शर्मा की कहानियों का संकलन #खिड़की की पहली ही कहानी है- खिड़की। यह प्रतिनिधि कहानी भी है। कल उनकी एक कहानी #नेलपॉलिश की चर्चा करते हुए हमने इस कहानी को याद किया था।
यह कहानी अन्तरसाम्प्रदायिक सम्बन्धों पर आधारित है। इसमें कथावाचक अमरीका से भारत लौटती है। उसी के विवरणों से पता चलता है कि कॉलेज के अंतिम वर्ष में उसने ‘साहिल’ से शादी करने का निर्णय लिया था। इस निर्णय से घर भर का वातावरण बदल गया था। जब उसके पिता को पता चला तो –“न तो उन्होंने मुझे बुलाकर कुछ पूछा, न डांटा, न चिल्लाये, न ही मेरा कॉलेज जाना बंद किया, बस मुझे अपनी जिन्दगी से निकाल फेंका।” यद्यपि इस विवाह में दोनों का सम्प्रदाय यथावत रहना था पर यह सम्बन्ध घर के लोगों के लिए असहज बना तो बना रहा।
कथावाचक शादी करके अमरीका चली जाती है और वहां से सत्रह वर्ष बाद घर लौटने का निर्णय लेती है। उसका एक बेटा है। उसका नाम रॉनी है।
इन सत्रह सालों में उसकी बात कभी कभार भाई से हो जाती थी। इसी से पता चलता कि पिता नहीं रहे। भाई का विवाह हो गया। दो भतीजे हैं। इस विवरण में यह संकेत है कि वह घर की सूचनाओं से भिज्ञ है किंतु उसे मांगलिक और शोक के मौकों पर भी नहीं बुलाया जाता।

यह कहानी, यह बात बहुत जोर देकर स्थापित करती है कि उसके साथ घरवालों ने संबंध विच्छेद कर लिया है। और यह विच्छेदन घर की ओर से है। सामूहिक रूप से।

इसे जानते हुए भी कथावाचक घर लौटती है। वहां मां अकेले रह रही हैं। उसका स्वागत होता है। लेकिन इस स्वागत में एक बहिष्कार है। अस्पृश्यता है। मां उसके हाथ का बनाया हुआ कोई खाद्य/पेय नहीं लेती। अघोषित और अनकहा सविनय बहिष्कार जारी है। संभवतः म्लेच्छ हो जाने के कारण। यद्यपि यह म्लेच्छ वाला संकेत कहीं है नहीं लेकिन है यही। यह कथाकार की शक्ति समझना चाहिए। बिना उल्लेख के ही, सबकुछ जैसे कहा जा रहा है।

कथावाचक का "अपना कमरा" था। अपना कमरा कहते ही वर्जीनिया वुल्फ की इसी शीर्षक से विमर्श की पुस्तक की याद हो आती है। साहिल के साथ जाने के बाद वह कक्ष बंद कर दिया गया है। उसकी खिड़कियां टूट गई हैं। आरामकुर्सी निष्प्रयोज्य हो गई है। वह इसे पुनः सहेजती है। सब ठीक करने के लिए उपक्रम करती है।
फिर एक दिन पता चलता है कि यह सब निरर्थक है। वह घर में है पर नहीं है। उसे जीवन से निकाल फेंका गया है। उससे अस्पृश्यता का बर्ताव हो रहा है।
वह वापस लौटने का निर्णय करती है। उसने सब कुछ सहेज दिया है लेकिन जानती है कि यह सब फिर से उसी तरह हो जाएगा। उपेक्षित।

जब वह घर से जाने लगती है तो व्यवस्था करती है। अपने कमरे को देखती है। रिक्शा पर बैठने के बाद वह पलट कर देखती है। उसे अनुमान है कि पूरबवाली खिड़की बंद होगी।
"इस घर के दरवाजे तो कब से मेरे लिए बंद हो चुके थे, अब वह खिड़की भी बंद हो गई, जिससे होकर मैं जब नहीं तब चुपके से आ जाया करती थी।"
यहां यह कहानी मुक्त हो जाती है।

#खिड़की कहानी में जो बात सबसे अधिक प्रभावित करती है, वह है घर का निर्णय। घर की एकता। पिता ने निर्णय लिया तो सबने उसपर अमल किया। सामान्यतया कहानियों में कोई एक व्यक्ति पिघल जाता है और दिशा बदल जाती है। स्वीकार्यता मिलने लगती है और सरलीकरण हो जाता है, जबकि यहां एक दृढ़ता है। यह दृढ़ता मुझे श्रीमद्भागवतगीता के उस श्लोक का ध्यान कराता है जिसमें व्यक्ति, परिवार, ग्राम आदि को क्रमशः बड़े उद्देश्य के लिए त्याग देने का उपदेश है।


त्याग दिया तो त्याग दिया! बहुत निर्लिप्त तरीके से। सम्मान करते हुए। यह दृढ़ता इस कहानी का सबसे शक्तिमान पक्ष है।।कथावाचक के घर लौटने के बाद के क्रियाकलाप में किंचित अतिरंजना और अस्वाभाविकता हो सकती है लेकिन इसे मैं उपेक्षित करना चाहता हूं। उद्देश्य स्पष्ट है।

मैंने ऐसी कहानी अब तक नहीं पढ़ी। मुझे शिवप्रसाद सिंह की एक कहानी का स्मरण आता है। लेकिन उस कहानी में भी दीदी बाद में अपनी भावना प्रकट करती हैं। वहां एक सदय चित्त है लेकिन यहां समस्त तरलता होते हुए भी चित्त में शुष्कता है। यही शुष्क तत्त्व इस कहानी को विशिष्ट बनाता है।


मैं शीला राय शर्मा को बधाई देना चाहता हूं। उनके पास कहन तो अद्भुत है ही, दृष्टि भी बहुत सुविचारित, प्रखर और स्पष्ट है। कोई गिजिगिजाहट नहीं। कोई किंतु परंतु और एजेंडा नहीं। कहीं से कोई निर्देश नहीं है। व्यक्तित्व के निर्माण में अपनी जड़ और भारतीयता है। अपना संस्कार है। कहानियां पढ़कर ऐसा कहीं भी नहीं लगता कि यह लेखक का पहला संकलन है।


विद्या भवन, नई दिल्ली से प्रकाशित इस संकलन की यह सर्वश्रेष्ठ कहानी है। हाल के वर्षों में मेरे द्वारा पढ़ी हुई कहानियों में सबसे अधिक उत्तेजक और उत्कृष्ट!

गुरुवार, 25 जुलाई 2024

ए सखि पेखल एक अपरूप! : विद्यापति

ए सखि पेखल एक अपरूप!


विद्यापति के अपरूप वर्णन में ध्यान जैसे कच, कुच, कटि पर टिक गया हो। पीन पयोधर और नितंब पर वह मुग्ध हैं। राधा आश्रय हैं तो वह कृष्ण से मिलन का प्रसंग निकालते हैं। प्रथम दर्शन पाने के बाद कृष्ण व्यथित से, उद्विग्न हैं। सजनी को अच्छी तरह देख न पाया! और सजनी के उन्हीं अंग प्रत्यंग का उल्लेख है। 

इस गजगामिनी कामिनी को देख श्रीकृष्ण कहते हैं - उसके चरणों का जावक, मेरे हृदय को पावक की तरह दग्ध कर रहा है- "चरन जावक हृदय पावक, दहय सब अंग मोर।" चरणों का जावक, आलता। वह लाल रंग जिसे महावर की तरह प्रयुक्त करते हैं, को देखकर उनका अंग अंग जलता है। लाल रंग का कितना सुघड़ बिम्ब है।

और राधा! वह बायां पैर रखती हैं और दाहिना उठाती हैं तो लज्जा होती है। क्यों? रूप की राशि जैसे खनक जाती है। विद्यापति के पद पढ़कर, उन्हें प्रत्यक्ष कल्पित कर ही इस आनंद की कल्पना हो सकती है।

पहले भी कहा था हमने कि संयोग के प्रसंग में विद्यापति अति प्रगल्भ हैं। यह प्रगल्भता अंतरंग क्षणों में चुकती नहीं। राधा कृष्ण को देखकर पुलकित हो उठती हैं। इस पुलक में "चूनि चूनि भए कांचुअ फाटलि, बाहु बलआ भांगु।" वाणी कंपित हो गई है, बोली नहीं फूटती।

विद्यापति के यहां प्रेम का इतना सरस और उन्मुक्त वर्णन उन्हें घोर शृंगारी बनाता है।


कुछ दूसरे पदों की सहायता से इस शृंगारी पक्ष को और स्पष्ट करेंगे।


#6thDay 


#विद्यापति #vidyapati #मैथिल_कोकिल #प्रेम #Repost

‘नेलपॉलिश’ शीला राय शर्मा की कहानी की समीक्षा

 

एक लंबी अवधि के बाद कहानियों का कोई संकलन इतना प्रभावित कर रहा है कि इसकी प्रत्येक कहानी पर कुछ न कुछ कहने योग्य है। खिड़की संकलन में कुल 21 कहानियां हैं। प्रतिनिधि कहानी के बारे में किसी और दिन बताएंगे। आज चर्चा करेंगे, इसकी एक कहानी ‘नेलपॉलिश’ की। कहानी कथावाचक के स्वास्थ्य संबंधी विषय से उठती है और मधुमेह (डायबिटीज, लोक में प्रचलित हो गया है तो वही इसमें भी प्रयुक्त हुआ है) की सामान्य धारणाओं से आगे बढ़ती है। कथावाचक स्वास्थ्य संबंधी जांच के लिए अपनी बेटी के यहां दिल्ली आती हैं और रेलगाड़ी में बैठकर वापसी होनी है। बेटी ने बहुत सी हिदायतें दी हैं और कथावाचक इन सबसे मुक्त हो, व्यवस्था पर विश्वासी होकर और अपने पर विश्वास रखकर निश्चिंत हैं।

खिड़की : शीला राय शर्मा का कहानी सांकल, विद्या विहार नई दिल्ली से प्रकाशित

कहानी में नेलपॉलिश उत्तर पक्ष में आता है जब सामने की सीट पर बारह तेरह साल की एक युवक जैसा दिखने वाली "दुबली पतली, जींस और टी शर्ट पहने, बहुत छोटे छोटे कटे बाल, फैशनेबल टोपी और मुंह में लगातार च्यूइंगम चबाती, उद्दंड सी" लड़की, जिसे अड़तीस की संख्या का ज्ञान नहीं है, नेलपॉलिश लगाती है और लगभग लीप लेती है। उसकी हरकतों से कथावाचक खिन्न हैं। यह जानकर और खिन्न हैं कि युवक सरीखा बाना धरे हुए वह सर्वथा गैरजिम्मेदाराना व्यवहार कर रही है। लेखक लिखती हैं -"पॉलिश उसके नाखूनों और उंगलियों पर भद्दे ढंग से फैल गई। कपड़ों पर भी धब्बे लग गए, अगर मैं उससे चिढ़ी हुई न होती तो शायद बुलाकर लगा देती।" इसके कुछ समय बाद कहानी में एक घुमावदार मोड़ आता है। लड़की नेलपॉलिश छुड़ाने का प्रयास करती है। जब वह बाथरूम जाती है और युवती के पिता से संवाद होता है तो जैसे सब कुछ बदल जाता है। समय की बात, कथावाचक युवती के बाथरूम से लौटने के बाद स्वयं कहती हैं -"तुम्हारी नेलपॉलिश कहां है? लाओ मैं अच्छे से लगा दूं।" युवती भी कुछ बोलती नहीं, बस "नेलपॉलिश निकालकर मेरे पास आ बैठी और अपनी उंगलियां मेरे सामने फैला दीं।"

कहानी यहां रुक गई। कहानियां कभी पूर्ण या खत्म नहीं होती। वह वन में खो जाती हैं। यह कहानी भी जैसे इसके बाद रुक गई है और खो गई है। पाठक व्यग्रता में कहीं भटकने लगता है। शीला राय शर्मा की कहानियों का यह पहला ही संकलन है। हर कहानी जैसे पाठक को झकझोर देने वाली। कहीं भी बनावटीपन नहीं। कहीं भी पिष्टपेषण नहीं। कोई फालतू बात नहीं। काम की बातें। संवाद सधे हुए, रोचक और विवरण में वैज्ञानिकता, सहजता। अनावश्यक कुछ भी नहीं।

हम किसी दिन इस संकलन की बहुत महत्त्वपूर्ण कहानी #खिड़की पर बात करेंगे। यह कहानी मेरे देखे एक अनूठे विषय पर सबसे परिपक्व कहानी है।

#कहानी #समीक्षा #विद्या_विहार, नई दिल्ली से प्रकाशित

बुधवार, 24 जुलाई 2024

गरुड़ कौन थे?

गरुड़ कौन थे?

कश्यप ऋषि की दूसरी पत्नी विनता ने वर माँगा था कि उनकी दो संतानें हों जो उनकी बहन और सौत कद्रू के एक सहस्र संतानों से अधिक प्रभावशाली और महिमामयी हों। कश्यप ने उन्हें दो तो नहीं, अलबत्ता डेढ़ संतान का वर दिया। विनता की आधी संतान अरुण हैं जो उनकी जल्दबाजी के कारण परिपक्व अवस्था से पूर्व ही आ गए इसलिए 'दिव्यांग' रह गए। वह सूर्य के सारथि हैं।



विनता ने दूसरी संतान के लिए अप्रतिम धैर्य का परिचय दिया और अंडे से जो निकला, वह गरुड़ थे। कथा आती है कि एक बार कश्यप ऋषि को बलि देना था। उन्होंने इंद्र और अन्य देवताओं से से कहा कि वह यज्ञ के लिए लकड़ियाँ ले आयें। इन्द्र ने लकड़ियों का बड़ा गट्ठर बनाया था और बहुत मस्ती से कंधे पर लादकर ऋषि के आश्रम की ओर जा रहे थे। उन्होंने देखा कि राह में एक गड्ढा है। उस गड्ढे में कुछ हरकत हो रही थी। इंद्र कौतूहलवश रुके। उन्होंने देखा- बहुतेरे सूक्ष्म आकार के ‘बालखिल्य’ उस गड्ढे में गतिमान हैं। बालखिल्य घास का एक तिनका ढो रहे थे और गड्ढा पार करने के लिए प्रयासरत थे। इन्द्र ने अपने कंधे पर रखे गट्ठर को देखा और फिर बालखिल्यों को। उन्होंने अपने पैर के अगले भाग से गड्ढा के किनारे तक पहुँच रहे बालखिल्य समूह को बीच में धकेल दिया। बालखिल्य क्रोध और अपमान में भर कर कश्यप के पास आये और उनसे सारी घटना सुना दी। उन्होंने सत्ता के मद में चूर और अभिमानी इन्द्र का विकल्प बनाने की प्रार्थना की। कश्यप ने जब बताया कि इन्द्र को स्वयं ब्रह्मा ने पदस्थापित किया है और उसे हटाया नहीं जा सकता तो बालखिल्यों ने कहा कि हमारे ताप और आपके तप से जो संतान हो वह इन्द्र की सत्ता को चुनौती देने वाली हो। वह देवराज न हो तो पक्षिराज हो। कश्यप मान गए और इस तरह विनता की गर्भ से गरुड़ आये।

गरुड़ को अपनी माँ को दासता से भी मुक्त करना था। उन्हें कद्रू पुत्रों के लिए ‘सोम’ ले आना था जो देवताओं की निगरानी से रखा रहता था। गरुड़ ने यह सब कैसे किया? उनका आहार किस प्रकार उनके भाई ही बने? उन्होंने वेद आदि का अध्ययन कैसे किया? वह विष्णु की सवारी कैसे बने?

गरुड़ तो कथाओं के प्रस्थान बिंदु हैं।

#गरुड़ #महान_कथाएं


शनिवार, 6 जुलाई 2024

अपरुप के कवि : विद्यापति

 विद्यापति अपरूप सौंदर्य के कवि हैं। शृंगार वर्णन के क्रम में जब वह रूप वर्णन करते हैं तो उनकी दृष्टि प्रगल्भ हो उठती है। वह मांसल भोग करने लगते हैं। सौंदर्य वर्णन में वह "सुन्दरि" की अपरूप छवि के बारे में अवश्य ही बताते हैं - "सजनी, अपरूप पेखलि रामा!"

"सखि हे, अपरूप चातुरि गोरि!"

अपरूप अर्थात ऐसा रूप जो वर्णन से परे है। अपूर्व है। अवर्णनीय है। जातक ग्रंथों में अनुत्तरो शब्द आता है। सबसे परे। यह सुन्दरी राधा हैं। राधा की व्यंजना अपने अपने अनुसार हो सकती है। वह राधा के रूप को देखकर कहते हैं कि उन्हें बनाने में जैसे विधाता ने धरती के समस्त लावण्य को स्वयं मिलाया हो।


रूप वर्णन करते हुए विद्यापति अपरूप का व्यक्त करते हैं और उनकी दृष्टि #स्तनों पर टिक जाती है। कुच वर्णन में जितना उनका मन रमा है, हिंदी में ही नहीं, संभवतः किसी भी साहित्य में द्वितीयोनास्ति! जब शैशव और यौवन मिलता है तब नायिका मुकुर अर्थात आईना हाथ में लेकर, अकेले में जहां और कोई नहीं है अपना उरोज देखती है, उसे (विकसित होते) देखकर हंसती है -

"निरजन उरज हेरइ कत बेरि, बिहंसइ अपन पयोधर हेरि।

पहिलें बदरि सम पुन नवरंग, दिन दिन अनंग अगोरल अंग।"

पहले बदरि समान अर्थात बैर के आकार का। फिर नारंगी।..

वह वयःसंधि में अपने बाल संवारती और बिखेर देती है। उरोजों के उदय स्थान की लालिमा देखती है।

रूप वर्णन में #विद्यापति का मन इस अंग के वर्णन में खूब रमा है। वह पदावली में अवसर निकाल निकाल कर एक पंक्ति अवश्य जोड़ देते हैं। दूसरा, अंग जिसपर #विद्यापति की काव्य प्रतिभा प्रगल्भ है, वह #नितंब हैं।

"कटिकेर गौरव पाओल नितंब, एकक खीन अओक अबलंब।" कटि अर्थात कमर का गौरव नितम्बों ने पा लिया है। एक क्षीण हुआ है तो अन्य पर जाकर आश्रित हो गया है।

विद्यापति की यह सुन्दरि पीन पयोधर दूबरि गाता है। वह क्षण क्षण की गतिविधि को अंकित करते हैं। सौंदर्य की यही तो परिभाषा कही गई है - प्रतिक्षण नवीन होना। सौंदर्य वहीं है जहां नित नूतन व्यवहार है, रूप है, दर्शन है।


इसी के प्रभाव से जो रूप बना, वह मनसिज अर्थात कामदेव को मोहित कर लेने वाला है। मुग्धा नायिकाओं के चरित्र को विद्यापति बहुत सजल होकर अपने पदों में व्यक्त करते हैं और इसे अपरूप कहकर रहस्यात्मक और अलौकिक बना देते हैं।

विद्यापति का यह रूप वर्णन इतना मांसल है कि कालांतर में यह सभा समाज से गोपनीय रखा जाने लगा।

यह विचार करने की बात है कि जिस समय विद्यापति थे, लगभग उसी समय खजुराहो और कोणार्क के मंदिर बन रहे थे। रूप वर्णन और काम कला के अंकन में कैसी अकुंठ भावना थी। समाज कितना आगे था। फिर बाहरी आक्रमण हुए, स्त्रियों को वस्तु मानने वाले लोगों का आधिपत्य हुआ, समाज में दुराचारी और बर्बर लोगों का हस्तक्षेप हुआ, लुच्चे और लंपट आततायी लोग आए और सामाजिक ताना बाना बिखर गया। नए बंधन मिल गए। घूंघट और पर्दा की प्रथा बन गई। मुक्त समाज बचने के लिए सिकुड़ता चला गया।


विद्यापति के रूप वर्णन को मुक्त मन की स्वाभाविक अभिव्यक्ति मानना चाहिए। वह बहुत आधुनिक कवि हैं। उनसा कोई और नहीं है। बाद के कवियों ने बहुत प्रयास किया, नख शिख वर्णन में कोशिश की लेकिन वह सहजता, स्वाभाविकता नहीं आई। यह स्वाभाविकता मुक्त सामाजिक व्यवस्था से आती है, जिसकी छवि विद्यापति के यह दिखती है।

विद्यापति : अपरूप सौंदर्य के कवि 

#vidyapati #पदावली #रूप_वर्णन

#सौन्दर्य 

#अपरूप

सद्य: आलोकित!

हीरा डोम की कविता अछूत

हीरा डोम की लिखी हुई कविता अछूत की शिकायत, जो सितम्बर 1914 में ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित हुई, इस भोजपुरी कविता को हिंदी दलित-साहित्य की...

आपने जब देखा, तब की संख्या.