गुरुवार, 24 नवंबर 2022

त्रिलोचन की ग्यारह कविताएं

 (1)

ताप के ताए हुए दिन

 

ताप के ताए हुए दिन ये
क्षण के लघु मान से
मौन नपा किए ।

चौंध के अक्षर
पल्लव-पल्लव के उर में
चुपचाप छपा किए ।

कोमलता के सुकोमल प्राण
यहाँ उपताप में
नित्य तपा किए ।

क्या मिला-क्या मिला
जो भटके-अटके
फिर मंगल-मंत्र जपा किए ।

 

(2)

अन्तर

 

तुलसी और त्रिलोचन में अन्तर जो झलके

वे कालान्तर के कारण हैं । देश वही है,

लेकिन तुलसी ने जब-जब जो बात कही है,

उसे समझना होगा सन्दर्भों में कल के।

वह कल, कब का बीत चुका है .. आँखें मल के

ज़रा देखिए, इस घेरे से कहीं निकल के,

पहली स्वरधारा साँसों में कहाँ रही है;

धीरे-धीरे इधर से किधर आज बही है।

क्या इस घटना पर आँसू ही आँसू ही ढलके।


और त्रिलोचन के सन्दर्भों का पहनावा

युग ही समझे, तुलसी को भी नहीं सजेगा,

सुखद हास्यरस हो जाएगा। जीवन अब का

फुटकर मेल दिखाकर भी कुछ और बनावा

रखता है। अब बाज पुराना नहीं बजेगा

उसके मन का। मान चाहिए, सबको सबका।

 

(3)

फिर न हारा

 

मैं तुम्हारा

बन गया तो

फिर न हारा


आँख तक कर

फिरी थक कर

डाल का फल

गिरा पक कर

वर्ण दृग को

स्पर्श कर को

स्वाद मुख को

हुआ प्यारा ।


फूल फूला

मैं न भूला

गंध-वर्णों

का बगूला

उठा करता

गिरा करता

फिरा करता

नित्य न्यारा ।

 

(4)

जलरुद्ध दूब

 

मौन के सागर में

गहरे गहरे

निशिवासर डूब रहा हूँ


जीवन की

जो उपाधियाँ हैं

उनसे मन ही मन ऊब रहा हूँ


हो गया ख़ाना ख़राब कहीं

तो कहीं

कुछ में कुछ ख़ूब रहा हूँ


बाढ़ में जो

कहीं न जा सकी

जलरुद्ध रही वही दूब रहा हूँ ।

 

(5)

सहस्रदल कमल

 

जब तक यह पृथ्वी रसवती है

और

जब तक सूर्य की प्रदक्षिणा में लग्न है,

तब तक आकाश में

उमड़ते रहेंगे बादल मंडल बाँध कर;

जीवन ही जीवन

बरसा करेगा देशों में, दिशाओं में;

दौड़ेगा प्रवाह

इस ओर उस ओर चारों ओर;

नयन देखेंगे

जीवन के अंकुरों को

उठ कर अभिवादन करते प्रभात काल का ।

बाढ़ में

आँखो के आँसू बहा करेंगे,

किन्तु जल थिराने पर,

कमल भी खिलेंगे

सहस्रदल ।

 

(6)

पाहुन

बना बना कर चित्र सलौने
यह सूना आकाश सजाया
राग दिखाया
क्षण-क्षण छवि में चित्त चुराया
बादल चले गए वे

आसमान जब नीला-नीला
एक रंग रस श्याम सजीला
धरती पीली हरी रसीली
शिशिर -प्रभात समुज्ज्वल गीला
बादल चले गए वे

दो दिन दुःख का दो दिन सुख का
दुःख सुख दोनों संगी जग में
कभी हास है अभी अश्रु हैं
जीवन नवल तरंगी जग में
बादल चले गए वे
दो दिन पाहुन जैसे रह कर ।

 

(7)

यूँ ही कुछ मुस्काकर तुमने


यूँ ही कुछ मुस्काकर तुमने
परिचय की वो गाँठ लगा दी !

था पथ पर मैं भूला-भूला
फूल उपेक्षित कोई फूला
जाने कौन लहर थी उस दिन
तुमने अपनी याद जगा दी ।

कभी कभी यूँ हो जाता है
गीत कहीं कोई गाता है
गूँज किसी उर में उठती है
तुमने वही धार उमगा दी ।

जड़ता है जीवन की पीड़ा
निस्-तरँग पाषाणी क्रीड़ा
तुमने अन्जाने वह पीड़ा
छवि के शर से दूर भगा दी ।

 

(8)

तुलसी बाबा

 

तुलसी बाबा, भाषा मैंने तुमसे सीखी

मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो।कह सकते थे तुम सब कड़वी, मीठी तीखी।

प्रखर काल की धारा पर तुम जमे हुए हो।

और वृक्ष गिर गए मगर तुम थमे हुए हो।

कभी राम से अपना कुछ भी नहीं दुराया,

देखा, तुम उन के चरणों पर नमे हुए हो।

विश्व बदर था हाथ तुम्हारे उक्त फुराया,

तेज तुम्हारा था कि अमंगल वृक्ष झुराया,

मंगल का तरु उगा; देख कर उसकी छाया,

विघ्न विपद के घन सरके, मुँह नहीं चुराया।

आठों पहर राम के रहे, राम गुन गाया।

यज्ञ रहा, तप रहा तुम्हारा जीवन भू पर।

भक्त हुए, उठ गए राम से भी, यों ऊपर ।

 

(9)

भाषा की लहरें

 

भाषाओं के अगम समुद्रों का अवगाहन
मैंने किया। मुझे मानवजीवन की माया
सदा मुग्ध करती है, अहोरात्र आवाहन

सुन सुनकर धायाधूपा, मन में भर लाया
ध्यान एक से एक अनोखे। सबकुछ पाया
शब्दों में, देखा सबकुछ ध्वनिरूप हो गया।
मेघों ने आकाश घेरकर जी भर गाया।
मुद्रा, चेष्टा, भाव, वेग, तत्काल खो गया,
जीवन की शैय्या पर आकर मरण सो गया।

सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ भाषा ।
भाषा की अंजुली से मानव हृदय टो गया
कवि मानव का, जगा नया नूतन अभिलाषा।

भाषा की लहरों में जीवन की हलचल है,
ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है

 

(10)

चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती

 

चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता है:
इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर
निकला करते हैं।

चम्पा सुन्दर की लड़की है
सुन्दर ग्वाला है : गाय भैंसे रखता है
चम्पा चौपायों को लेकर
चरवाही करने जाती है

चम्पा अच्छी है
चंचल है
न ट ख ट भी है
कभी कभी ऊधम करती है
कभी कभी वह कलम चुरा देती है
जैसे तैसे उसे ढूंढ कर जब लाता हूँ
पाता हूँ - अब कागज गायब
परेशान फिर हो जाता हूँ

चम्पा कहती है:
तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर
क्या यह काम बहुत अच्छा है
यह सुनकर मैं हँस देता हूँ
फिर चम्पा चुप हो जाती है

उस दिन चम्पा आई , मैने कहा कि
चम्पा, तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम सरेगा
गांधी बाबा की इच्छा है -
सब जन पढ़ना लिखना सीखें
चम्पा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढूंगी
तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं
वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे
मैं तो नहीं पढ़ूँगी

मैने कहा चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा , तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम सँग साथ रह चला जायेगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर है वह कलकत्ता
कैसे उसे सँदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी
चम्पा पढ़ लेना अच्छा है!

चम्पा बोली : तुम कितने झूठे हो, देखा,
हाय राम , तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करुंगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूंगी
कलकत्ता में कभी न जाने दूँगी

कलकत्ते पर बजर गिरे।

 

 

(11)

सॉनेट पथ

 

इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौड़ा;
सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट; क्या कर डाला
यह उस ने भी अजब तमाशा। मन की माला
गले डाल ली। इस सॉनेट का रस्ता चौड़ा

अधिक नहीं है, कसे कसाए भाव अनूठे
ऐसे आएँ जैसे क़िला आगरा में जो
नग है, दिखलाता है पूरे ताजमहल को;
गेय रहे, एकान्विति हो। उस ने तो झूठे
ठाटबाट बाँधे हैं। चीज़ किराए की है।
स्पेंसर, सिडनी, शेक्सपियर, मिल्टन की वाणी
वर्ड्सवर्थ, कीट्स की अनवरत प्रिय कल्याणी
स्वर-धारा है, उस ने नई चीज़ क्या दी है।

सॉनेट से मजाक़ भी उसने खूब किया है,

जहाँ तहाँ कुछ रंग व्यंग्य का छिड़क दिया है।


त्रिलोचन


(त्रिलोचन (1917-2007ई0) प्रगतिवादी कवियों की त्रयी के प्रधान कवि हैं। त्रयी के अन्य स्तम्भ हैं- नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल। त्रिलोचन शास्त्री का असली नाम वासुदेव सिंह था। वह हिन्दी कविता में सोनेट के जन्मदाता माने जाते हैं। उन्होने अपनी कविताओं में कई प्रयोग किए हैं। गुलाब और बुलबुल, ताप के ताए हुए दिन,  उस जनपद का कवि हूँ उनके चर्चित कविता संकलन हैं। यहाँ त्रिलोचन की ग्यारह कवितायें दी गयी हैं। इनमें से प्रारम्भिक पाँच कवितायें छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर के बी ए तृतीय वर्ष के पाठ्यक्रम में भी हैं। शेष कवितायें त्रिलोचन के विविध रूप का निदर्शन कराती हैं। - सम्पादक)

गुरुवार, 3 नवंबर 2022

प्रेमचंद की कहानियों में शिक्षा

-         डॉ रमाकान्त राय

          प्रसिद्ध साहित्यकार प्रेमचंद की प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा उनके अपने ग्राम लमही, वाराणसी में हुई थी। हाईस्कूल की पढ़ाई उन्होंने क्वींस कॉलेज, वाराणसी और इंटरमीडिएट सेंट्रल हिन्दू कॉलेज से किया। स्नातक की पढ़ाई प्रेमचंद ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त की थी। स्नातक की उपाधि प्राप्त करने से पूर्व वह एक विद्यालय में अध्यापक हो गए थे। स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद उनकी पदोन्नति डिप्टी इंस्पेक्टर के रूप में हुई। सन 1931 में महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन से प्रेरित होकर प्रेमचंद ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने हंस पत्रिका और जागरण पत्र का सम्पादन किया।

          प्रेमचंद के साहित्य का अनुशीलन करने पर सहज ही पता चलता है कि वह शिक्षा व्यवस्था को लेकर बहुत संवेदनशील थे। अपने एक लेख नया जमाना-पुराना जमाना में उन्होंने “देश के शिक्षित और सम्पन्न लोगों की जन विरोधी तथा स्वराज्य विरोधी नीति की भर्त्सना की है”।  प्रेमचंद ने 300 से अधिक कहानियाँ लिखी हैं जो उर्दू और हिन्दी में समान रूप से महत्त्व रखती हैं। उनकी कई कहानियों में शिक्षा, पठन-पाठन और चरित्र निर्माण में उसकी भूमिका का सन्दर्भ मिलता है। इस आलेख में ऐसी ही कुछ चुनिन्दा कहानियों को केंद्र में रखकर शिक्षा के प्रति प्रेमचंद के दृष्टिकोण का आकलन करने का प्रयास किया जा रहा है।

          प्रेमचंद की शिक्षा को केंद्र में रखकर लिखी गयी कुछ महत्त्वपूर्ण कहानियाँ हैं- परीक्षा, बड़े घर की बेटी, बड़े भाई साहब, पञ्च परमेश्वर, ईदगाह, सज्जनता का दंड, पशु से मनुष्य आदि।

          प्रेमचंद अपनी कहानियों में तत्कालीन शिक्षा पद्धति, जो पश्चिम आधारित है, को भ्रष्ट मानते हैं और विद्या के भारतीय अर्थ को ही स्वीकार्य मानते हैं। उनकी एक कहानी पशु से मनुष्य जो 1920 में प्रभा पत्रिका में प्रकाशित हुई थी, के प्रेमशंकर कहते हैं- “मुझे वर्तमान शिक्षा और सभ्यता पर विश्वास नहीं है। विद्या का धर्म है आत्मिक उन्नति, और आत्मिक उन्नति का फल उदारता, त्याग, सदिच्छा, सहानुभूति, न्यायपरता और दयाशीलता है। जो शिक्षा हमें निर्बलों को सताने पर तैयार करे, जो हमें धरती और धन का गुलाम बनाए, जो हमें भोग-विलास में डुबाए, जो हमें दूसरों का रक्त पीकर मोटा होने को इच्छुक बनाए, वह शिक्षा नहीं भ्रष्टता है।” (पशु से मनुष्य, प्रेमचंद, प्रेमचंद-2, पृष्ठ- 331) इस कहानी में प्रेमचंद ने डॉक्टर मेहरा जैसे पात्र का हृदय परिवर्तन करवाया है।

          हिन्दी में प्रकाशित हुई प्रेमचंद की प्रथम कहानी परीक्षा, जो अक्टूबर, 1914 में गणेशशंकर विद्यार्थी की प्रताप पत्रिका के विजयदशमी अंक में प्रकाशित हुई थी, अङ्ग्रेज़ी शिक्षा पाये नकलची युवकों के स्थान पर परदु:खकातर, परमार्थी, सेवा भावना रखने के युवक को श्रेयस्कर मानती है। इस कहानी में देवगढ़ की रियासत के दीवान पद के चुनाव में जो प्रक्रिया अपनाई जाती है, वह शिक्षा के एक महत्त्वपूर्ण उपादान की तरह ली जा सकती है। इस कहानी में स्वाभाविक वृत्ति और समयानुकूल रूप धरने की शिक्षित लोगों की कला पर बहुत महीन व्यंग्य मिलता है।

          प्रेमचंद की एक अन्य चर्चित कहानी बड़े घर की बेटी जमाना पत्रिका में 1910 में प्रकाशित हुई थी। यह कहानी प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित होने वाली पहली कहानी है। इस कहानी का एक पात्र श्रीकण्ठ अङ्ग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त व्यक्ति हैं किन्तु वह “डिग्री के अधिपति होने पर भी अंगरेजी सामाजिक प्रथाओं के विशेष प्रेमी न थे, बल्कि वह बहुधा बड़े ज़ोर से उनकी निंदा और तिरस्कार किया करते थे। इसी से गाँव में उनका बड़ा सम्मान था।” (बड़े घर की बेटी, प्रेमचंद, प्रेमचंद-1, पृष्ठ- 177) यद्यपि वह विद्वान है तथापि आनंदी के कहने पर उग्र हो उठता है। इस कहानी में आनंदी के बड़े घर की बेटी होने का श्रेय इस बात से मिलता है कि वह घर को, भाइयों के बीच संबंध टूटने से बचा लेती है।

          प्रेमचंद की कहानी पञ्च परमेश्वर हिन्दी में सरस्वती पत्रिका में जून 1916 में प्रकाशित हुई थी। यह कहानी पारम्परिक न्याय व्यवस्था का बहुत सुघड़ निदर्शन कराती है किन्तु इस कहानी के प्रारम्भिक अनुच्छेद में प्रेमचंद ने परम्परागत शिक्षा प्रणाली पर भी टिप्पणियाँ की हैं। अलगू चौधरी के पिता मानते थे कि विद्या पढ़ने से नहीं आती, जो कुछ होता है, गुरु के आशीर्वाद से होता है, बस गुरुजी की कृपा दृष्टि चाहिए।” इस कहानी में शिक्षा प्रदान करने वाले जुमेराती, अलगू चौधरी को हमेशा चिलम भरने में प्रवृत्त किए रहते हैं और जुम्मन को उसकी गलतियों के लिए छड़ी से पीटने में अधिक विश्वास करते हैं। अधिक परिश्रम से पढे लिखे जुम्मन शेख बहुत आदर का पात्र होते हैं। प्रेमचंद यह स्थापित करते हैं कि पढ़-लिखकर सहज ही आदर प्रपट किया जा सकता है किन्तु जुम्मन के चरित्र का चित्रण करते हुए वह दर्शाते हैं कि अधिक पढ़ लिख लेने के बाद जुम्मन स्वार्थी और संकीर्णता का शिकार हो गए हैं। वह अपनी खाला की संपत्ति हड़पने के बाद उनको भरण-पोषण के लिए आवश्यक संसाधन देने में भी आनाकानी करते हैं। साथ ही अपने विपक्ष में निर्णय देने से रुष्ट होकर वह अलगू चौधरी के बैल को जहर दे देते हैं। यह संकीर्णता वाला भाव प्रेमचंद अपनी कहानी मंत्र में भी दिखाते हैं जहां डॉ चड्ढा भगत के बीमार बच्चे का निदान नहीं करते और बैडमिंटन खेलने चले जाते हैं।

          प्रेमचंद की कहानी बड़े भाई साहब हंस में नवंबर 1934 में प्रकाशित हुई। इस कहानी में बड़े भाई के मुख से पश्चिमी शिक्षा की जितनी तीखी आलोचना प्रेमचंद ने की है, वह उल्लेखनीय है। अंगरेजी भाषा, इतिहास, भूगोल आदि के पढ़ाने पढ़ने पर प्रेमचंद ने बहुत मारक टिप्पणियाँ की हैं। वह लिखते हैं- “परीक्षकों को क्या परवाह। वह तो वही देखते हैं जो पुस्तक में लिखा है। चाहते हैं कि लड़के अक्षर अक्षर रट डालें और इसी रटंत का नाम शिक्षा रख छोड़ा है और आखिर इन बेसिर-पैर की बातों को पढ़ाने से फायदा?” (बड़े भाई साहब, प्रेमचंद, प्रेमचंद-6, पृष्ठ- 458)

          प्रेमचंद की एक अन्य कहानी ईदगाह (चाँद पत्रिका में 1933 में प्रकाशित) बाल मनोविज्ञान पर केन्द्रित है। इस कहानी में प्रेमचंद ने मेय देखने जा रहे बच्चों से कॉलेज की शिक्षा और व्यवस्था पर व्यंग्य वचन कहलाए हैं। वह लिखते हैं- “इतने बड़े कॉलेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे! सब लड़के नहीं हैं जी! इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ते जाते हैं? न जाने कब तक पढ़ेंगे और क्या करेंगे इतना पढ़कर! हमीद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हैं, बिलकुल तीन कौड़ी के, रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले।” (ईदगाह, प्रेमचंद, प्रेमचंद-6, पृष्ठ- 311) उनकी एक कहानी गुल्ली डांडा में सहपाठी रहे दो युवकों के बीच कितना अंतर आ गया है, अफसर बना बालक अपनी पृष्ठभूमि से किस कदर कट गया है, इसका मार्मिक आख्यान करती है। प्रेमचंद की कई कहानियों में स्त्री शिक्षा के बारे में भी प्रसंग मिलते हैं। जीवन का शाप, मिस पद्मा, क्रिकेट मैच आदि कहानियों में शिक्षित स्त्रियॉं का चित्रांकन है। “मिस पद्मा कहानी मे उच्च शिक्षा प्राप्त स्त्री-पुरुष पश्चिम के प्रभाव में विवाह संस्था को ठुकरा कर मित्र रूप में रहते हैं जिसकी इधर कानूनी मान्यता देने के लिए चर्चा होती रहती है।” (कमल किशोर गोयनका, भूमिका, प्रेमचंद-6, पृष्ठ- 46)

          कमल किशोर गोयनका लिखते हैं- “प्रेमचंद की कहानियों में पश्चिमी शिक्षा-दीक्षा तथा धन प्रभुतामय जीवन के प्रति घोर आलोचनात्मक व्यवहार मिलता है। वह आरंभ से ही अंग्रेजों द्वारा स्थापित पश्चिमी शिक्षा के केन्द्रों का समाज पर पड़ते प्रभाव को देख रहे थे कि किस प्रकार अंगरेजी पढे-लिखे भारतीय अपने संस्कारों और जातीय परम्पराओं को हीन मानते हुए अंगरेजी की नकल में ही गौरव एवं श्रेष्ठता का अनुभव करते हैं। प्रेमचंद इसे ही मानसिक पराधीनता मानते हैं जो युवा पीढ़ी का चारित्रिक पतन कर रही है और जनता से दूर ले जा रही है। (कमल किशोर गोयनका, भूमिका, प्रेमचंद-6, पृष्ठ- 48)

          किसान जीवन, दलित समुदाय की समस्याएँ, सामाजिक समस्याएँ और स्त्रियॉं तथा बच्चों पर केन्द्रित साहित्य प्रेमचंद के यहाँ बहुतायत है। इसमें शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण घटक है जो उनके साहित्य और चिंतन के केंद्र में रहा है। प्रेमचंद पश्चिमी शिक्षा पद्धति के कटु आलोचक और भारतीय जीवन पद्धति तथा शिक्षण प्रक्रिया के पक्षधर थे। उनके साहित्य में यह बारंबार परिलक्षित होता है।

 

ईमेल- royramakantrk@gmail.com , 9838952426

बुधवार, 26 अक्तूबर 2022

पंक्ति की तलाश में साहित्य का दीपक

                 -डॉ रमाकान्त राय 

        कोविड-19 के बाद इस वर्ष का दीपावली पर्व ऐसा है जिसमें कोरोना महामारी की प्रत्यक्ष छाया कम है। विश्वव्यापी बन्दी के बाद दुनिया में जो सुस्ती आई है, वह भारतीय बाजार पर भी स्पष्ट दिखाई पड़ती है। यद्यपि लोग इस आपदा से उबरने के लिए प्रयासरत हैं और बाजार उसे भुलाने में लगा हुआ है तथापि यह मंदी उपस्थित है। शासन-सत्ता की सक्रियता और सहभागिता ने इसमें जान फूंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी है किन्तु भारतीय सांस्कृतिक और साहित्यिक परिदृश्य में पारम्परिक भारतीय उत्सवों को लेकर एक प्रच्छन्न आपदाकाल जारी है। गजानन माधव मुक्तिबोध का अंधेरे में सर्वत्र व्याप्त है जहां दिया जल रहा है,/ पीतालोक-प्रसार में काल चल रहा है।” और अज्ञेय का गर्व भरा, मदमाता यह दीप अकेला’, इसको भी पंक्ति को दे दो की पुकार लगा रहा है।

यह दीप अकेला

          हिन्दी का समूचा साहित्य एक विशेष मनःस्थिति का सृजन है। आदिकाल से लेकर नयी कविता के आगमन तक हिन्दी पट्टी पराधीनता के साये में पली-बढ़ी है। मुग़ल काल में कृष्ण भक्तों का अष्टछाप सीकरी से दूर श्रीनाथ जी के मंदिर में दीप प्रज्ज्वलित करता है और रामभक्त राम नाम के मणिदीप को जिह्वा की देहरी पर रखकर अन्तः और बाह्य दोनों को प्रकाशित कर रहे हैं। निर्गुणिया कवि दीपक-तेल-बत्ती का व्यवहार संसार के आवागमन से मुक्ति के सम्बन्ध में ही करते दीखते हैं। रीतिकाल का कवि नायिका की देह के उजाले में मुग्ध है। अंग्रेज़ राज आने के बाद आधुनिक हिन्दी साहित्य के अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बलिया के ददरी मेले में भाषण देते हुए अनुभव साझा करते हैं कि "सब उन्नतियों का मूल धर्म है। इससे सबसे पहले धर्म की ही उन्नति करनी उचित है। देखो अंग्रेजों की धर्मनीति राजनीति परस्पर मिली है इससे उनकी दिन-दिन कैसी उन्नति हुई है। उनको जाने दो अपने ही यहाँ देखो। तुम्हारे धर्म की आड़ में नाना प्रकार की नीति, समाज-गठन, वैद्यक आदि भरे हुए हैं।" आज से लगभग डेढ़ सौ साल पहले भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है पर विचार करते हुए वह कहते हैं, “भाइयो, अब तो नींद से जागो। अपने देश की सब प्रकार से उन्नति करो। जिसमें तुम्हारी भलाई हो वैसी ही किताब पढ़ो। वैसे ही खेल खेलो। वैसी ही बातचीत करो। परदेसी वस्तु और परदेसी भाषा का भरोसा मत रखो। अपने देश में, अपनी भाषा में उन्नति करो।”


          जब स्वाधीनता की लौ सबसे ऊँची उमग रही थी तब सोहनलाल द्विवेदी, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा आदि साहित्यकारों ने दीपावली, दीपक और प्रकाश को नए अर्थ से जोड़ा। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद सम्प्रदायनिरपेक्ष बनने के क्रम में राजनीति, धर्मनीति से पृथक होती गयी और संतुलन के प्रयास में एक तरफ झुकती गयी। इसका प्रभाव साहित्य में भी देखा गया। जिस अंधेरे में का उल्लेख ऊपर मुक्तिबोध के साथ किया गया है, वह साहित्य में स्थायी भाव बनता गया और अज्ञेय का दीपक अधिक अकेला पड़ता गया। अंधेरा धीरे-धीरे साहित्य और समाज में भी छा गया। उदासीनता बढ़ती गयी। हरिवंशराय बच्चन ने इसे लक्षित कर लिखा- “है अंधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।” हरिवंशराय बच्चन, दीपावली पर इसी अँधेरे से जूझते दिखाई देते हैं-

साथी, घर-घर आज दिवाली।
फैल गयी दीपों की माला, मंदिर-मंदिर में उजियाला
किन्तु हमारे घर का, देखोदर काला, दीवारें काली!
साथी, घर-घर आज दिवाली।

          हिन्दी के आधुनिक साहित्य में दीपावली कभी नहीं आई। जब स्वतन्त्रता मिली तो एक समुदाय ने यह आजादी झूठी है का राग अलापा। प्रगतिशीलों का यह स्वर अद्यतन जारी है। वह आए दिन संविधान, जनतंत्र आदि को संकट में पड़ा हुआ देखता है और लोगों को निःसहाय, विवश तथा कठपुतली जानकर अपने नारे लगवाता है। हिन्दी का साहित्यिक समाज आज भी अँधेरे से जूझता हुआ, अदृश्य शत्रुओं ने निरन्तर युद्धरत है। भारतीय राजनीति सम्प्रदायनिरपेक्ष रहने के प्रयास में साहित्य को प्रभावित करती रही। इसी अवधि में यूरोप तथा अमेरिका धर्मनीति से ओतप्रोत हो अपना सांस्कृतिक प्रसार करते रहे और दीपावली के विषय में अपने फतवे सुनाते रहे। वह दीपावली को पर्यावरण प्रदूषक के रूप में और होली को अश्लीलता का पर्याय बताते रहे। भारतीय समाज में दीपावली प्रकाश और खुशियों का पर्व कम; प्रदूषण, आतिशबाज़ी, स्वास्थ्यनाशक, जीवहिंसक, व्यापार, बाजार आदि का कारक अधिक बनकर उभरा। दीपावली भगवान श्रीराम के घर आगमन का उत्सव नहीं रहा।

          जो दीपावली घर के राम-लक्ष्मण के शुभागमन का पर्व था, वह धनतेरस की चकाचौंध में पड़ गया। बाजार ने उसे उपहारों से ढँक दिया। स्वच्छता, सुगंधि और सुसज्जा को व्यर्थताबोध से जोड़ने की हरसंभव कोशिश की गयी। वातावरण को प्रदूषण से कराहता हुआ दिखाया गया। दीपावली पर हर बार पटाखे प्रभावी होते हैं। प्रकृति पूजा के पर्व छठ ने भी दीपावली की छटा को समेटा है। चौतरफा दबाव में इस त्योहार ने अपने मूल भाव को लगभग विस्मृत कर दिया है।

          वर्तमान सत्ता ने अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति को धर्मनीति से जोड़ा है। विगत कुछ वर्षों में धर्मस्थलों के पुनरुद्धार और सुंदरीकरण ने लोगों को अपने धार्मिक मान्यताओं से जोड़ने के मार्ग पर खड़ा किया है। जिस अयोध्या में भगवान श्रीराम के आगमन के अवसर पर घी के दिये जलाए गए थे, खुशियाँ मनाई गयी थीं, उस अयोध्या को सजाने-सँवारने के लिए प्रदेश और केन्द्र दोनों शासन सन्नद्ध हैं। विगत वर्षों से यह संलिप्तता संभवतः साहित्यिक मानस को प्रभावित करे और दीपों का, प्रकाश का यह पर्व रचनात्मक रूप से उर्वर करे, ऐसी उम्मीद की जा सकती है।

          हालाँकि हिन्दी साहित्य अपनी सार्थकता प्रतिरोध का साहित्य रचने में मानता है और उसके लिए यही प्रतिरोध खाद-पानी का काम करता है। शासन के साथ स्वर में स्वर मिलाकर रचे गए साहित्य को वह कभी मूल्यवान नहीं मानता और उसे हमेशा उपेक्षणीय मानता है। बीते दिवस एक प्रगतिशील साहित्यकार ने दुर्गासप्तशती के लोकभाषा अवधी में काव्यानुवाद करने की कामना प्रकट की तो प्रगतिशील समुदाय ने खूब खरी-खोटी सुनाई और उन्हें सत्ता के गलियारों में लाभ के आकांक्षी के रूप में प्रस्तुत कर दिया। हाशिया के विमर्शों ने भी पारम्परिक उत्सव और त्योहार को मलिन करने में अपनी भूमिका निभाई है। इसलिए यह सम्भावना बहुत कम है कि आगामी दिनों में भी भारतीय पर्व और त्योहारों को लेकर कोई सकारात्मक, रचनात्मक पहल होने वाली है। यदि होगी भी तो उसका संज्ञान नहीं लिया जाएगा।

हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा में शनिवार 22 अक्टूबर, 2022 को प्रकाशित 

पंक्ति की तलाश में साहित्य का दीपक

                                                                                             

बुधवार, 7 सितंबर 2022

त्रिमुहानी का मेला : श्रीराम सब जानते हैं!

- डॉ रमाकान्त राय

आज त्रिमुहानी का मेला था। आज की तिथि वामन द्वादशी की तिथि है। हमारी लहुरी काशी में आज का दिन भगवान श्रीराम और उनके अनुज लक्ष्मण तथा उनके आचार्य ऋषि विश्वामित्र के दर्शन का दिन है। उत्सव है। मेला है।

आपको त्रिमुहानी के इस विख्यात मेले के बारे में पता है न? जनश्रुति है कि भगवान श्रीराम ताड़का वध के समय बक्सर जाते समय जल्लापुर, गाधिपुरी (गाजीपुर) में गंगा तट पर रात्रि विश्राम के लिए रुके थे। जिस दिन पहुँचे उस दिन यानि कल के दिन छतर का मेला लगता है और दंगल होता है। दूर दूर के पहलवान अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। भगवान श्रीराम और लक्ष्मण के प्रति समर्पण का यह विशिष्ट तरीका है। राम और लक्ष्मण अभी बालक ही तो हैं। ऋषि विश्वामित्र उन्हें अपने यज्ञ की रक्षा के लिए दशरथ से मांगकर ले जा रहे हैं। बक्सर। वहां कुख्यात राक्षस उनकी यज्ञ वेदी में हड्डियां डाल देते थे। राम और लक्ष्मण ऋषि वशिष्ठ से ज्ञानार्जन कर अभी लौटे ही थे। परीक्षा की घड़ी है।

आज मेला लगता है। लोग रघुवंशियों को देखने और उन्हें विदा करने गंगा तट पर उमड़ते हैं। लोक की स्मृति अद्भुत है। रात्रि विश्राम के बाद रघुकुलनंदन जाने की तैयारी कर रहे हैं। ऋषि विश्वामित्र आगे आगे चल रहे हैं। लोग यह देखकर धन्य हो रहे हैं।

सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष 

लोक की स्मृति अद्भुत है। अभी हाल ही में एक विद्वान हस्तिनापुर के निकट स्थित दनकौर के बारे में बता रहे थे। दनकौर द्रोणाचार्य के अखाड़े से जुड़ा हुआ है। द्रोण के आश्रम का यह कोर (कोना) कौरव और पांडव के दीक्षांत का था। हजारों वर्ष बीत गए, आज भी उसकी याद में मेला लगता है। मुगल काल में स्मृति क्षीण करने का प्रयास अवश्य हुआ, किन्तु लोगों ने इसे अपनी परम्परा में बचाए रखा। त्रिमुहानी का मेला ताड़का वध के लिए जा रहे भगवान श्रीराम और लक्ष्मण की याद में आयोजित करते हैं।

कहते हैं कि जब यह खबर अब के फिरोजपुर, सुल्तानपुर, कठउत-गौसपुर (दुर्योग से यह नाम आक्रांताओं की याद दिलाते हैं) के लोगों को पता चली तो वह लोग अगले दिन  जमा हुए। उनका यह जमावड़ा चटनी का मेला कहा गया।

कई साल हो गए। मेला नहीं गया लेकिन मेला स्मृति में बसा हुआ है। छुटपन में जाते थे तो गुरहिया जिलेबी और केला जरूर खाते थे। खजुली खाते। चरखी पर भी चढ़ते। हनुमान जी के मंदिर में शीश नवाते थे। आज के दिन बरसात अवश्य होती है। सबको इस बारिश में भीगना रहता था, उसी दशा में घूमना भी। यह मेला शिवपालगंज के मेले से किसी भी दृष्टि से कम नहीं था।

त्रिमुहानी के मेले की कई मीठी स्मृतियां हैं। अगली बार अवश्य जाऊंगा।

मंगलवार, 6 सितंबर 2022

भोलाराम का जीव : हरिशंकर परसाई का व्यंग्य

   

ऐसा कभी नहीं हुआ था। धर्मराज लाखों वर्षों से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफारिश  के आधार पर स्वर्ग या नर्क में निवास-स्थान अलाटकरते या रहे थे- पर ऐसा कभी नहीं हुआ था।

         सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार चश्मा पोंछबार-बार थूक से पन्ने पलटरजिस्टर देख रहे थे। गलती पकड में ही नहीं आरही थी। आखिर उन्होंने खीझकर रजिस्टर इतनी ज़ोर से बन्द किया कि मक्खी चपेट में आ गई। उसे निकालते हुए वे बोले, “महाराजरिकार्ड सब ठीक है। भोलाराम के जीव ने पाँच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना हुआपर यहाँ अभी तक नहीं पहुंचा।

          धर्मराज ने पूछा, “और वह दूत कहां है?”

          महाराजवह भी लापता है।

         इसी समय द्वार खुले और एक यमदूत बडा बदहवास-सा वहाँ आया। उसका मौलिक कुरूप चेहरा परिश्रमपरेशानी और भय के कारण और भी विकृत हो गया था। उसे देखते ही चित्रगुप्त चिल्ला उठे, “अरे तू कहाँ रहा इतने दिनभोलाराम का जीव कहाँ है?”

          यमदूत हाथ जोडक़र बोला, “दयानिधानमैं कैसे बतलाऊँ कि क्या हो गया। आज तक मैंने धोखा नहीं खाया थापर इस बार भोलाराम का जीव मुझे चकमा दे गया। पाँच दिन पहले जब जीव ने भोलाराम की देह को त्यागीतब मैंने उसे पकडा और इस लोक की यात्रा आरम्भ की। नगर के बाहर ज्यों ही मैं उसे लेकर एक तीव्र वायु-तरंग पर सवार हुआ, त्यों ही वह मेरे चंगुल से छूटकर न जाने कहाँ गायब हो गया। इन पाँच दिनों में मैने सारा ब्रह्यांड छान डालापर उसका कहीं पता नहीं चला।

          धर्मराज क्रोध से बोले, “मूर्खजीवों को लाते-लाते बूढ़ा हो गयाफिर एक मामूली आदमी ने चकमा दे दिया।” दूत ने सिर झुकाकर कहा, “महाराजमेरी सावधानी में बिलकुल कसर नहीं थी। मेरे इन अभ्यस्त हाथों से अच्छे-अच्छे वकील भी नहीं छूट सकेपर इस बार तो कोई इन्द्रजाल ही हो गया।

          चित्रगुप्त ने कहा, “महाराजआजकल पृथ्वी पर इसका व्यापार बहुत चला है। लोग दोस्तों को फल भेजते हैऔर वे रास्ते में ही रेलवेवाले उड़ा लेते हैं। हौज़री के पार्सलों के मोज़े रेलवे आफिसर पहनते हैं। मालगाड़ी के डब्बे-के-डब्बे रास्ते में कट जाते हैं। एक बात और हो रही है। राजनैतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उड़ा कर कहीं बन्द कर देते हैं। कहीं भोलाराम के जीव को भी किसी विरोधी नेमरने के बाद भी खराबी करने के लिए नहीं उड़ा दिया?

         धर्मराज ने व्यंग्य से चित्रगुप्त की ओर देखते हुए कहा, “तुम्हारी भी रिटायर होने की उम्र आ गई। भलाभोलाराम जैसे दीन आदमी को किसी से क्या लेना-देना?”

         इसी समय कहीं से घूमते-फिमते नारद मुनि वहाँ आ गए। धर्मराज को गुमसुम बैठे देख बोले, “क्यों धर्मराजकैसे चिंतित बेठे हैंक्या नरक में निवास-स्थान की समस्या अभी हल नहीं हुई?”

          धर्मराज ने कहा, “वहाँ समस्या तो कभी की हल हो गई, मुनिवर। नर्क में पिछले सालों से बड़े गुणी कारीगर आ गए हैं। कई इमारतों के ठेकेदार हैंजिन्होंने पूरे पैसे लेकर रद्दी इमारतें बनाईं। बड़े-बड़े इंजीनियर भी आ गए हैं जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर भारत की पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया। ओवरसीयर हैंजिन्होंने उन मज़दूरों की हाज़री भरकर पैसा हडपाजो कभी काम पर गए ही नहीं। इन्होंने बहुत जल्दी नरक में कई इमारतें तान दी हैं। वह समस्या तो हल हो गईपर एक विकट उलझन आ गई है। भोलाराम के नाम के आदमी की पाँच दिन पहले मृत्यु हुई। उसके जीव को यमदूत यहाँ ला रहा थाकि जीव इसे रास्ते में चकमा देकर भाग गया। इसने सारा ब्रह्यांड छान डालापर वह कहीं नहीं मिला। अगर ऐसा होने लगातो पाप-पुण्य का भेद ही मिट जाएगा।

          नारद ने पूछा, “उस पर इनकम-टैक्स तो बकाया नहीं थाहो सकता हैउन लोगों ने उसे रोक लिया हो।

         चित्रगुप्त ने कहा, “इनकम होती तो टैक्स होता। भुखमरा था।

         नारद बोले, “मामला बड़ा दिलचस्प है। अच्छामुझे उसका नामपता बतलाओ। मैं पृथ्वी पर जाता हूँ।

         चित्रगुप्त ने रजिस्टर देखकर बतलाया – ”भोलाराम नाम था उसका। जबलपुर शहर के घमापुर मुहल्ले में नाले के किनारे एक डेढ क़मरे के टूटे-फूटे मकान पर वह परिवार समेत रहता था। उसकी एक स्त्री थीदो लडक़े और एक लड़की। उम्र लगभग 60 वर्ष। सरकारी नौकर था। पाँच साल पहले रिटायर हो गया थामकान का उसने एक साल से किराया नहीं दिया था इसलिए मकान-मालिक उसे निकालना चाहता था। इतने मे भोलाराम ने संसार ही छोड़ दिया। आज पाँचवाँ दिन है। बहुत संभव है किअगर मकान-मालिक वास्तविक मकान-मालिक हैतो उसने भोलाराम के मरते हीउसके परिवार को निकाल दिया होगा। इसलिए आपको परिवार की तलाश में घूमना होगा।

          माँ बेटी के सम्मिलित क्रंदन से ही नारद भोलाराम का मकान पहचान गए।

हरिशंकर परसाई (22-08-1922 से 10-08-1995)

         द्वार पर जाकर उन्होंने आवाज़ लगाई, “नारायण नारायण !” लड़की ने देखकर कहा, “आगे जाओ महाराज।

        नारद ने कहा, “मुझे भिक्षा नहीं चाहिएमुझे भोलाराम के बारे में कुछ पूछताछ करनी है। अपनी माँ को ज़रा बाहर भेजो बेटी।

         भोलाराम की पत्नी बाहर आई। नारद ने कहा, “माताभोलाराम को क्या बीमारी थी?”

         क्या बताऊँगरीबी की बीमारी थी। पाँच साल हो गए पैन्शन पर बैठे थेपर पेंशन अभी तक नहीं मिली। हर 10-15 दिन में दरख्वास्त देते थेपर वहाँ से जवाब नहीं आता था और आता तो यही कि तुम्हारी पेंशन के मामले पर विचार हो रहा है। इन पाँच सालों में सब गहने बेचकर हम लोग खा गए। फिर बर्तन बिके। अब कुछ नहीं बचा। फाके होने लगे थे। चिन्ता मे घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड दिया।

          नारद ने कहा, “क्या करोगी माँउनकी इतनी ही उम्र थी।

          ऐसा मत कहोमहाराज। उम्र तो बहुत थी। 50-60 रूपया महीना पेंशन मिलती तो कुछ और काम कहीं करके गुज़ारा हो जाता। पर क्या करेंपाँच साल नौकरी से बैठे हो गए और अभी तक एक कौड़ी नहीं मिली।

          दुख की कथा सुनने की फुरसत नारद को थी नहीं। वे अपने मुद्दे पर आए, “माँयह बताओ कि यहाँ किसी से उनका विशेष प्रेम थाजिसमें उनका जी लगा हो?”

          पत्नी बोली, “लगाव तो महाराजबाल-बच्चों से होता है।

          नहींपरिवार के बाहर भी हो सकता है। मेरा मतलब हैकोई स्त्री….?”

          स्त्री ने गुर्राकर नारद की ओर देखा। बोली, “बको मत महाराज ! साधु होकोई लुच्चे-लफंगे नहीं हो। जिन्दगी भर उन्होंने किसी दूसरी स्त्री को आँख उठाकर नहीं देखा।

          नारद हँस कर बोले, “हाँतुम्हारा सोचना भी ठीक है। यही भ्रम अच्छी गृहस्थी का आधार है। अच्छा मातामैं चला।” 

          स्त्री ने कहा, “महाराजआप तो साधु हैंसिध्द पुरूष हैं। कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि उनकी रुकी पेंशन मिल जाय। इन बच्चों का पेट कुछ दिन भर जाए?”

          नारद को दया आ गई। वे कहने लगे, “साधुओं की बात कौन मानता हैमेरा यहाँ कोई मठ तो है नहींफिर भी सरकारी दफ्तर में जाकर कोशिश करूँगा।

वहाँ से चलकर नारद सरकारी दफ्तर में पहुँचे। वहाँ पहले कमरे में बैठे बाबू से भोलाराम के केस के बारे में बातें की। उस बाबू ने उन्हें ध्यानपूर्वक देखा और बोला, “भोलाराम ने दरखास्तें तो भेजी थींपर उनपर वज़न नहीं रखा थाइसलिए कहीं उड ग़ई होंगी।

नारद ने कहा, “भईये पेपरवेट तो रखे हैंइन्हें क्यों नहीं रख दिया?”

बाबू हँसा, “आप साधु हैंआपको दुनियादारी समझ में नहीं आती। दरखास्तें पेपरवेट से नहीं दबती। खैरआप उस कमरे में बैठे बाबू से मिलिए।

नारद उस बाबू के पास गये। उसने तीसरे के पास भेजाचौथे ने पाँचवें के पास। जब नारद 25-30 बाबुओं और अफसरों के पास घूम आए तब एक चपरासी ने कहा, “ महाराजआप क्यों इस झंझट में पड ग़ए। आप यहाँ साल-भर भी चक्कर लगाते रहेंतो भी काम नहीं होगा। आप तो सीधा बड़े साहब से मिलिए। उन्हें खुश कर लियातो अभी काम हो जाएगा।

नारद बड़े साहब के कमरे में पहुँचे। बाहर चपरासी ऊंघ रहे थेइसलिए उन्हें किसी ने छेडा नहीं। उन्हें एकदम विजिटिंग कार्ड के बिना आया देख साहब बड़े नाराज़ हुए।बोलेइसे कोई मन्दिर-वन्दिर समझ लिया है क्याधड़धड़ाते चले आए ! चिट क्यों नहीं भेजी?”

नारद ने कहा, “कैसे भेजताचपरासी सो रहा है।

क्या काम है?” साहब ने रौब से पूछा।

नारद ने भोलाराम का पेंशन-केस बतलाया।

साहब बोले, “आप हैं बैरागी। दफ्तरों के रीत-रिवाज नहीं जानते। असल मे भोलाराम ने गलती की। भईयह भी मन्दिर है। यहाँ भी दान-पुण्य करना पडता हैभेंट चढानी पडती है। आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते हैं। भोलाराम की दरख्वास्तें उड़ रही हैंउन पर वज़न रखिए।

नारद ने सोचा कि फिर यहाँ वज़न की समस्या खड़ी हो गई। साहब बोले, “भईसरकारी पैसे का मामला है। पेंशन का केस बीसों दफ्तरों में जाता है। देर लग जाती है। हज़ारों बार एक ही बात को हज़ारों बार लिखना पडता हैतब पक्की होती है। हाँजल्दी भी हो सकती हैमगर साहब रूके।

नारद ने कहा, “मगर क्या?”

साहब ने कुटिल मुस्कान के साथ कहा, “मगर वज़न चाहिए। आप समझे नहीं। जैसे आप की यह सुन्दर वीणा हैइसका भी वज़न भोलाराम की दरख्वास्त पर रखा जा सकता है। मेरी लड़की गाना सीखती है। यह मैं उसे दे दूंगा। साधुओं की वीणा के अच्छे स्वर निकलते हैं। लड़की जल्दी संगीत सीख गई तो शादी हो जाएगी।

नारद अपनी वीणा छिनते देख ज़रा घबराए। पर फिर सँभलकर उन्होंने वीणा टेबिल पर रखकर कहा, “यह लीजिए। अब ज़रा जल्दी उसकी पेंशन का आर्डर निकाल दीजिए।

साहब ने प्रसन्नता से उन्हें कुर्सी दीवीणा को एक कोने में रखा और घंटी बजाई। चपरासी हाजिर हुआ।

साहब ने हुक्म दिया, “बड़े बाबू से भोलाराम के केस की फाइल लाओ।

थोड़ी देर बाद चपरासी भोलाराम की फाइल लेकर आया। उसमें पेंशन के कागज़ भी थे। साहब ने फाइल पर नाम देखा और निश्चित करने के लिए पूछा, “क्या नाम बताया साधुजी आपने?”

नारद समझे कि ऊँचा सुनता है। इसलिए ज़ोर से बोले, “भोलाराम।

सहसा फाइल में से आवाज़ आई, “कौन पुकार रहा है मुझेपोस्टमैन है क्यापेंशन का आर्डर आ गया क्या?”

साहब डरकर कुर्सी से लुढक़ गए। नारद भी चौंके। पर दूसरे क्षण समझ गए। बोले, “भोलाराम! तुम क्या भोलाराम के जीव हो?”

हाँ।” आवाज़ आई।

नारद ने कहा, “मैं नारद हूँ। मैं तुम्हें लेने आया हूँ। स्वर्ग में तुम्हारा इन्तजार हो रहा है।

आवाज़ आई, “मुझे नहीं जाना। मैं तो पेंशन की दरखास्तों में अटका हूँ। वहीं मेरा मन लगा है। मैं दरख्वास्तों को छोडक़र नहीं आ सकता।

 हरिशंकर परसाई

 

सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष

(हरिशंकर परसाई का यह व्यंग्य भोलाराम का जीव उत्तर प्रदेश में विभिन्न विश्वविद्यालयों की उच्च शिक्षा के नए एकीकृत पाठ्यक्रम में कक्षा बीए द्वितीय वर्ष (तृतीय सेमेस्टर) के हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए रखा गया है। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए हम पाठ्यक्रम के मूल पाठ को क्रमशः रखने का प्रयास कर रहे हैं। उसी कड़ी में यह व्यंग्य। शीघ्र ही हम इसका पाठ कथावार्ता Kathavarta के यू ट्यूब चैनल पर प्रस्तुत करेंगे।


            कथावार्ता पर हरिशंकर परसाई का व्यंग्य 

                  भोलाराम का जीव (मूल पाठ)


-        पाठ्यक्रम की कहानियाँ यहाँ क्लिक करके पढ़ें-

1.    प्रेमचन्द की कहानी पंच परमेश्वर

2.    जैनेन्द्र कुमार की कहानी पाजेब

3.    अज्ञेय की कहानी गैंग्रीन (रोज़)

4.    यशपाल की कहानी परदा

5.    फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी- तीसरीकसम उर्फ मारे गए गुलफाम

6.    ज्ञानरंजन की कहानी पिता

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बी ए तृतीय सेमेस्टर के पाठ्यक्रम में निर्धारित निबंधों को यहाँ क्लिक करके पढ़ा जा सकता है

1.    भारतेन्दु हरिश्चंद्र का निबंध भारतवर्षोन्नतिकैसे हो सकती है।

2.    रामचन्द्र शुक्ल का निबंध मित्रता

3.    हजारी प्रसाद द्विवेदी का निबंध अशोकके फूल

4.    कुबेरनाथ राय का निबंध उत्तरा फाल्गुनीके आस-पास

5.    विद्यानिवास मिश्र का निबंध तुम चन्दनहम पानी

- सम्पादक)

सद्य: आलोकित!

जातिवादी विमर्श में चमकीला

 एक फिल्म आई है #चमकीला नाम से। उसके गीत भी हिट हो गए हैं। फिल्म को जातिवादी कोण से इम्तियाज अली ने बनाया है जो चमकीला नाम के एक पंजाबी गायक...

आपने जब देखा, तब की संख्या.