शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

कथावार्ता : कस्बाई सिमोन : स्त्री-जीवन का नया दृष्टिकोण


‘कस्बाई सिमोन’ कथाकार शरद सिंह का तीसरा उपन्यास है जो उनके अन्य उपन्यासों की भांति ‘स्त्री-चेतना’ पर केन्द्रित है। इस उपन्यास के विषय निरूपण में लेखिका को भरपूर सफलता मिली है। इसकी भूमिका ‘अपनी बात’ से ही उपन्यास का उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है कि यह उपन्यास महानगरों की अपेक्षा कस्बों में रहने वाली ‘स्वतन्त्र चेतना की स्त्री’ को केंद्र में रखकर लिखा गया है। जैसे, उसे किन परिस्थितियों या हालातों से होकर गुजरना पड़ता है? वह किन चुनौतियों का सामना करती है?’ या वह अपने ‘स्व’ को कहाँ तक सुरक्षित रख पाती है? भले ही लेखिका अपनी भूमिका में आग्रह करती है कि “इस उपन्यास के कथानक का उद्देश्य किसी विचार-विशेष की पैरवी नहीं करना अपितु उस विचार विशेष का कस्बाई स्त्री के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को जांचना परखना है।” फिर भी जब वह उसी भूमिका में ‘स्त्रीत्ववाद’ से जुड़े तमाम प्रश्नों पर विचार करती है तभी स्पष्ट हो जाता है कि इसमें स्त्री-जीवन के कई बुनियादी प्रश्नों पर विचार किया गया है और ‘कस्बाई स्वतन्त्र चेता स्त्री-जीवन’ से जुड़ी चुनौतियों से जूझने का उपक्रम है।
इस उपन्यास की कहानी का परिवेश मध्यप्रदेश के छोटे शहर हैं। इसकी प्रमुख पात्र 28 वर्षीय ‘सुगंधा’ है जो अपनी स्वतंत्रता को सहेजने वाली, स्त्री अधिकारों के प्रति सचेत, स्वावलंबी कामकाजी स्त्री है। वह ‘जबलपुर’ में अकेले रहकर सरकारी नौकरी करती है। उसके अकेलेपन की नियति बचपन में ही तय हो जाती है जो ‘मंडला’ से शुरू होकर भोपाल तक पहुँचती है, जहाँ उसका बचपन और किशोरावस्था गुजरा था। उसके पिता एक प्राध्यापक थे। वह उसके और उसकी माँ के प्रति अत्यंत निर्मम और कठोर थे। उनका अपनी शोध-छात्राओं के साथ अनैतिक संबंध था। उनकी यातना और उपेक्षा से आहत होकर नायिका की माँ उसे लेकर ‘मंडला’ से ‘भोपाल’ आ जाती है। यह ‘भोपाल’ माँ और बेटी की संघर्ष भूमि रही। यहीं पर उसकी माँ ने अपने संघर्षों से स्वयं को आत्मनिर्भर बनाया और अपनी बेटी को भी स्वावलंबी। किन्तु उपन्यास में माँ और बेटी के संघर्ष की यह कहानी गौण रूप में ही आई है।

यह उपन्यास मुख्यत: ‘सुगंधा’ की उस जिजीविषा की कहानी है जिसमें वह ‘सिमोन’ के जैसा जीवन जीने का निर्णय लेती है। किन्तु यह भी एक विडंबना है कि वह जिस ‘सिमोन’ की अनुगामी बन जाती है, उस महान व्यक्तित्व से अबतक अन्य लाखों-करोड़ों स्त्रियों की भांति अनजान थी। एक बार उसके सहकर्मी पुरूष मित्र ‘मृदुल’ ने उसके स्त्री-अधिकारों से जुड़े लेखों को देखकर उसे ‘सिमोन’ कह दिया था। इसके बाद ही वह फ्रांस की इस विलक्षण महिला ‘सिमोन द बोउआर’ के विषय में जान पाई थी जिसने अपनी पुस्तक ‘द सेकेण्ड सेक्स’ में कहा है कि ‘स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है’। वह बिना विवाह किए अपने प्रेमी ‘सार्त्र’ के साथ रहती थी। उसने पितृसत्ता के छल-छद्म को तार-तार कर दिया था और स्त्री-सशक्तिकरण के संघर्ष में एक नया स्वर्णिम अध्याय जोड़ा। ‘सिमोन द बोउआर’ से परिचय के बाद वह उससे भावनात्मक रूप से काफी लगाव महसूस करने लगती है। ‘सिमोन’ के जीवन का सच जानकर उसे लगा कि जैसे उसके अकेले रहने और विवाह न करने के फैसले को समर्थन मिल गया हो। उसने बचपन से विवाह संस्था की जिन विदूपताओं को देखा था उससे इसके प्रति उसका विश्वास उठ गया था तभी वह‘रितिक’ के साथ ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहने का निर्णय करती है। वह स्वयं भी कभी-कभी विचार करती है कि क्या उसका जीवन ‘सिमोन’ जैसा हो पाएगा। छोटे शहर में बिना विवाह किए पुरूष के साथ रहने के उसके निर्णय ने उसे ‘कस्बाई सिमोन’ बना दिया।
अभी भारतीय समाज की मानसिकता इतनी प्रगतिशील नहीं हो पाई है जो किसी अविवाहित जोड़े को एक साथ रहने की अनुमति दे सके। ‘रितिक’ और ‘सुगंधा’ को अपने संबंधों के कारण बार-बार घर बदलना पड़ता है। क्योंकि समाज उनके संबंधों को अवैध मानता है। अंतत: दोनों ने मिलकर अपना घर खरीदने का निर्णय लिया लेकिन तब तक उन्हें आभास होनेलगता है कि यदि इस समाज में रहना है तो पति-पत्नी के ढोंग से गुजरना ही पड़ेगा और दोनों थोड़ा-बहुत इससे गुजरते हैं। इस ढोंग में रितिक के पितृसत्तात्मक संस्कारों पर चढ़ी प्रगतिशीलता की परत पूरी तरह उतर जाती है और वह पति की भूमिका में आ जाता है। ‘सुगंधा’ उसमें आए इस परिवर्तन को साफ महसूस करती है- “इन पांच वर्षों के साथ में मैंने रितिक के स्वभाव में होने वाले परिवर्तनों को महसूस किया था। अब वह मुझे झिड़कने लगा था। कई बार बिलकुल परम्परावादी पति की तरह। इधर कुछ समय से मैं अनुभव कर रही थी कि हमारा ‘असामाजिक’ रिश्ता ‘सामाजिक’ आकार लेता जा रहा है। दायित्वों को लेकर रितिक की मुझसे अपेक्षाएं बढ़ गई थीं। वह मुझ पर अधिकार जमाने लगा था।” इस तरह सुगंधा भी कभी-कभी अपने को पारम्परिक पत्नी समझने लगती है। दोनों का टकराव पति-पत्नी के समान बढ़ता जाता है। एक दिन जब रितिक सुगंधा को रखैल कह देता है तब सुगंधा का संयम भरभराकर गिर जाता है और वह आहत आत्मसम्मान लिए हुए रितिक का साथ छोड़ने का निर्णय ले लेती है तथा अपना स्थानान्तरण सागर करवा लेती है। इस तरह से दोनों के संबंधों का पटाक्षेप हो जाता है।
सागर में एक बार पुन: सुगंधा का परिचय सागर विश्वविद्यालय में एक वर्ष के लिए किसी प्रोजेक्ट पर काम करने आए छिंदवाड़ा के प्राध्यापक ‘डॉ. ऋषभ जैन’ से होता है, जो विवाहित व्यक्ति है। इस परिचय की परिणति शीघ्र ही दैहिक संबंध में हो जाती है लेकिन ऋषभ की मर्दवादी सोच के कारण वह उसे त्याग देती है। इसके बाद वह एक अन्य विवाहित बैंक कर्मचारी ‘विशाल पटेल’ से जुडती है जो थियेटर के अभिनय तथा साहित्य में रुचि रखता है, वह प्रगतिशील विचारों का व्यक्ति है। अपने इस संबंध से उसे तृप्ति का अनुभव होता है और यहीं पर उपन्यास की कहानी ‘कस्बाई सिमोन’ के अनिश्चित भविष्य के साथ समाप्त हो जाती है। उपन्यास को गतिशीलता प्रदान करने में उच्चवर्गीय स्त्री पात्र ‘कीर्ति’ का भी योगदान है जो अपने पति सदाशिव की इच्छा से स्वयं शोषित होना स्वीकार करती है। इसमें उच्च शिक्षा के अनेक प्राध्यापक भी हैं जो अपनी छात्राओं का यौन-शोषण करने में संलिप्त हैं। किन्तु उपन्यास की पूरी कथा सुगंधा के इर्द गिर्द घूमती है। इस कहानी में मूलत: सुगंधा के प्रति पितृसत्ता से सिंचित ‘कस्बाई मानसिकता’ के छद्म को दिखाया गया है।
पितृसत्तात्मक संस्कृति का प्रशिक्षण समाज में इतने गहरे तक समाया हुआ है कि उसकी जकड़न से निकल छूटना इतना आसान नहीं है जितना नायिका कल्पना कर लेती है। केवल व्यक्तिवादी होने मात्र से अधिकार अर्जित कर पाना संभव भी नहीं है क्योंकि अंतत: रहना तो उसी समाज में है जो अभी स्त्री को स्वतंत्र मनुष्य के तौर पर पहचान ही नहीं पाया है। नायिका बराबर स्त्रियों के दोयम दर्जे पर दुखी होती है। उसे यह भी समझ है कि स्त्री की कोई भी सामाजिक भूमिका हो वह पुरूषों द्वारा ही तय होती है। इसलिए वह सोचती है कि ‘स्त्री वेश्या बनती है क्योंकि पुरूष उसकी देह के बदले उसे पैसे देने को तैयार रहता है, स्त्री दासी बनती है क्योंकि पुरूष बदले में दूसरे पुरूषों से उसकी रक्षा करता है। पुरूष जो बनता है, स्त्री वह बनने को तैयार हो जाती है क्योंकि वह जीना चाहती है।’

किसी रचना का मुख्य पात्र एक वर्ग का प्रतिनिधि होता है जो उस वर्ग के अनेक मुद्दों को अभिव्यक्ति प्रदान करता है। इस उपन्यास में नायिका सुगंधा छोटे और मध्यम वर्ग के शहरों के ऐसे ‘स्त्री-वर्ग’ का प्रतिनिधित्व करती है जो अपने जीवन की स्वतंत्रता को किसी भी कीमत पर अक्षुण्ण रखना चाहती हैं। पुरूषों को वह प्राय: शोषक के रूप में देखती हैं। उनका विवाह संस्था में विश्वास नहीं है। किन्तु कथा में नायिका के चरित्र में एक स्पष्ट विरोधाभास दिखाई पड़ता है। वह न तो परिस्थितियों से हमेशा टूटती है और न ही वह उसके विरूद्ध हमेशा तनकर खड़ी ही रह पाती है फलस्वरूप उसकी नियति पेंडुलम जैसी हो जाती है। वह विद्रोह और समझौते के बीच में झूलती रहती है और उपन्यास के अंत तक उसका विद्रोह किसी सार्थक नतीजे पर नहीं पहुँच पाता है। यद्यपि वह स्वयं को सामान्य स्त्रियों से अलग रखकर देखती है। यह उसने स्वयं स्वीकार किया है कि “मेरी जैसी औरतें अपवाद हो सकती हैं लेकिन किस सीमा तक?” स्पष्ट तौर पर नायिका कहना चाह रही है कि एक सीमा के बाद वह भी अपवाद नहीं रह जाएगी और उसकी नियति भी अन्य स्त्रियों की तरह हो जाएगी जो अपने वर्तमान से ऊब जाती हैं किन्तु अन्य विवाहिताओं की भांति उसका मन अन्य वस्तुओं से नहीं बहल सकता तो वह पुरूषों के चरित्र की तरह ही स्वयं के लिए अन्य पुरूषों को तलाश सकती है। (आगे चलकर ऋषभ और विशाल से उसके संबंध को इसी तलाश के रूप में क्यों न देखा जाए जिसके लिए वह पुरूषों को आरोपित करती रही है)। किन्तु इसे स्त्री-अधिकार या स्वतंत्र-निर्णय कैसे कह सकते हैं? यह तो पुरूषों के दुर्गुणों का स्त्री-संस्करण है। इसलिए नायिका की दैहिक आजादी की कामना को देखकर कभी कभी ऐसा महसूस होता है कि वह ‘स्त्री-अधिकार’ की नहीं बल्कि ‘निजता के अधिकार’ की मांग करती हुई प्रतीत होती है। स्त्रियों की सार्वभौमिक समस्यायों पर विचार करते हुए भी वह व्यक्तिवादी ही प्रतीत होती है। यही कारण है कि वह प्रतिरोध के संस्कृति की सार्थक प्रतीक नहीं बन पाती है। हम सभी यह समझते हैं कि केवल व्यक्तिवादी होकर पितृसत्ता की सामन्ती मानसिकता को चुनौती देना संभव नहीं है। उसके लिए तो तमाम स्त्रियों को ‘भगिनीभाव’ से जुड़कर पहले एक प्रतिरोध की संस्कृति तैयार करनी होगी। अन्यथा प्रत्येक कस्बाई सिमोन की चाहत रखने वाली स्त्री सुगंधा की नियति को ही प्राप्त होगी।
उपन्यास में एक और महत्वपूर्ण बात खटकती है कि नायिका ‘सुगंधा’ का बचपन और किशोरावस्था जितना उथल-पुथल भरा रहा है उसकी अपेक्षा उसका मानसिक संघर्ष और अंतर्द्वंद्व नदारद हैं जो उसके चारित्रिक विकास के लिए आवश्यक था इसलिए उसके चारित्रिक विकास की क्रमबद्धता भी स्पष्ट नहीं हो पाती है। उसका बचपन और किशोरावस्था यहाँ तक कि उसकी युवावस्था भी बड़े शर्मीले और लजीले ढंग से बीत गई। एकाध बार उसे अपनी ‘नूतन’ मौसी और अपनी दोस्त ‘रीता’ से शारीरिक इतिहास भूगोल का सामान्य परिचय तो मिला किन्तु उसमें गहराई नहीं थी। स्त्री-अधिकार, उसकी नियति, त्रासद परिस्थितियों को लेकर उसकी कभी किसी से कोई बहस नहीं हुई। यहाँ तक कि अनेक विषमताओं से जूझती अपनी माँ से भी उसकी कभी कोई बहस-विवेचना नहीं होती है। फिर उसके मन में ‘स्त्री-अधिकारों’ को लेकर इतनी रेडिकल सोच कब और कहाँ से विकसित होना प्रारम्भ हुई कि वह विवाह संस्था के खिलाफ होकर ‘कस्बाई सिमोन’ बनने की राह पर निकल पड़ती है क्योंकि मानसिक स्तर पर घटित परिवर्तन ही व्यवहारिक स्तर पर घटित होते हैं जो प्राय: किशोरावस्था में तैयार होते हैं लेकिन यहाँ पर नायिका के किशोरावस्था में कोई विशेष अंतर्द्वन्द्व और आत्मसंघर्ष दिखाई नहीं पड़ता।
स्त्री के शोषण का सबसे प्रमुख माध्यम उसकी ‘देह’ है। प्रसिद्ध नारीवादी लेखिका ‘अनामिका’ जी ने तो इसे बड़े खुले मन से स्वीकार करते हुए लिखा है कि “स्त्री के किसी भी प्रकार के शोषण का प्राइम साइट उसकी देह होती है इसलिए उसके लेखन के केंद्र में स्त्री-देह का होना स्वाभाविक है।” संभवत: इसलिए इस उपन्यास की नायिका के स्त्री-स्वतंत्रता और अधिकारों की मांग में केवल यौन-स्वतंत्रता की मांग ही प्रमुख रूप से उभरी है। वह आर्थिक रूप से आजाद है इसलिए इसके बाद वह अपनी देह के अधिकार को चुनना चाहती है किन्तु यहाँ भी वह भावुकता से भरे दैहिक प्रेम में उलझ जाती है। यही कारण है कि उसका कोरी भावुकता से भरा प्रेम उसे औसत भारतीय स्त्री की तरह प्रदर्शित करता है जहाँ वह आखिर तक अपने संबंध को बनाए और बचाए रखना चाहती है। वह हमेशा पलायन करती है, कभी मोहल्ले से, कभी गली से, कभी शहर से भी तो कभी खुद से लेकिन उस कोरी भावुकता को नहीं छोड़ पाती जो स्त्री को कमजोर करता है। वह औसत प्रेमिका की भांति अपने अन्य प्रेमियों में भी पहले प्रेमी को ढूंढती है। वह स्वयं स्वीकार करते हुए कहती है- “मैं उससे बहुत प्रेम करती थी और अब कहना कठिन है कि मेरे मन में उसके प्रति कितना प्रेम शेष है। फिर भी वह मेरे साथ हमेशा रहता है, सशरीर , एक प्रभाव बनकर, एक छाया बनकर। मै किसी भी पुरूष को देखती हूँ या किसी पुरूष के ताप को अनुभव करना चाहती हूँ तो मेरा मन उससे तुलना करने लगता है।”
क्या रचनाकार के मन का अंतर्द्वंद्व नायिका के चरित्र में उभरा है कि वह निर्णय नहीं कर पा रही है कि आखिर गलत कौन है? और किसके विरोध में खड़ा होना है?- पुरूष, समाज, विवाह या इन सबकी नियामक पितृसत्तात्मक संस्कृति? क्योंकि अपने विचारों में तो नायिका पुरूषों को बराबर कटघरे में खड़ा करती है। यहाँ तक कि अपने प्रेमी ‘रितिक’ के विषय में भी वह पहले से अवगत है फिर भी उसे पुरूषों से कोई आपत्ति नहीं है बस वह ‘विवाह-संस्था’ में विश्वास नहीं रखती क्योंकि उसके सामने अनगिनत असफल विवाहों की गाथा है जिसमें स्वयं उसके माता-पिता भी हैं। इसे उसने स्वीकार किया है “वैवाहिक बंधन का विकृत रूप ही था वह जो किसी फॉसिल के सामान मेरे मन की चट्टानों के बीच दबा हुआ था, एकदम सुरक्षित।” अजीब विडंबना है जब वह स्त्रियों के शोषक के रूप में पुरूषों को पहचान रही है (जैसा कि उसके अनेक वक्तव्यों से स्पष्ट होता है) तो उसे विवाह के साथ-साथ पुरूषों से नफरत होनी चाहिए थी।
नायिका के हृदय में रितिक के लिए भावनाएं अवश्य हैं किन्तु उसके प्रति प्रेम दैहिक स्तर पर ही पनपा है क्योंकि उससे पहली मुलाकात में बारिश से भीगने पर वह अपनी देह को ही निहारती है। उसे महसूस होता है कि इस देह में वह सब कुछ है जो रितिक को आकर्षित कर सकता है। चूंकि 28 वर्ष की उम्र में भावावेग की अपेक्षा दिमाग का जोड़ घटाव अधिक सक्रिय रहता है इसलिए यहाँ निर्णय में भावना का स्थान देह के बाद ही है। भले ही वह यह कहती है कि “कोई हो जो सिर्फ मुझे प्यार करे सिर्फ मुझे” लेकिन यह भी उतना ही सच है कि दैहिक जरूरतों और आकर्षण के कारण ही वह ‘लिव इन रिलेशन’ में रहना चाहती है। उसने इस रिश्ते में बराबरी के स्तर पर जीवन जीने की चाहे जितनी भी कोशिश की, अंतत: वह दोयम दर्जे की पार्टनर ही रही। रितिक की इच्छाएँ उससे पहले रहीं। वह न जाने कितनी बार अपराधबोध से ग्रसित हुई थी जिसे वह व्यक्त भी नहीं कर पाती थी। जैसे शारीरिक संबंधों के दौरान गर्भनिरोधक का प्रयोग करना केवल उसकी जिम्मेदारी बन गयी थी। इस बात की उसके मन में गहरी टीस भी थी किन्तु वह उसे अभिव्यक्त नही कर पाती है- “इस बात को लेकर कभी-कभी मेरा मन उदास हो जाता। इसे सम्भोग कहते हैं न? अर्थात दोनों पक्ष समान रूप से एक दूसरे का उपभोग करें। लेकिन गर्भ निरोधक के प्रश्न पर समानता कहाँ चली जाती है? यदि प्रकृति ने स्त्री को गर्भधारण की क्षमता प्रदान की है तो वही चिंता करे, गर्भ न ठहरने की, यह तो सम्भोग नहीं हुआ न!”
कस्बाई सिमोन बनने की चाहत रखने वाली सुगंधा (यद्यपि वह स्वीकार कर चुकी है कि भारतीय समाज में ‘सिमोन’ बन पाना उसके लिए संभव नहीं है) केवल विवाह नहीं चाहती थी। उसे पुरूष संसर्ग से कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि आगे अतिनाटकीय क्रम में जब उसने ऋषभ जैन से संबंध जोड़ा तो उसकी पत्नी की कोई परवाह न करके उसके अधिकारों का भी हनन किया। इस दृष्टि से यहाँ पर स्त्री-अधिकार की अपेक्षा भोगवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता दिखाई दे रहा है। यह उसे ऐसे अवसरवादी व्यक्ति के रूप में चित्रित करता है जो अपनी की दैहिक तृप्ति को ही मुख्य मानती है। इससे उपन्यास की ‘स्त्री-चेतना’ समृद्ध न होकर कुछ छीजती ही है।
उपन्यास के अंतिम पड़ाव पर सुगंधा को विशाल पटेल के रूप में एक और पुरूष साथी मिलता है जो पहले दो साथियों की अपेक्षा अधिक सुसंस्कृत और चेतना सम्पन्न है। अब पुन: दैहिक तृप्ति की एक नई कहानी प्रारंभ हो गई। यद्यपिइस संबंध की प्रकृति भी स्थाई नहीं रहने वाली है क्योंकि विशाल का अपना एक भरा-पूरा परिवार है। लेकिन उससे सुगंधा की नियति में क्या फर्क आएगा! उसका भविष्य तो अब भी अनिश्चय के अँधेरे में है। फिर उपन्यास के समापन पर नायिका के चहरे पर जो प्रसन्नता है वह क्या वह क्षणिक दैहिक तृप्ति के कारण आई है? रचनाकार ने संभवत: मुस्कुराहट की ओट लेकर उसका भविष्य पाठकों की कल्पना पर छोड़ दिया है। फिर भी पाठक के सामने कुछ प्रश्न बने रह जाते हैं कि आखिर कहानी के अंत में क्या हासिल हुआ? आखिर ‘कस्बाई सिमोन’ की नियति क्या है?
कोई भी रचना उसके सर्जक की विशिष्ट साधना का प्रतिफल होती है जिसमें वह पात्रों के रूप में सामाजिक प्रतिनिधियों को रखता है। (जैसा कि हमने लेख के प्रारम्भ में भी स्वीकार किया है।) प्राय: पाठक उन्हें स्वतंत्र व्यक्ति या सत्ता न समझकर उस वर्ग का प्रतिनिधि समझते हैं। यदि इस उपन्यास में पुरूष पात्रों को उनके वर्ग का प्रतिनिधि स्वीकार कर लिया जाए तो पाठकों का अनेक संस्थाओं से भरोसा ही समाप्त हो जाएगा। संभव है कि रचनाकार के अपने अनुभव रहे हों या कहानी का दबाव रहा हो जिससे उपन्यास के प्राय: सभी पुरूष पात्र चारित्रिक दृष्टि से भ्रष्ट और धूर्त हैं। खास तौर विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के अध्यापक, जिनका अपनी छात्राओं से अनिवार्यत: शारीरिक संबंध है। क्या कथाकार ने चुन-चुनकर ऐसे ही पात्रों को कथा में स्थान दिया है! अन्यथा मेरा मानना है कि इस तरह के अतिवाद से बचा जाना चाहिए था। क्या पूरी पुरूष जाति को नकार कर महिला सशक्तिकरण आन्दोलन कोई स्वस्थ सामाजिक संरचना विकसित कर सकेगा? वास्तव में स्त्रीत्ववाद को स्त्री और पुरूष में से बेहतर मनुष्यों को एकसाथ लाने की कोशिश करनी चाहिए जिसमें स्त्रियों के पुरूष संस्करण न रचते हुए स्त्री-पुरूष समभाव पर आधारित समाज बनाया जा सके ।
उपन्यास लेखन की सबसे बड़ी चुनौती यही होती है कि रचनाकार अपने पाठक को विषय से भटकने न दे, उसे अपनी कल्पना के कानन में विचरण करने दे किन्तु उसकी नजर से वह स्वर्ण पंक्षी ओझल न होने दे जो उसका लक्ष्य है। यह उपन्यास एक हद तक ही इस कसौटी पर खरा उतरता है। इसमें रोचकता है जो इसे एक बैठक में पढ़ने को प्रेरित करती है। इसमें लेखिका के पहले उपन्यास पिछले पन्ने की औरतेंजैसी उपदेशवृत्ति तथा तथ्यात्मक आंकड़ों की नीरसता नहीं है। मार्मिक विषय और रोचक प्रस्तुति ने इसकी कहानी को बोझिल नहीं बनने दिया है। यह पाठक को अंत तक अपने से बांधे रखती है। अकेली औरत की चुनौतियों से दो-चार करवाती हुई इस कृति में लेखिका के नारी संबंधी जो विचार नायिका के माध्यम से व्यक्त हुए हैंवे बड़े उत्तेजक हैं। सबसे अच्छी बात है की ये विचार स्त्री की भावना के रूप में व्यक्त हुए हैं जो उपन्यास के कथातत्व से घुल मिल गए हैं तथा कथावस्तु के प्रवाह में बाधक नहीं बने हैं बल्कि उपन्यास के उद्देश्य को ही रेखांकित कर रहे हैं। कहानी के वर्णन में पूर्वदीप्ति शैली का प्रयोग इतना सुन्दर और कुशलता से किया गया है कि उससे पाठक का रसबोध कम नहीं होता है। कुछ एक प्रसंगों को छोड़ दिया जाय तो संवाद-संयोजन भी बेहतर हैं,उसमें बनावटीपन नहीं है। वह पात्रों की मनोदशा को व्यक्त करने में सक्षम हैं।
यह उपन्यास लेखिका के पहले दोनों उपन्यासों से केवल रचनाकाल में ही आगे नहीं बढ़ा है बल्कि इसमें गुणात्मक अभिवृद्धि भी हुई है। यह एक प्रौढ़ रचना है जो रोमांचक और पठनीय है।  ‘स्त्री-चेतना’ के प्रति रुचि रखने वालों के लिए इसे जरूर पढ़ना चाहिए।

(डॉ शत्रुघ्न सिंह हिन्दी साहित्य और संस्कृति के मूर्धन्य अध्येता हैं। वह रचना को डूबकर पढ़ते और समझते हैं। उनके लिए पढ़ना मतलब आत्मसात करना है। साहित्य के ऐसे पाठक और मीमांसक विरले ही हैं। शत्रुघ्न सिंह ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज से स्त्री आत्मकथाओं का स्त्री विमर्श की दृष्टि से अध्ययन विषय पर शोध कार्य किया है और वह बहुत विशेष है। शीघ्र ही उनका यह शोधकार्य एक नामचीन प्रकाशन संस्थान से प्रकाशित होने वाला है। शरद सिंह ने अपनी औपन्यासिक कृतियों से स्त्री विमर्श में एक गहरी छाप छोड़ी है। शत्रुघ्न सिंह ने शरद सिंह का उपन्यास कस्बाई सिमोन पढ़ते हुए मुझसे कुछ विचार साझा किए थे। हमारे अनुरोध पर उन्होने इसकी गंभीर मीमांसा की है। यहाँ ब्लॉग पर यह साझा करते हुए खुशी हो रही है। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। - संपादक)
डॉ. शत्रुघ्न सिंह
सहायक आचार्य हिंदी विभाग
श्री भगवान् महावीर पी.जी. कॉलेज पावानगर फाजिलनगर कुशीनगर


शनिवार, 11 अप्रैल 2020

कथावार्ता : फणीश्वर नाथ रेणु की पहली कहानी ‘वट बाबा’


          महान कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु के पुण्यतिथि 11 अप्रैल पर सुनिए उनकी पहली कहानी वट बाबा। वाचन स्वर है डॉ रमाकान्त राय का।




         फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म 04 मार्च 1921 को पूर्णिया जनपद, बिहार के औराही-हिंगना ग्राम में हुआ था। उन्होने मैला आंचल, परती परिकथा, जुलूस आदि उपन्यास लिखे। उनकी कहानी तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम पर बहुचर्चित फीचर फिल्म का निर्माण हुआ है। फणीश्वर नाथ रेणु ने कुल 63 कहानियाँ लिखी हैं। यह कहानी उनकी पहली कहानी मानी जाती है जो साप्ताहिक विश्वामित्र में अगस्त, 1944 में प्रकाशित हुई थी। 1942 के आंदोलन में उन्हें जेल हुई थी। जब वह 1944 में जेल से छूटे तो उन्होने यह पहली कहानी लिखी, जिसे भारत यायावर ने 'पहली परिपक्व कहानी' कहा है। उनकी दूसरी कहानी 'पहलवान की ढोलक' है।

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शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

कथावार्ता : निर्मल वर्मा : गद्य और चिन्तन की कुछ छवियाँ



आज प्रख्यात साहित्यकार निर्मल वर्मा का जन्मदिन है। वह हिन्दी गद्य में एक अलग ही तरल व्यवहार के लिए जाने जाते हैं। उनकी कहानी 'परिन्दे' आधुनिक हिन्दी कहानी का प्रस्थान बिन्दु मानी जाती है। रात का रिपोर्टर, वे दिन, अंतिम अरण्य आपकी प्रसिद्ध औपन्यासिक कृतियाँ हैं। 'भारत और योरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र की खोज' और धुंध से उठती धुन आपकी अन्य प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।
     युवा चिंतक आदित्य कुमार गिरि एक सजग पाठक और सुधी आलोचक हैं। वह कोलकाता स्थित जयपुरिया गर्ल्स कालेज में हिन्दी के प्राध्यापक हैं। आज उनके द्वारा चयनित कुछ गद्यांश निर्मल वर्मा के जन्मदिन पर प्रस्तुत कर रहा हूँ। शीघ्र ही निर्मल वर्मा पर उनका एक लंबा आलेख आप पढ़ सकेंगे।

(मॉडरेटर)


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"एक पराए अजनबी को किसी शहर के वासी हमेशा एक 'भीड़' दिखाई देते हैं, उस भीड़ की लय और अंतर्धारा का रहस्य सिर्फ उस नगर का वासी ही जानता है। अँग्रेज़ी शासक एक ऐसी सभ्यता से आये थे जो योरोप की राष्ट्रीय सीमाओं में विभाजित हो चुकी थी.....इसीलिए भारत की सभ्यता उनके लिए पहेली बनी रही जो बाहर से अलग-अलग मतों, सम्प्रदायों और जातियों में एक दूसरे से भिन्न होने के बावजूद-अपने भीतर की समग्रता में अखंडित थी।"
निर्मल वर्मा 'भारत और योरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र की खोज' पुस्तक में

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"गड़बड़ी दरअसल कहाँ हुई ?  ऐसा क्यों हुआ कि वह हिन्दुत्त्व जो बहुलतावादी अन्तश्चेतना और सहनशीलता के लिए प्रसिद्ध था, एक ऐसी सभ्यता को अपने भीतर जगह देने में सफल नहीं हो पाया, ओ समता और भाईचारे के मानवतावादी मूल्यों से मंडित थी ?
अँग्रेज़ों ने उस देश में आकर क्यों बदहवासी और घुटन महसूस की, जहाँ वे किसी मज़बूरी के चलते नहीं बल्कि अपनी मर्ज़ी से आए थे ?
क्या दोनों संस्कृतियों के बीच कभी संवाद नहीं हो सका या औपनिवेशिक सन्दर्भ के कारण इस संवाद में दोनों संस्कृतियों का केवल निकृष्ट रूप ही एक दूसरे के सामने आ सका ?
या शायद 'अन्य' को जानने या 'अन्य' से एकाकार होने की यूरोप की अवधारणा में ही मूलभूत त्रुटि थी ? दुनियाभर में घूम-घूमकर पृथ्वी पर अपनी अस्मिता को पुष्ट करने के ख़ातिर दूसरी संस्कृतियों को अनुकूलित कर,दूसरी परम्पराओं से अर्थपूर्ण संवाद करना कभी भारत का ढंग नहीं रहा, लेकिन तब फिर 'अन्य' के सत्य को जानने का भारतीय ढंग क्या था- उस 'अन्य' को जिसे वह अपने में समाविष्ट न कर सकता हो ?
पाश्चात्य संशयवादियों को दूसरी संस्कृतियों और धर्मों से सम्बन्ध बनाने का भारतीय ढंग हमेशा ही थोड़ा अवसरवादी और अस्पष्ट जान पड़ा है। उन्हें यह लगता रहा कि जिस भारतीय परम्परा की तथाकथित समावेशिता कुछ ऐसी है जहाँ 'अन्य' का सीधा-सीधा सामना नहीं किया जाता,उसकी जगह 'अन्य' के साथ कुछ इस तरह का सम्बन्ध बिठाया जाता है कि येन-केन-प्रकारेण उसे किसी तरह अपनी ही व्यवस्था की एक निम्न कोटि पर शामिल किया जा सके।
अगर ईसाई मिशनरी हिंदुओं की आस्था को बदल नहीं सके तो इसका कारण यह नहीं था कि हिंदुओं में ईसा मसीह के संदेश के प्रति कोई प्रतिरोध तहस, बल्कि उन्होंने उस संदेश को अपनी बहुलतावादी आस्था की कोटियों में ही समाविष्ट कर लिया। यहाँ तक कि खुद ईसा मसीह भी उनके देवी-देवताओं में शामिल कर लिए गए।
समावेशी तादात्म्य के कारण हिन्दू पश्चिम से वास्तविक संवाद करने से बचते हुए जान पड़ते हैं, क्योंकि सच्चा संवाद तबतक नहीं हो सकता जबतक दूसरों का सच उनकी अपनी शर्तों पर उसकी सम्पूर्ण अद्वितीयता में न समझा जाए।
भारतीयों पर अक्सर यह आरोप लगाया गया है कि दूसरी सभ्यताओं के प्रति अपनी उदासीनता के परिणामस्वरूप ही वे भारतीय संस्कृति और परम्परा की अस्मिता और नैरन्तर्य बनाये रख सके लेकिन उन्होंने कभी अपने को दूसरे के संदर्भ में परिभाषित करने का प्रयास नहीं किया।"

निर्मल वर्मा 'भारत और योरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र की खोज' पुस्तक में
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"योरोप ने भारतीय चेतना में जो दरार उत्पन्न की थी-एक हिस्सा परम्परा में डूबा हुआ और दूसरा अपने को योरोपीय मनुष्य की छवि में ढालने के लिए उत्सुक- उसने एक ऐसी आत्मछलना को जन्म दिया, जो हिन्दू परम्परावादियों और नव्य हिंदुओं-दोनों के अंतःकरण को कुतरने लगी।
परम्परावादी अपने को योरोपियों के विरुद्ध स्थापित करना चाहते थे, अपने अतीत को आदर्शीकृत करके, इसके लिए भले ही उन्हें अपने इतिहास के कुछ अंशों का मिथ्याकरण करना पड़ा हो, जैसा कि बंकिमचंद्र चटर्जी ने अपने ऐतिहासिक उपन्यासों में किया था।
दूसरी तरफ, 'हिन्दू आधुनिकताकार', अपनी आत्मछलना से पीछा छुड़ाने के लिए योरोपियों से बढ़कर योरोपीय होना चाहती थी, भारतीय योरोपीय की एक ऐसी नस्ल,जो बाद में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में बेहद प्रभावशाली रही और जिसने स्वतंत्रता के बाद भारत पर शासन किया।
आख़िरकार नेहरू उतने ही हिन्दू-योरोपीय थे, जितने भारतीय पुनर्जागरण की आरंभिक अवस्था के राजा राममोहन राय।
योरोप से प्रतिश्रुत होने पर भारतीय मानस में जो फाँक आई वह आईने की उस दरार की तरह थी जिसके एक भाग में उस अतीत का आदर्शीकृत प्रतिबिंब था, जो हमेशा के लिए खो चुका था और दूसरे भाग में योरोप की वह विकृत छवि,जो भारत के भावी निर्माण के लिए एक मॉडल की तरह उपयोग में लायी जानेवाली थी।
भारतीय पुनर्जागरण जहाँ एक ओर आधुनिक हिंदुओं को आत्मसाक्षात्कार करने का अवसर प्रदान करता था, वहाँ दूसरी ओर स्वयं अपने आत्म से खंडित होने के लिए विवश भी करता था- आत्मचेतना और आत्मखण्डन दोनों का उत्स पुनर्जागरण में निहित था।"
निर्मल वर्मा 'भारत और योरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र की खोज' पुस्तक में


"मैं मानता हूँ कि बीसवीं शताब्दी में कम्युनिज्म ही एक ऐसी विचारधारा थी जो मानवीय आदर्शों का सबसे सुंदर उदाहरण लेकर हमारे सामने आई थी।
समता,आज़ादी,न्याय,लोगों के भीतर आपस में सौहार्द भाव। इससे ज़्यादा सुंदर मानवीय आदर्श और क्या हो सकते हैं ? और सबसे बड़ा तो यह कि जो सबसे पिसे हुए लोग हैं,सबसे शोषित लोग हैं,सबसे बेबस लोग हैं,उन्हें वाणी मिले कि वह अपनी आवाज़ ऊपर उठा सकें।
इतिहास में पहली बार सतह पर रोशनी में उनकी शक्ल दिखाई दी।हंगरी पर,चेकोस्लोवाकिया पर,जब एक मज़दूरों की ही सरकार ने सोवियत यूनियन ने आक्रमण किया तो मैं सोचने लगा,अगर अमेरिका आक्रमण करे तो बात समझ में आती है, अमेरिका अगर वियतनाम पर हमला करे तो कितना ही बुरा क्यों न लगे,वह बात समझ में आती है,क्योंकि वह एक साम्राज्यवादी देश है।
इस दृष्टि से यह फासिज्म से भी कहीं ज्यादा बुरा है क्योंकि फासिज्म का अत्याचार तो नङ्गे तौर पर लोग आंखों से देख लेते हैं जबकि कम्युनिज्म के चेहरे को हम वर्षों तक नहीं पहचान पाते क्योंकि उसके पीछे बहुत ही सुंदर आदर्शों और उदात्त भावनाओं का नक़ाब पड़ा रहता है।
यह कोई संयोग नहीं था कि 50-60 वर्ष तक सोवियत संघ में सच को झूठ,न्याय को अन्याय, हर चीज़,रात को दिन कहते रहे और हम उनपर विश्वास करते गए।"

निर्मल वर्मा 'भारत और योरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र की खोज' पुस्तक में


"डॉरोथी डे की आत्मकथा पढ़ रहा हूँ, लम्बा अकेलापन उसका शीर्षक है। समूचा जीवन 'जीने का अर्थ' पाने का बीहड़ प्रयास।
संघर्षमय बचपन, गरीबी में यूनिवर्सिटी के दिन बिताए। कम्युनिस्ट पार्टी से निराश होकर कैथोलिक धर्म की ओर मुड़ीं और अमेरिका में पहली बार एक रेडिकल कैथेलिक मजदूर आंदोलन की नींव डाली। उनके समाचारपत्र 'कैथोलिक वर्कर' के इर्द गिर्द अनेक कम्युनिटी सेंटर स्थापित हुए,मज़दूरों के कम्यून, जहां आन्दोलन में भाग लेनेवाले कार्यकर्ता एक साथ रहते थे। पहली बार हार्वर्ड में रहकर मुझे इस तरह के जन-आंदोलनों का परिचय प्राप्त हुआ,जो बीसवीं शती के आरम्भ में अमेरिका के जनसाधारण, इमीग्रेट लोगों ने शुरू किए थे।
डॉरोथी डे की आत्मकथा पढ़ते हुए कैथोलिक धर्म को बहुत निकट से देखने-जानने का मौका मिला-एक धर्म सम्प्रदाय के रूप में।"

निर्मल वर्मा 'धुंध से उठती धुन' में


"एक लेखक के लिए आध्यात्मिक सुरक्षा की इच्छा उतनी ही घातक हो सकती है, जितनी भौतिक सुख पाने की आकांक्षा।
लेखक के लिए हर शरणस्थल एक गढ़हा है, एक बार उसमें गिरे नहीं कि सृजन का निर्मल आकाश हमेशा के लिए लुप्त हो जाता है।
इस अर्थ में प्रेमचंद एक आदर्श थे,अंतिम उपन्यास और कहानियों में वह सब शरणस्थलों-गांधीवाद,मार्क्सवाद(जैसा वह जानते थे) छोड़ते गए।
चेखव की तरह प्रेमचंद को किसी आध्यात्मिक या धार्मिक विकल्प ने कभी मोहित नहीं किया। यथार्थ-सूखा,क्रूर,निर्मम भारतीय यथार्थ में ही रमना-खपना उनका धर्म था।
स्मृति कल्पना का अभाव है। हर दिन हम चीज़ों को देखते हैं, उसमें कल्पना नहीं, स्मृति सक्रिय रहती है।"
निर्मल वर्मा 'धुंध से उठती धुन' में


प्रश्न- 'हिंदी के एक महत्त्वपूर्ण लेखक के रूप में निर्मल वर्मा हिंदी भाषी समाज के सांस्कृतिक संकट,उसमें साहित्य की स्थिति और भूमिका के बारे में भी मौलिक ढंग से सोचते रहे हैं।'
निर्मल वर्मा-' एक हिंदी भाषी व्यक्ति केरल की फ़िल्म न समझ पाए,वह बात तो मुझे समझ में आती है, खुद हिंदी समाज में हिंदी लेखकों या हिंदी फ़िल्मकारों को समझने में आम जनता को मुश्किल पड़ती है और यह एक गहरे सांस्कृतिक संकट का संकेत है। बांग्ला, कन्नड़,मलयाली समाज में एक तरह की एकजुटता है,एक तरह की सांस्कृतिक एकात्मकता है जो आपको हिंदी समाज में दिखाई नहीं देगी।
हिंदी की खड़ीबोली का साहित्य सिर्फ सौ वर्ष पुराना है। हमारी जड़ें आज गाँव में,बोलियों में हैं। खड़ीबोली उतनी ही थोड़ी सी बाहर की भाषा है,जैसे हमारे लिए कभी अँग्रेज़ी थी।
शायद ही साहित्य की किसी भाषा ने सौ वर्षों में इतना विकास किया हो,जितना हिंदी ने किया है।यह तो इसका बड़ा पॉज़िटिव पॉइंट है। लेकिन इसका जो नकारात्मक पहलू है,वह यह कि यह आम जनता के भीतर जो भाषा सातत्य है,वह अगर रहता तो हमारा आज का हिंदी साहित्य उतना ही जन के निकट होता,जितना बांग्ला का साहित्य है या मलयालम का।"

संसार में निर्मल वर्मासम्पादन- गगन गिल



गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

कथावार्ता : #covid_19 : प्रिय विद्यार्थियों से एक अपील


प्यारे बच्चों!
आजकल वैश्विक महामारी #covid_19 ने जीवन को अस्त व्यस्त कर रखा है। देश ही नहीं दुनिया के सभी देशों में लगभग लॉक डाउन चल रहा है। आप जान रहे हैं कि हम सबसे सोशल डिस्टेंस मेंटेन करने की अपील हुई है। इसका अर्थ है कि हम एक दूसरे के संपर्क में कम से कम रहें क्योंकि यह बीमारी जिस विषाणु से फैलता है, वह विषाणु एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति के साथ संपर्क में आने से फैलता है। अतः हम एक दूसरे से पर्याप्त दूरी बना कर रखें। सरकार द्वारा बताए जा रहे उपायों का पालन करें।
आप जानते हैं कि इस बीमारी को covid-19 क्यों कहा जा रहा है? इसका पूरा नाम इस प्रकार है।
CO-     CORONA
VI-      VIRUS
D-       DISEASE
19 –    2019        =  COVID_19

हालांकि इस विषाणु को चीनी वुहान विषाणु भी कहा जा रहा है क्योंकि इसका उदय चीन के वुहान शहर से हुआ है। इस विषाणु से ग्रस्त मरीज का सबसे पहला मामला चीन के इसी शहर से आया था। जबकि भारत में इस बीमारी का पहला मरीज केरल में मिला, जो चीन के इसी शहर वुहान से ही आया था। लेकिन मुझे यहां इस बात पर विचार नहीं करना है।
प्यारे बच्चों! आज इस विषाणु से जनित व्याधि से पूरे विश्व में लगभग 10 लाख लोग ग्रस्त हो चुके हैं और रोजाना लगभग 5000 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) ने इसे वैश्विक महामारी घोषित कर रखा है। वर्तमान में इटली, स्पेन, फ्रांस, अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, हॉलैंड, ईरान आदि देश इस व्याधि से सर्वाधिक पीड़ित हैं। हमारा देश भारत इस व्याधि से लड़ने के लिए कटिबद्ध है। उसने हम भारतीय नागरिकों के जीवन रक्षा और इस विपदा से बचाव के लिए अभूतपूर्व उपाय किए हैं। तथापि यहां कतिपय कारणों से संक्रमित लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। #covid_19 से निजात पाने के लिए, इससे जुड़ी जानकारी के लिए भारत सरकार ने एक वेब पोर्टल जारी किया है। यहाँ आप प्रति मिनट इस बीमारी से हो रही हलचलों को देख सकते हैं।  भारत में covid_19 की हलचल के लिए यहाँ क्लिक करें। दुनिया भर में इस बीमारी के बारे में जानने और उससे जुड़ी जानकारियों के लिए कई पोर्टल बने हैं। दुनिया भर में हो रही हलचल के बारे में जानने के लिए यहाँ क्लिक करें।
          ऐसे कठिन समय में मैं आपसे अपील करता हूं कि आप अपने स्तर से भी इस व्याधि से लड़ने में सक्रिय भागीदारी कर सकते हैं। आप अपने आस-पास के लोगों को इस बीमारी और उसकी गंभीरता से अवगत कराएं। उन्हें बताएं कि निरन्तर स्वच्छता बरतते रहने, हाथ धोते रहने और ऐतिहात बरतने से आप इससे बच सकते हैं। और दूसरे लोगों को भी संक्रमण से बचा सकते हैं। अगर आप इस व्याधि से जुड़े किसी संक्रमित व्यक्ति को जानते हैं तो उसकी जानकारी हेल्पलाइन नंबर 112 या 100 नम्बर पर पुलिस को दें। आप अफवाह फैलाने वाले लोगों को भी चिन्हित कर सकते हैं और उचित माध्यम से जानकारी साझा कर सकते हैं।
          इस बीमारी की गंभीरता का अनुमान इससे लगा सकते हैं कि भारतीय रेल जो युद्ध के समय में भी बंद नहीं हुई, वह पिछले दो सप्ताह से ठप्प है। हवाई जहाज नहीं उड़ रहे। बस और सार्वजनिक परिवहन रोक दिए गए हैं। आवश्यक सेवाओं को छोडकर सभी प्रतिष्ठान बंद कर दिये गए हैं।
          प्यारे बच्चों!
         इस व्याधि से बचाव ही इसका इलाज है। अतः बचाव के उपाय करें। बाहर न निकलें। अपने घर की चारदीवारी में ही रहें। नियमित योगासन और व्यायाम करें। अध्ययन जारी रखें। चित्रकारी करें। नृत्य - संगीत का अभ्यास करें। अच्छी और प्रेरणादायी फिल्में देखें। रचनात्मक रहें। हम इस व्याधि से इसी तरह निजात पा सकते हैं।
इस कठिन समय मे जब हर तरफ लॉकडाउन चल रहा है, हमारी सरकार को हमारी सुरक्षा और स्वास्थ्य के लिए अतिरिक्त प्रयास करना पड़ रहा है। ऐसे समय में हम सरकार की सहायता भी कर सकते हैं। प्रधानमंत्री राहत कोष अथवा PMCARES Fund अथवा मुख्यमंत्री राहत कोष, उत्तर प्रदेश में योगदान कर सकते हैं।
         
अंत में, मैं - प्रख्यात कवि वीरेन डंगवाल की इन काव्य पंक्तियों के साथ अपनी बात समाप्त करता हूं –
"मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है
हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है
आए हैं जब चलकर इतने लाख बरस
इसके आगे भी चलते ही जाएँगे
आएँगे उजले दिन ज़रूर आएँगे !"

डॉ रमाकान्त राय
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी;
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इटावा, उत्तर प्रदेश


सोमवार, 30 मार्च 2020

कथावार्ता : लॉकडाउन में लोक कथा : कौड़ी वाली चिड़िया


          एक चिड़िया थी। बातूनी। कहीं से एक कौड़ी पा गयी। वह कौड़ी उसके लिए बहुत मूल्यवान थी। कौड़ी को उसने बहुत जतन से अपने घोंसले में छिपा रखा था। इस संपत्ति को पाकर वह बहुत प्रफुल्लित थी। वह अपनी खुशी छिपा नहीं पा रही थी। तो हर तरफ लगी इसकी चर्चा करने। बातूनी तो थी ही, चर्चा का ढंग भी अनूठा था। कहती थी- "हमरा त ढेर धन, रजवा कंगाल बा।" सुबह शाम यही कहती रहती थी। नाचती-गाती और गुनगुनाती। "हमरा त ढेर धन, रजवा कंगाल बा।" उसका गाना गुनगुनाना आमजन में चर्चा का विषय बन गया।

          धीरे धीरे यह बात राजा तक जा पहुंची, उसे बहुत बुरा लगा। उसने सेनापति को बुलाया, मामले का ठीक ठीक पता लगाने को कहा। सेनापति ने सैनिकों को काम पर लगा दिया। सैनिकों से कहा देखो तो क्या है इसके पास! सैनिक घोंसले तक पहुँचे। कौड़ी बरामद हुई। राजा ने आदेश किया- कब्जे में ले लो। सैनिकों ने आदेश का पालन किया।
          अब चिड़िया बहुत चिन्तित हुई। पहले तो उसने दुख प्रकट किया और बाद में अपने प्रतिरोध का तरीका बदल लिया। अब चिड़िया गाने लगी। उसने अपना सुर बदल दिया, कहने लगी- “रजवा कंगाल बा, हमार कौड़िया छीन लिहलस!" राजा ने देखा कि इससे तो भारी बेइज्जती हो रही तो कहा, लौटा दो भाई। सैनिकों ने वापस रख दिया कौड़ी तो चिड़िया को खुशी हुई। उसने हर्ष की अभिव्यक्ति में नया गाना गुनगुनाया- "रजवा डेरा गइल, मोर कौड़िया रख गइल।"
          चिड़िया की खुशी तो ठीक बात थी लेकिन राजा के डरपोक होने की बात राजा को बहुत अखरी। अब राजा के क्रोध की सीमा न रही। उसने आदेश दिया कि चिड़िया पकड़कर उसका मांस पकाया जाये और शाम के खाने में परोसा जाए। आदेश का पालन हुआ। चिड़िया ने कठिन परिस्थिति में अपना गाना जारी रखा। चिड़िया की गरदन कटने लगी तो उसने गाना शुरू किया- "अब काट पीट मोर होत बा!" जब पकाई जाने लगी तो आवाज सुनाई पड़ने लगी, "छनन मनन मोर होता बा।" जब राजा खाने लगा तो यह कि "गबर गुबुर मो खवात बानी!" तौबा तौबा करके उससे पीछा छूटा। राजा निश्चिंत हुआ। बला टली।
          लेकिन जब राजा बिस्तर पर गया तो चिड़िया पेट में खदबदाने लगी। राजा परेशान। गुड़गुड़ की आवाज आती रही। रात बहुत बेचैनी में गुजरी। किसी किसी तरह सुबह हुई। सुबह उठते ही राजा ने सैनिकों से कहा कि जब मैं शौच जाऊं और यह चिड़िया बाहर निकले तब इसकी गरदन तलवार से काट देना। सैनिक मुस्तैद थे। चिड़िया बाहर निकली। सैनिकों ने तलवार का भरपूर वार किया। चिड़िया का कुछ न हुआ राजा का पिछवाड़ा लाल हो गया। अब चिड़िया ने कहना शुरू किया- "राजा के लाल गां$@& देख लिहलीं। राजा क लाल ....."

          नोट-कई ऐसे मामले जिनका संज्ञान नहीं लिया जाना चाहिए, लेने पर ऐसी ही किरकिरी होती है।


गुरुवार, 26 मार्च 2020

कथावार्ता : लॉकडाउन में श्री कुबेरनाथ राय को पढ़ते हुए


(डॉ मनोज राय गांधीवादी चिंतक हैं। हिन्द स्वराज पर आपकी एक पुस्तक हिन्द स्वराज अरथ अमित आखर अति थोरे शीर्षक से प्रकाशित है। आपने बापू ने कहा था शीर्षक से गांधी जी के साहित्य से 19 महत्त्वपूर्ण लेखों को चुनकर एक पुस्तक संपादित की है। महात्मा गांधी का सौन्दर्य बोध’, गांधी चिंतन में योग और शांति तथा महात्मा गांधी की धर्म दृष्टि शीर्षक से आपकी अन्य उल्लेखनीय पुस्तकें प्रकाशित हैं। आप वर्तमान में अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। आपकी कृति महात्मा गांधी की धर्म दृष्टि को मध्य प्रदेश विधानसभा द्वारा गांधी दर्शन पुरस्कार प्राप्त है। आप कुबेरनाथ राय साहित्य के मर्मज्ञ हैं। उनके साहित्य का जैसा अनुशीलन आपने किया है, वह मेरे देखे अनूठा है। आज कुबेरनाथ राय की जयंती पर यह विशेष आलेख मेरा गाँव मेरा देश पर विशेष रूप से आपके लिए।)

          बहुत कम ऐसे साहित्यकार होंगे जिन्होंने अपने लेखन के शुरू में ही यह घोषित कर दिया हो कि मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध है, नहीं तो अंतर का हाहाकार और जीवन भर अपने इस आदर्श पर दृढ़ता पूर्वक बिना किसी लोभ-लालच के डटे रहे । श्री कुबेरनाथ राय को इसका श्रेय प्राप्त है। श्री राय का यह क्रोध या आर्तनाद उनका निजी नहीं है अपितु सम्पूर्ण भारत का है। श्री राय की ख्याति एक ललित निबंधकार के रूप में है। जिस विधा को उन्होने अपने लेखन के लिए अपनाया है उसके प्रति उनके मन में न केवल आकर्षण है अपितु तर्क भी है -निबंध ही किसी जाति के ब्रह्मतेज को व्यक्त करता है । ललित निबंध भी काव्यधर्मी होने के बावजूद इस दायित्व से छुट्टी नहीं पा सकता ललित निबंध क्या चीज हैहमारी सहूलियत के लिए उन्होने इसकी सरल-सुग्राह्य परिभाषा भी दे दिया है-ललित निबंध एक ऐसी विधा है जो एक ही साथ शास्त्र और काव्य  दोनों है। एक ही साथ,आगे पीछे के क्रम में नहीं। निबंध की परिभाषा से ‘शिव के सांड़’ का कोई भी संबंध हो सकता है,इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। पर श्री राय की तो बात ही अलग है- “ विषय के आसपास शिव के सांड़ की भांति मुक्त चरण और विचरण ललित निबंध है। यह परिभाषा बस कामचलाऊ ही है। वह भी इसलिए कि पाठकों को एक देशज छवि की झलक भर मिल जाये। वरना इसकी असल “ परिभाषा करना मानो कालिका की जिह्वा को परिभाषित करना है। कालिका की जिह्वा आस्वादन और वाक् दोनों का प्रतीक है। देह-देह में कालिका बैठी है और वह रसना के माध्यम से रस का आस्वादन कराती है और वाक् बनकर विद्या का रूप धारण करती है। वह महारस और महाविद्या का प्रतीक है। वह परमा प्रकृति है। शब्दरूपरसस्पर्श और गंध इन पाँचों मात्राओं का मूल स्रोत है। लालित्य तो उसकी एक चिद्कला मात्र है। अतः उस भगवती को नमो नमः और उसकी विद्यारूपी रसना को नमोनमः जो लालित्य के आस्वादन का निमित्त कारण है। उसकी परिभाषा कौन करने जाय”। श्री राय ‘सेचन-समर्थ-पुंगव-वृषभ’ चिंतक हैं जो किसी की परवाह नहीं करता है। जब उसका मन हुआ निर्जन रास्ते पर अकेले ...हाथ में एक मजबूत देशी लेकर चिन्मय भारत’ की तलाश में निकल लेता है,(ताकि) यदि किसी मामा (चिन्मय भारत के पार्टिशन या बंदर बाँट में रूचि रखने वाले महंतगण) की इच्छा हो सम्मुख आकर कंठ फाड़कर निमंत्रण देने की तो उनके उपयुक्त प्रत्युत्तर की भाषा इसके माध्यम से दी जा सके।
          श्री कुबेरनाथ राय से मेरा प्रथम परिचय एक स्थानीय अखबार के कोने में छपी उनकी मृत्यु की खबर  से ही हुई थी । एक  ही जिले के होने के बावजूद इससे पूर्व मैंने कभी उनका नाम तक नहीं सुना था। वैसे भी साहित्य से मेरा बादरायण संबंध रहा है। कुछ महीने बाद श्री राय के लेखन के मुरीद डॉ बरमेश्वर नाथ राय ने उनकी एक रचना ‘चिन्मय भारत’ पढ़ने के लिए दिया। ‘चिन्मय भारत’ का ऐसा असर पड़ा कि श्री राय के सम्पूर्ण साहित्य को पढ़ने की इच्छा जाग उठीतबसे उनको पढ़ने का सिलसिला जारी है।  लेकिन श्री राय अध्ययन क्षेत्र इतना विषद और व्यापक है कि दर्जनों बार पढ़ने के बावजूद कुछ पाना शेष ही रह जाता है। पाश्चात्य और पौर्वात्य दोनों साहित्य का जिस गंभीरता से अध्ययन-पाचन श्री राय ने किया है वह अत्यंत दुर्लभ है। महज बत्तीस बसंत पार करते ही एक निबंध-संग्रह  ‘रस-आखेटक’ में होमर-शेक्सपीयर-वर्जिल पर लिखे गए मोनोग्राफ उनके विस्तार और अब एक किनारे मैं भी जम रहा हूँ  जैसे कथन उनके आत्मविश्वास को स्पष्ट कर देते हैं। तुलसी-भूमि पर जन्म लेने का औसत से ज्यादा सार्थक-अभिमान तो उनके अंदर था हीमोहनजोदड़ों के सांड से निकट का परिचय भी था। फलस्वरूप जब मन किया साहित्य के किसी भी बंसवार में माथा टिका देते थे और जब तक उसे जड़ से उखाड़ न ले पीछे नहीं हटते थे।          
          साहित्य जगत में प्राय: श्री राय के योगदान को साहित्य की एक खास विधा ललित-निबंध से जोड़कर देखने की रही है। बहुत हुआ तो ललित-निबंध के लिए प्रसिद्ध  स्वयंभू ‘त्रयी’ के एक महत्वपूर्ण लेखक रूप चर्चा कर इतिश्री कर ली जाती है । मुझे लगता है कि श्री राय के द्वारा संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में उनके दिये गए अप्रतिम योगदान को और वृहत्तर रूप में देखने की जरूरत है। श्री राय की असल चिंता है देश की जातीय और सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण बनाए रखना। श्री राय के व्यक्तित्व सटीक मूल्यांकन करते हुए किसी ने ठीक ही लिखा है- वे प्रकृति से अक्खड़स्पष्टवादी पर तत्वाभिनिवेशी दृष्टि के रहें हैं। ...और अपनी स्थापना के कारणों को भी बड़े बेलौस लहजे में उद्घाटित करते रहे हैं।”  कहना न होगा कि उनकी अक्खड़ता,स्पष्टवादिता का ही परिणाम था कि 1974 (विषाद योग का प्रकाशन वर्ष) तक अपने साहित्यिक अवदान के लगभग चरम पर पहुँचने के बाद भी हिन्दी साहित्य के क्षेत्र के वे अज्ञात कुलशील बने रहे। एक दो अपवादों को छोड़ दिया जाय तो शायद ही किसी बड़े विद्वान ने उनके साहित्य के मूल्यांकन में रूचि दिखाई हो।
          श्री राय लिखते हैं, “ मेरा उद्देश्य रहा है हिन्दी-पाठक के हिन्दुस्तानी मन को विश्वचित्त से जोड़ना और उनको मानसिक ऋद्धि प्रदान करना । मेरे निबंध ‘भारतीय मन और विश्वमन’ के बीच एक सामंजस्य उपस्थित करने की कोशिश करते हैं।” इस प्रतिबद्धता के पीछे उनकी यह निर्भ्रांत समझ है कि मनुष्य की सार्थकता उसकी ‘देह’ में नहीं,उसके ‘चित्त’ में है। उसके चित्त गुण को उसकी सोचने-समझने और अनुभव करने की क्षमता को विस्तीर्ण कराते चलना ही ‘मानविकी’ के शास्त्रों का,विशेषत: साहित्य का मूलधर्म है। इस धर्म के निर्वहन और विषय के अनुरूप कुछ कम प्रचलित शब्दों का प्रयोग उनके साहित्य में देखने को मिलता है। इस बिना पर श्री राय साहब की भाषा के संबंध में यह प्रचारित कर दिया गया है कि वे प्राय: क्लिष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं । इसका निराकरण करते हुए उन्होने स्वयं लिखा है, “निबंधकार का एक मुख्य कर्तव्य होता है पाठक की मानसिक ऋद्धि और बौद्धिक क्षितिज का विस्तार करना। मेरे सम्पूर्ण साहित्य में इस कोटि के दो दर्जन से ज्यादा नहीं। इतना किसने नहीं किया है!.... मैंने जहां-2 ऐसा किया है वहाँ उसी वाक्य में या आगे उसका अर्थ खोलता गया हूँ। सच तो यह है कि आधुनिक पीढ़ी का अपनी विरासत और लोक से परिचय ही नाम मात्र का रह गया है। ऐसे दरिद्र शब्द-भंडार लेकर श्री राय के निबंध-कांतार की यात्रा दुर्गम तो होगी ही। श्री राय ने अपने एक निबंध ‘भाषा बहता नीर’ में भाषा को ‘एक प्रवहमान नदी’ ‘बहते हुए जल’ की संज्ञा दी जो बावन तोले पाव रत्ती सही है। दरअसल उनका यह कथन भाषा की बहुसमावेशक क्षमता की ओर संकेत करता है। भाषा का पाट जब चौड़ा होता है तब वह बहुत कुछ को अपने में समेटते-मिलाते हुए गतिमान होती है। इस प्रक्रिया में विवेक के साथ शब्दों का संग्रह-त्याग भी चलता रहता। दरअसल श्री राय ‘मन के दरिद्रीकरण या वंध्याकरण को ही रोकने के लिए नहीं प्रयास-रत थेभाषा के दरिद्रीकरण और वन्ध्याकरण को समाप्त करने के लिए भी उद्यत थे वे लिखते भी हैं,-मैं गाँव-गाँवनदी-नदीवन-वन घूम रहा हूँ । मुझे दरकार है भाषा की। मुझे धातु जैसी ठन-ठन गोपाल टकसाली भाषा नहीं चाहिए। मुझे चाहिए नदी जैसी निर्मल झिरमिर भाषामुझे चाहिए हवा जैसी अरूप भाषा। मुझे चाहिए उड़ते डैनों जैसी साहसी भाषामुझे चाहिए काक-चक्षु जैसी सजग भाषामुझे चाहिए गोली खाकर चट्टान पर गिरे गुर्राते हुए शेर जैसी भाषामुझे चाहिए भागते हुए चकित भीत मृग जैसी ताल-प्रमाण झंप लेती हुई भाषामुझे चाहिए वृषभ के हुंकार जैसी गर्वोन्नत भाषामुझे चाहिए भैंसे की हँकड़ती डकार जैसी भाषामुझे चाहिए शरदकालीन ज्योत्स्ना में जंबुकों कें मंत्र पाठ जैसी बिफरती हुई भाषामुझे चाहिए सूर के भ्रमरगीतगोसाईं जी के अयोध्याकाण्डऔर कबीर की ‘साखी’ जैसी भाषामुझे चाहिए गंगा-जमुना-सरस्वती जैसी त्रिगुणात्मक भाषामुझे चाहिए कंठलग्न यज्ञोपवीत की  प्रतीक हविर्भुजा सावित्री जैसी भाषा......।”  कहना न होगा कि उन्होने इसकी खोज लेखन के आरम्भ से ही शुरु कर दिया था  ।
          ललित निबंधों के माध्यम से पाठकों के  इतिहास-बोध  को परिष्कृत करना भी श्री राय का एक खास उद्देश्य रहा है। वे अपने ढंग से इतिहास-बोध की आवश्यकता का ही प्रतिपादन नहीं करते अपितु उसके समझने की प्रक्रिया को भी स्पष्ट रूप में सामने रखते हैं। उनकी दृष्टि में हम आज भी बौद्धिक उपनिवेशवाद से मुक्त नहीं हुए हैं और हम अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को हम अपनी आँख से कम और विदेशी आँखें से अधिक देखने के लिए अभिशप्त हैं। मेरे एक परिचित ने उनके इतिहास-विषयक निबंधों पर एक अनजान प्रश्न खड़ा करते हुए लिखते हैं- अन्य विधाओं की ओर उनकी दृष्टि नहीं गई है। इसका कारण यह है कि वे साहित्य के स्थान पर इतिहास की ओर उन्मुख हो गए हैं। भाषा-विज्ञान और नृतत्वशास्त्र का सहारा लेकर उसमें कुछ इस तरह रमें हैं कि किसी दूसरी ओर देखने का उन्हें अवसर ही नहीं मिला है। इस कतर-व्योंत से उनका ललित लेखन भी प्रभावित हुआ है। ......अगर राय साहब हजारी प्रसाद द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र की तरह अन्य विधाओं की ओर उन्मुख हुए होतेजिनकी उनमें क्षमता थीतो उनकी परिधि के रचनात्मक आयामों का बहुविध विस्तार हुआ होता और साहित्य की प्रकृति को और निकटता से वे समझ सके होते।’’ मुझे लगता है कि प्रश्नकर्ता हिन्दी साहित्य जगत की नैसर्गिक राजनीति के आतंक के साये से उबर नहीं पाया है। दरअसल श्री राय किसी की रिप्लिका बनने के पंड-श्रम से मुक्त चिंतक थे। उनकी चिंता ‘भारत’ की चिंता है। विधा सिर्फ एक माध्यम भर है, उस चिंता को व्यक्त करने की। यह मानी हुई बात है कि जिस भी जाति के प्रज्ञा-पुरुषों का इतिहास-बोध प्रखर नहीं होताजिनका अपने गतिशील सांस्कृतिक-दाय का बोध नहीं होता वह अंधश्रद्धा और परंपरा से ग्रस्त होकर जल्दी ही अवनति के गर्त में समा जाती है। इस बात से कौन अपरिचित है कि भारतीय संस्कृति के दाय को विकृत करने का प्रयास शताब्दियों से चलता आ रहा है। हमारे पूर्वज उन विपरीत परिस्थतियों में भी रहकर अपनी अस्मिता को बचाने में सफल रहे। पर आज की लड़ाई थोड़ी भिन्न है। अपने ही अन्दर के जयचन्दों ने स्वार्थ का ऐसा वितण्डावाद खड़ा कर दिया है कि उससे लड़ पाना मुश्किल हो रहा है। श्री राय ऐसे ही लोगों से लड़ते हुए ‘चिन्मय-भारत’ की तलाश में लगे थे। श्री राय की तो यह इच्छा है कि भविष्य में कोई ‘माई का लाल’ आगे बढ़कर भौतिक शास्त्र-जीव विज्ञान आदि अनुशासनों में भी ललित-निबंध लिखे । इस विस्तार तक जाने और उसकी वकालत करने की क्षमता उसी लेखक में हो सकती है जिसकी दृष्टि ‘मूल दृष्टि’ से ‘अभिसार’ करती हो। उन्होंने चेतावनी के स्वर में हमें आगाह किया, ‘‘अगली शताब्दी नए ढंग और नयी शब्दावली माँगती है। .......  भारतीय बुद्धिजीवी और भारतीय साहित्यकार के लिए वह आधार भूमि भारतीय प्रज्ञा की देशी जमीन ही हो सकती हैअन्य और कोई नहीं। ........ इसी से मैं यहाँ और अपने लेखन में अन्यत्र भी मूल की ओर लौटने की बात करता हूँमूल संश्लिष्ट होने की बात करता हूँ।’’
          श्री राय गांधीवादी चिन्तन से विशेष रूप से प्रभावित हैंऔर आज की अधिकांश समस्याओं के निदान के रूप में वे उसकी वकालत करते थे। घर-गृहस्थी से लेकर सुरसामुखी बेरोजगारी जैसे गंभीर विषयों पर पत्र-शैली में उन्होने पत्र मणिपुतुल के नाम से एक पुस्तिका लिखी है। अद्भुत पुस्तक है यह। इस पुस्तक में रस-शिल्प-सही हिन्दू-सत्य और विद्या माई से लेकर पांत के आखिरी आदमी की चिंता बहुत ही सरल शब्दों में की गई है।  एक चिट्ठी में वे लिखते है-अपनी चिंता करने के साथ ही महुआ के सूर्य,चंद्र की चिंता करो जिसे शताब्दियों पूर्व व्यवस्था के राहु ने चबा डाला था और जिसकी मनबुद्धि क्या शिरा-धमनी में भी अंधकार का महातमस प्रवाहित है। यहाँ महुआ जनता की प्रतीक है जो आज भी व्यवस्था के लॉकडाउन-चक्रव्यूह में फंसी पड़ी है। गांधी के हवाले से वह लगातार यह चिंता जाहिर करते रहें हैं कि हिंदुस्तान की समस्या का असली समाधान वृहदाकार यंत्र नहीं अपितु कुटीर उद्योग कर सकते हैं। यंत्र मनुष्य को सर्जक न रखकर एक पुर्जा बना डालते हैं जिसका कुप्रभाव बहुआयामी होता है जिसकी तरफ एक सदी पूर्व डॉ आनंद कुमारस्वामी ने भी इशारा किया था। श्री राय के लिए गांधी ‘भारतीयता’ के प्रतीक हैं। वह उनमें ‘राम जैसा होने’ और ‘बहुत कुछ सफल होने को’ देखता है। वे यह मानकर चलते हैं कि “एक दिन ऐसा कि सभी को सर्वोदय और गांधी की जरूरत अनिवार्य लगेगी।”
          पिछली सदी के छठे दशक में जब श्री राय लेखन-क्षेत्र के किनारे खद्दर-वेश में प्रवेश कर रहे थे तो उनके सामने था हिन्दी साहित्य जगत का वह विशाल क्षितिज जहां पश्चिमी साहित्यमार्क्सवादी साहित्य,संगठन शास्त्रवादियों की गिद्ध-मंडली शिकार की तलाश में मंडराती रहती थीं।  यह एक तथ्य है कि शस्य-श्यामला धरती पर श्री  राय को ‘अभिमन्यु की तरह इन सभी महारथियों से जूझना पड़ा है। क्षत-विक्षत होकर भी वे पराभूत नहीं हुए हैं। इसके अनेक कारण हैं जिसके विस्तार में यहाँ जाना संभव नहीं है। एक संकेत ही काफी है-सच पूछो तो मेरे अन्दर एक अविराम अविच्छिन्न समुद्र-मंथन चल रहा है। जबसे मैंने होश संभाला तभी से। मन ही मन्दराचल हैउसमें सर्पशिशुवत लिपटी मेरी कामना ही वासुकि हैऔर इन्द्रिय-इन्द्रियस्नायु-स्नायु में बैठे देवता और असुर अविराम मंथन में लीन हैं। इस मंथन द्वारा श्रीमणिरंभाशंखऐरावत और उच्चैःश्रवा तो कभी नहीं मिलेएकाध बूँद अमृत और जहर जरूर कभी-कभी मिला थावारुणी सदैव मिलती रही है। इसकी कमी नहीं हुई। फलतः मेरे जीवन में देवता तो प्रायः तृषित ही रह गएपरन्तु मन के रसातल में भैंसे की तरह मँड़िया मारते हुए असुरों ने छककर उस वारुणी का पान किया है और लगातार करते जा रहे हैं। अर्थात् इन असुरों की पुष्टि-तुष्टि के लिए ही मेरा जन्म हुआ।  श्री राय की बनावट ही अद्भुत है। उनको किसी की परवाह नहीं है। हार-जीत से वे ऊपर हैं-आखिर इतना प्रकाश ले कर क्या होगा ? अखण्ड प्रकाश और अखण्ड जागरण कितनी बड़ी यंत्रणा है। मैं तप्त और तृषित हूँ। मुझे अंधकार की तृषा हैघनघोर निद्रा की तृषा है। माना कि प्रकाश सुरक्षा है ज्ञान हैअमृत है- सब सही। पर इतना आलोकइतनी सुरक्षाइतना ज्ञान और इतना अमृत लेकर क्या होगा?”  उनके चिंतन का धरातल बड़ा उदात्त है । वे लिखते हैं-जीवन ही एक सलीब है जिस पर असहाय रूप में हम ठोंक दिए गए हैंअपने ही पापों की नहींऔरों के पापों की कीलों से भी। राजा-रंक सभी के कंधे पर क्रॉस हैपर बिरला ही ऐसा होता है जो औरों को पाप-मुक्त करने के लिएइस व्यथा को भोगता है। तब वह पुरुष नीलकण्ठ बन जाता है और यातना का रूपान्तर हो जाता है एक ज्योतिर्मय महिमा में। यह प्रतीक हमें शिक्षा देता है कि क्रॉस  तो ढोना ही हैजब जन्म लिया है तो इस नियति से नहीं बच सकतेपर इसे ऐसे ढोओ कि यातना महिमा बन जाय।’’ नीलकंठ बनने के आग्रही  श्री राय का रास्ता ही अलग है। उनकी पसंद ही कुछ और है-‘‘शोभा और श्रृंगार के प्रतीक इन पुष्पों के रहते हुए भी मैं नीम के पुष्प-गुच्छ का तिरस्कार नहीं कर पाता हूँ। ... नीम का मामूली फूल साहित्य की उस नयी विधा का प्रतीक हैजो समूची निराशा और पराजय का अतिक्रमण करके जीवन में जीने योग्य क्षणों के दानों को एक-एक करके चुन रही है।’’ इसलिए वे अविराम यात्रा पर अकेले चल पड़े हैं- ‘‘जन्म से मरण तक इस पंचभोग्या याज्ञसेनी सृष्टि का परिधान पर परिधान हरण करते जाओ, ‘स्व’ का दुःशासन थक जायगा परन्तु इसके भीतर का सार कहाँ हैपता नहीं।’’
          श्री कुबेरनाथ का चिन्तन इतना बहुआयामी है कि उसे समग्रता में प्रस्तुत करना आसान नहीं है। उनके निबंध पाठक से उसके अध्ययन-चिंतन की मांग करते हैं। कहानी-उपन्यास की तरह सिरहाने रखने से श्री राय पकड़ में नहीं आते हैं। श्री राय ने कला-साहित्य-दर्शन-गणित-भूगोल आदि का तलस्पर्शी अवगाहन किया है। यह लगभग असामान्य घटना है। उनके समकालीनों में शायद ही किसी का बूता हो जिसने इस गहराई से विविध विषयों का अध्ययन किया हो और उसे ललित शैली में प्रस्तुत किया हो। ऐसा इसलिए संभव हो पाया कि उनकी कोई निजी लोभ या तृषा नहीं थी- ‘‘मैंने चतुर्दिक हँसती राका-निशि में किसी का हाथ पकड़कर कोई प्रतिज्ञा की थीपर क्षमाहीन अर्थव्यवस्था और शासनतन्त्र के बीच कुछ कर नहीं पाया और दमित कामना का पाप ढोता हुआ इच्छाओं के फूल जैसे शिशुओं की निरन्तर हत्या करता हुआ जी रहा हूँ।’’ लेकिन उनके निबंधों में पाठक बहुत महत्वपूर्ण है। पाठकों के लिए ‘मणि (भारतीयता के विशिष्ट आयाम) की खोज में घाट-घाट का पानी पीते रहे और इतिहास से ‘मधु’ निचोड़कर प्रस्तुत करते रहे। और अंत में एक दिन चुपचाप चले भी गए-‘‘मुझे जाना ही होगा क्योंकि कहीं कोई प्रेषित पति का रूप में हृदय पर नमस्कार मुद्रा में जुड़े बीस नखों के अक्षत और अपने नारियल युग्म लिए मेरी प्रतीक्षा करती होगी। जाना ही होगा क्योंकि यह काम रूपिणी सृष्टि कहीं भविष्य की मातृका बनकर तो कहीं भविष्य की प्रेमिका बनकर प्रतीक्षारत है। ......... मृगशिरा की दुपहरिया में  कोयल कूक जायेगीपर मैं नहीं रहूँगा।


      -डॉ मनोज राय
एसोसिएट प्रोफेसर
अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
डॉ मनोज राय



सद्य: आलोकित!

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