सोमवार, 3 अप्रैल 2023

भगवान श्रीराम की वंशावली

भगवान श्रीराम की वंशावली



श्रीराम के दादा परदादा का नाम क्या था? नहीं पता तो जानिये श्रीराम के वंशवृक्ष के विषय में!


भगवान श्रीराम का वंशवृक्ष

1 - ब्रह्मा जी से मरीचि हुए,

2 - मरीचि के पुत्र कश्यप हुए,

3 - कश्यप के पुत्र विवस्वान थे,

4 - विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए.वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था,

5 - वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था, इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुलकी स्थापना की |

6 - इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए,

7 - कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था,

8 - विकुक्षि के पुत्र बाण हुए,

9 - बाण के पुत्र अनरण्य हुए,

10- अनरण्य से पृथु हुए,

11- पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ,

12- त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए,

13- धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था,

14- युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए,

15- मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ,

16- सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित,

17- ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए,

18- भरत के पुत्र असित हुए,

19- असित के पुत्र सगर हुए,

20- सगर के पुत्र का नाम असमंज था,

21- असमंज के पुत्र अंशुमान हुए,

22- अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए,

23- दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए, भागीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था.भागीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे |

24- ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए, रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया, तब से श्री राम के कुल को रघु कुल भी कहा जाता है |

25- रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए,

26- प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे,

27- शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए,

28- सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था,

29- अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए,

30- शीघ्रग के पुत्र मरु हुए,

31- मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे,

32- प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए,

33- अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था,

34- नहुष के पुत्र ययाति हुए,

35- ययाति के पुत्र नाभाग हुए,

36- नाभाग के पुत्र का नाम अज था,

37- अज के पुत्र दशरथ हुए,

38- दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हुए |

इस प्रकार ब्रह्मा की उन्चालिसवी (39) पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ।

जय श्री राम 🙏


(आकांक्षा परमार के ट्विटर अकाउंट से साभार)

भारतीय हिंदी परिषद प्रयागराज की नई पदाधिकारी सूची

भारतीय हिंदी परिषद् प्रयागराज की नई कार्यकारिणी                              

1,सभापति-प्रो. पवन अग्रवाल, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ

2,प्रधानमंत्री-प्रो. योगेन्द्र प्रताप सिंह, ई इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय प्रयागराज

3,उप सभापति-प्रो. अवधेश कुमार शुक्ल, वर्धा

4,उपसभापति- डाॅ. राजेश कुमार गर्ग- इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय प्रयागराज

5,उपसभापति- हिंदीतर क्षेत्र, प्रो.बाबूराव कुलकर्णी- महाराष्ट्र

6,उपसभापति- डाॅ. दीपेन्द्र जडेजा- बड़ौदा

7,साहित्य मंत्री-प्रो. त्रिभुवननाथ शुक्ल, जबलपुर

8,प्रबंधमंत्री-डाॅ. अमरेन्द्र त्रिपाठी, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय प्रयागराज

9,प्रचार मंत्री- डाॅ. बलजीत कुमार श्रीवास्तव, लखनऊ

10,कोषाध्यक्ष-डाॅ. विनम्रसेन सिंह, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय प्रयागराज



कार्यकारिणी में जीते हुए सदस्य 

1.डॉ.अखिलेश कुमार शंखधर ,मणिपुर

2.प्रोफेसर अलका पांडे,लखनऊ

3.डॉ.मलखान सिंह,दिल्ली

4. प्रो नंद किशोर पांडे ,जयपुर

5.डॉ.बृजेश कुमार पांडे ,प्रयागराज

6. डॉ.वसुंधरा उपाध्याय ,पिथौरागढ़

7.डॉ.उमेश कुमार शुक्ला ,हरिद्वार

8. डॉ.शशांक मिश्र,अंबेडकर नगर 

9. डॉ. अनिल कुमार विश्वकर्मा ,बाराबंकी

10. डॉ.रमाकांत राय, इटावा

11डॉ.संध्या द्विवेदी ,फिरोजाबाद

12.डॉ.मनोज कुमार पांडेय ,नागपुर

13. डॉ.राकेश सिंह ,प्रयागराज

14. प्रो.नरेंद्र मिश्र ,दिल्ली

15. डॉ.नवीन नंदवाना,उदयपुर 

16.डॉ.कमलेश सिंह,अलीगढ़ 

17.डॉ.अशोक नाथ त्रिपाठी ,वर्धा

18. डॉ. विवेकानंद उपाध्याय ,वाराणसी

19.डॉ.विनय कुमार शर्मा ,लखनऊ

20.डॉ.जयराम त्रिपाठी प्रयागराज


मंगलवार, 28 मार्च 2023

भारतीय हिंदी परिषद की कार्यकारिणी में सदस्य निर्वाचित होने पर डॉ रमाकांत राय का स्वागत किया गया

 भारतीय हिंदी परिषद प्रयागराज की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में सदस्य निर्वाचित होने पर इटावा पहुंचने पर पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इटावा के हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ रमाकांत राय का भव्य स्वागत किया गया। महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ श्यामपाल सिंह ने डॉ रमाकांत राय का स्वागत बुके देकर किया। इस अवसर पर एक सभा का आयोजन किया गया। सभा को संबोधित करते हुए प्राचार्य डॉ श्यामपाल सिंह ने कहा कि भारतीय हिंदी परिषद का सदस्य चुना जाना न केवल डॉ रमाकांत राय की व्यक्तिगत अपितु महाविद्यालय की भी उपलब्धि है। ज्ञात हो कि भारतीय हिंदी परिषद का 46वां अधिवेशन जलगांव, महाराष्ट्र में संपन्न हुआ था, जिसमें डॉ रमाकांत राय का निर्वाचन किया गया। डॉ रमाकांत राय का स्वागत करते हुए राष्ट्रीय सेवा योजना की कार्यक्रम अधिकारी सुश्री रेखा ने कहा कि यह सुखद है कि डॉ राय कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए हैं। भारतीय हिंदी परिषद में इनके माध्यम से उत्तर प्रदेश से राजकीय महाविद्यालय का प्रतिनिधित्व भी होगा। स्वागत करने वाले लोगों में डॉ चंद्रप्रभा, डॉ अनुपम सिंह, डॉ श्याम देव यादव, डॉ सपना वर्मा, डॉ डौली रानी, डॉ श्वेता, अतुल सिंह भदौरिया, मान सिंह और बड़ी संख्या में विद्यार्थी उपस्थित रहे।


दैनिक जागरण में 




पंजाब केसरी 


Wednesday Times




अमृत विचार

तरुण मित्र


#kathavarta Desk #कथावार्ता डेस्क


रविवार, 15 जनवरी 2023

खिचड़ी विप्लव देखा हमने : नागार्जुन की कविता

खिचड़ी विप्लव देखा हमने
भोगा हमने क्रांति विलास
अब भी खत्म नहीं होगा क्या
पूर्ण क्रांति का भ्रांति विलास
प्रवचन की बहती धारा का
रुद्ध हो गया शांति विलास
खिचड़ी विप्लव देखा हमने
भोगा हमने क्रांति विलास
मिला क्रांति में भ्रांति विलास
मिला भ्रांति में शांति विलास
मिला शांति में क्रांति विलास
मिला क्रांति में भ्रांति विलास
पूर्ण क्रांति का चक्कर था
पूर्ण भ्रांति का चक्कर था
पूर्ण शांति का चक्कर था
पूर्ण क्रांति का चक्कर था
टूटे सींगोंवाले साँडों का यह कैसा टक्कर था!

उधर दुधारू गाय अड़ी थी
इधर सरकसी बक्कर था!
समझ  पाओगे वर्षों तक
जाने कैसा चक्कर था!
तुम जनकवि हो, तुम्हीं बता दो
खेल नहीं था, टक्कर था।


(1975 में लिखी कविता।)

शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

ऊषा कविता के बहाने शमशेर पर कुछ चर्चा

- डॉ शत्रुघ्न सिंह


(I)

आज हम सभी नई कविता के विशिष्ट कवि शमशेर बहादुर सिंह की 112 वीं जयंती मना रहे हैं| ऐसे में उनकी कविताओं पर अपने वरिष्ठ साथियों के साथ हुई चर्चा की याद आ रही है| जिसमें हम उन्हें कविता का चित्रकार भी कहते रहे हैं| उनका काव्य-व्यक्तित्व इतना समृद्ध है कि लम्बे समय तक तो उसकी सही पहचान ही नहीं हो पाई| मुक्तिबोध ने लिखा है कि “शमशेर की आत्मा ने अपनी अभिव्यक्ति का एक प्रभावशाली भवन तैयार किया है| उस भवन में जाने से डर लगता है- उसकी गंभीर प्रयत्न साधना के कारण|” जिसे मुक्तिबोध ‘गंभीर प्रयत्न साध्य पवित्रता’ कहते हैं उसे अधिकाँश आलोचकों ने उनकी दुरूहता या कठिनाई समझा है| राम विलास शर्मा, रघुवंश जैसे समीक्षक उसे उनकी कविता और घोषित जीवन दृष्टि का द्वंद्व कहते हैं| पाठकों के लिए भी कठिनाई यहीं से शुरू होती है वह भी शमशेर की घोषित जीवन-दृष्टि से ही उनकी कविताओं को परखता है और कठिनाइयों के घटाटोप में खो जाता है| प्राय: पाठक और आलोचक उनकी कविताओं को उनकी घोषित राजनैतिक विचारधारा ‘मार्क्सवाद’ के आईने में रखकर देखते हैं जहाँ उनका प्रतिबिम्ब उल्टा दिखाई पड़ने लगता है और रही-सही कसर उनकी अभिव्यक्ति शैली पूरी कर देती है जहाँ उनकी कविता में बिम्बों के पूरा संसार मौजूद है| इसलिए कविता से सीधे-सीधे अर्थ की मांग करने वालों को बेहद निराशा होती है| अत: शमशेर को पढ़ने से पहले अशोक वाजपेयी की इस बात को सुनना जरूरी है कि – “असल में अब हम कविता को खबर की तरह पढ़ते हैं या पढ़ना चाहते हैं|  हमारी आदत ऐसी हो गयी है कि कोई कविता पढ़ते ही उसका तथाकथित सच जानना चाहते हैंलेकिन ऐसा सच कविता में होता ही नहीं क्योंकि कविता खबर नहीं हैहाँ कविता खबर देती होगी और कभी खबर लेती भी हैलेकिन वह खबर नहीं है| निश्चय ही कविता सत्य को प्रस्तुत करती है लेकिन उसका सत्य ऐसा नहीं होता कि समोसे और रसगुल्ले की तरह तस्तरी में रखकर  खा लिया जाये| कविता का सच अधूरा सच हैवह पूरा ही तब होता है जब आप उसमे थोडा सा सच अपना मिला दें| इसीलिए एक ही कविता की अनेक व्याख्याएं संभव होती हैं| जिसे पाठ या पुनर्पाठ कहते हैं|”

इधर जब से शमशेर को पढने और समझने की गंभीर कोशिशें हुई हैं उनकी कविताओं पर क्लिष्टता या उलझाव जैसे तमाम आरोप खोखले सिद्ध हो रहे हैं| अब समीक्षक और पाठक ने उनकी कविताओं के मर्म को स्पर्श कर रहे हैं| दरअसल कोई भी साहित्यकार अपने संस्कारों, अपने अनुभवों और अपनी विचारधारा से अपनी साहित्यिक दृष्टि को निर्मित और समृद्ध करता है| शमशेर अपनी विचारधारा के तौर पर मार्क्सवाद को ग्रहण करते हैं| वे कहते हैं- “मार्क्सवाद से नजरिया बेहतर, वैज्ञानिक और विश्वसनीय होने के साथ-साथ दृष्टि में भी विस्तार मिलता है और विश्वबन्धुता का भी अहसास होता है| मार्क्सवाद से रचनाकार को दिशा मिलाती है और उसकी वेदना में धार आ जाती है|” वे अपने को मार्क्सवादी घोषित करते हैं किन्तु उनके यहाँ यह घोषित विचारधारा विषयवस्तु के रूप में कभी उस तरह नही आ पाई जैसे अन्य प्रगतिवादी कवियों नागार्जुन, अंचल, केदारनाथ अग्रवाल, शिवदान सिंह चौहान के यहाँ आई है| वे इसे स्वीकार भी करते हैं- “मैं उस अर्थ में मार्क्सवादी कभी नहीं रहा जिस अर्थ में मेरे प्रगतिशील दोस्त मसलन शिवदान सिंह चौहान और राजीव सक्सेना हैं|” इसलिए यह स्पष्ट है कि यदि उनकी कविताओं को उनकी विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में देखा जाएगा तो अर्थबोध में बाधा उत्पन्न होगी|

मेरा मानना है कि शमशेर की कविताओं को समझने के लिए उनके काव्य-संस्कार, उनकी भाव-भूमि तथा उनके चित्रकार रूप की पहचान होनी जरूरी है| दरअसल शमशेर के भावनात्मक मनोजगत की रचना में उनके व्यक्तिगत जीवन की उथल-पुथल का विशेष योगदान है| उनका जीवन बेधक अनुभव से बना था| वे 8 वर्ष की आयु में मातृहीन हो गए, 24 वर्ष में पत्नी का साथ छूटा और 25 वर्ष में पिता भी चले गए| शमशेर की दुनिया एकदम अकेली हो गई जो जीवन के आखिर तक रही| लेकिन शमशेर का मन तो निराला के राम का मन था जो टूटना, थकना, हारना नहीं जनता था| उनके मन में प्रेम का जो पौधा था वह कभी मुरझा नहीं पाया इसलिए वह अपने प्रेम, अकेलेपन की पीड़ा, करूणा, वेदना और अवसाद के मिले-जुले भाव से जिस रोमानी संसार में रमे उससे अपना पीछा कभी नहीं छुड़ा पाए| उनकी आरम्भिक कविताओं को देखकर लगता है कि उनके व्यक्तिगत जीवन में प्रेम का जो कोष हृदय में दबा रह गया था वही कविता के रूप में फूट पड़ा है| जैसे ‘सहज स्नेह का भूषण’ कविता में कवि कहता है-

सहसा आ सम्मुख चुपचाप

संध्या की प्रतिमा सी मौन

करती प्रेमालाप, परिचित सी वह  कौन

इसी तरह ‘सहन सहन बहता है वायु’, ‘आज ह्रदय भर-भर आता’, ‘ज्योति’, कवि कला का फूल हूँ मैं’ आदि कुछ और कविताएँ हैं जिसमें प्रेम और वेदना के कोमल भाव व्यक्त हुए हैं| इन कविताओं पर छायावादी प्रभाव का आरोप लगता रहा है| रामविलास शर्मा जी इसी को ‘रीतिवादी रोमानी भावबोध’ कहते हैं जिसकी संगति वे उनके घोषित मार्क्सवादी विचारधारा से नहीं बैठा पाते हैं| यद्यपि इन कविताओं की भाषा-शैली पर छायावादी प्रभाव अवश्य है किन्तु कविता का भाव एक नए कवि का  है| यहाँ ‘परिचित-सी वह कौन’ में जो रहस्यवाद दिखता है वह आध्यात्मिक नहीं है| वह विशुद्ध लौकिक अर्थों में आया है| शमशेर इन कविताओं के सन्दर्भ में ‘उदिता’ की भूमिका में कहते हैं, “मैंने अपनी बातों को ख़ास अपने लहजे में ख़ास अपने मन के रंग में, अपनी लय, अपने सुर में खोलकर, एक ख़्वाब की तरह , एक उलझी याद के बहुत अपने छायाचित्र की तरह रखने की कोशिश की है|” इसके पहले उन्होंने इसी भूमिका में स्वीकार किया था कि वे इसमें उस पाठक वर्ग का ख्याल करते हैं जो उनकी हंसी-ख़ुशी, दुःख-दर्द की आवाज सुनता और समझता है| स्पष्ट है की शमशेर के निजी जीवन की यह यथार्थ अनुभूतियाँ हैं, इसमें वायवीयता या स्थूल शृंगारिकता नहीं है|

शमशेर के काव्य की मूल संवेदना रोमानी ही ठहरती है किन्तु उसमें उनका प्रेम न तो व्यक्तिगत रहता है और न ही छ्यावादोत्तर कवियों की तरह उसमे निरी भावुकता या पागलपन ही दिखाई पड़ता है जिसमें संसार से पलायन का भाव है| वह उनके लिए ‘सत्य’ का साक्षात्कार है| जैसे- 

तुमको पाना है अविराम

सब मिथ्याओं में

ओ मेरी सत्य (तुमको पाना है अविराम)

उनका यह सत्य का साक्षात्कार आत्मिक अनुभूति के स्तर पर अधिक दिखाई पड़ता है| जैसे-

हाँ तुम मुझसे प्रेम करो

जैसे मछलियाँ लहरों से 

करती हैं

जैसे हवाएं मेरे सीने से करती हैं (टूटी हुई बिखरी हुई/ कुछ और कविताएँ)

शमशेर जब मार्क्सवादी विचारधारा से पूरी तरह जुड़ते हैं तो उसने उनकी व्यक्तिपरकता को परिष्कृत किया| जिससे इनकी कविताओं में रोमानी आवेग कुछ कम हुआ| वे खुद स्वीकार करते हैं- “उस ज़माने में (1941 से 1947 के बीच) मैंने अपनी घोर वैयक्तिकता, अतार्किक भावुकता, रोमानी आदर्शवाद से रचनात्मक संघर्ष शुरू कर दिया था और मार्क्सवादी मॉडल प्रबल रूप से मुझे अपनी ओर खींच रहा था|” इस मार्क्सवादी मॉडल ने उनके नजरिए को संतुलित किया, बेहतर किया| इस विचारधारा के आवेग में कई कविताएँ हैं जैसे- बंगाल के अकाल पर लिखी कविताएँ, ‘बम्बई के 70 वर्ली किसानों को देखकर’, ‘नाविकों पर बमबारी’, ‘अमन का राग, ‘बात बोलेगी’ आदि| उनकी ‘य’ शाम नाम की कविता तो बहुत मशहूर है-

‘य’ शाम है

कि आसमान खेत है पके हुए अनाज का/

लपक उठीं लहू भरी दरातियाँ

-कि आग है

 धुँआ-धुँआ

सुलग रहा ग्वालियर के मजूर का ह्रदय

इसी तरह ‘धार्मिक दंगों की राजनीति में’ साम्प्रादायिक दंगों के मर्म को उद्घाटित करते हुए लिखते हैं-

जो धर्मों के अखाड़े हैं 

उन्हें लडवा दिया जाए!

क्या जरूरत है की हिन्दुस्तान पर 

हमला किया जाए

उनकी प्रगतिशील कविताओं के मूल में जनता के दुःख-दर्द है, उनका सरोकार उसी से है जो कमोबेश एक ही जैसा दिखता है जबकि जनता के शोषण या दुःख के केंद्र अनेक हैं जब तक वे इन केन्द्रों की पताकाओं को पहचानेंगे नहीं तब तक वे अपने दुखों के कारण को भी नहीं समझ सकते| जैसे- ‘बात बोलेगी’ में वे लिखते हैं-

एक जनता का 

दुःख एक लडवा

हवा में उडती पताकाएं 

अनेक

उनकी प्रगतिशील कविताओं में क्रांति या विद्रोह की धार की अपेक्षा सामान्य किसानों और मजदूरों के प्रति चिंता अधिक दिखाई पड़ती है| उसमें एक वेदना है उसी से उनकी कविताएँ उसी से नि:सृत होती हैं| उनकी इस तरह की कविताएँ तटस्थ पर्यालोचन नहीं हैं इसलिए वह नारों में तब्दील होने से भी बचती हैं| ‘बैल’ कविता को देखते हैं-

मुझे वह इस तरह निचोड़ता है

जैसे घानी में एक-एक बीज को कसकर दबाकर 

पेरा जाता है 

मेरे लहू की एक-एक बूँद किसके लिए 

समर्पित होती है

यह तर्पण किसके लिए होता है 

शमशेर स्पष्ट स्वीकार कर चुके हैं कि मार्क्सवादी माडल ने उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया लेकिन वे मार्क्सवादी माडल का उपयोग प्रगतिवादियों की तरह नहीं करते हैं वे विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता का आग्रह नहीं पालते हैं | उनकी कविताएँ वर्ग चेतना, बुर्जुआ सर्वहारा या क्रांति या विद्रोह के परिधि से बाहर निकल गई हैं| यही कारण है कि उनकी कविताओं की मूल भाव-भूमि प्रेम, प्रकृति, सौन्दर्य और वेदना ही बनी रही इसलिए अपनी प्रगतिशील चेतना के बावजूद वे अंत तक अपनी रोमानी भूमि को वे छोड़ नहीं सके| वे उदिता की भूमिका में स्वीकार करते हैं- “.....पर मेरी असली जमीन तो रोमानी ही थी, रोमानी बनी रही|” इस तरह उनकी कविताओं में उलझाव देखने वालों की समस्या दरअसल उनके रोमानी भाव-भूमि और मार्क्सवादी विचारों के विलय को न पचा पाने की है| मुक्तिबोध शमशेर की इस विशिष्टता को रेखांकित करते हुए उन्हें ‘मनोवैज्ञानिक यथार्थवादी’ कहते हैं| इस दृष्टि से देखने पर शमशेर सरल और सहज हो उठते हैं|

शमशेर की कविताओं से अर्थ और भाव ग्रहण को लेकर दूसरी सबसे बड़ी चुनौती उनके ‘शिल्प’ से उभरती है| उनकी कविताओं की शिल्पगत कठिनाई को लगभग सभी आलोचकों ने महसूस किया है| प्रभाकर श्रोत्रिय लिखते हैं, “शमशेर की काव्यात्मा को समझने के लिए शिल्प को बेधना जरूरी है जो उनकी कविताओं का प्रवेशद्वार ही नहीं अन्तरंग भाग भी है| इसके बाद कविता खुलती है और उसी परिमाण में पाठकों का मन भी खोलती है|” 

शमशेर के शिल्प के भेदने के लिए सबसे पहले उनके मन अंदर के चित्रकार को समझना पड़ेगा जो उनकी कविताओं का शिल्प तैयार करता है| कई बार तो वे इस तरह से कविता लिखते हैं जैसे कि कोई चित्र बना रहे हों जिसे देखकर पाठक उनका पूरा भाव समझ लेगा| लेकिन उनके चित्रकार मन के रंग और रेखाओं को समझ पाना सामान्य पाठक के बस का तो नहीं है क्योंकि उनके मन में जब अमूर्त चित्र उतरता है तो वह भाषा में आकर और अमूर्त हो जाता है जिसे समझना आसान नहीं होता है एक तरह से वह बहुत कम बोलते हैं लेकिन व्यक्त बहुत अधिक करते हैं| मुक्तिबोध उनके इस विशेषता को पहचानकर ही कहते हैं कि “शमशेर की मूल मनोवृत्ति इम्प्रेशनिष्टिक चित्रकार की है|...... इम्प्रेशनिष्टिक चित्रकार द्रश्य के सर्वाधिक संवेदानाघात वाले अंशों को प्रस्तुत करेगा और यह मानकर चलेगा की यदि यह संवेदानाघात दर्शक के ह्रदय तक पहुँच गया तो दर्शक अचित्रित अंशों को भी अपनी सृजनशील कल्पना द्वारा भर लेगा|”  शमशेर की यह ‘इम्प्रेशनिष्टिक चित्रकार की मनोवृत्ति’ उन्हें भाषिक तौर पर बड़ी कंजूस बना देती है| वह भावाभिव्यक्ति के लिए शब्दभंग, विराम चिह्नों, कोष्ठकों यहाँ तक की अंतरालों का भी सार्थक उपयोग कर लेते हैं| उनकी कविताओं में कम बोलने की जो शैली है वह पाठकों को परेशान करती है| हिंदी साहित्य के पाठक के पाठक की यह बड़ी समस्या है कि शमशेर की कविताओं का रसबोध करने के लिए उन्हें अपनी अभिरूचियों को परिष्कृत करना होगा, सीधे अर्थग्रहण की प्रवृत्ति से भी बचना होगा| अंततः यह कहना ज्यादा उचित है कि “शमशेर की कविताएँ पाठक से केवल भावनाशील होने की नहीं उससे कविता के संस्कार की भी उम्मीद करती हैं और कविता के अवगाहन के लिए नए सिरे से प्रशिक्षित भी करती हैं|” 

(II)

शमशेर भाव और उसके सम्प्रेषण कला दोनों स्तरों पर विशिष्ट हैं| उनकी एक छोटी सी कविता ‘ऊषा’ है| इस कविता पर विचार करने से पूर्व प्रकृति के प्रति उनका अनुराग देखना उचित होगा| उनके यहाँ प्रकृति अपने विविध रूपों में विद्यमान है जिसमें उसका रंग-बिरंगा कोमल रूप ही अधिक है| उनकी प्रकृति रंग और गंध के साथ गतिशील रहती है और अंत में मानवीय संवेदनाओं का रूप ग्रहण कर लेती है| उन्होंने जितनी बारीकी से प्रकृति के रंगों की पहचान की है उतनी बारीकी से हिंदी के शायद ही किसी ने की है| जब वे प्रकृति में रमते हैं तो उनका चित्रकार रूप सबसे अधिक हावी होता है| ऐसा प्रतीत होता है की वे कविता न लिखकर चित्रांकन कर रहे हों| इसलिए उनके चित्रों में रंग ही नहीं गति भी महसूस होती है| जैसे ‘संध्या’ कविता में लिखते हैं-

बादल अक्टूबर के 

हलके रंगीन ऊदे

मद्धम मद्धम रूकते 

रूकते से आ जाते

इतने पास अपने

शमशेर को ‘शाम’ बहुत पसंद है| उनकी अनेक कविताएँ ऐसी हैं जिनमें सायंकालीन आसमान का दृश्य अधिक आया हुआ है| ऐसा लगता है कि शमशेर ने अपने निजी अवसाद, अकेलेपन और दुःख को शाम के रंग में घोलकर कविता तैयार कर रहे हैं| दरअसल वे दृश्यों में इतना डूब जाते हैं की पाठक उन्हीं की नजरों से उस दृश्य को देखने लगता है| उनकी कविताओं में जो रंग और दृश्य हैं वे मानव जीवन से इस तरह अटूट संबंध रखते हैं कि उनकी कविताओं का रस बोध वे पाठक भी सहजता से कर लेते हैं जो अर्थबोध में असमर्थ होते हैं| जैसे-

एक पीली शाम 

पतझर का जरा अटका पत्ता

यहाँ शाम का पीलापन, पतझर के पत्ते का पीलापन और अटका हुआ आंसू तीनों एकमेक हैं| जैसे शाम का पीलापन अँधेरे की पूर्वसूचना है उसी तरह पतझर के पत्ते का जीवन भी क्षणिक है और आंसू दुःख और पीड़ा की धार समेटे हुए बस अटका ही है| इसमें केवल एक दृश्य भर नहीं है बल्कि कवि का पूरा सम्वेदानालोक भी दिखाई पड़ता है| इसलिए जब रामविलास शर्मा कहते हैं कि “शमशेर की प्रकृति संबंधी कविताएँ प्रतीकात्मक हैं जो किताब पढ़कर भी रची जा सकती है| वे संवेदानालोक का हिस्सा नही है|” तो वह उनकी कविताओं की प्रतीकात्मकता को ही ध्यान में रखते हैं| जबकि ये दृश्य केवल शब्द चित्रांकन नहीं हैं क्योंकि प्रकृति के दृश्य धीरे धीरे संवेदनाओं में परिवर्तित हो जाते हैं| जैसे ‘धूप की कोठरी के आईने में खड़ी है’ कविता में-

मोम-सा पीला

बहुत कोमल

एक मधुमक्खी हिलाकर फूल को

उड़ गई

आज बचपन का 

उदास माँ का मुख

याद आता है

मोम-सा पीला नभ आगे चलकर माँ के चेहरे की उदासी याद दिलाता है जबकि मधुमक्खी का फूल हिलाकर उड़ना ‘कवि के मन’ को कुरेद जाता है| इस प्रकार प्रकृति को निहारते-निहारते कवि जिन्दगी के पिछले पन्ने पर लौट जाता है जिससे पता चलता है कि उनके द्वारा रचे गए प्रकृति के दृश्य उनकी अनुभूतियों का हिस्सा हैं जो उनकी संवेदना से उपजा है| यहाँ आकर रामविलास शर्मा का सारा आरोप बेमानी लगाने लगता है| अपूर्वानंद जी भी कहते हैं- “शमशेर के प्रकृति चित्रों को उन्हीं के नजरिए से देखना चाहिए न कि उस दृष्टि से जिससे केदारनाथ अग्रवाल या नागार्जुन के प्रकृति चित्रणों को देखा जाता है| शाम की नीलाहट, रात का अँधेरा, जाड़े की सुबह की कोमल धूप, सागर की लहरें ये सब उनके सम्वेदानालोक के अभिन्न अंग हैं|”

शमशेर जी के शाम के प्रति लगाव को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि उनके मन के किसी कोने में बैठा अवसाद उन्हें खींचकर ‘शाम के रंगों’ की तरफ ले जाता है किन्तु जब कभी वह सुबह की प्रकृति को देखते हैं तो वहाँ भी उन्हें रंग और गति का सौन्दर्य ही दिखाई पड़ता है| उनकी एक छोटी सी कविता ‘ऊषा’ में उन्होंने सुबह के सौन्दर्य का जादुई चित्र खींचा है| वह लोक-जीवन को ध्यान में रखते हुए सुबह के रंग बदलते आसमान का ऐसा चित्र उकेरते हैं कि भोर के साथ ही पूरा गँवई परिवेश साकार हो उठता है| इस कविता को पढ़ने से ऐसा लगता है कि जैसे किसी चित्रकार ने किसी कैनवास पर आसमान के रंगों के साथ गाँव के सुबह की जमीनी हकीकत को साकार कर दिया है| 

शमशेर का गाँव के जीवन और प्रकृति से परिचय बढ़िया था| उनका काफी समय उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर गोंडा में बीता जहाँ उनके पिता सरकारी सेवा में थे| इसलिए यह गंवई प्रकृति और जन-जीवन उनके संवेदानालोक का हिस्सा हैं इसी के आलोक में मैं इस कविता की चर्चा रख रहा हूँ| कविता का प्रारम्भ होता है भोर की प्रथम बेला के आकाश से- ‘प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे’ सुबह का प्रथम प्रहर है आसमान की रंगत बदलनी शुरू हो गई है| उसमे नीलाहट लौट रही है लेकिन वह अँधेरे से मिली हुई है इसलिए कवि के लिए वह नीले शंख जैसी है लेकिन एक सीमा तक ही वह नीले शंख जैसा दिखाई पड़ता है क्योंकि कवि ने उसके पूर्व ‘बहुत’ विशेषण का प्रयोग किया है| इसलिए एक तो ‘नील शंख’ रंग का बोध करवाता है दूसरे प्रात:कालीन वातावरण की शुद्धता और पवित्रता के लिए भी सार्थक है| यह भी संभव है कि इस दृश्य को उतारते हुए कवि के कानों में भोर की प्रथम बेला में मंदिरों से उठने वाली शंखध्वनि भी रही हो क्योंकि उत्तर-प्रदेश के गाँव की सुबह का यह यथार्थ है| प्राय: आज भी गाँव के बाहर मंदिरों में शंख की आवाज सुना जा सकता है| 

पहली पंक्ति के बाद अंतराल है उसके बाद कविता की अगली पंक्ति है “भोर का नभ राख से लीपा हुआ चौका (अभी गीला पड़ा है)” शमशेर की कविताओं में अंतराल का विशेष महत्व है| उनके अंतरालों में भी कविता चलती रहती है| वहाँ पाठक को सोचने का अवकाश रहता है कि इस अंतराल में क्या-क्या संभावनाएं हैं| इससे वह अगली पंक्ति के पूर्व के अर्थ की कल्पना कर लेते हैं| एक अर्थ में इन अंतरालों में पाठक सर्जक के काफी करीब होता है| जैसे भोर के प्रथम प्रहर में ही गाँव के लोग उठ जाते हैं| उनका दैनिक क्रिया-कलाप प्रारम्भ होजाता है| यहाँ यह अंतराल समय परिवर्तन का संकेत है कि थोड़ा और समय बीत जाने के बाद आसमान के रंग बदल गया| भोर का यह समय रात के अंधेरे और सुबह के उजाले का संधिस्थल है और इस समय आसमान का रंग ‘राख के रंग’ के समान प्रतीत होता है जिसमें ओस के कारण थोड़ा नमीं है| यहाँ कोष्ठक में जो गीलेपन की बात कवि ने की है वह ओस की नमी की ओर संकेत है| इस बिम्ब से यह संकेत मिलता है कि गाँव के घरों में लोग अब चूल्हे-चौके की राख से लिपाई करके साफ़ कर रहे हैं| यहाँ आसमान को राख से लीपे हुए चौके के बिम्ब में ‘लीपा’ और ‘चौका’ का प्रयोग बड़ा अनूठा और सार्थक है|

एक और अंतराल के बाद कविता पुन: आगे बढती है ‘बहुत काली सिल जरा से लाल केसर से/ कि जैसे धुल गई हो आसमान में थोड़ी-सी और हलचल होती है और सूर्योदय से पूर्व की लालिमा छाने लगती है| इस समय कवि को ‘काली सिल पर घिसे हुए लाल केसर की लालिमा’ का बिम्ब दिखाई पड़ता है| ‘सिल’ ग्रामीण जीवन-शैली का अहम् हिस्सा होती है| वह उनके दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती है| ऐसा लग रहा कि कवि गाँव की महिलाओं के चूल्हे-चौके की व्यस्तता और असमान को एक साथ निहार रहा है और उनके चित्र को अंकित करता जा रहा है| आसमान की इस सुन्दर लालिमा के लिए उसकी नजर ‘बच्चों के स्लेट पर पड़ती है जहाँ वे नन्हे-मुन्ने अपने हाथों से स्लेट को लाल खड़िया चाक(दुद्धी) से रंग रहे हैं| कवि लिखता है “स्लेट पर लाल खड़िया चाक / मल दी हो किसी ने” | कवि की दृष्टि में गाँव के बच्चों का भोला-भाला बचपन भी है जो सुबह में अपनी स्लेट और चाक के साथ पढ़ने बैठ जाते हैं| स्लेट जैसे आसमान में लाल खड़िया चाक का रंग जैसे इन ग्रामीण किसान के घरों के बच्चों के जीवन का सूर्योदय तय कर रहे हों कि इस शिक्षा से ही जीवन में लालिमा का संचार होगा|

कवि एक अन्तराल के बाद पुन: लिखता है कि “नील जल में या किसी की/ गौर झिलमिल देह/ जैसे हिल रही हो” अर्थात थोड़ा-सा समय और गुजर गया और सूर्योदय प्रारम्भ हो रहा है लेकिन सूर्य अभी पूरी तरह निकला नहीं है| जब सूर्य निकल रहा है तो उसकी सुनहरी आभा नीले स्वच्छ आसमान में ऐसे चमक रही है जैसे कोई सुनहले गोरे शरीर का व्यक्ति स्वच्छ नील जल में स्नान कर रहा हो| पूरा असमान नीले तालाब की भाँति दिखाई पड़ता है और सूर्य स्वर्णाभ शरीर की भांति| ठीक ऐसे ही प्रसाद जी के यहाँ भी आसमान को ‘पनघट’ कहते हुए सुबह सुन्दर युवती के रूप में आई है-“अम्बर पनघट में डुबो रही ताराघट ऊषाघट”| लेकिन शमशेर जी के यहाँ बिम्ब थोड़ा बदल गए हैं| यहाँ पर वह अपने बिम्बों में सूर्योदय के आसमान के सौन्दर्य के साथ ही जमीनी कार्य-कलाप भी देख रहे हैं| जैसे लोग अब नहा-धोकर अपने भावी दिनचर्या के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं| वे अब अपने काम पर भी निकलने वाले हैं| कविता के इस पूरे बिम्ब में मानवीकरण का अद्भुत सौन्दर्य है|

इस कविता का आखिरी बंद पूरी कविता के सौन्दर्य को प्रत्यक्ष कर देता है क्योंकि सुबह के जिस जादुई सौन्दर्य के प्रभाव में कवि के साथ पूरा ग्रामीण समाज संचालित हो रहा है वह अब सूर्योदय के साथ टूट जाएगा और कवि के साथ पाठकों को भी उस दिव्य सौन्दर्य की अनुभूति करवा देगा जिसका अभी तक वे दोनों रस-पान कर रहे थे| कवि कहता है “ और  /  जादू टूटता है इस ऊषा का/ अब सूर्योदय हो रहा है|” यहाँ हम देखते हैं कि दो अन्तरालों के बीच में एक अकेला शब्द ‘और’ है| यह ‘और’ इस कविता की खूबसूरती है| यह प्रात:काल के जादुई प्रभाव और उसकी समाप्ति का संधिस्थल है| यह ‘और’ प्रात::कालीन सौन्दर्य की आभा को दिन की कठोर श्रमशीलता के यथार्थ से अलग करता है| इसलिए कवि ने सूर्योदय होने के साथ ही सुबह के दिव्य सौन्दर्य के टूट जाने की घोषणा की है क्योंकि क्षण-क्षण में अपना रंग-रूप बदलने वाली सुबह अब दिन के एक रंग और एकरस में परिणत होगी| ग्रामीण लोग भी अब अपने दिन भर के कार्यों में व्यस्त हो जाएंगे|

इस तरह हम देखते हैं कि खूबसूरत बिम्बों से सजी यह कविता ‘प्रात:कालीन सौन्दर्य और ग्रामीण जीवनचर्या को एक साथ लेकर चलती है| इस कविता के बिम्ब अनूठे हैं | इस तरह का प्रयोग हिंदी में और कहीं दिखाई नहीं पड़ता| सुबह के सौन्दर्य को व्यक्त करने वाली अनेक कविताएं हैं| लेकिन उनमें न तो रंग परिवर्तन का इतना अद्भुत सौन्दर्य है और न गाँव की मिट्टी की सोंधी महक ही है या तो वे जयशंकर प्रसाद के ‘बीती विभावरी जाग री’ की भाँति कल्पना और सौन्दर्य में रंगी वायवीय रचनाएं है या अज्ञेय की ‘बावरा अहेरी’ की भांति अतिशय बौद्धिकता में डूबी दिनभर के कार्यवृत्त की सूची हैं| प्रसाद सुबह के लिए परम्परित प्रतीक का प्रयोग ‘नागरी’ करते हैं तो अज्ञेय सूर्य के लिए नए प्रतीक ‘बावरा अहेरी’ को गढ़ते हैं जो उसके सौन्दर्यबोध को कहीं से भी उन्नत नहीं करता बस नवीन प्रयोगों से थोडा चमत्कृत करता है| लेकिन शमशेर ने इस कविता में एक प्रकार से बिम्बलोक की सर्जना की है| यह बिम्बलोक एक तरफ सर्वथा नए हैं तो दूसरी तरफ बड़े मानवीय भी हैं| इसकी विशिष्टता से प्रभावित होकर अशोक वाजपेयी कहते हैं कि इस कविता में गहरा रोमान हैअनूठा बिम्ब है| मुझे नहीं मालूम की पहले किसी कवि ने चाहे संस्कृत मेंअपभ्रंश में या हिन्दी में हीआसमान को देखकर कहा हो कि वह राख से लिपा हुआ चौका जैसा लग रहा है. बड़ा कवि यही करता है कि  ब्रम्हाण्ड को संक्षिप्त करके आपकी मुट्ठी में ला देता है और कई बार पाठक को ऐसा साहस और कल्पनाशीलता देता है कि वह अपना हाथ बढ़ाकर आकाश को छू सके।”

शमशेर बहादुर सिंह 

वास्तव में शमशेर एक बड़े कवि हैं| उनकी कविताओं में यह विशेषता रही है कि वह पाठक को सर्जक के समतुल्य लाकर खड़ा कर देती है| इसलिए देर से सही पर ‘हिंदी साहित्य’ में शमशेर अपनी पूरी जगह घेर रहे हैं| इसलिए ऐसे पाठक और आलोचक जो सीधे-सीधे अर्थग्रहण करने के आदी हैं उन्हें उनकी कविताओं से अवश्य परेशानी होती है| ऐसे लोगों के लिए शमशेर ही एक शेर पर्याप्त होगा-

मेरी बातें भी तुझे खाबे –जवानी-सी हैं

तेरी आँखों में अभी नींद भरी है शायद


डॉ शत्रुघ्न सिंह 


मंगलवार, 27 दिसंबर 2022

रामायण का अर्थ

रामायण का अर्थ है राम का अयन। अयन मार्ग को कहते हैं। राम जिस मार्ग पर चले उसे रामायण के कर्ता आदिकवि वाल्मीकि समाज को दिखाना चाहते हैं। इसीलिए उन्होंने अपने काव्य को रामायण कहा। 

- राधा वल्लभ त्रिपाठी।

Kathavarta 


#रामायण

शनिवार, 24 दिसंबर 2022

बद्री नारायण की दो कविताएं

बद्री नारायण को उनकी कविता संकलन "तुमड़ी के शब्द" के लिए हिन्दी का साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया है। बद्री नारायण हमारे समय के जाने माने कवि और समाज विज्ञानी हैं। वह कविता के साथ साथ देश दुनिया के विविध सामाजिक विषय पर विचार करते रहते हैं। पढ़िए उनकी दो चर्चित कविताएं।


(१)

'दुलारी धिया'


पी के घर जाओगी दुलारी धिया

लाल पालकी में बैठ चुक्के-मुक्के

सपनों का खूब सघन गुच्छा

भुइया में रखोगी पाँव

महावर रचे

धीरे-धीरे उतरोगी


सोने की थारी में जेवनार-दुलारी धिया

पोंछा बन

दिन-भर फर्श पर फिराई जाओगी

कछारी जाओगी पाट पर

सूती साड़ी की तरह

पी से नैना ना मिला पाओगी दुलारी धिया


दुलारी धिया

छूट जाएँगी सखियाँ-सलेहरें

उड़ासकर अलगनी पर टाँग दी जाओगी


पी घर में राज करोगी दुलारी धिया


दुलारी धिया, दिन-भर

धान उसीनने की हँड़िया बन

चौमुहे चूल्हे पर धीकोगी

अकेले में कहीं छुप के

मैके की याद में दो-चार धार फोड़ोगी


सास-ससुर के पाँव धो पीना, दुलारी धिया

बाबा ने पूरब में ढूँढा

पश्चिम में ढूँढा

तब जाके मिला है तेरे जोग घर

ताले में कई-कई दिनों तक

बंद कर दी जाओगी, दुलारी धिया


पूरे मौसम लकड़ी की ढेंकी बन

कूटोगी धान


पुरईन के पात पर पली-बढ़ी दुलारी धिया


पी-घर से निकलोगी

दहेज की लाल रंथी पर

चित्तान लेटे


खोइछे में बाँध देगी

सास-सुहागिन, सवा सेर चावल

हरदी का टूसा

दूब


पी-घर को न बिसारना, दुलारी धिया।


(२)

प्रेमपत्र 


किताब से निकाल ले जायेगा प्रेमपत्र
गिद्ध उसे पहाड़ पर नोच-नोच खायेगा

चोर आयेगा तो प्रेमपत्र ही चुराएगा
जुआरी प्रेमपत्र ही दांव लगाएगा
ऋषि आयेंगे तो दान में मांगेंगे प्रेमपत्र

बारिश आयेगी तो प्रेमपत्र ही गलाएगी
आग आयेगी तो जलाएगी प्रेमपत्र
बंदिशें प्रेमपत्र ही लगाई जाएंगी

सांप आएगा तो डसेगा प्रेमपत्र
झींगुर आयेंगे तो चाटेंगे प्रेमपत्र
कीड़े प्रेमपत्र ही काटेंगे

 

प्रलय के दिनों में सप्तर्षि मछली और मनु
सब वेद बचायेंगे
कोई नहीं बचायेगा प्रेमपत्र

कोई रोम बचायेगा कोई मदीना
कोई चांदी बचायेगा कोई सोना

मै निपट अकेला कैसे बचाऊंगा तुम्हारा प्रेमपत्र।

कथा वार्ता की प्रस्तुति 


सद्य: आलोकित!

फिर छिड़ी रात बात फूलों की

 मख़दूम मुहीउद्दीन की ग़ज़ल ..  फिर छिड़ी रात बात फूलों की  रात है या बरात फूलों की  फूल के हार फूल के गजरे  शाम फूलों की रात फूलों की  आपका...

आपने जब देखा, तब की संख्या.