सोमवार, 4 जनवरी 2021

कथावार्ता : गोपालदास नीरज : कारवां गुजर गया


डॉ रमाकान्त राय

        नीरज उनका उपनाम था। वह इटावा के थे। उत्तर प्रदेश के इटावा जनपद के पुरावली नामक ग्राम में उनका जन्म 04 जनवरी, सन 1925ई० को हुआ था। यह गाँव इटावा जनपद मुख्यालय के निकट स्थित इकदिल रेलवे स्टेशन से बहुत निकट है। गोपालदास नीरज का बचपन सामान्य नहीं था। छः वर्ष की उम्र में पिता स्वर्गवासी हुए तो किसी किसी तरह हाईस्कूल पास किया। इटावा कचहरी में टाइप करना शुरू किया। सिनेमाघर की एक दुकान पर नौकरी की, सफाई विभाग में रहे, कलर्की की और इस सबके साथ प्राइवेट परीक्षाएँ पासकर एम ए उत्तीर्ण कर लिया। तब मेरठ में अध्यापक बने। वहाँ से निकाले गए तो अलीगढ़ में धर्म समाज कालेज में हिन्दी के प्राध्यापक बने। उन्होंने जब कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे 1958 में पहली बार आकाशवाणी लखनऊ से प्रस्तुत किया तो उसे सुनकर उन्हें फिल्मों में गीत लिखने का आमंत्रण मिला। नीरज ने गीत विधा में साहित्य के स्थापित प्रतिमानों को अपने तरीके से तोड़ा।

          कवि प्रदीप, गोपालदास नीरज और पण्डित नरेंद्र शर्मा हिन्दी फिल्मों की ऐसी त्रिमूर्ति थे जिन्होंने सही मायने में गीत लिखे। इससे पहले के फिल्मों वाले गीत नज्म अधिक थे। उनमें हिन्दी के शब्द कम उर्दू के शब्द अधिक थे। नीरज हिन्दी शब्दावली से युक्त गीत लेकर आए और उन्हें सुमधुर बनाए रखकर कई वहम दूर किए। एक मान्यता थी कि हिन्दी शब्दों में वह माधुर्य नहीं है, जो गीत की कोमलकान्त पदावली के अनुकूल हो। नीरज ने अपने शब्द विन्यास से इस भ्रम को तोड़ा।

          गोपालदास नीरज रोमांटिक गीत लिखकर बहुत शीघ्र ही मंचों की शान बन गए। उनके गीत बहुत जल्दी लोगों की जुबान पर चढ़ जाते थे और कंठाहार बन जाते थे। उनके गीतों का पहला संग्रह 1944 में संघर्ष नाम से आया। फिर अंतर्ध्वनि, विभावरी, प्राणगीत आदि संकलन आए। 1970, 71 और 1972 में लगातार उनके गीतों को प्रतिष्ठित फिल्म फेयर पुरस्कार के लिए नामांकन हुआ और 1970 में काल का पहिया घूमे रे भैया के लिए यह पुरस्कार मिला भी।

          नीरज का कविता के प्रति दृष्टिकोण बहुत स्पष्ट था। वह मानते थे कि कविता आत्मा के सौंदर्य का शब्द रूप है। यदि मानव जीवन मिलना अच्छे भाग्य का प्रतिफल है तो कवि होना सौभाग्य का। वह अपनी कविताओं में भारतीय परंपरा के देवताओं, ऋषियों और भक्त कवियों का अभिनन्दन करते हैं। दोहा को वह कविता रूपी वधू का वर मानते थे। यह दोहा ही है जिसने सभी भावों और विचारों को सार्थकता प्रदान की। यद्यपि आज के काव्यशास्त्रीय मान्यताओं के आलोक में यह बातें बहुत मूल्यवान नहीं जान पड़तीं तथापि इंका महत्त्व इस बात से है कि नीरज ने कविता लेखन के प्रति यही दृष्टिकोण रखा।

गोपालदास नीरज

          नीरज प्रेम की वेदना और मस्ती के कवि हैं। उनके गीतों में बाली उम्र का प्रेम बहुत परिपक्व होकर अभिव्यक्त हुआ है, वह प्रेम गलदश्रु भावुकता वाला प्रेम नहीं है बल्कि जीवन के झंझावातों से टकराकर निःसृत जीवन दर्शन वाला है। इसीलिए नीरज अपने को शृंगार के कवि नहीं दर्शन का कवि मानते थे। उन्हें शृंगार का कवि कहलाना पसंद नहीं था क्योंकि वह अपनी कविताओं में ब्रह्म को अभिव्यक्त करने का प्रयास करते रहते थे। -

          कोई कंघी न मिली जिससे सुलझ पाती वो।

          जिंदगी उलझी रही ब्रह्म के दर्शन की तरह॥

          गोपालदास नीरज के गीतों में मस्ती और रोमानी अंदाज तो है ही, उनके गीतों में अभिव्यक्त दर्शन भारतीय परंपरा से जुड़ा हुआ था। वह अपने गीतों के लिए संदर्भ भारतीय परिदृश्य से चुनते थे, इसलिए उनका एक विशेष संदर्भ बनता है। जब वह इंसान के लिए अलग मजहब की चर्चा करते हैं तो वह सामूहिकता के दर्शन के विपरीत निजी अनुभूति को प्रमुख मानते हैं। इसीलिए वह छद्म धर्मनिरपेक्षता के कटु आलोचक भी हैं- उनका यह दोहा-

          सेक्युलर होने का उन्हें, जब से चढ़ा जुनून।

          पानी लगता है उन्हें,  हर  हिन्दू का खून॥

वह बहुत साफ साफ लिखते हैं कि यह देश बहुसंस्कृतिवादी है किन्तु इस बहुलता की रक्षा का दायित्व सब पर है। अगर किसी एक समुदाय का हस्तक्षेप बढ़ता जाएगा तो यह लोकतन्त्र के खिलाफ होगा। उनका दोहा है-

          यदि यूं ही हावी रहा, इक समुदाय विशेष।

          निश्चित होगा एक दिन, खंड-खंड ये देश॥

          जीवन के उत्तर काल में गोपाल दास नीरज को राजनीतिक दलों ने खूब सम्मान दिया। समाजवादी पार्टी ने उन्हें मंत्री का दर्जा दिया। वह पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित किए गए तथा उन्हें यश भारती सम्मान भी मिला। इटावा में नीरज को लोग आत्मीयता से याद करते हैं लेकिन अकादमिक स्तर पर ठोस प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। गोपालदास नीरज हिन्दी फिल्मों में लिखे गए हिट गीतों से बहुत लंबे समय तक याद किए जाते रहेंगे। 19 जुलाई, 2018 को उनका निधन हुआ।

         

          जन्मदिन पर प्रस्तुत है उनके दो प्रसिद्ध गीत-

 

1.     कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे

स्वप्न झरे फूल से
मीत चुभे शूल से
लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से

और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पांव जब तलक उठें कि ज़िंदगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई
गीत अश्क बन गए
छंद हो दफन गए
साथ के सभी दिए धुआं-धुआं पहन गए
और हम झुके-झुके
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
क्या शाबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा
इस तरफ़ ज़मीन और आसमां उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहां
ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे
वक़्त से पिटे-पिटे

सांस की शराब का खुमार देखते रहे,
कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चांद की संवार दूं
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूं
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूं
और सांस यों कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूं
हो सका न कुछ मगर
शाम बन गई सहर
वह उठी लहर कि दह गए किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे
नीर नयन में भरे
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
मांग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमुक उठे चरन-चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन
गांव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन
पर तभी ज़हर भरी
गाज एक वह गिरी
पोंछ गया सिंदूर तार-तार हुईं चूनरी
और हम अजान-से
दूर के मकान से

पालकी लिए हुए कहार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

 

2.    जलाओ दिए

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,

उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,

लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,

निशा की गली में तिमिर राह भूले,

खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,

ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

 

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,

कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,

मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,

कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,

चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,

भले ही दिवाली यहाँ रोज आए

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

 

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,

नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,

उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,

नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,

कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,

स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

 

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उ०प्र०, २०६००१

9838952426, royramakantrk@gmail.com

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

कथावार्ता : क्रिसमस डायरी


-डॉ रमाकान्त राय

(फेसबुक पर हर वर्ष क्रिसमस पर कुछ न कुछ लिखता रहा हूँ। इस साल उन सबको एकसाथ रखकर देखने का यह प्रयास है। इस वर्ष हमने बाइबिल खरीदी। कुछ हिस्से पढ़े। बहुत सा अपठित रह गया है। बीते वर्षों में फेसबुक पर किए गए यह पोस्ट एक डायरी की तरह लगे। इन्हें एकत्र करने का यह प्रयास है।)


25 दिसम्बर2020         

           पुरुष बली नहीं होत है, समय होत बलवान।

          भीलन लूटी गोपिका, वही अर्जुन वही बान॥

          महाभारत के उत्तर पक्ष में जब श्रीकृष्ण को प्रभास तीर्थ जाना हुआ तो उन्होंने अर्जुन को बुलाया और राज्य के युवतियों, राजकुमारियों और रानियों की सुरक्षा का भार सौंप दिया। अर्जुन उन्हें लेकर हस्तिनापुर लौट रहे थे। राह में भीलों ने उन्हें लूट लिया। गांडीव और दिव्यास्त्रों से लैस, महापराक्रमी अर्जुन असहाय रह गए। तब यह स्थापना बनी कि समय बहुत बलवान होता है।

          अंग्रेज़ यूरोप के देशों में सबसे शक्तिशाली थे। रोम के पोप ने ईसाई धर्म के प्रचार के लिए जब यूरोपीय लोगों को प्रवृत्त किया तो उसमें से फ्रांस, हॉलैंड, पुर्तगाल और ब्रिटेन सबसे बड़े अभियान कर्ता बनकर निकले। व्यापार के बहाने इन्होंने बाइबिल का संदेश और नस्लीय श्रेष्ठता का भाव दुनिया भर में फैलाया और सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक लूट मचाई। ब्रिटेन का प्रभाव तो दुनिया में ऐसा बना कि यह कहावत बन गयी कि इस देश का सूरज कभी नहीं डूबता। लेकिन समय की बात!

          दुनिया के एक बड़े हिस्से में राज कर चुके, अपनी सांस्कृतिक सत्ता स्थापित कर चुके ब्रिटेन को इस क्रिसमस और नव वर्ष पर अलग-थलग पड़ जाना पड़ा है। क्रिसमस के आगमन तक यूरोपीय यह सोच रहे थे कि वह लोग फिर से अपने त्योहार उल्लासपूर्वक मना सकेंगे । लेकिन कोरोना की नयी लहर ने उसे दुनिया से काट दिया है। जब समूची दुनिया में क्रिसमस और नए वर्ष की धूम है, ब्रिटेन आने-जाने वाली उड़ानें रद्द हैं, फ्रांस आदि देशों ने आवश्यक सेवाओं की आपूर्ति रोक दी है। कौन जानता था कि ईरान, इराक, कोरिया, भारत आदि देशों पर बात-बात में प्रतिबंध की घोषणा करने वाले इन देशों को ऐसे समय में अलग-थलग पड़ जाना पड़ेगा।

          आगामी गणतन्त्र दिवस पर हम ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री श्री बोरिस जॉन्सन को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित कर रहे हैं। यह हमारी सहिष्णुता और उदारता का तथा विशाल हृदय का परिचायक है कि हम अपने गणतन्त्र के उत्सव के दिन उनके प्रमुख को आमंत्रित कर रहे हैं।

          क्रिसमस पर एक चुहल भरा वाक्य पढ़ने को मिला- यह मुझे अच्छा लगा—“मेरी क्रिसमस में तू नहीं शायद!” और

          यह संवाद भी- -“मेरी क्रिसमस!”

                             -“आई एम आलरेडी मैरिड!”

कथावार्ता : हुसैन की कलाकृति

           

25 दिसम्बर, 2019

          कल रात को सान्ता नहीं आया था। लेकिन मैंने उम्मीद नहीं छोड़ी है। वह जरूर आएगा।

          दुनिया के सबसे वैज्ञानिक धर्म की मान्यता झूठी नहीं हो सकती।

 

25 दिसम्बर, 2018


कथावार्ता : क्रिसमस इव पर विशेष


25 दिसम्बर, 2016

          मुझसे क्रिसमस और सांता के उपहार आदि को लेकर बधाई देते नहीं बन रहा। कल पूर्व संध्या पर जैसे ही समाचार सुना कि कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के साथ ठगबंधन कर लिया है और महज 80 सीटों पर चुनाव लड़ेगी तब मुझे मेरे बड़े भैया का ख्याल आया। वह अपने बहुत करीबी डॉ अरविन्द किशोर राय को लेकर बहुत उत्साहित थे। अरविन्द किशोर जी हमारे क्षेत्र में कई बार आ चुके थे और कांग्रेस से उम्मीदवारी को लेकर बहुत आश्वस्त थे। मुझे मेरे सहपाठी दोस्त का ख्याल भी आया।

          खैर, यह गठबंधन हो गया है और समाजवादी पार्टी 301 सीट पर चुनाव लड़ेगी। काश यह आंकड़ा 302 का होता या 303 का तो हम कुछ चुहलबाजी भी कर लेते। कांग्रेस 80 सीट पर। कांग्रेस के लिए यह शर्मसार करने वाला आंकड़ा होना चाहिए लेकिन जैसा कि तय हो गया है कि वह अपनी जगह खोज रही है कि कहीं तो बैठने को मिले!!

          इस गठबंधन से एक चीज और स्पष्ट हुई है कि इस समय राजनीति में गुंडई और भ्रष्टाचार का मेल ही सच है। हमारा उत्तर प्रदेश अभी भी जातिवादी राजनीति और जोड़तोड़ में लिथड़ा रहेगा।       

          क्रिसमस पर झींगुर बेल झींगुर बेल की कर्णप्रिय ध्वनि के साथ आइये उत्तरप्रदेश के लिए प्रार्थना करें।


25 दिसम्बर, 2015

          रात को हम जल्दी सुत गये थे। निधड़क सुते। मीठा और पवित्र सपना देखने के लिए कौनो वर्जना भी नहीं रखे। मस्त आदिम नियन सुते। कुण्डी भी नहीं लगाया। सान्ता को सुविधा थी कि वह 'कुण्डी मत खड़काओ राजा, सीधा अंदर आओ राजा' की तरह ढुके और मेरी क्रिसमस के दिन के लिए ढेर सारा उपहार रख दे। सांता न आये तो कोई दोसरा ही आ जाए।

          लेकिन हाय रे मेरी किस्मत! एक चूहा तकले नहीं आया। एगो कुक्कुर बिलार तक नहीं आया। कौनो उपहार नहीं दिखा।

          मेरी क्रिसमस पर 'अच्छे दिन' का ख्वाब पाले हुए हेतना दिन चढ़ आया लेकिन सब निरासाजनक है। एक भी खुसी का समाचार नहीं है। आज चर्च जाने का सोचा हूँ। सायद, उहाँ कुछ नीमन चीज मिल जाय।

          मैं ईद बकरीद नहीं मनाता, होली दीवाली की खूब आलोचना करता हूँ, लेकिन बड़ा दिन आने को हो तो खूब तैयार रहता हूँ।

मैं जानता हूँ कि आपके मन में यह बात है कि सबसे अधिका असहिष्णु तो ईसाई ही हैं लेकिन आप उनकी तरफ बात नहीं करते। उनके पास बहुत पैसा है न। उ सब साइलेंटली धर्म परिवर्तन करवाते हैं और अपना सब साइलेंटली ही करते हैं।

          बड़ा दिन वाले छोटा दिलवाले होते हैं। ऊ सब मेरी क्रिसमस मनाते हैं।

          हम तेरी क्रिसमस भी कहते हैं। बड़ा दिन अच्छा दिन में कन्वर्ट हो जाय। सब हिन्दू लोग क्रिश्चियन में कन्वर्ट हो जाय।

          सब सुखी रहें। सब मस्त रहें।

 

कथावार्ता : हुसैन की कलाकृति

25 दिसम्बर, 2014

          आज एक मॉल के बगल से गुज़रा तो एक सांता को मॉल के गेट पर उल जलूल हरकत करते पाया। वह राह चलते लोगों को अपनी तरफ आकर्षित कर रहा था और मॉल में आने के लिए अनुनय विनय कर रहा था। आज के दिनभर के लिए उसे दो-तीन सौ रुपये मिले होंगे।

          सांता इन धनकुबेरों का गुलाम है। ईसा का मजहब भी अछूता नहीं। यह मसीही समुदाय जो करूणा को इतना महत्त्व देता है, वह भी कुबेर की कृपा से ही।

          असम में हुई नृशंस हत्याओं पर कोई सांता दुखी मिला क्या? पोप?

          जाने दीजिये।

          आज का दिन बहुत शानदार रहा। विविधता भरा। समृद्ध।

 

25 दिसम्बर, 2013

          कायदे से सांता क्लाज को क्रिसमस इव को मुजफ्फरनगर के राहत शिविर में पहुँचना चाहिए था। आज भी चाहे तो वह भूल सुधार कर सकता है। लेकिन सुना है कि सभी धर्मों में मिथकीय देवता सिर्फ उन्हीं धर्म के मतानुयायियों के पास पहुँचते हैं। मुजफ्फरनगर के राहत शिविर में तो कोई ईसाई नहीं होगा। राहत शिविरों में रह रहे लोगों को भी धर्म खाँचे में रखता है।

          भारत में ईसाई सबसे कम हैं। कायदे से अल्पसंख्यक वही हैं। लेकिन क्रिसमस की धूम, हर तरफ बधाइयाँ, मानवता का सन्देश और अनेकों चोंचले चिल्ला चिल्ला कर कह रहे हैं कि यह सब कुछ आर्थिक आधार से तय होता है। अगर ईसा के धर्म को मानने वाले दुनिया में इस कदर संपन्न न होते और उनका दबदबा समूचे विश्व में न होता तो क्रिसमस भी बस यूँ ही आता और जाता।

          बीएसएनएल आज इतना उत्साहित है कि सभी टैरिफ स्थगित कर दिया है और सन्देश भेजने पर फुल चार्ज कर रहा है। फोन करके बधाई दूँगा या मैसेज भेजूँगा तो आज 'मेरी क्रिसमस' की जगह 'तेरी क्रिसमस' हो जायेगा।

          रहना नहीं देस बिराना है....


25 दिसम्बर, 2012

          और यह भी कि जितने समृद्ध लोगों का त्यौहार उतना ज्यादा वैभव का प्रदर्शन।

          क्रिसमस भी कोई अपवाद नहीं है।

          मेरी क्रिसमस - तेरी भी क्रिसमस! हैप्पी क्रिसमस!!


असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय

इटावा, उ०प्र०

9838952426, royramakantrk@gmail.com


बुधवार, 16 दिसंबर 2020

कथावार्ता : 'आम आदमी' और आधुनिक हिन्दी साहित्य

                                                   -डॉ रमाकान्त राय

अरविन्द केजरीवाल की पार्टी ‘आम आदमी पार्टी’ के दिल्ली में सत्ता सँभालने से एक नए युग का सूत्रपात माना गया। इसी के साथ यह बहस भी शुरू हुई कि आम आदमी से उनका आशय क्या है? जब उनकी पार्टी में पी साईनाथ, मल्लिका साराभाई और इसी तरह की गणमान्य हस्तियाँ शामिल होने लगीं तो आम बनाम ख़ास का मुद्दा उठा। आखिर आम आदमी कौन है? रोजमर्रा का जीवन बहुत साधारण तरीके से रोजी-रोटी के चक्कर में उलझने वाला, भविष्य के लिए दो पैसे बचाकर रखने की चाहत में अपनी सुख-सुविधाओं में क़तर-ब्योंत करने वाला या हवाई जहाज के ऊँचे दर्जे में सफ़र करने वाला और पाँच सितारा होटल में ठहरने वाला? अपने एक साक्षात्कार में अरविन्द केजरीवाल ने चौतरफा आलोचनाओं के बाद स्थापना दी कि हर वह आदमी आम आदमी है, जो अपना काम ईमानदारी से करता है। भ्रष्टाचार नहीं करता।उनकी इस बात ने इस बहस को एक नया रूप दिया। अरविन्द केजरीवाल की इस स्थापना के बाद मैंने खुद को आम आदमी के खाँचे से बाहर पाया।

आम आदमी कौन है? प्रेमचंद के बहुत प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’ का होरी क्या आम आदमी है? गोदान का होरी भी आम आदमी नहीं है। वह अपना जीवन संघर्षों में व्यतीत करता है और किसान से मजदूर जीवन की त्रासदी सहते हुए मर जाता है। क्या होरी का साठ साला जीवन ईमानदार जीवन था? उपन्यास में एक प्रसंग आता है जब होरी बाँस बेचता है। बाँस बेचने के उस प्रसंग में होरी अपने भाई से छल करता है। यद्यपि इस छल में वही छला जाता है। बाँस बेचने वाला होरी को ब्लैकमेल कर लेता है। प्रेमचंद ने एक प्रसंग में यह बात भी उठाई है कि जब होरी के हाथ कुछ अतिरिक्त पैसे लगे थे तो उसने उन्हें सूद पर चलाया था। उस व्यापार में भी उसे घाटा हुआ था। होरी अपने साथी से छल से गाय खरीदता है। कहने का आशय यह है कि वह अपने जीवन में तथाकथित ईमानदारी का कितना निर्वाह करता है? अगर केजरीवाल के परिभाषा में रखें तो वह ईमानदार नहीं है। धनिया हो सकती है। परिवार का मुखिया नहीं होगा। मेहता हो सकते हैं। पूरे उपन्यास में मेहता के विषय में यह कहा जा सकता है कि वह आम आदमी हो सकता है। प्रेम और विवाह के विषय में उसकी विचारधारा भी खाप पंचायतों की विचारधारा से मेल खाती है। योगेन्द्र यादव ने बीते दिन खाप पंचायतों की कार्यशैली को उचित ठहराया था। गोदान में आम आदमी के रूप में मेहता को चिह्नित किया जा सकता है। राय साहब तो क्या होंगे। वे गाय की खाल में भेड़िया हैं।

गोदान के बाद अगर ग्रामीण जीवन पर केन्द्रित एक अन्य महत्त्वपूर्ण उपन्यास मैला आँचलकी बात करें तो लगेगा कि वहाँ एक आम आदमी है। बावनदास। बावनदास में सत्य और आचरण की शुद्धता को लेकर कुछ तफसील हैं। बावनदास आचरण की पवित्रता के लिए उपवास और आज के केजरीवाल की तरह धरना आदि का आश्रय लेता है। रेणु ने ‘मैला आँचल’ लिखते हुए बावनदास का जो चरित्र गढ़ा है वह विलक्षण है। वह चेथरिया पीर पर शहीद हो जाता है। भ्रष्टाचार रोकने की कवायद में जान दे देता है। क्या आम आदमी वही है? समूचे उपन्यास में और कौन पात्र होगा जो आम आदमी कहा जा सके? उपन्यास में प्रशान्त एक जगह ममता को चिट्ठी लिखता है। चिट्ठी में वह लिखता है कि यहाँ के लोग देखने में सीधे हैं। लेकिन साथ ही यह भी उद्घाटित करता है कि मेरे तुम्हारे जैसे लोगों को दिन में दस बार ठग लें। और तारीफ़ यह कि ठगा जाकर भी हम ठगा नहीं महसूस करेंगे। मेरीगंज के लोग भी, जो ऐसा करते हैं, वे आम आदमी कैसे होंगे। तहसीलदार तो कतई नहीं। उन्होंने तो गाँववालों और आदिवासियों की जमीनें हड़प ली हैं।

श्रीलाल शुक्ल के ‘रागदरबारी’ में आम आदमी के खाँचे में आने वाला एक सज्जन है- लंगड़दास। लंगड़दास का जितना भी प्रसंग आता हैउसमें वह कचहरी का चक्कर लगाता मिलता है। चक्कर लगाने के जो कारण हैंवे बहुत सटीक हैं। वह ईमानदारी से नक़ल पाना चाहता है और कचहरी का बाबू बिना पैसे लिए नक़ल देने को तैयार नहीं है। यह द्वंद्व बहुत दिलचस्प हो गया है। बाबू को पता है कि कैसे लंगड़दास को नक़ल मिलेगी। लंगड़ को भी पता है कि ईमानदारीपूर्वक उसे नक़ल नहीं मिलेगी। लेकिन उसका संघर्ष जारी है। हमारे लिए यह संघर्ष इस तरह हो गया है कि हास्यास्पद सा लगने लगता है। व्यवस्था ऐसी है कि आम आदमी का संघर्ष हास्यास्पद हो उठता है। आप देखेंगे कि लोग-बाग़ नक़ल के लिए लंगड़ से महज इस लिए पूछते हैं कि थोड़ा मजा आ जायेगा। लंगड़ की संजीदगी देखने लायक है। क्या आम आदमी इतना निरीह आदमी हैउपन्यास में शिवपालगंज के मेले का जिक्र है। एक बारगी यह मानने का मन करता है कि मेले में मिठाई की दुकान चलाने वाला आम आदमी होगा। लेकिन छोटे पहलवान और गंजहों से उलझने के बाद जब कोर्ट-कचहरी तक जाने का मामला आता हैवह सुलह करने को तैयार हो जाता है। लेकिन वह आम आदमी कैसे हो सकता हैश्रीलाल शुक्ल ने मेले की मिठाइयों का जो वर्णन किया है वह पढ़कर पहली नजर में ही लगता है कि ये मिठाइयाँ जानलेवा ही हैं। ऐसी मिठाई बेचने वाला आम आदमी कैसे होगाक्या रंगनाथ हैरंगनाथ में आम आदमी बनने की पूरी संभावना है। वह बन सकता है। शायद वही आम आदमी है भी।

हिन्दी के उपन्यासों में आम आदमी कहीं है तो आदर्शवादी किस्म के उपन्यासों में। ठीक ठीक यह बताना बहुत कठिन है कि यह कहाँ मिलेगा। प्रेमचंद के कर्मभूमि में प्रेमशंकर के रूप में अथवा रंगभूमि के सूरदास में। यशपाल के महाकाव्यात्मक उपन्यास झूठा-सच’ में भी कोई ऐसा पात्र नहीं है जिसे कहा जाए कि वह आम आदमी है। राही मासूम रजा के उपन्यास आधा गाँव’ में तो कोई है ही नहीं। छिकुरियाकोमिलामिगदाद जैसे हो सकते थे लेकिन उनका चरित्र ज्यादा उभारा ही नहीं गया। टोपी शुक्ला’ का बलभद्र नारायण शुक्ला उर्फ़ टोपी आम आदमी बन सकता था लेकिन उसकी असंख्य न्यूनतायें हैं।

हिन्दी उपन्यास में आम आदमी है? (जनसंदेश टाइम्स में 02 फरवरी, 2014 को प्रकाशित)

दरअसल ईमानदारी एक यूटोपिक अवधारणा है। यह कुटिलता से स्थापित की जाती है। इसे स्थापित करने के अपने कैनन हैं। जब अरविन्द केजरीवाल यह कह रहे होते हैं तो वे बहुत सतही किस्म की बात कर रहे होते हैं। अपना काम ईमानदारी से कौन कर रहा हैक्या केजरीवाल ने कियाजब वे सरकारी सेवा में थे तो अपना काम ईमानदारी से कर रहे थेउन्होंने सरकारी कार्यों का अगर सही से निर्वहन किया होता तो वे सरकारी सेवक होतेन कि एक राजनेता।

मुझे हमेशा से लगता रहा है कि ईमानदारीसत्यनिष्ठा और अपरिग्रह आदि व्यवस्था का पोषण करने के लिए बनाये गए टूल्स हैं। प्राचीन समय में व्यवस्था को बनाए रखने के लिए इन टूल्स की बहुत आवश्यकता थी। इन टूल्स की मदद से राजा और उनके पुरोहितों ने एक संस्कृति विकसित की। इस संस्कृति में वे हमेशा राजा और पुरोहित बने रहने वाले थे और स्वयं इस नीति-नियम से ऊपर रहने वाले थे। ऐसा ही हुआ। दुनिया भर में यह तकनीक सबसे ज्यादा कारगर रही और दुनिया भर में इसे अपनाया भी गया।

लेकिन यहाँ इन बहसों के लिए अवकाश नहीं है। यहाँ यह देखना है कि केजरीवाल ने जो परिभाषा दी हैउस परिभाषा की कितनी चीर-फाड़ की जाती है। दरअसल नैतिकता के मामलों में हम बिना किसी तर्क के वाक-ओवर दे देते हैं। यह वाक-ओवर ही केजरीवाल की जीत और बढ़त का राज है। वरना हम सब जानते हैं कि आम आदमी का कहीं अता-पता नहीं है। सब गुणा-गणित का फेर है।

('साहित्य में आम आदमी' विषय पर समन्वय संगत ने विश्व पुस्तक मेले में संगोष्ठी की।)


असिस्टेंट प्रोफेसर
हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय

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रविवार, 13 दिसंबर 2020

कथावार्ता : उदारीकरण की संस्कृति

- डॉ रमाकान्त राय

कहते हैं, बीस वर्षों में एक पीढ़ी बनकर तैयार हो जाती है। आजादी के बीस बरस बाद जो पीढ़ी सामने आई थी, उसमें देश की दशा-दिशा को लेकर गहरी निराशा की भावना थी। रघुवीर सहाय एक कविता आत्महत्या के विरूद्धमें लिखते हैं- दोनों, बाप मिस्तरी और बीस बरस का नरेन/ दोनों पहले से जानते हैं पेंच की मरी हुई चूड़ियाँ/ नेहरु युग के औजारों को मुसद्दीलाल की सबसे बड़ी देन।” मिस्तरी के लिए मरी हुई चूड़ियाँ बहुत मानीखेज बात है। आत्महत्या के विरूद्ध संग्रह सन १९६७ ई० में छपा था। उस कविता ने नेहरु युग की तमाम उपलब्धियों को मरी हुई चूड़ियों में व्यक्त कर दिया है। न सिर्फ रघुवीर सहाय, अपितु सत्तर के दशक के अधिकांश रचनाकारों के यहाँ आजादी के बीस साल बाद की हताशा मुखर होकर दिखाई पड़ती है। राजकमल चौधरी के यहाँ इसे गहरी अनास्था और विचलन में देखा जा सकता है। राही मासूम रज़ा के बहुत प्रसिद्ध उपन्यास आधा गाँवमें यद्यपि आजादी के बाद के बीस साल की कोई कहानी नहीं है लेकिन लगभग इसी अवधि में लिखी गई इस रचना में जिस तरह की गालियाँ मिलती हैं, लोगों का एक बड़ा समूह अपने समय से बहुत क्षुब्ध दिखाई पड़ता है, वह ध्यान दिए जाने लायक है। यह हमेशा ध्यान देने की बात है कि राही मासूम रज़ा के इस बहुत प्रसिद्ध उपन्यास के वही पात्र गालियाँ देते दिखाई पड़ते हैं, जो अपने माहौल से बहुत असंतुष्ट हैं अथवा विक्षिप्ततावस्था की ओर उन्मुख हैं। फुन्नन मियाँ की गालियाँ इसलिए और भी ऊँची आवाज प्राप्त कर लेती हैं कि उनके बेटे मुम्ताज को शहीदों की सूची में नहीं रखा गया है। उसे उल्लेखनीय नहीं समझा गया है जबकि वह थाना फूंकने वाले लोगों के समूह में सबसे अगली कतार में था। बहरहाल, यह कहना है कि यह अनास्था हमें ‘राग दरबारी’ और उस दौर के कई मशहूर उपन्यासों में देखने को मिल सकती है। यह भी देख सकते हैं कि उस दौर के साहित्य में गाली, एब्सर्डनेस और गहन यथार्थवादी तस्वीरें देखने को मिलती हैं।
यहाँ यह कहना है कि आजादी के बीस वर्षों के बाद जिस तरह की अभिव्यक्ति देखने में आई थी, क्या हम कह सकते हैं कि उदारीकरण के बीस साल बीत जाने के बाद हमारे समाज में उसका असर देखने में आ रहा है? देश में उदारीकरण की विधिवत शुरुआत १९९१ से मानी जाती है। तब से अब तक दो दशक से अधिक लम्हा गुजर गया है और पीढी के बदलाव को बखूबी देखा जा सकता है।

उदारीकरण की संस्कृति (जनसंदेश टाइम्स में 17 फरवरी, 2014 को प्रकाशित)

यह बात इन दिनों अक्सर परिलक्षित की जा रही है कि एक कमरे में अगर आठ लोग बैठे हों, वह भी एक ही परिवार के या एक समूह के तो ऐसा संभव है कि वे सभी अपने अपने आप में अथवा फोन या नेट सर्फिंग में व्यस्त देखे जा सकते हैं। इन दिनों सोशल मीडिया और मल्टीपरपज मोबाइल फोन ने हमें अपने घर में ही अजनबी बना दिया है। आप देखेंगे कि इधर की फिल्मों और कथा-कहानियों में एकाकीपन का चित्रण बढ़ा है। संयुक्त परिवार गायब हो गए हैं। सही अर्थों में अजनबीपन की स्थिति बनी है। हम घोर अनास्था और मूल्यहीनता की विद्रूपता में फँस गए हैं। हमने एक खिचड़ी संस्कृति विकसित कर ली है। यह भी कि उदारीकरण के बाद जन्मी और पली-बढ़ी पीढ़ी ने इस खिचड़ी और अधकचरी संस्कृति को अजीबो-गरीब संकीर्णता और दकियानूसी भाव की तरह अपनाया है। आप भीतर-बाहर कहीं भी यह देख सकते हैं। आज का युवा किसी अजनबी अथवा परिचित से कैसे संबोधन में वार्तालाप शुरू कर रहा है। हम अंग्रेजी के सरको किसी के संबोधन में जब इस्तेमाल करते हैं, तो उतने भर को पर्याप्त नहीं मानते। सरजीकहकर उसमें नई छौंक लगाते हैं। अंकलशब्द तो इतना चलन में है कि हर एक अजनबी, जो थोड़ा पारंपरिक है, अंकल है। आप अगर सामान्य भेष-भूषा में हैं तो संभव है कि आपकी उमर से भी बड़ा अथवा आपसे बराबर का कोई युवा आपको अंकल कहकर संबोधित करे। दिल्ली विश्वविद्यालय के कैम्पस में यह बात आम चलन में है कि वहाँ सलवार सूट पहने लड़कियों को ‘दीदी’ कहकर सम्बोधित किया जाता है। ऐसा नहीं है कि इस संबोधन में घरेलू भावना और प्यार, स्नेह, सम्मान रहा करता है। इसमें रहती है उपेक्षा। यह हीनता बोध कराने के लिए किया गया संबोधन होता है। ‘भईया जी’ का संबोधन भी इसकी एक बानगी है। वास्तव में यह प्रवृत्ति एक बेहद हिंसक स्वरुप का परिचायक है। यह कहा जा सकता है कि उदारीकरण के नून-तेल से पालित-पोषित आज की ‘यो यो पीढ़ी’ इस कदर निर्मम है कि वह अनायास ही मानसिक रूप से प्रताड़ित करती है। इस मानसिक प्रताड़ना का असर यह होता है कि निम्न मध्यवर्ग और निम्न वर्ग के परिवारों के बच्चे या तो अंधी दौड़ में शामिल हो जाते हैं अथवा हीनभावना से ग्रस्त। इसका समावेशी विकास पर गहरा असर पड़ता है।
मैं जब इसे अधकचरी या संस्कृति का घालमेल कहता हूँ तो इसमें यह भावना अन्तर्निहित होती है कि जब हम किसी को अंकल (ध्यान रहे कि चाचा, मामा, फूफा, मौसा आदि नहीं कहते), भईया या दीदी कहते हैं तो हम परिवार के उन मूल्यों को दरकिनार किये रहते हैं, जिनके होने से यह शब्द बहुत आदरपूर्ण बन जाया करते थे। हम उदारीकरण के बाद आये इस बदलाव को इस तरह भी देख सकते हैं कि हमने अंग्रेजी के सरको लिया तो लेकिन अपने परिवेश में उसे आत्मसात नहीं कर पाए। हम आगंतुक का सम्मान करने को बाध्य होते हैं। यह उस सहज स्वतः स्फूर्त भावना से नहीं आता जिस सहज स्फूर्त भावना से हमारे पारिवारिक रिश्ते के संबोधन आया करते थे। अब परिवारों में से चाचा, मामा, फूफा या मौसा जैसे संबोधन भी धीरे धीरे गायब होते जा रहे हैं और यह गायब होना एकल परिवार के साथ साथ हमारे संबंधो में आ रहे आइसोलेशन को भी प्रकट करता है।
इधर के साहित्य में इस तरह की अजनबीयत पहली बार प्रामाणिक तरीके से व्यक्त होकर आ रही है। हम यह नहीं कह सकते कि इससे पहले भी नई कहानी और समानान्तर कहानी के कहानीकारों के यहाँ अजनबीयत का यह रूप अंकित हो चुका है। कमलेश्वर की एक कहानी दिल्ली में एक मौतको रखकर हम कह सकते हैं कि अकेलापन और अजनबीपन तो इसमें भी आया था। आया था लेकिन मैं यहाँ कहना चाहूँगा कि कमलेश्वर, मोहन राकेश, रमेश बक्षी, मनोहर श्याम जोशी और इसी तरह के अन्य प्रसिद्ध कहानीकारों के यहाँ जो अजनबीपन व्यक्त हुआ है वह पश्चिम की नक़ल है और आयातित है। असली समय भारत में तो अब आया है। ठीक से अकेलेपन और अनास्था को अब महसूस किया जा सकता है। समाज में भी, साहित्य और फिल्म में भी। आप देखेंगे कि इस दौर की कोई भी फिल्म या कथा साहित्य की कोई भी कृति संयुक्त परिवार, सामाजिक नायक अथवा आस्थायुक्त व्यक्ति को केन्द्र में नहीं लेकर चलती। जिनके यहाँ परिवार है, वह विघटन के बाद अपने में सिमट गया परिवार है। मैं यहाँ अपने समय के एक वरिष्ठ कहानीकार एस आर हरनोट की कहानी लोहे का बैलअथवा बिल्लियाँ बतियाती हैंसे सन्दर्भ देकर कहूँ तो कह सकता हूँ कि उनके यहाँ परिवार है तो लेकिन उनमें जो अकेलापन है वह बहुत ह्रदय विदारक है। बिल्लियाँ बतियाती हैंमें बेटा माँ की मदद करने की बजाय उससे ही मदद मांगने आया है। उस पूरे परिवेश में बेटे की चुप्पी और रिश्तों में आया ठहराव देखते बनता है। बीते दिन लंच बॉक्सनामक एक फिल्म देखने को मिली। फिल्म में जिस एक बात ने मेरा ध्यान खींचा, वह थी कि पति के मरने के बाद विधवा का यह कहना कि आज बहुत तेज भूख महसूस हो रही है। हम एक नजरिये से यह कह सकते हैं कि यह तो अपने अस्तित्व को पहचानने का क्षण है, जब एक विधवा लम्बे त्रासदपूर्ण जीवन के बात स्वयं को केन्द्र में रख रही है। लेकिन कुल मिलाकर यह एक एब्सर्ड बात है। हमने उदारीकरण के बाद इसे भी अपने जीवन में समो लिया है और इसे जस्टिफाई भी कर रहे हैं। यह स्त्री, दलित और हाशिये पर पड़े लोगों के लिहाज से तो बेहतरी का संकेत है लेकिन यह भी कहना है कि यह उदारीकरण की देन है।
उदारीकरण ने हमें कई अच्छी अवधारणा दी है। हमने हाशिये के लोगों को पहचानना शुरू कर दिया है लेकिन साथ ही इसने हममें वह अनास्था और अजनबीपन को भी दिया है, जिसके होने ने हमारा जीवन बहुत दूभर कर दिया है। हम आज उदारीकरण और भूमंडलीकरण के व्यूह में फँस गए हैं। छटपटा रहे हैं।

 

-असिस्टेंट प्रोफेसरहिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालयइटावा

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