सोमवार, 29 अगस्त 2022

परदा : यशपाल की कहानी

चौधरी पीरबख़्श के दादा चुंगी के महकमे में दारोग़ा थे। आमदनी अच्छी थी। एक छोटा, पर पक्का मकान भी उन्होंने बनवा लिया। लड़कों को पूरी तालीम दी। दोनों लड़के एंट्रेंस पास कर रेलवे में और डाकख़ाने में बाबू हो गए। चौधरी साहब की ज़िंदगी में लड़कों के ब्याह और बाल-बच्चे भी हुए, लेकिन ओहदे में ख़ास तरक़्क़ी न हुई; वही तीस और चालीस रुपए माहवार का दर्जा।

अपने ज़माने की याद कर चौधरी साहब कहतेवो भी क्या वक़्त थे! लोग मिडिल पास कर डिप्टी कलट्टरी करते थे और आजकल की तालीम है कि एंट्रेंस तक अँग्रेज़ी पढ़कर लड़के तीस-चालीस से आगे नहीं बढ़ पाते। बेटों को ऊँचे ओहदों पर देखने का अरमान लिए ही उन्होंने आँखें मूँद लीं।

इंशाअल्ला, चौधरी साहब के कुनबे में बरकत हुई। चौधरी फ़ज़ल-क़ुरबान रेलवे में काम करते थे। अल्लाह ने उन्हें चार बेटे और तीन बेटियाँ थीं। चौधरी इलाहीबख़्श डाकख़ाने में थे। उन्हें भी अल्लाह ने चार बेटे और दो लड़कियाँ बख़्शीं।

चौधरी-ख़ानदान अपने मकान को हवेली पुकारता था। नाम बड़ा देने पर भी जगह तंग ही रही। दारोग़ा साहब के ज़माने में जनाना भीतर था और बाहर बैठक में वे मोढ़े पर बैठ नैचा गुड़गुड़ाया करते। जगह की तंगी की वजह से उनके बाद बैठक भी ज़नाने में शामिल हो गई और घर की ड्योढ़ी पर पर्दा लटक गया। बैठक न रहने पर भी घर की इज़्ज़त का ख़याल था, इसलिए पर्दा बोरी के टाट का नहीं, बढ़िया क़िस्म का रहता।

ज़ाहिरा दोनों भाइयों के बाल-बच्चे एक ही मकान में रहने पर भी भीतर सब अलग-अलग था। ड्योढ़ी का पर्दा कौन भाई लाए? इस समस्या का हल इस तरह हुआ कि दारोग़ा साहब के ज़माने की पलंग की रंगीन दरियाँ एक के बाद एक ड्योढ़ी में लटकाई जाने लगीं।

तीसरी पीढ़ी के ब्याह-शादी होने लगे। आख़िर चौघरी-ख़ानदान की औलाद को हवेली छोड़ दूसरी जगहें तलाश करनी पड़ी। चौधरी इलाहीबख़्श के बड़े साहबज़ादे एंट्रेंस पास कर डाकख़ाने में बीस रुपए की क्लर्की पा गए। दूसरे साहबज़ादे मिडिल पास कर अस्पताल में कम्पाउंडर बन गए। ज्यों-ज्यों ज़माना गुज़रता जाता, तालीम और नौकरी दोनों मुश्किल होती जाती। तीसरे बेटे होनहार थे। उन्होंने वज़ीफ़ा पाया। जैसे-तैसे मिडिल कर स्कूल में मुदर्रिस हो देहात चले गए।

चौथे लड़के पीरबख़्श प्राइमरी से आगे न बढ़ सके। आजकल की तालीम माँ-बाप पर ख़र्च के बोझ के सिवा और है क्या? स्कूल की फ़ीस हर महीने, और किताबों, कापियों और नक़्शों के लिए रुपए-ही-रुपए!

चौधरी पीरबख़्श का भी ब्याह हो गया। मौला के करम से बीबी की गोद भी जल्दी ही भरी। पीरबख़्श ने रोज़गार के तौर पर ख़ानदान की इज़्ज़त के ख़याल से एक तेल की मिल में मुंशीगिरी कर ली। तालीम ज़ियादा नहीं तो क्या, सफ़ेदपोश ख़ानदान की इज़्ज़त का पास तो था। मज़दूरी और दस्तकारी उनके करने की चीज़ें न थीं। चौकी पर बैठते। क़लम-दवात का काम था।

बारह रुपया महीना अधिक नहीं होता। चौधरी पीरबख़्श को मकान सितवा की कच्ची बस्ती में लेना पड़ा। मकान का किराया दो रुपया था। आसपास ग़रीब और कमीने लोगों की बस्ती थी। कच्ची गली के बीचों- बीच, गली के मुहाने पर लगे कमेटी के नल से टपकते पानी की काली धार बहती रहती, जिसके किनारे घास उग आई थी। नाली पर मच्छरों और मक्खियों के बादल उमड़ते रहते। सामने रमज़ानी धोबी की भट्टी थी, जिसमें से घुआँ और सज्जी मिले उबलते कपड़ों की गंध उड़ती रहती। दाईं ओर बीकानेरी मोचियों के घर थे। बाईं ओर वर्कशाप में काम करने वाले कुली रहते!

इस सारी बस्ती में चौधरी पीरबख़्श ही पढ़े-लिखे सफ़ेदपोश थे। सिर्फ़ उनके ही घर की ड्योढ़ी पर पर्दा था। सब लोग उन्हें चौधरीजी, मुंशीजी कहकर सलाम करते। उनके घर की औरतों को कभी किसीने गली में नहीं देखा। लड़कियाँ चार-पाँच बरस तक किसी काम-काज से बाहर निकलती और फिर घर की आबरू के ख़याल से उनका बाहर निकलना मुनासिब न था। पीरबख़्श ख़ुद ही मुस्कुराते हुए सुबह-शाम कमेटी के नल से घड़े भर लाते।

चौधरी की तनख़्वाह पंद्रह बरस में बारह से अठारह हो गर्इ। ख़ुदा की बरकत होती है, तो रुपए-पैसे की शक्ल में नहीं, आल-औलाद की शक्ल में होती है। पद्रह बरस में पाँच बच्चे हुए। पहले तीन लड़कियाँ और बाद में दो लड़के।

दूसरी लड़की होने को थी तो पीरबख़्श की वाल्दा मदद के लिए आईं। वालिद साहब का इंतिक़ाल हो चुका था। दूसरा कोई भाई वाल्दा की फ़िक्र करने आया नहीं; वे छोटे लड़के के यहाँ ही रह्ने लगीं।

जहाँ बाल-बच्चे और घर-बार होता है, सौ क़िस्म की झंझटें होती ही हैं। कभी बच्चे को तकलीफ़ है, तो कभी जच्चा को। ऐसे वक़्त में क़र्ज़ की ज़रूरत कैसे न हो? घर-बार हो, तो क़र्ज़ भी होगा ही।

मिल की नौकरी का क़ायदा पक्का होता है। हर महीने की सात तारीख़ को गिनकर तनख़्वाह मिल जाती है। पेशगी से मालिक को चिढ़ है। कभी बहुत ज़रूरत पर ही मेहरबानी करते। ज़रूरत पड़ने पर चौबरी घर की कोई छोटी-मोटी चीज़ गिरवी रखकर उधार ले आते। गिरवी रखने से रुपए के बारह आने ही मिलते। ब्याज़ मिलाकर सोलह आने हो जाते और फिर चीज़ के घर लौट आने की संभावना न रहती।

मुहल्ले में चौधरी पीरबख़्श की इज़्ज़त थी। इज़्ज़त का आधार था, घर के दरवाज़े पर लटका पर्दा। भीतर जो हो, पर्दा सलामत रहता। कभी बच्चों की खींच-खाँच या बेदर्द हवा के झोंकों से उसमें छेद हो जाते, तो पर्दे की आड़ से हाथ सुई-धागा ले उसकी मरम्मत कर देते।

यशपाल

दिनों का खेल! मकान की ड्योढ़ी के किवाड़ गलते-चलते बिलकुल गल गए। कई दफ़े कसे जाने से पेच टूट गए और सुराख ढीले पड़ गए। मकान मालिक सुरजू पाँडे को उसकी फ़िक्र न थी। चौधरी कभी जाकर कहते-सुनते तो उत्तर मिलता—“कौन बड़ी रक़म थमा देते हो? दो रुपल्ली किराया और वह भी छ:-छ: महीने का बक़ाया। जानते हो लकड़ी का क्या भाव है। न हो मकान छोड़ जाओ। आख़िर किवाड़ गिर गए। रात में चौधरी उन्हें जैसे-तैसे चौखट से टिका देते। रात-भर दहशत रहती कि कहीं कोई चोर न आ जाए।

मुहल्ले में सफ़ेदपोशी और इज़्ज़त होने पर भी चोर के लिए घर में कुछ न था। शायद एक भी साबित कपड़ा या बर्तन ले जाने के लिए चोर को न मिलता; पर चोर तो चोर है। छिनने के लिए कुछ न हो, तो भी चोर का डर तो होता ही है। वह चोर जो ठहरा!

चोर से ज़ियादा फ़िक्र थी आबरू की। किवाड़ न रहने पर पर्दा ही आबरू का रखवारा था। वह पर्दा भी तार-तार होते-होते एक रात आँधी में किसी भी हालत में लटकने लायक़ न रह गया। दूसरे दिन घर की एकमात्र पुश्तैनी चीज़ दरी दरवाज़े पर लटक गई। मुहल्लेवालों ने देखा और चौधरी को सलाह दी—“अरे चौधरी, इस ज़माने में दरी यूँ काहे ख़राब करोगे? बाज़ार से ला टाट का टुकड़ा न लटका दो!पीरबख़्श टाट की क़ीमत भी आते-जाते कई दफ़े पूछ चुके थे। दो गज़ टाट आठ आने से कम में न मिल सकता था। हँसकर बोलेहोने दो क्या है? हमारे यहाँ पक्की हवेली में भी ड्योढ़ी पर दरी का ही पर्दा रहता था।

कपड़े की महँगाई के इस ज़माने में घर की पाँचों औरतों के शरीर से कपड़े जीर्ण होकर यूँ गिर रहे थे, जैसे पेड़ अपनी छाल बदलते हैं; पर चौधरी साहब की आमदनी से दिन में एक दफ़े किसी तरह पेट भर सकने के लिए आटा के अलावा कपड़े की गुंजाइश कहाँ? ख़ुद उन्हें नौकरी पर जाना होता। पायजामे में जब पैबंद संभालने की ताब न रही, मारकीन का एक कुर्ता-पायजामा ज़रूरी हो गया, पर लाचार थे।

गिरवी रखने के लिए घर में जब कुछ भी न हो, ग़रीब का एकमात्र सहायक है पंजाबी खान। रहने की जगह भर देखकर वह रुपया उधार दे सकता है। दस महीने पहले गोद के लड़के बर्कत के जन्म के समय पीरबख़्श को रुपए की ज़रूरत आ पड़ी। कहीं और कोई प्रबंध न हो सकने के कारण उन्होंने पंजाबी खान बबर अलीख़ाँ से चार रुपए उधार ले लिये थे।

बबर अलीख़ाँ का रोज़गार सितवा के उस कच्चे मुहल्ले में अच्छा-ख़ासा चलता था। बीकानेरी मोची, वर्कशाप के मज़दूर और कभी-कभी रमज़ानी घोबी सभी बबर मियाँ से क़र्ज़ लेते रहते। कई दफ़े चौधरी पीरबख़्श ने बबर अली को क़र्ज़ और सूद की क़िश्त न मिलने पर अपने हाथ के डंडे से ऋणी का दरवाज़ा पीटते देखा था। उन्हें साहूकार और ऋणी में बीच-बचावल भी करना पड़ा था। ख़ान को वे शैतान समझते थे, लेकिन लाचार हो जाने पर उसी की शरण लेनी पड़ी। चार आना रुपया महीने पर चार रुपया क़र्ज़ लिया। शरीफ़ ख़ानदानी, मुसलमान भाई का ख़याल कर बबर अली ने एक रुपया माहवार की क़िश्त मान ली। आठ महीने में क़र्ज़ अदा होना तय हुआ।

ख़ान की क़िश्त न दे सकने की हालत में अपने घर के दरवाज़े पर फ़जीहत हो जाने की बात का ख़याल कर चौधरी के रोएँ खड़े हो जाते। सात महीने फ़ाक़ा करके भी वे किसी तरह से क़िश्त देते चले गए; लेकिन जब सावन में बरसात पिछड़ गर्इ और बाजरा भी रुपए का तीन सेर मिलने लगा, क़िश्त देना संभव न रहा। ख़ान सात तारीख़ की शाम को ही आया। चौधरी पीरबख़्श ने ख़ान की दाढ़ी छू और अल्ला की क़सम खा एक महीने की भुआफ़ी चाही। अगले महीने एक का सदा देने का वायदा किया! ख़ान टल गया।

भादों में हालत और भी परेशानी की हो गर्इ। बच्चों की माँ की तबीअत रोज़-रोज़ गिरती जा रही थी। खाया-पिया उसके पेट में न ठहरता। पथ्य के लिए उसको गेहूँ की रोटी देना ज़रूरी हो गया। गेहूँ मुश्किल से रुपए का सिर्फ़ ढाई सेर मिलता। बीमार का जी ठहरा, कभी प्याज़ के टुकड़े या धनिये की ख़ुश्बू के लिए ही मचल जाता। कभी पैसे की सौंफ़, अजवायन, काले नमक की ही ज़रूरत हो, तो पैसे की कोई चीज़ मिलती ही नहीं। बाज़ार में ताँब का नाम ही नहीं रह गया! नाहक़ इकन्नी निकल जाती है। चौधरी को दो रुपए महँगाई-भत्ते के मिले; पर पेशगी लेते लेते तनख़्वाह के दिन केवल चार ही रुपए हिसाब में निकले।

बच्चे पिछले हफ़्ते लगभग फ़ाक़े से थे। चौधरी कभी गली से दो पैसे की चौराई ख़रीद लाते, कभी बाज़रा उबाल सब लोग कटोरा-कटोरा-भर पी लेते। बड़ी कठिनता से मिले चार रुपयों में से सवा रुपया ख़ान के हाथ में घर देने की हिम्मत चौधरी को न हुई।

मिल से घर लौटते समय वे मंडी की ओर टहल गए। दो घंटे बाद जब समझा, ख़ान टल गया होगा और अनाज की गठरी ले वे घर पहुँचे। ख़ान के भय से दिल डूब रहा था, लेकिन दूसरी ओर चार भूखे बच्चों, उनकी माँ, दूध न उतर सकने के कारण सूखकर काँटा हो रहे गोद के बच्चे और चलने-फिरने से लाचार अपनी ज़ईफ़ माँ की भूख से बिलबिलाती सूरतें आँखों के सामने नाच जाती। धड़कते हुए हृदय से वे कहते जातेमौला सब देखता है, ख़ैर करेगा।

सात तारीख़ की शाम को असफल हो ख़ान आठ की सुबह ख़ूब तड़के चौधरी के मिल चले जाने से पहले ही अपना हंडा हाथ में लिए दरवाज़े पर मौजूद हुआ।

रात-भर सोच-सोचकर चौधरी ने ख़ान के लिए बयान तैयार किया। मिल के मालिक लालाजी चार रोज़ के लिए बाहर गए हैं। उनके दस्तख़त के बिना किसी को भी तनख़्वाह नहीं मिल सकी। तनख़्वाह मिलते ही वह सवा रुपया हाज़िर करेगा। माक़ूल वजह बताने पर भी ख़ान बहुत देर तक ग़ुर्राता रहा—“अम वतन चोड़के परदेस में पड़ा है, ऐसे रुपिया चोड़ देने के वास्ते अम यहाँ नहीं आया है, अमारा भी बाल-बच्चा है। चार रोज़ में रुपिया नई देगा, तो अम तुमारा...कर देगा।

पाँचवें दिन रुपया कहाँ से आ जाता! तनख़्वाह मिले अभी हफ़्त भा नहीं हुआ। मालिक ने पेशगी देने से साफ़ इनकार कर दिया। छठे दिन क़िस्मत से इतवार था। मिल में छुट्टी रहने पर भी चौधरी ख़ान के डर से सुबह ही बाहर निकल गए। जान-पहचान के कई आदमियों के यहाँ गए। इधर-उधर की बातचीत कर वे कहतेअरे भाई, हो तो बीस आने पैसे तो दो-एक रोज़ के लिए देना। ऐसे ही ज़रूरत आ पड़ी है।

उत्तर मिलामियाँ, पैसे कहाँ इस ज़माने में! पैसे का मोल कौड़ी नहीं रह गया। हाथ में आने से पहले ही उधार में उठ गया तमा!

दोपहर हो गई। ख़ान आया भी होगा, तो इस वक़्त तक बैठा नहीं रहेगाचौधरी ने सोचा, और घर की तरफ़ चल दिए। घर पहुँचने पर सुना ख़ान आया था और घंटे-भर तक ड्योढ़ी पर लटके दरी के पर्दे को डंडे से ठेल-ठेलकर गाली देता रहा है! पर्दे की आड़ से बड़ी बीबी के बार-बार ख़ुदा की क़सम खा यक़ीन दिलाने पर कि चौधरी बाहर गए हैं, रुपया लेने गए हैं, ख़ान गाली देकर कहतानई, बदज़ात चोर बीतर में चिपा है! अम चार घंटे में पिर आता है। रुपिया लेकर जाएगा। रुपिया नई देगा, तो उसका खाल उतारकर बाज़ार में बेच देगा।हमारा रुपिया क्या अराम का है?

चार घंटे से पहले ही ख़ान की पुकार सुनाई दीचौदरी! पीरबख़्श के शरीर में बिजली-सी दौड़ गई और ये बिलकुल निस्सत्त्व हो गए, हाथ-पैर सुन और गला ख़ुश्क। गाली दे पर्दे को ठेलकर ख़ान के दुबारा पुकारने पर चौधरी का शरीर निर्जीवप्राय होने पर भी निश्चेष्ट न रह सका। वे उठकर बाहर आ गए। ख़ान आग-बबूला हो रहा थापैसा नहीं देने का वास्ते चिपता है!...

एक-से-एक बढ़ती हुई तीन गालियाँ एक-साथ ख़ान के मुँह से पीरबख़्श के पुरखों-पीरों के नाम निकल गईं। इस भयंकर आघात से पीरबख़्श का ख़ानदानी रक्त भड़क उठने के बजाय और भी निर्जीव हो गया। ख़ान के घुटने छू, अपनी मुसीबत बता वे मुआफ़ी के लिए ख़ुशामद करने लगे।

ख़ान की तेज़ी बढ़ गई। उसके ऊँचे स्वर से पड़ोस के मोची और मज़दूर चौधरी के दरवाज़े के सामने इकट्ठे हो गए। ख़ान क्रोध में डंडा फटकार कर कह रहा थापैसा नहीं देना था, लिया क्यों? तनख़्वाह किदर में जाता? अरामी अमारा पैसा मारेगा। अम तुमारा खाल खींच लेगा। पैसा नई है, तो घर पर पर्दा लटका के शरीफ़ज़ादा कैसे बनता?...तुम अनको बीबी का गैना दो, बर्तन दो, कुछ तो भी दो, अम ऐसे नई जाएगा।

बिलकुल बेबस और लाचारी में दोनों हाथ उठा ख़ुदा से खान के लिए दुआ माँग पीरबख़्श ने क़सम खाई, एक पैसा भी घर में नहीं, बर्तन भी नहीं, कपड़ा भी नहीं; ख़ान चाहे तो बेशक उसकी खाल उतारकर बेच ले।

ख़ान और आग हो गयाअम तुमारा दुआ क्या करेगा? तुमारा खाल क्या करेगा? उसका तो जूता भी नई बनेगा। तुमारा खाल से तो यह टाट अच्चा। खान ने ड्योढ़ी पर लटका दरी का पर्दा झटक लिया। ड्योढ़ी से पर्दा हटने के साथ ही, जैसे चौधरी के जीवन को डोर टूट गई। वह डगमगाकर ज़मीन पर गिर पड़े।

इस दृश्य को देख सकने की ताब चौधरी में न थी, परंतु द्वार पर खड़ी भीड़ ने देखाघर की लड़कियाँ और औरते पर्दे के दूसरी ओर घटती घटना के आतंक से आँगन के बीचों-बीच इकट्ठी हो खड़ी काँप रही थीं। सहसा पर्दा हट जाने से औरतें ऐसे सिकुड़ गई, जैसे उनके शरीर का वस्त्र खींच लिया गया हो। वह पर्दा ही तो घर-भर की औरतों के शरीर का वस्त्र था। उनके शरीर पर बचे चीथड़े उनके एक-तिहाई अंग ढंकने में भी असमर्थ थे!

जाहिल भीड़ ने घृणा और शरम से आँखें फेर ली। उस नग्नता की झलक से ख़ान की कठोरता भी पिघल गई। गलानि से थूक, पर्दे को आँगन में वापिस फेंक, क्रुद्ध निराशा में उसने लाहौल बिला...! कहा और असफल लौट गया।

भय से चीख़कर ओट में हो जाने के लिए भागती हुई औरतों पर दया कर भीड़ छँट गई। चौधरी बेसुध पड़े थे। जब उन्हें होश आया, ड्योढ़ी पर का पर्दा आँगन में सामने पड़ा था; परंतु उसे उठाकर फिर से लटका देने का सामर्थ्य उनमें शेष न था। शायद अब इसकी आवश्यकता भी न रही थी। पर्दा जिस भावना का अवलम्ब था, वह मर चुकी थी।

 

सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष

-         यशपाल

(यशपाल की यह कहानी परदा उत्तर प्रदेश में विभिन्न विश्वविद्यालयों की उच्च शिक्षा के नए एकीकृत पाठ्यक्रम में कक्षा बी ए द्वितीय वर्ष (तृतीय सेमेस्टर) के हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए रखी गयी है। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए हम पाठ्यक्रम के मूल पाठ को क्रमशः रखने का प्रयास कर रहे हैं। उसी कड़ी में यह कहानी। शीघ्र ही हम इसका पाठ कथावार्ता Kathavarta के यू ट्यूब चैनल पर प्रस्तुत करेंगे।

-        पाठ्यक्रम की दूसरी कहानियाँ यहाँ क्लिक करके पढ़ें-

1.    प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर

2. जैनेन्द्र कुमार की कहानी पाजेब

3. अज्ञेय की कहानी गैंग्रीन (रोज़)

    4.  फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी- तीसरी कसम उर्फ मारेगए गुलफाम

    5.  ज्ञानरंजन की कहानी पिता

बी ए तृतीय सेमेस्टर के पाठ्यक्रम में निर्धारित निबंधों को यहाँ क्लिक करके पढ़ा जा सकता है  - सम्पादक)


पाजेब : जैनेन्द्र कुमार की कहानी

          बाज़ार में एक नई तरह की पाजेब चली है। पैरों में पड़कर वे बड़ी अच्छी मालूम होती हैं। उनकी कड़ियां आपस में लचक के साथ जुड़ी रहती हैं कि पाजेब का मानो निज का आकार कुछ नहीं है, जिस पांव में पड़े उसी के अनुकूल ही रहती हैं। पास-पड़ोस में तो सब नन्हीं-बड़ी के पैरों में आप वही पाजेब देख लीजिए। एक ने पहनी कि फिर दूसरी ने भी पहनी। देखा-देखी में इस तरह उनका न पहनना मुश्किल हो गया है। हमारी मुन्नी ने भी कहा कि बाबूजी, हम पाजेब पहनेंगे। बोलिए भला कठिनाई से चार बरस की उम्र और पाजेब पहनेगी। मैंने कहा, कैसी पाजेब? बोली, वही जैसी रुकमन पहनती है, जैसी शीला पहनती है। मैंने कहा, अच्छा-अच्छा। बोली, मैं तो आज ही मंगा लूंगी। मैंने कहा, अच्छा भाई आज सही। उस वक्त तो ख़ैर मुन्नी किसी काम में बहल गई। लेकिन जब दोपहर आई मुन्नी की बुआ, तब वह मुन्नी सहज मानने वाली न थी। बुआ ने मुन्नी को मिठाई खिलाई और गोद में लिया और कहा कि अच्छा, तो तेरी पाजेब अबके इतवार को ज़रूर लेती आऊंगी।

          इतवार को बुआ आई और पाजेब ले आई। मुन्नी पहनकर खुशी के मारे यहां-से-वहां ठुमकती फिरी। रुकमन के पास गई और कहा-देख रुकमन, मेरी पाजेब। शीला को भी अपनी पाजेब दिखाई। सबने पाजेब पहनी देखकर उसे प्यार किया और तारीफ़ की। सचमुच वह चांदी कि सफेद दो-तीन लड़ियां-सी टखनों के चारों ओर लिपटकर, चुपचाप बिछी हुई, बहुत ही सुघड़ लगती थी, और बच्ची की खुशी का ठिकाना न था।

          और हमारे महाशय आशुतोष, जो मुन्नी के बड़े भाई थे, पहले तो मुन्नी को सजी-बजी देखकर बड़े ख़ुशी हुए। वह हाथ पकड़कर अपनी बढ़िया मुन्नी को पाजेब-सहित दिखाने के लिए आस-पास ले गए। मुन्नी की पाजेब का गौरव उन्हें अपना भी मालूम होता था। वह ख़ूब हंसे और ताली पीटी, लेकिन थोड़ी देर बाद वह ठुमकने लगे कि मुन्नी को पाजेब दी, सो हम भी बाईसिकिल लेंगे। बुआ ने कहा कि अच्छा बेटा अबके जन्म-दिन को तुझे बाईसिकिल दिलवाएंगे।  आशुतोष बाबू ने कहा कि हम तो अभी लेंगे। बुआ ने कहा, ‘छी-छी, तू कोई लड़की है? जिद तो लड़कियां किया करती हैं। और लड़कियां रोती हैं। कहीं बाबू साहब लोग रोते हैं?” आशुतोष बाबू ने कहा कि तो हम बाईसिकिल ज़रूर लेंगे जन्म-दिन वाले रोज। बुआ ने कहा कि हां, यह बात पक्की रही, जन्म-दिन पर तुमको बाईसिकिल मिलेगी।

          इस तरह वह इतवार का दिन हंसी-खुशी पूरा हुआ। शाम होने पर बच्चों की बुआ चली गई। पाजेब का शौक घड़ीभर का था। वह फिर उतारकर रख-रखा दी गई; जिससे कहीं खो न जाए। पाजेब वह बारीक और सुबुक काम की थी और खासे दाम लग गए थे।

श्रीमतीजी ने हमसे कहा, क्यों जी, लगती तो अच्छी है, मैं भी अपने लिए बनवा लूं? मैंने कहा कि क्यों न बनवाओ! तुम कौन चार बरस की नहीं हो? ख़ैर, यह हुआ। पर मैं रात को अपनी मेज पर था कि श्रीमती ने आकर कहा कि तुमने पाजेब तो नहीं देखी? मैंने आश्चर्य से कहा कि क्या मतलब? बोली कि देखो, यहां मेज-वेज पर तो नहीं है? एक तो है पर दूसरे पैर की मिलती नहीं है। जाने कहां गई? मैंने कहा कि जाएगी कहां? यहीं-कहीं देख लो। मिल जाएगी।

          उन्होंने मेरे मेज के कागज उठाने-धरने शुरू किए और आलमारी की किताबें टटोल डालने का भी मनसूबा दिखाया। मैंने कहा कि यह क्या कर रही हो? यहां वह कहां से आएगी? जवाब में वह मुझी से पूछने लगी कि फिर कहां है? मैंने कहा तुम्हीं ने तो रखी थी। कहां रखी थी? बतलाने लगी कि दोपहर के बाद कोई दो बजे उतारकर दोनों को अच्छी तरह संभालकर उस नीचे वाले बाक्स में रख दी थीं। अब देखा तो एक है, दूसरी गायब है। मैंने कहा कि तो चलकर वह इस कमरे में कैसे आ जाएगी? भूल हो गई होगी। एक रखी होगी, एक वहीं-कहीं फर्श पर छूट गई होगी। देखो, मिल जाएगी। कहीं जा नहीं सकती।

          इस पर श्रीमती कहा-सुनी करने लगीं कि तुम तो ऐसे ही हो। ख़ुद लापरवाह हो, दोष उल्टे मुझे देते हो। कह तो रही हूं कि मैंने दोनों संभालकर रखी थीं। मैंने कहा कि संभालकर रखी थीं, तो फिर यहां-वहां क्यों देख रही थी? जहां रखी थीं वहीं से ले लो न। वहां नहीं है तो फिर किसी ने निकाली ही होगी। श्रीमती बोलीं कि मेरा भी यही ख्याल हो रहा है। हो न हो, बंसी नौकर ने निकाली हो। मैंने रखी, तब वह वहां मौजूद था। मैंने कहा, तो उससे पूछा? बोलीं, वह तो साफ इंकार कर रहा है। मैंने कहा, तो फिर?

          श्रीमती जोर से बोली, तो फिर मैं क्या बताऊं? तुम्हें तो किसी बात की फिकर है नहीं। डांटकर कहते क्यों नहीं हो, उस बंसी को बुलाकर? ज़रूर पाजेब उसी ने ली है। मैंने कहा कि अच्छा, तो उसे क्या कहना होगा? यह कहूं कि ला भाई पाजेब दे दे!

          श्रीमती झल्ला कर बोलीं कि हो चुका सब कुछ तुमसे। तुम्हीं ने तो उस नौकर की जात को शहजोर बना रखा है। डांट न फटकार, नौकर ऐसे सिर न चढ़ेगा तो क्या होगा? बोलीं कि कह तो रही हूं कि किसी ने उसे बक्स से निकाला ही है। और सोलह में पंद्रह आने यह बंसी है। सुनते हो न, वही है। मैंने कहा कि मैंने बंसी से पूछा था। उसने नहीं ली मालूम होती। इस पर श्रीमती ने कहा कि तुम नौकरों को नहीं जानते। वे बड़े छंटे होते हैं। बंसी चोर ज़रूर है। नहीं तो क्या फरिश्ते लेने आते? मैंने कहा कि तुमने आशुतोष से भी पूछा?

          बोलीं, पूछा था। वह तो ख़ुद ट्रंक और बक्स के नीचे घुस-घुसकर खोज लगाने में मेरी मदद करता रहा है। वह नहीं ले सकता। मैंने कहा, उसे पतंग का बड़ा शौक है। बोलीं कि तुम तो उसे बताते-बरजते कुछ हो नहीं। उमर होती जा रही है। वह यों ही रह जाएगा। तुम्हीं हो उसे पतंग की शह देने वाले। मैंने कहा कि जो कहीं पाजेब ही पड़ी मिल गई हो तो? बोलीं, नहीं, नहीं! मिलती तो वह बता न देता? ख़ैर, बातों-बातों में मालूम हुआ कि उस शाम आशुतोष पतंग और डोर का पिन्ना नया लाया है। श्रीमती ने कहा कि यह तुम्हीं हो जिसने पतंग की उसे इजाजत दी। बस सारे दिन पतंग-पतंग। यह नहीं कि कभी उसे बिठाकर सबक की भी कोई बात पूछो। मैं सोचती हूं कि एक दिन तोड़-ताड़ दूं उसकी सब डोर और पतंग। मैंने कहा कि ख़ैर; छोड़ो। कल सवेरे पूछ-ताछ करेंगे।

          सवेरे बुलाकर मैंने गंभीरता से उससे पूछा कि क्यों बेटा, एक पाजेब नहीं मिल रही है, तुमने तो नहीं देखी? वह गुम हो गया। जैसे नाराज हो। उसने सिर हिलाया कि उसने नहीं ली। पर मुंह नहीं खोला। मैंने कहा कि देखो बेटे, ली हो तो कोई बात नहीं, सच बता देना चाहिए। उसका मुंह और भी फूल आया। और वह गुम-सुम बैठा रहा।

जैनेन्द्र कुमार

          मेरे मन में उस समय तरह-तरह के सिद्धांत आए। मैंने स्थिर किया कि अपराध के प्रति करुणा ही होनी चाहिए। रोष का अधिकार नहीं है। प्रेम से ही अपराध-वृति को जीता जा सकता है। आतंक से उसे दबाना ठीक नहीं है। बालक का स्वभाव कोमल होता है और सदा ही उससे स्नेह से व्यवहार करन चाहिए, इत्यादि। मैंने कहा कि बेटा आशुतोष, तुम घबराओ नहीं। सच कहने में घबराना नहीं चाहिए। ली हो तो खुल कर कह दो, बेटा! हम कोई सच कहने की सजा थोड़े ही दे सकते हैं। बल्कि बोलने पर तो इनाम मिला करता है। आशुतोष तब बैठा सुनता रहा। उसका मुंह सूजा था। वह सामने मेरी आंखों में नहीं देख रहा था। रह-रहकर उसके माथे पर बल पड़ते थे। क्यों बेटे, तुमने ली तो नहीं?” उसने सिर हिलाकर क्रोध से अस्थिर और तेज आवाज में कहा कि मैंने नहीं ली, नहीं ली, नहीं ली। यह कहकर वह रोने को हो आया, पर रोया नहीं। आंखों में आंसू रोक लिए। उस वक्त मुझे प्रतीत हुआ, उग्रता दोष का लक्षण है। मैंने कहा, देखो बेटा, डरो नहीं; अच्छा जाओ, ढूंढ़ो; शायद कहीं पड़ी हुई वह पाजेब मिल जाए। मिल जाएगी तो हम तुम्हें इनाम देंगे।

          वह चला गया और दूसरे कमरे में जाकर पहले तो एक कोने में खड़ा हो गया। कुछ देर चुपचाप खड़े रहकर वह फिर यहां-वहां पाजेब की तलाश में लग गया। श्रीमती आकर बोलीं, आशू से तुमने पूछ लिया? क्या ख्याल है? मैंने कहा कि संदेह तो मुझे होता है। नौकर का तो काम यह है नहीं! श्रीमती ने कहा, नहीं जी, आशू भला क्यों लेगा?

          मैं कुछ बोला नहीं। मेरा मन जाने कैसे गंभीर प्रेम के भाव से आशुतोष के प्रति उमड़ रहा था। मुझे ऐसा मालूम होता था कि ठीक इस समय आशुतोष को हमें अपनी सहानुभूति से वंचित नहीं करना चाहिए। बल्कि कुछ अतिरिक्त स्नेह इस समय बालक को मिलना चाहिए। मुझे यह एक भारी दुर्घटना मालूम होती थी। मालूम होता था कि अगर आशुतोष ने चोरी की है तो उसका इतना दोष नहीं है; बल्कि यह हमारे ऊपर बड़ा भारी इल्जाम है। बच्चे में चोरी की आदत भयावह हो सकती है, लेकिन बच्चे के लिए वैसी लाचारी उपस्थित हो आई, यह और भी कहीं भयावह है। यह हमारी आलोचना है। हम उस चोरी से बरी नहीं हो सकते।

          मैंने बुलाकर कहा, “अच्छा सुनो। देखो, मेरी तरफ़ देखो, यह बताओ कि पाजेब तुमने छुन्नू को दी है न?”

          वह कुछ देर कुछ नहीं बोला। उसके चेहरे पर रंग आया और गया। मैं एक-एक छाया ताड़ना चाहता था।

          मैंने आश्वासन देते हुए कहा कि डरने की कोई बात नहीं। हां, हां, बोलो डरो नहीं। ठीक बताओ, बेटे! कैसा हमारा सच्चा बेटा है! मानो बड़ी कठिनाई के बाद उसने अपना सिर हिलाया। मैंने बहुत ख़ुशी होकर कहा कि दी है न छुन्नू को? उसने सिर हिला दिया। अत्यंत सांत्वना के स्वर में स्नेहपूर्वक मैंने कहा कि मुंह से बोलो। छुन्नू को दी है? उसने कहा, “हां-आं।

          मैंने अत्यंत हर्ष के साथ दोनों बांहों में लेकर उसे उठा लिया। कहा कि ऐसे ही बोल दिया करते हैं अच्छे लड़के। आशू हमारा राजा बेटा है। गर्व के भाव से उसे गोद में लिए-लिए मैं उसकी मां की तरफ़ गया। उल्लासपूर्वक बोला कि देखो हमारे बेटे ने सच कबूल किया है। पाजेब उसने छुन्नू को दी है। सुनकर मां उसकी बहुत ख़ुश हो आईं। उन्होंने उसे चूमा। बहुत शाबाशी दी ओर उसकी बलैयां लेने लगी! आशुतोष भी मुस्करा आया, अगरचे एक उदासी भी उसके चेहरे से दूर नहीं हुई थी। उसके बाद अलग ले जाकर मैंने बड़े प्रेम से पूछा कि पाजेब छुन्नू के पास है न? जाओ, मांग ला सकते हो उससे? आशुतोष मेरी ओर देखता हुआ बैठा रहा। मैंने कहा कि जाओ बेटे! ले आओ। उसने जवाब में मुंह नहीं खोला। मैंने आग्रह किया तो वह बोला कि छुन्नू के पास नहीं हुई तो वह कहां से देगा? मैंने कहा कि तो जिसको उसने दी होगी उसका नाम बता देगा। सुनकर वह चुप हो गया। मेरे बार-बार कहने पर वह यही कहता रहा कि पाजेब छुन्नू के पास न हुई तो वह देगा कहां से? अंत में हारकर मैंने कहा कि वह कहीं तो होगी। अच्छा, तुमने कहां से उठाई थी?

          “पड़ी मिली थी।

          “और फिर नीचे जाकर वह तुमने छुन्नू को दिखाई?”

          “हां!

          “फिर उसी ने कहा कि इसे बेचेंगे!

          “हां!

          “कहां बेचने को कहा?”

          “कहा, मिठाई लाएंगे?”

          “नहीं।”

          “पतंग लाएंगे?”

          “हां!

          “सो पाजेब छुन्नू के पास रह गई?”

          “हां!

          “तो उसी के पास होनी चाहिए न! या पतंग वाले के पास होगी! जाओ, बेटा, उससे ले आओ। कहना, हमारे बाबूजी तुम्हें इनाम देंगे। वह जाना नहीं चाहता था। उसने फिर कहा कि छुन्नू के पास नहीं हुई तो कहां से देगा! मुझे उसकी ज़िद बुरी मालूम हुई। मैंने कहा कि तो कहीं तुमने उसे गाड़ दिया है? क्या किया है? बोलते क्यों नहीं? वह मेरी ओर देखता रहा, और कुछ नहीं बोला।

          मैंने कहा, कुछ कहते क्यों नहीं? वह गुम-सुम रह गया। और नहीं बोला। मैंने डपटकर कहा कि जाओ, जहां हो वही से पाजेब लेकर आओ। जब वह अपनी जगह से नहीं उठा और नहीं गया तो मैंने उसे कान पकड़कर उठाया। कहा कि सुनते हो? जाओ, पाजेब लेकर आओ। नहीं तो घर में तुम्हारा काम नहीं है। उस तरह उठाया जाकर वह उठ गया और कमरे से बाहर निकल गया। निकलकर बरामदे के एक कोने में रूठा मुंह बनाकर खड़ा रह गया। मुझे बड़ा क्षोभ हो रहा था। यह लड़का सच बोलकर अब किस बात से घबरा रहा है, यह मैं कुछ समझ न सका। मैंने बाहर आकर धीरे से कहा कि जाओ भाई, जाकर छुन्नू से कहते क्यों नहीं हो?

          पहले तो उसने कोई जवाब नहीं दिया और जवाब दिया तो बार-बार कहने लगा कि छुन्नू के पास नहीं हुई तो वह कहां से देगा? मैंने कहा कि जितने में उसने बेची होगी वह दाम दे देंगे। समझे न! जाओ, तुम कहो तो।

          छुन्नू की मां तो कह रही है कि उसका लड़का ऐसा काम नहीं कर सकता। उसने पाजेब नहीं देखी। जिस पर आशुतोष की मां ने कहा कि नहीं तुम्हारा छुन्नू झूठ बोलता है। क्यों रे आशुतोष, तैने दी थी न? आशुतोष ने धीरे से कहा, हां, दी थी। दूसरे ओर से छुन्नू बढ़कर आया और हाथ फटकारकर बोला कि मुझे नहीं दी। क्यों रे, मुझे कब दी थी? आशुतोष ने जिद बांधकर कहा कि दी तो थी। कह दो, नहीं दी थी?

          नतीजा यह हुआ कि छुन्नू की मां ने छुन्नू को ख़ूब पीटा और ख़ुद भी रोने लगी। कहती जाती कि हाय रे, अब हम चोर हो गए। कुलच्छनी औलाद जाने कब मिटेगी?

          बात दूर तक फैल चली। पड़ोस की स्त्रियों में पवन पड़ने लगी। और श्रीमती ने घर लौटकर कहा कि छुन्नू और उसकी मां दोनों एक-से हैं। मैंने कहा कि तुमने तेजा-तेजी क्यों कर डाली? ऐसी कोई बात भला सुलझती है! बोली कि हां, मैं तेज बोलती हूं। अब जाओ ना, तुम्हीं उनके पास से पाजेब निकालकर लाते क्यों नहीं? तब जानूं, जब पाजेब निकलवा दो। मैंने कहा कि पाजेब से बढ़कर शांति है। और अशांति से तो पाजेब मिल नहीं जाएगी। श्रीमती बुदबुदाती हुई नाराज़ होकर मेरे सामने से चली गईं।

          थोड़ी देर बाद छुन्नू की मां हमारे घर आई। श्रीमती उन्हें लाई थी। अब उनके बीच गर्मी नहीं थी, उन्होंने मेरे सामने आकर कहा कि छुन्नू तो पाजेब के लिए इनकार करता है। वह पाजेब कितने की थी, मैं उसके दाम भर सकती हूं। मैंने कहा,“यह आप क्या कहती है! बच्चे बच्चे हैं। आपने छुन्नू से सहूलियत से पूछा भी! उन्होंने उसी समय छुन्नू को बुलाकर मेरे सामने कर दिया। कहा कि क्यों रे, बता क्यों नहीं देता जो तैने पाजेब देखी हो?

          छुन्नू ने जोर से सिर हिलाकर इनकार किया। और बताया कि पाजेब आशुतोष के हाथ में मैंने देखी थी और वह पतंग वालों को दे आया है। मैंने ख़ूब देखी थी, वह चांदी की थी।

          “तुम्हें ठीक मालूम है?”

          “हां, वह मुझसे कह रहा था कि तू भी चल। पतंग लाएंगे।

          “पाजेब कितनी बड़ी थी? बताओ तो। छुन्नू ने उसका आकार बताया, जो ठीक ही था।

मैंने उसकी मां की तरफ़ देखकर कहा देखिए न पहले यही कहता था कि मैंने पाजेब देखी तक नहीं। अब कहता है कि देखी है।

          मां ने मेरे सामने छुन्नू को खींचकर तभी धम्म-धम्म पीटना शुरू कर दिया। कहा कि क्यों रे, झूठ बोलता है? तेरी चमड़ी न उधेड़ी तो मैं नहीं। मैंने बीच-बचाव करके छुन्नू को बचाया। वह शहीद की भांति पिटता रहा था। रोया बिल्कुल नहीं और एक कोने में खड़े आशुतोष को जाने किस भाव से देख रहा था। ख़ैर, मैंने सबको छुट्टी दी। कहा, जाओ बेटा छुन्नू खेलो। उसकी मां को कहा, आप उसे मारिएगा नहीं। और पाजेब कोई ऐसी बड़ी चीज़ नहीं है। छन्नू चला गया। तब, उसकी मां ने पूछा कि आप उसे कसूरवार समझते हैं? मैंने कहा कि मालूम तो होता है कि उसे कुछ पता है। और वह मामले में शामिल है।

          इस पर छुन्नू की मां ने पास बैठी हुई मेरी पत्नी से कहा,“चलो बहनजी, मैं तुम्हें अपना सारा घर दिखाए देती हूं। एक-एक चीज़ देख लो। होगी पाजेब तो जाएगी कहां?” मैंने कहा,“छोड़िए भी। बेबात को बात बढ़ाने से क्या फायदा।सो ज्यों-त्यों मैंने उन्हें दिलासा दिया। नहीं तो वह छुन्नू को पीट-पाट हाल-बेहाल कर डालने का प्रण ही उठाए ले रही थी। कुलच्छनी, आज उसी धरती में नहीं गाड़ दिया तो, मेरा नाम नहीं।

          ख़ैर, जिस-तिस भांति बखेड़ा टाला। मैं इस झंझट में दफ्तर भी समय पर नहीं जा सका। जाते वक्त श्रीमती को कह गया कि देखो, आशुतोष को धमकाना मत। प्यार से सारी बातें पूछना। धमकाने से बच्चे बिगड़ जाते हैं, और हाथ कुछ नहीं आता। समझी न?

          शाम को दफ्तर से लौटा तो श्रीमती ने सूचना दी कि आशुतोष ने सब बतला दिया है। ग्यारह आने पैसे में वह पाजेब पतंग वाले को दे दी है। पैसे उसने थोड़े-थोड़े करके देने को कहे हैं। पांच आने जो दिए वह छुन्नू के पास हैं। इस तरह रत्ती-रत्ती बात उसने कह दी है। कहने लगी कि मैंने बड़े प्यार से पूछ-पूछकर यह सब उसके पेट में से निकाला है। दो-तीन घंटे में मगज़ मारती रही। हाय राम, बच्चे का भी क्या जी होता है।

          मैं सुनकर ख़ुशी हुआ। मैंने कहा कि चलो अच्छा है, अब पांच आने भेजकर पाजेब मंगवा लेंगे। लेकिन यह पतंग वाला भी कितना बदमाश है, बच्चों के हाथ से ऐसी चीज़ें लेता है। उसे पुलिस में दे देना चाहिए। उचक्का कहीं का! फिर मैंने पूछा कि आशुतोष कहां है? उन्होंने बताया कि बाहर ही कहीं खेल-खाल रहा होगा। मैंने कहा कि बंसी, जाकर उसे बुला तो लाओ। बंसी गया और उसने आकर कहा कि वे अभी आते हैं।

          “क्या कर रहा है?”

          “छुन्नू के साथ गिल्ली डंडा खेल रहे हैं।

          थोड़ी देर में आशुतोष आया। तब मैंने उसे गोद में लेकर प्यार किया। आते-आते उसका चेहरा उदास हो गया और गोद में लेने पर भी वह कोई विशेष प्रसन्न नहीं मालूम नहीं हुआ। उसकी मां ने ख़ुशी होकर कहा कि आशुतोष ने सब बातें अपने आप पूरी-पूरी बता दी हैं। हमारा आशुतोष बड़ा सच्चा लड़का है। आशुतोष मेरी गोद में टिका रहा। लेकिन अपनी बड़ाई सुनकर भी उसको कुछ हर्ष नहीं हुआ, ऐसा प्रतीत होता था। मैंने कहा कि आओ चलो। अब क्या बात है। क्यों हज़रत, तुमको पांच ही आने तो मिले हैं न? हम से पांच आने मांग लेते तो क्या हम न देते? सुनो, अब से ऐसा मत करना, बेटे!

          कमरे में जाकर मैंने उससे फिर पूछताछ की,“क्यों बेटा, पतंग वाले ने पांच आने तुम्हें दिए न?”

          “हां

          “और वह छुन्नू के पास हैं न!

          “हां!

          “अभी तो उसके पास होंगे न!

          “नहीं

          “ख़र्च कर दिए!

          “नहीं

          “नहीं ख़र्च किए?”

          “हां

          “ख़र्च किए, कि नहीं ख़र्च किए?” उस ओर से प्रश्न करने वह मेरी ओर देखता रहा, उत्तर नहीं दिया।

          “बताओं ख़र्च कर दिए कि अभी हैं?” जवाब में उसने एक बार हांकहा तो दूसरी बात नहींकहा। मैंने कहा, तो यह क्यों नहीं कहते कि तुम्हें नहीं मालूम है?

          “हां।

          “बेटा, मालूम है न?”

          “हां।

          “पतंग वाले से पैसे छुन्नू ने लिए हैं न?

          “हां

          “तुमने क्यों नहीं लिए?” वह चुप।

          “इकन्नियां कितनी थी, बोलो?”

          “दो।

          “बाक़ी पैसे थे?”

          “हां

          “दुअन्नी थी!

          “हां।

          मुझे क्रोध आने लगा। डपटकर कहा कि सच क्यों नहीं बोलते जी? सच बताओ कितनी इकन्नियां थी और कितना क्या था। वह गुम-सुम खड़ा रहा, कुछ नहीं बोला।

          “बोलते क्यों नहीं?” वह नहीं बोला।

          “सुनते हो! बोला-नहीं तो…” आशुतोष डर गया। और कुछ नहीं बोला।

          “सुनते नहीं, मैं क्या कह रहा हूं?” इस बार भी वह नहीं बोला तो मैंने कान पकड़कर उसके कान खींच लिए। वह बिना आंसू लाए गुम-सुम खड़ा रहा।

          “अब भी नहीं बोलोगे?” वह डर के मारे पीला हो आया। लेकिन बोल नहीं सका। मैंने जोर से बुलाया बंसी यहां आओ, इनको ले जाकर कोठरी में बंद कर दो। बंसी नौकर उसे उठाकर ले गया और कोठरी में मूंद दिया। दस मिनट बाद फिर उसे पास बुलवाया। उसका मुंह सूजा हुआ था। बिना कुछ बोले उसके ओंठ हिल रहे थे। कोठरी में बंद होकर भी वह रोया नहीं।

मैंने कहा, “क्यों रे, अब तो अकल आई?” वह सुनता हुआ गुम-सुम खड़ा रहा।

          “अच्छा, पतंग वाला कौन सा है? दाई तरफ़ का चौराहे वाला?” उसने कुछ ओठों में ही बड़बड़ा दिया। जिसे मैं कुछ समझ न सका।

          “वह चौराहे वाला? बोलो…”

          “हां।

          “देखो, अपने चाचा के साथ चले जाओ। बता देना कि कौन सा है। फिर उसे स्वयं भुगत लेंगे। समझते हो न?” यह कहकर मैंने अपने भाई को बुलवाया। सब बात समझाकर कहा, “देखो, पांच आने के पैसे ले जाओ। पहले तुम दूर रहना। आशुतोष पैसे ले जाकर उसे देगा और अपनी पाजेब मांगेगा। अव्वल तो यह पाजेब लौटा ही देगा। नहीं तो उसे डांटना और कहना कि तुझे पुलिस के सुपुर्द कर दूंगा। बच्चों से माल ठगता है? समझे? नरमी की ज़रूरत नहीं हैं।

          “और आशुतोष, अब जाओ। अपने चाचा के साथ जाओ।वह अपनी जगह पर खड़ा था। सुनकर भी टस-से-मस होता दिखाई नहीं दिया।

          “नहीं जाओगे! उसने सिर हिला दिया कि नहीं जाऊंगा। मैंने तब उसे समझाकर कहा कि भैया घर की चीज़ है, दाम लगे हैं। भला पांच आने में रुपयों का माल किसी के हाथ खो दोगे! जाओ, चाचा के संग जाओ। तुम्हें कुछ नहीं कहना होगा। हां, पैसे दे देना और अपनी चीज़ वापस मांग लेना। दे तो दे, नहीं दे तो नहीं दे। तुम्हारा इससे कोई सरोकार नहीं। सच है न, बेटे! अब जाओ। पर वह जाने को तैयार ही नहीं दिखा। मुझे लड़के की गुस्ताखी पर बड़ा बुरा मालूम हुआ। बोला,“इसमें बात क्या है? इसमें मुश्किल कहां है? समझाकर बात कर रहे है सो समझता ही नहीं, सुनता ही नहीं।

          मैंने कहा कि,“क्यों रे नहीं जाएगा?” उसने फिर सिर हिला दिया कि नहीं जाऊंगा। मैंने प्रकाश, अपने छोटे भाई को बुलाया। कहा,“प्रकाश, इसे पकड़कर ले जाओ। प्रकाश ने उसे पकड़ा और आशुतोष अपने हाथ-पैरों से उसका प्रतिकार करने लगा। वह साथ जाना नहीं चाहता था। मैंने अपने ऊपर बहुत जब्र करके फिर आशुतोष को पुचकारा, कि जाओ भाई! डरो नहीं। अपनी चीज़ घर में आएगी। इतनी-सी बात समझते नहीं। प्रकाश इसे गोद में उठाकर ले जाओ और जो चीज़ मांगे उसे बाज़ार में दिला देना। जाओ भाई आशुतोष! पर उसका मुंह फूला हुआ था। जैसे-तैसे बहुत समझाने पर वह प्रकाश के साथ चला। ऐसे चला मानो पैर उठाना उसे भारी हो रहा हो। आठ बरस का यह लड़का होने को आया फिर भी देखो न कि किसी भी बात की उसमें समझ नहीं हैं। मुझे जो गुस्सा आया कि क्या बतलाऊं! लेकिन यह याद करके कि गुस्से से बच्चे संभलने की जगह बिगड़ते हैं, मैं अपने को दबाता चला गया। ख़ैर, वह गया तो मैंने चैन की सांस ली।

          लेकिन देखता क्या हूं कि कुछ देर में प्रकाश लौट आया है। मैंने पूछा, “क्यों?” बोला कि आशुतोष भाग आया है। मैंने कहा कि अब वह कहां है?”

          “वह रूठा खड़ा है, घर में नहीं आता।

          “जाओ, पकड़कर तो लाओ। वह पकड़ा हुआ आया। मैंने कहा, “क्यों रे, तू शरारत से बाज नहीं आएगा? बोल, जाएगा कि नहीं?” वह नहीं बोला तो मैंने कसकर उसके दो चांटे दिए। थप्पड़ लगते ही वह एक दम चीखा, पर फौरन चुप हो गया। वह वैसे ही मेरे सामने खड़ा रहा। मैंने उसे देखकर मारे गुस्से से कहा कि ले जाओ इसे मेरे सामने से। जाकर कोठरी में बंद कर दो। दुष्ट!

          इस बार वह आध-एक घंटे बंद रहा। मुझे ख्याल आया कि मैं ठीक नहीं कर रहा हूं, लेकिन जैसे कोई दूसरा रास्ता न दिखता था। मार-पीटकर मन को ठिकाना देने की आदत पड़ कई थी, और कुछ अभ्यास न था। ख़ैर, मैंने इस बीच प्रकाश को कहा कि तुम दोनों पतंग वाले के पास जाओ। मालूम करना कि किसने पाजेब ली है। होशियारी से मालूम करना। मालूम होने पर सख्ती करना। मुरव्वत की ज़रूरत नहीं। समझे। प्रकाश गया और लौटने पर बताया कि उसके पास पाजेब नहीं है। सुनकर मैं झल्ला आया, कहा कि तुमसे कुछ काम नहीं हो सकता। जरा सी बात नहीं हुई, तुमसे क्या उम्मीद रखी जाए? वह अपनी सफाई देने लगा। मैंने कहा, “बस, तुम जाओ। प्रकाश मेरा बहुत लिहाज मानता था। वह मुंह डालकर चला गया। कोठरी खुलवाने पर आशुतोष को फर्श पर सोता पाया। उसके चेहरे पर अब भी आंसू नहीं थे। सच पूछो तो मुझे उस समय बालक पर करुणा हुई। लेकिन आदमी में एक ही साथ जाने क्या-क्या विरोधी भाव उठते हैं!

          मैंने उसे जगाया। वह हड़बड़ाकर उठा। मैंने कहा, “कहो, क्या हालत है?” थोड़ी देर तक वह समझा ही नहीं। फिर शायद पिछला सिलसिला याद आया। झट उसके चेहरे पर वहीं जिद, अकड़ ओर प्रतिरोध के भाव दिखाई देने लगे। मैंने कहा कि या तो राजी-राजी चले जाओ नहीं तो इस कोठरी में फिर बंद किए देते हैं। आशुतोष पर इसका विशेष प्रभाव पड़ा हो, ऐसा मालूम नहीं हुआ।

          ख़ैर, उसे पकड़कर लाया और समझाने लगा। मैंने निकालकर उसे एक रुपया दिया और कहा, “बेटा, इसे पतंग वाले को दे देना और पाजेब मांग लेना कोई घबराने की बात नहीं। तुम समझदार लड़के हो। उसने कहा कि जो पाजेब उसके पास नहीं हुई तो वह कहां से देगा?

          “इसका क्या मतलब, तुमने कहा न कि पांच आने में पाजेब दी है। न हो तो छुन्नू को भी साथ ले लेना। समझे?” वह चुप हो गया। आखिर समझाने पर जाने को तैयार हुआ। मैंने प्रेमपूर्वक उसे प्रकाश के साथ जाने को कहा। उसका मुंह भारी देखकर डांटने वाला ही था कि इतने में सामने उसकी बुआ दिखाई दी।

          बुआ ने आशुतोष के सिर पर हाथ रखकर पूछा कि कहां जा रहे हो, मैं तो तुम्हारे लिए केले और मिठाई लाई हूं। आशुतोष का चेहरा रूठा ही रहा। मैंने बुआ से कहा कि उसे रोको मत, जाने दो। आशुतोष रुकने को उद्यत था। वह चलने में आनाकानी दिखाने लगा। बुआ ने पूछा, “क्या बात है?”

          मैंने कहा, “कोई बात नहीं, जाने दो न उसे। पर आशुतोष मचलने पर आ गया था। मैंने डांटकर कहा, “प्रकाश, इसे ले क्यों नहीं जाते हो?”

          बुआ ने कहा कि बात क्या है? क्या बात है?

          मैंने पुकारा, “बंसी, तू भी साथ जा। बीच से लौटने न पाए।सो मेरे आदेश पर दोनों आशुतोष को जबरदस्ती उठाकर सामने से ले गए। बुआ ने कहा, “क्यों उसे सता रहे हो?”

          मैंने कहा कि कुछ नहीं, जरा यों ही- फिर मैं उनके साथ इधर-उधर की बातें ले बैठा। राजनीति राष्ट्र की ही नहीं होती, मुहल्ले में भी राजनीति होती है। यह भार स्त्रियों पर टिकता है। कहां क्या हुआ, क्या होना चाहिए इत्यादि चर्चा स्त्रियों को लेकर रंग फैलाती है। इसी प्रकार कुछ बातें हुईं, फिर छोटा-सा बक्सा सरका कर बोली, इनमें वह कागज है जो तुमने मांगें थे। और यहां- यह कहकर उन्होंने अपने बास्कट की जेब में हाथ डालकर पाजेब निकालकर सामने की, जैसे सामने बिच्छू हों। मैं भयभीत भाव से कह उठा कि यह क्या?

          बोली कि उस रोज भूल से यह एक पाजेब मेरे साथ चली गई थी।

सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष
   

-         जैनेन्द्र कुमार

(जैनेन्द्र कुमार की यह कहानी पाजेब उत्तर प्रदेश में विभिन्न विश्वविद्यालयों की उच्च शिक्षा के नए एकीकृत पाठ्यक्रम में कक्षा बी ए द्वितीय वर्ष (तृतीय सेमेस्टर) के हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए रखी गयी है। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए हम पाठ्यक्रम के मूल पाठ को क्रमशः रखने का प्रयास कर रहे हैं। उसी कड़ी में यह कहानी। शीघ्र ही हम इसका पाठ कथावार्ता Kathavarta के यू ट्यूब चैनल पर प्रस्तुत करेंगे।

-        पाठ्यक्रम की दूसरी कहानियाँ यहाँ क्लिक करके पढ़ें-

1.    प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर

2. अज्ञेय की कहानी गैंग्रीन (रोज़)

3. यशपाल की कहानी परदा

    4.  फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी- तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम

    5.  ज्ञानरंजन की कहानी पिता

बी ए तृतीय सेमेस्टर के पाठ्यक्रम में निर्धारित निबंधों को यहाँ क्लिक करके पढ़ा जा सकता है  - सम्पादक)


बुधवार, 10 अगस्त 2022

केशवदास की कविप्रिया से

काव्य दूषण वर्णन (तीसरा प्रभाव)

 

समझैं बाला बालकहूंवर्णन पंथ अगाध।

कविप्रिया केशव करीछमियो कवि अपराध ॥1॥

          भावार्थ :- बालकयुवक और युवती आदि के समझने के लिएइस कविकर्म के गहरेदुरूह और कठिन  मार्ग का वर्णन करने के लिए(काव्य के अंग-उपांग आदि को समझाने के लिए) कवि केशव दास ने यह कविप्रिया नामक ग्रंथ बनाया है। यदि इस अनुक्रम में कोई अपराध हो जाये तो वह क्षमा कर दिया जाना चाहिए।

अलंकार कवितान केसुनि सुनि विविध विचार।

कवि प्रिया केशव करीकविता को सिंगार ॥2॥

          भावार्थ :- कवि केशवदास कहते हैं कि कविता के अलंकरण के सम्बन्ध में विविध प्रकार के आचार्य, कवियों, काव्य मर्मज्ञ जनों के विचार सुन सुनकर उन्होंने कविप्रिया का प्रबन्धन किया है ताकि कविता का शृंगार किया जा सके। 

          कविप्रिया प्रबंध में इन्हीं स्थापनाओं के कारण केशवदास को आचार्य का पद दिया गया है और उन्हें अलंकारवादी कहा गया है। वह कविता के सौन्दर्य में अलंकारों को बहुत महत्त्व देने वाले कवि/आचार्य हैं।

चरण धरत, चिन्ता करतनींद न भावत शोर।

सुबरण को सोधत फिरतकवि, व्यभिचारीचोर॥3॥

          भावार्थ :- केशवदास इस दोहे में श्लेष अलंकार का प्रयोग करते हुए लिखते हैं कि कवि, व्यभिचारी और चोर; तीनों ही प्रकार के लोगों को सुवर्ण की चाह रहती है और वह उसे खोजते फिरते हैं। सुवर्ण की चाह में ही वह अपने पैर रखते हैं यानि किसी भी तरह का प्रयास, उद्योग करते हैं। उसके विषय में सोचते और मनन करते हैं। इस क्रम में उन्हें नींद भी नहीं आती और उन्हें हल्ला-गुल्ला, शोर कतई पसंद नहीं आता। यहाँ सुवर्ण का अर्थ चोर के लिए सोना, व्यभिचारी के लिए अच्छे वर्ण यानि रंग-रूप वाला तथा कवि के लिए काव्योचित अक्षर हैं।

राजत रंच न दोष युतकविताबनिता, मित्र।

बुंदक हाला परत ज्योंगंगाघट अपवित्र॥4॥

          भावार्थ :- कवि केशवदास का मानना है कि कवितास्त्री तथा मित्र में थोड़ा सा भी दोष हो तो वह रंच मात्र भी शोभित नहीं होते। अर्थात दोषपूर्ण होने से कविता, स्त्री और मित्र अच्छा नहीं माने जाते। जिस प्रकार मदिरा की एक बूंद पड़ते ही गंगा जल का भरा हुआ पूरा घड़ा ही अपवित्र हो जाता है।

केशवदास

          (केशवदास हिन्दी में रीतिकाल के सबसे प्रतिभाशाली कवियों में से एक हैं। रामचंद्रिका, कविप्रिया, रसिकप्रिया, छंदमाला और जहांगीर जसचन्द्रिका उनकी प्रसिद्ध काव्य रचनाएँ हैं। इनमें उनका कवि और आचार्य रूप परस्पर गुंथा हुआ मिलता है। रामचन्द्रिका उनकी कीर्ति का आधार ग्रंथ है जिसमें छंदों का बाहुल्य है। केशवदास की कविता की गूढ़ता, विशिष्टता, चौंकाने वाली सोच तथा अभिनव प्रयोग करने की प्रवृत्ति ने उन्हें कठिन काव्य का प्रेत बना दिया है। रामचन्द्रिका में इतने प्रकार के छंद प्रयुक्त हुए हैं कि रामचन्द्र शुक्ल ने इस ग्रंथ को छंदों का अजायबघर कहा है।

          यहाँ उत्तर प्रदेश राज्य विश्वविद्यालय के बी ए प्रथम सेमेस्टर हिन्दी के विद्यार्थियों की सुविधा के लिए उनके पाठ्यक्रम में निर्धारित केशवदास की कविप्रिया से चार छंद (दोहा) और उनका भावार्थ प्रस्तुत किया गया है ताकि उन्हें समझने में आसानी हो।)

प्रस्तुति- डॉ रमाकान्त राय

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, 

इटावा उत्तर प्रदेश 206001

शनिवार, 6 अगस्त 2022

स्वाधीनता के 75 साल और हमारा सामाजिक ताना-बाना

         स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में अपने सामाजिक ताने-बाने पर विचार करते हुए सबसे पहला ध्यान तो इस यात्रा के आरंभिक बिन्दु पर जाता है, जब देश के पूर्वी और पश्चिमी भाग में भारी मार-काट मची थी और पाकिस्तान से रेलगाड़ियों में शव, बोरे की शक्ल में आ रहे थे। दोनों सीमाओं पर अफरा-तफरी मची थी और लोग अपने वतन की तलाश में शरणार्थी और मुहाजिर बनने को विवश थे। स्वाधीनता की पूर्व संध्या पर देश का सामाजिक ताना-बाना एक नया आकार ले रहा था। चयन शुद्ध सांप्रदायिक आधार पर हो रहा था। मुसलमान पाकिस्तान जा रहे थे और हिन्दू भारत में आने के लिए प्रयास कर रहे थे। संप्रदाय के आधार पर निर्मित राष्ट्र पाकिस्तान जाने के लिए बहुत से मुसलमान लालायित थे, कुछ विवश थे और कुछेक इस द्विविधा में थे कि क्या करें। सीमाओं पर हो रही गतिविधि देश के अंदरूनी हिस्सों में भी हलचल मचा रही थी। कुछ लोग देश छोड़कर जाने की तैयारी कर रहे थे, कुछ उनकी सहायता कर रहे थे, कुछ विवश कर रहे थे तो कुछ रोक रहे थे। पाकिस्तान के गठन ने इस देश के सामाजिक ढांचे को बुरी तरह उद्वेलित कर दिया था।

          हिन्दू और मुसलमान समुदाय का आपसी सम्बन्ध ही इस विश्लेषण के केंद्र में है क्योंकि भारत में सामाजिक ताना-बाना इन्हीं के आपसी सम्बन्धों का आईना है। अन्य सभी समुदाय इस अमृत काल तक छिटपुट घटनाओं को छोड़कर, जिसमें 1984 का भीषण सिख संहार शामिल है, लगभग शांतिपूर्ण सहअस्तित्त्व में है। संघर्ष और मेल के जो रिश्ते हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच हैं, वही भारत में सामाजिक ताने-बाने का आधार बनता है।

          स्वाधीनता प्राप्ति और विभाजन की विभीषिका से अंग्रेजों की बोई हुई सांप्रदायिकता वाली विषबेल कई सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक कारणों से फैलती गयी। विभाजन के बाद जब पाकिस्तान बना तो वह बाकायदा मुसलमानों का मुल्क बना और स्वाभाविक रूप से भारत को हिन्दुओं का देश मान लिया गया। यद्यपि भारत में कोई सामुदायिक बाध्यता नहीं थी और यहाँ सभी समुदायों की सुरक्षा, नागरिकता और अधिकारों को लेकर अतिरिक्त प्रयास किए गए। यह संदेश दिया गया कि यह देश मुसलमानों का भी उतना ही है जितना हिन्दुओं का। यदि विभाजन केन्द्रित कुछ हिन्दी उपन्यासों का अनुशीलन किया जाए, जैसे यशपाल का झूठा-सच’, शानी का काला जल’, राही मासूम रज़ा का आधा गाँव’, कमलेश्वर का लौटे हुए मुसाफिर’, बदीउज़्जमां का छाको की वापसी’, भीष्म साहनी का तमस आदि तो यह बात समझ में आती है कि जो मुसलमान भारत में ही रह गए, उनमें से कइयों को अपनी देशभक्ति प्रमाणित करने के लिए प्रयास करना पड़ा। देश में रह गए मुसलमान भी विभिन्न अवसरों पर अपनी निष्ठा के लिए संदेहास्पद बने।

          यह इतिहास का एक काला अध्याय है कि अभी हमारा देश विभाजन के दंश को ठीक से झेल भी नहीं पाया था कि स्वाधीनता प्राप्ति के एक साल के भीतर ही सन 1948 ई0 में पाकिस्तान की आक्रमणकारी नीति और कश्मीर मामले को लेकर दबाव में आ गया। जूनागढ़ और हैदराबाद के निजाम भी हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच वैमनस्य बढ़ाने वाले कारक के रूप में उभर रहे थे। 1965 ई0 और 1971 ई0 में निर्णायक युद्ध में पाकिस्तान बुरी तरह पराजित हुआ तो जनमानस में यह विभेद और बढ़ा। समय समय पर देश के भिन्न भिन्न शहरों में भीषण सांप्रदायिक दंगे हुए। इन दंगों से यह वैमनस्य बढ़ा। विभिन्न राजनीतिक कारणों से यह दंगे अधिक समय तक चलते रहे। प्रसिद्ध साहित्यकार राही मासूम रज़ा ने अपने एक लेख में बताया है कि भारत में केवल हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दंगे तीन से अधिक दिन तक चल सकते हैं।

          भारत के मुसलमानों के साथ दो तत्त्व बहुत गहराई से जुड़ गए थे, पाकिस्तान के साथ उनका सांप्रदायिक और आत्मीय आधार पर जुड़ाव और अरबों के साथ उत्पत्ति विषयक। यह दोनों ही तत्त्व भारत से उनके जुड़ाव में बाधक था। अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपने उपन्यास झीनी झीनी बीनी चदरिया में एक पात्र के व्यवहार से इस वृत्ति को बहुत सुंदरता से उद्घाटित किया है कि जब क्रिकेट मैच में “पाकिस्तान जीतता है, यह किक्की मुफ्त पान बांटने लगता है और हार की खबर सुनते ही दुकान बंद कर देता है।” यह सहानुभूति ऐसी दुखद सच्चाई है जो मुसलमानों के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ गयी है और आज भी ऐसे कई प्रकरण में यह दिखाई देती है और बहुत प्रमुखता से उछाली भी जाती है।

          पाकिस्तान के साथ भारतीय मुसलमानों का लगाव आत्मीयता और रिश्तेदारी से था तो अरब देशों की तरफ वह मक्का मदीना, यानि पवित्र धर्मस्थल की स्थिति से झुका। दुर्भाग्य से भारत के यह लोग अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लाभ-हानि के लिए भी अरबों के मुखापेक्षी हो गए। कई एक मामले, जिसमें मुसलमान अपने को प्रगतिशील दिखा सकते थे और बंद समाज के दायरे से निकल सकते थे, उन्होंने मध्य एशिया के मुस्लिम देशों, खलीफाओं की तरफ देखा और इस तरह वह हिन्दुओं की तरफ पीठ कर खड़े हो गए।

          जिस समय यूरोप और अमेरिका ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नई ऊँचाइयाँ हासिल कर रहे थे, भारत अपना अन्तरिक्ष कार्यक्रम आगे बढ़ा रहा था। भारत में हिन्दू तब स्वयं को उदार रखकर आगे बढ़ने के लिए सरकारी योजनाओं के साथ कदमताल कर रहा था, जबकि मुसलमान कट्टरता अपना रहा था। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, हुमायूँ कबीर, फख़रुद्दीन अली अहमद और करीम छागला से लेकर नुरुल हसन तक; आजादी के लगभग तीस साल तक भारत के शिक्षा मंत्री के पद पर मुसलमान नेता रहे किन्तु इस अवधि में मदरसा शिक्षा अधिक सांप्रदायिक रही। मुसलमान अपनी सांप्रदायिक पहचान के प्रति अधिक सजग बन रहा था। शाहबानो प्रकरण में यह देखा गया कि यह समुदाय अपने पारंपरिक तौर तरीकों में बदलाव के लिए कतई राजी नहीं है। राही मासूम रज़ा ने अपने एक लेख में बहुत तीक्ष्ण शब्दों में आलोचना करते हुए लिखा है कि इन्हें इस्लाम कटपीस में चाहिए। इस समुदाय में नए समाज के हिसाब से चलने की कोई ललक नहीं और इस क्रम में उसकी पक्षधरता अधिक संदेहास्पद हुई।

          उदारीकरण के साथ ही देश में सांप्रदायिकता के एक नए अध्याय का आरंभ हुआ। उदारीकरण से दुनिया एक गाँव में बदलने के लिए अपने मार्ग प्रशस्त कर रही थी। भारत में सामाजिक ढाँचा करवट ले रहा था। तब भारत में हिन्दुओं और मुसलमानों को सांप्रदायिक आधार पर गोलबंद किया गया। जब भगवान राम के जन्मस्थान अयोध्या में मुग़लों द्वारा राम मंदिर के स्थान पर बनाए गए ढांचे को लेकर राजनीति शुरू हुई, तो समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में भारी उथल पुथल मची। कांग्रेस ने जब कपाट खुलवाए और पूजा अर्चना शुरू की तो भाजपा ने रथयात्रा आरंभ की। दिसम्बर 1992ई0 में ढांचा ढहाए जाने के बाद देश भर में दंगे और प्रदर्शन हुए।

          ऐसा देखा गया कि 1992ई0 के बाद मुस्लिम समुदाय पूर्णरुपेण अरबों का मुखापेक्षी हो गया। यह समुदाय अधिक मुखर हुआ और उसने अपने सांप्रदायिक प्रतीकों का अधिक उग्रता से प्रदर्शन करना प्रारम्भ किया। काशीनाथ सिंह ने अपने उपन्यास काशी का अस्सी में एक संवाद में लक्षित किया कि मस्जिदों पर लाउडस्पीकर इस घटना के बाद रातों रात लगा दिये गए।

          आज स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में यह साफ देखा जा सकता है कि भारत में हिन्दू , सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि समुदाय नए ज्ञान-विज्ञान के साथ आने के लिए स्वयं में बदलाव हेतु व्यग्र हैं जबकि मुसलमान आकांक्षी होकर भी रूढ़ियों और कट्टरताओं में उलझा हुआ है। सरकार निरंतर योजना बनाती है कि वह युवाओं के हाथ में कुरान के साथ साथ कंप्यूटर भी देखना चाहती है किन्तु जैसा कि तुलसीदास लिख गए हैं- दोऊ की होऊ एक समय भुवाला। हंसब ठठाई फुलाईब गाला।

          आज मुस्लिम समुदाय अरब देशों के निर्देशों से संचालित हो रहा है। एक घटना मात्र होती है और इसकी व्यापक प्रतिक्रिया में अरब देश भी त्वरित उपस्थित होते हैं। अभी हाल के दिनों में टीवी बहस के एक प्रकरण को लेकर यह बहुत स्पष्ट तरीके से देखा गया। मुस्लिम समुदाय अपने सांप्रदायिक प्रतीकों को लेकर अधिक आग्रही है। जिस तरह ईरान, तुर्की, फ्रांस आदि देश क्रमशः कट्टरपंथ की तरफ अग्रसर हुए हैं, भारत में उसकी प्रतिच्छाया दिखी है। बच्चों के नामकरण से लेकर संस्कारों और दैनिक व्यवहारों में यह देखा जा सकता है। सड़कों पर अदा किया जाने वाला नमाज हो या शिक्षण संस्थानों में हिजाब का मामला, मुस्लिम समुदाय ने अपने प्रतिगामी रूप को अधिक प्रदर्शित किया है। यह प्रदर्शन बहुत आक्रामक दिखाई देता है। इसके विपरीत हिन्दू जनमानस अपने सांप्रदायिक प्रदर्शन से बचने का उपाय करता मिला है। वह नवधा भक्ति के समस्त कर्मकांड के स्थान पर उदारवादी रवैया रखते हुए सहिष्णु बनने के लिए हर तरह का मूल्य चुकाने को तत्पर दिखता है। यद्यपि आज कई प्रतिक्रियावादी घटनाएँ इस समुदाय को भी कट्टरता के दायरे में धकेल रही हैं किन्तु सामान्यतः यह समुदाय दूसरे को पर्याप्त स्थान देने के लिए सदैव प्रयासरत दिखाई देता है।

          स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में हम यह नहीं कह सकते कि भारत में इन दोनों समुदायों के बीच आगामी वर्षों में तीखापन नहीं आएगा। दुर्भाग्य से भारत में इस समय किए जा रहे सामाजिक सुधारों का, जिसमें तीन तलाक, कश्मीर मामला, सी ए ए और एनआरसी आदि शामिल हैं, मुस्लिम समुदाय विरोध कर रहा है और इस विरोध के पीछे कोई तार्किक आधार भी नहीं है। तब भी आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के एक वाक्य से अपनी बात खत्म करता हूँ- क्या निराश हुआ जाये?

(हस्तक्षेप दिनांक 05 अगस्त, 2022)

हम और हमारा सामाजिक ताना-बाना


 

 ------डॉ रमाकान्त राय

लेखक एवं विश्लेषक

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

728सिविल लाइंसइटावाउत्तर प्रदेश 206001

royramakantrk@gmail.com  9838952426

ट्विटर- ramakroy


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