शनिवार, 6 अगस्त 2022

स्वाधीनता के 75 साल और हमारा सामाजिक ताना-बाना

         स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में अपने सामाजिक ताने-बाने पर विचार करते हुए सबसे पहला ध्यान तो इस यात्रा के आरंभिक बिन्दु पर जाता है, जब देश के पूर्वी और पश्चिमी भाग में भारी मार-काट मची थी और पाकिस्तान से रेलगाड़ियों में शव, बोरे की शक्ल में आ रहे थे। दोनों सीमाओं पर अफरा-तफरी मची थी और लोग अपने वतन की तलाश में शरणार्थी और मुहाजिर बनने को विवश थे। स्वाधीनता की पूर्व संध्या पर देश का सामाजिक ताना-बाना एक नया आकार ले रहा था। चयन शुद्ध सांप्रदायिक आधार पर हो रहा था। मुसलमान पाकिस्तान जा रहे थे और हिन्दू भारत में आने के लिए प्रयास कर रहे थे। संप्रदाय के आधार पर निर्मित राष्ट्र पाकिस्तान जाने के लिए बहुत से मुसलमान लालायित थे, कुछ विवश थे और कुछेक इस द्विविधा में थे कि क्या करें। सीमाओं पर हो रही गतिविधि देश के अंदरूनी हिस्सों में भी हलचल मचा रही थी। कुछ लोग देश छोड़कर जाने की तैयारी कर रहे थे, कुछ उनकी सहायता कर रहे थे, कुछ विवश कर रहे थे तो कुछ रोक रहे थे। पाकिस्तान के गठन ने इस देश के सामाजिक ढांचे को बुरी तरह उद्वेलित कर दिया था।

          हिन्दू और मुसलमान समुदाय का आपसी सम्बन्ध ही इस विश्लेषण के केंद्र में है क्योंकि भारत में सामाजिक ताना-बाना इन्हीं के आपसी सम्बन्धों का आईना है। अन्य सभी समुदाय इस अमृत काल तक छिटपुट घटनाओं को छोड़कर, जिसमें 1984 का भीषण सिख संहार शामिल है, लगभग शांतिपूर्ण सहअस्तित्त्व में है। संघर्ष और मेल के जो रिश्ते हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच हैं, वही भारत में सामाजिक ताने-बाने का आधार बनता है।

          स्वाधीनता प्राप्ति और विभाजन की विभीषिका से अंग्रेजों की बोई हुई सांप्रदायिकता वाली विषबेल कई सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक कारणों से फैलती गयी। विभाजन के बाद जब पाकिस्तान बना तो वह बाकायदा मुसलमानों का मुल्क बना और स्वाभाविक रूप से भारत को हिन्दुओं का देश मान लिया गया। यद्यपि भारत में कोई सामुदायिक बाध्यता नहीं थी और यहाँ सभी समुदायों की सुरक्षा, नागरिकता और अधिकारों को लेकर अतिरिक्त प्रयास किए गए। यह संदेश दिया गया कि यह देश मुसलमानों का भी उतना ही है जितना हिन्दुओं का। यदि विभाजन केन्द्रित कुछ हिन्दी उपन्यासों का अनुशीलन किया जाए, जैसे यशपाल का झूठा-सच’, शानी का काला जल’, राही मासूम रज़ा का आधा गाँव’, कमलेश्वर का लौटे हुए मुसाफिर’, बदीउज़्जमां का छाको की वापसी’, भीष्म साहनी का तमस आदि तो यह बात समझ में आती है कि जो मुसलमान भारत में ही रह गए, उनमें से कइयों को अपनी देशभक्ति प्रमाणित करने के लिए प्रयास करना पड़ा। देश में रह गए मुसलमान भी विभिन्न अवसरों पर अपनी निष्ठा के लिए संदेहास्पद बने।

          यह इतिहास का एक काला अध्याय है कि अभी हमारा देश विभाजन के दंश को ठीक से झेल भी नहीं पाया था कि स्वाधीनता प्राप्ति के एक साल के भीतर ही सन 1948 ई0 में पाकिस्तान की आक्रमणकारी नीति और कश्मीर मामले को लेकर दबाव में आ गया। जूनागढ़ और हैदराबाद के निजाम भी हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच वैमनस्य बढ़ाने वाले कारक के रूप में उभर रहे थे। 1965 ई0 और 1971 ई0 में निर्णायक युद्ध में पाकिस्तान बुरी तरह पराजित हुआ तो जनमानस में यह विभेद और बढ़ा। समय समय पर देश के भिन्न भिन्न शहरों में भीषण सांप्रदायिक दंगे हुए। इन दंगों से यह वैमनस्य बढ़ा। विभिन्न राजनीतिक कारणों से यह दंगे अधिक समय तक चलते रहे। प्रसिद्ध साहित्यकार राही मासूम रज़ा ने अपने एक लेख में बताया है कि भारत में केवल हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दंगे तीन से अधिक दिन तक चल सकते हैं।

          भारत के मुसलमानों के साथ दो तत्त्व बहुत गहराई से जुड़ गए थे, पाकिस्तान के साथ उनका सांप्रदायिक और आत्मीय आधार पर जुड़ाव और अरबों के साथ उत्पत्ति विषयक। यह दोनों ही तत्त्व भारत से उनके जुड़ाव में बाधक था। अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपने उपन्यास झीनी झीनी बीनी चदरिया में एक पात्र के व्यवहार से इस वृत्ति को बहुत सुंदरता से उद्घाटित किया है कि जब क्रिकेट मैच में “पाकिस्तान जीतता है, यह किक्की मुफ्त पान बांटने लगता है और हार की खबर सुनते ही दुकान बंद कर देता है।” यह सहानुभूति ऐसी दुखद सच्चाई है जो मुसलमानों के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ गयी है और आज भी ऐसे कई प्रकरण में यह दिखाई देती है और बहुत प्रमुखता से उछाली भी जाती है।

          पाकिस्तान के साथ भारतीय मुसलमानों का लगाव आत्मीयता और रिश्तेदारी से था तो अरब देशों की तरफ वह मक्का मदीना, यानि पवित्र धर्मस्थल की स्थिति से झुका। दुर्भाग्य से भारत के यह लोग अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लाभ-हानि के लिए भी अरबों के मुखापेक्षी हो गए। कई एक मामले, जिसमें मुसलमान अपने को प्रगतिशील दिखा सकते थे और बंद समाज के दायरे से निकल सकते थे, उन्होंने मध्य एशिया के मुस्लिम देशों, खलीफाओं की तरफ देखा और इस तरह वह हिन्दुओं की तरफ पीठ कर खड़े हो गए।

          जिस समय यूरोप और अमेरिका ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नई ऊँचाइयाँ हासिल कर रहे थे, भारत अपना अन्तरिक्ष कार्यक्रम आगे बढ़ा रहा था। भारत में हिन्दू तब स्वयं को उदार रखकर आगे बढ़ने के लिए सरकारी योजनाओं के साथ कदमताल कर रहा था, जबकि मुसलमान कट्टरता अपना रहा था। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, हुमायूँ कबीर, फख़रुद्दीन अली अहमद और करीम छागला से लेकर नुरुल हसन तक; आजादी के लगभग तीस साल तक भारत के शिक्षा मंत्री के पद पर मुसलमान नेता रहे किन्तु इस अवधि में मदरसा शिक्षा अधिक सांप्रदायिक रही। मुसलमान अपनी सांप्रदायिक पहचान के प्रति अधिक सजग बन रहा था। शाहबानो प्रकरण में यह देखा गया कि यह समुदाय अपने पारंपरिक तौर तरीकों में बदलाव के लिए कतई राजी नहीं है। राही मासूम रज़ा ने अपने एक लेख में बहुत तीक्ष्ण शब्दों में आलोचना करते हुए लिखा है कि इन्हें इस्लाम कटपीस में चाहिए। इस समुदाय में नए समाज के हिसाब से चलने की कोई ललक नहीं और इस क्रम में उसकी पक्षधरता अधिक संदेहास्पद हुई।

          उदारीकरण के साथ ही देश में सांप्रदायिकता के एक नए अध्याय का आरंभ हुआ। उदारीकरण से दुनिया एक गाँव में बदलने के लिए अपने मार्ग प्रशस्त कर रही थी। भारत में सामाजिक ढाँचा करवट ले रहा था। तब भारत में हिन्दुओं और मुसलमानों को सांप्रदायिक आधार पर गोलबंद किया गया। जब भगवान राम के जन्मस्थान अयोध्या में मुग़लों द्वारा राम मंदिर के स्थान पर बनाए गए ढांचे को लेकर राजनीति शुरू हुई, तो समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में भारी उथल पुथल मची। कांग्रेस ने जब कपाट खुलवाए और पूजा अर्चना शुरू की तो भाजपा ने रथयात्रा आरंभ की। दिसम्बर 1992ई0 में ढांचा ढहाए जाने के बाद देश भर में दंगे और प्रदर्शन हुए।

          ऐसा देखा गया कि 1992ई0 के बाद मुस्लिम समुदाय पूर्णरुपेण अरबों का मुखापेक्षी हो गया। यह समुदाय अधिक मुखर हुआ और उसने अपने सांप्रदायिक प्रतीकों का अधिक उग्रता से प्रदर्शन करना प्रारम्भ किया। काशीनाथ सिंह ने अपने उपन्यास काशी का अस्सी में एक संवाद में लक्षित किया कि मस्जिदों पर लाउडस्पीकर इस घटना के बाद रातों रात लगा दिये गए।

          आज स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में यह साफ देखा जा सकता है कि भारत में हिन्दू , सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि समुदाय नए ज्ञान-विज्ञान के साथ आने के लिए स्वयं में बदलाव हेतु व्यग्र हैं जबकि मुसलमान आकांक्षी होकर भी रूढ़ियों और कट्टरताओं में उलझा हुआ है। सरकार निरंतर योजना बनाती है कि वह युवाओं के हाथ में कुरान के साथ साथ कंप्यूटर भी देखना चाहती है किन्तु जैसा कि तुलसीदास लिख गए हैं- दोऊ की होऊ एक समय भुवाला। हंसब ठठाई फुलाईब गाला।

          आज मुस्लिम समुदाय अरब देशों के निर्देशों से संचालित हो रहा है। एक घटना मात्र होती है और इसकी व्यापक प्रतिक्रिया में अरब देश भी त्वरित उपस्थित होते हैं। अभी हाल के दिनों में टीवी बहस के एक प्रकरण को लेकर यह बहुत स्पष्ट तरीके से देखा गया। मुस्लिम समुदाय अपने सांप्रदायिक प्रतीकों को लेकर अधिक आग्रही है। जिस तरह ईरान, तुर्की, फ्रांस आदि देश क्रमशः कट्टरपंथ की तरफ अग्रसर हुए हैं, भारत में उसकी प्रतिच्छाया दिखी है। बच्चों के नामकरण से लेकर संस्कारों और दैनिक व्यवहारों में यह देखा जा सकता है। सड़कों पर अदा किया जाने वाला नमाज हो या शिक्षण संस्थानों में हिजाब का मामला, मुस्लिम समुदाय ने अपने प्रतिगामी रूप को अधिक प्रदर्शित किया है। यह प्रदर्शन बहुत आक्रामक दिखाई देता है। इसके विपरीत हिन्दू जनमानस अपने सांप्रदायिक प्रदर्शन से बचने का उपाय करता मिला है। वह नवधा भक्ति के समस्त कर्मकांड के स्थान पर उदारवादी रवैया रखते हुए सहिष्णु बनने के लिए हर तरह का मूल्य चुकाने को तत्पर दिखता है। यद्यपि आज कई प्रतिक्रियावादी घटनाएँ इस समुदाय को भी कट्टरता के दायरे में धकेल रही हैं किन्तु सामान्यतः यह समुदाय दूसरे को पर्याप्त स्थान देने के लिए सदैव प्रयासरत दिखाई देता है।

          स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में हम यह नहीं कह सकते कि भारत में इन दोनों समुदायों के बीच आगामी वर्षों में तीखापन नहीं आएगा। दुर्भाग्य से भारत में इस समय किए जा रहे सामाजिक सुधारों का, जिसमें तीन तलाक, कश्मीर मामला, सी ए ए और एनआरसी आदि शामिल हैं, मुस्लिम समुदाय विरोध कर रहा है और इस विरोध के पीछे कोई तार्किक आधार भी नहीं है। तब भी आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के एक वाक्य से अपनी बात खत्म करता हूँ- क्या निराश हुआ जाये?

(हस्तक्षेप दिनांक 05 अगस्त, 2022)

हम और हमारा सामाजिक ताना-बाना


 

 ------डॉ रमाकान्त राय

लेखक एवं विश्लेषक

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

728सिविल लाइंसइटावाउत्तर प्रदेश 206001

royramakantrk@gmail.com  9838952426

ट्विटर- ramakroy


सोमवार, 1 अगस्त 2022

पंच परमेश्वर प्रेमचन्द की कहानी

जुम्मन शेख़ और अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होती थी। कुछ लेन-देन में भी साझा था। एक को दूसरे पर अटल विश्वास था। जुम्मन जब हज करने गए थेतब अपना घर अलगू को सौंप गए थेऔर अलगू जब कभी बाहर जातेतो जुम्मन पर अपना घर छोड़ देते थे। उनमें न खान-पान का व्यवहार थान धर्म का नाताकेवल विचार मिलते थे। मित्रता का मूलमंत्र भी यही है।

इस मित्रता का जन्म उसी समय हुआजब दोनों मित्र बालक ही थेऔर जुम्मन के पूज्य पिताजुमरातीउन्हें शिक्षा प्रदान करते थे। अलगू ने गुरु जी की बहुत सेवा की थीख़ूब रकाबियां मांजीख़ूब प्याले धोए। उनका हुक्का एक क्षण के लिए भी विश्राम न लेने पाता थाक्योंकि प्रत्येक चिलम अलगू को आध घंटे तक किताबों से अलग कर देती थी। अलगू के पिता पुराने विचारों के मनुष्य थे। उन्हें शिक्षा की अपेक्षा गुरु की सेवा-शुश्रूषा पर अधिक विश्वास था। वह कहते थे कि विद्या पढ़ने से नहीं आतीजो कुछ होता हैगुरु के आशीर्वाद से। बसगुरु जी की कृपा-दृष्टि चाहिए। अतएव यदि अलगू पर जुमराती शेख़ के आशीर्वाद अथवा सत्संग का कुछ फल न हुआतो यह मानकर संतोष कर लेगा कि विद्योपार्जन में उसने यथाशक्ति कोई बात उठा नहीं रखीविद्या उसके भाग्य ही में न थीतो कैसे आती?

मगर जुमराती शेख़ स्वयं आशीर्वाद के कायल न थे। उन्हें अपने सोटे पर अधिक भरोसा थाऔर उसी सोटे के प्रताप से आज आस-पास के गांवों में जुम्मन की पूजा होती थी। उनके लिखे हुए रेहननामे या बैनामे पर कचहरी का मुहर्रिर भी कलम न उठा सकता था। हलके का डाकियाकांस्टेबिल और तहसील का चपरासी-सब उनकी कृपा की आकांक्षा रखते थे। अतएव अलगू का मान उनके धन के कारण थातो जुम्मन शेख़ अपनी अनमोल विद्या से ही सबके आदरपात्र बने थे।

(2) 

जुम्मन शेख़ की एक बूढ़ी खाला (मौसी) थी। उसके पास कुछ थोड़ी-सी मिलकियत थीपरन्तु उसके निकट संबंधियों में कोई न था। जुम्मन ने लम्बे-चौड़े वादे करके वह मिलकियत अपने नाम लिखवा ली थी। जब तक दानपत्र की रजिस्ट्री न हुई थीतब तक खालाजान का ख़ूब आदर-सत्कार किया गया। उन्हें ख़ूब स्वादिष्ट पदार्थ खिलाये गए। हलवे-पुलाव की वर्षा-सी की गईपर रजिस्ट्री की मोहर ने इन ख़ातिरदारियों पर भी मानो मुहर लगा दी। जुम्मन की पत्नी करीमन रोटियों के साथ कड़वी बातों के कुछ तेज़तीखे सालन भी देने लगी। जुम्मन शेख़ भी निठुर हो गए। अब बेचारी खालाजान को प्रायः नित्य ही ऐसी बातें सुननी पड़ती थीं।

बुढ़िया न जाने कब तक जिएगी। दो-तीन बीघे ऊसर क्या दे दियामानो मोल ले लिया है! बघारी दाल के बिना रोटियां नहीं उतरतीं! जितना रुपया इसके पेट में झोंक चुकेउतने से तो अब तक गांव मोल ले लेते।

कुछ दिन खालाजान ने सुना और सहापर जब न सहा गया तब जुम्मन से शिकायत की। जुम्मन ने स्थानीय कर्मचारी-गृहस्वामी-के प्रबंध में दख़ल देना उचित न समझा। कुछ दिन तक और यों ही रो-धोकर काम चलता रहा। अंत में एक दिन खाला ने जुम्मन से कहा-बेटा! तुम्हारे साथ मेरा निर्वाह न होगा। तुम मुझे रुपए दे दिया करोमैं अपना पका-खा लूंगी।

जुम्मन ने धृष्टता के साथ उत्तर दिया-रुपए क्या यहां फलते हैं?

खाला ने नम्रता से कहा-मुझे कुछ रूखा-सूखा चाहिए भी कि नहींजुम्मन ने गम्भीर स्वर से जवाब दिया-तो कोई यह थोड़े ही समझा था कि तुम मौत से लड़कर आई हो?

खाला बिगड़ गयींउन्होंने पंचायत करने की धमकी दी। जुम्मन हंसेजिस तरह कोई शिकारी हिरन को जाल की तरफ़ जाते देख कर मन ही मन हंसता है। वह बोले-हांज़रूर पंचायत करो। फ़ैसला हो जाए। मुझे भी यह रात-दिन की खटखट पसंद नहीं। पंचायत में किसकी जीत होगीइस विषय में जुम्मन को कुछ भी संदेह न था। आस-पास के गांवों में ऐसा कौन थाजो उसके अनुग्रहों का ऋणी न होऐसा कौन थाजो उसको शत्रु बनाने का साहस कर सकेकिसमें इतना बल थाजो उसका सामना कर सकेआसमान के फरिश्ते तो पंचायत करने आवेंगे ही नहीं!

                                                (3)

इसके बाद कई दिन तक बूढ़ी खाला हाथ में एक लकड़ी लिए आस-पास के गाँवों में दौड़ती रही। कमर झुक कर कमान हो गई थी। एक-एक पग चलना दूभर थामगर बात आ पड़ी थी। उसका निर्णय करना ज़रूरी था।

बिरला ही कोई भला आदमी होगाजिसके सामने बुढ़िया ने दुःख के आंसू न बहाए हों। किसी ने तो यों ही ऊपरी मन से हूँ-हाँ करके टाल दियाऔर किसी ने इस अन्याय पर ज़माने को गालियां दीं! कहा-क़ब्र में पांव लटके हुए हैंआज मरे कल दूसरा दिनपर हवस नहीं मानती। अब तुम्हें क्या चाहिएरोटी खाओ और अल्लाह का नाम लो। तुम्हें अब खेती-बारी से क्या काम हैकुछ ऐसे सज्जन भी थेजिन्हें हास्य-रस के रसास्वादन का अच्छा अवसर मिला। झुकी हुई कमरपोपला मुंहसन के-से बाल-इतनी सामग्री एकत्र होंतब हंसी क्यों न आएऐसे न्यायप्रियदयालुदीन-वत्सल पुरुष बहुत कम थेजिन्होंने उस अबला के दुखड़े को ग़ौर से सुना हो और उसको सांत्वना दी हो। चारों ओर से घूम-घाम कर बेचारी अलगू चौधरी के पास आई। लाठी पटक दी और दम ले कर बोली-बेटातुम भी दम भर के लिए मेरी पंचायत में चले आना।

अलगू- मुझे बुला कर क्या करोगीकई गांव के आदमी तो आवेंगे ही।

खाला- अपनी विपद तो सबके आगे रो आई। अब आने-न-आने का अख़्तियार उनको है। हमारे गाजी मियां गाय की गुहार सुनकर पीढ़ी पर से उठ आए थे। क्या एक बेकस बुढ़िया की फरियाद पर कोई न दौड़ेगा?

अलगू- यों आने को आ जाऊंगामगर पंचायत में मुंह न खोलूंगा।

खाला- क्यों बेटा?

अलगू- अब इसका क्या जवाब दूंअपनी ख़ुशी। जुम्मन मेरा पुराना मित्र है। उससे बिगाड़ नहीं कर सकता।

खाला- बेटाक्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?

हमारे सोए हुए धर्म-ज्ञान की सारी सम्पत्ति लुट जाएतो उसे ख़बर नहीं होतीपरन्तु ललकार सुन कर वह सचेत हो जाता है। फिर उसे कोई जीत नहीं सकता। अलगू इस सवाल का कोई उत्तर न दे सकापर उसके हृदय में ये शब्द गूंज रहे थे- क्या बिगाड़ के भय से ईमान की बात न कहोगे?

(4)

संध्या समय एक पेड़ के नीचे पंचायत बैठी। शेख़ जुम्मन ने पहले से ही फ़र्श बिछा रखा था। उन्होंने पानइलायचीहुक्केतम्बाकू आदि का प्रबन्ध भी किया था। हांवह स्वयं अलबत्ता अलगू चौधरी के साथ ज़रा दूर पर बैठे हुए थे। जब पंचायत में कोई आ जाता थातब दबे हुए सलाम से उसका ‘शुभागमन’ करते थे। जब सूर्य अस्त हो गया और चिड़ियों की कलरवयुक्त पंचायत पेड़ों पर बैठीतब यहां भी पंचायत शुरू हुई। फ़र्श की एक-एक अंगुल जमीन भर गईपर अधिकांश दर्शक ही थे। निमंत्रित महाशयों में से केवल वे ही लोग पधारे थेजिन्हें जुम्मन से अपनी कुछ कसर निकालनी थी। एक कोने में आग सुलग रही थी। नाई ताबड़तोड़ चिलम भर रहा था। यह निर्णय करना असम्भव था कि सुलगते हुए उपलों से अधिक धुआं निकलता था या चिलम के दमों से। लड़के इधर-उधर दौड़ रहे थे। कोई आपस में गाली-गलौज करते और कोई रोते थे। चारों तरफ़ कोलाहल मच रहा था। गांव के कुत्ते इस जमाव को भोज समझ कर झुंड के झुंड जमा हो गए थे।

पंच लोग बैठ गएतो बूढ़ी खाला ने उनसे विनती की-

पंचोंआज तीन साल हुएमैंने अपनी सारी ज़ायदाद अपने भानजे जुम्मन के नाम लिख दी थी। इसे आप लोग जानते ही होंगे। जुम्मन ने मुझे ता-हयात रोटी-कपड़ा देना क़बूल किया। सालभर तो मैंने इसके साथ रो-धोकर काटा। पर अब रात-दिन का रोना नहीं सहा जाता। मुझे न पेट की रोटी मिलती है न तन का कपड़ा। बेकस बेवा हूँ। कचहरी-दरबार नहीं कर सकती। तुम्हारे सिवा और किसको अपना दुःख सुनाऊंतुम लोग जो राह निकाल दोउसी राह पर चलूं। अगर मुझमें कोई ऐब देखोतो मेरे मुंह पर थप्पड़ मारो। जुम्मन में बुराई देखोतो उसे समझाओक्यों एक बेकस की आह लेता है! मैं पंचों का हुक्म सिर-माथे पर चढ़ाऊंगी।

रामधन मिश्रजिनके कई असामियों को जुम्मन ने अपने गांव में बसा लिया थाबोले-जुम्मन मियांकिसे पंच बदते होअभी से इसका निपटारा कर लो। फिर जो कुछ पंच कहेंगेवही मानना पड़ेगा।

जुम्मन को इस समय सदस्यों में विशेषकर वे ही लोग दीख पड़ेजिनसे किसी न किसी कारण उनका वैमनस्य था। जुम्मन बोले- पंचों का हुक्म अल्लाह का हुक़्म है। खालाजान जिसे चाहेंउसे बदेंमुझे कोई उज्र नहीं।

खाला ने चिल्ला कर कहा- अरे अल्लाह के बन्दे! पंचों का नाम क्यों नहीं बता देताकुछ मुझे भी तो मालूम हो। जुम्मन ने क्रोध से कहा- अब इस वक़्त मेरा मुंह न खुलवाओ। तुम्हारी बन पड़ी हैजिसे चाहोपंच बदो।

खालाजान जुम्मन के आक्षेप को समझ गईंवह बोलीं- बेटाख़ुदा से डरोपंच न किसी के दोस्त होते हैंन किसी के दुश्मन। कैसी बात कहते हो! और तुम्हारा किसी पर विश्वास न होतो जाने दोअलगू चौधरी को तो मानते होलोमैं उन्हीं को सरपंच बदती हूँ।

जुम्मन शेख़ आनंद से फूल उठेपरंतु भावों को छिपा कर बोले- अलगू ही सहीमेरे लिए जैसे रामधन वैसे अलगू।

अलगू इस झमेले में फंसना नहीं चाहते थे। वे कन्नी काटने लगे। बोले- खालातुम जानती हो कि मेरी जुम्मन से गाढ़ी दोस्ती है।

खाला ने गम्भीर स्वर में कहा- बेटादोस्ती के लिए कोई अपना ईमान नहीं बेचता। पंच के दिल में ख़ुदा बसता है। पंचों के मुंह से जो बात निकलती हैवह ख़ुदा की तरफ़ से निकलती है।

अलगू चौधरी सरपंच हुए। रामधन मिश्र और जुम्मन के दूसरे विरोधियों ने बुढ़िया को मन में बहुत कोसा। अलगू चौधरी बोले- शेख़ जुम्मन! हम और तुम पुराने दोस्त हैं! जब काम पड़ातुमने हमारी मदद की है और हम भी जो कुछ बन पड़ातुम्हारी सेवा करते रहे हैंमगर इस समय तुम और बूढ़ी खालादोनों हमारी निगाह में बराबर हो। तुमको पंचों से जो कुछ अर्ज करनी होकरो।

जुम्मन को पूरा विश्वास था कि अब बाज़ी मेरी है। अलगू यह सब दिखावे की बातें कर रहा है। अतएव शांत-चित्त हो कर बोले-

पंचोंतीन साल हुए खालाजान ने अपनी ज़ायदाद मेरे नाम हिब्बा कर दी थी। मैंने उन्हें हीन-हयात खाना-कपड़ा देना क़बूल किया था। ख़ुदा गवाह हैआज तक मैंने खालाजान को कोई तक़लीफ़ नहीं दी। मैं उन्हें अपनी मां के समान समझता हूं। उनकी खिदमत करना मेरा फ़र्ज़ हैमगर औरतों में ज़रा अनबन रहती हैउसमें मेरा क्या बस हैखालाजान मुझसे माहवार ख़र्च अलग मांगती हैं। ज़ायदाद जितनी हैवह पंचों से छिपी नहीं। उससे इतना मुनाफ़ा नहीं होता है कि माहवार ख़र्च दे सकूं। इसके अलावा हिब्बानामे में माहवार ख़र्च का कोई जिक्र नहीं। नहीं तो मैं भूल कर भी इस झमेले में न पड़ता। बसमुझे यही कहना है। आइंदा पंचों का अख्तियार हैजो फ़ैसला चाहेंकरें।

अलगू चौधरी को हमेशा कचहरी से काम पड़ता था। अतएव वह पूरा क़ानूनी आदमी था। उसने जुम्मन से जिरह शुरू की। एक-एक प्रश्न जुम्मन के हृदय पर हथौड़े की चोट की तरह पड़ता था। रामधन मिश्र इन प्रश्नों पर मुग्ध हुए जाते थे। जुम्मन चकित थे कि अलगू को क्या हो गया। अभी यह अलगू मेरे साथ बैठा हुआ कैसी-कैसी बातें कर रहा था! इतनी ही देर में ऐसी कायापलट हो गई कि मेरी जड़ खोदने पर तुला हुआ है। न मालूम कब की कसर यह निकाल रहा हैक्या इतने दिनों की दोस्ती कुछ भी काम न आएगी?

जुम्मन शेख़ तो इसी संकल्प-विकल्प में पड़े हुए थे कि इतने में अलगू ने फ़ैसला सुनाया- जुम्मन शेख़! पंचों ने इस मामले पर विचार किया। उन्हें यह नीति-संगत मालूम होता है कि खालाजान को माहवार ख़र्च दिया जाए। हमारा विचार है कि खाला की ज़ायदाद से इतना मुनाफ़ा अवश्य होता है कि माहवार ख़र्च दिया जा सके। बसयही हमारा फ़ैसला हैअगर जुम्मन को ख़र्च देना मंजूर न होतो हिब्बानामा रद्द समझा जाए।

(5)

सुनते ही जुम्मन सन्नाटे में आ गए। जो अपना मित्र होवह शत्रु का व्यवहार करे और गले पर छुरी फेरेइसे समय के हेर-फेर के सिवा और क्या कहेंजिस पर पूरा भरोसा थाउसने समय पड़ने पर धोखा दिया। ऐसे ही अवसरों पर झूठे-सच्चे मित्रों की परीक्षा की जाती है। यही कलियुग की दोस्ती है। अगर लोग ऐसे कपटी-धोखेबाज़ न होतेतो देश में आपत्तियों का प्रकोप क्यों होतायह हैजा-प्लेग आदि व्याधियां दुष्कर्मों के ही दंड हैं।

मगर रामधन मिश्र और अन्य पंच अलगू चौधरी की इस नीति-परायणता की प्रशंसा जी खोलकर कर रहे थे। वे कहते थे-इसका नाम पंचायत है! दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। दोस्तीदोस्ती की जगह हैकिंतु धर्म का पालन करना मुख्य है। ऐसे ही सत्यवादियों के बल पर पृथ्वी ठहरी हैनहीं तो वह कब की रसातल को चली जाती।

इस फ़ैसले ने अलगू और जुम्मन की दोस्ती की जड़ हिला दी। अब वे साथ-साथ बातें करते नहीं दिखाई देते। इतना पुराना मित्रता-रूपी वृक्ष सत्य का एक झोंका भी न सह सका। सचमुच वह बालू की ही ज़मीन पर खड़ा था।

उनमें अब शिष्टाचार का अधिक व्यवहार होने लगा। एक दूसरे की आवभगत ज़्यादा करने लगा। वे मिलते-जुलते थेमगर उसी तरहजैसे तलवार से ढाल मिलती है।

जुम्मन के चित्त में मित्र की कुटिलता आठों पहर खटका करती थी। उसे हर घड़ी यही चिंता रहती थी कि किसी तरह बदला लेने का अवसर मिले।

                                                (6)

अच्छे कामों की सिद्धि में बड़ी देर लगती हैपर बुरे कामों की सिद्धि में यह बात नहीं होती। जुम्मन को भी बदला लेने का अवसर जल्द ही मिल गया। पिछले साल अलगू चौधरी बटेसर से बैलों की एक बहुत अच्छी गोई मोल लाए थे। बैल पछाहीं जाति के सुंदरबड़े-बड़े सींगोंवाले थे। महीनों तक आस-पास के गांव के लोग दर्शन करते रहे। दैवयोग से जुम्मन की पंचायत के एक महीने के बाद इस जोड़ी का एक बैल मर गया। जुम्मन ने दोस्तों से कहा-यह दगाबाज़ी की सज़ा है। इन्सान सब्र भले ही कर जाएपर ख़ुदा नेक-बद सब देखता है। अलगू को संदेह हुआ कि जुम्मन ने बैल को विष दिला दिया है। चौधराइन ने भी जुम्मन पर ही इस दुर्घटना का दोषारोपण किया। उसने कहा-जुम्मन ने कुछ कर-करा दिया है। चौधराइन और करीमन में इस विषय पर एक दिन ख़ूब ही वाद-विवाद हुआ। दोनों देवियों ने शब्द-बाहुल्य की नदी बहा दी। व्यंग्यवक्रोक्तिअन्योक्ति और उपमा आदि अलंकारों में बातें हुईं। जुम्मन ने किसी तरह शांति स्थापित की। उन्होंने अपनी पत्नी को डांट-डपट कर समझा दिया। वह उसे उस रणभूमि से हटा भी ले गए। उधर अलगू चौधरी ने समझाने-बुझाने का काम अपने तर्क-पूर्ण सोंटे से लिया।

अब अकेला बैल किस काम काउसका जोड़ बहुत ढूंढ़ा गयापर न मिला। निदान यह सलाह ठहरी कि इसे बेच डालना चाहिए। गांव में एक समझू सेठ थेवह इक्का-गाड़ी हांकते थे। गांव के गुड़-घी लाद कर मंडी ले जातेमंडी से तेलनमक भर लातेऔर गांव में बेचते। इस बैल पर उनका मन लहराया। उन्होंने सोचायह बैल हाथ लगे तो दिन-भर में बेखटके तीन खेपें हों। आजकल तो एक ही खेप में लाले पड़े रहते हैं। बैल देखागाड़ी में दौड़ायाबाल-भौंरी की पहचान कराईमोल-तोल किया और उसे ला कर द्वार पर बांध ही दिया। एक महीने में दाम चुकाने का वादा ठहरा। चौधरी को भी गरज थी हीघाटे की परवाह न की।

समझू सेठ ने नया बैल पायातो लगे उसे रगेदने। वह दिन में तीन-तीनचार-चार खेपें करने लगे। न चारे की फ़िक्र थीन पानी कीबस खेपों से काम था। मंडी ले गएवहां कुछ सूखा भूसा सामने डाल दिया। बेचारा जानवर अभी दम भी न लेने पाया था कि फिर जोत दिया। अलगू चौधरी के घर था तो चैन की बंशी बजती थी। बैलराम छठे-छमाहे कभी बहली में जोते जाते थे। ख़ूब उछलते-कूदते और कोसों तक दौड़ते चले जाते थे। वहां बैलराम का रातिब था-साफ़ पानीदली हुई अरहर की दाल और भूसे के साथ खलीऔर यही नहींकभी-कभी घी का स्वाद भी चखने को मिल जाता था। शाम-सबेरे एक आदमी खरहरे करतापोंछता और सहलाता था। कहां वह सुख-चैनकहां यह आठों पहर की खपत! महीने भर ही में वह पिस-सा गया। इक्के का जुआ देखते ही उसका लहू सूख जाता था। एक-एक पग चलना दूभर था। हड्डियां निकल आई थींपर था वह पानीदारमार की बरदाश्त न थी।

एक दिन चौथी खेप में सेठ जी ने दूना बोझ लादा। दिन-भर का थका जानवरपैर न उठते थे। पर सेठ जी कोड़े फटकारने लगे। बसफिर क्या थाबैल कलेजा तोड़ कर चला। कुछ दूर दौड़ा और चाहा कि जरा दम ले लूंपर सेठ जी को जल्द पहुंचने की फ़िक्र थीअतएव उन्होंने कई कोड़े बड़ी निर्दयता से फटकारे। बैल ने एक बार फिर ज़ोर लगायापर अबकी बार शक्ति ने जवाब दे दिया। वह धरती पर गिर पड़ाऔर ऐसा गिरा कि फिर न उठा। सेठ जी ने बहुत पीटाटांग पकड़ कर खींचानथनों में लकड़ी ठूंस दीपर कहीं मृतक भी उठ सकता हैतब सेठ जी को कुछ शक हुआ। उन्होंने बैल को गौर से देखाखोल कर अलग कियाऔर सोचने लगे कि गाड़ी कैसे घर पहुंचे। बहुत चीखे-चिल्लाएपर देहात का रास्ता बच्चों की आंख की तरह सांझ होते ही बंद हो जाता है। कोई नज़र न आया। आस-पास कोई गांव भी न था। मारे क्रोध के उन्होंने मरे हुए बैल पर और दुर्रे लगाये और कोसने लगे-अभागे। तुझे मरना ही थातो घर पहुंच कर मरता! ससुरा बीच रास्ते ही में मर रहा! अब गाड़ी कौन खींचेइस तरह सेठ जी ख़ूब जले-भुने। कई बोरे गुड़ और कई पीपे घी उन्होंने बेचे थेदो-ढाई सौ रुपए कमर में बंधे थे। इसके सिवा गाड़ी पर कई बोरे नमक के थेअतएव छोड़ कर जा भी न सकते थे। लाचार बेचारे गाड़ी पर ही लेट गए। वहीं रतजगा करने की ठान ली। चिलम पीगाया। फिर हुक्का पिया। इस तरह सेठ जी आधी रात तक नींद को बहलाते रहे। अपनी जान में तो वह जागते ही रहेपर पौ फटते ही जो नींद टूटी और कमर पर हाथ रखातो थैली ग़ायब! घबरा कर इधर-उधर देखातो कई कनस्तर तेल भी नदारत! अफ़सोस में बेचारे ने सिर पीट लिया और पछाड़ खाने लगा। प्रातःकाल रोते-बिलखते घर पहुंचे। सेठानी ने जब यह बुरी सुनावनी सुनीतब पहले तो रोईफिर अलगू चौधरी को गालियां देने लगी-निगोड़े ने ऐसा कुलच्छनी बैल दिया कि जन्म भर की कमाई लुट गई।

इस घटना को हुए कई महीने बीत गए। अलगू जब अपने बैल के दाम मांगते तब सेठ और सेठानीदोनों ही झल्लाए हुए कुत्ते की तरह चढ़ बैठते और अंड-बंड बकने लगते- वाह! यहां तो सारे जन्म की कमाई लुट गईसत्यानाश हो गयाइन्हें दामों की पड़ी है। मुर्दा बैल दिया थाउस पर दाम मांगने चले हैं! आंखों में धूल झोंक दीसत्यानाशी बैल गले बांध दियाहमें निरा पोंगा ही समझ लिया है! हम भी बनिए के बच्चे हैंऐसे बुद्धू कहीं और होंगे। पहले जा कर किसी गड़हे में मुंह धो आओतब दाम लेना। न जी मानता होतो हमारा बैल खोल ले जाओ। महीना भर के बदले दो महीना जोत लो। और क्या लोगे?

चौधरी के अशुभचिंतकों की कमी न थी। ऐसे अवसरों पर वे भी एकत्र हो जाते और सेठ जी के बर्राने की पुष्टि करते। परन्तु डेढ़ सौ रुपए से इस तरह हाथ धो लेना आसान न था। एक बार वह भी गरम पड़े। सेठ जी बिगड़ कर लाठी ढूंढ़ने घर में चले गए। अब सेठानी ने मैदान लिया। प्रश्नोत्तर होते-होते हाथापाई की नौबत आ पहुंची। सेठानी ने घर में घुस कर किवाड़ बंद कर लिए। शोरगुल सुन कर गांव के भलेमानस जमा हो गए। उन्होंने दोनों को समझाया। सेठ जी को दिलासा दे कर घर से निकाला। वह परामर्श देने लगे कि इस तरह से काम न चलेगा। पंचायत कर लो। जो कुछ तय हो जायउसे स्वीकार कर लो। सेठ जी राज़ी हो गए। अलगू ने भी हामी भर ली।

(7)

पंचायत की तैयारियां होने लगीं। दोनों पक्षों ने अपने-अपने दल बनाने शुरू किए। इसके बाद तीसरे दिन उसी वृक्ष के नीचे पंचायत बैठी। वही संध्या का समय था। खेतों में कौए पंचायत कर रहे थे। विवादग्रस्त विषय था यह कि मटर की फलियों पर उनका कोई स्वत्व है या नहींऔर जब तक यह प्रश्न हल न हो जाएतब तक वे रखवाले की पुकार पर अपनी अप्रसन्नता प्रकट करना आवश्यक समझते थे। पेड़ की डालियों पर बैठी शुक-मंडली में यह प्रश्न छिड़ा हुआ था कि मनुष्यों को उन्हें बेमुरौवत कहने का क्या अधिकार हैजब उन्हें स्वयं अपने मित्रों से दगा करने में भी संकोच नहीं होता।

पंचायत बैठ गईतो रामधन मिश्र ने कहा-अब देरी क्या हैपंचों का चुनाव हो जाना चाहिए। बोलो चौधरीकिस-किस को पंच बदते हो।

अलगू ने दीन भाव से कहा- समझू सेठ ही चुन लें।

समझू खड़े हुए और कड़क कर बोले- मेरी ओर से जुम्मन शेख़।

जुम्मन का नाम सुनते ही अलगू चौधरी का कलेजा धक्-धक् करने लगामानो किसी ने अचानक थप्पड़ मार दिया हो। रामधन अलगू के मित्र थे। वह बात को ताड़ गए। पूछा- क्यों चौधरी तुम्हें कोई उज्र तो नहीं।

चौधरी ने निराश हो कर कहा- नहींमुझे क्या उज्र होगा?

    *                          *                       *                  *

अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है। जब हम राह भूल कर भटकने लगते हैंतब यही ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ-प्रदर्शक बन जाता है।

पत्र-संपादक अपनी शांति कुटी में बैठा हुआ कितनी धृष्टता और स्वतंत्रता के साथ अपनी प्रबल लेखनी से मंत्रिमंडल पर आक्रमण करता हैपरंतु ऐसे अवसर आते हैंजब वह स्वयं मंत्रिमंडल में सम्मिलित होता है। मंडल के भवन में पग धरते ही उसकी लेखनी कितनी मर्मज्ञकितनी विचारशीलकितनी न्यायपरायण हो जाती है। इसका कारण उत्तरदायित्व का ज्ञान है।

नवयुवक युवावस्था में कितना उद्दंड रहता है। माता-पिता उसकी ओर से कितने चिंतित रहते हैं! वे उसे कुल-कलंक समझते हैंपरन्तु थोड़े ही समय में परिवार का बोझ सिर पर पड़ते ही वह अव्यवस्थित-चित्त उन्मत्त युवक कितना धैर्यशीलकैसा शांतचित्त हो जाता हैयह भी उत्तरदायित्व के ज्ञान का फल है।

जुम्मन शेख़ के मन में भी सरपंच का उच्च स्थान ग्रहण करते ही अपनी जिम्मेदारी का भाव पैदा हुआ। उसने सोचामैं इस वक्त न्याय और धर्म के सर्वोच्च आसन पर बैठा हूं। मेरे मुंह से इस समय जो कुछ निकलेगावह देववाणी के सदृश है-और देववाणी में मेरे मनोविकारों का कदापि समावेश न होना चाहिए। मुझे सत्य से जौ भर भी टलना उचित नहीं!

पंचों ने दोनों पक्षों से सवाल-जवाब करने शुरू किए। बहुत देर तक दोनों दल अपने-अपने पक्ष का समर्थन करते रहे। इस विषय में तो सब सहमत थे कि समझू को बैल का मूल्य देना चाहिए। परंतु दो महाशय इस कारण रियायत करना चाहते थे कि बैल के मर जाने से समझू को हानि हुई। इसके प्रतिकूल दो सभ्य मूल्य के अतिरिक्त समझू को दंड भी देना चाहते थेजिससे फिर किसी को पशुओं के साथ ऐसी निर्दयता करने का साहस न हो। अंत में जुम्मन ने फ़ैसला सुनाया-

अलगू चौधरी और समझू साहु! पंचों ने तुम्हारे मामले पर अच्छी तरह विचार किया। समझू को उचित है कि बैल का पूरा दाम दें। जिस वक़्त उन्होंने बैल लियाउसे कोई बीमारी न थी। अगर उसी समय दाम दे दिए जातेतो आज समझू उसे फेर लेने का आग्रह न करते। बैल की मृत्यु केवल इस कारण हुई कि उससे बड़ा कठिन परिश्रम लिया गया और उसके दाने-चारे का कोई अच्छा प्रबंध न किया गया।

रामधन मिश्र बोले- समझू ने बैल को जान-बूझ कर मारा हैअतएव उससे दंड लेना चाहिए।

जुम्मन बोले- यह दूसरा सवाल है! हमको इससे कोई मतलब नहीं!

झगड़ू साहु ने कहा- समझू के साथ कुछ रियायत होनी चाहिए।

जुम्मन बोले- यह अलगू चौधरी की इच्छा पर निर्भर है। यह रियायत करेंतो उनकी भलमनसी।

अलगू चौधरी फूले न समाए। उठ खड़े हुए और ज़ोर से बोले- पंच-परमेश्वर की जय!

इसके साथ ही चारों ओर से प्रतिध्वनि हुई- पंच-परमेश्वर की जय!

प्रत्येक मनुष्य जुम्मन की नीति को सराहता था- इसे कहते हैं न्याय! यह मनुष्य का काम नहींपंच में परमेश्वर वास करते हैंयह उन्हीं की महिमा है। पंच के सामने खोटे को कौन खरा कह सकता है?

थोड़ी देर बाद जुम्मन अलगू के पास आए और उनके गले लिपट कर बोले- भैयाजब से तुमने मेरी पंचायत की तब से मैं तुम्हारा प्राणघातक शत्रु बन गया थापर आज मुझे ज्ञात हुआ कि पंच के पद पर बैठ कर न कोई किसी का दोस्त होता हैन दुश्मन। न्याय के सिवा उसे और कुछ नहीं सूझता। आज मुझे विश्वास हो गया कि पंच की जबान से ख़ुदा बोलता है।

अलगू रोने लगे। इस पानी से दोनों के दिलों का मैल धुल गया। मित्रता की मुरझाई हुई लता फिर हरी हो गई।

प्रेमचन्द
- प्रेमचन्द

(प्रेमचन्द की यह कहानी पंच परमेश्वर उत्तर प्रदेश में विभिन्न विश्वविद्यालयों की उच्च शिक्षा के नए एकीकृत पाठ्यक्रम में कक्षा बी ए द्वितीय वर्ष (तृतीय सेमेस्टर) के हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए रखी गयी है। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए हम पाठ्यक्रम के मूल पाठ को क्रमशः रखने का प्रयास कर रहे हैं। उसी कड़ी में यह कहानी। शीघ्र ही हम इसका पाठ कथावार्ता Kathavarta के यू ट्यूब चैनल पर प्रस्तुत करेंगे।

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1.    जैनेन्द्र कुमार की कहानी पाजेब

2. अज्ञेय की कहानी गैंग्रीन (रोज़)

3. यशपाल की कहानी परदा

    4.  फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी- तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम

    5.  ज्ञानरंजन की कहानी पिता


बी ए तृतीय सेमेस्टर के पाठ्यक्रम में निर्धारित निबंधों को यहाँ क्लिक करके पढ़ा जा सकता है  - सम्पादक)

 

पंच परमेश्वर को पुनः पुनः पढ़ते हुए

प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर सबसे पहले जमाना उर्दू मासिक पत्रिका में मई-जून 1916 में प्रकाशित हुई थी। अगले महीने जून-1916 में मासिक पत्रिका सरस्वती में यह कहानी हिन्दी रूप में आई और प्रेमचंद की कहानियों का संकलन सप्त-सरोज (1917) में शामिल हुई। मानसरोवर के सातवें भाग में यह कहानी संकलित है। प्रेमचंद की यह कहानी कालजयी कहानियों में गिनी जाने लगी है और इसके संवाद का एक अंश- “क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?” ने दुनिया भर के पाठकों को उद्वेलित किया है। आज यह कहानी किसी भी भाषा की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली कहानियों में से एक है और तमाम पाठ्यक्रमों में शामिल।

          पंच परमेश्वर न्याय में निरपेक्षता की बात करने वाली कहानी है। न्याय की वेदी पर आसीन व्यक्ति परमेश्वर के समान हो जाता है और समदर्शी हो जाता है। उसकी व्यक्तिगत अथवा सार्वजनिक स्वार्थ से जुड़ी किसी भी तरह की संकीर्णता उस वेदी पर आसीन होते ही तिरोहित हो जाती है। वह सही अर्थों में न्याय करने लगता है। अलगू चौधरी और जुम्मन शेख, दोनों ही ऐसा करते हुए दिखते हैं जबकि मानवीय स्वभाव और दुनियादारी इसके ठीक उलट व्यवहार करती। आज जबकि न्याय की वेदी कटघरे में हैं और आए दिन कोलेजियम, इको-सिस्टम, पक्षधरता आदि की ध्वनियाँ सुनाई पड़ रही हैं, तब यह कहानी और भी प्रासंगिक हो जाती है। क्या बिगाड़ के भय से ईमान की बात न कहोगे?’

          प्रेमचंद की यह कहानी बहुत प्रभावोत्पादक है और उनकी आदर्शवादी कहानियों में से एक मानी जाती है। यह कहानी पढ़ते हुए एक बात बारम्बार ध्यान में आती है कि भारत में संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका की व्यवस्था के समय इस परंपरागत न्याय प्रणाली को अछूता क्यों छोड़ दिया। भारतीय समाज अपने विवाद को स्थानीय व्यवस्था से जैसे सुलझा लिया करता था, उसे न्याय प्रणाली में कोई स्थान क्यों नहीं दिया गया? यद्यपि आज भी पंचायत की व्यवस्था है तथापि उसकी न्याय प्रणाली को मान्यता नहीं है। क्यों?

पंच परमेश्वर कहानी का एक काल्पनिक दृश्य (साभार)

       पंच परमेश्वर कहानी पढ़ते हुए मुझे बार-बार लगता है कि प्रेमचंद इस कहानी का विषय कुछ और लेकर चले थे किन्तु किसी क्षण में यह न्याय और पंचायत की प्रणाली की कहानी बन गयी। कहानी 7 अनुच्छेद में है और प्रथम अनुच्छेद जुम्मन शेख और अलगू चौधरी की गाढ़ी मित्रता और विद्यार्जन की प्रक्रिया के सम्बन्ध में है। “जुम्मन शेख और अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होती थी। कुछ लेन-देन में भी साझा था। एक को दूसरे पर अटल विश्वास था।” यह विश्वास बचपन से ही बना था जब अलगू चौधरी, जुम्मन शेख के पिता जुमेराती के यहाँ विद्याध्ययन के लिए जाया करते थे।

          प्रेमचंद जिस तरह यह शुरुआत करते हैं, वह तथाकथित गंगा-जमुनी तहजीब का आधार बिन्दु है। अलगू चौधरी और जुम्मन के बीच व्यवहार को देखकर यह कहीं भी प्रतीत नहीं होता कि भारतीय समाज में सांप्रदायिक आधार पर अश्पृश्यता और विभेद जैसी कोई चीज थी/है। गाँव में भी लोग किसी भेद को नहीं मानते थे। प्रेमचंद के लेखन में यह एक यूटोपिक सीन है।

अब एक दूसरे बिन्दु से देखें- कहानी में आता है कि जुमेराती जो जुम्मन के पिता हैं; दोनों बालकों, जुम्मन और अलगू को शिक्षा प्रदान करते थे। अलगू ने गुरुजी की बहुत सेवा की- खूब रकाबियाँ माँजीं, खूब प्याले धोये। उनका हुक्का एक क्षण के लिए भी विश्राम नहीं लेने पाता था, क्योंकि प्रत्येक चिलम अलगू को आध घंटे तक किताबों से मुक्त कर देती थी।” और जुम्मन? जुम्मन गलत पाठ अथवा पढ़ाई न करने पर छड़ी से पीटे जाते थे। परिणाम यह हुआ कि जुम्मन के “लिखे हुए रिहन नामे या बैनामे पर कचहरी का मुहर्रिर भी कलम नहीं उठा सकता था।” इस प्रकार अलगू का मान उनके धन के कारण था, तो जुम्मन शेख अपनी अमोल विद्या ही से सबके आदर पात्र बने थे।” एकबार प्रश्न उठता है कि क्या जुमेराती शिक्षा देने में भेदभाव करते थे? वह अलगू चौधरी काम में उलझाए रखते थे और जुम्मन को पढ़ाई में? उनका बार-बार हुक्का भरना कफन कहानी के घीसू-माधव की याद दिलाता है जिनमें से घीसू एक दिन काम करता था तो तीन दिन आराम और माधव आध घंटे काम करता और घंटे भर चिलम पीता।

पंच-परमेश्वर कहानी में न्याय का आदर्श है। मित्र होते हुए भी अलगू, जुम्मन का पक्ष नहीं लेते। जुम्मन भी खुन्नस के बावजूद अलगू के पक्ष में फैसला देते हैं। बहुत सोना-सोना सा वातावरण है। मानवीयता, न्याय, सद्भावना, ईमान आदि बातें इस कहानी को पढ़ने पर कौंधती हैं। सब कुछ भला-भला प्रतीत होता है और एक सुखद अंत के साथ कहानी पूरी होती है। पुनः पुनः पढ़ते हुए यह कहानी कुछ दूसरी बातों की ओर सोचने के लिए प्रवृत्त करती है। जुमेराती की शिक्षा पद्धति पर थोड़ी बात हुई है। भीष्म साहनी की एक कहानी है, अमृतसर आ गया है। इस कहानी पर विचार करते हुए एक बार प्रश्न कौंधा था कि क्या होता यदि कहानी में रेल यात्रा अमृतसर से शुरू होती और जेहलम स्टेशन से गाड़ी आगे बढ़ती। क्या होता यदि पंच परमेश्वर कहानी में अलगू चौधरी और समझू सेठ की दोस्ती और न्याय की कहानी चलती। क्या तब भी यह कहानी उसी तरह प्रभावोत्पादक रहती? यह कहानी हिन्दू-मुसलमान समुदाय के दो सदस्यों की कहानी होने से एक अलग भाव बोध को जन्म देती है। उनका साझा भाव इस कहानी को अधिक प्रभावशाली बनाता है।

पंच परमेश्वर कहानी में जुम्मन शेख ने अपनी खाला की मिल्कियत अपने नाम चढ़ा ली थी और उन्हें बेसहारा छोड़ दिया था। प्रेमचंद की कहानियों में यह प्रसंग बहुधा आते हैं। बूढ़ी काकी कहानी में बुद्धिराम ने भी अपनी काकी की संपत्ति अपने नाम करवा ली थी और उन्हें कलपने के लिए छोड़ दिया था। दोनों कहानियों में खूब पढे-लिखे लड़के हैं। जुम्मन और बुद्धिराम, दोनों। क्या प्रेमचंद इस तरफ भी कोई संकेत करते हैं कि पढ़-लिखकर व्यक्ति अधिक स्वार्थी व्यवहार करने लगता है? इस कहानी में तो जुम्मन शेख अलगू चौधरी से इस कदर रुष्ट हो जाते हैं कि उनके एक जोड़ी बैलों में से एक को जहर दे देते हैं। किसान को चोट पहुंचाने का यह प्रचलित तरीका था। गोदान में होरी की गाय को तो उसका भाई जहर दे देता है। एक अन्य कहानी मुक्ति मार्ग में भी प्रेमचंद ने इसे दिखाया है, जहां झींगुर, बुद्धू की बछिया को जहर दे देता है।

प्रेमचंद के पास कई कथा-रूढ़ियाँ हैं। गोवंश को जहरीला पदार्थ खिला कर मार देना एक विशिष्ट प्रसंग है। यह उनका कथा कौशल है कि वह इन कथा रूढ़ियों को बहुत कुशलता से पिरो देते हैं और उसे कहानी का अनिवार्य और सहज अंग बना लेते हैं। इसके साथ ही प्रेमचंद का एक अन्य कौशल है कि वह अपनी कहानियों में स्थापनाएं बहुत सुचिन्तित तरीके से करते हैं। इस कहानी में उत्तरदायित्व के ज्ञान से उपजी गंभीरता और उससे आए बोध को बहुत स्वाभाविक तरीके से रखा है।

पंच परमेश्वर कहानी, केवल कहानी मात्र नहीं है, यह मनुष्य के बदलते भाव और उसके अनुरूप किए जाने वाले व्यवहार की गाथा है। यह कहानी बार-बार पढ़ी जानी चाहिए ताकि न्याय और उसकी वेदी पर आसीन होने वाले व्यक्ति को इसका बोध हो सके कि उसका कर्तव्य क्या है। उसे बिगाड़ के भय से ईमान का मार्ग नहीं त्यागना है।

(राष्ट्रीय सहारा समाचार पत्र के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)


-   डॉ रमाकान्त राय

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उत्तर प्रदेश, 206001

9838952426, royramakantrk@gmail.com 


बुधवार, 20 जुलाई 2022

महामारी और हिन्दी साहित्य

-डॉ रमाकान्त राय

वर्तमान समय में समूचा विश्व एक विशेष किस्म की महामारी से जूझ रहा है। इसका नाम कोविड_19 रखा गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड_19 को वैश्विक महामारी घोषित किया है। कोविड_19 तीन शब्दों का एक संक्षिप्त नाम है- को का आशय है- कोरोना, वि का अर्थ वायरस और डी से अभिप्राय डिजिज़ है। इस प्रकार यह कोरोना वाइरस डिजिज़ है। इसका पता 2019 के दिसंबर में लगा इसलिए इसमें 19 भी जुड़ा है। सबसे पहले वैज्ञानिकों ने यही परिलक्षित किया कि यह फ्लू का ही एक प्रकार है। फ्लू का अन्य रूप स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू, इन्फ़्लुएंजा आदि भी है। खांसी जुकाम भी एक किस्म का फ्लू ही है। कोविड_19 की एक विशेष बात यह है कि यह एक संक्रामक व्याधि है। संक्रामक व्याधि उसे कहते हैं जो संक्रमण करते हुए एक दूसरे को चपेट में लेता है। हैजा, चेचक, फ्लू , मलेरिया आदि संक्रामक व्याधियाँ हैं। यह व्याधियाँ किसी प्रोटोजोआ, कवक, जीवाणु अथवा विषाणु के माध्यम से फैलती हैं। अपने संक्रामक चरित्र के कारण यह व्याधियाँ महामारी का रूप धारण कर लेती हैं।

          फ्रांसीसी साहित्यकार अल्बेर कामू का बहुत प्रसिद्ध उपन्यास प्लेग है। यह प्लेग महामारी पर आधारित है। इसी प्रकार रूसी उपन्यासकर अलेक्षान्द्र कुप्रिन ने गाड़ी वालों का कटरा नाम से उपन्यास लिखा है जिसमें यौन संक्रामक बीमारी की विभीषिका वर्णित है। हिन्दी साहित्य में महामारी का उल्लेख कई प्रसिद्ध रचनाओं मे हुआ है। हिन्दी की पहली आत्मकथा मानी जाने वाली बनारसी दास जैन की  “अर्धकथानक” में लेखक के महामारी से ग्रस्त होने का प्रसंग आया है। हिन्दी की प्रारम्भिक कहानियों मे परिगणित की जाने वाली मास्टर भगवान दास की कहानी प्लेग की चुड़ैल तो प्लेग की महामारी पर ही आधारित है। यह कहानी सन 1902 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी में गाँव में प्लेग का प्रकोप फैलने और लोगों के भय, आशंका, डर और अमानवीयता का बहुत सुंदर चित्रण हुआ है। यह कहानी हालांकि घटना प्रधान है और चमत्कार के प्रभाव से आगे बढ़ती है लेकिन प्लेग महामारी से लोगों में उपज रहे डर और उसकी विभीषिका को यह बहुत अच्छी तरह से व्यक्त करती है।

          महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग में दो छोटे-छोटे अध्याय महामारी को केन्द्रित कर लिखे हैं। जब वह दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग में थे तब फेफड़ों की बीमारी प्लेग का प्रकोप हुआ था। गांधी जी ने इस व्याधि से ग्रस्त लोगों की सेवा शुश्रूषा शुरू की। उनके देखभाल की परिधि में कुल तेईस लोग थे। इनमें 21 काल कवलित हुए थे। गांधी जी ने अङ्ग्रेज़ी सरकार द्वारा महामारी से बचाव के लिए पैसा पानी की तरह बहाये जाने का उल्लेख किया है और महामारी के समाप्त हो जाने पर उस लोकेशन की होली करने की बात लिखी है, जहां यह महामारी थी। इस क्रम में म्यूनिसपैलिटी को इस होली में लगभग दस हजार पौंड का नुकसान हुआ।

          1918-19 में इन्फ़्लुएञ्जा नामक महामारी का प्रकोप भारत में हुआ। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने 1939 में प्रकाशित अपने आत्मकथात्मक उपन्यास कुल्ली भाट में इस महामारी के प्रकोप का कारुणिक वर्णन किया है। परिवार के लोगों के एक-एक कर मरने, गंगा नदी में बहती लाशों का विवरण रोंगटे खड़ा कर देता है। इसी महामारी में उनकी पत्नी का भी देहांत हुआ। उनके उपन्यास “अलका” का आरंभ भी एक महामारी के वर्णन से होता है। “महासमर का अंत हो गया है, भारत में महाव्याधि फैली हुई है। एकाएक महासमर की जहरीली गैस ने भारत को घर के धुएँ की तरह घेर लिया है, चारो ओर त्राहि त्राहि, हाय हाय – विदेशों से, भिन्न प्रान्तों से जितने यात्री रेल से रवाना हो रहे हैं, सब अपने घरवालों की अचानक बीमारी का हाल पाकर। युक्त प्रांत में इसका और भी प्रकोप, गंगा, यमुना, सरयू, बेतवा, बड़ी-बड़ी नदियों में लाशों के मारे जल का प्रवाह रुक गया है। .... गंगा के दोनों ओर दो-दो तीन-तीन कोस दूर तक जो मरघट हैं, उनमें एक-एक दिन में दो-दो हजार तक लाशें पहुँचती हैं। जलमय दोनों किनारे शवों से ठसे हुए, बीच में प्रवाह की बहुत ही क्षीण रेखा, घोर दुर्गंध, दोनों ओर एक-एक मील तक रहा नहीं जाता। जल-जन्तु, कुत्ते, गीध, सियार लाश छूते तक नहीं”। महामारी का यह वर्णन रोंगटे खड़े कर देता है। इस रचना में बड़ी संख्या में हुई मौतों का कारुणिक वर्णन है।

          फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास “मैला आँचल” में मलेरिया का मार्मिक वर्णन है। मेरीगंज का नाम जिस मार्टिन की पत्नी मेरी के नाम पर पड़ा है, उसकी मृत्यु मलेरिया ग्रस्त होने से हुई। मार्टिन इस आघात के बाद मेरीगंज में डिस्पेन्सरी खुलवाने के लिए बहुत प्रयास करता है। समूचे उपन्यास में मलेरिया और कालाआजार नामक बीमारियों का अनेकश: उल्लेख है और डॉ प्रशांत उससे मुक्ति के लिए शोधरत है। वह इसमें कुछ हद तक सफल भी होता है हालांकि यह अलग बात है कि वह अपने अनुसंधान में एक अन्य ही व्याधि की तरफ संकेत करता है- “गरीबी और जहालत- इस रोग के दो कीटाणु हैं। एनोफिलीज़ से भी ज्यादा खतरनाक, सैंडफ़्लाइ (कालाआजार का मच्छर) से ज्यादा जहरीले हैं यहाँ के...”। महामारी को केन्द्रीकृत करके फणीश्वर नाथ रेणु ने “पहलवान की ढोलक” शीर्षक से एक कहानी लिखी है। यह कहानी दिसंबर 1944 में साप्ताहिक विश्वामित्र में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी में समूचे गाँव में पहले अनावृष्टि, फिर अन्न की कमी, तब मलेरिया और हैजे के प्रकोप का वर्णन किया गया है। इस वज्रपात के कारण समूचे गाँव में लोग काल कवलित होने लगे थे। जब पहलवान के दोनों बेटे भी एक दिन हैजे की भेंट चढ़ जाते हैं तो भी पहलवान गाँव वालों को ढाढ़स बंधाने के लिए रात-रात भर ढोलक बजाता रहता है लेकिन एक सुबह पहलवान की चित लाश मिलती है। उसके ढोलक को सियारों ने फाड़ डाला था और पहलवान की जांघ भी काट खाया था। यह कहानी महामारी की विभीषिका में पहलवान की जीवटता का बेहतरीन आख्यान है।

          हिन्दी में कमलाकांत त्रिपाठी ने अपने तीन उपन्यासों- पाहीघर, सरयू से गंगा और तरंग में महामारी को कथानक का अंग बनाया है। पाहीघर और सरयू से गंगा में हैजे से गाँव के गाँव नष्ट हो जाने की बात कथानक का अंश बनकर आई है तो तरंग में सन 1896 में फैले प्लेग को एक फ्लैश बैक के रूप मे याद किया गया है। पाहीघर उपन्यास में गुरुदत्त बैशाख के एक दिन भीलमपुर से हैजा लेकर लौटते हैं और अपने डेरे पर आकर दम तोड़ देते हैं। हैजा इस कदर संयुक्त प्रान्त में जानलेवा हो गया था कि उससे हुई मृत्यु पर रोना वर्जित था। ग्रामवासियों में दस्तूर था कि हैजे की लाश जलायी नहीं जाएगी।

राष्ट्रीय सहारा के सामयिक में प्रकाशित

   राही मासूम रज़ा ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास “आधा गाँव” में गंगौली में फैली चेचक का जिक्र किया है। शहर से लौटा मासूम जब मुमताज़ को देखने जाता है तो उसे बताया जाता है कि मुमताज़ को माता निकल आई हैं। यह माता चेचक का ग्रामीण संस्करण है। चेचक भी एक महामारी की तरह ही आई और देश में रही। मुमताज़ को चेचक निकल आई हैं तो घर भर में उससे बचाव के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। मरीज से किसी को मिलने नहीं दिया जा रहा, फुन्नन मियां नीम की टहनी से हवा कर रहे हैं और घर की रसोई बहुत सादा भोजन वाली हो गयी है क्योंकि रुकय्ये की शिकायत है कि “चार दिन से तरकारी खाते खाते नाक में दम आ गवा है”।

          इन साहित्यिक कृतियों में एक बात ध्यान देने योग्य है कि सबमें यह महामारी किसी न किसी रूप में बाहर से आई होती है। जान-माल की बेतरह क्षति के बाद यह महामारी अपना प्रकोप तभी समेटती है जब मौसम बदल जाता है। इन व्याधियों के आगमन से गाँव के गाँव नष्ट हो जाते हैं। महामारी के फैलने पर समाज में इससे लड़ने का कोई कारगर उपाय नहीं है। लोग देसी उपचार करते हैं और कई बार सफल भी हो जाते हैं। महात्मा गांधी की आत्मकथा से पता चलता है कि संक्रामक बीमारी के प्रकोप से बचाने के क्रम में बहुत खर्चीला उपाय किया जाता था। महात्मा गांधी ने देसी उपाय कर ही दो बीमारों को प्लेग के प्रकोप से बचा लिया जबकि आधुनिक चिकित्सा पद्धति का उपयोग करके सभी बीस मरीज बचाए नहीं जा सके। उनकी सेवा शुश्रूषा में रत नर्स भी इस संक्रमण और ब्राण्डी का सेवन करने के बावजूद बचाई नहीं जा सकी। एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य की तरफ ध्यान आकृष्ट करते हुए अपनी बात समाप्त करूंगा। जिन भी रचनाओं का उल्लेख इस आलेख में किया गया है उसमें अधिकांश औपन्यासिक रचनाओं के आरंभ में ही महामारी के प्रकोप का वर्णन है- यह इसलिए कि महामारी एक जीवन के अन्त की घोषणा और दूसरे जीवन के आगमन की उम्मीद का नाम है। कोविड_19 का यह नवीनतम संस्करण भी इसी तरह के एक नए जीवन की उम्मीद का अध्याय बनेगा।

-असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

 इटावा, उ०प्र०
  9838952426, royramakantrk@gmail.com

सद्य: आलोकित!

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