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गुरुवार, 20 जनवरी 2022

तरुणाई का आख्यान चांदपुर की चंदा

किशोरवय की कहानियां लिखना बहुत चुनौती का काम है। जो उफान उस समय भावनाओं का रहता है और जितने सपने तरूणों के पास होते हैं, उसे कागज में उतारना और कथा के प्रवाह में बांध देना एक कौशल है। हिन्दी में किशोरवय को केंद्र में रखकर गिने चुने उपन्यास लिखे गए हैं। गुनाहों का देवता, कसप, तुम्हारे लिए और कोहबर की शर्त इनमें मील का पत्थर की तरह हैं।

कोहबर की शर्त, केशव प्रसाद मिश्र ने बलिया की पृष्ठभूमि में लिखा है और अब बलिया के ही एक गांव चांदपुर को केन्द्र में रखकर अतुल कुमार राय ने चांदपुर की चंदा लिखा है। यह उनका पहला ही उपन्यास है और मुझे कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि यह अपने ढंग का अनूठा उपन्यास है।

जहां इस बदल रहे समय में आमतौर पर गांव का चित्रण हिन्दी में अधिकतर उद्दीपन के लिए हो रहा है, वहां "चांदपुर की चंदा" बहुत गहरे स्तर तक गांव में ही है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए आप गांव के संक्रमणशील स्वरूप को देख सकते हैं। गांव बहुत तेजी से बदल रहे हैं। सूचना, प्रौद्योगिकी, तंत्र और दुनिया के रंग ढंग गांव का कायाकल्प कर रहे हैं। गला काट प्रतिस्पर्द्धा के दौर में लोग आगे निकलने के लिए किसी भी मर्यादा के पार चले जाने के उद्धत हैं। इस हेतु शिक्षा, संस्कृति, शासन, प्रशासन और तंत्र से मनमाने तरीके से काम लिया जा रहा है। चांदपुर इससे अछूता नहीं है। वहां एक विद्यालय है, उसमें नकल कराने का ठेका लिया जाता है और दूर दराज के लोगों को पास कराया जाता है। चांदपुर के नायक मंटू और नायिका चंदा उसी विद्यालय के विद्यार्थी हैं। शिक्षा का जो स्वरूप देश भर में है, चांदपुर में उसकी एक बानगी देखी जा सकती है। राग दरबारी में जिस छंगामल विद्यालय की चर्चा श्रीलाल शुक्ल ने की है, चांदपुर का विद्यालय उससे भी एकाध कदम आगे निकल आया है। इसमें सामूहिक नकल होती है और लोग अपने होनहार बच्चों को नकल सामग्री उपलब्ध कराने के लिए व्यग्र दिखाई देते हैं। विद्यालय स्ववित्त पोषित योजना के अंतर्गत चल रहा है जहां धन उगाही ही एकमात्र लक्ष्य है।

उपन्यास में एक चट्टी है जहां झोला छाप चिकित्सक हैं, रोजमर्रा के जिंस की बिक्री होती है, इलेक्ट्रिक-इलेक्ट्रॉनिक उपकरण आदि सुधारे जाते हैं और जो टाइम पास का सबसे बड़ा अड्डा है। यहां खलिहर लोग, युवक हंसी ठठ्ठा करते हुए, एक दूसरे का मजाक उड़ाते हुए, जीवन के बोझ को ढो रहे हैं। यहां शारीरिक और मानसिक व्याधियों का झोला छाप और कामचलाऊ इलाज होता है। यह चांदपुर का केन्द्रीय स्थान है। गांव की हर गतिविधि का यह चट्टी साक्षी बनता है।

चांदपुर गांव सरयू नदी के किनारे बसा है और इसमें हर साल इतनी बाढ़ आती है कि हर साल एक नया चांदपुर बन जाता है।

          चांदपुर कुछ मास के लिए विस्थापित हो जाता है और पुनः उठ खड़ा होता है, दुगुनी जिजीविषा के साथ। जीवन इसी उजड़ने और बसने के बीच चलता जाता है। इसी में पर्व त्योहार और बरिस बरिस के दिन आते जाते हैं। उपन्यास में चांदपुर गांव के बारहमासे का बहुत महीन चित्रण है जिसे किंचित ध्यान देकर परिलक्षित किया जा सकता है।

          इसी में मंटू और चंदा का प्यार परवान चढ़ता है। प्रेम कथाकारों का प्रिय विषय रहा है किंतु इसे कैसे परोसना है, इसे अतुल बखूबी जानते हैं। इस प्यार में मर्यादा, शील और लाज है और भावनाओं का चरम भी। इससे उठते चटखारे हैं और उस अप्रिय स्थिति से जूझते प्रेमी जीव।

          चांदपुर की चंदा, गांव के जीवन, चंदा और मंटू की प्रेम कहानी के साथ साथ साथ गांव की बदलती संस्कृति, वृद्ध हो रहे लोगों की पीड़ा, प्रवासी होने का दर्द, वैवाहिक संबंध, विवाहेतर संबंध, दहेज, प्रधानी के दांव पेंच आदि का एक भावुक और आत्मीय आख्यान है। इसमें गुदगुदाने वाले बहुत से प्रसंग हैं तो पलकें नम कर देने वाले भी। इस उपन्यास ने गांव के जीवन की धड़कन को समेट लिया है।

 रामलीला के मंचन का प्रकरण हो अथवा बसंत पंचमी का, हरेक वर्णन अनूठा है और आपको गांव के जन जीवन में ले जाने वाला है।

          उपन्यासकार अतुल कुमार राय की विशेषता यह है कि वह तथाकथित आधुनिकता के प्रवाह में बहे नहीं हैं अपितु भारतीयता की डोर को मजबूती से पकड़े हुए हैं, इसलिए बदल रही परंपराएं उनके लिए मजाक का विषय नहीं हैं। यदि उसमें हास्य का पुट है तो इसमें भी एक पीड़ा है। वह भारतीयता के सूत्र को सहेजने वाले रचनाकार हैं। उनके विवरण सुने सुनाए नहीं हैं, उसमें भोक्ता होने की सुगंध है। उनका दायरा भी बहुत विस्तृत है। आजकल के लेखन में विषय को समझने की जो गहराई अपेक्षित है, उससे लेखक किनारा कर लेता है और डिटेल में पड़ने से बचता है जबकि अतुल उसे जीते हैं। इसलिए चांदपुर की चंदा पढ़ते हुए हम मोहाविष्ट हो जाते हैं और उसकी खुमारी में डूबने उतराने लगते हैं। अतुल कुमार राय के यहां विवरण में जो तफसील है, वह दिल को छू लेने वाला है।

          यह अतुल का पहला उपन्यास है। इसे पढ़ते हुए हम इस तरह साधारणीकृत करते हैं कि उसका पात्र बन जाते हैं। अतुल को इसमें विशेष दक्षता मिली है कि वह एक कलाकार की आंखों देखी जिंदगी को दूसरे के समक्ष अधिक रंगीन बना दें। सिनेमा और साहित्य इस उपन्यास में धड़कता है। प्रेम कहानी ऐसे ही किसी स्वप्न में पलती है, जो चलचित्र की रूपहली दुनिया पर जन्म लेती है और बहुतेरे तरूणों के आंखों में जवान होती है।

          इस उपन्यास का संदेश बहुत साफ है। गांव बदल रहा है और इसका भविष्य वहीं पल रहे युवाओं के हाथ से संवरने वाला है। चंदा और मंटू की आखों से होता हुआ यह किस रूप रंग में ढलेगा, वह आने वाला समय बताएगा किंतु यह निश्चित है कि गांव के सबसे बुजुर्ग और बरगद की छवि रखने वाले झाँझा बाबा ने इसे अपनी सहमति दे दी है।

          आपको यह उपन्यास पढ़ना चाहिए। यह देखने के लिए कि आजकल के लेखन से यह कैसे अलग है। एक सच्ची कहानी कैसे उतरती है और हम सबके आसपास की कहानी बन जाती है। अतुल इस कहानी को इस तरह ले गए हैं कि पाठक इसमें बहता जाता है। मैं अभी किनारे लगा हूं, जहां एक नाव बीच धारा में चली जा रही है और लोग उसे नम आंखों से विदा कर रहे हैं।

          हिन्द युग्म प्रकाशन की इस प्रस्तुति का स्वागत किया जाना चाहिए।

 

- डॉ रमाकान्त राय

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इटावा

                                                                                              ट्वीटर - @ramakroy


मंगलवार, 4 जनवरी 2022

क्रान्ति के तरीके और पैराडाइम शिफ्टिंग!

   बीते दिन एक शॉपिंग मॉल के पास से निकल रहा था तो बुल्ले शाह का वह प्रसिद्ध गीत पॉप धुन में सुनाई पड़ा- "बुल्ला की जाणा मैं कौण" बुल्लेशाह का यह और अन्य कुछ दूसरे गीत गायकों की पसंद हैं। अमीर खुसरो के गीत भी धुन बदल बदल कर गाई गयी है। इस्लामी (सूफी) गायकों ने और उससे प्रभावित हो कर दूसरे गायकों ने भी कई ऐसे साधकों के गीत भिन्न भिन्न अंदाज में पेश किया है। पिछले दिनों फैज़ अहमद फैज़ की वह नज़्म भी पाकिस्तान की टोली 'कोक स्टूडियो' ने खूब झूम कर गाया था और वह मकबूल हुआ। इकबाल बानों का गाया हुआ और उनका किस्सा तो रोमानियत की मिसाल है। मज़ाज़, इक़बाल, टिन्ना पिन्ना के गाने भी बहुत मन से गाये गए हैं। हिंदी फिल्मों में भी इनका बोलबाला रहा है।

     उसके मुकाबिले हिंदी/संस्कृत के गीतों को साधने की कोशिश बहुत कम है। तुलसी-सूर को कोई गाने की कोशिश करता है तो 'चंचल' बन जाता है। उनका तरीका भी शास्त्रीय संगीत का भ्रष्ट रूप रहता है। पॉप और जैज़ के खाँचे में डालने की बात सोचना भी हमने जरूरी नहीं समझा है। लता मंगेशकर, आशा भोंसले और रवीन्द्र जैन ने कुछ ढंग का गाया तो है लेकिन वह "भक्ति" के दायरे में रख दिया गया और युवाओं से परे कर दिया गया। कोई नया आयाम देकर गाने की कोशिश भी नहीं करता।

       इसके पीछे एक बड़ी वजह "मानसिकता" की है। ट्रेंड बनाने की है। राजकीय प्रश्रय की है। कुछ गायकों ने 'रूढ़ि' को भी ताकत बना लिया। हम मठ और गढ़ तोड़ने में मशगूल रहे। किसी कवि ने यह नहीं कहा कि हम शरिया आदि का भी ख़ात्मा करेंगे। हम कुरआन और हदीस के आसमानी मान्यताओं को नहीं मानते। यह सब बकवास है। बल्कि "मार्क्सवादी शायर" फैज़ अहमद फ़ैज़ तो "बस नाम रहेगा अल्लाह का" और "सब बुत उठवाए जाएंगे" लिखकर भी "क्रांतिकारी" हैं। और जीवन को बदल देने वाले कवि उपेक्षित तथा पोंगापंथी।

       तो कहने का आशय यह है कि यह पैराडाइम एक लंबे डिस्कोर्स से बना है। उसे ध्वस्त करने के लिए सूक्ष्म और तार्किक तथा संगठित और रचनात्मक लड़ाई करनी होगी। उटपटांग के आरोप-प्रत्यारोप से यह और मजबूत होगा। 

    आइए सैय्यद इब्राहिम रसखान की यह कविता पढ़ते हैं- मनुष्य के जीवन की सार्थकता क्या है-

मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।

जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥

पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धरयो कर छत्र पुरंदर धारन।

जो खग हौं तो बसेरो करौं, मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥


#Faiz, #raskhan, #kathavarta #katha #varta #कथा #कथावार्ता

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021

हमारे पकवान : खीर, बखीर और तसमयी

बहुत दिन के बाद आज खाने में खीर मिली तो सोचा कि इस मनपसंद व्यंजन पर कुछ रसमयी चर्चा हो। आज जो हमने खाया, यह वास्तव में तसमई थी। जब पर्याप्त मात्रा में दूध हो। महीन चावल निखालिस दूध में पकाया जाए। मेवा-मिश्री (शक्कर) पड़े, तो जो स्वादिष्ट व्यंजन बनेगा, वह है तसमई। लेकिन हमने इसे खीर का नाम दिया है।

बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि खीर वह है जिसमें दूध में चावल पके और अंत मे गुड़ मिलाया जाए। खीर शब्द क्षीर का तद्भव ही है। क्षीर दूध को ही कहते हैं। नीर-क्षीर विवेक का पद तो खूब प्रचलित है। त्रिदेवों में कल्याणकारी देव विष्णु का निवास क्षीरसागर में ही कहा गया है। ध्यान रखें कि गुड़ पहले मिलाया तो दूध फट जाएगा और खीर का मजा जाता रहेगा। तो खीर बनती है गुड़ मिश्रित करने से। 

एक दूसरा व्यंजन है बखीर। जब कचरस में चावल पके। वह भी नया चावल। आजकल हमारे घर में सरजू बावन कटने लगा है और एकदम नए चावल का भात भी मिल रहा है, ऐसा माताजी  बता रही थीं। तो नया चावल मतलब इस मौसम का चावल। कचरस मतलब गन्ने का पेरा हुआ कोल्हाड़ से आया हुआ ताजा रस। उसी में चावल पकाते हैं और बाद में थोड़ा सा दूध मिला देते हैं। तो बनता है बखीर। बताता चलूं कि न तो मुझे खीर पसंद है न बखीर। यद्यपि लालसा रहती है उर्वशी को पाने सरीखी।

एक चौथा व्यंजन बाद के समय मे लोकप्रिय हुआ है- सिवई। शमीम मियां ने एकबार सूखी सिवई खिलाई थी तबसे मेरे पाक में कोशिश वही सूखी सिवई बनाने की रहती है जिसमें दूध खोए की तरह हो जाता है और ड्राई फ्रूट्स तैरते रहते हैं। तसमई के प्रेमी हम भाई-बहन सिवई भी तसमई की तरह बनाते रहे हैं। मेरे बड़े भाई श्री शशिकान्त राय का दावा है कि वह तसमई बहुत स्वादिष्ट बनाते हैं। हालांकि हम सब उन्हें यह जिम्मा सौंपते हुए हमेशा डरते रहते हैं और वह बहुत उत्साह से बनाते हैं। और हम खा भी लेते हैं। खैर

       तो मीठे ने ऐसे हमारे रसोई में जगह बनाई थी कि जिस दिन तसमई बन जाती थी, उस दिन हम अतिप्रसन्न रहते। राजसी भोजन ग्रहण करते। 

       अब तो जीवन में पश्चिमी जीवन शैली ने ऐसे जगह बना ली है कि मीठा कई घरों की रसोई से गायब हो गया है। रेस्तरां और होटल के नवाचारी खाद्य और ऐसे पकवान जिसमें फ्यूजन है, ने हमें घेर लिया है। शीत ऋतु का आरंभ हो गया है तो आजकल गज़क मिलने लगा है। पहले गज़क तिल मिश्रित ही होता था। अब देखता हूँ कि गेंहू का गज़क भी मिलने लगा है। पित्जा और बर्गर और अनापशनाप ने हमें भ्रष्ट कर रखा है। 

          जिनकी थाली में आज भी कोई मीठा पकवान सुरुचिपूर्ण ढंग से रखा है, वह मेरे देखे सबसे अधिक भाग्यशाली है।

 

 

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सोमवार, 15 नवंबर 2021

देवोत्थान एकादशी की एक स्मृति

आज देवोत्थान एकादशी है। व्रत रहते हैं। हमारी तरफ गन्ना चूसने की शुरुआत आज से होती है। अब छठ की उपस्थिति ने गन्ना चूसना पांच दिन पहले कर दिया है नहीं तो यह दिन नेवान का रहता था।


एक बार मैंने एकादशी पर व्रत रहना निश्चित किया। लालच था कि शाम को पारण में फलाहार करने को मिलेगा। तब फलों का बहुत क्रेज था और आम भारतीय परिवार में फल मौके-महाले खरीदा जाता था। मौसमी फल ही हमारे लिए उपलब्ध थे। एकादशी की शाम को फलाहार और उसमें भी कन्ना (मीठा आलू) उबाला मिलता था। अहा! क्या दिव्य स्वाद था उसका।

तो उसी लालच में हमने तय किया कि एकादशी व्रत रहेंगे।

एकादशी व्रत में करना क्या है- दिन भर उपवास करना है। संकल्पबद्ध हो गए। सुबह उस दिन जल्दी हो गयी। स्नानादि कर लिया गया। अब सूरज निकल आया। क्रमशः चढ़ने लगा। इधर कुछ खाने की इच्छा जाग्रत हो गई। फिर हर क्षण बलवती होने लगी। घर में रहना दूभर होने लगा। दस बजते बजते छटपटाने लगे।

हमलोगों ने प्लान 'बी' बनाया था। इसके तहत यह था कि भूख लगते ही गन्ना चूसने खेतों में निकल जाएंगे। आज से गन्ना चूसना 'वैध' हो जाता है। और एकादशी व्रत वाले इसे चूस सकते हैं क्योंकि यह फल में गिना जाता है।

हमलोगों ने भरपेट गन्ना चूसा। जब तृप्त हो गए तो बाल मन कुछ करने को मचलने लगा।

हमलोगों ने तय किया कि गुल्ली-डण्डा खेला जाए। यह बहुत मजेदार खेल है। प्रेमचंद की एक प्रसिद्ध कहानी इसी नाम से है। गुल्ली और डण्डा की व्यवस्था ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत आसान है। हम तो बाग और खलिहान की तरफ थे।

साथियों में से एक सोझुआ हँसुआ ले आया था। उसे चारा भी काटना था। हम इसी शस्त्र से गन्ना भी काट रहे थे। हंसुआ की मदद से बेहया के पौधे से गुल्ली डण्डा बनाना तय हुआ। मुझसे छोटे मौसेरे भाई ने कहा कि मैं काटता हूँ तो मैंने बड़े भाई होने की धौंस जमाते हुए हंसुआ ले लिया। उसने कहा कि तुम शहरी लड़के हो, और यह हंसुआ थोड़ा अलग है। हमने फिर भी हंसुआ ले लिया और काटने उतरा। पहला भरपूर वार मैंने बेहया के पौधे पर निशाना साधते हुए किया। बेहया के डंठल पर तो यह बेअसर रहा, मेरे दाहिने पैर के घुटने पर हंसुआ का नुकीला सिरा जा धँसा। जब हमने उसे पैर से निकाला- खून की एक मोटी धार फव्वारे जैसी चली।

अब मारे दर्द, भय और आशंका के 'मार खा रोई नहीं' वाली हालत हो गयी। रोना आ रहा था लेकिन भय वश रूलाई नहीं छूट रही थी। अब क्या हो? सबके हाथ-पाँव फूलने लगे।

तब हमने अपनी मेधा का प्रयोग किया। हमने सुना था कि देश की मिट्टी औषधीय गुणों की खान है। वह रक्तप्रवाह रोक देती है।

हमने बहुत सारा धूल कटे पर लगाया। लेकिन खून रुकने की बजाय मटमैला होकर बहने लगा। यह उससे भयावह स्थिति थी। हम घर की ओर भागे। राह में ट्यूबवेल का पानी खेतों में लगाया जा रहा था। हमने घाव को उस पानी से धोया तो नाली रक्तरंजित हो गयी। जब हम घर पहुंचे तो सब बहुत परेशान हुए।

माँ ने घी का लेप किया। पट्टी बाँधी गयी। चिकित्सक बुलाया गया। प्राथमिक चिकित्सा के बाद दवा की टिकिया मिली। सलाह थी कि कुछ अन्न ग्रहण कर दवा ली जाए।

यह धर्मसंकट था। एकादशी का व्रत था और अन्न ग्रहण करना था। मैंने साफ मना कर दिया। यह नहीं हो सकता। तब दीदी संकटमोचक बनी।दीदी ने धीरे से कान में बताया कि शाम को तुम्हारे हिस्से का फल तो रहेगा ही, मेरे भाग का आधा भी तुमको मिलेगा। यह प्रस्ताव आकर्षक था। हमने दवा ली। शाम को छककर प्रसाद पाया। भरपेट कन्ना खाया। एकादशी का व्रत पूरा हुआ।

वह घाव बहुत दिन तक रहा।अब भी उसका दाग है।

हर एकादशी उसकी याद आती है।

सोमवार, 28 जून 2021

Kathavarta : तांडव का सॉफ्ट वर्जन है ग्रहण

-डॉ रमाकान्त राय 

डिजनी हॉटस्टार पर हालिया प्रदर्शित वेब सीरीज #ग्रहण (#Grahan) मशहूर लेखक सत्य व्यास की औपन्यासिक कृति "चौरासी" पर केंद्रित है। देश में 31 अक्टूबर, 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके अंगरक्षकों द्वारा हत्या कर दी गई थी। उसके बाद कांग्रेस दल के कार्यकर्ताओं ने अगले दो दिन तक देश भर में सिख समुदाय के लोगों को चिह्नित कर मारा। उनके घर जला दिएमहिलाओं के साथ बलात्कार किया और बच्चों को जलती आग में झोंक दिया। केन्द्रीय नेतृत्व मूक बधिर बना रहा। नव नियुक्त प्रधानमंत्री ने कहा था कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो आसपास कंपन होता ही है। यह एकतरह से खुली छूट थी। अकेले दिल्ली में पांच हजार से अधिक सिख मारे गए।

कालांतर में 1984 के इस नरसंहार को "सिख दंगा" कहा गया और इसे सांप्रदायिक हिंसा के रूप में देखे जाने के लिए विमर्श किया। आज भी एकतरफा किए गए इस कत्लेआम को बुद्धिजीवी "दंगा" कहते और लिखते हैं।

हिन्दी में 1984 के सिख नरसंहार को केंद्र में रखकर लिखे गए साहित्य का अभाव है। राही मासूम रज़ा के असंतोष के दिनअजय शर्मा के नाटक ऑपरेशन ब्लू स्टार आदि को छोड़ दिया जाए तो कुछ भी ढंग का नहीं लिखा गया है। बनारस टाकीज और दिल्ली दरबार से लोकप्रिय हुएलुगदी लेखक सत्य व्यास का उपन्यास चौरासी इसी नरसंहार को केंद्र में रखकर लिखा गया है जिसपर आठ एपिसोड का वेबसीरीज "ग्रहण" डिजनी हॉटस्टार पर प्रदर्शित हुआ है।

सिख नरसंहार केवल राजधानी दिल्ली में नहीं हुआ था। इसकी लपटें पूरे देश में उठीं। ऑपरेशन ब्लू स्टार अर्थात अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर में अलगाववादी खालिस्तानी समर्थक भिंडरावाला को पकड़ने के अभियान के बाद सिख समुदाय आक्रोशित था। सांप्रदायिक मामले में राजनीतिक हस्तक्षेप ने स्थितियों को गंभीर बना दिया था। इसके भयंकर दूरगामी परिणाम हुए।

सिख नरसंहार ने अब के झारखण्ड प्रांत के औद्योगिक नगर बोकारो में भी अपनी छाप छोड़ी थी। बोकारो में उस अवधि में जो कुछ हुआउसी को आधार बनाकर यह वेबसीरीज बनाई गई है। घटना के लगभग बत्तीस वर्ष बाद भी उस नरसंहार की जांच पूरी नहीं हो पाई। 2016 में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में इस नरसंहार के लिए एक एस आई टी बिठाई जाती है।

          इससे पहले रांची में एक पत्रकार की हत्या की जाती हैजो बोकारो सिख नरसंहार पर रिपोर्ट बना रहा था। तब एसपी अमृता सिंह इसके साजिशकर्ताओं तक पहुंचना चाहती हैं किंतु अदृश्य कारकों के दबाव में उन्हें इस मामले से हटा दिया जाता है और 84 के "दंगो" की जांच के लिए बनाई कमेटी का मुखिया बना दिया जाता है। उसके अनुक्रम में भी उथल पुथल चलती रहती है।

कहानी में एक प्रेमकथा 1984 की है और एक 2016 की। हिन्दी फिल्मेंवेबसीरिज गानों और प्रेम के लटको झटकों में खूब रमती हैं। यह भी उसका शिकार हुई है। जैसे तैसे यह प्रेम आगे बढ़ता है और कई मीठे दृश्यों का सृजन करता हैलेकिन वह तो अवांतर कथा है।

मूल कथा हैराजनीति। हिन्दी फिल्में राजनीतिक पटकथाओं का सबसे घटिया स्वरूप प्रस्तुत करती हैं। जब मैं इसे तांडव का सॉफ्ट वर्जन कहता हूं तो आशय यही है कि तांडव जिस तरह लचर राजनीतिक कहानी का उदाहरण हैग्रहण भी। यदि घटना सत्य हैदेश और काल वही हैं तो राजनीतिक हस्तियां भी वास्तविक होनी चाहिए क्योंकि वह एक संवैधानिक पद धारण करते हैं। हम सत्य घटना पर साहित्य निर्मित करेंगे तो रांचीबोकारोझारखंड, 84, 2016 आदि सही रखकर मुख्यमंत्रीविपक्ष के नेता आदि का नाम केदार और संजय कैसे कर सकते हैंलेकिन खैर!

जैसे तांडव में एक एजेंडा रखकर पटकथा लिखी गई थी और छात्र राजनीति,किसान आंदोलनफर्जी मुठभेड़उग्र सांस्कृतिक राष्ट्रवाद आदि को बहुत आसमानी किताब के आधार पर बढ़ाया गया थाग्रहण में भी। इसमें भी राजनीति की दुरभिसंधियां हैंप्रशासनिक भ्रष्टाचार हैदलित और मुस्लिम उभार है। नरसंहार की बजाय दंगा कहना भी एक सॉफ्ट प्वाइंट है। सामुदायिक गोलबंदी और हिंसा का सरलीकरण है। यह सब तांडव में भौंडे तरीके से थाग्रहण में सॉफ्ट।

Review of Grahan In Hindi

सिखों के साथ हुए दुर्व्यवहार को सामुदायिक हिंसा के रूप में दिखाने का प्रयास हुआ है। सामुदायिक गोलबंदी के लिए सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार वाले वीडियो सर्कुलेट करने आदि को जिम्मेदार ठहराया गया है। यह सब इतना सरलीकृत और छिछला है कि जी उचट जाए।

मैंने सत्य व्यास की लिखी पुस्तकें देखी हैंउनकी समीक्षाएं पढ़ी हैं और मुझे विश्वास था कि वह लुगदी साहित्य के लेखक हैं। लुगदी लेखक कहने का आशय यही है कि इनके लिखे हुए में तार्किकता और सुचिंतित विचार सरणी का सर्वथा अभाव रहता है। यह एक विशेष वर्ग को ध्यान में रखकर लिखा जाता है और इसमें एक विशेष एजेंडा निहित रहता है। जाने अनजाने ही यह सब आ जाता है। कई बार अतिरिक्त और अनावश्यक मसाला डालने के बाद व्यंजन जिस तरह अरुचिकर और हानिकर हो जाता हैलुगदी वाले भी वही परोसते हैं।

          ग्रहण प्रेम के कुछ लटके झटके वाले दृश्यों में मधुर है किन्तु उतना ही जितना हम एक कौर बहुत रंगीन/ऊपर से स्वादिष्ट दिखने वाले डिश को देखकर मुंह में रखते हैं। ज्योंहि हमारी इंद्रियां सक्रिय होने लगती हैंखाद्य अरुचिकर बन जाता हैउसी तरह इस वेबसीरिज के भी।

    इस वेबसीरिज में पात्रों का अभिनय स्तर ठीक ठाक है। पात्रोंपवन मल्होत्राज़ोया हुसैनअंशुमान पुष्करवमिका गब्बीटीकम जोशीसत्यकाम आनंद ने खूब परिश्रम और लगन से अपनी भूमिकाएं निभाई हैं। फिल्मांकन भी स्तरीय है। अनावश्यक दृश्य हैं किंतु उनमें भौंडापन और अश्लीलता नहीं है।

इसमें झारखंड के निवर्तमान मुख्यमंत्री (केदार) हेमंत सोरेन की इमेज बिल्डिंग की गई है और उन्हें शिबू सोरेनपिता के छाया से निकलने के लिए दृढ़ संकल्पित दिखाया गया है। इस क्रम में न चाहते हुए भी शिबू सोरेन को तिकड़मी और असहाय दिखाना पड़ा है। सत्य व्यास ने कहानी लिखते हुए इस पहलू पर विशेष राजनीतिक पक्ष रखा है। इंदिरा गांधी को भी भाषण करते दिखाया गया है और इसमें भी ऐतिहासिकता और प्रमाणिकता का अभाव है।

ग्रहण को कितना रेट करें। पांच अंक के अधिकतम में मैं इसे ढाई अंक इसलिए दूंगा कि इसने सॉफ्ट वर्जन बनाने में अपनी मेधा प्रदर्शित की है। उस तरीके के लूप होल्स नहीं छोड़े हैंजैसा कि तांडव आदि में है। इस नरसंहार को दंगा कहने के लिए तो मैं दो अंक काट लूंगा। नायक ऋषि रंजन बहुत तीक्ष्ण बुद्धि और हरफन मौला है किंतु मृतक आश्रित की नौकरी के लिए चप्पलें घिस रहा हैवह भी 1984 में! यह सब अविश्वसनीय और इतिहासबोध के अभाव में है। वस्तुत: जिस दृष्टि संपन्नता से गंभीरता आती है और रचना बड़ी हो जाती हैवही लुगदी साहित्य में विलुप्त हैइसलिए ग्रहण पर उसकी छाया भी दिखती रहती है। इसका निर्देशन रंजन चंदेल ने किया है।

 

असिस्टेंट प्रोफेसरहिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालयइटावा

206001, royramakantrk@gmail.com

9838952426

(जुड़ियेहमारे यू ट्यूब चैनल से-   कथावार्ता सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष)

शुक्रवार, 25 जून 2021

Kathavarta : आपातकाल पर केन्द्रित हिन्दी साहित्य

  भारतीय लोकतंत्र में सन १९७५ से १९७७ का वर्ष आपातकाल का है। २५ जून१९७५ को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की थी। और सभी मानवाधिकारों को स्थगित कर दिया था। प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक बिनोवा भावे ने आपातकाल को 'अनुशासन पर्व' कहा था और प्रगतिशील लेखक संघ ने इस आपातकाल का बचाव किया।

कथावार्ता : सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष

        आपातकाल पर केन्द्रित साहित्य बहुत कम है। हिन्दी में लिखे गए रचनात्मक लेखन में आपातकाल लगभग अनुपस्थित है।

आपातकाल की सांकेतिक छवि

आपातकाल की सांकेतिक छवि

    हमने यहां आपातकाल में और उसके बाद हिन्दी में लिखे गए साहित्य की एक सूची बनाई है। यह सूची मूल्यवान होगीऐसी अपेक्षा है। 

 

#जीवनी-

आपातकाल का धूमकेतु, राजनारायण- डॉ युगेश्वर

 

#उपन्यास - 

राही मासूम रज़ा का उपन्यास कटरा बी आरजू

निर्मल वर्मा का उपन्यास रात का रिपोर्टर

मुद्राराक्षस का उपन्यास 'शांतिभंगऔर  

रवींद्र वर्मा का उपन्यास 'जवाहर नगर'

 

#पत्रिकाएं -

"सारिका" पत्रिका के अनेक अंक (कमलेश्वर के संपादन में)

"स्वदेश" पत्र,

"पहल-३ और ४" पत्रिका,

उत्तरार्ध पत्रिका के ८ से १५ तक के अंक (संपादक सव्यसाची)

 

#गजलें -

कल्पना और सारिका के तत्कालीन अंकों में छपीं दुष्यंत कुमार की गजलें,

 

#कविता - 

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की "आपातकाल" शीर्षक कविता,

भवानी प्रसाद मिश्र की "आपातकाल" और "चार कौवे उर्फ चार हौवे" कविता,

दुष्यंत कुमार की "चल भाई गंगाराम भजन कर"

बाबा नागार्जुन की "मोर ना होगा...उल्लू होंगे"

जयकुमार जलज की "गैर रचनाधर्मी" 

हरिभाऊ जोशी की "विजयनी संघर्ष",

जगदीश तोमर की "काली आंधी के विरुद्ध",

राजेंद्र मिश्रा की "फिर सुबह" और "एक दर्शक की तरह",

प्रेमशंकर रघुवंशी की "आदेश सो रहे हैं",

कुमार विकल की "इश्तहार",

नीलाभ की "सन उन्नीस सौ छिहत्तर",

केदारनाथ अग्रवाल की "ओट में खड़ा मैं बोलता हूँ" संकलन में दो कविताएं ......

 

#कहानी -

 पंकज बिष्ट की "खोखल"

असगर वजाहत की "डंडा"

 

#डायरी -

चंद्रशेखर की जेल डायरी

-डॉ रमाकान्त राय

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावाउत्तर प्रदेश

9838952426

 

रविवार, 20 जून 2021

Katha-Varta : कथावार्ता के बारे में

कथावार्ता’ भारतवादी विचारधारा से ओतप्रोतशिक्षासाहित्य और संस्कृति को समर्पित ब्लॉगयू ट्यूब चैनल और एक सांस्कृतिक आंदोलन है। कथावार्ता पर हम आपके लिए इन्हीं विषयों से संबन्धित सामग्री प्रस्तुत करते हैं।

        कथावार्ता संस्कृत का संज्ञा शब्द है। यह स्त्रीलिंग के रूप में व्यवहृत होता है। इसका अर्थ है- 

        १. समसामयिक विषय पर होने वाली चर्चा अथवा बातचीत

        २. अनेक प्रकार की चर्चा

                ३.  पौराणिक अथवा धार्मिक कथाओं की चर्चा आदि।

        ‘कथावार्ता’ इसी अर्थ को किंचित व्यापक आयाम में लेकर चलने का संकल्प है। हमने कथावार्ता में उक्त के अतिरिक्त साहित्यिकसांस्कृतिक और राजनीतिक तथा सामाजिक विषयों को भी ध्यान में रखकर लिखे गए साहित्य को यहाँ रखा है और भविष्य में भी रखने का निश्चय किया है। कथावार्ता में ‘चर्चा’ एक व्यापक अर्थ धारण करने वाला शब्द हैजिसका आशय है-  

         १.   वार्तालापबातचीतविचार-विमर्शपरिचर्चा

         २.   बहसवाद-विवाद 

         ३.   बयानज़िक्र

४.   किंवदंतीबहुत से लोगों में फैली हुई बात।

कथावार्ता में आये कथा (Katha) का आशय है-

१.   कहानी ; बीते हुए जीवन की घटनाओं का क्रमवर्णनकिस्सा 

२.   वह जो कही जाएजैसेधर्मविषयक आख्यानकिसी घटना की चर्चा

३.   हालखबर।

        कथावार्ता अपने ब्लॉग और यू ट्यूब चैनल पर कहानी और उसकी विविध विधाओं को केंद्र में रखकर प्रस्तुतियाँ करती है। कथावार्ता के विविध पक्ष हैं। इसे अर्थ सहित इस तरह रखा जा सकता है-

       कथाकार-

         कथा लिखने वालाकहानीकारउपन्यासकारकथावाचक।

        कथानक अथवा कथावस्तु

         छोटी कथाकहानी या उपन्यास की आधारकथाकथावस्तुप्लॉट

        कथामुख

१.   कथा की भूमिका

२.    पत्रकारिता के क्षेत्र में पहले के सभी आमुखों के बदले दिया गया एक नया आमुख।

        कथावाचक

१.   कथा कहने या सुनाने वालाकथा उद्घोषक

२.   पूजा आदि में कथा सुनाने वाला।

३.   कहानी पढ़कर सुनाने वाला

        कथाशिल्प

        कथा लिखने का कलात्मक पक्षउपन्यासकार या कथाकार के लिखने की शैली।

        वार्ताकार

१.   बातचीतवृत्तांत या हालचाल सुनाने वाला व्यक्ति

२.    खबर सुनाने वाला

३.   ज्ञानवर्धक बात या कथा सुनाने वाला व्यक्ति।

        अङ्ग्रेज़ी में KathaVarta का अनुवाद ‘Narrative Dialogue’ भी किया गया है। कथा और वार्ता दोनों ही कहानी/बात कहने के लिए प्रयुक्त होते हैं। इस तरह कथावार्ता में ‘कहन’ एक विशेष पक्ष है। वार्ता को Discussion, Discourse, Talk के साथ संबन्धित कर देखा जाता है।

हम कथावार्ता में नए लेखकों को प्रोत्साहित करते हैं और उन्हें आमंत्रित करते हैं कि वह लिखेंपढ़ें और हमसे जुड़कर इस आंदोलन को आगे बढ़ाएँ। आप अपनी रचनाएँ हमें royramakantrk@gmail.com पर भेजें या इनबॉक्स करें-  डॉ रमाकान्त राय  के डीएम में। 


कथावार्ता की विशेष उपस्थिति है-  

ट्विटर-  कथावार्ता 

यू ट्यूब-  कथावार्ता 

फेसबुक पेज-  कथावार्ता


- डॉ रमाकान्त राय

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उत्तर प्रदेश

royramakantrk@gmail.com

9838952426

शनिवार, 29 मई 2021

पतंजलि का उत्पाद - मुल्तानी मिट्टी साबुन

कोरोना महामारी के भीषण दिनों में पतंजलि योगपीठ के बाबा रामदेव, एलोपैथ और आयुर्वेद के बहाने आईएमए (इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन) और कुछ बौद्धिक लोगों के निशाने पर हैं। महामारी के नियंत्रण में एलोपैथ ने सराहनीय भूमिका निभाई है, तथापि उसकी कार्यशैली और अल्टप्पू तरीके ने बहुत संदेह का वातावरण और आशंकाओं का घटाटोप बनाया है।

बाबा रामदेव और उनके योगपीठ ने आयुर्वेद, योगासन और जनता की जीवन शैली में अभूतपूर्व जगह बनाई है। उनका व्यापार भी बहुत तीव्र गति से फला-फूला है। यह सब बहुत सी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, एलोपैथ के ठेकेदारों को नागवार गुजरा है। परिणामस्वरूप द्वंद्व बढ़ता जा रहा है। ऐसे में पतंजलि के ब्रांड तले एक साबुन पर हमने कभी अपना अनुभव साझा किया था, जो पठनीय है।

अब पतंजलि के उत्पादों में वह गुणवत्ता नहीं रही और कुछ हमारी अपेक्षाएं भी बढ़ गई हैं, किंतु चार वर्ष पहले तो यह नॉस्टेल्जिक लगता था।

पढ़िए!

बाबा रामदेव

बाबा रामदेव ने एक साबुन उतारा है, नहाने के लिए। मुल्तानी मिट्टी के नाम/रूप से। महंगा है। 35 कीमत है। आज तीसरे दिन इस्तेमाल किया। 'मन पवन की नौका' (यह पद आचार्य कुबेरनाथ राय ने अपने एक निबंध संग्रह के लिए प्रयुक्त किया है। इसी नाम से उनका एक निबंध भी है) पर आरूढ़ हुआ तो यह साबुन लेकर गया गंगा किनारे, जल्लापुर गाजीपुर जहाँ हम यदा कदा नहाने जाया करते थे। वहां गंगा किनारे की मिट्टी में लोटते थे, उसी को साबुन/उबटन की तरह प्रयोग में लाते थे। किसी बाजारू साबुन की जरूरत ही न पड़ती थी। यह साबुन कुछ वैसा ही है। कुछ कुछ वैसा जैसा हम पीठ खुझलाने या एड़ियाँ घिसने के लिए झावाँ का इस्तेमाल करते हैं। क्या सुखद अहसास है। आपका मन करता रहेगा कि साबुन घिसते रहें घिसते रहें। कुछ वैसा सुख जैसा हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अनामदास का पोथा में पीठ घिसने का वर्णन किया है।

फोम और शॉवर जेल के इस जमाने में ऐसी स्पृहा पालना वैसे तो गवाँर होना/दिखना है लेकिन इस सुख को पा लेना अपने आप में एक नेमत है। जिनका जीवन शहरों में रहते रहते बहुत सॉफिस्टिकेटेड हो गया है, त्वचा नरम मुलायम हो गयी है और तनिक खरोंच भी जिनको लालिमा से भर देती है उनको यह सुख शायद ही मिले लेकिन मैं जानता हूँ कि ऐसी नाजुकी बस कहने की होती है।

तो लाइए बाबा रामदेव के पतंजलि उत्पाद श्रृंखला की यह अद्भुत पेशकश, जो आपको मन पवन की नौका पर बिठाकर अपने ग्रामीण बचपन में ले जायेगी।

महीनों न नहाने वाले 'बामपंथी' साथियों के लिए यह और शानदार अनुभव देगा।




(#Kathavarta, #कथावार्ता, #बाबा रामदेव, Ramakant Roy, Rama Kant Roy, रमाकांत राय,)

रविवार, 2 मई 2021

ईवीएम में गड़बड़ी कैसे और कब

 -डॉ रमाकान्त राय

हर चुनाव से पहले और बाद में यह प्रवाद चर्चा में आ ही जाता है कि ईवीएम में गड़बड़ी की जाती है अथवा की जा सकती है। यद्यपि ईवीएम से चुनाव प्रक्रिया बहुत पारदर्शी और निष्पक्ष होती है तथापि जब तब यह चर्चा ज़ोर पकड़ती है कि ईवीएम हैक हो गयी है। चुनाव प्रक्रिया के क्रम में कुछ ऐसे चरणों के बारे में जानना इस चर्चा में एक प्रभावी हस्तक्षेप हो सकता है। अगर ईवीएममें गड़बड़ी करना हो तो कितने स्तरों पर “मैनेज” करना पड़ेगा! यह एक जटिल प्रश्न बन जाता है। फिर भी यह सोचें कि इसमें गड़बड़ी की गयी तो एक ऐसा मौका ढूँढना पड़ेगा कि कब और कैसे यह हो सकेगा।

#EVM

   ईवीएम में गड़बड़ी करने के लिए सबसे पहले तो जनपद के जिलाधिकारी को अपने विश्वास में लेना पड़ेगा। यदि जिलाधिकारी, जो जिला निर्वाचन अधिकारी होता है, चाह ले कि ईवीएम में गड़बड़ी करना है तो उसे क्या क्या करना पड़ेगा? आइये, इसे समझने का प्रयास करते हैं।

ईवीएम में गड़बड़ी करने के लिए जिला निर्वाचन अधिकारी को जिले भर की मशीनों को "सेट" करना पड़ेगा। अब ईवीएम में विविपैट भी जुड़ गया है। यह उपकरण ईवीएम से जुड़ा रहता है और प्रत्येक मत के बाद एक पर्ची उगलता है। इस पर्ची का मिलान अंतिम गणना से कर सकते हैं। तो इस तरह तीनों उपकरणों को “सेट” लिए जिला निर्वाचन अधिकारी को सभी तकनीकी समूहों के ईवीएम सेट करनेवाले लोगों को राजी करना पड़ेगा। कहना न होगा कि यह बहुत सूक्ष्म स्तरीय तैयारी से संभव हो सकेगा। जो अगले स्तर पर ही निष्क्रिय हो जाएगा। जिला निर्वाचन अधिकारी रिटर्निंग अधिकारी को इसके लिए राजी करेगा, जो उसी का आदमी हो। रिटर्निंग अधिकारी, सहायक रिटर्निंग अधिकारी को विश्वास में लेगा। जिलाधिकारी को सीडीओ, एसपी, डीवाईएसपी, बीएसए, डीआईओएस आदि सभी अधिकारियों को इसके लिए मनाना पड़ेगा। यह सभी अधिकारी उस चुनाव प्रक्रिया के कोर टीम का अंग रहते हैं।

मान लीजिए कि यह सब सेट हो गए। सेट करके मनचाही मशीनों का वितरण कर दिया गया तो पीठासीन अधिकारी के हाथ जो मशीन आई है, उसे वह जब चाहे तब चेक करने के लिए स्वतंत्र रहता है। इससे पहले, लगभग 40 बूथ पर एक जोनल मजिस्ट्रेट की नियुक्ति होती है, जिसके अंतर्गत औसतन 5 सेक्टर मजिस्ट्रेट रहते हैं। चुनाव के दिन इन मजिस्ट्रेट साहिबान  को क्षेत्र में रहना रहता है। इस प्रक्रिया में सेक्टर मजिस्ट्रेट हर दो घंटे पर जोनल को सूचित करते रहते हैं। यह जोनल मजिस्ट्रेट क्लास वन गजटेड अधिकारी रहता है। जोनल मजिस्ट्रेट के नीचे सेक्टर मजिस्ट्रेट रहता है।वह भी उच्च पदाधिकारी रहता है। उसे वाहन मिलता है, उसकी सुरक्षा में एक दारोगा अलग वाहन में रहता है। दारोगा चार पांच पुलिस कर्मी के साथ रहता है। सेक्टर मजिस्ट्रेट के साथ दो पुलिसकर्मी या/और दो होमगार्ड रहते हैं। वह औसतन 10 बूथ का प्रभारी रहता है।

          सेक्टर मजिस्ट्रेट पीठासीन अधिकारी, प्रथम मतदान अधिकारी, द्वितीय मतदान अधिकारी और तृतीय मतदान अधिकारी के सीधे संपर्क में रहता है। इस तरह वह औसतन 40 मतदान कर्मियों से सीधे जुड़ा रहता है। चुनाव वाले दिन से ठीक पहले पोलिंग पार्टी के रवाना होने से लेकर उन्हें पहुंचाने तक सेक्टर मजिस्ट्रेट क्षेत्र में रहता है। शाम को वह सभी बूथ का निरीक्षण करता है और सबको पारिश्रमिक उपलब्ध कराता है। सुबह मतदान शुरू होने से पूर्व उसे एक बूथ पर रहना होता है। आशय यह है कि वह सभी बूथ का सीधा प्रभारी रहता है। प्रातःकाल मतदान शुरू होने से पूर्व सेक्टर मजिस्ट्रेट और जोनल मजिस्ट्रेट एक एक बूथ पर उपस्थित रहते हैं।

          मतदान प्रारंभ होने से पूर्व पीठासीन अधिकारी एजेंट नियुक्त करते हैं। यह एजेंट प्रत्याशी द्वारा अधिकृत होते हैं। उनकी उपस्थिति में मॉक पोल होता है। मॉक पोल एक विशिष्ट चरण है। इसकी चर्चा पीठासीन अधिकारी को अपनी डायरी में करना पड़ता है। मॉक पोल में सभी प्रत्याशियों के नाम के आगे का बटन दबाकर लगभग 50 मत डाले जाते हैं। मशीन बंद किया जाता है। वहीं एजेंट्स के समक्ष गणना की जाती है और दिखाया जाता है कि जिस प्रत्याशी को जितना मत दिया गया, उतना ही परिणाम में प्रदर्शित हो रहा है। सही हो तो एजेंट्स सम्मति देते हैं। गलत होने की बात बहुत कम बार दिखती है।एजेंट्स जब सम्मति देते हैं तो ईवीएम का डाटा शून्य किया जाता है। एजेंट्स को यह दिखाया जाता है। एक पर्ची इस तरह लगाकर सील की जाती है कि कोई उसे हटाने का प्रयास करे तो वह फट जाए। इस पर्ची पर एजेंट्स और पीठासीन अधिकारी के हस्ताक्षर रहते हैं। अब मतदान शुरू होता है। मतदान शुरू होने से पहले मशीन की स्थिति सबसे सामने स्पष्ट की जाती है। दिनभर पीठासीन अधिकारी बीस तरह के आगंतुकों को बताता रहता है कि इतना वोट पड़ गया। एजेंट्स वहीं नजर गड़ाए रहते हैं। डाले गए वोट और मशीन में दिखा रहे वोट बराबर हैं अथवा नहीं, इसकी जांच करते रहना पड़ता है। कोई भी आकर देख सकता है। एजेंट्स अलग नाक में दम किए रहते हैं। हर बूथ पर सुरक्षा कर्मी रहते ही हैं। उन्हें भी गड़बड़ी करने के लिए अपने पाले में करना पड़ेगा। पत्रकार, मीडियाकर्मी, पर्यवेक्षक आदि आदि का चक्रमण चलता रहता है। मतदान पूर्ण होने पर फिर एक पर्ची, एजेंट्स के हस्ताक्षर वाली सील की जाती है। अब ईवीएम बक्से में बंद होकर जमा हो गई। जमा करते समय पीठासीन अधिकारी अपने हस्ताक्षर से युक्त एक प्रमाणपत्र जारी करता है कि उस बूथ पर इतने मत डाले गए और मशीन इतने समय पर क्लोज़ की गयी।

          जहां ईवीएम जमा होती है, वह स्ट्रॉन्ग रूम कहा जाता है। जमा होने के बाद वह घर भी सील कर दिया जाता है। कड़ा पहरा लगा दिया जाता है। उस कक्ष को बीच में नहीं खोला जा सकता। खोलने के लिए कोई प्रावधान नहीं है। अगर टेम्पर करने के लिए खोला गया तो सुरक्षाकर्मियों को जोड़ना होगा। मतगणना के दिन स्ट्रॉन्ग रूम को वैसा ही सीलबंद मिलना चाहिए, जैसा ईवीएम रखते समय था। जब मशीन गणना के लिए लाई जाती है, तो मतगणना अधिकारी एजेंट को दिखाता है कि डिब्बा सीलबंद है। वह सील हटाकर पर्ची निकालता है और दिखाता है। एजेंट देखता है कि पर्ची पर उसका ही हस्ताक्षर है। मशीन में वही समय दर्ज है, जो उसके समक्ष बंद करते समय बताया गया था।

          मतदान समाप्त होने पर हर एजेंट को वह संख्या उपलब्ध कराई जाती है, जितना मतपेटी में रहती है। एजेंट मिलान करता है कि मतगणना शुरू होने से पहले ईवीएम में उतने ही मत प्रदर्शित हो रहे हैं। तब मतगणना शुरू होती है। इस क्रम में मतगणना अधिकारी, जो पृथक व्यक्ति होता है, कागज मिलाता है।

          इस प्रक्रिया में अन्य कई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष व्यक्ति जुड़े रहते हैं। यह प्रक्रिया बहुस्तरीय होती है और इसमें कहीं भी चूक, त्रुटि अथवा गड़बड़ी की जाए तो उसी दम उद्घाटित हो जाती है। सबको साध लेने पर भी सील, पर्ची आदि के प्रमाण नहीं बदले जा सकते। यह व्यवस्था फुलप्रूफ है। अगर कोई इतनी व्यवस्था के बाद भी अड़ियल रवैया अपनाता है तो उससे पूछा जाना चाहिए कि ईवीएम मशीन में गड़बड़ी किस चरण में हो सकती है! गड़बड़ी का आरोप लगाने वाले इस प्रश्न पर बगलें झांकते हैं। और तब भी कोई नहीं मानता तो उसे कहिए कि आप पप्पू हैं!



(#evm, ईवीएम, ईवीएम में गड़बड़ी कैसे और कब , कथावार्ता, kathavarta, कथावार्ता1, kathavarta1 रमाकान्त राय,)



असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उत्तर प्रदेश

पिन 206001

मोबाइल नंबर 983895242- royramakantrk@gmail.com

सद्य: आलोकित!

जातिवादी विमर्श में चमकीला

 एक फिल्म आई है #चमकीला नाम से। उसके गीत भी हिट हो गए हैं। फिल्म को जातिवादी कोण से इम्तियाज अली ने बनाया है जो चमकीला नाम के एक पंजाबी गायक...

आपने जब देखा, तब की संख्या.