लंबे समय तक लोग यही मानते रहे हैं कि विद्यापति बंगला भाषा के कवि थे। गौड़ीय संप्रदाय के चैतन्य महाप्रभु के बारे में कहा जाता है कि वह विद्यापति के गीत गाते गाते विशेष मनःस्थिति में चले जाते थे, सुध बुध खो देने वाली स्थिति।
ओड़िया के प्रसिद्ध कवि हुए हैं चंडीदास! चंडीदास ने राधा और कृष्ण को आश्रय बनाकर कविताएं की हैं। उनकी कविता में विरह का पक्ष इतना प्रधान है कि राधा संयोग के क्षण में भी इस चिंता में रहती हैं कि कृष्ण चले जायेंगे। सूरदास का नाम कृष्ण भक्त कवियों में आदर और श्रद्धा से लिया ही जाता है। उनके यहां भक्ति और प्रेम की सीमारेखा ही मिट गई है। चंडीदास, सूरदास और विद्यापति की तिकड़ी में विद्यापति सबसे उज्ज्वल पक्ष हैं।
उज्ज्वलनीलमणि के रचनाकार रूप गोस्वामी ने शृंगार को उज्ज्वल रस कहा है कि यह जीवन का सबसे ललित और उज्ज्वल पक्ष लाता है। समर्पण और प्रेम का शिखर शृंगार में है। ऐसे में विद्यापति के काव्य के उज्ज्वल पक्ष को रेखांकित करने का संदर्भ लेना चाहिए।
जॉर्ज ग्रियर्सन ने इस मान्यता को स्थायित्व प्रदान किया कि विद्यापति मिथिला के थे और उनकी पदावली मैथिली में है। हालांकि ग्रियर्सन को इसका श्रेय भी है कि उसने विद्यापति के परिवार वालों के उत्तराधिकार के अधिकार को विलोपित कर दिया था।
विद्यापति का जन्म दरभंगा जिला के बिसपी नामक ग्राम में हुआ था। कालांतर में उनके प्रिय राजा शिव सिंह ने यह गांव उन्हें जागीर में दे दी थी। इस आशय का एक ताम्रपत्र भी मिला है और यह प्रमाणिक है।
विद्यापति का काल सल्तनत के बादशाह गयासुद्दीन तुगलक का है, जिनके साथ विद्यापति का संवाद भी है। कीर्तिलता नामक ग्रंथ में विद्यापति ने जौनपुर शहर का बहुत सुंदर वर्णन किया है और यवनों के अत्याचार की तरफ संकेत भी। जौनपुर के हाट/बाजार में चहल पहल का भी वर्णन यथार्थपरक है।
आज #विद्यापति शृंखला में हम यह बताना चाहते हैं कि विद्यापति उन चुनिंदा कवियों में हैं जिनका जीवन वृत्त प्रमाणिक साक्ष्यों के आधार पर निर्मित किया जा सका है। वह मिथिला ही नहीं, समूचे बिहार और बंगाल में कितने लोकप्रिय हैं, इसका अनुमान चंडीदास, चैतन्य महाप्रभु के उल्लेख से समझा ही जा सकता है, यह देखकर भी जाना जा सकता है कि लोक में वह गहरे रचे बसे हैं। उनके काव्य में तत्कालीन ऐतिहासिक चरित्र बहुत ठाठ के साथ उपस्थित हैं। पदावली तो शिवसिंह और लखिमा देवी के उल्लेख से भरी हुई है।
यद्यपि विद्यापति को राजा शिवसिंह के साथ काम करने का कम समय मिला लेकिन युवराज शिवसिंह उनके बहुत अभिन्न मित्र थे। पदावली में बहुत से ऐसे पद हैं जो उनकी अभिन्नता की घोषणा करते हैं।
विद्यापति परम शैव थे। यद्यपि शक्ति और वैष्णव मत के प्रति उनके मन में पूरा सम्मान था लेकिन शिव के वह अनन्य उपासक थे। उन्हें गंगा नदी का सानिध्य मिला था और उनका देहावसान लगभग 90 साल की आयु में गंगा तट पर ही हुआ। उनके विषय में कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। इनपर चर्चा करेंगे कल।
शिव भक्त विद्यापति |
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