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बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

कथावार्ता : दिशा भेद : ललित निबन्ध (भाग- एक)

-सम्यक शर्मा

 

          यूँ ही एक दिन प्राथमिक भूगोल (Elementary Geography) का पाठ कर रहे थे, तो Deccan Plateau पर दृष्टि पड़ी। अपराध-शिरोमणि गोगो के स्वर में सोचे कि "ये deccan-deccan क्या है? ये deccan-deccan?" थोड़ी देर माथापच्ची के बाद 'तान्हाजी' चलचित्र से 'दक्खन' का स्मरण हुआ। बिना Mentos खाये दिमाग की बत्ती जल चुकी थी। दिमागी घोड़े 'दक्खन' के अर्थ की खोज में चहूँ दिशाओं में दौड़ रहे थे।

          यकायक हमारे मस्तिष्क में 'पुकार' चलचित्र के लोकप्रिय गीत 'हे के सरा सरा' के बोल -

                   'प्यार है जैसे पूरब - पश्चिम,

                   प्यार है उत्तर - दक्खिन' ...वगैरह

          त्वरित गति से आकर छा गए। अब चूंकि वहाँ लेखक ने प्रेम को चारों दिशाओं की उपमा दी है अतः निष्कर्ष निकाला गया कि 'दक्षिण' ही दक्खिन है अर्थात् वही दक्खन है। बात तर्कसंगत भी है, दक्खन का पठार (Deccan Plateau) दक्षिण भारत में ही स्थित है। यानी 'दक्षिण' है तत्सम और 'दक्खिन' 'दक्खन' हैं तद्भव।

          तो यहाँ से खेला गति पकड़ने लगता है। किसी दिशा का नाम 'दक्षिण' ही क्यों रखा होगा ?क्योंकि 'दक्षिण' अर्थात् 'दाएं' एक सापेक्ष दिशा (relative direction) है जबकि दक्षिण दिशा तो एक पूर्ण दिशा (absolute direction) है! बिना मानकीकरण (standardisation) के 'दाएँ दिशा' को 'दक्षिण दिशा' कह देना अतार्किक लगता है। किस प्रकार मानकीकरण किया गया? किया भी गया है तो 'दक्षिण' (दाएँ) का विपरीत 'वाम' (बाएँ) भी एक दिशा का नाम होना चाहिए, जोकि नहीं है।

          अभी तक दाएँ-बाएँ के खेल में ही अटके थे कि पूर्व-पश्चिम के भँवरजाल ने घेर लिया। थोड़ी देर मंथन के 'पश्चात्' भान हुआ कि पश्चिम का तात्पर्य तो 'पश्च' धातु से है अर्थात् 'पीछे', 'बाद में' से है जैसे 'पश्चात्', 'पश्चात्ताप' इत्यादि (तर्क यह भी है कि 'पश्च' का तद्भव 'पीछे' है)। अधिक समय न व्यतीत करते हुए तर्क लगाया कि 'पूर्व' का अर्थ 'पहले' से होता है जैसे 'पूर्व-कप्तान', 'पूर्वनियोजित' इत्यादि।

          इस 'पहले-बाद में' के मर्म को समझने के पश्चात् अधिक समय नहीं लगा इस बात को सिद्ध करने में कि ये सब सूर्योदय व सूर्यास्त से संबंधित है। जिस दिशा में सूर्य देव 'पहले' प्रकट होते हैं वह है 'पूर्व' और उसके 'पश्चात्' जहाँ प्रकट होते हैं वह है 'पश्चिम'

          इतना सब होने के 'पश्चात्' भी 'दाएँ-बाएँ', 'दक्षिण?' का रहस्य ज्यों का त्यों बना ही हुआ था कि विद्यालय में सिखायी हुई दिशाओं को स्मरण रखने की विधि स्मरण हुई। 'Face towards North with wide open arms, at the right hand you get East, at the left hand you get West and at the back you have South' ....पर तब क्या हो जब किसी को North का ज्ञान ही न हो? कुछ पता हो न हो, व्यक्ति को सूर्योदय तो दिखाई देगा ही.... 'चलिये सूर्यदेव के ही सम्मुख खड़े हो जाएं और बाहें खोल लें' ऐसा विचार हमने किया। दिशा-भेद अब खुलने को था... सामने सबसे पहले सूर्यदेव, दाएँ हाथ पर दक्षिण दिशा, पीठ पीछे पश्चिम और अंत में बाएँ हाथ पर उत्तर दिशा। मानकीकरण हो चुका था। शाब्दिक अर्थ के अनुसार भी सब सटीक था-

                    पूर्व - पहले, सामने

                    दक्षिण - दाएँ

                    पश्चिम - बाद में, पीछे

                    उत्तर - अंत में

          इसी कारण 'पूर्व' के दो विलोम हैं - पश्चिम और उत्तर

                    पूर्व (पहले) – उत्तर (अंत)

                    पूर्व (सामने) – पश्चिम (पीछे)

          यहाँ तक भी रहता तो ठीक था, पर हठीला मन बोला "ये दिल माँगे मोर..."। हमने भी कहा रुको ससुर! अभी तुम्हारी सारी खुजली निकाले देते हैं।

 

          (डटे रहिये 'आगेआने वाले 'विरोधाभासको झेलने हेतु।)

 





          (सम्यक युवा हैं और बहुत सधा हुआ, सुविचारित लिखते हैं। किंचित संकोची हैं। दिशा-भेद पर उन्होंने यह ललित निबन्ध लिखा है। यह तीन भागों में है- तीनों स्वतन्त्र हैं परन्तु एक दूसरे से गहरे सम्बद्ध। सम्यक शर्मा  पर क्लिक करने पर ट्विटर पर पाये जाते हैं। उन्होंने अपने बारे में लिख भेजा है- ज्यों का त्यों उतार रहा हूँ- "
सम्यक् शर्मा। आगरावासी। ब्रजभाषी। शहरी एवं ग्रामीण के बीच का हलुआ। दसवीं-बारहवीं आगरा से ही करी। यांत्रिक अभियांत्रिकी में बी.टेक. ग़ाज़ियाबाद के अजय कुमार गर्ग इंजीनियरिंग कॉलेज से करी। क्यों ही करी! क्रिकेट का आदी। फ़िज़िक्स और हिंदी से विशेष प्रेम। गणित से लगाव। बस।"- सम्पादक)

 


रविवार, 21 जून 2020

कथावार्ता : ललित निबन्ध : सूर्यग्रहण और हमारे मिथक

-डॉ रमाकान्त राय 

          आज सूर्यग्रहण निश्चित है।

          वैसे तो यह एक खगोलीय घटना है लेकिन इसका मिथकीय स्वरूप बहुत दिलचस्प है। वह समुद्र मंथन और देवासुर संग्राम से सम्बद्ध है। राहु-केतु से जुड़ा हुआ। राहु सूर्य को और केतु चंद्रमा को जब तब ग्रसने के लिए उद्धत होते हैं। गाँव में तो ग्रहण को सूर्य भगवान और चन्द्र देव पर संकट की तरह माना जाता है और मैंने देखा है कि कई धर्मपरायण लोग ऐसी अवधि में एक पैर पर खड़ा होकर उग्रह होने के लिए तपस्या करते हैं, पानी के परात में उनपर आए संकट को देखा जाता है और उसके कटने तक धार्मिक कथाओं का श्रवण किया जाता है। इस अवधि में भोजन आदि ग्रहण नहीं किया जाता और कोई ऐसा खाद्य पदार्थ है तो उसमें तुलसीदल डालकर शुद्ध रखने का प्रयास किया जाता है।

          महाभारत युद्ध की एक घटना को मैं इसी सूर्यग्रहण से जोड़कर देखता हूँ। अभिमन्यु के वीरगति के बाद अर्जुन शपथ लेते हैं कि अगले दिन के सूर्यास्त से पहले वह इस हत्या के जिम्मेदार जयद्रथ को यमपुरी पहुँचा देंगे। ऐसा न कर सके तो अग्नि समाधि ले लेंगे।

          यह एक कठिन शपथ है। अत्यन्त आवेश में लिया गया। पुत्रशोक में अर्जुन ने सबके समक्ष इसे दुहराया। कौरव पक्ष के लिए यह अवसर है। आपदा में अवसर। कुटिल लोगों के लिए आपदा में अवसर इसी तरह का होता है। सहज सामान्य लोगों के लिए ऐसे में जीवन को मजबूत करने का उपाय खोजना/नये अनुसंधान करना, समय का सदुपयोग करना अवसर है तो कुटिल, खल और कामी जन के लिए इसमें अपने लिए "अवसर" है। अवसर एक लचीला शब्द है। इसका मनमाना उपयोग किया जा सकता है। स्वाति नक्षत्र में वर्षा की बूँद केले के पत्ते पर गिरकर कपूर बनती है, सीप के मुख में पड़कर मोती और साँप के पास जाकर विष! यह पात्र पर निरभर करता है कि वह अवसर को कैसे लेता है। खैर,

          कौरव पक्ष के पास यह अवसर है कि अगर जयद्रथ को बचा लिया गया तो अर्जुन स्वतः जल मरेगा। जिस काम को बड़े बड़े योद्धा बड़ी कोशिश के बाद भी नहीं कर पा रहे हैं, वह निमिष मात्र में हो जायेगा। बस रणनीति बनानी है। आपदा में अपने लिए जगह बनाना है। कौरव पक्ष ने पिछले दिन सुशर्मा को इसके लिए राजी किया था कि वह अर्जुन को प्रातः काल ही युद्ध के लिए ललकारेगा और युद्ध भूमि से इतनी दूर ले जायेगा कि सूर्यास्त तक अर्जुन कुरुक्षेत्र में चक्रव्यूह तक ही न पहुँच सके। चक्रव्यूह में ही अभिमन्यु को मारा गया है।

          फिर जयद्रथ विशेष गुण सम्पन्न योद्धा है। उसे मारना एक अलग ही कौशल की अपेक्षा रखता है। उसके पिता ने अपने बेटे के लिए विशेष आयुष कवच बनाया है। जो मारेगा, जिसके हाथ से उसका सिर धराशायी होगा, वह तत्क्षण भस्म हो जायेगा। अर्जुन की चुनौती बड़ी है। उसे इसका ध्यान भी रखना है कि विषाणु का उन्मूलन करते हुए स्वयं संक्रमित न हो जाए।

          उस दिन सभी कुरुवीर जयद्रथ की रक्षा में सन्नद्ध हो गए थे। जयद्रथ के आगे कई छोटी छोटी चुनौतियाँ भी थीं। आप एक बड़ा काम करने चलते हैं तो राह में छोटी-छोटी बाधाएँ उपस्थित हो ही जाती हैं। विद्वान कहते हैं कि उससे किनारा कर लेना ही उचित है लेकिन कूटनीति और राजनीति के विद्वान कौटिल्य/चाणक्य कुछ दूसरा ही सोचते थे। कहते हैं कि चाणक्य विवाह करने जा रहे थे। दूल्हा बने थे। जामा जोड़ा पहनकर सज धज कर जा रहे थे। राह में एक कुश की नोक उनके पैर में चुभ गयी। यह उनके लिए पीड़ादायी था। कहाँ सुख के लिए दल बल चला है, बारात सजी है और कहाँ पैरों में कांटा चुभ रहा है! चाणक्य ने माथे पर सजा मौर उतारा और कुश उन्मूलन में लग गया। कुश की जड़ें बहुत गहरी होती हैं। उसकी नोक भी बहुत तीक्ष्ण होती है। एक जमाने में कुश लाने वाले लोग प्रशिक्षित होते थे। उन्हें 'कुशल' कहा जाता था। अब तो कोई भी व्यक्ति जो अपने काम में निष्णात है, कुशल कहा जाता है और उसके 'कौशल' की चर्चा की जाती है। कुशल शब्द का खूब अर्थ विस्तार हुआ है।

          तो चाणक्य ने कुश उन्मूलन शुरू किया। जब हाथ से, उपकरणों से वह सफल न हुआ तो उसकी जड़ों में मट्ठा डालने लगा। उसने बारात स्थगित कर दी। पहले यह कर लेगा तभी बियाह करेगा। वह दूसरे ही तरीके का ब्राह्मण था। उसकी प्राथमिकतायें सुस्पष्ट थीं। तभी वह मगध के महाप्रतापी राजा महापद्मनंद का राज एक सामान्य लड़के चंद्रगुप्त की मदद से मिटा सका।

          आज के युद्ध के प्रारम्भ में ही कृष्ण ने बताया था कि आपका लक्ष्य क्या है? कृष्ण ने शुरू में सलाह दी कि आज तुमने कुछ शपथ ली है लेकिन बाद में वह अपने रथी की आज्ञा का अनुपालन करने लगे। एक सारथि का यही कर्तव्य है। उसे शल्य बनने से बचना चाहिए। शल्य कर्ण का सारथी बने तो हर बात पर उसे कहते रहते कि तुम्हें ऐसा नहीं, बल्कि वैसा करना चाहिए। कर्ण शल्य को रथ पूर्व दिशा में ले चलने को कहता तो वह बताने लगते कि उधर जाने में क्या हानि होगी। कहते हैं कि अंग्रेज राजा अपने मंत्रियों से कहते थे कि वह गलत नहीं हो सकता। अब राजा के विश्वस्त लोगों का काम है कि वह राजा के काम के औचित्य को सिद्ध करें और उसे ही न्यायसंगत बतायें। ताकत यही करती है। वह अपना इतिहास इसी तरह बनवाती है। कृष्ण ने एक बार बलराम से कहा था कि अगर कौरव युद्ध जीत जाते तो वह द्यूत क्रीड़ा और द्रोपदी के चीर हरण को भी तार्किक और विधि सम्मत सिद्ध कर देते।

          कृष्ण रथ बढ़ाते गये और अर्जुन कौरवों से युद्ध में उलझ गया। आज तो सभी योद्धा जयद्रथ की रक्षा में लग गए थे। इतने योद्धाओं के रहने पर कृष्ण जानते हैं कि जयद्रथ को मारना सम्भव नहीं! तब वह विधि को अनुकूल कर लेते हैं। अचानक सूर्यास्त हो जाता है। सब भौंचक हैं। अभी तो दिन ढलने में समय है। ऐसे कैसे सूर्यास्त हो सकता है? सभी पाण्डव आश्चर्यचकित हैं। शोकाकुल हो रहे हैं। अर्जुन को अग्निसमाधि लेनी पड़ेगी। राम अपने भाई के शक्ति बाण लगने पर फूट फूट कर रोते हैं- मेरो सब पुरुषारथ थाको! उनकी चिंता में भ्राता से विछोह के दुख के साथ-साथ अपना वचन न पूरा कर पाने का कष्ट भी है। लेकिन राम और उनकी कहानी शुद्ध लौकिक है। रामायण में चमत्कार कम हैं, न के बराबर। वह पुरुषार्थ से सम्पन्न होता है। महाभारत में पारलौकिक सत्ता का हस्तक्षेप बहुत अधिक है। चमत्कारिक ताकतें बहुत हैं।



          अर्जुन के इस गति से कौरव अत्यन्त प्रसन्न हैं। जश्न मनने लगता है। सभी वीर अर्जुन के पास आ जाते हैं। उसे याद दिलाने लगते हैं कि उसने कल प्रतिज्ञा की थी। अर्जुन भी गान्डीव रख चुका है। थक कर बैठ गया है। एक तरफ कौरव दल ने चिता सजा दी है। सब तमाशा देखने एकत्र हैं। जयद्रथ सबसे आगे खड़ा है। उसकी वजह से कौरव लगातार दूसरे दिन युद्ध में आगे हैं। आज तो एक शानदार 'अवसर' है। तभी सूर्य उदित हो जाते हैं। दिन निकल आता है। सब स्पष्ट हो जाता है। कृष्ण कहते हैं- 'अर्जुन! उठो। देखो, सूर्य आसमान में चमक रहे हैं, अभी दिन नहीं ढला है। जयद्रथ ठीक तुम्हारे सामने ही है। तुम्हारे पास प्रतिज्ञा पूरी करने का यह "अवसर" है। ध्यान रखना- शत्रु विशेष प्रकृति वाला है। इसका नाश करने के लिए विशेष पीपीई किट चाहिए।'

          क्या हुआ होगा उस समय? मैं जब इस प्रसंग के बारे में सोचता हूँ तो मुझे सूर्यग्रहण की याद आती है। उस दिन पूर्ण सूर्यग्रहण रहा होगा। कुछ घड़ी के लिए ऐसी ही खगोलीय घटना हुई होगी। पिछला सूर्यग्रहण इतना जबरदस्त था कि पक्षी अपने नीड़ की ओर चल पड़े थे। सूरजमुखी के फूलों ने अपना पट बन्द कर लिया था। एक विशेष अन्धकार हर तरफ व्याप्त हो गया था। उस काल में यह ग्रहण बहुत विकट रहा होगा। सभी योद्धा इस खगोलीय घटना के प्रति उदासीन रहे होंगे। लेकिन फिर सोचता हूँ कि क्या वाकई? उन उद्भट विद्वानों को यह पता नहीं रहा होगा? जरुर रहा होगा! तो क्या वाकई श्री कृष्ण ने अपना चक्र चलाया था? वह सूर्य के प्रकाश को आच्छादित कर सकता था?

          एकादश रुद्रावतार हनुमान के बारे में भी यह कथा है कि उन्होंने सूर्य को निगल लिया था। मुझे लगता है कि यह भी सूर्यग्रहण का ही समय रहा होगा जिसकी कल्पना कवि ने उनके पराक्रम का वर्णन करने के लिए किया है। कवि की कल्पना मानस का निर्माण करने में सक्षम है। इसीलिए कवि की भूमिका बहुत मायने रखती है। लेकिन यूनानी विचारक प्लेटो तो कवियों से बहुत चिढ़ता है। उन्हें राज्य से बाहर फेंक देने के लिए राजा को उकसाता है लेकिन भारतीय परम्परा में वह परिभू: स्वयंभू कहे गये हैं! नयी सृष्टि के रचनाकार।

          लेकिन मेरा उद्देश्य यह सब विवेचन करना नहीं। मैं तो आज के सूर्यग्रहण के मिथकीय काव्य प्रयोग पर अपनी उधेड़बुन आपके समक्ष रख रहा था। आप बताइये तो!


असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उ०प्र०

9838952426, royramakantrk@gmail.com



मंगलवार, 18 फ़रवरी 2020

कथावार्ता : रस आखेटक : ललित निबन्ध का रम्य दारुण स्वर



          निबंध को आचार्य शुक्ल ने ‘गद्य की कसौटी’ कहा है। हिन्दी में निबंध लेखन भारतेंदु युग से शुरू हो गया था। गद्य के आरंभिक प्रयोगों की दृष्टि से यही उपयुक्त भी था। अपने आरंभिक समय में जो निबंध लिखे गए उनमें मनमौजीपन और वैचारिकता का अद्भुत संयोग दिखता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निबंधों को एक मानक रूप दिया। प्रसिद्ध निबंध संग्रह चिन्तामणि में उन्होंने अपने निबंधों कोअंतर्यात्रा में पड़ने वाले प्रदेश’ कहा है और बुद्धि तथा हृदय का मणिकांचन योग बनाया है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसके इतर लालित्य को प्रमुखता दी। द्विवेदी जी के समय तक निबंध के स्वरुप और आंतरिक बुनावट कुछ इस तरह प्रतिमानीकृत हो चुके थे कि उनमें ज्यादा प्रयोग की गुंजाईश नहीं के बराबर रही। लेकिन ललित निबंधों के इस ठस हो चुके स्वरुप के बावजूद बीते दशक में निबंध को अपने लेखन की मुख्य विधा बनाने वाले कुबेरनाथ राय के निबंधों को मुक्त कंठ से सराहा गया है। उनके निबंधों में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का सा लालित्य और स्वअर्जित पाण्डित्य एक साथ आया है। यद्यपि कुबेरनाथ राय के निबंधों को पाण्डित्य के आतंक से भरपूर कहा गया है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने पण्डिताई को एक बोझ कहा है। लेकिन द्विवेदी जी यह भी कहते हैं कि ‘जब यह जीवन का अंग हो जाती है तो सहज हो जाती है।’ कुबेरनाथ राय के निबंधों में पाण्डित्य कुछ प्रयत्न मात्र से सहज हो जाता है। यहाँ मैं कुबेरनाथ राय के एक निबंध संग्रह ‘रस-आखेटक’ के बहाने अपनी कुछ बातें रखने की कोशिश करूंगा।
कुबेरनाथ राय ने अपने निबंधों को क्रुद्ध-ललित स्वभाव वाला निबंध कहा है। वे स्वयं को तमोगुणी वैष्णव कहते हैं और उनके मत में “मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध हैनहीं तो अन्तर का हाहाकार।” उन्होंने अपने क्रोध को सारे हिन्दुस्तान के क्रोध से जोड़ने की हिमायत की है। क्रोध वैसे तो सुनने में आक्रान्त करता हैलेकिन रस दृष्टि से यह वीरता का अनुषंगी है। और इस तरह से यह व्यापक सरोकार वाला साहित्य बन जाता है। उन्होंने स्वयं को वैष्णव कहा है। तमोगुणी वैष्णव। उनका मानना है- “तुलसीदास और समर्थ गुरु रामदास को छोड़कर और किसी वैष्णव के मन में यह बात नहीं आई कि विनयअभिमानहीनता और समर्पण भाव के साथ-साथ वीरता भी जरूरी है। बिना वीरता के विनय दीनता का प्रतीक है। और इसी विनय ने चाटुकारिता कोइसी शुद्धता ने मानव निरपेक्ष व्यक्तिवाद कोइसी सात्विकता ने अज्ञान को हमारे नैतिक और व्यावहारिक जीवन में प्रवेश कराया है। भारतीय जाति का चरित्र दूषित हो गया है।” (तमोगुणीपृष्ठ- १३८) ऐसे में जब वे अपने साहित्य को क्रोध कहते हैं तो उनके सरोकार को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। वे भारतीय चरित्र में शुचिता-पवित्रता के समर्थक हैं लेकिन गौरव के साथ। उनके इस इसरार को तुलसीदास और निराला की परंपरा में देखा जाना चाहिए।
कुबेरनाथ राय के निबंधों में पण्डिताई कूट-कूट कर भरी हुई है। उनके अध्ययन का दायरा बहुत व्यापक है। उनके निबंधों में भारतीय और पाश्चात्यदोनों सन्दर्भ खूब आते हैं। भारतीय पौराणिकता का पूरा सम्मान करते हुए अपने बहाव में वे वेदउपनिषद्पुराण और लौकिक साहित्य से उद्धरण और उदाहरण देते चलते हैं। उनकी प्रस्तुति इस उदाहरणों में उदात्तता से भरपूर होती है। वे भारतीय संस्कृति के उन मौलिक तत्त्वों की ओर लगातार संकेत करते चलते हैंजिन्हें हमने अपने क्षुद्र स्वार्थों और जीवन की जटिलताओं से घबराकर सरलीकृत कर लिया है। वे अपने सभी निबंधों में उस तंतु को छूने की कोशिश करते हैंजिसका एक सिरा व्यापक मानवीयता से जुड़ा हुआ है। कई बार उनके भारतीय साहित्य के ज्ञान पर आश्चर्य हो उठता है। वे एक साथ ही प्राचीन और नवीन को एक जगह ले आकर प्रतिष्ठित कर देते हैं। उनके सभी निबंधों में इसे देखा जा सकता है। वे कई बार अपने बहाव में विदेशी साहित्य के उद्धरण भी ले आते हैं। हरी हरी दूब और लाचार क्रोध में इसे देखा जा सकता हैजब वे संस्कृत के एक श्लोक के साथ तुलसीकबीर और वाल्ट व्हिटमैन की कवितायेँ भी उद्धृत करते हैं। वे इसी के साथ असमिया लोकगीत को भी ले आते हैं। यह उनके निबंधों में विविधता का परिचायक भी है।
कुबेरनाथ राय बहुपठित और बहुश्रुत व्यक्तित्व के धनी हैं। रस-आखेटक में ही उन्होंने होमरवर्जिल और शेक्सपियर के मोनोलॉग रखे हैं। कुछ अन्य के विषय में लिखने की सूचना भी दी है। पाश्चात्य साहित्य पर उनका आधिपत्य इसलिए भी संभव हुआ कि वे अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर थे। भारतीय वांगमय पर उनका अधिकार है ही। वे असमिया संस्कृति से भी गहरे प्रभावित हैं। कोलकिरात और आदिवासी जीवन में उनकी गहरी रुचि है। असमिया संस्कृति से उनका लगाव अक्सर निबंधों में परिलक्षित होता है। वे वहां के लोकगीतोंलोक परम्पराओं से न सिर्फ परिचित हैंअपितु गहरे अनुरक्त हैं। उनकी यह अनुरक्ति भूपेन हजारिका के स्वर में गाये एक गीत को मार्मिक अंदाज में परोसने से देखी जा सकती है। प्राकृत और अपभ्रंश के साहित्य से वे न सिर्फ उद्धरण देते चलते हैंअपितु उनकी सूक्ष्म व्याख्या करते हुए अपनी बात को पुष्ट करते हैं। उनका सामाजिक-सांस्कृतिक अध्ययन भी व्यापक है। वे अपने एक निबंध जम्बुक में यामिनी राय के हवाले से एक कथन रखते हैं- “यामिनी राय की इस उक्ति में बहुत कुछ सार है कि संस्कृति के हिसाब से ‘विश्व को मात्र दो भागों में बांटा जा सकता है : भारतीय और अभारतीय।” (जम्बुकपृष्ठ- १३१) वे अक्सर अपनी बात को पुष्ट करने के लिए सुनीति कुमार चाटुर्ज्यायामिनी रायनिहाररंजन रेताराशंकर बनर्जी आदि का उल्लेख करते चलते हैं। उनके निबंध न सिर्फ साहित्यिक अपितु सांस्कृतिक दृष्टि से भी मूल्यवान बन पड़े हैं।
कुबेरनाथ राय के निबंधों में यह पाण्डित्य न सिर्फ उद्धरणों में दीखता है बल्कि विचारों की प्रस्तुति में भी झलकता है। जब वे अपनी बात मनवाने के लिए लगातार सरणियाँ देते रहते हैं तो उन्हें समझने के लिए ठहरना पड़ता है। उनके विचार-प्रवाह में एक अजीब तीव्रता है। वह कई बार बहा ले जाता है। हम बहते चले जाते हैं। फिर उसे ठीक से समझने के लिए किंचित अवकाश मांगते हैं। यह किंचित अवकाश ही सम्भवतः पण्डिताई के बोझ बनने से उबरने का अवकाश है। यद्यपि कुबेरनाथ राय लगातार इस कोशिश में रहते हैं कि चीजों को बहुत सहजता से परोसा जाय। जब वे इसकी कोशिश करते हैंतब उनकी भाषा बहुत सहज और लहजा एकदम नरम हो जाता है। हमें उनकी बाते सहजता से समझ में आती भी हैं। फिर उनका विद्वान मानस हुंकार भरता निकलता है और वे तीव्रता के आवेग में तत्समबहुल शब्दों को ठेलते हुए बढ़ते जाते हैं। कुबेरनाथ राय के यहाँ प्राचीन को नए अर्थों में सहेजने की कोशिश झलकती है। वे पुराकथाओं को नए संदर्भो में समझने की वकालत करते हैं। रसोपनिषद के सभी उपांगों में इसी पर जोर है। कर्म पारिजात में वे अपने ही अंदाज में व्याख्या करते हैं। उनके ही शब्द हैं- “तब सबको सुव्यवस्थित करके नारदजी का साहित्यिक हिन्दी में भाषण हुआ- ‘यादवोंपारिजात नकली नहींअसली ही है। परन्तु इस धरती पर आकर इसका प्राण-धर्म बदल गया है। धरती की माया हैजन्मप्रणय और मृत्यु। सो इस माया का प्रवेश इस स्वर्ग पारिजात में भी धरती की जलवायु में आते-आते हो गया।..... धरती कर्मभूमि है और देवलोक भोगभूमि। भोगभूमि में कल्पवृक्ष बिना किसी विशेष प्रयत्न के अपने आप बढ़ता हैफूलता है और मुरझाता नहीं। परन्तु धरती पर तो इसे आलबाल बनाकर पानी देना होगासमय समय पर गोड़ना होगा। तब यह हरा-भरा रहेगा। इसे गहगहा कुसुमित और हराभरा रखना है तो करमजल से इसे सिंचित करो-धरती के धर्म का निर्वाह करो। यहाँ पर आकर पारिजात अपने स्वभाव के अनुरूप ढाल चुका है। विष्णु भी जब धरती पर अवतार लेते हैं तो यहाँ के स्वभाव के अनुरूप अपने को ढाल लेते हैंतो यह तो महज एक पुष्प वृक्ष है। वे भगवान भी जन्म लेते हैंतो प्रणय करते हैंराज-काज करते हैंअपनी खेती-बारीमर-मुकदमालड़ाई-झगड़ा सँभालते हैं।”(रसोपनिषदपृष्ठ- २९-३०) यह उनका अपना ही मनमौजीपन वाला अंदाज है। हिन्दी निबंधों में यह अंदाज अनूठा है। यह सिर्फ और सिर्फ कुबेरनाथ राय की विशिष्टता है।
उनके निबंधों में मनमौजीपन का आलम यह है कि निबंध कहीं से भी शुरू हो सकता है। एक बेहद रोचक प्रसंग से जैसा कि रस-आखेटक का हुआ हैअथवा तृषा-तृषा! अमृत तृषा! का। रस-आखेटक में यह एक बचपन के प्रसंग से शुरू होता है। “पिताजी ने बचपन में मुझसे एक बार पूछा था : “आगे चलकर क्या बनना चाहते हो?” मैंने कह दिया, “मैं संन्यासी बनना चाहता हूँ।” (रस-आखेटकपृष्ठ- ३१) तृषा-तृषा! अमृत तृषा! में भी बचपन का ही एक प्रसंग है। देह वल्कल में यह ग्रामीण संस्कारों से शुरू होता है। जन्मान्तर के धूम्र सोपान में यह एक भावपूर्ण कथन से खुलता है। कुबेरनाथ राय के निबंध ललित निबंधों की उस प्रवृत्ति के संवाहक हैंजिसमें यह कहा गया है कि निबंधों का शीर्षक तो एक बहाना मात्र है। असली मकसद तो अपनी उन्मुक्त भावनाओं को अपने ही अंदाज में प्रस्तुत करना है। अपने विचारों को व्यवस्थित तरीके से रखते जाना है। कुबेरनाथ राय यह बखूबी करते जाते हैं। वे गंभीर से गंभीर प्रसंगों में अपने मनमौजीपन से ऐसा ह्यूमर पैदा करते हैं कि समूचा प्रसंग मिश्री की तरह गल जाता है। सारी कठोरता एक मधुर अहसास से रससिक्त हो जाती है। देह वल्कल में उनके सूक्ष्म पर्यवेक्षण और विवेचन के बीच-बीच में खिलंदड़ापन उनके मनमौजीपन को बखूबी व्यक्त करता है।
कुबेरनाथ राय के निबंधों में मनमौजीपन तो झलकता ही हैहास्य-व्यंग्य की छटा भी मिलती है। वे खुद को समेट कर व्यंग्यवाण छोड़ते हैं। वे अपनी वस्तुस्थिति को यत्र-तत्र बताते चलते हैं। अपने एक निबंध ‘जम्बुक’ में वे खुद को रवीन्द्रनाथ ठाकुर का डोम संस्करण कहते हैं। वे लिखते हैं- “वे मुझे रवीन्द्रनाथ का डोम संस्करण कहते हैं। मुझे जम्बुकनाद में रम्य दारुण स्वाद मिलता हैतो इसलिए नहीं कि मैं एक ‘एबनॉर्मल’ प्राणी हूँबल्कि इसलिए कि उदास-दारुण-क्रूर के भीतर भी रस की कोई बूँद विधाता ने भूले-भटके छोड़ दी हैनिरर्थक के भीतर भी एक बूँद अर्थ-विधि की भूल चूक से छूट गया है और मैं उस बूँद को निचोड़कर पा जाना चाहता हूँऔर इस रूप-रस-गंध की सृष्टि में अन्त्यज होने की वजह से मुसहर-डोम या ब्याध के देश में विचरण कर रहा हूँ।” (जम्बुक- पृष्ठ- १२९) वे इसी निबंध में द्विवेदीयुगीन साहित्य और छायावाद के साहित्य पर भी एक टीप लगाते हुए आगे बढ़ते हैं- “जो भूधर हैं-द्विवेदीयुगीन हैं अथवा जो नाजुक हैं,- ‘पल्लव’ छाप हैंवे इस रस को क्या जानेंगे कि अमावस्या रुपी भैरवी के आवरण में पूर्णिमा रूपिणी त्रिपुरसुंदरी ही कृष्णाभिसारिका बनती है।” (पृष्ठ- १२९) कुबेरनाथ राय के निबंधों में यह हास्य-व्यंग्य का पुट उनके पण्डिताई वाले आक्रांत को कम करता है और सहज बनाता है। हास्य का आलम यह है कि कई बार यह स्मित मुस्कान में तो कभी अट्टहास में प्रकट होता है।
पण्डिताई के इस समूचे आयोजन में कुबेरनाथ राय के निबंधों की एक विशेषता लोक के प्रति उनके गहरे लगाव में भी परिलक्षित होती है।उनके सभी निबंधों में यह लोक मौजूद है। अपने शुद्ध गवईं रूप में। वे ग्रामीण जीवन के अद्भुत चितेरे हैं। उनका वैष्णव मानस ग्रामीण संस्कृति में खूब रमता है। ग्रामीण संस्कृति में भी वे दलित-उपेक्षितों के साथ एक विशिष्ट आभिजात्यता के साथ मौजूद हैं। वे अपने निबंधों में ग्रामीण जीवन को आंकते चलते हैं। रस-आखेटक में वे एक जगह लिखते हैं- “इस स्थल पर रस-आखेटक को अपने गाँव के चमारों का ग्रीष्मकालीन भोजन याद आ जाता है। लोग शायद विश्वास न करें। चैत में खलिहान में दांय (दँवरी) करते समय पशुओं के गोबर में उनके निरंतर अन्न खाते रहने से कुछ अन्न अनपचा रह जाता है। यह अन्न ये चमार गोबर में से बीन लेते हैं और इसे धोकर-सुखाकर गर्मी के बेकारी के दिनों में इसे खाते रहते हैं। समस्त पूर्वी उत्तर प्रदेश में यह होता है। रस-आखेटक जब यह सोचता है तो उसकी आत्मा में घाव हो जाता हैउसका घोड़ा तनकर खड़ा हो जाता हैउसके मन में क्रोध के पवित्र फूल फूटने लगते हैं।” (रस-आखेटकपृष्ठ- ३७)। लोक संस्कृति के इन विवरणों में जब वे ग्रामीण जीवन के कई लोकाचारोंमौसमफसलोंरूपरसगंध की चर्चा करते हैं तो उनका रागात्मक लगाव देखते बनता है। वे निषादोंमल्लाहोंदलित-शोषित जातियों के लोगों में रमे-घुमे दिखते हैं। उनके जीवन से रस उलीचते दिखते हैं। गाँव की चौपाल परकौड़ा तापते हुएअर्धरात्रि में तारों और निचाट अँधेरे को तलाशते हुएदुपहरी के हंकड़ते सूरज के प्रसंगों में उन्होंने मन लगाकर लिखा है। ग्रामीण जीवन के ऐसे प्रसंगों में उनका वैष्णव मन खूब रमा है। यह उनका सबसे प्रिय क्षेत्र है। उनके सभी निबंधों में लोक के प्रति यह जुड़ाव देखा जा सकता है। वे इन प्रसंगों की पुनर्रचना करते हुए न सिर्फ रस-आखेटक रहते हैं अपितु रस के उद्भावक भी बनते हैं। लोक उनका सबसे प्रिय विषय है। वे शास्त्रीय चिंतन के दौरान भी इस लोक को साथ रखते हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी में लोक को लेकर जो राग हैकुबेरनाथ राय के यहाँ वह और भी प्रगाढ़ होकर आया है। कहा यह भी जाना चाहिए कि यह बीस बनकर आया है।
कुबेरनाथ राय के निबंधों की एक अन्य विशेषता इसके काव्यात्मक होने से है। कुबेरनाथ राय के निबंध काव्यात्मक आस्वाद से युक्त हैं। इन्हें पढ़ते हुए काव्य की सूक्ष्मताएँ देखी जा सकती हैं। इन निबंधों में भावों की उदात्तता यत्र-तत्र झलकती है। हिन्दी निबंधों में इस तरह की भावात्मक उपस्थिति अन्यत्र दुर्लभ है। प्रकृति के बारे में वे लिखते हुए जिस तरह से रमते हैंवह काव्य का सा है। ‘मृगशिरा’ के इस अंश को देखा जा सकता है- “जेठ में धरती अकेले-अकेले तपती हैपेड़-पौधे अकेले-अकेले धूप पीते हैं और पेड़ों पर आम अकेले-अकेले पकता है। दुकेले रहने पर भी मारे गर्मी के एकांत कक्ष भी तपोवन बन जाता है। आकाश में रूद्र का वृषभ हँकड़ रहा है तो सृष्टि में काम का प्रवेश कैसे होगादूध का जला मट्ठा भी फूंक-फूंककर पीता है।” (मृगशिरा – पृष्ठ- ६६) यहाँ प्रचण्ड गर्मी के वातावरण को किस भावात्मक उदात्तता से रख दिया गया हैद्रष्टव्य है। कविता ही तो है। बस संरचना गद्य की है। ललित निबंधों के ‘आचार्य’ हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध एक अन्य तरह की भाव-भंगिमा वाले हैं। वहां हम लोक और शास्त्र के द्वंद्व में जूझते रहते हैंजबकि कुबेरनाथ राय के यहाँ पाण्डित्य लोक को और भी रमणीक बनाने के लिए आता है। इस अर्थ में यह विशिष्ट है। कुबेरनाथ राय की सी प्रवाहमयता और शास्त्र और लोक में डूबने-तिरने का अनुभव अन्यत्र नहीं है। उनके यहाँ शास्त्र में गहरे डूबकर लोक के किनारे ही पहुँचना है। कई बार डूबने का भय रहता है लेकिन अगले ही क्षण निबंधकार हमें बाहर निकाल लेता है। कुबेरनाथ राय इसी कारण बड़े और अनूठे निबंधकार हैं।
कुबेरनाथ राय के निबंधों की भाषा अत्यंत सुष्ठु है। वे तत्सम शब्दों के प्रवाह में ऐसे देशज शब्द लाते हैं कि अर्थवत्ता चमक उठती है। हमारा बोझिल मन ऐसे देशज शब्द के संपर्क में आकर हरियर हो जाता है। वे गुरु-गंभीर शब्दों के बीच इसे ऐसे लाते हैं कि कलात्मकता और बढ़ जाती है। उनके तत्सम शब्द खासे कठिन और पारिभाषिक भी होते हैं। ऐसे में जो गंभीरता बनती हैवह डूबोने वाली होती है। पण्डिताई का आतंक खड़ा करती है। तब देशज शब्दों का प्रयोग न सिर्फ चमत्कृत करता है बल्कि हमें गवईं जीवन से जोड़ता है। इस स्थिति में पण्डिताई का आतंक ख़तम हो जाता है और हम रस से सिक्त महसूस करने लगते हैं। कुबेरनाथ के निबंधों की यह विशिष्टता किसी अन्य निबंधकार में नहीं। ऊपर मैंने मृगशिरा निबंध से जो उद्धरण दिया है उसमें उनके शब्द चयन को देखा जाना चाहिए- एक वाक्य है- “आकाश में रूद्र का वृषभ हँकड़ रहा है।”- रूद्र का वृषभ जैसे तत्सम पद के बाद हँकड़ना जैसी क्रिया शुद्ध देशज है। खांटी भोजपुरिया। यहाँ यह बता देना जरूरी है कि कुबेरनाथ राय के यहाँ प्रयुक्त होने वाले अधिकांश देशज शब्द भोजपुरी के हैं। पूर्वी उत्तरप्रदेश के जनमानस के शब्द। वे अंग्रेजीहिन्दीसंस्कृतअसमियाबांग्ला आदि के शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं। हाँजिस तरह से तत्समबहुल पदावली के बीच खांटी भोजपुरिया शब्दों को रखते हैंवह चमत्कार उत्पन्न करता है। कई बार यह पूरबिया संस्कृति से अपरिचित लोगों के लिए बोझिल लगता हैलेकिन वे इसे ख़ारिज करते चलते हैं। उनका यह प्रयोग उनके असाधारण शब्द सम्पदा की तरफ संकेत करता है। वे पण्डित होते हुए भी लोक के लोभ का संवरण नहीं करतेबल्कि उसे गहरे आत्मविश्वास से पेश करते हैं। यह भाषा के प्रति उनके दृष्टिकोण का भी परिचायक है।
कुबेरनाथ राय अपने निबंधों में जिस प्रवाहमयता से अपनी बात रखते हैंउसमें मुहावरेलोकोक्तियाँ और चुलबुली किन्तु गंभीर पदावली खासा सहयोग करते चलते हैं। वे कई बार अपने वाक्य बहुत छोटे-छोटे रखते हैं तो कई बार सामासिक पदों से वाक्य को लम्बा भी बना देते हैं। उनके इस छोटे-बड़े वाक्यों का संयोजन उनके लेखन के विनयी और वीर दोनों स्वभाव का निदर्शन करते हैं। लम्बे वाक्य उनके गहन चिंतन के समय में भी निकलते हैं और व्यंग्यात्मक टीप के समय भी। छोटे वाक्य तब ज्यादा आये हैंजब कथन की प्रवाहमयता तीव्र होती है। छोटे-छोटे वाक्य इस तीव्रता को और भी क्षिप्र बनाते हैं।
कुबेरनाथ राय के निबंध अपनी संरचना में बड़े हैं। इन्हें पढ़ने के लिए धैर्य चाहिए लेकिन एक बार पाठक जब उनके निबंधों के भावसागर में उतरता है तो उनकी गहराई और आनंदमयता का अहसास करता जाता है। उनके निबंध उच्च कोटि के साहित्यिक निबंध हैंजिनमें भारतीय संस्कृति रची-बसी है। वे आधुनिक युग के सबसे प्रतिभाशाली निबंधकार हैं।


(नोट- सभी उद्धरण भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कुबेरनाथ राय के संग्रह रस-आखेटक से लिए गए हैं। रस-आखेटक-कुबेरनाथ रायपहला पेपरबैक संस्करण : १९९९भारतीय ज्ञानपीठ१८ इंस्टीट्यूशनल एरियालोदी रोडनयी दिल्ली।)



गुरुवार, 28 नवंबर 2019

कथावार्ता : आगि बड़वागि ते बड़ी है आग पेट की

     
दोपहर को भोजन पर बैठे तो थाली सामने आने से पहले ही वसु ने जल ग्रहण करना शुरू कर दिया। उन्हें सबने मना किया कि 'खाना खाने से पहले पानी नहीं पीना चाहिए।
          "क्यों?" वसु का सहज और तुरंता सवाल था। सब मेरा मुँह देखने लगे। मैंने कहा कि, "भोजन से पहले जल ग्रहण करने से जठराग्नि मद्धिम पड़ जाती है। अतएव भोजन ठीक से नहीं पचता।" 
          "पापा, यह जठराग्नि क्या होती है?" वसु पूछ बैठे। हमने कहा कि, भोजन कर लेने के बाद इसका उत्तर दिया जाएगा। हमारी परम्परा में भोजन के समय वार्तालाप की मनाही है। यद्यपि मैंने कुछ विदेशी संस्कृति को रेखांकित करने वाली पुस्तकें पढ़ीं तो उसमें देखा कि कठिन मसले डाइनिंग टेबल पर ही सुलझाए जाते हैं। खैर, तो हमने कहा कि खाना खा लिया जाए तो बताऊंगा। भोजन के उपरांत वही सवाल मेरे सामने था। अग्नि के स्थान भेद से कई रूप हैं। जंगल में लगे तो दावाग्नि, पानी में लगे तो बड़वाग्नि, पेट में लगे तो जठराग्नि। तुलसी बाबा का एक बहुत प्रसिद्ध पद है। 'आगि बड़वागि ते बड़ी है आग पेट की।' बहुत पहले एक अध्यापक ने बड़वाग्नि के बारे में बताया था कि वह आग जो पानी में लगती है। 
          "पानी में कौन आग लगती है भला?" 
          "समुद्र में कई बार खनिज तेल तिरते रहते हैं, उन्हीं में आग लग जाती है, वही बड़वाग्नि है। बहुत खतरनाक होती है।" शिक्षक ने बताया था। हमने वही मान लिया था। बाद में इस व्याख्या को अक्षम माना हमने और अग्नि का अर्थ ऊर्जा, क्षमता, पॉवर से लगाया और पानी की ताकत को बड़वाग्नि कहा। तुलसीदास कहते हैं कि पेट की आग, पानी की आग से भी बड़ी होती है। सही बात है। पेट की आग तो मानवीयता तक को भस्म कर सकती है। खैर
          "जठराग्नि, भूख लगने पर जाग्रत होती है। जब हम पानी पी लेते हैं तो क्षुधा कुछ समय के लिए तृप्त हो जाती है। और फिर खाद्य पदार्थ पेट में जाकर सही पाचन नहीं कर पाते।" वसु मुँह खुला रखकर कुछ सोचते रहे तो मैंने महाभारत से अग्नि देवता से जुड़ा एक प्रसंग सुनाया। -"एक बार अग्नि देवता को यज्ञ का घी खाते खाते अजीर्ण हो गया।" 
          "अजीर्ण माने?" वसु ने पूछा। 
          "भूख न लगने की बीमारी।" 
          "यह क्या होता है?"
       "एक बीमारी होती है, जिसमें भोजन करने की इच्छा नहीं होती।"
          ......

          "तो अग्नि अजीर्ण के कारण पीले पड़ गए। जब अग्नि सबसे मद्धिम होती है तो उसकी लौ पीली होती है। "अच्छा बताओ, जब सबसे तेज होती है तो किस रंग की होती है?"
          "नीले रंग की!" वसु की माँ ने वसु की मदद की। 
          "हाँ! नीला रंग सबसे शक्तिशाली और रहस्यमयी होता है। 
          "तो, अग्नि ने इसकी शिकायत अश्विनी कुमारों से की। अश्विनी कुमारों ने इन्द्र को बताया और इन्द्र ने कहा कि अर्जुन और श्रीकृष्ण से मिलिए। वह लोग खाण्डव वन जला देंगे। यह वह समय था जब अर्जुन पांडवों को ताकतवर बनाने के लिए गली गली घूम रहे थे और सबसे अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर रहे थे। अग्नि ने अर्जुन से कहा। अर्जुन और कृष्ण ने खाण्डव वन को घेर लिया और आग लगा दी। जीव जन्तु जलकर भस्म होने लगे। हाहाकार मच गया। वन में ही तक्षक नाग परिवार सहित रहता था। उसने इन्द्र को पुकारा। इन्द्र मदद के लिए भागे आये। वह वर्षा के देवता हैं तो बारिश शुरू कर दी। आग मद्धिम पड़ने लगी। अग्नि ने अर्जुन की ओर देखा। अर्जुन ने कृष्ण की तरफ। अब अर्जुन और इन्द्र में द्वन्द्व छिड़ गया। किसी किसी तरह तक्षक को बचाने पर सहमति बनी। खाण्डव जलकर खाक हो गया। अग्नि ताकतवर हो गए। प्रसन्न होकर उन्होंने अर्जुन को कई आग्नेयास्त्र दिए। उधर तक्षक नाग ने अर्जुन से दुश्मनी साध ली। और जब महाभारत युद्ध हुआ तो वह कर्ण के पास पहुँचा। उसने कहा कि मुझे एक बाण पर संधान करके छोड़ो। मैं जाकर अर्जुन को डंस लूंगा। कर्ण ने ऐसा ही किया। कृष्ण अच्छे सारथी थे। उन्होंने ऐन वक्त पर रथ एक बित्ता जमीन में गड़ा दिया। बाण सहित तक्षक अर्जुन के मुकुट को ले उड़ा। अर्जुन बच गए। तक्षक ने फिर से कर्ण से अनुरोध किया लेकिन इस बार कर्ण ने उसकी बात न मानी। "तो इस तरह से अग्नि को भी प्रज्ज्वलित करने के लिए खाद्य सामग्री चाहिए होती है।" 
          कहानी खत्म हो गई थी। भोजन भी सम्पन्न हो चुका था। सब अपने काम पर लग गए।


बुधवार, 27 नवंबर 2019

कथावार्ता : पितृभक्त कुणाल

       
कल शाम वसु के साथ यूँ ही बेसबब घूमते हुए हम एक होटल के नजदीक से गुजरे। बड़े अक्षरों में वहाँ KUNAL लिखा हुआ था। वसु इन अक्षरों को पहचानने लगे हैं तो हिज्जे करने के बाद उन्होंने पूछा कि इसका क्या हुआ?
         "कुणाल" मैंने बताया। "इसका मतलब"- उनका बहुत भला प्रश्न था। "जिसकी आँखें हमेशा 'सुंदर' देखती हैं। इसका एक अर्थ सुंदर आंखों वाली एक चिड़िया भी है।" 
       "किसकी आँखें पापा?" -वसु के पास बात जारी रखने के लिए प्रश्नों की अंतहीन सीरीज हैं। 
        "कुणाल की।" मैंने कहा। "कुणाल, सम्राट अशोक का बेटा था। उसकी माँ तिष्यरक्षिता ने उसकी आँखें फोड़वा दी थीं।"
            कहानी दिलचस्प हो गयी थी। अब वसु के पास स्वाभाविक प्रश्न थे। -"क्यों?" मैंने कहानी याद करने की कोशिश की। हमलोगों के पास अपने इतिहास को कहने-जानने के लिए कहानियों का अभाव है। बल्कि कहा जाए तो कहानियों को कहने-सुनने के अभ्यास का अभाव है। हम किस्से और गप्प में भरोसा रखने वाले लोग हैं। तो याद आने के बाद मैंने कुछ खिचड़ी बनाकर कहानी सुना दी।- "कुणाल जब बड़ा हुआ तो उसके विवाह का प्रस्ताव आया। कपड़े, गहने और नारियल लेकर तिष्यरक्षिता के पिता अशोक के पास आये। मजाक मजाक में अधेड़ अशोक ने कहा कि 'क्या यह प्रस्ताव मेरे लिए है?' राजसभा में यह बात हँसी के फव्वारे में उड़ गई किन्तु धार्मिक प्रवृत्ति के कुणाल ने इसे गंभीरता से लिया। उसने कहा कि मजाक मजाक में ही पिता ने तिष्यरक्षिता को अपनी पत्नी के रूप में कामना की है। अतः मैं तिष्यरक्षिता से विवाह कैसे कर सकता हूँ? राजसभा में यह हड़कम्प मचा देने वाला मसला बन गया।" 
       वसु के लिए यह सब अब अझेल होने लगा और समझ से बाहर लेकिन वह हुँकारी भरते रहे और अपनी उत्सुकता प्रकट करते रहे तो मैंने कहानी आगे बढ़ा दी। "राजसभा में इस स्थिति की मीमांसा हुई और तय पाया गया कि कुणाल ठीक कह रहे हैं। एक विद्वान ने महाभारत की एक कथा सुनाई।" 
       अब वसु को एक अन्य सिरा मिल गया था। उन्होंने चहकते हुए कहा- "एक और कहानी?" -"हाँ, महाभारत में एक कहानी आती है कि दो भाई थे। एक संन्यासी और एक गृहस्थ। एक बार संन्यासी अपने गृहस्थ भाई से मिलने आया। गृहस्थ के बगीचे में अमरूद के पेड़ थे। उनपर अमरूद फला हुआ था। संन्यासी के मन में इच्छा हुई कि काश यह खाने को मिल जाता। और यह इच्छा प्रकट करते ही वह 'धर्मच्युत' हो गया। उसे अपनी मानसिक पतन का आभास हो गया। तो भाई के आने के बाद उसने इस गलती की बात बताई। भाई ने विचार किया और दण्ड का विधान किया कि संन्यासी के दोनों हाथ काट दिए जाएं। ऐसा ही हुआ। लेकिन उस कहानी में फिर सब चीजें सामान्य हो गयीं क्योंकि दोनों भाइयों की धर्मपरायणता ने यथास्थिति कर दिया।" 
          वसु को कुछ समझ में आया बहुत कुछ नहीं। लेकिन उन्होंने पूछ लिया कि कैसे हुआ यह। तो मैंने पूछा कि कुणाल की कहानी सुननी है या नहीं
    "सुननी है।" 
   "तो, तय हुआ कि तिष्यरक्षिता का विवाह अशोक के साथ हो। तिष्यरक्षिता कुणाल की सौतेली माँ बनकर आयी। वह क्रोध में थी। कुणाल से विवाह नहीं होने से दुःखी थी। 
    "एक बार कुणाल पढ़ने के लिए उज्जैन गए। राजा अशोक ने एक पत्र लिखा और भेजा। उस पत्र में तिष्यरक्षिता ने कुछ हेर फेर कर दिया। 'अधीयु' की जगह 'अंधीयु' कर दिया था। कुणाल ने यह पढ़ा तो स्वयं ही अपनी आँखें फोड़ लीं।" 
     "खुद से?" 
    "हाँ! खुद से। पापा की बात कैसे न मानता? फिर वह संन्यासी बन गया। बहुत साल बाद अशोक के राजसभा में लौटा। अशोक ने उसके नवजात बेटे 'सम्प्रति' को मौर्य वंश का उत्तराधिकारी बना दिया। अशोक का एक बेटा महेन्द्र और बेटी संघमित्रा श्रीलंका गए।" 
        हम वापस लौट आये थे। वसु के पास कई दूसरे काम थे। मैं कुणाल के बहाने कई दुनियावी बातों में उलझ गया। भारत में प्राचीन काल में बहुत से प्रतापी राजा हुए हैं लेकिन उनके प्रति उपेक्षा और विशेष दृष्टि सम्पन्न इतिहासकारों ने उनका ठीक मूल्यांकन नहीं किया। हमारी पीढ़ी और बाद की पीढ़ी शायद ही उन्हें जान पाए।

शुक्रवार, 8 नवंबर 2019

कथावार्ता : देवोत्थान एकादशी और हम

     
आज देवोत्थान एकादशी है। व्रत रहते हैं। ऐसी मान्यता है कि आज के दिन भगवान विष्णु चातुर्मास के शयन के बाद जागरण की अवस्था में आते हैं। एकादशी का पौराणिक महत्त्व चाहे जो हो, हमारी तरफ यह एक ऐसा अवसर रहता है, जिस दिन व्रत रहा जाता है। हमारी तरफ गन्ना चूसने की शुरुआत आज से होती है। अब छठ की उपस्थिति ने गन्ना चूसना पांच दिन पहले कर दिया है नहीं तो यह दिन नेवान का रहता था। एक बार मैंने एकादशी पर व्रत रहना निश्चित किया। लालच था कि शाम को पारण में फलाहार करने को मिलेगा। तब फलों का बहुत क्रेज था और आम भारतीय परिवार में फल मौके-महाले खरीदा जाता था। मौसमी फल ही हमारे लिए उपलब्ध थे। एकादशी की शाम को फलाहार और उसमें भी कन्ना (मीठा आलू) उबाला मिलता था। अहा! क्या दिव्य स्वाद था उसका। तो उसी लालच में हमने तय किया कि एकादशी व्रत रहेंगे। 
एकादशी व्रत में करना क्या है- दिन भर उपवास ही तो करना है। हम संकल्पबद्ध हो गए। सुबह उस दिन जल्दी हो गयी। स्नानादि कर लिया गया। अब सूरज निकल आया। क्रमशः चढ़ने लगा। इधर कुछ खाने की इच्छा जाग्रत हो गई। फिर हर क्षण बलवती होने लगी। घर में रहना दूभर होने लगा। दस बजते बजते छटपटाने लगे। ऐसी स्थिति के लिए हमलोगों ने प्लान 'बी' बनाया था। इसके तहत यह था कि भूख लगते ही गन्ना चूसने खेतों में निकल जाएंगे। आज से गन्ना चूसना 'वैध' हो जाता है। और एकादशी व्रत वाले इसे चूस सकते हैं क्योंकि यह फल में गिना जाता है। हमलोगों ने भरपेट गन्ना चूसा। जब तृप्त हो गए तो बाल मन कुछ करने को मचलने लगा।
      हमलोगों ने तय किया कि गुल्ली-डण्डा खेला जाए। यह बहुत मजेदार खेल है। प्रेमचंद की एक प्रसिद्ध कहानी इसी नाम से है। गुल्ली और डण्डा की व्यवस्था ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत आसान है। हम तो बाग और खलिहान की तरफ थे। साथियों में से एक सोझुआ हँसुआ ले आया था। उसे चारा भी काटना था। हम इसी शस्त्र से गन्ना भी काट रहे थे। हंसुआ की मदद से बेहया के पौधे से गुल्ली डण्डा बनाना तय हुआ। मुझसे छोटे मौसेरे भाई ने कहा कि मैं काटता हूँ तो मैंने बड़े भाई होने की धौंस जमाते हुए हंसुआ ले लिया। उसने कहा कि तुम शहरी लड़के हो, और यह हंसुआ थोड़ा अलग है। हमने फिर भी हंसुआ ले लिया और काटने उतरा। पहला भरपूर वार मैंने बेहया के पौधे पर निशाना साधते हुए किया। बेहया के डंठल पर तो यह बेअसर रहा, मेरे दाहिने पैर के घुटने पर हंसुआ का नुकीला सिरा जा धँसा। जब हमने उसे पैर से निकाला- खून की एक मोटी धार फव्वारे जैसी चली। अब मारे दर्द, भय और आशंका के 'मार खा रोई नहीं' वाली हालत हो गयी। रोना आ रहा था लेकिन भय वश रूलाई नहीं छूट रही थी। अब क्या हो? सबके हाथ-पाँव फूलने लगे। 
तब हमने अपनी मेधा का प्रयोग किया। हमने सुना था कि देश की मिट्टी औषधीय गुणों की खान है। वह रक्तप्रवाह रोक देती है। हमने बहुत सारा धूल कटे पर लगाया। लेकिन खून रुकने की बजाय मटमैला होकर बहने लगा। यह उससे भयावह स्थिति थी। हम घर की ओर भागे। राह में ट्यूबवेल का पानी खेतों में लगाया जा रहा था। हमने घाव को उस पानी से धोया तो नाली रक्तरंजित हो गयी। जब हम घर पहुंचे तो सब बहुत परेशान हुए। माँ ने घी का लेप किया। पट्टी बाँधी गयी। चिकित्सक बुलाया गया। प्राथमिक चिकित्सा के बाद दवा की टिकिया मिली। सलाह थी कि कुछ अन्न ग्रहण कर दवा ली जाए। यह धर्मसंकट था। एकादशी का व्रत था और अन्न ग्रहण करना था। मैंने साफ मना कर दिया। यह नहीं हो सकता। तब दीदी संकटमोचक बनी।दीदी ने धीरे से कान में बताया कि शाम को तुम्हारे हिस्से का फल तो रहेगा ही, मेरे भाग का आधा भी तुमको मिलेगा। यह प्रस्ताव आकर्षक था। हमने दवा ली। शाम को छककर प्रसाद पाया। भरपेट कन्ना खाया। एकादशी का व्रत पूरा हुआ। वह घाव बहुत दिन तक रहा।अब भी उसका दाग है। हर एकादशी उसकी याद आती है।

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019

कथावार्ता : रोटी (चपाती), हथरोटिया और लिट्टी

आज सुबह नाश्ते में मेरे समक्ष विकल्प था - रोटी या हथरोटिया! हमने हथरोटिया चुना। बरसों हो गए थे खाये! रसोई में लकड़ीवाला चूल्हा और उसपर सिकें हथरोटिया का स्वाद अगर आपने लिया होगा और विकल्प हो कि चाहें तो चुन लें तो उसे पाने के लिए आप जरूर मचल जाएंगे। हमने चुना और मजे में खाया। स्वाद? 'यो ब्रो' वाली पीढ़ी जिसे 'यम्मी' कहती है, वह इस स्वाद से परिचित ही नहीं है। परिचय हो जाये और चबाने के महत्त्व से परिचित हो जाये तो उसे पता चलेगा कि रसोई में हमारी माँ/चाची क्या क्या व्यंजन रान्धती थीं। 
रोटी या चपाती से तो हम परिचित हैं। हथरोटिया अपेक्षाकृत मोटी रोटी होती है। तवे पर सिंकने के बाद इसे चूल्हे में पकने के लिए रखते हैं। आमतौर पर चूल्हे के मुहाने के पास। मद्धिम आंच में पकती है। मीठी होती है। संयुक्त परिवारों में जहां रोटी अधिक पकाना रहता है, बहुएं और रसोई का जिम्मा लेने वाले बाद में हथरोटिया बना लेते हैं। महीन रोटी बेलने के झंझट से निजात मिल जाती है। स्वादिष्ट ऐसी कि पूछिये मत। जिनने नहीं खाया, वह जानते ही नहीं। जान भी नहीं सकते।

एक और चीज है, लिट्टी। गोल। खूब मोटी। समझिए कि दस चपाती की एक मोटी लिट्टी। बेलने के लिए चकला-बेलन आवश्यक नहीं। तवे पर थोड़ी देर सिंकेगी, फिर चूल्हे में। चूल्हे की दीवार के सहारे खड़ी कर दी जाती है। थोड़ी देर देर में उलटते पलटते रहना पड़ता है। जब सिंक कर चइला हो जाये तो खाते हैं। नमक मिर्च भी पर्याप्त है। जिन घरों में पौष्टिक आहार का अभाव था, उसमें लिट्टी हीमोग्लोबिन का जबर स्रोत ठहरी। चूल्हे की आग आयरन की कमी पूरी करती है। नवप्रसूता जब हीमोग्लोबिन की कमी से जूझती थी, यहां उसकी भरपाई करती थी। वे मजदूर जो दिनभर मजूरी करके खटते हैं, शाम को लिट्टी पकाते हैं। जब तक तरकारी पकती है, लिट्टी भी बन जाती है। प्रेमचंद की एक कहानी में मजदूर फावड़े का इस्तेमाल तवे की तरह करते चित्रित हुए हैं। उनपर लिट्टी ही पकेगी, चपाती नहीं। खैर, तो लिट्टी अद्भुत चीज ठहरी। गजब की। स्वाभाविक रूप से मीठी। अन्न कितना मीठा होता है, आप इसे खाकर जान सकते हैं। 
लोगबाग लिट्टी और चोखा से जोड़ सकते हैं। इधर पूर्वांचल का प्रिय व्यंजन है। लेकिन जो लोग अंतर जानते हैं, वह समझ जाएंगे कि यह लिट्टी वह नहीं। लिट्टी चोखा वाली लिट्टी को हम भौरी कहते हैं। आग में नहीं, यह भौर में पकती है। भौर आग के मद्धिम पड़ने पर बची हुई ऊष्मा से बनती है। राख में बची हुई ऊष्मा भौर है। 
बाटी वह है जिसमें पूरन भरते हैं। पूरन आमतौर पर सत्तू का होता है। भौरी में कुछ नहीं डालते। वह स्वयं में पूर्ण होता है। पूरन डाल दिया, यानी उसकी पूर्णता में कोई संदेह था। इसतरह बाटी पूर्ण बनने/बनाने की कोशिश है। जबकि भौरी में शून्य की उपस्थिति है। शून्य मतलब 'कुछ नहीं' नहीं। शून्य का मतलब 'जीरो' नहीं है। यह पूर्णता का प्रतीक है। तो ग्रामीण जिस भौरी का सेवन करते हैं, वह पूर्ण से साक्षात्कार है। हमने कल बाटी खाई। सत्तू का पूरन बना था।

एक और ही व्यंजन है- मकुनी। जब चपाती के बीच में कुछ पूरन भरते हैं तो बनती है मकुनी। सत्तू, आलू, मटर आदि आदि का पूरन हो सकता है। बाद में परांठे बनने लगे तो सब उसी में मिक्स हो गया।
'पूरी' की चर्चा आदरणीय #कुबेरनाथ_राय ने अपने एक निबंध में बहुत मजे से की है।

अब जबकि खाने पीने की चीजों में भी एकरसता आ गयी है। महीन खाने के चक्कर में हम सब अपनी रसोई से विविधता नष्ट कर चुके हैं, एक मोनोपोली कल्चर घर कर गया है और फास्टफूड ने भिन्न स्वाद लेकर हमारे स्वादेन्द्रिय को बदल डाला है, हम इन व्यंजनों से दूर होते जा रहे हैं। 
(चित्र में देखें,हमारे दरवाजे पर खिला हुआ गुलाब और आंवले की हरीतिमा। इस बार आया तो लंगड़ा आम उकठ गया देखा। वह जगह सूनी लग रही।)

शनिवार, 5 अक्तूबर 2019

कथावार्ता : धूम धड़क्का डेढ़ सौ

   जब से कॉन्वेंट वाले छैला टू वंजा टू, टू टूजा फोर पढ़ने लगे तब से वह सब मजा जाता रहा जो हिंदी पहाड़े पढ़ते, याद करते और सुनने-सुनाने में मिला करता था। बच्चे पाँच, दस, पन्द्रह और बीस का पहाड़ा सहज ही याद कर लेते थे। नौ और तेरह का पहाड़ा याद हो चाहे नहीं, पन्द्रह और बीस का खूब अच्छे से याद रहता था। कारण था उनकी संगति, तुक और सीधाई।
   दस और बीस का पहाड़ा तो बहुत आसान था। एक और दो के पहाड़े जैसा। लेकिन पन्द्रह का पहाड़ा आसान था अपनी लय और रवानी के कारण।
    पन्द्रह एकम पन्द्रह
    दूना के तीस
    तियाँ पैंतालीस 
    चौके साठ
      जैसी गीतात्मकता किसी अन्य के साथ नहीं है। जब पचे पचहत्तर, छक्का नब्बे की धुन बनती थी तो सत्ते पंजा, अट्ठे बीसा, नौ पैंतीसा लहर में चल पड़ती थी और इस आखिरी धप्पे के लिए हम उमगे रहते थे- धूम धड़क्का डेढ़ सौ। जब धूम धड़क्का डेढ़ सौ आता था तो गर्व, ज्ञान और श्रेष्ठता का भाव आस पास मंडराने लगता था। सुनने वाला तारीफ करते नहीं अघाता था क्योंकि उसे इस होनहार पर बहुत स्नेह उमड़ता था। वह स्नेह दिखता था। आसपास की हवा में मधुरता घोल देता था। हमें अपने उस सगे पर गर्व होता था और रिश्ता थोड़ा और मजबूत हो जाता था। फिर बुझौवल सवाल शुरू होते थे। सवाल कुछ यूं होते थे- क नवां मुँह चुम्मा-चुम्मी? क सते गंड़धक्का-धक्की? फिर खुसुर फुसुर, ही ही ही ही शुरू होता।
       आज ऐसे ही चुहल के एक प्रसंग में निकल आयी मुँहचुम्मा-चुम्मी वाली संख्या। जब हम तिरसठ ६३ लिखते हैं तो ६ और ३ की एक सी आकृति आमने-सामने होती है और यह दो संख्याएं एक दूसरे से प्रेम करती प्रतीत होती हैं। जरूर यह किसी प्रेमी जीव की संकल्पना रही होगी जो संख्याओं के साहचर्य को प्रेम और तज्जनित झगड़े से जोड़कर देखने का आग्रह करता है। प्रेमी जीव ऐसे ही होते हैं। हर तरफ प्रिय की छवि देखने वाले। चर-अचर जगत में हर गति प्रेम के क्रियाकलाप से संचालित होती है।
       ललित निबंध की एक किताब देख रहा था। ललित निबंधकार और कई विशेषताओं के साथ एक और खूबी समेटे रहते हैं। कविता की जैसी रससिद्ध व्याख्या ललित निबंधकार करता है वह आलोचक जैसे भूसा भरे रसहीन व्यक्तित्व के पास कहाँ। ललित निबंधकार अपनी मस्ती में दुनिया भर के वाङ्गमय से मन लायक चीजें जोह लाता है और क्रमशः परोसता जाता है। वह किसी भी विषय पर कहीं भी लिखने के लिए स्वतंत्र होता है और उसे संदर्भ देने की आवश्यकता भी नहीं होती। अस्तु,
ललित निबंधकार के यहां एक प्रसंग में 'धर्म' के लक्षणों की विवेचना होने लगी। तमाम पढ़ाकू और विद्वतजन धर्म की परिभाषा के लिए मनु, पाराशर, याज्ञवल्क्य और महाभारत की शरण में जाते हैं और दो पंक्ति में अपनी बात कहकर निकल लेते हैं। मीमांसा दर्शन में धर्म की परिभाषा की गई है कि वेदविहित जो यज्ञादि कर्म है उन्हीं का विधिपूर्वक अनुष्ठान धर्म है। जैमिनि ने धर्म का जो लक्षण दिया है उसका अभिप्राय यही है कि जिसके करने की प्रेरणा (वेद आदि में) हो, वही धर्म है। तो उस निबंधकार के यहां यह मूल संस्कृत में था और मेरी दुगुनी ऊर्जा उसका अर्थ संधान करने में लगी। उसका पहला पाठ/उच्चारण ही असामाजिक लगेगा। और अपन उसके अर्थ संधान में लगे रहे। पाया कि बात तो उचित ही कही गयी है, बस तनिक वक्रतायुक्त। खैर।
निबंधकार सामान्य काव्य पंक्ति का विस्तार से अर्थ और व्याख्या करेगा और कठिन तथा उत्सुकता वाले हिस्से को आधा ही कहकर छोड़ देगा। आप खोजते फिरिये कि कालिदास ने 'अनाघ्रातं पुष्पं किसलयमललूनं कररुहै रनामुत्तं रत्रं मधु नवमनास्वादितरसम्' लिखा तो इसका अर्थ क्या हुआ। उसका अंश उद्धृत करके वह ललित कुमार आतंक क्यों जमा रहा है और पाठक की क्षुधा शांत क्यों नहीं करता। बहरहाल।


      तो पहाड़े में मुँहचुम्मा चुम्मी और गंड़धक्का-धक्की का मतलब क्या है। हमारी ग्यारहों इंद्रियां रीजनिंग के इस सवाल से जूझती थीं। सभी संभावित अंक में ऐसी रोचक संभावना तलाश होती थी तब तक कोई नया सवाल हमारे लिए तैयार रहता था। कब हम तर्कशक्ति और रीजनिंग की योग्यता प्राप्त कर लेते थे, कब यह सब हमारे ज्ञान जगत का हिस्सा बन जाता था- क्या कहा जा सकता है।
इसलिए आज जब यह पूछने का अवसर आया तो पहाड़े की प्रकृति, पढ़ने के परम्परागत तरीके पर बहुत लाड़ आया। किंडरगार्टन की वर्तमान बोनसाई इन सुखों से वंचित है।
अच्छा! स्मृतियों पर जोर देकर बताइये तो सही 'क नवां इटोलसे?'

सद्य: आलोकित!

जातिवादी विमर्श में चमकीला

 एक फिल्म आई है #चमकीला नाम से। उसके गीत भी हिट हो गए हैं। फिल्म को जातिवादी कोण से इम्तियाज अली ने बनाया है जो चमकीला नाम के एक पंजाबी गायक...

आपने जब देखा, तब की संख्या.