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बुधवार, 23 सितंबर 2020

कथावार्ता : शेखर जोशी की कहानी- गलता लोहा

 

कथा-वार्ता की नवीनतम प्रस्तुति- शेखर जोशी की कहानी- गलता लोहा।

गलता लोहा- शेखर जोशी की कहानी




 

                शेखर जोशी (जन्म- १९३२ ई०, अल्मोड़ा) नयी कहानी के प्रमुख लेखक हैं। उनकी कहानियों के संग्रह हैं- कोसी का घटवार’, ‘साथ के लोग’,  हलवाहा’, ‘नौरंगी बीमार है,’ ‘मेरा पहाड़’, ‘डागरी वाले’, ‘दस बच्चे का सपना’, ‘आदमी का डर’, ‘शब्दचित्र।  एक पेड़ की यादऔर स्मृति में रहें वेउनके संस्मरण हैं।  न रोको उन्हें शुभा शीर्षक से उनकी कविताओं का एक संग्रह २०१२ ई० में प्रकाशित हुआ है। शेखर जोशी को महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार, साहित्य भूषण और पहल सम्मान मिल चुका है।

 

          शेखर जोशी नयी कहानी के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उनकी कहानियों में मजदूर जीवन और पहाड़ का परिवेश बहुत बहुत अनूठे तरीके से अभिव्यक्त हुआ है। गलता लोहा, वास्तव में एक राजनीतिक चेतना सम्पन्न कहानी है, जिसमें आफ़र पर लोहा नहीं गल रहा, वर्ण व्यवस्था की कठोरता पिघल रही है और नया आकार ले रही है। यह कहानी शिक्षा और समाज व्यवस्था का बहुत मार्मिक चित्र भी हमारे सामने प्रस्तुत करती है।

 

          आगामी वीडियो में हम इस कहानी का आलोचनात्मक पाठ प्रस्तुत करेंगे। अगर आपको यह कहानी अच्छी लगी तो टिप्पणी करें और अपने प्रश्न तथा सुझाव से अवगत कराएं।

 

          वाचन स्वर है- डॉ रमाकान्त राय का।       

शनिवार, 11 अप्रैल 2020

कथावार्ता : फणीश्वर नाथ रेणु की पहली कहानी ‘वट बाबा’


          महान कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु के पुण्यतिथि 11 अप्रैल पर सुनिए उनकी पहली कहानी वट बाबा। वाचन स्वर है डॉ रमाकान्त राय का।




         फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म 04 मार्च 1921 को पूर्णिया जनपद, बिहार के औराही-हिंगना ग्राम में हुआ था। उन्होने मैला आंचल, परती परिकथा, जुलूस आदि उपन्यास लिखे। उनकी कहानी तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम पर बहुचर्चित फीचर फिल्म का निर्माण हुआ है। फणीश्वर नाथ रेणु ने कुल 63 कहानियाँ लिखी हैं। यह कहानी उनकी पहली कहानी मानी जाती है जो साप्ताहिक विश्वामित्र में अगस्त, 1944 में प्रकाशित हुई थी। 1942 के आंदोलन में उन्हें जेल हुई थी। जब वह 1944 में जेल से छूटे तो उन्होने यह पहली कहानी लिखी, जिसे भारत यायावर ने 'पहली परिपक्व कहानी' कहा है। उनकी दूसरी कहानी 'पहलवान की ढोलक' है।

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बुधवार, 5 फ़रवरी 2020

कथावार्ता : बासन कब धोया जाए?

      बासन कब धोया जाए?

     दुनिया के कई कठिन सवालों में से एक बड़ा सवाल है। क्या भोजनोपरांत बर्तन धो दिया जाए अथवा अगला आहार पकाने से पहले? आप क्या सोचते हैं?

 
  हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार अज्ञेय को बासन धोने का अनुभव था। एक कविता में लिखते हैं- "कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।" लेकिन वह यह नहीं बताते कि इसे कब धोना चाहिए। अज्ञेय की एक कहानी है- रोज। पहले यह कहानी 'गैंग्रीन' के नाम से छपी थी। बहुत चर्चित हुई थी। उसमें जो लड़की है, मालती; वह प्रमुख चरित्र है कहानी में- उसने बासन माँज दिए हैं लेकिन नल का पानी चला गया है। वह अपने सहपाठी के साथ बैठी है। सहपाठी लंबे समय के बाद मिलने ही आया है। एक जमाने में घनिष्ठ रहे मित्र की उपस्थिति में भी वह बरतन धोने के विषय में सोचती रहती है। जब बूंद बूंद पानी आने लगता है, वह धोने जाती है। मुझे नहीं लगता कि हिन्दी में किसी अन्य कथाकार ने इस बुनियादी पहलू पर इतने व्यवस्थित और तफसील से कलम चलाई है।
         मेरे बचपन के दिनों में एक सीनियर मिले। वह कुछ रहस्यमयी तरीके से कहानी के अंत में स्थापना रखते थे कि खाने के बाद बर्तन धोने के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। उन्होंने बताया था कि 'मैं तो ठोकर मार देता हूँ।' मेरे बालपन की वह बात मुझे अक्षरशः याद है। लेकिन मैं यह कभी नहीं कर पाया। मुझे यह कभी खयाल भी नहीं आया। मैं शायद उनकी रहस्यमयी वाणी का मर्म न जान सका। उनकी बात वैसी ही थी जैसी धर्मवीर भारती के उपन्यास 'सूरज का सातवां घोड़ा' उपन्यास में माणिक मुल्ला स्थापनाएं करता है। जब मैंने यह उपन्यास पढ़ा था तो मुझे उन सीनियर की बहुत याद आयी थी। खैर, तो बासन कब धोया जाए? मेरे घर में भी यह सवाल उठता रहता है।
       महाभारत में पांडव जब वनवास कर रहे थे तो उन्हें सूर्य द्वारा एक अक्षय पात्र मिला था।  यह ताँबे का था। कहानी में आता है कि वह पात्र खाली नहीं होता था। द्रोपदी सबको भरपेट भोजन कराने के बाद स्वयं खाती थीं। द्रोपदी के खाने के बाद वह पात्र खाली हो जाता था और अगले जून फिर से भर जाया करता। एक दिन ऋषि दुर्वासा अपने समूह सहित उधर से गुजरे। वह भूखे थे। अक्षय पात्र खाली हो चुका था। घर में राशन नहीं था। उतने बड़े समूह के लिए सुस्वादु भोजन पकाने की व्यवस्था कठिन थी। दुर्वासा बहुत क्रोधी स्वभाव के ऋषि थे। पांडव इससे परिचित थे। वह शक्ति संचयन कर रहे थे। दुर्वासा के शाप का अर्थ था- भविष्य की योजनाओं पर तुषारापात!
       कृष्ण को याद किया गया। आते ही उन्होंने ऋषि समूह को स्नानादि के लिए भेजा और अक्षय पात्र मंगवाया। द्रोपदी बहुत पहले ही भोजन कर चुकी थीं। उस पात्र में अन्न का एक कण बचा था। तो सवाल वही उठा कि वह अक्षय पात्र कब माँजा जाता था? अगर भोजनोपरांत ही माँजा जाता तो उसमें अन्न का कण न रहता। अतः दृष्टांत बन सकता है कि द्रोपदी भी भोजनोपरांत बासन नहीं धोती थीं। लेकिन वाशवेशिन में जूठन अच्छा भी तो नहीं लगता!
       तो सवाल फिर से वहीं आकर गले पड़ता है किबासन कब माँजा जाए।

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शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

कथावार्ता : कफ़न, प्रेमचंद की कहानी

कफ़न
प्रेमचंद 

झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अन्दर बेटे की जवान बीबी बुधिया प्रसव-वेदना में पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़ों की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अन्धकार में लय हो गया था।
घीसू ने कहा-मालूम होता है, बचेगी नहीं। सारा दिन दौड़ते हो गया, जा देख तो आ।
माधव चिढक़र बोला-मरना ही तो है जल्दी मर क्यों नहीं जाती? देखकर क्या करूँ?
‘तू बड़ा बेदर्द है बे! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई!’
‘तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पाँव पटकना नहीं देखा जाता।’
चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम। घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव इतना काम-चोर था कि आध घण्टे काम करता तो घण्टे भर चिलम पीता। इसलिए उन्हें कहीं मजदूरी नहीं मिलती थी। घर में मुठ्ठी-भर भी अनाज मौजूद हो, तो उनके लिए काम करने की कसम थी। जब दो-चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढक़र लकडिय़ाँ तोड़ लाता और माधव बाजार से बेच लाता और जब तक वह पैसे रहते, दोनों इधर-उधर मारे-मारे फिरते। गाँव में काम की कमी न थी। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे। मगर इन दोनों को उसी वक्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी सन्तोष कर लेने के सिवा और कोई चारा न होता। अगर दोनो साधु होते, तो उन्हें सन्तोष और धैर्य के लिए, संयम और नियम की बिलकुल जरूरत न होती। यह तो इनकी प्रकृति थी। विचित्र जीवन था इनका! घर में मिट्टी के दो-चार बर्तन के सिवा कोई सम्पत्ति नहीं। फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढाँके हुए जिये जाते थे। संसार की चिन्ताओं से मुक्त कर्ज से लदे हुए। गालियाँ भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई गम नहीं। दीन इतने कि वसूली की बिलकुल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ कर्ज दे देते थे। मटर, आलू की फसल में दूसरों के खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भून-भानकर खा लेते या दस-पाँच ऊख उखाड़ लाते और रात को चूसते। घीसू ने इसी आकाश-वृत्ति से साठ साल की उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे की तरह बाप ही के पद-चिह्नों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था। इस वक्त भी दोनों अलाव के सामने बैठकर आलू भून रहे थे, जो कि किसी खेत से खोद लाये थे। घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन हुए, देहान्त हो गया था। माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था। जब से यह औरत आयी थी, उसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बे-गैरतों का दोजख भरती रहती थी। जब से वह आयी, यह दोनों और भी आरामतलब हो गये थे। बल्कि कुछ अकडऩे भी लगे थे। कोई कार्य करने को बुलाता, तो निब्र्याज भाव से दुगुनी मजदूरी माँगते। वही औरत आज प्रसव-वेदना से मर रही थी और यह दोनों इसी इन्तजार में थे कि वह मर जाए, तो आराम से सोयें।
घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा-जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी? चुड़ैल का फिसाद होगा, और क्या? यहाँ तो ओझा भी एक रुपया माँगता है!
माधव को भय था, कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलुओं का बड़ा भाग साफ कर देगा। बोला-मुझे वहाँ जाते डर लगता है।
‘डर किस बात का है, मैं तो यहाँ हूँ ही।’
‘तो तुम्हीं जाकर देखो न?’
‘मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं; और फिर मुझसे लजाएगी कि नहीं? जिसका कभी मुँह नहीं देखा, आज उसका उघड़ा हुआ बदन देखूँ! उसे तन की सुध भी तो न होगी? मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पाँव भी न पटक सकेगी!’
‘मैं सोचता हूँ कोई बाल-बच्चा हुआ, तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में!’
‘सब कुछ आ जाएगा। भगवान् दें तो! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वे ही कल बुलाकर रुपये देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ न था; मगर भगवान् ने किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया।’
जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान् था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की कुत्सित मण्डली में जा मिला था। हाँ, उसमें यह शक्ति न थी, कि बैठकबाजों के नियम और नीति का पालन करता। इसलिए जहाँ उसकी मण्डली के और लोग गाँव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस पर सारा गाँव उँगली उठाता था। फिर भी उसे यह तसकीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम-से-कम उसे किसानों की-सी जी-तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती, और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फायदा तो नहीं उठाते! दोनों आलू निकाल-निकालकर जलते-जलते खाने लगे। कल से कुछ नहीं खाया था। इतना सब्र न था कि ठण्डा हो जाने दें। कई बार दोनों की जबानें जल गयीं। छिल जाने पर आलू का बाहरी हिस्सा जबान, हलक और तालू को जला देता था और उस अंगारे को मुँह में रखने से ज्यादा खैरियत इसी में थी कि वह अन्दर पहुँच जाए। वहाँ उसे ठण्डा करने के लिए काफी सामान थे। इसलिए दोनों जल्द-जल्द निगल जाते। हालाँकि इस कोशिश में उनकी आँखों से आँसू निकल आते।
घीसू को उस वक्त ठाकुर की बरात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गया था। उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वह उसके जीवन में एक याद रखने लायक बात थी, और आज भी उसकी याद ताजी थी, बोला-वह भोज नहीं भूलता। तब से फिर उस तरह का खाना और भरपेट नहीं मिला। लडक़ी वालों ने सबको भर पेट पूडिय़ाँ खिलाई थीं, सबको! छोटे-बड़े सबने पूडिय़ाँ खायीं और असली घी की! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई, अब क्या बताऊँ कि उस भोज में क्या स्वाद मिला, कोई रोक-टोक नहीं थी, जो चीज चाहो, माँगो, जितना चाहो, खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, कि किसी से पानी न पिया गया। मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गर्म-गर्म, गोल-गोल सुवासित कचौडिय़ाँ डाल देते हैं। मना करते हैं कि नहीं चाहिए, पत्तल पर हाथ रोके हुए हैं, मगर वह हैं कि दिये जाते हैं। और जब सबने मुँह धो लिया, तो पान-इलायची भी मिली। मगर मुझे पान लेने की कहाँ सुध थी? खड़ा हुआ न जाता था। चटपट जाकर अपने कम्बल पर लेट गया। ऐसा दिल-दरियाव था वह ठाकुर!
माधव ने इन पदार्थों का मन-ही-मन मजा लेते हुए कहा-अब हमें कोई ऐसा भोज नहीं खिलाता।
‘अब कोई क्या खिलाएगा? वह जमाना दूसरा था। अब तो सबको किफायत सूझती है। सादी-ब्याह में मत खर्च करो, क्रिया-कर्म में मत खर्च करो। पूछो, गरीबों का माल बटोर-बटोरकर कहाँ रखोगे? बटोरने में तो कमी नहीं है। हाँ, खर्च में किफायत सूझती है!’
‘तुमने एक बीस पूरियाँ खायी होंगी?’
‘बीस से ज्यादा खायी थीं!’
‘मैं पचास खा जाता!’
‘पचास से कम मैंने न खायी होंगी। अच्छा पका था। तू तो मेरा आधा भी नहीं है।’
आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़कर पाँव पेट में डाले सो रहे। जैसे दो बड़े-बड़े अजगर गेंडुलिया मारे पड़े हों।
और बुधिया अभी तक कराह रही थी।
सबेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा, तो उसकी स्त्री ठण्डी हो गयी थी। उसके मुँह पर मक्खियाँ भिनक रही थीं। पथराई हुई आँखें ऊपर टँगी हुई थीं। सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी। उसके पेट में बच्चा मर गया था।
माधव भागा हुआ घीसू के पास आया। फिर दोनों जोर-जोर से हाय-हाय करने और छाती पीटने लगे। पड़ोस वालों ने यह रोना-धोना सुना, तो दौड़े हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे।
मगर ज्यादा रोने-पीटने का अवसर न था। कफ़न की और लकड़ी की फिक्र करनी थी। घर में तो पैसा इस तरह गायब था, जैसे चील के घोंसले में माँस?
बाप-बेटे रोते हुए गाँव के जमींदार के पास गये। वह इन दोनों की सूरत से नफ़रत करते थे। कई बार इन्हें अपने हाथों से पीट चुके थे। चोरी करने के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए। पूछा-क्या है बे घिसुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीं दिखलाई भी नहीं देता! मालूम होता है, इस गाँव में रहना नहीं चाहता।
घीसू ने जमीन पर सिर रखकर आँखों में आँसू भरे हुए कहा-सरकार! बड़ी विपत्ति में हूँ। माधव की घरवाली रात को गुजर गयी। रात-भर तड़पती रही सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे। दवा-दारू जो कुछ हो सका, सब कुछ किया, मुदा वह हमें दगा दे गयी। अब कोई एक रोटी देने वाला भी न रहा मालिक! तबाह हो गये। घर उजड़ गया। आपका गुलाम हूँ, अब आपके सिवा कौन उसकी मिट्टी पार लगाएगा। हमारे हाथ में तो जो कुछ था, वह सब तो दवा-दारू में उठ गया। सरकार ही की दया होगी, तो उसकी मिट्टी उठेगी। आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊँ।
जमींदार साहब दयालु थे। मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना था। जी में तो आया, कह दें, चल, दूर हो यहाँ से। यों तो बुलाने से भी नहीं आता, आज जब गरज पड़ी तो आकर खुशामद कर रहा है। हरामखोर कहीं का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दण्ड देने का अवसर न था। जी में कुढ़ते हुए दो रुपये निकालकर फेंक दिए। मगर सान्त्वना का एक शब्द भी मुँह से न निकला। उसकी तरफ ताका तक नहीं। जैसे सिर का बोझ उतारा हो।
जब जमींदार साहब ने दो रुपये दिये, तो गाँव के बनिये-महाजनों को इनकार का साहस कैसे होता? घीसू जमींदार के नाम का ढिंढोरा भी पीटना जानता था। किसी ने दो आने दिये, किसी ने चारे आने। एक घण्टे में घीसू के पास पाँच रुपये की अच्छी रकम जमा हो गयी। कहीं से अनाज मिल गया, कहीं से लकड़ी। और दोपहर को घीसू और माधव बाज़ार से कफ़न लाने चले। इधर लोग बाँस-वाँस काटने लगे।
गाँव की नर्मदिल स्त्रियाँ आ-आकर लाश देखती थीं और उसकी बेकसी पर दो बूँद आँसू गिराकर चली जाती थीं।
बाज़ार में पहुँचकर घीसू बोला-लकड़ी तो उसे जलाने-भर को मिल गयी है, क्यों माधव!
माधव बोला-हाँ, लकड़ी तो बहुत है, अब कफ़न चाहिए।
‘तो चलो, कोई हलका-सा कफ़न ले लें।’
‘हाँ, और क्या! लाश उठते-उठते रात हो जाएगी। रात को कफ़न कौन देखता है?’
‘कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढाँकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए।’
‘कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है।’
‘और क्या रखा रहता है? यही पाँच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू कर लेते।’
दोनों एक-दूसरे के मन की बात ताड़ रहे थे। बाजार में इधर-उधर घूमते रहे। कभी इस बजाज की दूकान पर गये, कभी उसकी दूकान पर! तरह-तरह के कपड़े, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जँचा नहीं। यहाँ तक कि शाम हो गयी। तब दोनों न जाने किस दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने जा पहुँचे। और जैसे किसी पूर्व निश्चित व्यवस्था से अन्दर चले गये। वहाँ जरा देर तक दोनों असमंजस में खड़े रहे। फिर घीसू ने गद्दी के सामने जाकर कहा-साहूजी, एक बोतल हमें भी देना।
उसके बाद कुछ चिखौना आया, तली हुई मछली आयी और दोनों बरामदे में बैठकर शान्तिपूर्वक पीने लगे।
कई कुज्जियाँ ताबड़तोड़ पीने के बाद दोनों सरूर में आ गये।
घीसू बोला-कफ़न लगाने से क्या मिलता? आखिर जल ही तो जाता। कुछ बहू के साथ तो न जाता।
माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानों देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बना रहा हो-दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग बाँभनों को हजारों रुपये क्यों दे देते हैं? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं!
‘बड़े आदमियों के पास धन है, फ़ूँके। हमारे पास फूँकने को क्या है?’
‘लेकिन लोगों को जवाब क्या दोगे? लोग पूछेंगे नहीं, कफ़न कहाँ है?’
घीसू हँसा-अबे, कह देंगे कि रुपये कमर से खिसक गये। बहुत ढूँढ़ा, मिले नहीं। लोगों को विश्वास न आएगा, लेकिन फिर वही रुपये देंगे।
माधव भी हँसा-इस अनपेक्षित सौभाग्य पर। बोला-बड़ी अच्छी थी बेचारी! मरी तो खूब खिला-पिलाकर!
आधी बोतल से ज्यादा उड़ गयी। घीसू ने दो सेर पूडिय़ाँ मँगाई। चटनी, अचार, कलेजियाँ। शराबखाने के सामने ही दूकान थी। माधव लपककर दो पत्तलों में सारे सामान ले आया। पूरा डेढ़ रुपया खर्च हो गया। सिर्फ थोड़े से पैसे बच रहे।
दोनों इस वक्त इस शान में बैठे पूडिय़ाँ खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो। न जवाबदेही का खौफ था, न बदनामी की फ़िक्र। इन सब भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले ही जीत लिया था।
घीसू दार्शनिक भाव से बोला-हमारी आत्मा प्रसन्न हो रही है तो क्या उसे पुन्न न होगा?
माधव ने श्रद्धा से सिर झुकाकर तसदीक़ की-जरूर-से-जरूर होगा। भगवान्, तुम अन्तर्यामी हो। उसे बैकुण्ठ ले जाना। हम दोनों हृदय से आशीर्वाद दे रहे हैं। आज जो भोजन मिला वह कभी उम्र-भर न मिला था।
एक क्षण के बाद माधव के मन में एक शंका जागी। बोला-क्यों दादा, हम लोग भी एक-न-एक दिन वहाँ जाएँगे ही?
घीसू ने इस भोले-भाले सवाल का कुछ उत्तर न दिया। वह परलोक की बातें सोचकर इस आनन्द में बाधा न डालना चाहता था।
‘जो वहाँ हम लोगों से पूछे कि तुमने हमें कफ़न क्यों नहीं दिया तो क्या कहोगे?’
‘कहेंगे तुम्हारा सिर!’
‘पूछेगी तो जरूर!’
‘तू कैसे जानता है कि उसे कफ़न न मिलेगा? तू मुझे ऐसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूँ? उसको कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा!’
माधव को विश्वास न आया। बोला-कौन देगा? रुपये तो तुमने चट कर दिये। वह तो मुझसे पूछेगी। उसकी माँग में तो सेंदुर मैंने डाला था।
‘कौन देगा, बताते क्यों नहीं?’
‘वही लोग देंगे, जिन्होंने अबकी दिया। हाँ, अबकी रुपये हमारे हाथ न आएँगे।’
‘ज्यों-ज्यों अँधेरा बढ़ता था और सितारों की चमक तेज होती थी, मधुशाला की रौनक भी बढ़ती जाती थी। कोई गाता था, कोई डींग मारता था, कोई अपने संगी के गले लिपटा जाता था। कोई अपने दोस्त के मुँह में कुल्हड़ लगाये देता था।
वहाँ के वातावरण में सरूर था, हवा में नशा। कितने तो यहाँ आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे। शराब से ज्यादा यहाँ की हवा उन पर नशा करती थी। जीवन की बाधाएँ यहाँ खींच लाती थीं और कुछ देर के लिए यह भूल जाते थे कि वे जीते हैं या मरते हैं। या न जीते हैं, न मरते हैं।
और यह दोनों बाप-बेटे अब भी मजे ले-लेकर चुसकियाँ ले रहे थे। सबकी निगाहें इनकी ओर जमी हुई थीं। दोनों कितने भाग्य के बली हैं! पूरी बोतल बीच में है।
भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूडिय़ों का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया, जो खड़ा इनकी ओर भूखी आँखों से देख रहा था। और देने के गौरव, आनन्द और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया।
घीसू ने कहा-ले जा, खूब खा और आशीर्वाद दे! जिसकी कमाई है, वह तो मर गयी। मगर तेरा आशीर्वाद उसे जरूर पहुँचेगा। रोयें-रोयें से आशीर्वाद दो, बड़ी गाढ़ी कमाई के पैसे हैं!
माधव ने फिर आसमान की तरफ देखकर कहा-वह बैकुण्ठ में जाएगी दादा, बैकुण्ठ की रानी बनेगी।
घीसू खड़ा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला-हाँ, बेटा बैकुण्ठ में जाएगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी। वह न बैकुण्ठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएँगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ाते हैं?
श्रद्धालुता का यह रंग तुरन्त ही बदल गया। अस्थिरता नशे की खासियत है। दु:ख और निराशा का दौरा हुआ।
माधव बोला-मगर दादा, बेचारी ने जिन्दगी में बड़ा दु:ख भोगा। कितना दु:ख झेलकर मरी!
वह आँखों पर हाथ रखकर रोने लगा। चीखें मार-मारकर।
घीसू ने समझाया-क्यों रोता है बेटा, खुश हो कि वह माया-जाल से मुक्त हो गयी, जंजाल से छूट गयी। बड़ी भाग्यवान थी, जो इतनी जल्द माया-मोह के बन्धन तोड़ दिये।
और दोनों खड़े होकर गाने लगे-
‘ठगिनी क्यों नैना झमकावे! ठगिनी।
पियक्कड़ों की आँखें इनकी ओर लगी हुई थीं और यह दोनों अपने दिल में मस्त गाये जाते थे। फिर दोनों नाचने लगे। उछले भी, कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बताये, अभिनय भी किये। और आखिर नशे में मदमस्त होकर वहीं गिर पड़े।

सोमवार, 28 मई 2018

कथावार्ता : नमो अन्धकारं : पढ़ने का सलीका

यथार्थ के अनेक रंग होते हैं
और उन सबको समेटने का अन्त
एक अंधेरे में होता है।

-पिकासो

किसी रचना को पढ़ते हुए उसमें चित्रित पात्रों अथवा घटनाओं का साम्य बिठाना और उसे चर्चा के केंद्र में रखना सबसे घटिया दर्जे की आलोचना कही जा सकती है। वस्तुतः जब कोई रचनाकार इस तरह अभिव्यक्त करता है तो इसे किसी व्यक्ति/घटना से जोड़कर देखने के बजाय एक प्रवृत्ति के रूप में देखना चाहिए। रचना का अंग बनते ही वह एक वृत्ति में रूपायित हो जाती है। दूधनाथ सिंह की लंबी कहानी 'नमो अन्धकारं' इसी तरह की घटिया आलोचना का शिकार बनी थी।...

आज नमो अन्धकारं पढ़ते हुए बार बार खयाल आया कि दूधनाथ सिंह ने जिस वृत्ति को इस कृति में रखा है, उसकी चर्चा आखिर क्यों नहीं हुई। समूचा आलोचकीय समाज उसमें निजी जीवन और परिचित चेहरे क्यो तलाशने लगा था? मुझे यह कृति अपने अंतर्विरोधों की सफल अभिव्यक्ति के लिहाज से अच्छी लगी। 'मठ' ऐसी ही वासनाओं और दुरभिसंधियों का गढ़ रहता है जो इस लंबी कहानी में आया है और ऐसे ही मठ और गढ़ ढहाने के लिए लोग संकल्पबद्ध होते रहे हैं। मुक्तिबोध आखिर किस मठ को ढाहने के लिए आह्वान करते हैं?
नमो अन्धकारं ऐसी कई वृत्तियों को बेनकाब करता है और हमारे समक्ष उघाड़ देता है, जिससे हम लाभार्थी होना चाहते हैं लेकिन उसका ठप्पा लगने से बचना चाहते हैं। क्या यह कहानी इलाहाबाद की गलीज जिंदगी का दस्तावेज नहीं है? क्या इसमें बड़े बड़े मठाधीशों की पोल पट्टी नहीं है? क्या इसमें कॉमरेड्स की कलई नहीं उघड़ती? पियक्कड़ी और परनारिगमन तो इस वासना-पंक का एक सहज दुलीचा है। दूधनाथ सिंह इसी अंधकार में यथार्थ की कई कई छवियां घोलते हैं और सबको दागदार बनाकर रख देते हैं।
नमो अन्धकारम पढ़ा जाए तो यह न देखा जाए कि इसमें कौन किस भूमिका में है, यही रचना के साथ न्याय है।

मंगलवार, 11 मार्च 2014

कथावार्ता : उल्टा पड़ाईन


एक कहानी कहता हूँ. हमारे तरफ ख़ूब कही जाती है.
एक पंडिताइन मईया थीं. उनकी खासियत यह थी कि पंडीजी जो कुछ कहते, मईया ठीक उसका उल्टा करतीं. जैसे पंडीजी कहते, आज व्रत रहा जाएगा. पंडिताइन मईया कहतीं, हुँह, क्यों ब्रत रहा जायेगा? आज तो व्यंजन पकेगा. और वही पकता. पंडी जी कहते, आज खिचड़ी पका दो, बहुत मन है खाने का. पंडिताइन कहतीं, नहीं. आज तो छननमनन होगा. पंडीजी कहते- सुनो हो, मैं जरा बाहर जा रहा हूँ, तुम इसी बीच नैहर मत चली जाना. मईया कहतीं, काहे नहीं. हम नैहर जईबे करेंगे. और पंडीजी से पहले वे चली जातीं.
पंडीजी परेशान. करें तो का करें. फिर उन्होंने एक तरीका खोजा. वे इस तकनीक को समझ गए कि पंडिताइन ठीक उल्टा करती हैं तो उनने स्वयं उल्टा कहना शुरू किया. मसलन, जब उनका मन छनन मनन खाने का होता, वे कहते- आज सत्तू मिल जाता, या खिचड़ी या कुछ हल्का-फुल्का तो बहुत सही रहता. पंडिताइन पहले झनकती पटकती और फिर छनन मनन पकता. जब उन्हें आराम करना होता, वे कहते- आज ही मैं जाना चाहता हूँ. पंडिताइन कहतीं- आज कैसे जाओगे. आज नहीं जाना है. पंडीजी ने पंडिताइन की नस पकड़ ली थी.
फिर एक बार गंगा नहान का मौका आया. दंपत्ति नहाने चला. किनारे पहुँचकर पंडीजी ने कहा- सुनो, किनारे किनारे ही नहाना. भीतर पानी गहरा है. पंडिताइन ने कहा- हुँह! किनारे किनारे क्या नहाना. और वे आगे बढ़ती गयीं. पंडीजी मना करते जाते और पंडिताइन और गहरे बढ़ती जातीं..
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फिर?
फिर क्या! पंडिताइन नदी के तेज बहाव में अपनी जमीन खो बैठीं. लगीं 'बचाओ-बचाओ' चिल्लाने. पंडीजी उन्हें बचाने कूदे. पंडिताइन दक्खिन की और बह रही थीं. और पंडीजी उत्तर की ओर छपाका मारते जाते!
अंततः पंडिताइन बह गयीं. पंडीजी बाहर निकल आये. सबने पंडीजी की खूब लानत मलामत की. 'आप देख रहे थे कि मईया दक्खिन बह रही हैं तो बचाने के लिए हाथ-पाँव उत्तर की तरफ क्यों मार रहे थे?'
पंडीजी ने कहा- पंडिताइन ने जीते-जी मेरी कोई बात नहीं मानी. मरते समय भी मुझे पक्का भरोसा था कि वह धारा के विपरीत ही लगेगी. इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है.
...
(मुझे यह कहानी क्यों याद आ रही है? बस सुना रहा हूँ. आप तो जानते ही हैं- सुनने वाला सच्चा, कहने वाला झूट्ठा. लेकिन;कहनी गईल वने में, सोच अपनी मने में!)

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

हक्वाई : हरनोट जी की कहानी पर एक त्वरित टीप

भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका 'नया ज्ञानोदय' कहानियों के लिए विशेष तौर पर याद की जाती है। इस माह (सितम्बर २०१३) की बड़ी उपलब्धि Harnot Sr Harnot की कहानी "हक्वाई" कही जा सकती है। हक्वाई मोची के उस लोहे के तिकोने स्टैंड को कहते हैं, जिसपर रखकर वह जूते की मरम्मत करता है। यह कहानी पढ़ते हुए मुझे धूमिल की कविता 'मोचीराम' और प्रो। तुलसीराम की आत्मकथा "मुर्दहिया" दोनों याद आये। धूमिल की कविता यह कि- "न कोई छोटा है/ न कोई बड़ा है/ मेरे आगे हर आदमी/ एक जोड़ी जूता है/ जो मरम्मत के लिए खड़ा है।" और कहानी में भागीराम के आगे सब मरम्मत के लिए खड़े हैं। तुलसीराम की आत्मकथा इसलिए कि कमाई करने यानि चमड़े का काम करने का इतना प्रामाणिक वर्णन वहीँ दिखा मुझे। और फिर यहाँ, उनकी प्रक्रिया का वर्णन भी।
हक्वाई भागीराम की कहानी है। भागीराम का कसूर यह है कि (उनका कसूर तो यह भी है कि वे निम्न कुल में जन्मे और उसकी कीमत भी बहुत कुछ खोकर गवांया। यह सब भी तफसील से कहानी में आया है लेकिन यहाँ बात दूसरी ही की जाए।) वे नगर निगम के नए अधिकारी से जूता पॉलिश करने का मेहनताना मांग लेते हैं। उसका खामियाजा यह है कि उन्हें फिर से विस्थापित होना पड़ता है। कई तरह के कष्ट झेलने पड़ते हैं लेकिन विस्थापन के इस पड़ाव में वे एक नए अभियान पर निकल पड़ते हैं। गाँधी बाबा का रास्ता। आमरण अनशन।
कहानी अपने बेहतर ट्रीटमेंट और लेखकीय दृष्टि के लिए याद रखी जाएगी। लेखक की पक्षधरता भागीराम के साथ है। वे उनके श्रम और जुझारू जीवन का पूरा सम्मान करते हुए दीखते हैं। कोई काम छोटा नहीं होता। भागीराम तो अपने काम को पूजने की हद तक पसंद करते हैं। वे हक्वाई को अपना देवता मानते हैं।
कहानी में जिस तरह से भागीराम का चित्रण किया गया है, वह काबिल-ए-तारीफ है। मुझे पसंद आया कि लेखक का शब्द चयन पर विशेष ध्यान है। कहीं भी भागीराम के लिए किसी असंसदीय शब्द का प्रयोग नहीं किया है। यह बताना इस लिए ख़ास है कि यथार्थ का चित्रण करने के बहाने भाई लोग अपनी सामंती मानसिकता का प्रदर्शन करने से नहीं चूकते। कहानी इसलिए भी बहुत ख़ास बन गयी है।
ख़ास बात यह है कि लेखक को इस बात में सिद्धि मिल गयी है कि भागीराम जैसा सरल। सहज आदमी बोलेगा तो उसके वाक्य छोटे और भाषा सहज होगी। यह सफाई बहुत कम दिखती है।
अब आप कहानी पढ़ें और बताएं कि "मैं क्या झूठ बोल्याँ"।
हरनोट जी को बधाई। बहुत-बहुत बधाइयाँ।


सद्य: आलोकित!

जातिवादी विमर्श में चमकीला

 एक फिल्म आई है #चमकीला नाम से। उसके गीत भी हिट हो गए हैं। फिल्म को जातिवादी कोण से इम्तियाज अली ने बनाया है जो चमकीला नाम के एक पंजाबी गायक...

आपने जब देखा, तब की संख्या.